मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दसवाँ अध्याय  (पोस्ट 03)

 

कंस के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन

 

श्रीव्यास उवाच -
अहोभाग्यं तु ते नंद शिशुः शेषः सनातनः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातोऽयं मथुरापुरे ॥३२॥
कृष्णेच्छया तदुदरात्प्रणीतो रोहिणीं शुभाम् ।
नंदराज त्वया दृश्यो दुर्लभो योगिनामपि ॥३३॥
तद्दर्शनार्थं प्राप्तोऽहं वेदव्यासो महामुनिः ।
तस्मात्त्वं दर्शयास्माकं शिशुरूपं परात्परम् ॥३४॥
श्रीनारद उवाच -
अथ नंदः शिशुं शेषं दर्शयामास विस्मितः ।
दृष्ट्वा प्रेंखस्थितं प्राह नत्वा सत्यवतीसुतः ॥३५॥


श्रीव्यास उवाच -
देवाधिदेव भगवन्कामपाल नमोऽस्तु ते ।
नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षाद्‌रामाय ते नमः ॥३६॥
धराधराय पूर्णाय स्वधाम्ने सीरपाणये ।
सहस्रशिरसे नित्यं नमः संकर्षणाय ते ॥३७॥
रेवतीरमण त्वं वै बलदेवोऽच्युताग्रजः ।
हलायुधः प्रलंबघ्नः पाहि मां पुरुषोत्तम ॥३८॥
बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नमः ।
नीलांबराय गौराय रौहिणेयाय ते नमः ॥३९॥
धेनुकारिर्मुष्टिकारिः कुम्भाण्डारिस्त्वमेव हि ।
रुक्म्यरिः कूपकर्णारिः कूटारिर्बल्वलान्तकः ॥४०॥
कालिन्दीभेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुरकर्षकः ।
द्विविदारिर्यादवेन्द्रो व्रजमण्डलमंडनः ॥४१॥
कंसभ्रातृप्रहन्ताऽसि तीर्थयात्राकरः प्रभुः ।
दुर्योधनगुरुः साक्षात्पाहि पाहि जगत्प्रभो ॥४२॥
जयजयाच्युत देव परात्पर
स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत ।
सुरमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते
मुसलिने बलिने हलिने नमः ॥४३॥
इह पठेत्सततं स्तवनं तु यः
स तु हरेः परमं पदमाव्रजेत् ।
जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं
भवति तस्य जयः स्वधनं धनम् ॥४४॥


श्रीनारद उवाच -
बलं परिक्रम्य शतं प्रणम्य
तैर्द्वैपायनो देव पराशरात्मजः ।
विशालबुद्धिर्मुनिबादरायणः
सरस्वतीं सत्यवतीसुतो ययौ ॥४५॥

श्रीव्यासजी बोले-नन्द ! तुम्हारा अद्भुत सौभाग्य है, इस शिशुके रूपमें साक्षात् सनातन देवता शेषनाग पधारे हैं। पहले तो मथुरापुरीमें वसुदेवसे देवकीके गर्भमें इनका आविर्भाव हुआ। फिर भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे इनका देवकीके उदरसे कल्याणमयी रोहिणीके गर्भमें आगमन हुआ है। नन्दराय ! ये योगियोंके लिये भी दुर्लभ हैं, किंतु तुम्हें इनका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है। मैं महामुनि वेदव्यास इनके दर्शनके लिये ही यहाँ आया हूँ, अतः तुम शिशुरूप धारी इन परात्पर देवताका हम सबको दर्शन कराओ। ॥ ३२ – ३४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर नन्दने विस्मित होकर शिशुरूपधारी शेषका उन्हें दर्शन कराया । पालनेमें विराजमान शेषजीका दर्शन करके सत्यवतीनन्दनने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की — ॥ ३५ ॥

श्रीव्यासजी बोले- भगवन् ! आप देवताओंके भी अधिदेवता और कामपाल (सबका मनोरथ पूर्ण करनेवाले) हैं, आपको नमस्कार है। आप साक्षात् अनन्तदेव शेषनाग हैं, बलराम हैं; आपको मेरा प्रणाम है । आप धरणीधर, पूर्णस्वरूप, स्वयंप्रकाश, हाथ में हल धारण करनेवाले, सहस्र मस्तकों से सुशोभित तथा संकर्षणदेव हैं, आपको नमस्कार है ॥३६–३७॥

रेवती- रमण ! आप ही बलदेव तथा श्रीकृष्णके अग्रज हैं। हलायुध एवं प्रलम्बासुरके नाशक हैं। पुरुषोत्तम ! आप मेरी रक्षा कीजिये । आप बल, बलभद्र तथा तालके चिह्नसे युक्त ध्वजा धारण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। आप नीलवस्त्रधारी, गौरवर्ण तथा रोहिणीके सुपुत्र हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप ही धेनुक, मुष्टिक, कुम्भाण्ड, रुक्मी, कूपकर्ण, कूट तथा बल्वल के शत्रु हैं ॥ ३८-४० ॥

कालिन्दी की धारा को मोड़ने वाले और हस्तिनापुर को गङ्गा की ओर आकर्षित करने वाले आप ही हैं। आप द्विविद के विनाशक, यादवों के स्वामी तथा व्रजमण्डल के मण्डन (भूषण)

हैं। आप कंस के भाइयों का वध करनेवाले तथा तीर्थयात्रा करनेवाले प्रभु हैं। दुर्योधनके गुरु भी साक्षात् आप ही हैं । प्रभो ! जगत्‌की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ४१-४२ ॥

अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले परात्पर देवता साक्षात् अनन्त ! आपकी जय हो, जय हो। आपका सुयश समस्त दिगन्तमें व्याप्त है। आप सुरेन्द्र, मुनीन्द्र और फणीन्द्रोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। मुसलधारी, हलधर तथा बलवान् हैं; आपको नमस्कार है । जो इस जगत् में सदा ही इस स्तवन का पाठ करेगा, वह श्रीहरि के परमपद को प्राप्त होगा। संसार में उसे शत्रुओं का संहार करनेवाला सम्पूर्ण बल प्राप्त होगा । उसकी सदा जय होगी और वह प्रचुर धनका स्वामी होगा  ॥ ४३-४४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं - राजन् ! पराशरनन्दन विशाल-बुद्धि बादरायण मुनि सत्यवतीकुमार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास उन मुनियोंके साथ बलरामजी को सौ बार प्रणाम और परिक्रमा करके सरस्वती नदीके तटपर चले गये ॥ ४५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवाद में 'बलभद्रजी के जन्म का वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

मधुभोजदशार्हार्ह कुकुरान्धक वृष्णिभिः ।
आत्मतुल्य बलैर्गुप्तां नागैर्भोगवतीमिव ॥ ११ ॥
सर्वर्तु सर्वविभव पुण्यवृक्षलताश्रमैः ।
उद्यानोपवनारामैः वृत पद्माकर श्रियम् ॥ १२ ॥
गोपुरद्वारमार्गेषु कृतकौतुक तोरणाम् ।
चित्रध्वजपताकाग्रैः अन्तः प्रतिहतातपाम् ॥ १३ ॥
सम्मार्जित महामार्ग रथ्यापणक चत्वराम् ।
सिक्तां गन्धजलैरुप्तां फलपुष्पाक्षताङ्‌कुरैः ॥ १४ ॥
द्वारि द्वारि गृहाणां च दध्यक्षत फलेक्षुभिः ।
अलङ्‌कृतां पूर्णकुम्भैः बलिभिः धूपदीपकैः ॥ १५ ॥

जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान्‌ की वह द्वारका पुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके पराक्रमकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी ॥ ११ ॥ वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुञ्जों से युक्त थी। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीचमें कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १२ ॥ नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सडक़ोंपर भगवान्‌के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर घामका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था ॥ १३ ॥ उसके राजमार्ग, अन्यान्य सडक़ें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सींच दिये गये थे। और भगवान्‌ के स्वागतके लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अङ्कुर चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ १४ ॥ घरोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत, फल, ईख, जलसे भरे हुए कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 15 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दसवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

कंस के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन

 

उग्रसेनानुगान्दृष्ट्वा कंसवीराः समुत्थिताः ।
तैः सार्द्धमभवद्युद्धं सभामंडपमध्यतः ॥१६॥
द्वारदेशेऽपि वीराणां युद्धं जातं परस्परम् ।
खड्‍गप्रहारैरयुतं जनानां निधनं गतम् ॥१७॥
कंसो गृहीत्वाथ गदां पितुः सेनां ममर्द ह ।
कंसस्य गदया स्पृष्ट्वा केचिच्छिन्नललाटकाः ॥१८॥
भिन्नपादा भिन्नमुखाश्छिन्नाशाश्छिन्नबाहवः ।
अधोमुखा ऊर्ध्वमुखाः सशस्त्राः पतिताः क्षणात् ॥१९॥
वमन्तो रुधिरं वीरा मूर्छिता निधनं गताः ।
सभामंडपमारक्तं दृश्यते क्षतजस्रवात् ॥२०॥
इत्थं मदोत्कटः कंसः संनिपात्योद्‍‌भटान् रिपून् ।
क्रोधाढ्यो राजराजेन्द्रं जग्राह पितरं खलः ॥२१॥
नृपासनात्संगृहीत्वा बद्ध्वा पाशैश्च तं खलः ।
तन्मित्रैश्च नृपैः सार्द्धं कारागारे रुरोध ह ॥२२॥
मधूनां शूरसेनानां देशानां सर्वसंपदाम् ।
सिंहासने चोपविश्य स्वयं राज्यं चकार ह ॥२३॥
पीडिता यादवाः सर्वे संबंधस्य मिषैस्त्वरम् ।
चतुर्दिशान्तरं देशान् विविशुः कालवेदिनः ॥२४॥
देवक्याः सप्तमे गर्भे हर्षशोकविवर्द्धने ।
व्रजं प्रणीते रोहिण्यामनन्ते योगमायया ॥२५॥
अहो गर्भः क्व विगत इत्यूचुर्माथुरा जनाः ॥२६॥
अथ व्रजे पंचदिनेषु भाद्रे
स्वातौ च षष्ठ्यां च सिते बुधे च ।
उच्चैर्गृहैः पंचभिरावृते च
लग्ने तुलाऽऽख्ये दिनमध्यदेशे ॥२७॥
सुरेषु वर्षत्सु सुपुष्पवर्षं
घनेषु मुंचत्सु च वारिबिन्दून् ।
बभूव देवो वसुदेवपत्‍न्यां
विभासयन्नन्दगृहं स्वभासा ॥२८॥
नंदोऽपि कुर्वन् शिशुजातकर्म
ददौ द्विजेभ्यो नियुतं गवां च ।
गोपान् समाहूय सुगायकानां
रावैर्महामंगलमातनोति ॥२९॥
द्वैपायनो देवलदेवरात-
वसिष्ठवाचस्पतिभिर्मया च ।
आगत्य तत्रैव समास्थितोऽभू-
त्पाद्यादिभिर्नन्दकृतैः प्रसन्नः ॥३०॥


