मंगलवार, 26 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र,राजा शर्याति का वंश

श्रीशुक उवाच ।
शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठः संबभूव ह ।
यो वा अंगिरसां सत्रे द्वितीयं अह ऊचिवान् ॥ १ ॥
सुकन्या नाम तस्यासीत् कन्या कमललोचना ।
तया सार्धं वनगतो हि अगमत् व्यवनाश्रमम् ॥ २ ॥
सा सखीभिः परिवृता विचिन्वन्त्यंघ्रिपान् वने ।
वल्मीकरन्ध्रे ददृशे खद्योते इव ज्योतिषी ॥ ३ ॥
ते दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन वै ।
अविध्यन् मुग्धभावेन सुस्रावासृक् ततो बहिः ॥ ४ ॥
शकृत् मूत्रनिरोधोऽभूत् सैनिकानां च तत्क्षणात् ।
राजर्षिः तं उपालक्ष्य पुरुषान् विस्मितोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥
अप्यभद्रं न युष्माभिः भार्गवस्य विचेष्टितम् ।
व्यक्तं केनापि नस्तस्य कृतं आश्रमदूषणम् ॥ ६ ॥
सुकन्या प्राह पितरं भीता किञ्चित् कृतं मया ।
द्वे ज्योतिषी अजानन्त्या निर्भिन्ने कण्टकेन वै ॥ ७ ॥
दुहितुस्तद् वचः श्रुत्वा शर्यातिर्जातसाध्वसः ।
मुनिं प्रसादयामास वल्मीकान्तर्हितं शनैः ॥ ८ ॥
तद् अभिप्रायमाज्ञाय प्रादाद् दुहितरं मुनेः ।
कृच्छ्रात् मुक्तः तमामंत्र्य पुरं प्रायात् समाहितः ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदोंका निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अङ्गिरा-गोत्रके ऋषियोंके यज्ञमें दूसरे दिनका कर्म बतलाया था ॥ १ ॥ उसकी एक कमललोचना कन्या थी। उसका नाम था सुकन्या। एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्याके साथ वनमें घूमते- घूमते च्यवन ऋषिके आश्रमपर जा पहुँचे ॥ २ ॥ सुकन्या अपनी सखियोंके साथ वनमें घूम-घूमकर वृक्षोंका सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थानपर देखा कि बाँबी (दीमकोंकी एकत्रित की हुई मिट्टी) के छेदमेंसे जुगनूकी तरह दो ज्योतियाँ दीख रही हैं ॥ ३ ॥ दैवकी कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्याने बालसुलभ चपलतासे एक काँटेके द्वारा उन ज्योतियोंको वेध दिया। इससे उनमेंसे बहुत- सा-खून बह चला ॥ ४ ॥ उसी समय राजा शर्यातिके सैनिकोंका मल-मूत्र रुक गया। राजर्षि शर्यातिको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकोंसे कहा ॥ ५ ॥ अरे, तुम लोगों ने कहीं महर्षि च्यवनजी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया ? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हमलोगोंमेंसे किसी-न-किसीने उनके आश्रममें कोई अनर्थ किया है॥ ६ ॥ तब सुकन्याने अपने पिता से डरते-डरते कहा कि पिताजी ! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजान में दो ज्योतियों को काँटे से छेद दिया है ॥ ७ ॥ अपनी कन्याकी यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बाँबीमें छिपे हुए च्यवन मुनिको प्रसन्न किया ॥ ८ ॥ तदनन्तर च्यवन मुनिका अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकटसे छूटकर बड़ी सावधानीसे उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानीमें चले आये ॥ ९ ॥

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सोमवार, 25 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

