सोमवार, 11 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीब्रह्मोवाच -
भूतभावन भूतेश देवदेव जगन्मय ।
मुञ्चैनं हृतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम् ॥ २१ ॥
कृत्स्ना तेऽनेन दत्ता भूर्लोकाः कर्मार्जिताश्च ये ।
निवेदितं च सर्वस्वं आत्माविक्लवया धिया ॥ २२ ॥
यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय
     दूर्वाङ्‌कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम् ।
अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं
     दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत् ॥ २३ ॥

ब्रह्माजीने कहासमस्त प्राणियोंके जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो ! अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अत: अब यह दण्डका पात्र नहीं है ॥ २१ ॥ इसने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मोंसे उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मातक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही है, यह धैर्यसे च्युत नहीं हुआ है ॥ २२ ॥ प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदयसे कृपणता छोडक़र आपके चरणोंमें जलका अघ्र्य देता है और केवल दूर्वादलसे भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। फिर बलिने तो बड़ी प्रसन्नतासे धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकीका दान कर दिया है। तब यह दु:खका भागी कैसे हो सकता है ? ॥ २३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




रविवार, 10 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीशुक उवाच
तस्यानुश्रृण्वतो राजन् प्रह्रादस्य कृताञ्जलेः ।
हिरण्यगर्भो भगवान् उवाच मधुसूदनम् ॥ १८ ॥
बद्धं वीक्ष्य पतिं साध्वी तत्पत्‍नी भयविह्वला ।
प्राञ्जलिः प्रणतोपेन्द्रं बभाषेऽवांमुखी नृप ॥ १९ ॥

श्रीविन्ध्यावलिरुवाच
क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत्कृतं ते
     स्वाम्यं तु तत्र कुधियोऽपर ईश कुर्युः ।
कर्तुः प्रभोस्तव किमस्यत आवहन्ति
     त्यक्तह्रियस्त्वदवरोपितकर्तृवादाः ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! प्रह्लादजी अञ्जलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान्‌ ब्रह्माजीने वामनभगवान्‌से कुछ कहना चाहा ॥ १८ ॥ परंतु इतनेमें ही राजा बलिकी परम साध्वी पत्नी विन्ध्यावलीने अपने पतिको बँधा देखकर भयभीत हो भगवान्‌के चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान्‌से बोली ॥ १९ ॥
विन्ध्यावली ने कहाप्रभो ! आपने अपनी क्रीडाके लिये ही इस सम्पूर्ण जगत्की रचना की है। जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपनेको इसका स्वामी मानते हैं। जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी मायासे मोहित होकर अपनेको झूठमूठ कर्ता माननेवाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे ? ॥ २० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीप्रह्लाद उवाच

त्वयैव दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितं
     हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम् ।
मन्ये महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो
     विभ्रंशितो यच्छ्रिय आत्ममोहनात् ॥ १६ ॥
यया हि विद्वानपि मुह्यते यतः
     तत् को विचष्टे गतिमात्मनो यथा ।
तस्मै नमस्ते जगदीश्वराय वै
     नारायणायाखिललोकसाक्षिणे ॥ १७ ॥

प्रह्लादजीने कहाप्रभो ! आपने ही बलिको यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया। आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी ! मैं समझता हूँ कि आपने इसपर बड़ी भारी कृपा की है, जो आत्माको मोहित करनेवाली राज्यलक्ष्मीसे इसे अलग कर दिया ॥ १६ ॥ प्रभो। लक्ष्मी के मद से तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। उसके रहते भला, अपने वास्तविक स्वरूपको ठीक-ठीक कौन जान सकता है ? अत: उस लक्ष्मीको छीनकर महान् उपकार करनेवाले, समस्त जगत् के महान् ईश्वर, सबके हृदय में विराजमान और सबके परम साक्षी श्रीनारायणदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥

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शनिवार, 9 नवंबर 2019

“ श्रीमद्भगवद्गीता “ भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी है

“ श्रीमद्भगवद्गीता “ भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी है
वेद, भगवान के नि:श्वास हैं और गीता भगवान की वाणी है | नि:श्वास तो स्वाभाविक होते हैं,पर गीता भगवान ने योग में स्थित होकर कही है | अत: वेदों की अपेक्षा भी गीता विशेष है |
“ न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषत:|
परं हि ब्रह्म कथितं योग्युक्तेन तन्मया ||” (महाभारत आश्व०१६/१२-१३)
गीता उपनिषदों का सार है | गीता की बात उपनिषदों से ही विशेष है |गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है केवल जीव के कल्याण का ही आग्रह है | मतभेद यदि कोई है तो गीता में नहीं , प्रतुत टीकाकारों में है | गीता में भगवान साधक को समग्र की ओर ले जाते हैं | सगुण निर्गुण,साकार-निराकार, द्विभुज,चतुर्भुज,सहस्रभुज आदि सब रूप परमात्मा के ही अंतर्गत हैं | समग्र रूप में कोई भी रूप बाकी नहीं रहता | किसी की भी उपासना करें,सम्पूर्ण उपासनाएं, सम्पूर्ण दर्शन,समग्र रूप के अंतर्गत आ जाते हैं | अत: सब कुछ परमात्मा के ही अंतर्गत है, परमात्मा के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ भी नहीं- इसी भाव में सम्पूर्ण गीता है | गीता का तात्पर्य “वासुदेव: सर्वम्” में है | एक परमात्म तत्व के सिवाय दूसरी सत्ता की मान्यता रहने से प्रवृत्ति का उदय होता है और दूसरी सत्ता की मान्यता मिटने से निवृत्ति की दृढता होती है | प्रवृत्ति का उदय होना ‘भोग’ है और निवृत्ति की दृढता होना ‘योग’ है |
गीता “सब कुछ परमात्मा है”-- ऐसा मानती है और इसी को महत्त्व देती है | संसार में कार्यरूप से,कारणरूप से,प्रभावरूप से, सब रूपों से “में-ही-में-हूं” यह बताने के लिये भगवान ने गीता में चार जगह (सातवें,नवें,दसवें,और पन्द्रहवें अध्याय मे) अपनी विभूतियों का वर्णन किया है | ब्रह्म (निर्गुण-निराकार),कृत्स्न अध्यात्म (अनंत योनियों के अनंत जीव), अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ), अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत्) अधिदैव (मन,इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अंतर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)- ये सब -के -सब “ वासुदेव:सर्वम् “ के अंतर्गत आ जाते हैं (सातवें अध्याय का उन्तीसवाँ -तीसवां श्लोक) | तात्पर्य है कि सत् , असत् और उसके परे जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा ही हैं – “त्वमक्षरं सद्सत्त्परं यत्” (गीता ११/३७) |
संसार अपने राग के कारण ही दीखता है | राग के कारण ही दूसरी सत्ता दीखती है | राग न हों तो एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है | जैसे भगवान ने कहा है – “सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:” (गीता १५/१५) “ मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूं “ | जिस हृदय में भगवान रहते हैं, उसी हृदय में राग-द्वेष, हलचल,अशांति होते हैं | हृदय में ही सुख होता है और हृदय में ही दु:ख आता है | समुद्र मंथन में वहीं से विष निकला,वहीं से अमृत निकला | भगवान शंकर ने विष पी लिया तो अमृत निकल आया | इसी तरह राग द्वेष को मिटा दें तो परमात्मा निकल आएंगे | सन्त महात्माओं के हृदय में राग द्वेष नहीं रहते; अत: वहाँ परमात्मा रहते हैं | गीता, ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों को समकक्ष और लौकिक बताती है | क्षर (जगत् और अक्षर (जीव) दोनों लौकिक हैं – “द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च” (गीता १५/१६१६) पर भगवान अलौकिक हैं – “उत्तम:पुरुषस्त्वन्य:” (गीता १५/१७) क्षर को लेकर कर्मयोग और अक्षर को लेकर ज्ञान योग चलता है; अत: कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों लौकिक हैं | परन्तु भक्तियोग भगवान को लेकर चलता है; अत: भक्तियोग अलौकिक है |
भगवान की वाणी बड़े बड़े ऋषि-मुनियों की वाणी से भी ठोस और श्रेष्ट है; क्योंकि भगवान, ऋषि-मुनियों के भी आदि हैं— “ अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश: “ (गीता १०/२) अत: कितने ही बड़े ऋषी – मुनि, सन्त महात्मा क्यों न हों और उनकी वाणी कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हों, पर वह भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी “ गीता “ की बराबरी नहीं कर सकती |
(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भगवद्गीता साधक संजीवनी कोड 6 से संकलित)


