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गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
बुधवार, 17 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
भगवान् का
वसुदेव-देवकीमें आवेश;
देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल;
अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत
भगवत्-स्तवन; भगवान द्वारा उनके पूर्वजन्मके
वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा
नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव-
देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का
आदेश देना
श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
विवेश वसुदेवस्य मनः पूर्वं परात्परः ॥१॥
सूर्येन्दुवह्निसंकाशो वसुदेवो महामनाः ।
बभूवात्यन्तमहसा साक्षाद्यज्ञ इवापरः ॥२॥
देवक्यामागते कृष्णे सर्वेषामभयंकरे ।
रराज तेन सा गेहे घने सौदामिनी यथा ॥३॥
तेजोवतीं च तां वीक्ष्य कंसः प्राह भयातुरः ।
प्राप्तोऽयं प्राणहन्ता मे पूर्वमेषा न चेदृशी ॥४॥
जातमात्रं हनिष्यामीत्युक्त्वाऽऽस्ते भयविह्वलः ।
पश्यन्सर्वत्र च हरिं पूर्वशत्रुं विचिन्तयन् ॥५॥
अहो वैरानुबन्धेन साक्षात्कृष्णोऽपि दृश्यते ।
तस्माद्वैरं प्रकुर्वन्ति कृष्णप्राप्त्यर्थमासुराः ॥६॥
अथ ब्रह्मादयो देवा मुनीन्द्रैरस्मदादिभिः ।
शौरिगेहोपरि प्राप्ताः स्तवं चक्रुः प्रणम्य तम् ॥७॥
देवा ऊचुः -
यज्जागरादिषु भवेषु परं ह्यहेतु-
र्हेतुः स्विदस्य विचरन्ति गुणाश्रयेण ।
नैतद्विशन्ति महदिन्द्रियदेवसंघा-
स्तस्मै नमोऽग्निमिव विस्तृतविस्फुलिंगाः ॥८॥
नैवेशितुं प्रभुरयं बलिनां बलीयान्
माया न शब्द उत नो विषयीकरोति ।
तद्ब्रह्म पूर्णममृतं परमं प्रशान्तं
शुद्धं परात्परतरं शरणं गताः स्मः ॥९॥
अंशांशकांशककलाद्यवतारवृन्दै-
रावेशपूर्णसहितैश्च परस्य यस्य ।
सर्गादयः किल भवन्ति तमेव कृष्णं
पूर्णात्परं तु परिपूर्णतमं नताः स्मः ॥१०॥
मन्वन्तरेषु च युगेषु गतागतेषु
कल्पेषु चांशकलया स्ववपुर्बिभर्षि ।
अद्यैव धाम परिपूर्णतमं तनोषि
धर्मं विधाय भुवि मंगलमातनोषि ॥११॥
यद्दुर्लभं विशदयोगिभिरप्यगम्यं
गम्यं द्रवद्भिरमलाशयभक्तियोगैः ।
आनंदकंद चरतस्तव मन्दयानं
पादारविन्दमकरन्दरजो दधामः ॥१२॥
पूर्वं तथात्र कमनीयवपुष्मयं त्वां
कंदर्पकोटिशतमोहनमद्भुतं च ।
गोलोकधामधिषणद्युतिमादधानं
राधापतिं धरणिधुर्यधनं दधामः ॥१३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर परात्पर एवं परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण
पहले वसुदेवजीके मनमें आविष्ट हुए। भगवान्का आवेश होते ही महामना वसुदेव सूर्य,
चन्द्रमा और अग्निके समान महान् तेजसे उद्भासित हो उठे, मानो उनके रूपमें दूसरे यज्ञनारायण ही प्रकट हो गये हों। फिर सबको अभय
देनेवाले श्रीकृष्ण देवी देवकीके गर्भमें आविष्ट हुए। इससे उस कारागृहमें देवकी
उसी तरह दिव्य दीप्तिसे दमक उठीं, जैसे घनमाला में चपला चमक
उठती है। देवकीके उस तेजस्वी रूपको देखकर कंस मन-ही-मन भयसे व्याकुल होकर बोला- 'यह मेरा प्राणहन्ता आ गया; क्योंकि इसके पहले यह ऐसी
तेजस्विनी नहीं थी। इस शिशु को जन्म लेते ही मैं अवश्य मार डालूँगा ।' यों कहकर वह भयसे विह्वल हो उस बालकके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा। भयके
