मंगलवार, 31 जनवरी 2023

गोविन्दाय नम:



भगवन् ! 

जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जाले को फैलाती, उसकी रक्षा करती और अन्त में उसे निगल जाती है—उसी प्रकार आप अकेले ही जगत् की रचना करने के लिये अपने से अभिन्न अपनी योगमाया को स्वीकार कर उससे अभिव्यक्त हुई अपनी सत्त्वादि शक्तियों-द्वारा स्वयं ही इस जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं ॥ 

एकः स्वयं संजगतः सिसृक्षया
     अद्वितीययात्मन् अधि योगमायया ।
सृजस्यदः पासि पुनर्ग्रसिष्यसे
     यथोर्णनाभिः भगवन् स्वशक्तिभिः ॥ 

(श्रीमद्भागवत ३|२१|१९)


रविवार, 29 जनवरी 2023

श्रीकृष्ण गोविन्द हरेमुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव !!

|| श्रीहरि  ||

      कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है । विचारवान् पुरुष भगवान्‌ के चिन्तन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं । तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान्‌ की लीलाकथा में प्रेम न करे ॥ 

“यदनुध्यासिना युक्ता: कर्मग्रन्थिनिबन्धनम् |
छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्यात् कथारतिम् ॥“

...(श्रीमद्भागवत १.२.१५)


शनिवार, 28 जनवरी 2023

जय श्रीकृष्ण

“कलौ भागवती वार्ता भवरोग विनाशिनी”

(इस कलियुग में भागवत की कथा भवरोग की रामवाण औषध है)


शुक्रवार, 27 जनवरी 2023

सदा सेव्या सदा सेव्या........

|| गोविंदाय नमो नम: ||


“सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा ।
यस्याः श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ॥ “

श्रीमद्भागवत की कथा का सदा-सर्वदा सेवन, आस्वादन करना चाहिये। इसके श्रवणमात्र से श्रीहरि हृदय में आ विराजते हैं ॥ 

...... (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य ०३/२५)


बुधवार, 25 जनवरी 2023

श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे ! हे नाथ नारायण वासुदेव !!


भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्य के प्रतिकूल होने पर घर के भीतर तिजोरी में रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारे के दैव की दयादृष्टि से जंगल में भी बहुत दिनों तक जीवित रहता है, परन्तु भाग्य के विपरीत होने पर घर में सुरक्षित रहने पर भी मर जाता है ॥ 

“पथि च्युतं तिष्ठति दिष्टरक्षितं 
गृहे स्थितं तद्विहतं विनश्यति ।
जीवत्यनाथोऽपि तदीक्षितो वने 
गृहेऽभिगुप्तोऽस्य हतो न जीवति ॥“

....श्रीमद्भागवत०७/२/४०


भक्त का वैराग्य प्रेम से उत्पन्न होता है

|| श्रीहरिशरणम् ||

भक्तियोग कुछ त्याग करने की शिक्षा नहीं देता। वह यही कहता है कि उस परम पुरुष में आसक्त हो‍ओ और जो उस परम पुरुषके प्रेम में उन्मत्त हैं, उनकी स्वाभाविक ही नीच विषयोंमें कोई आसक्ति नहीं रह सकती। मैं तुम्हारे सम्बन्धमें और कुछ भी नहीं जानता, केवल यही जानता हूं कि तुम मेरे हो। तुम सुन्दर हो, आहाहा! तुम परम सुन्दर हो, तुम स्वयं सौन्दर्य-स्वरूप हो। भक्तियोग कहता है ‘हे मनुष्य! सुन्दर वस्तुके प्रति स्वाभाविक ही तुम आकर्षित होते हो, भगवान्‌ परम सुन्दर हैं, तुम उन्हें प्राणोंसे बढ़कर प्रेम करो।’ मनुष्यके चेहरेमें, आकाशमें, तारागणोंमें और चन्द्रमामें जो सौन्दर्यका विकास देखनेमें आता है सो कहांसे आया? वह उस भगवान्‌के सर्वतोमुखी यथार्थ सौन्दर्यका आंशिक प्रकाश मात्र है। उसीके प्रकाशसे सबका प्रकाश है ( तस्य भासा सर्वमिदं विभाति, श्रुति ) भक्तिकी इस ऊंची भूमिपर खड़े हो‍ओ, यह तुम्हारे क्षुद्र ‘मैं पन’ को भुला देगी। जगत्‌की क्षुद्र स्वार्थमयी आसक्तियोंका त्याग करो | साक्षीरूपसे स्थित होकर प्रकृतिके सारे खेल देखो। मनुष्यके प्रति आसक्ति मत करो। देखो, जगत्‌में यह प्रेमकाप्रबल प्रवाह क्या काम करता है? संभव है कभी एक धक्का लगे, उसे भी उस परमप्रेमको प्राप्त करनेके प्रयत्नमें एक आनुपङ्गिक मात्र समझो। संभव है कहीं द्वन्द्व हो जाय. किसीका पैर फिसल पड़े, पर ये सभी उस परम प्रेम तक पहुंचनेकी सीढ़ियां हैं। कितनेही द्वन्द्व क्यों न हों, कितना भी संघर्ष क्यों न आवे, तुम साक्षी बनकर जरा दूर खड़े रहो। जबतक तुम इस संसारके प्रवाहमें पड़े हो, तभीतक तुम्हारे यह धक्के लगते हैं। जब तुम इससे निकलकर साक्षी बनजाओगे, तब तुम्हें दिखायी देगा कि भगवान्‌ ही अनन्त प्रकारसे प्रेमके स्वरूपमें प्रकट हो रहे हैं।