पृषध्र, आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश

मरुत्तस्य दमः पुत्रः तस्यासीद् राज्यवर्धनः ।
सुधृतिस्तत्सुतो जज्ञे सौधृतेयो नरः सुतः ॥ २९ ॥
तत्सुतः केवलः तस्माद् बन्धुमान् वेगवान् ततः ।
बुधस्तस्याभवद् यस्य तृणबिन्दुर्महीपतिः ॥ ३० ॥
तं भेजेऽलम्बुषा देवी भजनीयगुणालयम् ।
वराप्सरा यतः पुत्राः कन्या च इडविडाभवत् ॥ ३१ ॥
यस्यां उत्पादयामास विश्रवा धनदं सुतम् ।
प्रादाय विद्यां परमां ऋषिर्योगेश्वरः पितुः ॥ ३२ ॥
विशालः शून्यबन्धुश्च धूम्रकेतुश्च तत्सुताः ।
विशालो वंशकृद् राजा वैशालीं निर्ममे पुरीम् ॥ ३३ ॥
हेमचन्द्रः सुतस्तस्य धूम्राक्षः तस्य चात्मजः ।
तत्पुत्रात् संयमादासीत् कृशाश्वः सहदेवजः ॥ ३४ ॥
कृशाश्वात् सोमदत्तोऽभूद् योऽश्वमेधैः इडस्पतिम् ।
इष्ट्वा पुरुषमापाग्र्यां गतिं योगेश्वराश्रिताम् ॥ ३५ ॥
सौमदत्तिस्तु सुमतिः तत्सुतो जनमेजयः ।
एते वैशालभूपालाः तृणबिन्दोर्यशोधराः ॥ ३६ ॥

मरुत्त के पुत्र का नाम था दम। दमसे राज्यवर्धन, उससे सुधृति और सुधृतिसे नर नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई ॥ २९ ॥ नरसे केवल, केवलसे बन्धुमान्, बन्धुमान् से  वेगवान्, वेगवान्  से बन्धु और बन्धुसे राजा तृणबिन्दुका जन्म हुआ ॥ ३० ॥ तृणबिन्दु आदर्श गुणोंके भण्डार थे। अप्सराओंमें श्रेष्ठ अलम्बुषा देवीने उनको वरण किया, जिससे उनके कई पुत्र और इडविडा नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई ॥ ३१ ॥ मुनिवर विश्रवाने अपने योगेश्वर पिता पुलस्त्यजीसे उत्तम विद्या प्राप्त करके इडविडाके गर्भसे लोकपाल कुबेरको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया ॥ ३२ ॥ महाराज तृणबिन्दुके अपनी धर्मपत्नीसे तीन पुत्र हुएविशाल, शून्यबन्धु और धूम्रकेतु। उनमेंसे राजा विशाल वंशधर हुए और उन्होंने वैशाली नामकी नगरी बसायी ॥ ३३ ॥ विशालसे हेमचन्द्र, हेमचन्द्र से धूम्राक्ष, धूम्राक्ष से संयम और संयमसे दो पुत्र हुएकृशाश्व और देवज ॥ ३४ ॥ कृशाश्व के पुत्रका नाम था सोमदत्त। उसने अश्वमेध यज्ञोंके द्वारा यज्ञपति भगवान्‌ की आराधना की और योगेश्वर संतोंका आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त की ॥ ३५ ॥ सोमदत्त का पुत्र हुआ सुमति और सुमतिसे जनमेजय। ये सब तृणबिन्दु की कीर्ति को बढ़ानेवाले विशालवंशी राजा हुए ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

