शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

उद्धवजी की व्रजयात्रा

 

श्रीउद्धव उवाच

युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद

नारायणेऽखिलगुरौ यत्कृता मतिरीदृशी ३०

एतौ हि विश्वस्य च बीजयोनी

रामो मुकुन्दः पुरुषः प्रधानम्

अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्य

ज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ ३१

यस्मिन्जनः प्राणवियोगकाले

क्षणं समावेश्य मनोऽविशुद्धम्

निर्हृत्य कर्माशयमाशु याति

परां गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः ३२

तस्मिन्भवन्तावखिलात्महेतौ

नारायणे कारणमर्त्यमूर्तौ

भावं विधत्तां नितरां महात्मन्

किं वावशिष्टं युवयोः सुकृत्यम् ३३

आगमिष्यत्यदीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः

प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान्सात्वतां पतिः ३४

हत्वा कंसं रङ्गमध्ये प्रतीपं सर्वसात्वताम्

यदाह वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत् ३५

मा खिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमन्तिके

अन्तर्हृदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि ३६

न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वास्त्यमानिनः

नोत्तमो नाधमो वापि समानस्यासमोऽपि वा ३७

न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः

नात्मीयो न परश्चापि न देहो जन्म एव च ३८

न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु

क्रीडार्थं सोऽपि साधूनां परित्राणाय कल्पते ३९

सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्

क्रीडन्नतीतोऽपि गुणैः सृजत्यवन्हन्त्यजः ४०

यथा भ्रमरिकादृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते

चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः ४१

युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान्हरिः

सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः ४२

दृष्टं श्रुतं भूतभवद्भविष्यत्

स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च

विनाच्युताद्वस्तुतरां न वाच्यं

स एव सर्वं परमात्मभूतः ४३

एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता

नन्दस्य कृष्णानुचरस्य राजन्

गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्

वास्तून्समभ्यर्च्य दौधीन्यमन्थुन् ४४

ता दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजू

रज्जूर्विकर्षद्भुजकङ्कणस्रजः

चलन्नितम्बस्तनहारकुण्डल-

त्विषत्कपोलारुणकुङ्कुमाननाः ४५

उद्गायतीनामरविन्दलोचनं

व्रजाङ्गनानां दिवमस्पृशद्ध्वनिः

दध्नश्च निर्मन्थनशब्दमिश्रितो

निरस्यते येन दिशाममङ्गलम् ४६

भगवत्युदिते सूर्ये नन्दद्वारि व्रजौकसः

दृष्ट्वा रथं शातकौम्भं कस्यायमिति चाब्रुवन् ४७

अक्रूर आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः

येन नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः ४८

किं साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रीतस्य निष्कृतिम्

ततः स्त्रीणां वदन्तीनामुद्धवोऽगात्कृताह्निकः ४९

 

