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गुरुवार, 30 मई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट
02)
नन्द, उपनन्द और
वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला
एकदा
यमुनातीरे मृत्कृष्णेनावलीढिता ।
यशोदां बालकाः प्राहुरत्ति बालो मृदं तव ॥१३॥
बलभद्रे च वदति तदा सा नंदगेहिनी ।
करे गृहीत्वा स्वसुतं भीरुनेत्रमुवाच ह ॥१४॥
श्रीयशोदा उवाच -
कस्मान्मृदं भक्षितवान् महाज्ञ
भवान्वयस्याश्च वदंति साक्षात् ।
ज्यायान्बलोऽयं वदति प्रसिद्धं
मा एवमर्थं न जहाति नेष्टम् ॥१५॥
श्रीभगवानुवाच -
सर्वे मृषावादरथा व्रजार्भका
मातर्मया क्वापि न मृत्प्रभक्षिता ।
यदा समीचीनमनेन वाक्पथं
तदा मुखं पश्य मदीयमंजसा ॥१६॥
श्रीनारद उवाच -
अथ गोपी बालकस्य पश्यंती सुंदरं मुखम् ।
प्रसारितं च ददृशे ब्रह्मांडं रचितं गुणैः ॥१७॥
सप्तद्वीपान्सप्त सिंधून्सखंडान्सगिरीन्दृढान् ।
आब्रह्मलोकाँल्लोकाँस्त्रीन्स्वात्मभिः सव्रजैः सह ॥१८॥
दृष्ट्वा निमीलिताक्षी सा भूत्वा श्रीयमुनातटे ।
बालोऽयं मे हरिः साक्षादिति ज्ञानमयी ह्यभूत् ॥१९॥
तदा जहास श्रीकृष्णो मोहयन्निव मायया ।
यशोदा वैभवं दृष्टं न सस्मार गतस्मृतिः ॥२०॥
एक
दिनकी बात है, यमुनाके तटपर श्रीकृष्णने
मिट्टीका आस्वादन किया। यह देख बालकोंने यशोदाजीके पास आकर कहा – 'अरी मैया ! तुम्हारा लाला तो मिट्टी खाता है।' बलभद्रजीने
भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी । तब नन्दरानी ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ लिया। बालक के
नेत्र भयभीत से हो उठे। मैया ने उससे कहा ।। १३-१४ ॥
यशोदाजीने
पूछा- ओ महामूढ़ ! तूने क्यों मिट्टी खायी ! तेरे ये साथी भी बता रहे हैं और
साक्षात् बड़े भैया ये बलराम भी यही बात कहते हैं कि 'माँ ! मना करने पर भी यह मिट्टी खाना नहीं छोड़ता । इसे मिट्टी बड़ी
प्यारी लगती है' ॥ १५ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा - मैया ! व्रजके ये सारे बालक झूठ बोल रहे हैं। मैंने कहीं भी मिट्टी नहीं
खायी । यदि तुम्हें मेरी बातपर विश्वास न हो तो मेरा मुँह देख लो ॥ १६ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तब गोपी यशोदाने बालकका सुन्दर मुख खोलकर देखा । यशोदाको उसके
भीतर तीनों गुणोंद्वारा रचित और सब ओर फैला हुआ ब्रह्माण्ड दिखायी दिया। सातों
द्वीप,
सात समुद्र, भारत आदि वर्ष, सुदृढ़ पर्वत, ब्रह्मलोक-पर्यन्त तीनों लोक तथा
समस्त व्रज- मण्डलसहित अपने शरीरको भी यशोदा ने अपने पुत्रके मुखमें देखा ।। १७-१८
॥
यह
देखते ही उन्होंने आँखें बंद कर लीं और श्रीयमुनाजीके तटपर बैठकर सोचने लगीं - 'यह मेरा बालक साक्षात् श्रीनारायण है।' इस तरह वे