कारण अपने पूर्वशत्रु भगवान् विष्णुका चिन्तन करते हुए वह सर्वत्र उन्हींको देखने
लगा। अहो ! दृढ़तापूर्वक वैर बँध जाने से भगवान् कृष्णका भी प्रत्यक्षकी भाँति
दर्शन होने लगता है। इसलिये असुर श्रीकृष्णकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही उनके साथ
वैर करते हैं। जब भगवान् गर्भमें आविष्ट हुए, तब ब्रह्मादि
देवता तथा अस्मदादि (नारद-प्रभृति) मुनीश्वर वसुदेवके गृह के ऊपर आकाशमें स्थित हो,
भगवान् को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे ॥ १-७ ॥
देवता
बोले- जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं- में प्रतीत
होनेवाले विश्वके जो एकमात्र हेतु होते हुए भी अहेतु हैं, जिनके
गुणोंका आश्रय लेकर ही ये प्राणिसमुदाय सब ओर विचरते हैं तथा जैसे अग्निसे निकलकर
सब ओर फैले हुए विस्फुलिङ्ग (चिनगारियाँ) पुनः उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार महत्तत्त्व, इन्द्रियवर्ग तथा उनके
अधिष्ठाता देव-समुदाय जिनसे प्रकट हो पुनः उनमें प्रवेश नहीं पाते, उन परमात्मा आप भगवान् श्रीकृष्णको हमारा सादर नमस्कार है ॥ ८ ॥
बलवानों
में भी सबसे अधिक बलिष्ठ यह काल भी जिनपर शासन करनेमें समर्थ नहीं है,
माया भी जिनपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती तथा नित्यशब्द (वेद) जिनको
अपना विषय नहीं बना पाता, उन परम अमृत, प्रशान्त, शुद्ध, परात्पर
पूर्ण ब्रह्मस्वरूप आप भगवान्की हम शरणमें आये हैं। जिन परमेश्वरके अंशावतार,
अंशांशावतार, कलावतार, आवेशावतार
तथा पूर्णावतारसहित विभिन्न अवतारों द्वारा इस विश्वके सृष्टिपालन आदि कार्य
सम्पादित होते हैं, उन्हीं पूर्णसे भी परे परिपूर्णतम भगवान्
श्रीकृष्णको हम प्रणाम करते हैं। प्रभो! अतीत, वर्तमान और
अनागत (भविष्य) मन्वन्तरों, युगों तथा कल्पोंमें आप अपने अंश
और कलाद्वारा अवतार - विग्रह धारण करते हैं। किंतु आज ही वह सौभाग्यपूर्ण अवसर आया
है, जब कि आप अपने परिपूर्णतम धाम (तेजःपुञ्ज) का यहाँ
विस्तार कर रहे हैं! अब इस परिपूर्णतम अवतारद्वारा भूतलपर धर्मकी स्थापना करके आप
लोकमें मङ्गल (कल्याण) का प्रसार करेंगे ॥ ९-११ ॥
आनन्दकंद
! देवकीनन्दन ! आपकी जो चरणरज विशुद्ध अन्तःकरणवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ और
अगम्य है,
वही उन बड़भागी भक्तोंके लिये परम सुलभ है, जो
अपने निर्मल हृदयमें भक्तियोग धारण करके, सदा प्रीतिरसमें
निमग्न हो, द्रवित-चित्त रहते हैं। शिशुरूपमें मन्द मन्द
विचरनेवाले आपके चरणारविन्दोंके मकरन्द एवं परागको हम सानुराग सिरपर धारण करें,
यही हमारी आन्तरिक अभिलाषा है । आप पहले से ही परम कमनीय कलेवरधारी
हैं और यहाँ इस अवतारमें भी उसी कमनीय रूपसे आप सुशोभित होंगे । आपका रूप कोटिशत
कामदेवोंको भी मोहित करनेवाला और परम अद्भुत है। आप गोलोकधाममें धारित दिव्य
दीप्ति-राशिको यहाँ भी धारण करेंगे। सर्वोत्कृष्ट धर्मधन के धारयिता आप
श्रीराधावल्लभ को हम [ह्रदय में] धारण करते हैं ॥ १२- १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
दसवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
कंस
के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार
तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन
श्रीव्यास
उवाच -