भक्तियोगी जीवन-संग्रामका अर्थ समझते हैं। वे उसे लांघकर आते हैं-इससे उसका लक्ष्य उन्हें विदित रहता है। इसीसे वे प्राणपणसे यही चाहते हैं कि कहीं विषयोंके आकर्षणरूपी भंवरमें पड़कर डुबकियां न खानी पड़ें। वे सब आकर्षणोंके मूल कारणस्वरूप श्रीहरिके समीप सीधे जाना चाहते हैं। भक्तका यही त्याग है। भगवान्‌के प्रति होनेवाला महान्‌ आकर्षण उनकी अन्यान्य समस्त आसक्तियोंका नाश कर देता है। यह प्रबल अनन्त प्रेम उनके हृदयमें प्रवेशकर अन्य सभी आसक्तियोंको वहांसे निकाल बाहर करता है। जब भक्त स्वयं भगवान्‌-रूप प्रेम-समुद्रके जलसे अपने हृदयको भरा हुआ देखते हैं, तब अन्यान्य आसक्तियां वहां टिक भी कैसे सकती हैं? वहां छोटे छोटे प्रेमोंके लिये स्थान नहीं रह जाता। सारांश यह कि भक्तका वैराग्य यानी भगवान्‌के सिवा अन्य समस्त विषयोंमें अनासक्ति भगवान्‌के प्रति परम प्रेमसे ही उत्पन्न होती है।

जब भक्तके हृदयमें महान्‌ प्रेम-समुद्र प्रवेश कर जाता है तब उन्हें मनुष्यके अन्दर मनुष्य नहीं दीखता। उन्हें दीख पड़ता है सर्वत्र ही अपना प्रियतम! वे जिसकी ओर दृष्टि करते हैं, उसीमें उन्हें श्रीहरिका प्रकाश दीख पड़ता है। सूर्य और चन्द्रमाका प्रकाश भगवान्‌का ही प्रकाशमात्र दीखता है। जहां भी कोई सौन्दर्य या महत्त्व देखनेमें आता है, उनकी दृष्टिमें वह सब भगवान्‌का होता है। इस प्रकारके भक्त संसारमें अब भी हैं। जगत्‌ कभी ऐसे भक्तोंसे शून्य नहीं रहता। ऐसे ही भक्त सांप काटनेपर कहते हैं ‘हमारे प्रियतम के यहां से दूत आया था’। ऐसे ही लोग सार्वभौम भ्रातृभावके सम्बन्धमें कुछ कहनेका आधिकार रखते हैं। उनके हृदयमें कभी क्रोध, घृणा या ईर्ष्या नहीं होती | जब वे प्रेमबलसे अतीन्द्रिय सत्यको सदा देख सकते हैं तब उनमें क्रोधकी संभावना ही कहां है?

स्वामी विवेकानन्द 
………..००३. १०. वैशाख कृष्ण ११. सं० १९८६.कल्याण (पृ० ९१२)


मंगलवार, 24 जनवरी 2023

“ईशस्य हि वशे लोको... ..."

|| जय श्रीहरि ||

जैसे कठपुतली, नचानेवाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है ॥

“ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥“

….श्रीमद्भागवत १|६|७


सोमवार, 23 जनवरी 2023

मूर्ति पूजा (पोस्ट 02)

 श्री परमात्मने नम:

मन्दिर, मूर्ति या ग्रन्थ तो उपासना के साधन हैं। एकबार भारत में मैं एक महात्मा के पास जाकर वेद, बाइबल, कुरान आदिकी बातें करने लगा। पास ही एक पञ्चांग पड़ा हुआ था। महात्मा ने मुझसे कहा, ‘इसे जोरसे दबाओ,’ मैने उसे खूब दबाया। वे आश्चर्य से बोले कि, इसमें तो कई इंच जल बरसने का भविष्य है, परन्तु तुम्हारे इतना दबाने से तो जलकी एक बूंद भी नहीं निकली ।’ मैंने कहा, महाराज ! यह पञ्चाङ्ग जड़ पुस्तक है । इसपर उन्होंने कहा, ‘इसी तरह जिस मूर्ति या पुस्तक को तुम मानते हो, वह स्वयं कुछ नहीं करती परन्तु इष्ट मार्ग बतलाने में सहायक होती है।’ ईश्वररूप होजाना ही हिदुओंका अन्तिम लक्ष्य है। वेद कहते हैं कि बाह्य उपचारों से पूजा करना उन्नति का पहला सोपान है, प्रार्थना या भक्ति दूसरा और ईश्वर में तन्मय हो जाना तीसरा सोपान है । मूर्तिपूजक मूर्ति के सामने बैठकर प्रार्थना करता है--‘हे प्रभो ! मैं तुम्हें सूर्य चन्द्रमा या तारागणों का प्रकाश कैसे दिखलाऊं? वे सब तो तुम्हारे ही प्रकाश से प्रकाशमान हैं ।’ मूर्तिपूजक दूसरे साधनों से पूजा करनेवालेकी निन्दा नहीं करता । दूसरी सीढ़ी पर चढ़े हुए मनुष्य का पहली सीढ़ी के मनुष्य की निन्दा करना, एक युवक का बच्चे को देखकर उसकी हंसी उड़ाने के बराबर है !
मूर्ति का दर्शन करते ही यदि मनमें पवित्र भाव उत्पन्न होते हों तो मूर्ति-दर्शनमें पाप कैसा? दूसरे सोपानपर पहुंचा हुआ हिन्दू साधक पहले सोपानपर स्थित समाजकी निन्दा नहीं करता, वह यह नहीं समझता कि मैं पहले बुरा कर्म करता था। सत्यकी अर्धप्रकाशित कल्पनाको पारकर प्रकाश में पहुंचना ही हिन्दुका लक्ष्य है, वह अपनेको पापी नहीं समझता। हिन्दुओंका विश्वास है कि जीवमात्र पुण्यमय-पुण्यस्वरूप परमात्मा के अनन्त रूप हैं। जंगली जातियों के धर्म मार्ग से लेकर अद्वैत वेदान्ततक सभी मार्ग एक ही केन्द्रके समीप पहुंचते हैं। देश, काल और पात्रानुसार सभी मानवीय चेष्टाएं उस एक सत्यका पता लगाने के लिये ही हैं। कोई पहले कोई पीछे सभी उसी सत्यको प्राप्त करेंगे। हिन्दुओंका हठ नहीं है कि सब कोई हमारे विशिष्ट मतोंको ही मानें। दूसरे लोग चाहते हैं कि सब एक ही नापका अंगरखा पहनें, चाहे वह शरीरपर ठीक नहीं बैठता हो, परन्तु हिन्दु ऐसा नहीं समझते। प्रतिमा या पुस्तक मूलस्वरूपको दिखानेके संकेतमात्र हैं, यदि कोई उनका उपयोग न करे तो हिन्दु उसे मूर्ख या पापी नहीं समझते। जैसे एक सूर्यकी किरणें अनेक रंगोंके कांचोंमें भिन्न भिन्न वर्णकी दिखायी देती है, वैसे ही भिन्न भिन्न धर्म-सम्प्रदाय भी एक ही केन्द्र के भिन्न भिन्न मार्ग हैं-
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
यद्याद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव च।
तत्तदेवावगच्छ्त्त्वं मम तेजोंशसम्भवम्‌॥
‘हे अर्जुन! मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण विश्व सूत्रमें सूत्रके मणियोंकी भांति मुझमें गुथा है। जिन जिन वस्तुओंमें विभूति, कान्ति और बल है, उन उन वस्तुओंको मेरे ही तेजसे उत्पन्न हुई जान।’
अनेक युगों की परम्परासे निर्मित इस हिन्दु धर्म ने मानव जाति पर अनन्त उपकार किये हैं। हिन्दुओंके लिये पर-मत-असहिष्णुता कोई चीज ही नहीं है। ‘अविरोधी तु यो धर्मो सधर्मो मुनिपुंगव।’ यह हिन्दुओंका सिद्धान्त है। वे यह नहीं कहते कि मुक्ति हिन्दुओंको ही मिलेगी, शेष सब नरकमें जायंगे। महर्षि व्यासने कहा है कि भिन्न जाति और भिन्न धर्मके ऐसे बहुतसे लोग मैने देखे हैं जो पूर्णताको प्राप्त हो चुके थे।