नंदराज उवाच -
सुंदरो बालकः कोऽयं न दृश्यो यत्समः क्वचित् ।
कथं पंचदिनाज्जातस्तन्मे ब्रूहि महामुने ॥३१॥

उग्रसेन के अनुगामियों को युद्धके लिये उद्यत देख कंसके निजी वीर सैनिक भी उनका सामना करनेके लिये खड़े हुए। राजसभाके मण्डपमें ही उन दोनों दलोंका परस्पर युद्ध होने लगा। राजद्वारपर भी उन दोनों दलोंके वीरोंमें परस्पर युद्ध छिड़ गया। वे सब लोग खुलकर एक- दूसरेपर खड्गका प्रहार करने लगे। इस संघर्षमें दस हजार मनुष्य खेत रहे । तदनन्तर कंसने गदा हाथमें लेकर पिताकी सेनाको कुचलना आरम्भ किया। उसकी गदासे छू जानेसे ही कितने ही लोगोंके मस्तक फट गये, कितनोंके पाँव कट गये, नख विदीर्ण हो गये, बाँहें कट गयीं और उनकी आशापर पानी फिर गया। कोई औंधे मुँह और कोई उतान होकर अस्त्र- शस्त्र लिये क्षणभरमें धराशायी हो गये। बहुत-से वीर खून उगलते हुए मूर्च्छित हो काल के गाल में चले गये। वहाँ इतना रक्त प्रवाहित हुआ कि सारा सभामण्डप रँग गया ॥ १६-२० ॥

राजराजेश्वर ! इस प्रकार दुष्ट एवं मदमत्त कंस ने कुपित हो उद्भट शत्रुओं को धराशायी करके अपने पिता को कैद कर लिया। उन्हें राजसिंहसनसे उतारकर उस दुष्टने पाशोंसे बाँधा और उनके मित्रोंके साथ उन्हें भी कारागारमें बंद कर दिया। मधु और शूरसेन की सारी सम्पत्तिओं पर अधिकार करके कंस स्वयं सिंहासनपर जा बैठा और राज्यशासन करने लगा ॥२१–२३॥

समस्त पीड़ित यादव सम्बन्धी के घरपर जानेके बहाने तुरंत चारों दिशाओंमें विभिन्न देशोंके भीतर जाकर रहने लगे और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। देवकीका सातवाँ गर्भ उनके लिये हर्ष और शोक दोनों की वृद्धि करनेवाला हुआ, उसमें साक्षात् अनन्त - देव अवतीर्ण हुए थे। योगमायाने देवकीके उस गर्भको खींचकर व्रजमें रोहिणीकी कुक्षिके भीतर पहुँचा दिया। ऐसा हो जानेपर मथुरा के लोग खेद प्रकट करते हुए कहने लगे— 'अहो ! बेचारी देवकीका गर्भ कहाँ चला गया ? कैसे गिर गया ?' ॥२४–२६॥

व्रज में उस गर्भ को गये पाँच ही दिन बीते थे कि भाद्रपद शुक्ला षष्ठीको, स्वाती नक्षत्रमें, बुधके दिन वसुदेवकी पत्नी रोहिणीके गर्भसे अनन्तदेवका प्राकट्य हुआ । उच्चस्थानमें स्थित पाँच ग्रहों से घिरे हुए तुला लग्न में, दोपहर के समय बालक का जन्म हुआ। उस जन्मवेला में जब देवता फूल बरसा रहे थे और बादल वारिबिन्दु बिखेर रहे थे, प्रकट हुए अनन्तदेवने अपनी अङ्गकान्ति से नन्दभवन को उद्भासित कर दिया ॥२७–२८॥

नन्दरायजी ने भी उस शिशुका जातकर्मसंस्कार करके ब्राह्मणों को दस लाख गौएँ दान कीं। गोपोंको बुलाकर उत्तम गान-विद्यामें निपुण गायकोंके संगीतके साथ महान् मङ्गलमय उत्सव का आयोजन किया । देवल, देवरात, वसिष्ठ, बृहस्पति और मुझ नारदके साथ आकर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास भी वहाँ बैठे और नन्दजीके दिये हुए पाद्य आदि उपहारोंसे अत्यन्त प्रसन्न हुए । २९ - ३० ॥

नन्दरायजीने पूछा- महर्षियो ! यह सुन्दर बालक कौन है, जिसके समान दूसरा कोई देखने में नहीं आता ? महामुने ! इसका जन्म पाँच ही दिनों में कैसे हुआ ? यह मुझे बताइये ॥ ३१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

नताः स्म ते नाथ सदाङ्‌घ्रिपङ्‌कजं
     विरिञ्चवैरिञ्च्य सुरेन्द्र वन्दितम् ।
परायणं क्षेममिहेच्छतां परं
     न यत्र कालः प्रभवेत्परः प्रभुः ॥ ६ ॥
भवाय नस्त्वं भव विश्वभावन
     त्वमेव माताथ सुहृत्पतिः पिता ।
त्वं सद्‍गुरुर्नः परमं च दैवतं
     यस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम ॥ ७ ॥
अहो सनाथा भवता स्म यद्वयं
     त्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम् ।
प्रेमस्मित स्निग्ध निरीक्षणाननं
     पश्येम रूपं तव सर्वसौभगम् ॥ ८ ॥
यर्ह्यम्बुजाक्षापससार भो भवान्
     कुरून् मधून् वाथ सुहृद् दिदृक्षया ।
तत्राब्दकोटिप्रतिमः क्षणो भवेद्
     रविं विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥ ९ ॥
इति चोदीरिता वाचः प्रजानां भक्तवत्सलः ।
शृण्वानोऽनुग्रहं दृष्ट्या वितन्वन् प्राविशत्पुरम् ॥ १० ॥