ज्ञाननिष्ठ हो गयीं। तब श्रीकृष्ण उन्हें अपनी मायासे मोहित-सी करते हुए हँसने लगे
। यशोदाजी की स्मरण शक्ति विलुप्त हो गयी। उन्होंने श्रीकृष्ण का जो वैभव देखा था,
वह सब वे तत्काल भूल गयीं ॥ १९ - २० ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'ब्रह्माण्डदर्शन' नामक अठाहरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥
१८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
बुधवार, 29 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
# श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
अठारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
नन्द,
उपनन्द और वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला
श्रीनारद
उवाच -
गोपीगृहेषु विचरन् नवनीचौरः
श्यामो मनोहरवपुर्नवकंजनेत्रः ।
श्रीबालचंद्र इव वृद्धिगतो नराणां
चित्तं हरन्निव चकार व्रजे च शोभाम् ॥१॥
श्रीनंदनंदनमतीव चलं गृहीत्वा
गेहं निधाय मुमुहुर्नवनंदगोपाः ।
सत्कंदुकैश्च सततं परिपालयंते
गायंत ऊर्जितसुखा न जगत्स्मरन्तः ॥२॥
राजोवाच -
नवोपनंदनामानि वद देवऋषे मम ।
अहोभाग्यं तु येषां वै ते पूर्वं क इहागताः ॥३॥
तथा षड्वृषभानूनां कर्माणि मंगलानि च ।
श्रीनारद उवाच -
गयश्च विमलः श्रीशः श्रीधरो मंगलायनः ॥४॥
मंगलो रंगवल्लीशो रङ्गोजिर्देवनायकः ।
नवनंदाश्च कथिता बभूवुर्गोकुले व्रजे ॥५॥
वीतिहोत्रोऽग्निभुक् साम्बः श्रीकरो गोपतिः श्रुतः ।
व्रजेशः पावनः शांत उपनंदाः प्रकीर्तिताः ॥६॥
नीतिविन्मार्गदः शुक्लः पतंगो दिव्यवाहनः ।
गोपेष्टश्च व्रजे राजञ्जाताः षड्वृषभानवः ॥७॥
गोलोके कृष्णचंद्रस्य निकुंजद्वारमाश्रिताः ।
वेत्रहस्ताः श्यामलांगा नवनंदाश्च ते स्मृताः ॥८॥
निकुंजे कोटिशो गावस्तासां पालनतत्पराः ।
वंशीमयूरपक्षाढ्या उपनंदाश्च ते स्मृताः ॥९॥
निकुंजदुर्गरक्षायां दंडपाशधराः स्थिताः ।
षड्द्वारमास्थिताः षड् वै कथिता वृषभानवः ॥१०॥
श्रीकृष्णस्येच्छया सर्वे गोलोकादागता भुवि ।
तेषां प्रभावं वक्तुं हि न समर्थश्चतुर्मुखः ॥११॥
अहं किमु वदिष्यामि तेषां भाग्यं महोदयम् ।
येषामारोहमास्थाय बालकेलिर्बभौ हरिः ॥१२॥
श्रीनारदजी
कहते हैं — मिथिलेश्वर ! गोपाङ्गनाओंके घरोंमें विचरते और माखन चोरीकी लीला करते
हुए नवकंज लोचन मनोहर श्याम- रूपधारी श्रीकृष्ण बालचन्द्रकी भाँति बढ़ते और
लोगोंके चित्त चुराते हुए-से व्रजमें अद्भुत शोभाका विस्तार करने लगे। नौ नन्द
नामके गोप अत्यन्त चञ्चल श्रीनन्दनन्दनको पकड़कर अपने घर ले जाते और वहाँ बिठाकर
उनकी रूपमाधुरीका आस्वादन करते हुए मोहित हो जाते थे । वे उन्हें अच्छी-अच्छी
