बुधवार, 1 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

चीरहरण

 

श्रीभगवानुवाच ।

भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ ।

अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छन्तु शुचिस्मिताः ॥ १६ ॥

ततो जलाशयात् सर्वा दारिकाः शीतवेपिताः ।

पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेरुः शीतकर्शिताः ॥ १७ ॥

भगवानाहता वीक्ष्य शुद्ध भावप्रसादितः ।

स्कन्धे निधाय वासांसि प्रीतः प्रोवाच सस्मितम् ॥ १८ ॥

यूयं विवस्त्रा यदपो धृतव्रता

व्यगाहतैतत् तदु देवहेलनम् ।

बद्ध्वाञ्जलिं मूर्ध्न्यपनुत्तयेंऽहसः

कृत्वा नमोऽधो वसनं प्रगृह्यताम् ॥ १९ ॥

इत्यच्युतेनाभिहितं व्रजाबला

मत्वा विवस्त्राप्लवनं व्रतच्युतिम् ।

तत्पूर्तिकामास्तदशेषकर्मणां

साक्षात्कृतं नेमुरवद्यमृग् यतः ॥ २० ॥

तास्तथावनता दृष्ट्वा भगवान् देवकीसुतः ।

वासांसि ताभ्यः प्रायच्छत् कत्करुणस्तेन तोषितः ॥ २१ ॥

दृढं प्रलब्धास्त्रपया च हापिताः

प्रस्तोभिताः क्रीडनवच्च कारिताः ।

वस्त्राणि चैवापहृतान्यथाप्यमुं

ता नाभ्यसूयन् प्रियसङ्‌गनिर्वृताः ॥ २२ ॥

परिधाय स्ववासांसि प्रेष्ठसङ्‌गमसज्जिताः ।

गृहीतचित्ता नो चेलुः तस्मिन् लज्जायितेक्षणाः ॥ २३ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने कहाकुमारियो ! तुम्हारी मुसकान पवित्रता और प्रेमसे भरी है। देखो, जब तुम अपनेको मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञाका पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! वे कुमारियाँ ठंडसे ठिठुर रही थीं, काँप रही थीं। भगवान्‌ की ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथोंसे गुप्त अङ्गोंको छिपाकर यमुनाजीसे बाहर निकलीं। उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी ॥ १७ ॥ उनके इस शुद्ध भावसे भगवान्‌ बहुत ही प्रसन्न हुए। उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियोंके वस्त्र अपने कंधेपर रख लिये और बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए बोले॥ १८ ॥ अरी गोपियो ! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया हैइसमें सन्देह नहीं। परंतु इस अवस्थामें वस्त्रहीन होकर तुमने जलमें स्नान किया है, इससे तो जलके अधिष्ठातृदेवता वरुणका तथा यमुनाजीका अपराध हुआ है। अत: अब इस दोषकी शान्तिके लिये तुम अपने हाथ जोडक़र सिरसे लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ ॥ १९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बात सुनकर उन व्रजकुमारियोंने ऐसा ही समझा कि वास्तवमें वस्त्रहीन होकर स्नान करनेसे हमारे व्रतमें त्रुटि आ गयी। अत: उसकी निर्विघ्र पूर्तिके लिये उन्होंने समस्त कर्मोंके साक्षी श्रीकृष्णको नमस्कार किया। क्योंकि उन्हें नमस्कार करनेसे ही सारी त्रुटियों और अपराधोंका मार्जन हो जाता है ॥ २० ॥ जब यशोदानन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि सब-की-सब कुमारियाँ मेरी आज्ञाके अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके हृदयमें करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिये ॥ २१ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्णने कुमारियोंसे छलभरी बातें की, उनका लज्जा-संकोच छुड़ाया, हँसी की और उन्हें कठपुतलियोंके समान नचाया; यहाँतक कि उनके वस्त्रतक हर लिये। फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुर्ईं, उनकी इन चेष्टाओंको दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतमके सङ्ग से वे और भी प्रसन्न हुर्ईं ॥ २२ ॥ परीक्षित्‌ ! गोपियोंने अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। परंतु श्रीकृष्णने उनके चित्तको इस प्रकार अपने वशमें कर रखा था कि वे वहाँसे एक पग भी न चल सकीं। अपने प्रियतमके समागमके लिये सजकर वे उन्हींकी ओर लजीली चितवनसे निहारती रहीं ॥ २३ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