अहोभाग्यं तु ते नंद शिशुः शेषः सनातनः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातोऽयं मथुरापुरे ॥३२॥
कृष्णेच्छया तदुदरात्प्रणीतो रोहिणीं शुभाम् ।
नंदराज त्वया दृश्यो दुर्लभो योगिनामपि ॥३३॥
तद्दर्शनार्थं प्राप्तोऽहं वेदव्यासो महामुनिः ।
तस्मात्त्वं दर्शयास्माकं शिशुरूपं परात्परम् ॥३४॥
श्रीनारद उवाच -
अथ नंदः शिशुं शेषं दर्शयामास विस्मितः ।
दृष्ट्वा प्रेंखस्थितं प्राह नत्वा सत्यवतीसुतः ॥३५॥
श्रीव्यास उवाच -
देवाधिदेव भगवन्कामपाल नमोऽस्तु ते ।
नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षाद्रामाय ते नमः ॥३६॥
धराधराय पूर्णाय स्वधाम्ने सीरपाणये ।
सहस्रशिरसे नित्यं नमः संकर्षणाय ते ॥३७॥
रेवतीरमण त्वं वै बलदेवोऽच्युताग्रजः ।
हलायुधः प्रलंबघ्नः पाहि मां पुरुषोत्तम ॥३८॥
बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नमः ।
नीलांबराय गौराय रौहिणेयाय ते नमः ॥३९॥
धेनुकारिर्मुष्टिकारिः कुम्भाण्डारिस्त्वमेव हि ।
रुक्म्यरिः कूपकर्णारिः कूटारिर्बल्वलान्तकः ॥४०॥
कालिन्दीभेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुरकर्षकः ।
द्विविदारिर्यादवेन्द्रो व्रजमण्डलमंडनः ॥४१॥
कंसभ्रातृप्रहन्ताऽसि तीर्थयात्राकरः प्रभुः ।
दुर्योधनगुरुः साक्षात्पाहि पाहि जगत्प्रभो ॥४२॥
जयजयाच्युत देव परात्पर
स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत ।
सुरमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते
मुसलिने बलिने हलिने नमः ॥४३॥
इह पठेत्सततं स्तवनं तु यः
स तु हरेः परमं पदमाव्रजेत् ।
जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं
भवति तस्य जयः स्वधनं धनम् ॥४४॥
श्रीनारद उवाच -
बलं परिक्रम्य शतं प्रणम्य
तैर्द्वैपायनो देव पराशरात्मजः ।
विशालबुद्धिर्मुनिबादरायणः
सरस्वतीं सत्यवतीसुतो ययौ ॥४५॥
श्रीव्यासजी
बोले-नन्द ! तुम्हारा अद्भुत सौभाग्य है, इस
शिशुके रूपमें साक्षात् सनातन देवता शेषनाग पधारे हैं। पहले तो मथुरापुरीमें
वसुदेवसे देवकीके गर्भमें इनका आविर्भाव हुआ। फिर भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे इनका
देवकीके उदरसे कल्याणमयी रोहिणीके गर्भमें आगमन हुआ है। नन्दराय ! ये योगियोंके
लिये भी दुर्लभ हैं, किंतु तुम्हें इनका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ
है। मैं महामुनि वेदव्यास इनके दर्शनके लिये ही यहाँ आया हूँ, अतः तुम शिशुरूप धारी इन परात्पर देवताका हम सबको दर्शन कराओ। ॥ ३२ – ३४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर नन्दने विस्मित होकर शिशुरूपधारी शेषका उन्हें दर्शन
कराया । पालनेमें विराजमान शेषजीका दर्शन करके सत्यवतीनन्दनने उन्हें प्रणाम किया
और उनकी स्तुति की — ॥ ३५ ॥
श्रीव्यासजी
बोले- भगवन् ! आप देवताओंके भी अधिदेवता और कामपाल (सबका मनोरथ पूर्ण करनेवाले)
हैं,
आपको नमस्कार है। आप साक्षात् अनन्तदेव शेषनाग हैं, बलराम हैं; आपको मेरा प्रणाम है । आप धरणीधर,
पूर्णस्वरूप, स्वयंप्रकाश, हाथ में हल धारण करनेवाले, सहस्र मस्तकों से सुशोभित
तथा संकर्षणदेव हैं, आपको नमस्कार है ॥३६–३७॥
रेवती-
रमण ! आप ही बलदेव तथा श्रीकृष्णके अग्रज हैं। हलायुध एवं प्रलम्बासुरके नाशक हैं।
पुरुषोत्तम ! आप मेरी रक्षा कीजिये । आप बल, बलभद्र
तथा तालके चिह्नसे युक्त ध्वजा धारण करनेवाले हैं; आपको