गेंदें देकर खेलाते, उनका लालन-पालन करते,
उनकी लीलाएँ गाते और बढ़े हुए आनन्दमें निमग्न हो सारे जगत् को भूल
जाते थे ॥ १-२ ॥
राजा
ने पूछा- देवर्षे ! आप मुझसे नौ उपनन्दोंके नाम बताइये। वे सब बड़े सौभाग्यशाली
थे। उनके पूर्वजन्मका परिचय दीजिये । वे पहले कौन थे,
जो इस भूतलपर अवतीर्ण हुए ? उपनन्दोंके साथ ही
छः वृषभानुओंके भी मङ्गलमय कर्मोंका वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- गय,
विमल, श्रीश, श्रीधर,
मङ्गलायन, मङ्गल, रङ्गवल्लीश,
रङ्गोजि तथा देवनायक – ये 'नौ नन्द' कहे गये हैं, जो व्रजके गोकुलमें उत्पन्न हुए थे।
वीतिहोत्र, अग्निभुक्, साम्ब, श्रीवर, गोपति, श्रुत, व्रजेश, पावन तथा शान्त – ये 'उपनन्द'
कहे गये हैं ।। ४-६ ॥
हे
राजन् ! नीतिवित्, मार्गद, शुक्ल, पतंग, दिव्यवाहन और
गोपेष्ट – ये छः 'वृषभानु' हैं,
जिन्होंने व्रजमें जन्म धारण किया था। जो गोलोकधाममें
श्रीकृष्णचन्द्रके निकुञ्जद्वारपर रहकर हाथमें बेंत लिये पहरा देते थे, वे श्याम अङ्गवाले गोप व्रजमें 'नौ नन्द' के नामसे विख्यात हुए । निकुञ्जमें जो करोड़ों गायें हैं, उनके पालनमें तत्पर, मोरपंख और मुरली धारण करनेवाले
गोप यहाँ 'उपनन्द' कहे गये हैं।
निकुञ्ज- दुर्ग की रक्षा के लिये जो दण्ड और पाश धारण किये उसके छहों द्वारोंपर
रहा करते हैं, वे ही छः गोप यहाँ 'छः
वृषभानु' कहलाये ।। ९-१० ॥
श्रीकृष्ण
की इच्छा से ही वे सब लोग गोलोक से भूतलपर उतरे हैं। उनके प्रभाव का वर्णन करनेमें
चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं, फिर
मैं उनके महान् अभ्युदयशाली सौभाग्य का कैसे वर्णन कर सकूँगा, जिनकी गोद में बैठकर बाल-क्रीडापरायण श्रीहरि सदा सुशोभित होते थे । ११ -
१२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
मंगलवार, 28 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सत्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीकृष्ण
की बाल लीला में दधि-चोरी का वर्णन
श्रीनारद
उवाच -
श्रुत्वा वाक्यं तदा गोपी प्रसन्ना गृहमागता ।
एकदा दधिचौर्यार्थं कृष्णस्तस्या गृहं गतः ॥ २७ ॥
वयस्यैर्बालकैः सार्द्धं पार्श्वकुड्ये गृहस्य च ।
हस्ताद्धस्तं संगृहीत्वा शनैः कृष्णो विवेश ह ॥ २८ ॥
शिक्यस्थं गोरसं दृष्ट्वा हस्ताग्राह्यं हरिः स्वयम् ।
उलूखले पीठके च गोपान्स्थाप्यारुरोह तम् ॥ २९ ॥
तदपि प्रांशुना लभ्यं गोरसं शिक्यसंस्थितम् ।
श्रीदाम्ना सुबलेनापि दंडेनापि तताड च ॥ ३० ॥
भग्नभाण्डात्सर्वगव्यं बृहद्भूमौ मनोहरम् ।
जगास सबलो मर्कैर्बालकैः सह माधवः ॥ ३१ ॥
भग्नभांडस्वनं श्रुत्वा प्राप्ता गोपी प्रभावती ।
पलायितेषु बालेषु जग्राह श्रीकरं हरेः ॥ ३२ ॥