चीरहरण

 

श्रीशुक उवाच -

हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिकाः ।

चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥ १ ॥

आप्लुत्याम्भसि कालिन्द्या जलान्ते चोदितेऽरुणे ।

कृत्वा प्रतिकृतिं देवीं आनर्चुः नृप सैकतीम् ॥ २ ॥

गन्धैर्माल्यैः सुरभिभिः बलिभिर्धूपदीपकैः ।

उच्चावचैश्चोपहारैः प्रवालफल तण्डुलैः ॥ ३ ॥

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।

नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।

इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कुमारिकाः ॥ ४ ॥

एवं मासं व्रतं चेरुः कुमार्यः कृष्णचेतसः ।

भद्रकालीं समानर्चुः भूयान्नन्दसुतः पतिः ॥ ५ ॥

ऊषस्युत्थाय गोत्रैः स्वैरन्योन्या बद्धबाहवः ।

कृष्णं उच्चैर्जगुर्यान्त्यः कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् ॥ ६ ॥

नद्याः कदाचिदागत्य तीरे निक्षिप्य पूर्ववत् ।

वासांसि कृष्णं गायन्त्यो विजह्रुः सलिले मुदा ॥ ७ ॥

भगवान् तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।

वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्मसिद्धये ॥ ८ ॥

तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वरः ।

हसद्‌भिः प्रहसन् बालैः परिहासमुवाच ह ॥ ९ ॥

अत्रागत्याबलाः कामं स्वं स्वं वासः प्रगृह्यताम् ।

सत्यं ब्रवाणि नो नर्म यद्यूयं व्रतकर्शिताः ॥ १० ॥

न मयोदितपूर्वं वा अनृतं तदिमे विदुः ।

एकैकशः प्रतीच्छध्वं सहैवेति सुमध्यमाः ॥ ११ ॥

तस्य तत् क्ष्वेलितं दृष्ट्वा गोप्यः प्रेमपरिप्लुताः ।

व्रीडिताः प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययुः ॥ १२ ॥

एवं ब्रुवति गोविन्दे नर्मणाऽऽक्षिप्तचेतसः ।

आकण्ठमग्नाः शीतोदे वेपमानास्तमब्रुवन् ॥ १३ ॥

मानयं भोः कृथास्त्वां तु नन्दगोपसुतं प्रियम् ।

जानीमोऽङ्‌ग व्रजश्लाघ्यं देहि वासांसि वेपिताः ॥ १४ ॥

श्यामसुन्दर ते दास्यः करवाम तवोदितम् ।

देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवाम हे ॥ १५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब हेमन्त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीनेमें अर्थात् मार्गशीर्षमें नन्दबाबाके व्रजकी कुमारियाँ कात्यायनी देवीकी पूजा और व्रत करने लगीं। वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं ॥ १ ॥ राजन् ! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशाका क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजलमें स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलोंके हार, भाँति-भाँतिके नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंटकी सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदिसे उनकी पूजा करतीं ॥ २-३ ॥ साथ ही हे कात्यायनी ! हे महामाये ! हे महायोगिनी ! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी ! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्णको हमारा पति बना दीजिये। देवि ! हम आपके चरणोंमें नमस्कार करती हैं।’—इस मन्त्रका जप करती हुए वे कुमारियाँ देवीकी आराधना करतीं ॥ ४ ॥ इस प्रकार उन कुमारियोंने, जिनका मन श्रीकृष्णपर निछावर हो चुका था, इस संकल्पके साथ एक महीनेतक भद्रकालीकी भलीभाँति पूजा की कि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों॥ ५ ॥ वे प्रतिदिन उषाकालमें ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखीको पुकार लेतीं और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वरसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीला तथा नामोंका गान करती हुई यमुनाजलमें स्नान करनेके लिये जातीं ॥ ६ ॥

 

एक दिन सब कुमारियोंने प्रतिदिनकी भाँति यमुनाजीके तटपर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुणोंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे जल-क्रीडा करने लगीं ॥ ७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शङ्कर आदि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियोंकी अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा ग्वालबालोंके साथ उन कुमारियोंकी साधना सफल करनेके लिये यमुना तटपर गये ॥ ८ ॥ उन्होंने अकेले ही उन गोपियोंके सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्तीसे वे एक कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये। साथी ग्वाल- बाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियोंसे हँसीकी बात कहने लगे ॥ ९ ॥ अरी कुमारियो ! तुम यहाँ आकर इच्छा हो तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुमलोगोंसे सच-सच कहता हूँ। हँसी बिलकुल नहीं करता। तुमलोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो ॥ १० ॥ ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुन्दरियो ! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है॥ ११ ॥