नमस्कार है। आप नीलवस्त्रधारी, गौरवर्ण तथा रोहिणीके सुपुत्र
हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप ही धेनुक, मुष्टिक, कुम्भाण्ड, रुक्मी,
कूपकर्ण, कूट तथा बल्वल के शत्रु हैं ॥ ३८-४० ॥
कालिन्दी
की धारा को मोड़ने वाले और हस्तिनापुर को गङ्गा की ओर आकर्षित करने वाले आप ही
हैं। आप द्विविद के विनाशक, यादवों के स्वामी तथा
व्रजमण्डल के मण्डन (भूषण)
हैं।
आप कंस के भाइयों का वध करनेवाले तथा तीर्थयात्रा करनेवाले प्रभु हैं। दुर्योधनके
गुरु भी साक्षात् आप ही हैं । प्रभो ! जगत्की रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये ॥ ४१-४२ ॥
अपनी
महिमा से कभी च्युत न होनेवाले परात्पर देवता साक्षात् अनन्त ! आपकी जय हो,
जय हो। आपका सुयश समस्त दिगन्तमें व्याप्त है। आप सुरेन्द्र,
मुनीन्द्र और फणीन्द्रोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। मुसलधारी, हलधर तथा बलवान् हैं; आपको नमस्कार है । जो इस जगत्
में सदा ही इस स्तवन का पाठ करेगा, वह श्रीहरि के परमपद को
प्राप्त होगा। संसार में उसे शत्रुओं का संहार करनेवाला सम्पूर्ण बल प्राप्त होगा
। उसकी सदा जय होगी और वह प्रचुर धनका स्वामी होगा ॥ ४३-४४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - राजन् ! पराशरनन्दन विशाल-बुद्धि बादरायण मुनि सत्यवतीकुमार
श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास उन मुनियोंके साथ बलरामजी को सौ बार प्रणाम और
परिक्रमा करके सरस्वती नदीके तटपर चले गये ॥ ४५ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवाद में 'बलभद्रजी के जन्म का वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
सोमवार, 15 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
दसवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
कंस
के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार
तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन
उग्रसेनानुगान्दृष्ट्वा
कंसवीराः समुत्थिताः ।
तैः सार्द्धमभवद्युद्धं सभामंडपमध्यतः ॥१६॥
द्वारदेशेऽपि वीराणां युद्धं जातं परस्परम् ।
खड्गप्रहारैरयुतं जनानां निधनं गतम् ॥१७॥
कंसो गृहीत्वाथ गदां पितुः सेनां ममर्द ह ।
कंसस्य गदया स्पृष्ट्वा केचिच्छिन्नललाटकाः ॥१८॥
भिन्नपादा भिन्नमुखाश्छिन्नाशाश्छिन्नबाहवः ।
अधोमुखा ऊर्ध्वमुखाः सशस्त्राः पतिताः क्षणात् ॥१९॥
वमन्तो रुधिरं वीरा मूर्छिता निधनं गताः ।
सभामंडपमारक्तं दृश्यते क्षतजस्रवात् ॥२०॥
इत्थं मदोत्कटः कंसः संनिपात्योद्भटान् रिपून् ।
क्रोधाढ्यो राजराजेन्द्रं जग्राह पितरं खलः ॥२१॥
नृपासनात्संगृहीत्वा बद्ध्वा पाशैश्च तं खलः ।
तन्मित्रैश्च नृपैः सार्द्धं कारागारे रुरोध ह ॥२२॥
मधूनां शूरसेनानां देशानां सर्वसंपदाम् ।
सिंहासने चोपविश्य स्वयं राज्यं चकार ह ॥२३॥
पीडिता यादवाः सर्वे संबंधस्य मिषैस्त्वरम् ।
चतुर्दिशान्तरं देशान् विविशुः कालवेदिनः ॥२४॥
देवक्याः सप्तमे गर्भे हर्षशोकविवर्द्धने ।
व्रजं प्रणीते रोहिण्यामनन्ते योगमायया ॥२५॥
अहो गर्भः क्व विगत इत्यूचुर्माथुरा जनाः ॥२६॥
अथ व्रजे पंचदिनेषु भाद्रे
स्वातौ च षष्ठ्यां च सिते बुधे च ।
उच्चैर्गृहैः पंचभिरावृते च
लग्ने तुलाऽऽख्ये दिनमध्यदेशे ॥२७॥
सुरेषु वर्षत्सु सुपुष्पवर्षं
घनेषु मुंचत्सु च वारिबिन्दून् ।