उद्धवजीने कहाहे मानद ! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियोंमें अत्यन्त भाग्यवान् हैं, सराहना करनेयोग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर जगत्के बनानेवाले और उसे ज्ञान देनेवाले नारायण हैं, उनके प्रति आपके हृदयमें ऐसा वात्सल्यस्नेहपुत्रभाव है ॥ ३० ॥ बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसारके उपादानकारण और निमित्तकारण भी हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलरामजी प्रधान (प्रकृति)। ये ही दोनों समस्त शरीरोंमें प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञानस्वरूप जीव है, उसका नियमन करते हैं ॥ ३१ ॥ जो जीव मृत्युके समय अपने शुद्ध मनको एक क्षणके लिये भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओंको धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्यके समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगतिको प्राप्त होता है ॥ ३२ ॥ वे भगवान्‌ ही, जो सबके आत्मा और परम कारण हैं, भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनोंका ऐसा सुदृढ़ वात्सल्यभाव है; फिर महात्माओ ! आप दोनोंके लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह जाता है ॥ ३३ ॥ भक्तवत्सल यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनोंमें व्रजमें आयेंगे और आप दोनोंकोअपने माँ-बापको आनन्दित करेंगे ॥ ३४ ॥ जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियोंके द्रोही कंसको रंगभूमिमें मार डाला और आपके पास आकर कहा कि मैं व्रजमें आऊँगा’, उस कथनको वे सत्य करेंगे ॥ ३५ ॥ नन्दबाबा और माता यशोदाजी ! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्णको अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठमें अग्रि सदा ही व्यापक रूपसे रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ ३६ ॥ एक शरीरके प्रति अभिमान न होनेके कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टिमें न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँतक कि विषमताका भाव रखनेवाला भी उनके लिये विषम नहीं है ॥ ३७ ॥ न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही ॥ ३८ ॥ इस लोकमें उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओंके परित्राणके लिये, लीला करनेके लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियोंमें शरीर धारण करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवान्‌ अजन्मा हैं। उनमें प्राकृत सत्त्व, रज आदिमेंसे एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणोंसे अतीत होनेपर भी लीलाके लिये खेल- खेलमें वे सत्त्व, रज और तमइन तीनों गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं ॥ ४० ॥ जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं या मनुष्य वेगसे चक्कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तवमें सब कुछ करनेवाला चित्त ही है; परंतु उस चित्तमें अहंबुद्धि हो जानेके कारण, भ्रमवश उसे आत्माअपना मैंसमझ लेनेके कारण, जीव अपनेको कर्ता समझने लगता है ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण केवल आप दोनोंके ही पुत्र नहीं हैं, वे समस्त प्राणियोंके आत्मा, पुत्र, पिता-माता और स्वामी भी हैं ॥ ४२ ॥ बाबा ! जो कुछ देखा या सुना जाता हैवह चाहे भूतसे सम्बन्ध रखता हो, वर्तमानसे अथवा भविष्यसे; स्थावर हो या जङ्गम हो, महान् हो अथवा अल्प होऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान्‌ श्रीकृष्णसे पृथक् हो। बाबा ! श्रीकृष्णके अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह सकें। वास्तवमें सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं ॥ ४३ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपसमें बात करते रहे और वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहनेपर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर उन्होंने घरकी देहलियोंपर वास्तुदेवका पूजन किया, अपने घरोंको झाड़-बुहारकर साफ किया और फिर दही मथने लगीं ॥ ४४ ॥ गोपियोंकी कलाइयोंमें कंगन शोभायमान हो रहे थे, रस्सी खींचते समय वे बहुत भली मालूम हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन और गलेके हार हिल रहे थे। कानोंके कुण्डल हिल- हिलकर उनके कुङ्कुम-मण्डित कपोलोंकी लालिमा बढ़ा रहे थे। उनके आभूषणोंकी मणियाँ दीपककी ज्योतिसे और भी जगमगा रही थीं और इस प्रकार वे अत्यन्त शोभासे सम्पन्न होकर दही मथ रही थीं ॥ ४५ ॥ उस समय गोपियाँकमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णके मङ्गलमय चरित्रोंका गान कर रही थीं। उनका वह सङ्गीत दही मथनेकी ध्वनिसे मिलकर और भी अद्भुत हो गया तथा स्वर्गलोकतक जा पहुँचा, जिसकी स्वर-लहरी सब ओर फैलकर दिशाओंका अमङ्गल मिटा देती है ॥ ४६ ॥

 

जब भगवान्‌ भुवनभास्करका उदय हुआ, तब व्रजाङ्गनाओंने देखा कि नन्दबाबाके दरवाजेपर एक सोनेका रथ खड़ा है। वे एक-दूसरेसे पूछने लगीं यह किसका रथ है ?’ ॥ ४७ ॥ किसी गोपीने कहा—‘कंसका प्रयोजन सिद्ध करनेवाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है ? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुन्दरको यहाँसे मथुरा ले गया था॥ ४८ ॥ किसी दूसरी गोपीने कहा—‘क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंसका पिण्डदान करेगा ? अब यहाँ उसके आनेका और क्या प्रयोजन हो सकता है?’ व्रजवासिनी स्त्रियाँ इसी प्रकार आपसमें बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्मसे निवृत्त होकर उद्धवजी आ पहुँचे ॥ ४९ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नन्दशोकापनयनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