‘स्वामिन् ! हम आपके उन चरण-कमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र तक करते हैं, जो इस संसार में परम कल्याण चाहनेवालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता ॥ ६ ॥ विश्वभावन ! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें ॥ ७ ॥ अहा ! हम आपको पाकर सनाथ हो गये। क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूपका हम दर्शन करते रहते हैं। कितना सुन्दर मुख है ! प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्निग्ध चितवन ! यह दर्शन तो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ॥ ८ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! जब आप अपने बन्धु-बान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रज-मण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षोंके समान लंबा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसी सूर्यके बिना आँखोंकी ॥ ९ ॥ भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारकामें प्रविष्ट हुए ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


रविवार, 14 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दसवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

कंस के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन

 

श्रीनारद उवाच -
भीतः पलायते नायं योद्धारः कंसनोदिताः ।
अयुतं शस्त्रसंयुक्ता रुरुधुः शौरिमंदिरम् ॥१॥
शौरिः कालेन देवक्यामष्टौ पुत्रानजीजनत् ।
अनुवर्षं चाथ कन्यामेकां मायां सनातनीम् ॥२॥
कीर्तिमन्तं सुतं ह्यादौ जातमानकदुन्दुभिः ।
नीत्वा कंसं समभ्येत्य ददौ तस्मै परार्थवित् ॥३॥
सत्यवाक्यस्थितं शौरिं कंसो घृणी ह्यभूत् ।
दुःखं साधुर्न सहते सत्ये कस्य क्षमा न हि ॥४॥


कंस उवाच -
एष बालो यातु गृहमेतस्मान्न हि मे भयम् ।
युवयोरष्टमं गर्भं हनिष्यामि न संशयः ॥५॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तो वसुदेवस्तु सपुत्रो गृहमागतः ।
सत्यं नामन्यत मनाग्वाक्यं तस्य दुरात्मनः ॥६॥
तदाम्बरादागतं मां नत्वा पूज्योग्रसेनजः ।
प्रपच्छ देवाभिप्रायं प्रावोचं तं निबोध मे ॥७॥
नंदाद्या वसवः सर्वे वृषभान्वादयः सुराः ।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च संति भूमौ नृपेश्वर ॥८॥
वसुदेवादयो देवा मथुरायां च वृष्णयः ।
देवक्याद्याः स्त्रियः सर्वा देवताः सन्ति निश्चयः ॥९॥
सप्तवारप्रसंख्यानादष्टमाः सर्व एव हि ।
ते हन्तुः संख्ययाऽयं वा देवानां वामतो गतिः ॥१०॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा तं मयि गते कृतदैत्यवधोद्यमे ।
कंसः कोपावृतः सद्यो यदून् हंतुं मनो दधे ॥११॥
वसुदेवं देवकीं च बद्ध्वाऽथ निगडैर्दृढैः ।
ममर्द तं शिलापृष्ठे देवकीगर्भजं शिशुम् ॥१२॥
जातिस्मरो विष्णुभयाज्जातं जातं जघान ह ।
इति दुष्टविभावाच्च भूमौ भूतं ह्यसंशयम् ॥१३॥
उग्रसेनस्तदा क्रुद्धो यादवेन्द्रो नृपेश्वरः ।
वारयामास कंसाख्यं वसुदेवसहायकृत् ॥१४॥
कंसस्य दुरभिप्रायं दृष्ट्वोत्तस्थुर्महाभटाः ।
उग्रसेनानुगा रक्षां चक्रुस्ते खड्‍गपाणयः ॥१५॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! कंसने सोचा, वसुदेवजी भयभीत होकर कहीं भाग न जायँ — ऐसा विचार मनमें आते ही उसने बहुत-से सैनिक भेज दिये । कंस की आज्ञा से दस हजार शस्त्रधारी सैनिकों ने पहुँचकर वसुदेवजी का घर घेर लिया । वसुदेवजी ने यथासमय देवकी के गर्भ से आठ पुत्र उत्पन्न किये, वे क्रमशः एक वर्षके बाद होते गये। फिर उन्होंने एक कन्या को भी जन्म दिया, जो भगवान्‌की सनातनी माया थी ॥ १-२ ॥

सर्वप्रथम जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम कीर्तिमान् था । वसुदेवजी उसे गोदमें उठाकर कंसके पास ले गये। वे दूसरेके प्रयोजनको भी अच्छी तरहसे समझते थे, इसलिये वह बालक उन्होंने कंसको दे दिया । वसुदेवजीको अपने सत्यवचन के पालन में तत्पर देख कंसको दया आ गयी। साधुपुरुष दुःख सह लेते हैं, परंतु अपनी कही हुई बात मिथ्या नहीं होने देते । सचाई देखकर किसके मनमें क्षमा का भाव उदित नहीं होता ? ॥ ३-४॥

कंस ने कहा- वसुदेवजी ! यह बालक आपके साथ ही घर लौट जाय, इससे मुझे कोई भय नहीं है। परंतु आप दोनोंका जो आठवाँ गर्भ होगा, उसका वध मैं अवश्य करूँगा – इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! कंसके यों कहनेपर वसुदेवजी अपने पुत्रके साथ घर लौट आये, परंतु उस दुरात्मा के वचन को उन्होंने तनिक भी सत्य नहीं माना ॥ ६ ॥