बभूव देवो वसुदेवपत्न्यां
विभासयन्नन्दगृहं स्वभासा ॥२८॥
नंदोऽपि कुर्वन् शिशुजातकर्म
ददौ द्विजेभ्यो नियुतं गवां च ।
गोपान् समाहूय सुगायकानां
रावैर्महामंगलमातनोति ॥२९॥
द्वैपायनो देवलदेवरात-
वसिष्ठवाचस्पतिभिर्मया च ।
आगत्य तत्रैव समास्थितोऽभू-
त्पाद्यादिभिर्नन्दकृतैः प्रसन्नः ॥३०॥
नंदराज उवाच -
सुंदरो बालकः कोऽयं न दृश्यो यत्समः क्वचित् ।
कथं पंचदिनाज्जातस्तन्मे ब्रूहि महामुने ॥३१॥
उग्रसेन
के अनुगामियों को युद्धके लिये उद्यत देख कंसके निजी वीर सैनिक भी उनका सामना
करनेके लिये खड़े हुए। राजसभाके मण्डपमें ही उन दोनों दलोंका परस्पर युद्ध होने
लगा। राजद्वारपर भी उन दोनों दलोंके वीरोंमें परस्पर युद्ध छिड़ गया। वे सब लोग
खुलकर एक- दूसरेपर खड्गका प्रहार करने लगे। इस संघर्षमें दस हजार मनुष्य खेत रहे ।
तदनन्तर कंसने गदा हाथमें लेकर पिताकी सेनाको कुचलना आरम्भ किया। उसकी गदासे छू
जानेसे ही कितने ही लोगोंके मस्तक फट गये, कितनोंके
पाँव कट गये, नख विदीर्ण हो गये, बाँहें
कट गयीं और उनकी आशापर पानी फिर गया। कोई औंधे मुँह और कोई उतान होकर अस्त्र-
शस्त्र लिये क्षणभरमें धराशायी हो गये। बहुत-से वीर खून उगलते हुए मूर्च्छित हो
काल के गाल में चले गये। वहाँ इतना रक्त प्रवाहित हुआ कि सारा सभामण्डप रँग गया ॥ १६-२०
॥
राजराजेश्वर
! इस प्रकार दुष्ट एवं मदमत्त कंस ने कुपित हो उद्भट शत्रुओं को धराशायी करके अपने
पिता को कैद कर लिया। उन्हें राजसिंहसनसे उतारकर उस दुष्टने पाशोंसे बाँधा और उनके
मित्रोंके साथ उन्हें भी कारागारमें बंद कर दिया। मधु और शूरसेन की सारी
सम्पत्तिओं पर अधिकार करके कंस स्वयं सिंहासनपर जा बैठा और राज्यशासन करने लगा ॥२१–२३॥
समस्त
पीड़ित यादव सम्बन्धी के घरपर जानेके बहाने तुरंत चारों दिशाओंमें विभिन्न देशोंके
भीतर जाकर रहने लगे और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। देवकीका सातवाँ गर्भ उनके
लिये हर्ष और शोक दोनों की वृद्धि करनेवाला हुआ, उसमें साक्षात् अनन्त - देव अवतीर्ण हुए थे। योगमायाने देवकीके उस गर्भको
खींचकर व्रजमें रोहिणीकी कुक्षिके भीतर पहुँचा दिया। ऐसा हो जानेपर मथुरा के लोग
खेद प्रकट करते हुए कहने लगे— 'अहो ! बेचारी देवकीका गर्भ
कहाँ चला गया ? कैसे गिर गया ?' ॥२४–२६॥
व्रज
में उस गर्भ को गये पाँच ही दिन बीते थे कि भाद्रपद शुक्ला षष्ठीको,
स्वाती नक्षत्रमें, बुधके दिन वसुदेवकी पत्नी
रोहिणीके गर्भसे अनन्तदेवका प्राकट्य हुआ । उच्चस्थानमें स्थित पाँच ग्रहों से
घिरे हुए तुला लग्न में, दोपहर के समय बालक का जन्म हुआ। उस
जन्मवेला में जब देवता फूल बरसा रहे थे और बादल वारिबिन्दु बिखेर रहे थे, प्रकट हुए अनन्तदेवने अपनी अङ्गकान्ति से नन्दभवन को उद्भासित कर दिया ॥२७–२८॥
नन्दरायजी
ने भी उस शिशुका जातकर्मसंस्कार करके ब्राह्मणों को दस लाख गौएँ दान कीं। गोपोंको
बुलाकर उत्तम गान-विद्यामें निपुण गायकोंके संगीतके साथ महान् मङ्गलमय उत्सव का
आयोजन किया । देवल, देवरात, वसिष्ठ, बृहस्पति और मुझ नारदके साथ आकर
श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास भी वहाँ बैठे और नन्दजीके दिये हुए पाद्य आदि उपहारोंसे
अत्यन्त प्रसन्न हुए । २९ - ३० ॥
नन्दरायजीने
पूछा- महर्षियो ! यह सुन्दर बालक कौन है, जिसके