 

भगवान्‌ की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक दूसरीकी ओर देखने और मुसकराने लगीं। जलसे बाहर नहीं निकलीं ॥ १२ ॥ जब भगवान्‌ने हँसी-हँसीमें यह बात कही, तब उनके विनोदसे कुमारियोंका चित्त और भी उनकी ओर ङ्क्षखच गया। वे ठंढे पानीमें कण्ठतक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था। उहेंने श्रीकृष्णसे कहा॥ १३ ॥ प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम ऐसी अनीति मत करो । हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबा के लाड़ले लाल हो। हमारे प्यारे हो। सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं । देखो, हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो ॥ १४ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करनेको तैयार हैं। तुम तो धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हो। हमें कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबा से कह देंगी॥ १५ ॥

 

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मंगलवार, 30 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वेणुगीत

 

पूर्णाः पुलिन्द्य उरुगायपदाब्जराग

श्रीकुङ्‌कुमेन दयितास्तनमण्डितेन ।

तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन

लिम्पन्त्य आननकुचेषु जहुस्तदाधिम् ॥ १७ ॥

हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो

यद् रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः ।

मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत्

पानीयसूयवस कन्दरकन्दमूलैः ॥ १८ ॥

गा गोपकैरनुवनं नयतोरुदार

वेणुस्वनैः कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः ।

अस्पन्दनं गतिमतां पुलकस्तरुणां

निर्योगपाशकृत लक्षणयोर्विचित्रम् ॥ १९ ॥

एवंविधा भगवतो या वृन्दावनचारिणः ।

वर्णयन्त्यो मिथो गोप्यः क्रीडास्तन्मयतां ययुः ॥ २० ॥

 

अरी भटू ! हम तो वृन्दावनकी इन भीलनियोंको ही धन्य और कृतकृत्य मानती हैं। ऐसा क्यों सखी ? इसलिये कि इनके हृदयमें बड़ा प्रेम है। जब ये हमारे कृष्ण-प्यारेको देखती हैं, तब इनके हृदयमें भी उनसे मिलनेकी तीव्र आकाङ्क्षा जाग उठती है। इनके हृदयमें भी प्रेमकी व्याधि लग जाती है। उस समय ये क्या उपाय करती हैं, यह भी सुन लो। हमारे प्रियतमकी प्रेयसी गोपियाँ अपने वक्ष:स्थलोंपर जो केसर लगाती हैं, वह श्यामसुन्दरके चरणोंमें लगी होती है और वे जब वृन्दावनके घास-पात पर चलते हैं, तब उनमें भी लग जाती है। ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तिनकोंपरसे छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखोंपर मल लेती हैं और इस प्रकार अपने हृदयकी प्रेम- पीड़ा शान्त करती हैं ॥ १७ ॥ अरी गोपियो ! यह गिरिराज गोवद्र्धन तो भगवान्‌के भक्तोंमें बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य हैं इसके भाग्य ! देखती नहीं हो, हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलरामके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है। इसके भाग्यकी सराहना कौन करे ? यह तो उन दोनोंकाग्वालबालों और गौओंका बड़ा ही सत्कार करता है। स्नान-पानके लिये झरनोंका जल देता है, गौओंके लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है विश्राम करनेके लिये कन्दराएँ और खानेके लिये कन्द मूल-फल देता है। वास्तवमें यह धन्य है ! ॥ १८ ॥ अरी सखी ! इन साँवरे-गोरे किशोरोंकी तो गति ही निराली है। जब वे सिरपर नोवना (दुहते समय गायके पैर बाँधनेकी रस्सी) लपेटकर और कंधोंपर फंदा (भागनेवाली गायोंको पकडऩेकी रस्सी) रखकर गायोंको एक वनसे दूसरे वनमें हाँककर ले जाते हैं, साथमें ग्वालबाल भी होते हैं और मधुर-मधुर संगीत गाते हुए बाँसुरीकी तान छेड़ते हैं, उस समय मनुष्योंकी तो बात ही क्या, अन्य शरीरधारियोंमें भी चलनेवाले चेतन पशु-पक्षी और जड नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं तथा अचल-वृक्षोंको भी रोमाञ्च हो आता है। जादूभरी वंशीका और क्या चमत्कार सुनाऊँ ? ॥ १९ ॥