पृषध्र, आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश

नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्यः कर्मणा वैश्यतां गतः ।
भलन्दनः सुतस्तस्य वत्सप्रीतिः भलन्दनात् ॥ २३ ॥
वत्सप्रीतेः सुतः प्रांशुः तत्सुतं प्रमतिं विदुः ।
खनित्रः प्रमतेः तस्मात् चाक्षुषोऽथ विविंशतिः ॥ २४ ॥
विविंशतेः सुतो रंभः खनीनेत्रोऽस्य धार्मिकः ।
करन्धमो महाराज तस्यासीद् आत्मजो नृप ॥ २५ ॥
तस्य आवीक्षित् सुतो यस्य मरुत्तः चक्रवर्ति अभूत् ।
संवर्तोऽयाजयद् यं वै महायोग्यङ्‌गिरःसुतः ॥ २६ ॥
मरुत्तस्य यथा यज्ञो न तथान्योऽस्ति कश्चन ।
सर्वं हिरण्मयं त्वासीत् यत्किञ्चिच्चास्य शोभनम् ॥ २७ ॥
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
मरुतः परिवेष्टारो विश्वेदेवाः सभासदः ॥ २८ ॥

दिष्ट के पुत्र का नाम था नाभाग । यह उस नाभाग से अलग है, जिसका मैं आगे वर्णन करूँगा। वह अपने कर्म के कारण वैश्य हो गया। उसका पुत्र हुआ भलन्दन और उसका वत्सप्रीति ॥ २३ ॥ वत्सप्रीतिका प्रांशु और प्रांशुका पुत्र हुआ प्रमति। प्रमतिके खनित्र, खनित्रके चाक्षुष और उनके विविंशति हुए ॥ २४ ॥ विविंशतिके पुत्र रम्भ और रम्भके पुत्र खनित्रदोनों ही परम धार्मिक हुए। उनके पुत्र करन्धम और करन्धमके अवीक्षित्। महाराज परीक्षित्‌ ! अवीक्षित् के पुत्र मरुत्त चक्रवर्ती राजा हुए। उनसे अङ्गिरा के पुत्र महायोगी संवर्त्त ऋषि ने यज्ञ कराया था ॥ २५-२६ ॥ मरुत्त का यज्ञ जैसा हुआ, वैसा और किसीका नहीं हुआ। उस यज्ञके समस्त छोटे-बड़े पात्र अत्यन्त सुन्दर एवं सोनेके बने हुए थे ॥ २७ ॥ उस यज्ञ में इन्द्र सोमपान करके मतवाले हो गये थे और दक्षिणाओं से ब्राह्मण तृप्त हो गये थे। उसमें परसने वाले थे मरुद्गण और विश्वेदेव सभासद् थे ॥ २८ ॥

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रविवार, 24 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

पृषध्र, आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश

कविः कनीयान् विषयेषु निःस्पृहो
विसृज्य राज्यं सह बन्धुभिर्वनम् ।
निवेश्य चित्ते पुरुषं स्वरोचिषं
विवेश कैशोरवयाः परं गतः ॥ १५ ॥
करूषान् मानवाद् आसन् कारूषाः क्षत्रजातयः ।
उत्तरापथगोप्तारो ब्रह्मण्या धर्मवत्सलाः ॥ १६ ॥
धृष्टाद् धार्ष्टमभूत् क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
नृगस्य वंशः सुमतिः भूतज्योतिः ततो वसुः ॥ १७ ॥
वसोः प्रतीकस्तत्पुत्र ओघवान् ओघवत्पिता ।
कन्या चौघवती नाम सुदर्शन उवाह ताम् ॥ १८ ॥
चित्रसेनो नरिष्यन्ताद् ऋक्षस्तस्य सुतोऽभवत् ।
तस्य मीढ्वांस्ततः पूर्ण इन्द्रसेनस्तु तत्सुतः ॥ १९ ॥
वीतिहोत्रस्तु इन्द्रसेनात् तस्य सत्यश्रवा अभूत् ।
उरुश्रवाः सुतस्तस्य देवदत्तस्ततोऽभवत् ॥ २० ॥
ततोऽग्निवेश्यो भगवान् अग्निः स्वयं अभूत्सुतः ।
कानीन इति विख्यातो जातूकर्ण्यो महान् ऋषिः ॥ २१ ॥
ततो ब्रह्मकुलं जातं आग्निवेश्यायनं नृप ।
नरिष्यन्तान्वयः प्रोक्तो दिष्टवंशमतः शृणु ॥ २२ ॥