समान दूसरा कोई देखने में नहीं आता ? महामुने ! इसका जन्म
पाँच ही दिनों में कैसे हुआ ? यह मुझे बताइये ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
रविवार, 14 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
दसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
कंस के अत्याचार; बलभद्रजी का
अवतार तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन
श्रीनारद उवाच -
भीतः पलायते नायं योद्धारः कंसनोदिताः ।
अयुतं शस्त्रसंयुक्ता रुरुधुः शौरिमंदिरम् ॥१॥
शौरिः कालेन देवक्यामष्टौ पुत्रानजीजनत् ।
अनुवर्षं चाथ कन्यामेकां मायां सनातनीम् ॥२॥
कीर्तिमन्तं सुतं ह्यादौ जातमानकदुन्दुभिः ।
नीत्वा कंसं समभ्येत्य ददौ तस्मै परार्थवित् ॥३॥
सत्यवाक्यस्थितं शौरिं कंसो घृणी ह्यभूत् ।
दुःखं साधुर्न सहते सत्ये कस्य क्षमा न हि ॥४॥
कंस उवाच -
एष बालो यातु गृहमेतस्मान्न हि मे भयम् ।
युवयोरष्टमं गर्भं हनिष्यामि न संशयः ॥५॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तो वसुदेवस्तु सपुत्रो गृहमागतः ।
सत्यं नामन्यत मनाग्वाक्यं तस्य दुरात्मनः ॥६॥
तदाम्बरादागतं मां नत्वा पूज्योग्रसेनजः ।
प्रपच्छ देवाभिप्रायं प्रावोचं तं निबोध मे ॥७॥
नंदाद्या वसवः सर्वे वृषभान्वादयः सुराः ।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च संति भूमौ नृपेश्वर ॥८॥
वसुदेवादयो देवा मथुरायां च वृष्णयः ।
देवक्याद्याः स्त्रियः सर्वा देवताः सन्ति निश्चयः ॥९॥
सप्तवारप्रसंख्यानादष्टमाः सर्व एव हि ।
ते हन्तुः संख्ययाऽयं वा देवानां वामतो गतिः ॥१०॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा तं मयि गते कृतदैत्यवधोद्यमे ।
कंसः कोपावृतः सद्यो यदून् हंतुं मनो दधे ॥११॥
वसुदेवं देवकीं च बद्ध्वाऽथ निगडैर्दृढैः ।
ममर्द तं शिलापृष्ठे देवकीगर्भजं शिशुम् ॥१२॥
जातिस्मरो विष्णुभयाज्जातं जातं जघान ह ।
इति दुष्टविभावाच्च भूमौ भूतं ह्यसंशयम् ॥१३॥
उग्रसेनस्तदा क्रुद्धो यादवेन्द्रो नृपेश्वरः ।
वारयामास कंसाख्यं वसुदेवसहायकृत् ॥१४॥
कंसस्य दुरभिप्रायं दृष्ट्वोत्तस्थुर्महाभटाः ।
उग्रसेनानुगा रक्षां चक्रुस्ते खड्गपाणयः ॥१५॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! कंसने सोचा, वसुदेवजी भयभीत
होकर कहीं भाग न जायँ — ऐसा विचार मनमें आते ही उसने बहुत-से सैनिक भेज दिये । कंस
की आज्ञा से दस हजार शस्त्रधारी सैनिकों ने पहुँचकर वसुदेवजी का घर घेर लिया ।
वसुदेवजी ने यथासमय देवकी के गर्भ से आठ पुत्र उत्पन्न किये, वे क्रमशः एक वर्षके बाद होते गये। फिर उन्होंने एक कन्या को भी जन्म दिया,
जो भगवान्की सनातनी माया थी ॥ १-२ ॥
सर्वप्रथम
जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम कीर्तिमान्
था । वसुदेवजी उसे गोदमें उठाकर कंसके पास ले गये। वे दूसरेके प्रयोजनको भी अच्छी
तरहसे समझते थे, इसलिये वह बालक उन्होंने कंसको दे दिया ।
वसुदेवजीको अपने सत्यवचन के पालन में तत्पर देख कंसको दया आ गयी। साधुपुरुष दुःख
सह लेते हैं, परंतु अपनी कही हुई बात मिथ्या नहीं होने देते
। सचाई देखकर किसके मनमें क्षमा का भाव उदित नहीं होता ? ॥ ३-४॥
कंस