परीक्षित्‌ ! वृन्दावनविहारी श्रीकृष्णकी ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएँ हैं। गोपियाँ प्रतिदिन आपसमें उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान्‌की लीलाएँ उनके हृदयमें स्फुरित होने लगतीं ॥ २० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

वेणुगीत

 

कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलं

श्रुत्वा च तत्क्वणितवेणु विविक्तगीतम् ।

देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा

भ्रश्यत् प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः ॥ १२ ॥

गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत

पीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबन्त्यः ।

शावाः स्नुतस्तनपयःकवलाः स्म तस्थुः

गोविन्दमात्मनि दृशाश्रुकलाः स्पृशन्त्यः ॥ १३ ॥

प्रायो बताम्ब विहगा मुनयो वनेऽस्मिन्

कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम् ।

आरुह्य ये द्रुमभुजान् रुचिरप्रवालान्

श्रृण्वत्यमीलितदृशो विगतान्यवाचः ॥ १४ ॥

नद्यस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीतम्

आवर्तलक्षित मनोभवभग्नवेगाः ।

आलिङ्‌गनस्थगितमूर्मिभुजैर्मुरारेः

गृह्णन्ति पादयुगलं कमलोपहाराः ॥ १५ ॥

दृष्ट्वाऽऽतपे व्रजपशून् सह रामगोपैः

सञ्चारयन्तमनु वेणुमुदीरयन्तम् ।

प्रेमप्रवृद्ध उदितः कुसुमावलीभिः

सख्युर्व्यधात् स्ववपुषाम्बुद आतपत्रम् ॥ १६ ॥

 

अरी सखी ! हरिनियों की तो बात ही क्या हैस्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनन्दित करनेवाले सौन्दर्य और शीलके खजाने श्रीकृष्णको देखती हैं और बाँसुरीपर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनती हैं, तब उनके चित्र- विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैंमूर्च्छित हो जाती हैं। यह कैसे मालूम हुआ सखी ? सुनो तो, जब उनके हृदयमें श्रीकृष्णसे मिलने की तीव्र आकाङ्क्षा जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं; उन्हें इस बातका भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियोंमें गुँथे हुए फूल पृथ्वीपर गिर रहे हैं। यहाँतक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीनपर गिर जाती है ॥ १२ ॥ अरी सखी ! तुम देवियोंकी बात क्या कह रही हो, इन गौओंको नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुखसे बाँसुरीमें स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानोंके दोने सँभाल लेती हैंखड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीतका रस लेने लगती हैं ? ऐसा क्यों होता है सखी ? अपने नेत्रोंके द्वारसे श्यामसुन्दरको हृदयमें ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिङ्गन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू छलकने लगते हैं ! और उनके बछड़े, बछड़ोंकी तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायोंके थनोंसे अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं, तब मुँहमें लिया हुआ दूधका घूँट न उगल पाते हैं और न निगल पाते हैं। उनके हृदयमें भी होता है भगवान्‌ का संस्पर्श और नेत्रोंमें छलकते होते हैं आनन्दके आँसू। वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं ॥ १३ ॥ अरी सखी ! गौएँ और बछड़े तो हमारी घरकी वस्तु हैं। उनकी बात तो जाने ही दो। वृन्दावनके पक्षियोंको तुम नहीं देखती हो ! उन्हें पक्षी कहना ही भूल है ! सच पूछो तो उनमेंसे अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हैं। वे वृन्दावनके सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंकी नयी और मनोहर कोंपलोंवाली डालियोंपर चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निॢनमेष नयनोंसे श्रीकृष्णकी रूप-माधुरी तथा प्यारभरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं, तथा कानोंसे अन्य सब प्रकारके शब्दोंको छोडक़र केवल उन्हींकी मोहनी वाणी और वंशीका त्रिभुवनमोहन संगीत सुनते रहते हैं। मेरी प्यारी सखी ! उनका जीवन कितना धन्य है ! ॥ १४ ॥

 