मनुका सबसे छोटा पुत्र था कवि। विषयोंसे वह अत्यन्त नि:स्पृह था। वह राज्य छोडक़र अपने बन्धुओंके साथ वनमें चला गया और अपने हृदयमें स्वयंप्रकाश परमात्माको विराजमान कर किशोर अवस्थामें ही परम पदको प्राप्त हो गया ॥ १५ ॥
मनुपुत्र करूषसे कारूष नामक क्षत्रिय उत्पन्न हुए। वे बड़े ही ब्राह्मणभक्त, धर्मप्रेमी एवं उत्तरापथके रक्षक थे ॥ १६ ॥ धृष्टके धाष्टर् नामक क्षत्रिय हुए। अन्तमें वे इस शरीरसे ही ब्राह्मण बन गये। नृगका पुत्र हुआ सुमति, उसका पुत्र भूतज्योति और भूतज्योति का पुत्र वसु था ॥ १७ ॥ वसुका पुत्र प्रतीक और प्रतीकका पुत्र ओघवान्। ओघवान्के पुत्रका नाम भी ओघवान् ही था। उनके एक ओघवती नामकी कन्या भी थी, जिसका विवाह सुदर्शनसे हुआ ॥ १८ ॥ मनुपुत्र नरिष्यन्तसे चित्रसेन, उससे ऋक्ष, ऋक्षसे मीढ्वान्, मीढ्वान्
से कूर्च और उससे इन्द्रसेनकी उत्पत्ति हुई ॥ १९ ॥ इन्द्रसेनसे वीतिहोत्र, उससे सत्यश्रवा, सत्यश्रवासे उरुश्रवा और उससे देवदत्तकी उत्पत्ति हुई ॥ २० ॥ देवदत्तके अग्निवेश्य नामक पुत्र हुए, जो स्वयं अग्निदेव ही थे। आगे चलकर वे ही कानीन एवं महर्षि जातूकर्ण्य के नामसे विख्यात हुए ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणोंका आग्निवेश्यायनगोत्र उन्हींसे चला है। इस प्रकार नरिष्यन्तके वंशका मैंने वर्णन किया, अब दिष्टका वंश सुनो ॥ २२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

पृषध्र, आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश

तं शशाप कुलाचार्यः कृतागसं अकामतः ।
न क्षत्रबन्धुः शूद्रस्त्वं कर्मणा भवितामुना ॥ ९ ॥
एवं शप्तस्तु गुरुणा प्रत्यगृह्णात् कृताञ्जलिः ।
अधारयद् व्रतं वीर ऊर्ध्वरेता मुनिप्रियम् ॥ १० ॥
वासुदेवे भगवति सर्वात्मनि परेऽमले ।
एकान्तित्वं गतो भक्त्या सर्वभूतसुहृत् समः ॥ ११ ॥
विमुक्तसंगः शान्तात्मा संयताक्षोऽपरिग्रहः ।
यदृच्छयोपपन्नेन कल्पयन् वृत्तिमात्मनः ॥ १२ ॥
आत्मनि आत्मानमाधाय ज्ञानतृप्तः समाहितः ।
विचचार महीमेतां जडान्ध-बधिराकृतिः ॥ १३
एवं वृत्तो वनं गत्वा दृष्ट्वा दावाग्निमुत्थितम् ।
तेनोपयुक्तकरणो ब्रह्म प्राप परं मुनिः ॥ १४ ॥