उद्धवजी की व्रजयात्रा

 

तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्

नन्दः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियार्चयत् १४

भोजितं परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम्

गतश्रमं पर्यपृच्छत्पादसंवाहनादिभिः १५

कच्चिदङ्ग महाभाग सखा नः शूरनन्दनः

आस्ते कुशल्यपत्याद्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद्व्रतः १६

दिष्ट्या कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना

साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा १७

अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्

गोपान्व्रजं चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम् १८

अप्यायास्यति गोविन्दः स्वजनान्सकृदीक्षितुम्

तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम् १९

दावाग्नेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिताः

दुरत्ययेभ्यो मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना २०

स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापाङ्गनिरीक्षितम्

हसितं भाषितं चाङ्ग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः २१

सरिच्छैलवनोद्देशान्मुकुन्दपदभूषितान्

आक्रीडानीक्ष्यमाणानां मनो याति तदात्मताम् २२

मन्ये कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ

सुराणां महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा २३

कंसं नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं यथा

अवधिष्टां लीलयैव पशूनिव मृगाधिपः २४

तालत्रयं महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट्

बभञ्जैकेन हस्तेन सप्ताहमदधाद्गिरिम् २५

प्रलम्बो धेनुकोऽरिष्टस्तृणावर्तो बकादयः

दैत्याः सुरासुरजितो हता येनेह लीलया २६

 

श्रीशुक उवाच

इति संस्मृत्य संस्मृत्य नन्दः कृष्णानुरक्तधीः

अत्युत्कण्ठोऽभवत्तूष्णीं प्रेमप्रसरविह्वलः २७

यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च

शृण्वन्त्यश्रूण्यवास्राक्षीत्स्नेहस्नुतपयोधरा २८

तयोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः

वीक्ष्यानुरागं परमं नन्दमाहोद्धवो मुदा २९

 

जब भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रजमें आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धवजीको गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ गये हों ॥ १४ ॥ समयपर उत्तम अन्नका भोजन कराया और जब वे आरामसे पलँगपर बैठ गये, सेवकोंने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी ॥ १५ ॥ तब नन्दबाबाने उनसे पूछा—‘परम भाग्यवान् उद्धवजी ! अब हमारे सखा वसुदेवजी जेलसे छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशलसे तो हैं न ? ॥ १६ ॥ यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि अपने पापोंके फलस्वरूप पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। क्योंकि स्वभावसे ही धाॢमक परम साधु यदुवंशियोंसे वह सदा द्वेष करता था ॥ १७ ॥ अच्छा उद्धवजी ! श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी भी याद करते हैं ? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हींको अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाला यह व्रज है; उन्हींकी गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं ? ॥ १८ ॥ आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुह्ृद्-बान्धवोंको देखनेके लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या ? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवनसे युक्त मुखकमल देख तो लेते ॥ १९ ॥ उद्धवजी ! श्रीकृष्णका हृदय उदार है, उनकी शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानलसे, आँधी-पानीसे, वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मृत्युके निमित्तोंसेजिन्हें टालनेका कोई उपाय न थाएक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है ॥ २० ॥ उद्धवजी ! हम श्रीकृष्णके विचित्र चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मधुर भाषण आदिका स्मरण करते रहते हैं और उसमें इतने तन्मय रहते हैं कि अब हमसे कोई काम-काज नहीं हो पाता ॥ २१ ॥ जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीडा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने अपने एक हाथपर उठा लिया था; ये वे ही वनके प्रदेश हैं, जहाँ श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओंके साथ अनेकों प्रकारके खेल खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिह्न अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो जाता है ॥ २२ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकृष्ण और बलरामको देवशिरोमणि मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओंका कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान्‌ गर्गाचार्यजीने मुझसे ऐसा ही कहा था ॥ २३ ॥ जैसे सिंह बिना किसी परिश्रमके पशुओंको मार डालता है, वैसे ही उन्होंने खेल-खेलमें ही दस हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कंस, उसके दोनों अजेय पहलवानों और महान् बलशाली गजराज कुवलयापीडक़ो मार डाला ॥ २४ ॥ उन्होंने तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुषको वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी किसी छड़ीको तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्णने एक हाथसे सात दिनोंतक गिरिराजको उठाये रखा था ॥ २५ ॥ यहीं सबके देखते-देखते खेल- खेलमें उन्होंने प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बक आदि उन बड़े-बड़े दैत्योंको मार डाला, जिन्होंने समस्त देवता और असुरोंपर विजय प्राप्त कर ली थी॥ २६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! नन्दबाबाका हृदय यों ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके अनुराग-रंगमें रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओंका एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेमकी बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिलनेकी अत्यन्त उत्कण्ठा होनेके कारण उनका गला रुँध गया। वे चुप हो गये ॥ २७ ॥ यशोदारानी भी वहीं बैठकर नन्दबाबाकी बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्णकी एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रोंसे आँसू बहते जाते थे और पुत्रस्नेहकी बाढ़से उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहती जा रही थी ॥ २८ ॥ उद्धवजी नन्दबाबा और यशोदारानीके हृदयमें श्रीकृष्णके प्रति कैसा अगाध अनुराग हैयह देखकर आनन्दमग्र हो गये और उनसे कहने लगे ॥ २९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