उस समय आकाशसे उतरकर मैं वहाँ गया । उग्रसेनकुमार कंस ने मुझे मस्तक झुकाकर मेरा स्वागत-सत्कार किया, और मुझसे देवताओंका अभिप्राय पूछा। उस समय मैंने उसे जो उत्तर दिया, वह मुझसे सुनो। मैंने कहा- 'नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के । नरेश्वर कंस ! इस व्रजभूमिमें जो गोपियाँ हैं, उनके रूपमें वेदोंकी ऋचाएँ आदि यहाँ निवास करती हैं। मथुरा में वसुदेव आदि जो वृष्णिवंशी हैं, वे सब-के-सब मूलतः देवता ही हैं। देवकी आदि सम्पूर्ण स्त्रियाँ भी निश्चय ही देवाङ्गनाएँ हैं। सात बार गिन लेनेपर सभी अङ्क आठ ही हो जाते हैं। तुम्हारे घातककी संख्यासे गिना जाय तो यह प्रथम बालक भी आठवाँ हो सकता है; क्योंकि देवताओंकी 'वामतो गति' है ॥ ७ – १० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! उससे यों कहकर जब मैं चला आया, तब देवताओंद्वारा किये गये दैत्यवध के लिये उद्योग पर कंस को बड़ा क्रोध हुआ । उसने उसी क्षण यादवों को मार डालने का विचार किया। उसने वसुदेव और देवकी को मजबूत बेड़ियों से बाँधकर कैद कर लिया और देवकी के उस प्रथम-गर्भजनित शिशु को शिलापृष्ठपर रखकर पीस डाला ॥ ११-१२ ॥

उसे अपने पूर्वजन्मकी घटनाओंका स्मरण था, अतः भगवान् विष्णुके भयसे तथा अपने दुष्ट स्वभावके कारण भी उसने इस भूतलपर प्रकट हुए देवकीके प्रत्येक बालकको जन्म लेते ही मार डाला । ऐसा करनेमें उसे तनिक भी हिचक नहीं हुई। यह सब देखकर यदुकुल- नरेश राजा उग्रसेन उस समय कुपित हो उठे। उन्होंने वसुदेवजीकी सहायता की और कंसको अत्याचार करने से रोका। कंसके दुष्ट अभिप्राय को प्रत्यक्ष देख महान् यादव वीर उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। वे उग्रसेन के पीछे रहकर, खड्गहस्त हो उनकी रक्षा करने लगे ॥ १३-१५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

सूत उवाच ।

आनर्तान् स उपव्रज्य स्वृद्धाञ्जनपदान् स्वकान् ।
दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ॥ १ ॥
स उच्चकाशे धवलोदरो दरोऽपि
     उरुक्रमस्य अधरशोण शोणिमा ।
दाध्मायमानः करकञ्जसम्पुटे
     यथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वनः ॥ २ ॥
तमुपश्रुत्य निनदं जगद्‍भयभयावहम् ।
प्रत्युद्ययुः प्रजाः सर्वा भर्तृदर्शनलालसाः ॥ ३ ॥
तत्रोपनीतबलयो रवेर्दीपमिवादृताः ।
आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ॥ ४ ॥
प्रीत्युत्फुल्लमुखाः प्रोचुः हर्षगद्‍गदया गिरा ।
पितरं सर्वसुहृदं अवितारं इवार्भकाः ॥ ५ ॥

सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्णने अपने समृद्ध आनर्त्त देशमें पहुँचकर वहाँके लोगों की विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पाञ्चजन्य नामक शङ्ख बजाया ॥ १ ॥ भगवान्‌ के होठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेत वर्णका शङ्ख बजते समय उनके कर-कमलोंमें ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंगके कमलोंपर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो ॥ २ ॥ भगवान्‌ के शङ्ख की वह ध्वनि संसार के भय को भयभीत करनेवाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसासे नगरके बाहर निकल आयी ॥ ३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं। फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान्‌ सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ॥ ४ ॥ सबके मुख-कमल प्रेमसे खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं ॥ ५ ॥ 

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शनिवार, 13 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

नवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

गर्गजी की आज्ञासे देवक का वसुदेवजी के साथ देवकी का विवाह करना; बिदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत होना और वसुदेवजी की शर्त पर उसे जीवित छोड़ना

 

कुसंगनिष्ठोऽतिखलो हि कंसो
हंतुं स्वसारं धिषणां चकार ।
कचे गृहीत्वा शितखड्‍गपाणि-
र्गतत्रपो निर्दय उग्रकर्मा ॥१४॥
वादित्रकारा रहिता बभूवु-
रग्रे स्थिताः स्युश्चकिता हि पश्चात् ।
सर्वेषु वा श्वेतमुखेषु सत्सु
शौरिस्तमाहाऽऽशु सतां वरिष्ठः ॥१५॥


श्रीवसुदेव उवाच -
भोजेन्द्र भोजकुलकीर्तिकरस्त्वमेव
भौमादिमागधबकासुरवत्सबाणैः ।
श्लाघ्या गुणास्तव युधि प्रतियोद्धुकामैः
स त्वं कथं तु भगिनीमसिनात्र हन्याः ॥१६॥
ज्ञात्वा स्त्रियं किल बकीं प्रतियोद्धुकामां
युद्धं कृतं न भवता नृपनीतिवृत्त्या ।
सा तु त्वयापि भगिनीव कृता प्रशांत्यै
साक्षादियं तु भगिनी किमु ते विचारात् ॥१७॥
उद्‌वाहपर्वणि गता च तवानुजा च
बाला सुतेव कृपणा शुभदा सदैषा ।
योग्योऽसि नात्र मथुराधिप हंतुमेनां
त्वं दीनदुःखहरणे कृतचित्तवृत्तिः ॥१८॥