यद्यपि पृषध्र ने जान-बूझकर अपराध नहीं किया था, फिर भी कुलपुरोहित वसिष्ठजी ने उसे शाप दिया कि तुम इस कर्मसे क्षत्रिय नहीं रहोगे; जाओ, शूद्र हो जाओ ॥ ९ ॥ पृषध्र ने अपने गुरुदेव का यह शाप अञ्जलि बाँधकर स्वीकार किया और इसके बाद सदाके लिये मुनियोंको प्रिय लगनेवाले नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रतको धारण किया ॥ १० ॥ वह समस्त प्राणियोंका अहैतुक हितैषी एवं सब के प्रति समान भाव से युक्त होकर भक्ति के द्वारा परम विशुद्ध सर्वात्मा भगवान्‌ वासुदेव का अनन्य प्रेमी हो गया ॥ ११ ॥ उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं। वृत्तियाँ शान्त हो गयीं। इन्द्रियाँ वशमें हो गयीं। वह कभी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह नहीं रखता था। जो कुछ दैववश प्राप्त हो जाता, उसीसे अपना जीवन-निर्वाह कर लेता ॥ १२ ॥ वह आत्मज्ञानसे सन्तुष्ट एवं अपने चित्तको परमात्मामें स्थित करके प्राय: समाधिस्थ रहता। कभी-कभी जड, अंधे और बहरेके समान पृथ्वीपर विचरण करता ॥ १३ ॥ इस प्रकारका जीवन व्यतीत करता हुआ वह एक दिन वनमें गया। वहाँ उसने देखा कि दावानल धधक रहा है। मननशील पृषध्र अपनी इन्द्रियोंको उसी अग्नि में भस्म करके परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो गया ॥ १४ ॥

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शनिवार, 23 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

पृषध्र, आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश

श्रीशुक उवाच ।
एवं गतेऽथ सुद्युम्ने मनुर्वैवस्वतः सुते ।
पुत्रकामः तपस्तेपे यमुनायां शतं समाः ॥ १ ॥
ततोऽयजन् मनुर्देवं अपत्यार्थं हरिं प्रभुम् ।
इक्ष्वाकु पूर्वजान् पुत्रान् लेभे स्वसदृशान् दश ॥ २ ॥
पृषध्रस्तु मनोः पुत्रो गोपालो गुरुणा कृतः ।
पालयामास गा यत्तो रात्र्यां वीरासनव्रतः ॥ ३ ॥
एकदा प्राविशद् गोष्ठं शार्दूलो निशि वर्षति ।
शयाना गाव उत्थाय भीतास्ता बभ्रमुर्व्रजे ॥ ४ ॥
एकां जग्राह बलवान् सा चुक्रोश भयातुरा ।
तस्यास्तु क्रन्दितं श्रुत्वा पृषध्रोऽनुससार ह ॥ ५ ॥
खड्गमादाय तरसा प्रलीनोडुगणे निशि ।
अजानन् अहनद् बभ्रोः शिरः शार्दूलशङ्‌कया ॥ ६ ॥
व्याघ्रोऽपि वृक्णश्रवणो निस्त्रिंशाग्राहतस्ततः ।
निश्चक्राम भृशं भीतो रक्तं पथि समुत्सृजन् ॥ ७ ॥
मन्यमानो हतं व्याघ्रं पृषध्रः परवीरहा ।
अद्राक्षीत् स्वहतां बभ्रुं व्युष्टायां निशि दुःखितः ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार जब सुद्युम्न तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये, तब वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से यमुनाके तटपर सौ वर्षतक तपस्या की ॥ १ ॥ इसके बाद उन्होंने सन्तान के लिये सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि की आराधना की और अपने ही समान दस पुत्र प्राप्त किये, जिनमें सबसे बड़े इक्ष्वाकु थे ॥ २ ॥ उन मनुपुत्रों में से एकका नाम था पृषध्र। गुरु वसिष्ठजी ने उसे गायों की रक्षा में नियुक्त कर रखा था, अत: वह रात्रि के समय बड़ी सावधानी से वीरासन से बैठा रहता और गायों की रक्षा करता ॥ ३ ॥ एक दिन रात में वर्षा हो रही थी। उस समय गायोंके झुंडमें एक बाघ घुस आया। उससे डरकर सोयी हुई गौएँ उठ खड़ी हुर्ईं। वे गोशालामें ही इधर-उधर भागने लगीं ॥ ४ ॥ बलवान् बाघने एक गायको पकड़ लिया। वह अत्यन्त भयभीत होकर चिल्लाने लगी। उसका वह क्रन्दन सुनकर पृषध्र गाय के पास दौड़ आया ॥ ५ ॥ एक तो रातका समय और दूसरे घनघोर घटाओं से आच्छादित होनेके कारण तारे भी नहीं दीखते थे। उसने हाथमें तलवार उठाकर अनजानमें ही बड़े वेगसे गायका सिर काट दिया। वह समझ रहा था कि यही बाघ है ॥ ६ ॥ तलवार की नोक से बाघका भी कान कट गया, वह अत्यन्त भयभीत होकर रास्ते में खून गिराता हुआ वहाँसे निकल भागा ॥ ७ ॥ शत्रुदमन पृषध्र ने यह समझा कि बाघ मर गया। परंतु रात बीतने पर उसने देखा कि मैंने तो गाय को ही मार डाला है, इससे उसे बड़ा दु:ख हुआ ॥ ८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा

स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः ।
सुद्युम्नस्याशयन् पुंस्त्वं उपाधावत शंकरम् ॥ ३७ ॥
तुष्टस्तस्मै स भगवान् ऋषये प्रियमावहन् ।
स्वां च वाचं ऋतां कुर्वन् इदमाह विशाम्पते ॥ ३८ ॥
मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः ।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥ ३९ ॥
आचार्यानुग्रहात् कामं लब्ध्वा पुंस्त्वं व्यवस्थया ।
पालयामास जगतीं नाभ्यनन्दन् स्म तं प्रजाः ॥ ४० ॥
तस्योत्कलो गयो राजन् विमलश्च सुतास्त्रयः ।
दक्षिणापथराजानो बभूवुः धर्मवत्सलाः ॥ ४१ ॥
ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम् ॥ ४२ ॥

सुद्युम्न की यह दशा देखकर वसिष्ठजीके हृदयमें कृपावश अत्यन्त पीड़ा हुई। उन्होंने सुद्युम्न को पुन: पुरुष बना देनेके लिये भगवान्‌ शङ्करकी आराधना की ॥ ३७ ॥ भगवान्‌ शङ्कर वसिष्ठजीपर प्रसन्न हुए। परीक्षित्‌ ! उन्होंने उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये अपनी वाणीको सत्य रखते हुए ही यह बात कही॥ ३८ ॥ वसिष्ठ ! तुम्हारा यह यजमान एक महीनेतक पुरुष रहेगा और एक महीनेतक स्त्री। इस व्यवस्थासे सुद्युम्न इच्छानुसार पृथ्वीका पालन करे॥ ३९ ॥ इस प्रकार वसिष्ठजी के अनुग्रह से व्यवस्थापूर्वक अभीष्ट पुरुषत्व लाभ करके सुद्युम्न पृथ्वीका पालन करने लगे। परंतु प्रजा उनका अभिनन्दन नहीं करती थी ॥ ४० ॥ उनके तीन पुत्र हुएउत्कल, गय और विमल। परीक्षित्‌ ! वे सब दक्षिणापथ के राजा हुए ॥ ४१ ॥ बहुत दिनों के बाद वृद्धावस्था आने पर प्रतिष्ठान नगरी के अधिपति सुद्युम्न ने अपने पुत्र पुरूरवा को राज्य दे दिया और स्वयं तपस्या करने के लिये वन की यात्रा की ॥ ४२ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे प्रथमोध्याऽयः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा

श्रीराजोवाच ।
कथं एवं गुणो देशः केन वा भगवन् कृतः ।
प्रश्नमेनं समाचक्ष्व परं कौतूहलं हि नः ॥ २८ ॥

