कठोपनिषद् का नाचिकेतोपाख्यान इस
सिद्धान्त का जीता-जागता प्रमाण है। उपनिषद् का पहला श्लोक ही परलोक के अस्तित्व को सूचित करता
है। नचिकेता ने जब देखा कि उसके पिता वाजश्रवस ऋत्विजों को बूढी और निकम्मी गायें
दान में दे रहे हैं तो उससे न रहा गया। वह सोचने लगा कि ऐसी गायें देनेवाले को तो
आनन्दरहित लोकों की प्राप्ति होती है |
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्॥*
....(१।१। ३)
अर्थात् जो जल पी चुकी हैं, जिनका घास खाना समाप्त हो चुका है,जिनका दूध भी दुह लिया गया है और जिनमें बछड़ा देने की शक्ति भी नहीं रह गयी
है,
उन गौओं का दान करने से वह दाता आनन्दशून्य लोकों को जाता
है।
अतएव उसने पिता को उस काम से रोकने का प्रयत्न किया, पर इसमें वह सफल न हो सका। इसके बाद उसके पिता ने कुपित
होकर जब उसे मृत्यु को सौंप देने की बात कही तो वह प्रसन्नतापूर्वक पिता की आज्ञा को
शिरोधार्य कर यमलोक में चला गया। इसके बाद उसके और यमराज के बीच में जो संवाद हुआ
है,
वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यमराज ने उसे तीन वर देने को
कहा। उनमें से तीसरा वर माँगता हुआ नचिकेता यमराज से यह प्रश्न करता है—
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये
ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं
वराणामेष वरस्तृतीयः॥
....(१।१। २०)
अर्थात् मरे हुए मनुष्य के विषय में जो यह शंका है। कि कोई तो कहते हैं मरने के
अनन्तर आत्मा रहता है। और कोई कहते हैं नहीं रहता'-इस सम्बन्ध में मैं आपसे उपदेश चाहता हूँ,
जिससे मैं इस विषय का ज्ञान प्राप्त कर सकें। मेरे माँगे
हुए वरों में यह तीसरा वर है ।।
यमराज ने इस विषय को टालना चाहा और नचिकेता से कहा कि तू कोई दूसरा वर माँग ले;
क्योंकि यह विषय अत्यन्त गूढ़ है और देवताओं को भी इस विषय में
शंका हो जाया करती है। नचिकेता कोई सामान्य जिज्ञासु नहीं था। अतः विषयकी गूढ़ता को
सुनकर उसका उत्साह कम नहीं हुआ, बल्कि उसकी जिज्ञासा और भी प्रबल हो उठी। वह बोला कि इसीलिये तो इस विषय को
मैं आपसे जानना चाहता हूँ; क्योंकि इस विषय का उपदेश करनेवाला आपके समान और कौन मिलेगा। इसपर यमराज ने
पुत्र-पौत्र,
हाथी-घोड़े, सुवर्ण,
विशाल भूमण्डल, दीर्घ जीवन,
इच्छानुकूल भोग, अनुपम रूप-लावण्यवाली स्त्रियाँ तथा और भी बहुत-से भोग जो मनुष्यलोक में
दुर्लभ हैं,
उसे देने चाहे; परन्तु नचिकेता अपने निश्चय से नहीं टला। वह बोला----
श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैत्
त्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।
अपि सर्वं जीवितमल्पमेव
तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥
............(१।१।२६)
‘हे यमराज! ये भोग ‘कल रहेंगे या नहीं?—इस प्रकार के सन्देह से युक्त हैं अर्थात् अस्थिर हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के तेज को जीर्ण कर देते हैं। यह सारा जीवन भी स्वल्प ही
है। अतः आप के वाहन (हाथी-घोड़े) और नाच-गान आपही के पास रहें,
मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है।' । नचिकेता के इस आदर्श निष्कामभाव और दृढ़ निश्चय को देखकर
यमराज बहुत ही प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए बोले—
स त्वं प्रियान् प्रियरूपाश्च कामा
नभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः ।
नैता सङ्कको वित्तमयीमवाप्तो
यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः॥
........(१। २। ३)
‘हे नचिकेता ! तूने प्रिय अर्थात् पुत्र,
धन आदि इष्ट पदार्थों को और प्रियरूप-अप्सरा आदि लुभानेवाले
भोगों को असार समझकर त्याग दिया और जिसमें अधिकांश मनुष्य डूब (फँस) जाते हैं,
उस धनिकों की निन्दित गति को तूने स्वीकार नहीं किया। धन्य
है तेरी निष्ठा!'