गुरुवार, 20 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

उद्धवजी की व्रजयात्रा

 

श्रीशुक उवाच

वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा

शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः

तमाह भगवान्प्रेष्ठं भक्तमेकान्तिनं क्वचित्

गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः

गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह

गोपीनां मद्वियोगाधिं मत्सन्देशैर्विमोचय

ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः

मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गताः

ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभर्म्यहम्

मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः

स्मरन्त्योऽङ्ग विमुह्यन्ति विरहौत्कण्ठ्यविह्वलाः

धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान्कथञ्चन

प्रत्यागमनसन्देशैर्बल्लव्यो मे मदात्मिकाः

 

श्रीशुक उवाच

इत्युक्त उद्धवो राजन्सन्देशं भर्तुरादृतः

आदाय रथमारुह्य प्रययौ नन्दगोकुलम्

प्राप्तो नन्दव्रजं श्रीमान्निम्लोचति विभावसौ

छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः

वासितार्थेऽभियुध्यद्भिर्नादितं शुष्मिभिर्वृषैः

धावन्तीभिश्च वास्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान्

इतस्ततो विलङ्घद्भिर्गोवत्सैर्मण्डितं सितैः

गोदोहशब्दाभिरवं वेणूनां निःस्वनेन च १०

गायन्तीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयोः

स्वलङ्कृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम् ११

अग्न्यर्कातिथिगोविप्र पितृदेवार्चनान्वितैः

धूपदीपैश्च माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम् १२

सर्वतः पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम्

हंसकारण्डवाकीर्णैः पद्मषण्डैश्च मण्डितम् १३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उद्धवजी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् बृहस्पतिजी के शिष्य और परम बुद्धिमान् थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे बढक़र और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे ॥ १ ॥ एक दिन शरणागतोंके सारे दु:ख हर लेनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने प्रिय भक्त और एकान्तप्रेमी उद्धवजीका हाथ अपने हाथमें लेकर कहा॥ २ ॥ सौम्यस्वभाव उद्धव ! तुम व्रजमें जाओ। वहाँ मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियाँ मेरे विरहकी व्याधिसे बहुत ही दुखी हो रही हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदनासे मुक्त करो ॥ ३ ॥ प्यारे उद्धव ! गोपियोंका मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंको छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धिसे भी मुझीको अपना प्यारा, अपना प्रियतमनहीं, नहीं, अपना आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मोंको छोड़ देते हैं, उनका भरण- पोषण मैं स्वयं करता हूँ ॥ ४ ॥ प्रिय उद्धव ! मैं उन गोपियोंका परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आनेसे वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरहकी व्यथासे विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं ॥ ५ ॥ मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्नसे अपने प्राणोंको किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि मैं आऊँगा।