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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)
महारास
गोपियों
की प्रार्थना से यह बात स्पष्ट है कि वे श्रीकृष्ण को अन्तर्यामी, योगेश्वरेश्वर परमात्मा के रूप में पहचानती थीं और जैसे दूसरे लोग गुरु,
सखा या माता-पिताके रूपमें श्रीकृष्णकी उपासना करते हैं, वैसे ही वे पतिके रूपमें श्रीकृष्णसे प्रेम करती थीं, जो कि शास्त्रोंमें मधुर भावके—उज्ज्वल परम रसके
नामसे कहा गया है। जब प्रेमके सभी भाव पूर्ण होते हैं और साधकोंको स्वामि-सखादिके
रूपमें भगवान् मिलते हैं, तब गोपियोंने क्या अपराध किया था
कि उनका यह उच्चतम भाव—जिसमें शान्त, दास्य,
सख्य और वात्सल्य सब-के-सब अन्तर्भूत हैं और जो सबसे उन्नत एवं सबका
अन्तिम रूप है—न पूर्ण हो ? भगवान् ने
उनका भाव पूर्ण किया और अपनेको असंख्य रूपोंमें प्रकट करके गोपियोंके साथ क्रीडा
की। उनकी क्रीडाका स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है—‘रेमे रमेशो
व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक: स्वप्रतिबिम्बविभ्रम:।’ जैसे नन्हा-सा
शिशु दर्पण अथवा जलमें पड़े हुए अपने प्रतिबिम्बके साथ खेलता है, वैसे ही रमेश भगवान् और व्रजसुन्दरियोंने रमण किया। अर्थात्
सच्चिदानन्दघन सर्वान्तर्यामी प्रेमरस-स्वरूप, लीलारसमय
परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णने अपनी ह्लादिनी-शक्तिरूपा आनन्द- चिन्मयरस-प्रतिभाविता
अपनी ही प्रतिमूर्तिसे उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्ब-स्वरूपा गोपियोंसे आत्मक्रीडा की।
पूर्णब्रह्म सनातन रसस्वरूप रसराज रसिक-शेखर रसपरब्रह्म अखिलरसामृतविग्रह भगवान्
श्रीकृष्णकी इस चिदानन्द-रसमयी दिव्य क्रीडाका नाम ही रास है। इसमें न कोई जड शरीर
था, न प्राकृत अङ्ग-सङ्ग था, और न इसके
सम्बन्धकी प्राकृत और स्थूल कल्पनाएँ ही थीं। यह था चिदानन्दमय भगवान्का दिव्य
विहार, जो दिव्य लीलाधाममें सर्वदा होते रहनेपर भी कभी-कभी
प्रकट होता है।
वियोग
ही संयोगका पोषक है,
मान और मद ही भगवान्की लीलामें बाधक हैं। भगवान्की दिव्य लीलामें
मान और मद भी, जो कि दिव्य हैं, इसीलिये
होते हैं कि उनसे लीलामें रसकी और भी पुष्टि हो। भगवान् की इच्छासे ही गोपियोंमें
लीलानुरूप मान और मदका सञ्चार हुआ और भगवान् अन्तर्धान हो गये। जिनके हृदयमें
लेशमात्र भी मद अवशेष है, नाममात्र भी मान का संस्कार शेष है,
वे भगवान् के सम्मुख रहनेके अधिकारी नहीं। अथवा वे भगवान् का,
पास रहनेपर भी, दर्शन नहीं कर सकते। परंतु
गोपियाँ गोपियाँ थीं, उनसे जगत्के किसी प्राणीकी तिलमात्र भी
तुलना नहीं है। भगवान् के वियोगमें गोपियोंकी क्या दशा हुई, इस बातको रासलीलाका प्रत्येक पाठक जानता है। गोपियोंके शरीर-मन-प्राण,
वे जो कुछ थीं—सब श्रीकृष्णमें एकतान हो गये।
उनके प्रेमोन्माद का वह गीत, जो उनके प्राणोंका प्रत्यक्ष
प्रतीक है, आज भी भावुक भक्तोंको भावमग्न करके भगवान् के
लीलालोकमें पहुँचा देता है। एक बार सरस हृदयसे हृदयहीन होकर नहीं, पाठ करनेमात्रसे ही यह गोपियोंकी महत्ता सम्पूर्ण हृदयमें भर देता है।
गोपियोंके उस ‘महाभाव’—उस ‘अलौकिक प्रेमोन्माद’को देखकर श्रीकृष्ण भी अन्तॢहत न
रह सके, उनके सामने ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ:’
रूपसे प्रकट हुए और उन्होंने मुक्तकण्ठसे स्वीकार किया कि ‘गोपियो ! मैं तुम्हारे प्रेमभावका चिर-ऋणी हूँ। यदि मैं अनन्त कालतक
तुम्हारी सेवा करता रहूँ, तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता।
मेरे अन्तर्धान होनेका प्रयोजन तुम्हारे चित्तको दुखाना नहीं था, बल्कि तुम्हारे प्रेमको और भी उज्ज्वल एवं समृद्ध करना था।’ इसके बाद रासक्रीडा प्रारम्भ हुई।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से