श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीशुक उवाच -
तस्येत्थं भाषमाणस्य प्रह्रादो भगवत्प्रियः ।
आजगाम कुरुश्रेष्ठ राकापतिरिवोत्थितः ॥ १२ ॥
तमिन्द्रसेनः स्वपितामहं श्रिया
     विराजमानं नलिनायतेक्षणम् ।
प्रांशुं पिशंगांबरमञ्जनत्विषं
     प्रलंबबाहुं शुभगर्षभमैक्षत ॥ १३ ॥
तस्मै बलिर्वारुणपाशयन्त्रितः
     समर्हणं नोपजहार पूर्ववत् ।
ननाम मूर्ध्नाश्रुविलोललोचनः
     सव्रीडनीचीनमुखो बभूव ह ॥ १४ ॥
स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिं
     हरिं सुनन्दाद्यनुगैरुपासितम् ।
उपेत्य भूमौ शिरसा महामना
     ननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविक्लवः ॥ १५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमा के समान भगवान्‌ के प्रेम-पात्र प्रह्लादजी वहाँ आ पहुँचे ॥ १२ ॥ राजा बलि ने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं। कमल के समान कोमल नेत्र हैं, लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीरपर पीताम्बर धारण किये हुए हैं ॥ १३ ॥ बलि इस समय वरुणपाशमें बँधे हुए थे। इसलिये प्रह्लादजी के आनेपर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके। उनके नेत्र आँसुओंसे चञ्चल हो उठे, लज्जाके मारे मुँह नीचा हो गया। उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ॥ १४ ॥ प्रह्लादजी ने देखा कि भक्तवत्सल भगवान्‌ वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। प्रेमके उद्रेक से प्रह्लादजी का शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखोंमें आँसू छलक आये। वे आनन्दपूर्ण हृदयसे सिर झुकाये अपने स्वामीके पास गये और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ १५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

पितामहो मे भवदीयसम्मतः
     प्रह्लाद आविष्कृतसाधुवादः ।
भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसं
     संप्रापितस्त्वं परमः स्वपित्रा ॥ ८ ॥
किमात्मनानेन जहाति योऽन्ततः
     किं रिक्थहारैः स्वजनाख्यदस्युभिः ।
किं जायया संसृतिहेतुभूतया
     मर्त्यस्य गेहैः किमिहायुषो व्ययः ॥ ९ ॥
इत्थं स निश्चित्य पितामहो महान्
     अगाधबोधो भवतः पादपद्मम् ।
ध्रुवं प्रपेदे ह्यकुतोभयं जनाद्
     भीतः स्वपक्षक्षपणस्य सत्तम ॥ १० ॥
अथाहमप्यात्मरिपोस्तवान्तिकं
     दैवेन नीतः प्रसभं त्याजितश्रीः ।
इदं कृतान्तान्तिकवर्ति जीवितं
     ययाध्रुवं स्तब्धमतिर्न बुध्यते ॥ ११ ॥

प्रभो ! मेरे पितामह प्रह्लादजी की कीर्ति सारे जगत् में प्रसिद्ध है। वे आपके भक्तों में श्रेष्ठ माने गये हैं। उनके पिता हिरण्यकशिपु ने आपसे वैर-विरोध रखनेके कारण उन्हें अनेकों प्रकार के दु:ख दिये; परंतु वे आपके ही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आपपर ही निछावर कर दिया ॥ ८ ॥ उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीरको लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है। जो धन- सम्पत्ति लेनेके लिये स्वजन बने हुए हैं, उन डाकुओंसे अपना स्वार्थ ही क्या है ? पत्नीसे भी क्या लाभ है, जब वह जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्रमें डालनेवाली ही है। जब मर ही जाना है, तब घरसे मोह करनेमें भी क्या स्वार्थ है ? इन सब वस्तुओंमें उलझ जाना तो केवल अपनी आयु खो देना है ॥ ९ ॥ ऐसा निश्चय करके मेरे पितामह प्रह्लादजीने, यह जानते हुए भी कि आप लौकिक दृष्टिसे उनके भाई-बन्धुओंके नाश करनेवाले शत्रु हैं, फिर आपके ही भयरहित एवं अविनाशी चरण- कमलोंकी शरण ग्रहण की थी। क्यों न होवे संसारसे परम विरक्त, अगाध बोधसम्पन्न, उदार- हृदय एवं संतशिरोमणि जो हैं ॥ १० ॥ आप उस दृष्टिसे मेरे भी शत्रु हैं, फिर भी विधाताने मुझे बलात् ऐश्वर्य-लक्ष्मीसे अलग करके आपके पास पहुँचा दिया है। अच्छा ही हुआ; क्योंकि ऐश्वर्य- लक्ष्मीके कारण जीवकी बुद्धि जड हो जाती है और वह यह नहीं समझ पाता कि मेरा यह जीवन मृत्युके पंजेमें पड़ा हुआ और अनित्य है॥ ११ ॥