वही उनके जीवनका आधार है। उद्धव ! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं॥ ६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदरसे अपने स्वामीका सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और नन्दगाँवके लिये चल पड़े ॥ ७ ॥ परम सुन्दर उद्धवजी सूर्यास्तके समय नन्दबाबाके व्रजमें पहुँचे। उस समय जंगलसे गौएँ लौट रही थीं। उनके खुरोंके आघातसे इतनी धूल उड़ रही थी कि उनका रथ ढक गया था ॥ ८ ॥ व्रजभूमिमें ऋतुमती गौओंके लिये मतवाले साँड़ आपसमें लड़ रहे थे। उनकी गर्जनासे सारा व्रज गूँज रहा था। थोड़े दिनोंकी ब्यायी हुई गौएँ अपने थनोंके भारी भारसे दबी होनेपर भी अपने-अपने बछड़ोंकी ओर दौड़ रही थीं ॥ ९ ॥ सफेद रंगके बछड़े इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। गाय दुहनेकी घर-घरध्वनिसे और बाँसुरियोंकी मधुर टेरसे अब भी व्रजकी अपूर्व शोभा हो रही थी ॥ १० ॥ गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा गहनोंसे सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके मङ्गलमय चरित्रोंका गान कर रहे थे और इस प्रकार व्रजकी शोभा और भी बढ़ गयी थी ॥ ११ ॥ गोपोंके घरोंमें अग्रि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता-पितरोंकी पूजा की हुई थी। धूपकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरोंको पुष्पोंसे सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहोंसे सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था ॥ १२ ॥ चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलोंसे लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही कमलोंके वनसे शोभायमान थे, और हंस, बत्तख आदि पक्षी वनमें विहार कर रहे थे ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

श्रीसमुद्र उवाच

न चाहार्षमहं देव दैत्यः पञ्चजनो महान्

अन्तर्जलचरः कृष्ण शङ्खरूपधरोऽसुरः ४०

आस्ते तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः

जलमाविश्य तं हत्वा नापश्यदुदरेऽर्भकम् ४१

तदङ्गप्रभवं शङ्खमादाय रथमागमत्

ततः संयमनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम् ४२

गत्वा जनार्दनः शङ्खं प्रदध्मौ सहलायुधः

शङ्खनिर्ह्रादमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यमः ४३

तयोः सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्

उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम्

लीलामनुष्ययोर्विष्णो युवयोः करवाम किम् ४४

 

श्रीभगवानुवाच

गुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्मनिबन्धनम्

आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृतः ४५

तथेति तेनोपानीतं गुरुपुत्रं यदूत्तमौ

दत्त्वा स्वगुरवे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः ४६

 

श्रीगुरुरुवाच

सम्यक्सम्पादितो वत्स भवद्भ्यां गुरुनिष्क्रयः

को नु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते ४७

गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी

छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ४८

गुरुणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा

आयातौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै ४९

समनन्दन्प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ

अपश्यन्त्यो बह्वहानि नष्टलब्धधना इव ५०

 