श्रीनारद उवाच -
नामन्यतेत्थं प्रतिबोधितोऽपि
कुसङ्गनिष्ठोऽतिखलो हि कंसः ।
तदा हरेः कालगतिं विचार्य
शौरिः प्रपन्नं पुनराह कंसम् ॥१९॥


श्रीवसुदेव उवाच -
नास्यास्तु ते देव भयं कदाचि-
द्यद्‌देववाण्या कथितं च तच्छृणु ।
पुत्रान् ददामीति यतो भयं स्या-
न्मा ते व्यथाऽस्याः प्रसवप्रजातात् ॥२०॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा स निश्चित्य वचोऽथ शौरेः
कंसः प्रशंस्याऽऽशु गृहं गतोऽभूत् ।
शौरिस्तदा देवकराजपुत्र्या
भयावृतः सन् गृहमाजगाम ॥२१॥

 

कंस सदा दुष्टों का ही साथ करता था। स्वभाव से भी वह अत्यन्त खल (दुष्ट) था । लज्जा तो उसे छू नहीं गयी थी । वह निर्दय होनेके कारण बड़े भयंकर कर्म कर डालता था। उसने तीखी धारवाली तलवार हाथमें उठा ली, बहिन- के केश पकड़ लिये और उसे मारनेका निश्चय कर लिया। उस समय बाजेवालोंने बाजे बंद कर दिये। जो आगे थे, वे चकित होकर पीछे देखने लगे। सबके मुँहपर मुर्दनी छा गयी। ऐसी स्थितिमें सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ श्रीवसुदेवजीने कंससे कहा ॥। १४ -१५॥

श्रीवसुदेवजी बोले- भोजेन्द्र ! आप इस वंशकी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हैं। भौमासुर, जरासंध, बकासुर, वत्सासुर और बाणासुर - सभी योद्धा आपसे लड़नेके लिये युद्धभूमिमें आये; किंतु उन्होंने आपकी प्रशंसा ही की। वे ही आप तलवारसे बहिनका वध करनेको कैसे उद्यत हो गये ? बकासुर- की बहिन पूतना आपके पास आकर लड़नेकी इच्छा करने लगी; किंतु आपने राजनीतिके अनुरूप बर्ताव करनेके कारण स्त्री समझकर उसके साथ युद्ध नहीं किया। उस समय शान्ति स्थापनके लिये आपने पूतनाको बहिनके तुल्य बनाकर छोड़ दिया। फिर यह तो आपकी साक्षात् बहिन है। किस विचार से आप इस अनुचित कृत्य में लग गये ? ॥१६-१७॥  

मथुरानरेश ! यह कन्या यहाँ विवाहके शुभ अवसरपर आयी है। आपकी छोटी बहिन है। बालिका है। पुत्रीके समान दयनीय- दयापात्र है। यह सदा आपको सद्भावना प्रदान करती आयी है। अतः इसका वध करना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। आपकी चित्तवृत्ति तो दीनदुखियों के दुःख दूर करने में ही लगी रहती है ॥१८॥  

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार वसुदेवजीके समझानेपर भी अत्यन्त खल और कुसङ्गी कंसने उनकी बात नहीं मानी। तब वसुदेवजी, यह भगवान्‌ का विधान है, अथवा कालकी ऐसी ही गति है—यह समझकर भगवत्-शरणापन्न हो, पुनः कंस से बोले ॥ १९ ॥

श्रीवसुदेवजीने कहा- राजन् ! इस देवकी से तो आपको कभी भय है नहीं । आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके विषय में मेरा विचार सुनिये। मैं इसके गर्भ से उत्पन्न सभी पुत्र आपको दे दूँगा; क्योंकि उन्हींसे आपको भय है । अतः व्यथित न होइये ॥ २० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश ! कंसने वसुदेवजीके निश्चयपूर्वक कहे गये वचनपर विश्वास कर लिया। अतः उनकी प्रशंसा करके वह उसी क्षण घरको चला गया। इधर वसुदेवजी भी भयभीत हो देवकी के साथ अपने भवन को पधारे ॥ २१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'वसुदेवके विवाहका वर्णन' नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

अजातशत्रुः पृतनां गोपीथाय मधुद्विषः ।
परेभ्यः शङ्कितः स्नेहात् प्रायुङ्क्त चतुरङ्‌गिणीम् ॥ ३२ ॥
अथ दूरागतान् शौरिः कौरवान् विरहातुरान् ।
सन्निवर्त्य दृढं स्निग्धान् प्रायात्स्वनगरीं प्रियैः ॥ ३३ ॥
कुरुजाङ्गलपाञ्चालान् शूरसेनान् सयामुनान् ।
ब्रह्मावर्तं कुरुक्षेत्रं मत्स्यान् सारस्वतानथ ॥ ३४ ॥
मरुधन्वमतिक्रम्य सौवीराभीरयोः परान् ।
आनर्तान् भार्गवोपागात् श्रान्तवाहो मनाग्विभुः ॥ ३५ ॥
तत्र तत्र ह तत्रत्यैः हरिः प्रत्युद्यतार्हणः ।
सायं भेजे दिशं पश्चात् गविष्ठो गां गतस्तदा ॥ ३६ ॥

अजातशत्रु युधिष्ठिरने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शङ्का हो आयी थी कि कहीं रास्तेमें शत्रु इनपर आक्रमण न कर दें ॥ ३२ ॥ सुदृढ़ प्रेमके कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान्‌ के साथ बहुत दूरतक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरहसे व्याकुल हो रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रोंके साथ द्वारकाकी यात्रा की ॥ ३३ ॥ शौनकजी! वे कुरुजाङ्गल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुनाके तटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देशको पार करके सौवीर और आभीर देशके पश्चिम आनर्त्त देशमें आये। उस समय अधिक चलनेके कारण भगवान्‌के रथके घोड़े कुछ थक-से गये थे ॥ ३४-३५ ॥ मार्ग में स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान्‌ का सम्मान करते, सायंकाल होनेपर वे रथपर से भूमिपर उतर आते और जलाशयपर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्या थी ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे श्रीकृष्णद्वारकागमनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

नवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

तत्रैकदा श्रीमथुरापुरे वरे
पुरोहितः सर्वयदूत्तमैः कृतः ।
शूरेच्छया गर्ग इति प्रमाणिकः
समाययौ सुन्दरराजमन्दिरम् ॥१॥
हीराखचिद्धेमलसत्कपाटकं
द्विपेन्द्रकर्णाहतभृङ्गनादितम् ।
इभस्रवन्निर्झरगण्डधारया
समावृतं मण्डपखण्डमण्डितम् ॥२॥
महोद्‌भटैर्धीरजनैः सकञ्चुकै-
र्धनुर्धरैश्चर्म कृपाणपाणिभिः ।
रथद्विपाश्वध्वजिनीबलादिभिः
सुरक्षितं मण्डलमण्डलीभिः ॥३॥
ददर्श गर्भो नृपदेवमाहुकं
श्वाफल्किना देवककंससेवितम् ।
श्रीशक्रसिंहासन उन्नते परे
स्थितं वृतं छत्रवितानचामरैः ॥४॥
दृष्ट्वा मुनिं तं सहसाऽऽसनाश्रया-
दुत्थाय राजा प्रणनाम यादवैः ।
संस्थाप्य सम्पूज्य सुभद्रपीठके
स्तुत्वा परिक्रम्य नतः स्थितोऽभवत् ॥५॥
दत्त्वाऽऽशिषं गर्गमुनिर्नृपाय वै
पप्रच्छ सर्वं कुशलं नृपादिषु ।
श्रीदेवकं प्राह महामना ऋषि-
र्महौजसं नीतिविदं यदूत्तमम् ॥६॥


श्रीगर्ग उवाच -
शौरीं विना भुवि नृपेषु वरस्तु नास्ति
चिन्त्यो मया बहुदिनैः किल यत्र तत्र ।
तस्मान्नृदेव वसुदेववराय देहि
श्रीदेवकीं निजसुतां विधिनोद्‌वहस्व ॥७॥


श्रीनारद उवाच -
कृत्वा तदैव पुरि निश्चयनागवल्लीं
श्रीदेवकं सकलधर्मभृतां वरिष्ठः ।
गर्गेच्छया तु वसुदेववराय पुत्रीं
कृत्वाथ मङ्गलमलं प्रददौ विवाहे ॥८॥
कृतोद्‌वहः शौरिरतीव सुन्दरं
रथं प्रयाणे समलङ्कृतं हयैः ।
सार्द्धं तया देवकराजकन्यया
समारुहत्कांचनरत्‍नशोभया ॥९॥
स्वसुः प्रियं कर्तुमतीव कंसो
जग्राह रश्मींश्चलतां हयानाम् ।
उवाह वाहांश्चतुरंगिणीभि-
र्वृतः कृपास्नेहपरोऽथ शौरौ ॥१०॥
दासीसहस्रं त्वयुतं गजानां
सत्पारिबर्हं नियुतं हयानाम् ।
लक्षं रथानां च गवां द्विलक्षं
प्रादाद्‌दुहित्रे नृप देवको वै ॥११॥
भेरीमृदंगोद्धरगोमुखानां
धुन्धुर्यवीणानकवेणुकानाम् ।
महत्स्वनोऽभूच्चलतां यदुनां
प्रयाणकाले पथि मङ्गलं च ॥१२॥
आकाशवागाह तदैव कंसं
त्वामष्टमो हि प्रसवोऽञ्जसास्याः ।
हन्ता न जानासि च यां रथस्थां
रश्मीन् गृहीत्वा वहसेऽबुधस्त्वम् ॥१३॥

गर्गजी की आज्ञासे देवक का वसुदेवजी के साथ देवकी का विवाह करना; बिदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत होना और वसुदेवजी की शर्त पर उसे जीवित छोड़ना

 

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! एक समयकी बात है, श्रेष्ठ मथुरापुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्ग जी पधारे। वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े प्रामाणिक विद्वान् थे । सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें अपने पुरोहित के पदपर प्रतिष्ठित किया था। मथुरा के उस राजभवन में सोने के किवाड़ लगे थे, उन किवाड़ों में हीरे भी जड़े गये थे । राजद्वार पर बड़े-बड़े गजराज झूमते थे। उनके मस्तकपर झुंड के झुंड भौरे आते और उन हाथियों के बड़े-बड़े कानोंसे आहत होकर गुञ्जारव करते हुए उड़ जाते थे। इस प्रकार वह राजद्वार उन भ्रमरों के नाद से कोलाहलपूर्ण हो रहा था। गजराजोंके गण्डस्थलसे निर्झरकी भाँति झरते हुए

मदकी धारासे वह स्थान समावृत था। अनेक मण्डप- समूह उस राजमन्दिरकी शोभा बढ़ाते थे। बड़े-बड़े उद्भट वीर कवच, धनुष, ढाल और तलवार धारण किये राजभवनकी सुरक्षामें तत्पर थे। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल- इस चतुरङ्गिणी सेना तथा माण्डलिकों की मण्डलीद्वारा भी वह राजमन्दिर सुरक्षित था ॥ १-३ ॥

