#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
दसवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
कंस
के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार
तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन
श्रीव्यास
उवाच -
अहोभाग्यं तु ते नंद शिशुः शेषः सनातनः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातोऽयं मथुरापुरे ॥३२॥
कृष्णेच्छया तदुदरात्प्रणीतो रोहिणीं शुभाम् ।
नंदराज त्वया दृश्यो दुर्लभो योगिनामपि ॥३३॥
तद्दर्शनार्थं प्राप्तोऽहं वेदव्यासो महामुनिः ।
तस्मात्त्वं दर्शयास्माकं शिशुरूपं परात्परम् ॥३४॥
श्रीनारद उवाच -
अथ नंदः शिशुं शेषं दर्शयामास विस्मितः ।
दृष्ट्वा प्रेंखस्थितं प्राह नत्वा सत्यवतीसुतः ॥३५॥
श्रीव्यास उवाच -
देवाधिदेव भगवन्कामपाल नमोऽस्तु ते ।
नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षाद्रामाय ते नमः ॥३६॥
धराधराय पूर्णाय स्वधाम्ने सीरपाणये ।
सहस्रशिरसे नित्यं नमः संकर्षणाय ते ॥३७॥
रेवतीरमण त्वं वै बलदेवोऽच्युताग्रजः ।
हलायुधः प्रलंबघ्नः पाहि मां पुरुषोत्तम ॥३८॥
बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नमः ।
नीलांबराय गौराय रौहिणेयाय ते नमः ॥३९॥
धेनुकारिर्मुष्टिकारिः कुम्भाण्डारिस्त्वमेव हि ।
रुक्म्यरिः कूपकर्णारिः कूटारिर्बल्वलान्तकः ॥४०॥
कालिन्दीभेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुरकर्षकः ।
द्विविदारिर्यादवेन्द्रो व्रजमण्डलमंडनः ॥४१॥
कंसभ्रातृप्रहन्ताऽसि तीर्थयात्राकरः प्रभुः ।
दुर्योधनगुरुः साक्षात्पाहि पाहि जगत्प्रभो ॥४२॥
जयजयाच्युत देव परात्पर
स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत ।
सुरमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते
मुसलिने बलिने हलिने नमः ॥४३॥
इह पठेत्सततं स्तवनं तु यः
स तु हरेः परमं पदमाव्रजेत् ।
जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं
भवति तस्य जयः स्वधनं धनम् ॥४४॥
श्रीनारद उवाच -
बलं परिक्रम्य शतं प्रणम्य
तैर्द्वैपायनो देव पराशरात्मजः ।
विशालबुद्धिर्मुनिबादरायणः
सरस्वतीं सत्यवतीसुतो ययौ ॥४५॥
श्रीव्यासजी
बोले-नन्द ! तुम्हारा अद्भुत सौभाग्य है, इस
शिशुके रूपमें साक्षात् सनातन देवता शेषनाग पधारे हैं। पहले तो मथुरापुरीमें
वसुदेवसे देवकीके गर्भमें इनका आविर्भाव हुआ। फिर भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे इनका
देवकीके उदरसे कल्याणमयी रोहिणीके गर्भमें आगमन हुआ है। नन्दराय ! ये योगियोंके
लिये भी दुर्लभ हैं, किंतु तुम्हें इनका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ
है। मैं महामुनि वेदव्यास इनके दर्शनके लिये ही यहाँ आया हूँ, अतः तुम शिशुरूप धारी इन परात्पर देवताका हम सबको दर्शन कराओ। ॥ ३२ – ३४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर नन्दने विस्मित होकर शिशुरूपधारी शेषका उन्हें दर्शन
कराया । पालनेमें विराजमान शेषजीका दर्शन करके सत्यवतीनन्दनने उन्हें प्रणाम किया
और उनकी स्तुति की — ॥ ३५ ॥
श्रीव्यासजी
बोले- भगवन् ! आप देवताओंके भी अधिदेवता और कामपाल (सबका मनोरथ पूर्ण करनेवाले)
हैं,
आपको नमस्कार है। आप साक्षात् अनन्तदेव शेषनाग हैं, बलराम हैं; आपको मेरा प्रणाम है । आप धरणीधर,
पूर्णस्वरूप, स्वयंप्रकाश, हाथ में हल धारण करनेवाले, सहस्र मस्तकों से सुशोभित
तथा संकर्षणदेव हैं, आपको नमस्कार है ॥३६–३७॥
रेवती-
रमण ! आप ही बलदेव तथा श्रीकृष्णके अग्रज हैं। हलायुध एवं प्रलम्बासुरके नाशक हैं।
पुरुषोत्तम ! आप मेरी रक्षा कीजिये । आप बल, बलभद्र
तथा तालके चिह्नसे युक्त ध्वजा धारण करनेवाले हैं; आपको
नमस्कार है। आप नीलवस्त्रधारी, गौरवर्ण तथा रोहिणीके सुपुत्र
हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप ही धेनुक, मुष्टिक, कुम्भाण्ड, रुक्मी,
कूपकर्ण, कूट तथा बल्वल के शत्रु हैं ॥ ३८-४० ॥
कालिन्दी
की धारा को मोड़ने वाले और हस्तिनापुर को गङ्गा की ओर आकर्षित करने वाले आप ही
हैं। आप द्विविद के विनाशक, यादवों के स्वामी तथा
व्रजमण्डल के मण्डन (भूषण)
हैं।
आप कंस के भाइयों का वध करनेवाले तथा तीर्थयात्रा करनेवाले प्रभु हैं। दुर्योधनके
गुरु भी साक्षात् आप ही हैं । प्रभो ! जगत्की रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये ॥ ४१-४२ ॥
अपनी
महिमा से कभी च्युत न होनेवाले परात्पर देवता साक्षात् अनन्त ! आपकी जय हो,
जय हो। आपका सुयश समस्त दिगन्तमें व्याप्त है। आप सुरेन्द्र,
मुनीन्द्र और फणीन्द्रोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। मुसलधारी, हलधर तथा बलवान् हैं; आपको नमस्कार है । जो इस जगत्
में सदा ही इस स्तवन का पाठ करेगा, वह श्रीहरि के परमपद को
प्राप्त होगा। संसार में उसे शत्रुओं का संहार करनेवाला सम्पूर्ण बल प्राप्त होगा
। उसकी सदा जय होगी और वह प्रचुर धनका स्वामी होगा ॥ ४३-४४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - राजन् ! पराशरनन्दन विशाल-बुद्धि बादरायण मुनि सत्यवतीकुमार
श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास उन मुनियोंके साथ बलरामजी को सौ बार प्रणाम और
परिक्रमा करके सरस्वती नदीके तटपर चले गये ॥ ४५ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवाद में 'बलभद्रजी के जन्म का वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से