अरी सखी ! देवता, गौओं और पक्षियोंकी बात क्यों करती हो ? वे तो चेतन हैं। इन जड नदियोंको नहीं देखतीं ? इनमें जो भँवर दीख रहे हैं, उनसे इनके हृदयमें श्यामसुन्दरसे मिलनेकी तीव्र आकाङ्क्षाका पता चलता है ? उसके वेगसे ही तो इनका प्रवाह रुक गया है। इन्होंने भी प्रेमस्वरूप श्रीकृष्णकी वंशीध्वनि सुन ली है। देखो, देखो ! ये अपनी तरङ्गोंके हाथोंसे उनके चरण पकडक़र कमलके फूलोंका उपहार चढ़ा रही हैं और उनका आलिङ्गन कर रही हैं; मानो उनके चरणोंपर अपना हृदय ही निछावर कर रही हैं ॥ १५ ॥ अरी सखी ! ये नदियाँ तो हमारी पृथ्वीकी, हमारे वृन्दावनकी वस्तुएँ हैं; तनिक इन बादलोंको भी देखो ! जब वे देखते हैं कि व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण और बलरामजी ग्वालबालोंके साथ धूपमें गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं, तब उनके हृदयमें प्रेम उमड़ आता है। वे उनके ऊपर मँडऱाने लगते हैं और वे श्यामघन अपने सखा घनश्यामके ऊपर अपने शरीरको ही छाता बनाकर तान देते हैं। इतना ही नहीं सखी ! वे जब उनपर नन्हीं-नन्हीं फुहियोंकी वर्षा करने लगते हैं, तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर श्वेत कुसुम चढ़ा रहे हैं। नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही निछावर कर देते हैं ! ॥ १६ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 29 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वेणुगीत

 

श्रीगोप्य ऊचुः ।

अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः

सख्यः पशूननु विवेशयतोर्वयस्यैः ।

वक्त्रं व्रजेशसुतयोरनवेणुजुष्टं

यैर्वा निपीतमनुरक्त-कटाक्षमोक्षम् ॥ ७ ॥

चूतप्रवालबर्हस्तबक् उत्पलाब्ज

मालानुपृक्तपरिधान विचित्रवेशौ ।

मध्ये विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठ्यां

रङ्‌गे यथा नटवरौ क्व च गायमानौ ॥ ८ ॥

गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुः

दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम् ।

भुङ्‌क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो

हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो यथाऽऽर्याः ॥ ९ ॥

वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्तिं

यद् देवकीसुतपदाम्बु जलब्धलक्ष्मि ।

गोविन्दवेणुमनु मत्तमयूरनृत्यं

प्रेक्ष्याद्रिसान्ववरतान्यसमस्तसत्त्वम् ॥ १० ॥

धन्याः स्म मूढमतयोऽपि हरिण्य एता

या नन्दनन्दनमुपात्त विचित्रवेशम् ।

आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसाराः

पूजां दधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः ॥ ११ ॥

 

गोपियाँ आपसमें बातचीत करने लगींअरी सखी ! हमने तो आँखवालोंके जीवनकी और उनकी आँखोंकी बस, यहीइतनी ही सफलता समझी है; और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है। वह कौन-सा लाभ है ? वह यही है कि जब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वाल- बालोंके साथ गायोंको हाँककर वनमें ले जा रहे हों या लौटाकर व्रजमें ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरोंपर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवनसे हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरीका पान करती रहें ॥ ७ ॥ अरी सखी ! जब वे आमकी नयी कोंपलें, मोरोंके पंख, फूलोंके गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुदकी मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्णके साँवरे शरीरपर पीताम्बर और बलरामके गोरे शरीरपर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन जाता है। ग्वालबालोंकी गोष्ठीमें वे दोनों बीचोबीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीतकी तान छेड़ देते हैं। मेरी प्यारी सखी ! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंग-मञ्चपर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है ॥ ८ ॥ अरी गोपियो ! यह वेणु पुरुष जातिका होनेपर भी पूर्वजन्ममें न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियोंकी अपनी सम्पत्तिदामोदरके अधरोंकी सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगोंके लिये थोड़ा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा। इस वेणुको अपने रससे सींचने- वाली ह्रदिनियाँ आज कमलोंके मिस रोमाञ्चित हो रही हैं और अपने वंशमें भगवत्प्रेमी सन्तानोंको देखकर श्रेष्ठ पुरुषोंके समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोडक़र आँखोंसे आनन्दाश्रु बहा रहे हैं ॥ ९ ॥

 