श्रीशुक उवाच ।
एकदा गिरिशं द्रष्टुं ऋषयस्तत्र सुव्रताः ।
दिशो वितिमिराभासाः कुर्वन्तः समुपागमन् ॥ २९ ॥
तान् विलोक्य अंबिका देवी विवासा व्रीडिता भृशम् ।
भर्तुरङ्‌गात समुत्थाय नीवीमाश्वथ पर्यधात् ॥ ३० ॥
ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसङ्‌गं रममाणयोः ।
निवृत्ताः प्रययुस्तस्मात् नरनारायणाश्रमम् ॥ ३१ ॥
तदिदं भगवान् आह प्रियायाः प्रियकाम्यया ।
स्थानं यः प्रविशेदेतत् स वै योषिद् भवेदिति ॥ ३२ ॥
तत ऊर्ध्वं वनं तद्वै पुरुषा वर्जयन्ति हि ।
सा चानुचरसंयुक्ता विचचार वनाद् वनम् ॥ ३३ ॥
अथ तां आश्रमाभ्याशे चरन्तीं प्रमदोत्तमाम् ।
स्त्रीभिः परिवृतां वीक्ष्य चकमे भगवान् बुधः ॥ ३४ ॥
सापि तं चकमे सुभ्रूः सोमराजसुतं पतिम् ।
स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम् ॥ ३५ ॥
एवं स्त्रीत्वं अनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः ।
सस्मार स कुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम ॥ ३६ ॥

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! उस भूखण्डमें ऐसा विचित्र गुण कैसे आ गया ? किसने उसे ऐसा बना दिया था ? आप कृपा कर हमारे इस प्रश्रका उत्तर दीजिये; क्योंकि हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है ॥ २८ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! एक दिन भगवान्‌ शङ्करका दर्शन करनेके लिये बड़े-बड़े व्रतधारी ऋषि अपने तेजसे दिशाओंका अन्धकार मिटाते हुए उस वनमें गये ॥ २९ ॥ उस समय अम्बिका देवी वस्त्रहीन थीं। ऋषियोंको सहसा आया देख वे अत्यन्त लज्जित हो गयीं। झटपट उन्होंने भगवान्‌ शङ्कर की गोदसे उठकर वस्त्र धारण कर लिया ॥ ३० ॥ ऋषियों ने भी देखा कि भगवान्‌ गौरी-शङ्कर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिये वहाँ से लौटकर वे भगवान्‌ नर-नारायणके आश्रमपर चले गये ॥ ३१ ॥ उसी समय भगवान्‌ शङ्कर  ने अपनी प्रिया भगवती अम्बिका को प्रसन्न करनेके लिये कहा कि मेरे सिवा जो भी पुरुष इस स्थानमें प्रवेश करेगा, वही स्त्री हो जायेगा॥ ३२ ॥ परीक्षित्‌ ! तभीसे पुरुष उस स्थानमें प्रवेश नहीं करते। अब सुद्युम्न स्त्री हो गये थे। इसलिये वे अपने स्त्री बने हुए अनुचरोंके साथ एक वनसे दूसरे वनमें विचरने लगे ॥ ३३ ॥ उसी समय शक्तिशाली बुध ने देखा कि मेरे आश्रमके पास ही बहुत-सी स्त्रियोंसे घिरी हुई एक सुन्दरी स्त्री विचर रही है। उन्होंने इच्छा की कि यह मुझे प्राप्त हो जाय ॥ ३४ ॥ उस सुन्दरी स्त्री ने भी चन्द्रकुमार बुध को पति बनाना चाहा। इसपर बुध ने उसके गर्भसे पुरूरवा नामका पुत्र उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥ इस प्रकार मनुपुत्र राजा सुद्युम्न स्त्री हो गये। ऐसा सुनते हैं कि उन्होंने उस अवस्थामें अपने कुलपुरोहित वसिष्ठजीका स्मरण किया ॥ ३६ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...