( लेखक: स्वामी विवेकानन्द )
..........००३. ०८.फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७५७)


मूर्त्ति पूजा (पोस्ट 01)

श्री परमात्मने नम:


 इसमें कोई सन्देह नहीं कि धर्म  का पागलपन उन्नति में बाधक होता है परन्तु अन्धश्रद्धा उससे भी भयानक है ।  ईसाईयों को प्रार्थना के लिये गिरजे की क्या आवश्यकता है ?  क्रास के चिन्ह में पवित्रता कहां से आगयी ?  प्रार्थना करते समय आंखें क्यों मूंद लेनी चाहिये ?  परमेश्‍वर के गुणोंका वर्णन करते समय ‘प्राटेष्टण्ट’ ईसाई मूर्तियों की कल्पना क्यों करते हैं?  ‘कैथलिक’ मत माननेवालों को मूर्तियों की क्यों आवश्यकता हुई ?  बन्धुओं !  बात यह है कि जैसे श्‍वासोच्छ्‌वास के बिना जीना सम्भव नहीं, वैसे ही गुणों की किसी तरह की मनोमयी मूर्ति बनाये बिना उनका चिन्तन होना भी असम्भव है।  हमें सभी को कभी यह अनुभव नहीं हो सकता कि हमारा चित्त निराकार में लीन हो गय़ा है, क्योंकि हमें जड़विषय और गुणों की मिश्र अवस्था में देखनेका अभ्यास पड़ गया है।  गुणोंके बिना जड़ विषय और जड़ विषयों के बिना गुणों का चिन्तन नहीं किया जा सकता, इसी तत्त्व को समझकर हिन्दुओं ने गुणों का मूर्तिमय दृश्य स्वरूप बनाया है।  हमारी मूर्तियां हमें ईश्‍वर के गुणों का स्मरण कराने वाले चिन्हमात्र हैं।  चित्तकी चञ्चलता मिटकर वह सद्‌गुणों की मूर्ति परमात्मा में तल्लीन हो जाय, इसीलिये मूर्तियां बनीं हैं।  हिन्दु इस बातको जानते हैं कि पत्थरकी मूर्ति ईश्‍वर नहीं है, वे उसमें ईश्‍वर की भावना करते हैं ।  इसीसे वे पेड़, पत्ती, अग्नि, जल, पत्थर आदि समस्त दृश्य पदार्थों की पूजा किया करते हैं, वे पत्थर को नहीं पूजते, ईश्‍वरको पूजते हैं ।  आप मुखसे कहते हैं ‘हे परमात्मन्‌ !  तुम सर्वव्यापी हो ।’  परन्तु क्या आपने कभी इस बात का सचमुच अनुभव किया है ?  प्रार्थना करते समय आपके हृदय में क्या आकाश का अनन्त विस्तार या समुद्र की विशालता नहीं झलकती ?  यही ‘सर्वव्यापी’ परमात्मा का दृश्यस्वरूप है ।

 मूर्तिपूजा में मनुष्यस्वभाव के विरुद्ध क्या है ?  हमारे मन की रचना ही इसप्रकार की है कि वह किसी दृश्य पदार्थ की सहायताके बिना केवल गुणोंका चिन्तन नहीं कर सकता।  मस्जिद, गिरजा, क्रास, अग्नि, आकाश, समुद्र, आदि सभी दृश्यपदार्थ हैं, यदि हिदुओं ने इनकी जगह मूर्ति की सहज कल्पना कर ली तो क्या बुरा किया ?  निराकार की स्तुति करने वाले लोग मूर्तिपूजकों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, परन्तु उन्हें इस कल्पना का पता ही नहीं है कि मनुष्य भी ईश्‍वर हो सकता है।  वे बेचारे चार दीवारों की कोठरी में बन्द हैं।  अड़ोसी पड़ोसियों की सहायता करनेसे आगे अधिक दूरतक उनकी दृष्टि नहीं जाती ।

( लेखक: स्वामी विवेकानन्द )

शेष आगामी पोस्ट में ........

..........००३. ०८.  फाल्गुन कृ० ११ सं० १९८५.  कल्याण (पृ०७५७)


रविवार, 22 जनवरी 2023

जय श्री राम !

“कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग।।“

( सतयुग, त्रेता और द्वापरमें जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान् के नाम से पा जाते हैं )


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...