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शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

पुंसां श्लाघ्यतमं मन्ये दण्डमर्हत्तमार्पितम् ।
यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशन्ति हि ॥ ४ ॥
त्वं नूनमसुराणां नः परोक्षः परमो गुरुः ।
यो नोऽनेकमदान्धानां विभ्रंशं चक्षुरादिशत् ॥ ५ ॥
यस्मिन् वैरानुबन्धेन व्यूढेन विबुधेतराः ।
बहवो लेभिरे सिद्धिं यामु हैकान्तयोगिनः ॥ ६ ॥
तेनाहं निगृहीतोऽस्मि भवता भूरिकर्मणा ।
बद्धश्च वारुणैः पाशैः नातिव्रीडे न च व्यथे ॥ ७ ॥

अपने पूजनीय गुरुजनों के द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्र के लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है। क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता, भाई और सुहृद् भी मोहवश नहीं दे पाते ॥ ४ ॥ आप छिपे रूप से अवश्य ही हम असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अत: आप हमारे परम गुरु हैं। जब हमलोग धन, कुलीनता, बल आदि के मद से अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओं को हम से छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं ॥ ५ ॥ आप से हमलोगों का जो उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ ? अनन्यभाव से योग करनेवाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते हैं, वही सिद्धि बहुत-से असुरोंको आपके साथ दृढ़ वैरभाव करनेसे ही प्राप्त हो गयी है ॥ ६ ॥ जिनकी ऐसी महिमा, ऐसी अनन्त लीलाएँ हैं, वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुणपाशसे बाँध रहे हैं। इसकी न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकारकी व्यथा ही ॥ ७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीशुक उवाच -
एवं विप्रकृतो राजन् बलिर्भगवतासुरः ।
भिद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः ॥ १ ॥

श्रीबलिरुवाच -
यद्युत्तमश्लोक भवान्ममेरितं
     वचो व्यलीकं सुरवर्य मन्यते ।
करोम्यृतं तन्न भवेत्प्रलम्भनं
     पदं तृतीयं कुरु शीर्ष्णि मे निजम् ॥ २ ॥
बिभेमि नाहं निरयात् पदच्युतो
     न पाशबन्धाद्व्यसनाद् दुरत्ययात् ।
नैवार्थकृच्छ्राद्‍भवतो विनिग्रहाद्
     असाधुवादाद्‍भृशमुद्विजे यथा ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार भगवान्‌ ने असुरराज बलिका बड़ा तिरस्कार किया और उन्हें धैर्यसे विचलित करना चाहा। परंतु वे तनिक भी विचलित न हुए, बड़े धैर्यसे बोले ॥ १ ॥
दैत्यराज बलिने कहादेवताओंके आराध्यदेव ! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। क्या आप मेरी बातको असत्य समझते हैं ? ऐसा नहीं है। मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ। आप धोखेमें नहीं पड़ेंगे। आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिरपर रख दीजिये ॥ २ ॥ मुझे नरकमें जानेका अथवा राज्यसे च्युत होनेका भय नहीं है। मैं पाशमें बँधने अथवा अपार दु:खमें पडऩेसे भी नहीं डरता। मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड देंयह भी मेरे भयका कारण नहीं है। मैं डरता हूँ तो केवल अपनी अपकीर्तिसे ! ॥ ३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...