मनुष्यवेषधारी समुद्र ने कहा—‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण ! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जलमें पञ्चजन नामका एक बड़ा भारी दैत्य जातिका असुर शङ्ख के रूपमें रहता है। अवश्य ही उसीने वह बालक चुरा लिया होगा॥ ४० ॥ समुद्रकी बात सुनकर भगवान्‌ तुरंत ही जलमें जा घुसे और शङ्खासुर को मार डाला। परंतु वह बालक उसके पेट में नहीं मिला ॥ ४१ ॥ तब उसके शरीरका शङ्ख लेकर भगवान्‌ रथपर चले आये। वहाँसे बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने यमराजकी प्रिय पुरी संयमनीमें जाकर अपना शङ्ख बजाया। शङ्खका शब्द सुनकर सारी प्रजाका शासन करनेवाले यमराजने उनका स्वागत किया और भक्तिभावसे भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रतासे झुककर समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान सच्चिदानन्द-स्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा—‘लीलासे ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर ! मैं आप दोनोंकी क्या सेवा करूँ ?’ ॥ ४२४४ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहा—‘यमराज ! यहाँ अपने कर्मबन्धनके अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्मपर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ ॥ ४५ ॥ यमराजने जो आज्ञाकहकर भगवान्‌का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी उस बालकको लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेवको सौंपकर कहा कि आप और जो कुछ चाहें, माँग लें॥ ४६ ॥

 

गुरुजीने कहा—‘बेटा ! तुम दोनोंने भलीभाँति गुरुदक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये ? जो तुम्हारे-जैसे पुरुषोत्तमों का गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है ? ॥ ४७ ॥ वीरो ! अब तुम दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकोंको पवित्र करनेवाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोकमें सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो॥ ४८ ॥ बेटा परीक्षित्‌ ! फिर गुरुजीसे आज्ञा लेकर वायुके समान वेग और मेघके समान शब्दवाले रथपर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये ॥ ४९ ॥ मथुराकी प्रजा बहुत दिनोंतक श्रीकृष्ण और बलरामको न देखनेसे अत्यन्त दुखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्द में मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो ॥ ५० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गुरुपुत्रानयनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




बुधवार, 19 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः

काश्यं सान्दीपनिं नाम ह्यवन्तिपुरवासिनम् ३१

यथोपसाद्य तौ दान्तौ गुरौ वृत्तिमनिन्दिताम्

ग्राहयन्तावुपेतौ स्म भक्त्या देवमिवादृतौ ३२

तयोर्द्विजवरस्तुष्टः शुद्धभावानुवृत्तिभिः

प्रोवाच वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदो गुरुः ३३

सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान्न्यायपथांस्तथा

तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम् ३४

सर्वं नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ

सकृन्निगदमात्रेण तौ सञ्जगृहतुर्नृप ३५

अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः

गुरुदक्षिणयाचार्यं छन्दयामासतुर्नृप ३६

द्विजस्तयोस्तं महिमानमद्भुतं

संलक्ष्य राजन्नतिमानुषीं मतिम्

सम्मन्त्र्य पत्न्या स महार्णवे मृतं

बालं प्रभासे वरयां बभूव ह ३७

तथेत्यथारुह्य महारथौ रथं

प्रभासमासाद्य दुरन्तविक्रमौ

वेलामुपव्रज्य निषीदतुः क्षणं

सिन्धुर्विदित्वार्हणमाहरत्तयोः ३८

तमाह भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्

योऽसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा ३९

 

अब वे दोनों गुरुकुलमें निवास करनेकी इच्छासे काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनिके पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे ॥ ३१ ॥ वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजीके पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओंको सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरुकी उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगोंके सामने रखते हुए बड़ी भक्तिसे इष्टदेवके समान उनकी सेवा करने लगे ॥ ३२ ॥ गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभावसे युक्त सेवासे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों भाइयोंको छहों अङ्ग और उपनिषदोंके सहित सम्पूर्ण वेदोंकी शिक्षा दी ॥ ३३ ॥ इनके सिवा मन्त्र और देवताओंके ज्ञानके साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदोंका तात्पर्य बतलानेवाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदिकी भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और आश्रयइन छ: भेदोंसे युक्त राजनीतिका भी अध्ययन कराया ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओंके प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्यका-सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरुजीके केवल एक बार कहनेमात्रसे सारी विद्याएँ सीख लीं ॥ ३५ ॥ केवल चौसठ दिन-रातमें ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयोंने चौंसठों कलाओंका[*] ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होनेपर उन्होंने सान्दीपनि मुनिसे प्रार्थना की कि आपकी जो इच्छा हो, गुरु-दक्षिणा माँग लें॥ ३६ ॥ महाराज ! सान्दीपनि मुनिने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धिका अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नीसे सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि प्रभासक्षेत्रमें हमारा बालक समुद्रमें डूबकर मर गया था, उसे तुमलोग ला दो॥ ३७ ॥ बलरामजी और श्रीकृष्णका पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने बहुत अच्छाकहकर गुरुजीकी आज्ञा स्वीकार की और रथपर सवार होकर प्रभासक्षेत्रमें गये। वे समुद्रतटपर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ ने समुद्रसे कहा—‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरङ्गोंसे हमारे जिस गुरुपुत्रको बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो॥ ३९ ॥

