॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
चीरहरण
श्रीभगवानुवाच
।
भवत्यो
यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ ।
अत्रागत्य
स्ववासांसि प्रतीच्छन्तु शुचिस्मिताः ॥ १६ ॥
ततो
जलाशयात् सर्वा दारिकाः शीतवेपिताः ।
पाणिभ्यां
योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेरुः शीतकर्शिताः ॥ १७ ॥
भगवानाहता
वीक्ष्य शुद्ध भावप्रसादितः ।
स्कन्धे
निधाय वासांसि प्रीतः प्रोवाच सस्मितम् ॥ १८ ॥
यूयं
विवस्त्रा यदपो धृतव्रता
व्यगाहतैतत्
तदु देवहेलनम् ।
बद्ध्वाञ्जलिं
मूर्ध्न्यपनुत्तयेंऽहसः
कृत्वा
नमोऽधो वसनं प्रगृह्यताम् ॥ १९ ॥
इत्यच्युतेनाभिहितं
व्रजाबला
मत्वा
विवस्त्राप्लवनं व्रतच्युतिम् ।
तत्पूर्तिकामास्तदशेषकर्मणां
साक्षात्कृतं
नेमुरवद्यमृग् यतः ॥ २० ॥
तास्तथावनता
दृष्ट्वा भगवान् देवकीसुतः ।
वासांसि
ताभ्यः प्रायच्छत् कत्करुणस्तेन तोषितः ॥ २१ ॥
दृढं
प्रलब्धास्त्रपया च हापिताः
प्रस्तोभिताः
क्रीडनवच्च कारिताः ।
वस्त्राणि
चैवापहृतान्यथाप्यमुं
ता
नाभ्यसूयन् प्रियसङ्गनिर्वृताः ॥ २२ ॥
परिधाय
स्ववासांसि प्रेष्ठसङ्गमसज्जिताः ।
गृहीतचित्ता
नो चेलुः तस्मिन् लज्जायितेक्षणाः ॥ २३ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण ने कहा—कुमारियो ! तुम्हारी मुसकान पवित्रता और प्रेमसे भरी है। देखो, जब तुम अपनेको मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञाका पालन करना चाहती
हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो ॥ १६ ॥ परीक्षित् ! वे कुमारियाँ ठंडसे
ठिठुर रही थीं, काँप रही थीं। भगवान् की ऐसी बात सुनकर वे
अपने दोनों हाथोंसे गुप्त अङ्गोंको छिपाकर यमुनाजीसे बाहर निकलीं। उस समय ठंड
उन्हें बहुत ही सता रही थी ॥ १७ ॥ उनके इस शुद्ध भावसे भगवान् बहुत ही प्रसन्न
हुए। उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियोंके वस्त्र अपने कंधेपर रख लिये और
बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए बोले— ॥ १८ ॥ ‘अरी गोपियो ! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह
निभाया है—इसमें सन्देह नहीं। परंतु इस अवस्थामें वस्त्रहीन
होकर तुमने जलमें स्नान किया है, इससे तो जलके
अधिष्ठातृदेवता वरुणका तथा यमुनाजीका अपराध हुआ है। अत: अब इस दोषकी शान्तिके लिये
तुम अपने हाथ जोडक़र सिरसे लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर
अपने-अपने वस्त्र ले जाओ ॥ १९ ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उन व्रजकुमारियोंने
ऐसा ही समझा कि वास्तवमें वस्त्रहीन होकर स्नान करनेसे हमारे व्रतमें त्रुटि आ
गयी। अत: उसकी निर्विघ्र पूर्तिके लिये उन्होंने समस्त कर्मोंके साक्षी
श्रीकृष्णको नमस्कार किया। क्योंकि उन्हें नमस्कार करनेसे ही सारी त्रुटियों और
अपराधोंका मार्जन हो जाता है ॥ २० ॥ जब यशोदानन्दन भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि
सब-की-सब कुमारियाँ मेरी आज्ञाके अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब
वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके हृदयमें करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे
दिये ॥ २१ ॥ प्रिय परीक्षित् ! श्रीकृष्णने कुमारियोंसे छलभरी बातें की, उनका लज्जा-संकोच छुड़ाया, हँसी की और उन्हें
कठपुतलियोंके समान नचाया; यहाँतक कि उनके वस्त्रतक हर लिये।
फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुर्ईं, उनकी इन चेष्टाओंको दोष
नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतमके सङ्ग से वे और भी प्रसन्न
हुर्ईं ॥ २२ ॥ परीक्षित् ! गोपियोंने अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। परंतु
श्रीकृष्णने उनके चित्तको इस प्रकार अपने वशमें कर रखा था कि वे वहाँसे एक पग भी न
चल सकीं। अपने प्रियतमके समागमके लिये सजकर वे उन्हींकी ओर लजीली चितवनसे निहारती
रहीं ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से