न साम्परायः प्रतिभाति बालं
प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी।
पुनः पुनर्वशमापद्यते मे॥
........(१। २। ६)
‘जो मूर्ख धनके मोह से अंधे होकर प्रमाद में लगे रहते हैं,
उन्हें परलोक का साधन नहीं सूझता। यही लोक है,
परलोक नहीं है---ऐसा मानने वाला पुरुष बारम्बार मेरे चंगुल में
फँसता है (जन्मता और मरता है) ।
नैषा तर्केण मतिरापयेना।
प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि
त्वादृङ् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा॥
.....(१। २। ९)
'हे प्रियतम! सम्यक् ज्ञान के लिये कोरा तर्क करनेवालों से
भिन्न किसी शास्त्रज्ञ आचार्यद्वारा कही हुई यह बुद्धि, जिसको तुमने पाया है, तर्क द्वारा प्राप्त नहीं होती। अहा! तेरी धारणा बड़ी सच्ची
है। हे नचिकेता ! हमें तेरे समान जिज्ञासु सदा प्राप्त हों।'
कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां
क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।
स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा
धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः॥
.........(१। २। ११)
‘हे नचिकेता ! तूने बुद्धिमान् होकर भोगों की परम अवधि, जगत् की प्रतिष्ठा, यज्ञ का अनन्त फल, अभय की पराकाष्ठा, स्तुत्य और महती
गति तथा प्रतिष्ठा को देखकर भी उसे धैर्यपूर्वक त्याग दिया । शाबाश!'
उपर्युक्त वचनों से इस विषय की महत्ता तथा उसे जानने के लिये कितने ऊँचे
अधिकार की आवश्यकता है, यह बात द्योतित होती है। | इस प्रकार नचिकेता की कठिन परीक्षा लेकर और उसे उसमें उत्तीर्ण पाकर यमराज उसे
आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं। वे कहते हैं
न जायते म्रियते वा विपश्चि
न्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
..........(१।२। १८)
{यही मन्त्र कुछ हेर-फेर से गीता में भी आया है (देखिये २।२०)}
'यह नित्य चिन्मय आत्मा न जन्मता है, न मरता है; यह न तो किसी वस्तु से उत्पन्न हुआ है और न स्वयं ही कुछ बना है (अर्थात् न तो
यह किसी का कार्य है, न कारण है,
न विकार है, न विकारी है) । यह अजन्मा, नित्य (सदा से वर्तमान, अनादि),
शाश्वत (सदा रहनेवाला, अनन्त) और पुरातन है तथा शरीर के विनाश किये जाने पर भी
नष्ट नहीं होता।'
उपर्युक्त वर्णन से आत्मा की अमरता सिद्ध होती है । वे फिर कहते हैं
हन्ता
चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ
तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
.............(१|२|१९)
‘यदि मरनेवाला
आत्मा को मारने का विचार करता है और मारा जाने वाला उसे मरा हुआ समझता है तो वे
दोनों हे उसे नहीं जानते; क्योंकि यह न तो मारता है और न मारा जाता है |’*
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यही मन्त्र कुछ हेर-फेर से गीता में भी आया है (देखिये २।१९)
।
आगे चलकर यमराज उन मनुष्यों की गति बतलाते हैं, जो आत्मा को बिना जाने ही
मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं | वे कहते हैं --
योनिमन्ये
प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति
यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥
.......(२|२|७)
‘अपने कर्म और
ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए किसी देव,मनुष्य,पशु,
पक्षी आदि योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावरभाव (वृक्षादि योनि)- को
प्राप्त होते हैं |’
ऊपर के मन्त्र से भी पुनर्जन्म की सिद्धि होती है |
गीता में भी परलोक तथा पुनर्जन्म का प्रतिपादन करने वाले अनेक वचन मिलते हैं |
उनमें से कुछ यहाँ उद्धृत किये जाते हैं -----
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।
.............(२|१२)
‘न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा
ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।‘
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।
.............(२|१३)
‘जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन,जवानी और वृद्धावस्था
होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस
विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता |’
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
............(२|२२)
“जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये
वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए
शरीरों को प्राप्त होता है।“
चौथे अध्याय में भगवान् अर्जुन से कहते हैं—
बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
.......(गीता ४। ५)
'हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं।
उन सब को तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ।
शेष आगामी पोस्ट में
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
से
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क्या है परलोक?
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