अरी सखी ! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोकतक पृथ्वीकी कीर्तिका विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्णके चरणकमलोंके चिह्नोंसे यह चिह्नित हो रहा है ! सखि ! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वतकी चोटियोंपर विचरनेवाले सभी पशु-पक्षी चुपचापशान्त होकर खड़े रह जाते हैं। अरी सखी ! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, तब मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशीकी तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगोंके साथ नन्दनन्दनके पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखोंसे उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमलके समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्णके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्णकी प्रेमभरी चितवनके द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।वास्तवमें उनका जीवन धन्य है ! (हम वृन्दावनकी गोपी होनेपर भी इस प्रकार उनपर अपनेको निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घरवाले कुढऩे लगते हैं। कितनी विडम्बना है !) ॥ १०-११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वेणुगीत

 

श्रीशुक उवाच ।

इत्थं शरत् स्वच्छजलं पद्माकरसुगन्धिना ।

न्यविशद् वायुना वातं स गोगोपालकोऽच्युतः ॥ १ ॥

कुसुमितवनराजिशुष्मिभृङ्‌ग

द्विजकुलघुष्टसरःसरिन्महीध्रम् ।

मधुपतिरवगाह्य चारयन् गाः

सहपशुपालबलश्चुकूज वेणुम् ॥ २ ॥

तद् व्रजस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं स्मरोदयम् ।

काश्चित् परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योऽन्ववर्णयन् ॥ ३ ॥

तद् वर्णयितुमारब्धाः स्मरन्त्यः कृष्णचेष्टितम् ।

नाशकन् स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप ॥ ४ ॥

बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं ।

बिभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।

रन्ध्रान् वेणोरधरसुधयापूरयन् गोपवृन्दैः ।

वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः ॥ ५ ॥

इति वेणुरवं राजन् सर्वभूतमनोहरम् ।

श्रुत्वा व्रजस्त्रियः सर्वा वर्णयन्त्योऽभिरेभिरे ॥ ६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शरद् ऋतुके कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाशयोंमें खिले हुए कमलोंकी सुगन्धसे सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालोंके साथ उस वनमें प्रवेश किया ॥ १ ॥ सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंसे परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियोंमें मतवाले भौंरे स्थान-स्थानपर गुनगुना रहे थे और तरह- तरहके पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जिससे उस वनके सरोवर, नदियाँ और पर्वतसब-के-सब गूँजते रहते थे। मधुपति श्रीकृष्णने बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ उसके भीतर घुसकर गौओंको चराते हुए अपनी बाँसुरीपर बड़ी मधुर तान छेड़ी ॥ २ ॥ श्रीकृष्णकी वह वंशीध्वनि भगवान्‌ के प्रति प्रेमभावको, उनके मिलनकी आकाङ्क्षाको जगानेवाली थी। (उसे सुनकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे परिपूर्ण हो गया) वे एकान्तमें अपनी सखियोंसे उनके रूप, गुण और वंशीध्वनिके प्रभावका वर्णन करने लगीं ॥ ३ ॥ व्रजकी गोपियोंने वंशीध्वनिका माधुर्य आपसमें वर्णन करना चाहा तो अवश्य; परंतु वंशीका स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्णकी मधुर चेष्टाओंकी, प्रेमपूर्ण चितवन, भौंहोंके इशारे और मधुर मुसकान आदिकी याद हो आयी। उनकी भगवान्‌से मिलनेकी आकाङ्क्षा और भी बढ़ गयी। उनका मन हाथसे निकल गया। वे मन-ही-मन वहाँ पहुँच गयीं, जहाँ श्रीकृष्ण थे। अब उनकी वाणी बोले कैसे ? वे उसके वर्णनमें असमर्थ हो गयीं ॥ ४ ॥ (वे मन-ही-मन देखने लगीं कि) श्रीकृष्ण ग्वालबालोंके साथ वृन्दावनमें प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिरपर मयूरपिच्छ है और कानोंपर कनेरके पीले-पीले पुष्प; शरीरपर सुनहला पीताम्बर और गलेमें पाँच प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी बनी वैजयन्ती माला है। रंगमञ्चपर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरीके छिद्रोंको वे अपने अधरामृतसे भर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्तिका गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठसे भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिह्नोंसे और भी रमणीय बन गया है ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! यह वंशीध्वनि जड, चेतनसमस्त भूतोंका मन चुरा लेती है। गोपियोंने उसे सुना और सुनकर उसका वर्णन करने लगीं। वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्णको पाकर आलिङ्गन करने लगीं ॥ ६ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...