मुनिवर गर्ग ने उस राजभवन में प्रवेश करके इन्द्रके सदृश उत्तम और ऊँचे सिंहासनपर विराजमान राजा उग्रसेन को देखा। अक्रूर, देवक तथा कंस उनकी सेवा में खड़े थे और राजा छत्रचंदोवे से सुशोभित थे तथा उनपर चँवर ढुलाये जा रहे थे। मुनिको उपस्थित देख राजा उग्रसेन सहसा सिंहासन से उठकर खड़े हो गये । उन्होंने अन्यान्य यादवों के साथ उन्हें प्रणाम किया और सुभद्रपीठ पर बिठाकर उनकी सम्यक् प्रकारसे पूजा की। फिर स्तुति और परिक्रमा करके वे उनके सामने विनीतभाव से खड़े हो गये। गर्ग मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर समस्त राजपरिवारका कुशल- मङ्गल पूछा । फिर उन महामना महर्षि ने नीतिवेत्ता यदुश्रेष्ठ देवक से कहा-- ॥ ४–६॥

श्रीगर्गजी बोले - राजन् ! मैंने बहुत दिनोंतक इधर-उधर ढूँढ़ा और सोचा- विचारा है। मेरी दृष्टिमें वसुदेवजी को छोड़कर भूमण्डल के नरेशों में दूसरा कोई देवकी के योग्य वर नहीं है। इसलिये नरदेव ! वसुदेवको ही वर बनाकर उन्हें अपनी पुत्री देवकी को सौंप दो और विधिपूर्वक दोनोंका विवाह कर दो ॥ ७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! गर्गजीके उक्त आदेशको ही शिरोधार्य करके समस्त धर्मधारियों में श्रेष्ठ श्रीदेवकने सगाईके निश्चयके लिये पानका बीड़ा भेज दिया और गर्गजीकी इच्छासे मङ्गलाचार का सम्पादन करके विवाहमें वसुदेव-वरको अपनी पुत्री अर्पित कर दी ॥ ८ ॥

विवाह हो जानेपर बिदाईके समय वसुदेवजी घोड़ों से सुशोभित अत्यन्त सुन्दर रथपर सुवर्ण-निर्मित एवं रत्नमय आभूषणों की शोभा से सम्पन्न नववधू देवकराज कन्या देवकी के साथ आरूढ़ हुए ।। वसुदेव के प्रति कंसका बहुत ही स्नेह और कृपाभाव था। वह अपनी बहिनका अत्यन्त प्रिय करनेके लिये चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आकर गमनोद्यत घोड़ोंकी बागडोर अपने हाथमें ले स्वयं रथ हाँकने लगा। उस समय देवकने अपनी पुत्रीके लिये उत्तम दहेजके रूपमें एक हजार दासियाँ, दस हजार हाथी, दस लाख घोड़े, एक लाख रथ और दो लाख गौएँ प्रदान कीं ॥ ९-११ ॥

उस बिदाकालमें भेरी, उत्तम मृदङ्ग, गोमुख, धन्धुरि, वीणा, ढोल और वेणु आदि वाद्योंका और साथ जानेवाले यादवोंका महान् कोलाहल हुआ। उस समय मङ्गलगीत गाये जा रहे थे। और मङ्गलपाठ भी हो रहा था। उसी समय आकाशवाणीने कंसको सम्बोधित करके कहा - 'अरे मूर्ख कंस ! घोड़ोंकी बागडोर हाथमें लेकर जिसे रथपर बैठाये लिये जा रहा है, इसीकी आठवीं संतान अनायास ही तेरा वध कर डालेगी - तू इस बात को नहीं जानता' ॥ १२-१३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

नूनं व्रतस्नानहुतादिनेश्वरः
     समर्चितो ह्यस्य गृहीतपाणिभिः ।
पिबंति याः सख्यधरामृतं मुहुः
     व्रजस्त्रियः सम्मुमुहुः यदाशयाः ॥ २८ ॥
या वीर्यशुल्केन हृताः स्वयंवरे
     प्रमथ्य चैद्यः प्रमुखान्हि शुष्मिणः ।
प्रद्युम्न साम्बाम्ब सुतादयोऽपरा
     याः चाहृता भौमवधे सहस्रशः ॥ २९ ॥
एताः परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं
     निरस्तशौचं बत साधु कुर्वते ।
यासां गृहात् पुष्करलोचनः पतिः
     न जातु अपैत्याहृतिभिः हृदि स्पृशन् ॥ ३० ॥
एवंविधा गदन्तीनां स गिरः पुरयोषिताम् ।
निरीक्षणेन अभिनन्दन् सस्मितेन ययौ हरिः ॥ ३१ ॥

सखी ! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है, उन स्त्रियों ने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदि के द्वारा इन परमात्माकी आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इनकी उस अधर-सुधाका पान करती हैं, जिसके स्मरणमात्रसे ही व्रजबालाएँ आनन्दसे मूर्च्छित हो जाया करती थीं ॥ २८ ॥ ये स्वयंवरमें शिशुपाल आदि मतवाले राजाओंका मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबलसे हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्युम्र, साम्ब, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुरको मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तवमें धन्य हैं। क्योंकि इन सभीने स्वतन्त्रता और पतिव्रतासे रहित स्त्रीजीवनको पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इनकी महिमाका वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात् कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकारकी प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओंकी भेंटसे इनके हृदयमें प्रेम एवं आनन्दकी अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षणके लिये भी इन्हें छोडक़र दूसरी जगह नहीं जाते ॥ २९-३० ॥  हस्तिनापुरकी स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही रही थीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवन से उनका अभिनन्दन करते हुए वहाँसे विदा हो गये ॥ ३१ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...