ने कहा- वसुदेवजी ! यह बालक आपके साथ ही घर लौट जाय, इससे मुझे कोई भय नहीं है। परंतु आप दोनोंका जो आठवाँ गर्भ होगा, उसका वध मैं अवश्य करूँगा – इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ५ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! कंसके यों कहनेपर वसुदेवजी अपने पुत्रके साथ घर लौट आये,
परंतु उस दुरात्मा के वचन को उन्होंने तनिक भी सत्य नहीं माना ॥ ६ ॥
उस
समय आकाशसे उतरकर मैं वहाँ गया । उग्रसेनकुमार कंस ने मुझे मस्तक झुकाकर मेरा
स्वागत-सत्कार किया, और मुझसे देवताओंका
अभिप्राय पूछा। उस समय मैंने उसे जो उत्तर दिया, वह मुझसे
सुनो। मैंने कहा- 'नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु
आदि देवताओं के । नरेश्वर कंस ! इस व्रजभूमिमें जो गोपियाँ हैं, उनके रूपमें वेदोंकी ऋचाएँ आदि यहाँ निवास करती हैं। मथुरा में वसुदेव आदि
जो वृष्णिवंशी हैं, वे सब-के-सब मूलतः देवता ही हैं। देवकी
आदि सम्पूर्ण स्त्रियाँ भी निश्चय ही देवाङ्गनाएँ हैं। सात बार गिन लेनेपर सभी
अङ्क आठ ही हो जाते हैं। तुम्हारे घातककी संख्यासे गिना जाय तो यह प्रथम बालक भी
आठवाँ हो सकता है; क्योंकि देवताओंकी 'वामतो
गति' है ॥ ७ – १० ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— मिथिलेश्वर ! उससे यों कहकर जब मैं चला आया,
तब देवताओंद्वारा किये गये दैत्यवध के लिये उद्योग पर कंस को बड़ा
क्रोध हुआ । उसने उसी क्षण यादवों को मार डालने का विचार किया। उसने वसुदेव और
देवकी को मजबूत बेड़ियों से बाँधकर कैद कर लिया और देवकी के उस प्रथम-गर्भजनित
शिशु को शिलापृष्ठपर रखकर पीस डाला ॥ ११-१२ ॥
उसे
अपने पूर्वजन्मकी घटनाओंका स्मरण था, अतः
भगवान् विष्णुके भयसे तथा अपने दुष्ट स्वभावके कारण भी उसने इस भूतलपर प्रकट हुए
देवकीके प्रत्येक बालकको जन्म लेते ही मार डाला । ऐसा करनेमें उसे तनिक भी हिचक
नहीं हुई। यह सब देखकर यदुकुल- नरेश राजा उग्रसेन उस समय कुपित हो उठे। उन्होंने
वसुदेवजीकी सहायता की और कंसको अत्याचार करने से रोका। कंसके दुष्ट अभिप्राय को
प्रत्यक्ष देख महान् यादव वीर उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। वे उग्रसेन के पीछे रहकर,
खड्गहस्त हो उनकी रक्षा करने लगे ॥ १३-१५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
शनिवार, 13 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
नवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
गर्गजी
की आज्ञासे देवक का वसुदेवजी के साथ देवकी का विवाह करना;
बिदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत
होना और वसुदेवजी की शर्त पर उसे जीवित छोड़ना
कुसंगनिष्ठोऽतिखलो
हि कंसो
हंतुं स्वसारं धिषणां चकार ।
कचे गृहीत्वा शितखड्गपाणि-
र्गतत्रपो निर्दय उग्रकर्मा ॥१४॥
वादित्रकारा रहिता बभूवु-
रग्रे स्थिताः स्युश्चकिता हि पश्चात् ।
सर्वेषु वा श्वेतमुखेषु सत्सु
शौरिस्तमाहाऽऽशु सतां वरिष्ठः ॥१५॥
श्रीवसुदेव उवाच -
भोजेन्द्र भोजकुलकीर्तिकरस्त्वमेव
भौमादिमागधबकासुरवत्सबाणैः ।
श्लाघ्या गुणास्तव युधि प्रतियोद्धुकामैः
स त्वं कथं तु भगिनीमसिनात्र हन्याः ॥१६॥
ज्ञात्वा स्त्रियं किल बकीं प्रतियोद्धुकामां
युद्धं कृतं न भवता नृपनीतिवृत्त्या ।
सा तु त्वयापि भगिनीव कृता प्रशांत्यै
साक्षादियं तु भगिनी किमु ते विचारात् ॥१७॥
उद्वाहपर्वणि गता च तवानुजा च
बाला सुतेव कृपणा शुभदा सदैषा ।
योग्योऽसि नात्र मथुराधिप हंतुमेनां
त्वं दीनदुःखहरणे कृतचित्तवृत्तिः ॥१८॥