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[*] चौंसठ कलाएँ ये हैं

१ गानविद्या, २ वाद्यभाँति-भाँतिके बाजे बजाना, ३ नृत्य, ४ नाट्य, ५ चित्रकारी, ६ बेल-बूटे बनाना, ७ चावल और पुष्पादिसे पूजाके उपहारकी रचना करना, ८ फूलोंकी सेज बनाना, ९ दाँत, वस्त्र और अङ्गोंको रँगना, १० मणियोंकी फर्श बनाना, ११ शय्या-रचना, १२ जलको बाँध देना, १३ विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना, १४ हार-माला आदि बनाना, १५ कान और चोटीके फूलोंके गहने बनाना, १६ कपड़े और गहने बनाना, १७ फूलोंके आभूषणोंसे शृङ्गार करना, १८ कानोंके पत्तोंकी रचना करना, १९ सुगन्धित वस्तुएँइत्र, तैल आदि बनाना, २० इन्द्रजालजादूगरी, २१ चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, २२ हाथकी फुर्तीके काम, २३ तरह-तरहकी खानेकी वस्तुएँ बनाना, २४ तरह-तरहके पीनेके पदार्थ बनाना, २५ सूईका काम, २६ कठपुतली बनाना, नचाना, २७ पहेली, २८ प्रतिमा आदि बनाना, २९ कूटनीति, ३० ग्रन्थोंके पढ़ानेकी चातुरी, ३१ नाटक, आख्यायिका आदिकी रचना करना, ३२ समस्यापूर्ति करना, ३३ पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना, ३४ गलीचे, दरी आदि बनाना, ३५ बढ़ईकी कारीगरी, ३६ गृह आदि बनानेकी कारीगरी, ३७ सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नोंकी परीक्षा, ३८ सोना-चाँदी आदि बना लेना, ३९ मणियोंके रंगको पहचानना, ४० खानोंकी पहचान, ४१ वृक्षोंकी चिकित्सा, ४२ भेड़ा मुर्गा, बटेर आदिको लड़ानेकी रीति, ४३ तोता-मैना आदिकी बोलियाँ बोलना, ४४ उच्चाटनकी विधि, ४५ केशोंकी सफाईका कौशल, ४६ मु_ीकी चीज या मनकी बात बता देना, ४७ म्लेच्छ-काव्योंका समझ लेना, ४८ विभिन्न देशोंकी भाषाका ज्ञान, ४९ शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्रोंके उत्तरमें शुभाशुभ बतलाना, ५० नाना प्रकारके मातृकायन्त्र बनाना, ५१ रत्नोंको नाना प्रकारके आकारोंमें काटना, ५२ सांकेतिक भाषा बनाना, ५३ मनमें कटकरचना करना, ५४ नयी-नयी बातें निकालना, ५५ छलसे काम निकालना, ५६ समस्त कोशोंका ज्ञान, ५७ समस्त छन्दोंका ज्ञान, ५८ वस्त्रोंको छिपाने या बदलनेकी विद्या, ५९ द्यूत क्रीड़ा, ६० दूरके मनुष्य या वस्तुओंका आकर्षण कर लेना, ६१ बालकोंके खेल, ६२ मन्त्रविद्या, ६३ विजय प्राप्त करानेवाली विद्या, ६४ वेताल आदिको वशमें रखनेकी विद्या।

 

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