श्रीनारद उवाच -
नामन्यतेत्थं प्रतिबोधितोऽपि
कुसङ्गनिष्ठोऽतिखलो हि कंसः ।
तदा हरेः कालगतिं विचार्य
शौरिः प्रपन्नं पुनराह कंसम् ॥१९॥
श्रीवसुदेव उवाच -
नास्यास्तु ते देव भयं कदाचि-
द्यद्देववाण्या कथितं च तच्छृणु ।
पुत्रान् ददामीति यतो भयं स्या-
न्मा ते व्यथाऽस्याः प्रसवप्रजातात् ॥२०॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा स निश्चित्य वचोऽथ शौरेः
कंसः प्रशंस्याऽऽशु गृहं गतोऽभूत् ।
शौरिस्तदा देवकराजपुत्र्या
भयावृतः सन् गृहमाजगाम ॥२१॥
कंस
सदा दुष्टों का ही साथ करता था। स्वभाव से भी वह अत्यन्त खल (दुष्ट) था । लज्जा तो
उसे छू नहीं गयी थी । वह निर्दय होनेके कारण बड़े भयंकर कर्म कर डालता था। उसने
तीखी धारवाली तलवार हाथमें उठा ली, बहिन-
के केश पकड़ लिये और उसे मारनेका निश्चय कर लिया। उस समय बाजेवालोंने बाजे बंद कर
दिये। जो आगे थे, वे चकित होकर पीछे देखने लगे। सबके मुँहपर
मुर्दनी छा गयी। ऐसी स्थितिमें सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ श्रीवसुदेवजीने कंससे कहा ॥।
१४ -१५॥
श्रीवसुदेवजी
बोले- भोजेन्द्र ! आप इस वंशकी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हैं। भौमासुर,
जरासंध, बकासुर, वत्सासुर
और बाणासुर - सभी योद्धा आपसे लड़नेके लिये युद्धभूमिमें आये; किंतु उन्होंने आपकी प्रशंसा ही की। वे ही आप तलवारसे बहिनका वध करनेको
कैसे उद्यत हो गये ? बकासुर- की बहिन पूतना आपके पास आकर
लड़नेकी इच्छा करने लगी; किंतु आपने राजनीतिके अनुरूप बर्ताव
करनेके कारण स्त्री समझकर उसके साथ युद्ध नहीं किया। उस समय शान्ति स्थापनके लिये
आपने पूतनाको बहिनके तुल्य बनाकर छोड़ दिया। फिर यह तो आपकी साक्षात् बहिन है। किस
विचार से आप इस अनुचित कृत्य में लग गये ? ॥१६-१७॥
मथुरानरेश
! यह कन्या यहाँ विवाहके शुभ अवसरपर आयी है। आपकी छोटी बहिन है। बालिका है।
पुत्रीके समान दयनीय- दयापात्र है। यह सदा आपको सद्भावना प्रदान करती आयी है। अतः
इसका वध करना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। आपकी चित्तवृत्ति तो दीनदुखियों के
दुःख दूर करने में ही लगी रहती है ॥१८॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार वसुदेवजीके समझानेपर भी अत्यन्त खल और कुसङ्गी कंसने
उनकी बात नहीं मानी। तब वसुदेवजी, यह भगवान् का
विधान है, अथवा कालकी ऐसी ही गति है—यह समझकर भगवत्-शरणापन्न
हो, पुनः कंस से बोले ॥ १९ ॥
श्रीवसुदेवजीने
कहा- राजन् ! इस देवकी से तो आपको कभी भय है नहीं । आकाशवाणीने जो कुछ कहा है,
उसके विषय में मेरा विचार सुनिये। मैं इसके गर्भ से उत्पन्न सभी
पुत्र आपको दे दूँगा; क्योंकि उन्हींसे आपको भय है । अतः
व्यथित न होइये ॥ २० ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- मिथिलेश ! कंसने वसुदेवजीके निश्चयपूर्वक कहे गये वचनपर विश्वास कर
लिया। अतः उनकी प्रशंसा करके वह उसी क्षण घरको चला गया। इधर वसुदेवजी भी भयभीत हो
देवकी के साथ अपने भवन को पधारे ॥ २१ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'वसुदेवके विवाहका वर्णन' नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ ९ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
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