नीत्वा मृषाश्रुं भीरुं च गच्छन्ती नन्दमंदिरम् ।
अग्रे नन्दं स्थितं दृष्ट्वा मुखे वस्त्रं चकार ह ॥ ३३ ॥
हरिर्विचिंतयन्नित्थं माता दंडं प्रदास्यति ।
दधार तद्बालरूपं स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ २४ ॥
सा यशोदां समेत्याशु प्राह गोपी रुषान्विता ।
भांडं भग्नीकृतं सर्वं मुषितं दध्यनेन वै ॥ ३५ ॥
यशोदा तत्सुतं वीक्ष्य हसंती प्राह गोपिकाम् ।
वस्त्रांतं च मुखाद्गोपी दूरीकृत्य वदांहसः ॥ ३६ ॥
अपवादो यदा देयो निर्वासं कुरु मे परात् ।
युष्मत्पुत्रकृतं चौर्यमस्मत्पुत्रकृतं भवेत् ॥ ३७ ॥
जनलज्जासमायुक्ता दूरीकृत्य मुखांबरम् ।
सापि प्राह निजं बालं वीक्ष्य विस्मितमानसा ॥ ३८ ॥
निष्पदस्त्वं कुतः प्राप्तो व्रजसारोऽस्ति मे करे ।
वदन्तीत्थं च तं नीत्वा निर्गता नन्दमंदिरात् ॥ ३९ ॥
यशोदा रोहिणी नंदो रामो गोपाश्च गोपिकाः ।
जहसुः कथयंतस्ते दृष्टोऽन्यायो व्रजे महान् ॥ ४० ॥
भगवांस्तु बहिर्वीथ्यां भूत्वा श्रीनन्दनन्दनः ।
प्रहसन् गोपिकां प्राह धृष्टांगश्चंचलेक्षणः ॥ ४१ ॥
श्रीभगवान् उवाच -
पुनर्मां यदि गृह्णासि कदाचित्त्वं हि गोपिके ।
ते भर्तृरूपस्तु तदा भविष्यामि न संशयः ॥ ४२ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा सा विस्मिता गोपी गता गेहेऽथ मैथिल ।
तदा सर्वगृहे गोप्यो न गृह्णन्ति हरिं ह्रिया ॥ ४३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! यशोदाजीकी यह बात सुनकर गोपी प्रभावती प्रसन्नतापूर्वक अपने घर
लौट आयी। एक दिन श्रीकृष्ण समवयस्क बालकोंके साथ फिर दही चुरानेके लिये उसके घरमें
गये। घरकी दीवारके पास सटकर एक हाथसे दूसरे बालकका हाथ पकड़े धीरे-धीरे घरमें घुसे
।। २७-२८ ॥
छीके
पर रखा हुआ गोरस हाथसे पकड़में नहीं आ सकता, यह
देख श्रीहरिने स्वयं एक ओखलीके ऊपर पीढ़ा रखा। उसपर कुछ ग्वाल-बालोंको खड़ा किया
और उनके सहारे आप ऊपर चढ़ गये। तो भी छीकेपर रखा हुआ गोरस अभी और ऊँचे कदके
मनुष्यसे ही प्राप्त किया जा सकता था, इसलिये वे उसे न पा
सके। तब श्रीदामा और सुबलके साथ उन्होंने मटकेपर डंडेसे प्रहार किया ।। २९-३० ॥
दही
का बर्तन फूट गया और सारा गव्य पृथ्वी पर बह चला। तब बलरामसहित माधव ने
ग्वाल-बालों और बंदरों के साथ वह मनोहर दही जी भरकर खाया । भाण्ड के फूटने की आवाज
सुनकर गोपी प्रभावती वहाँ आ पहुँची । अन्य सब बालक तो वहाँसे भाग निकले;
किंतु श्रीकृष्ण का हाथ उसने पकड़ लिया ।। ३१-३२ ॥
श्रीकृष्ण
भयभीत से होकर मिथ्या आँसू बहाने लगे। प्रभावती उन्हें लेकर नन्द-भवन की ओर चली।
सामने नन्दरायजी खड़े थे। उन्हें देखकर प्रभावती ने मुखपर घूँघट डाल दिया। श्रीहरि
सोचने लगे – 'इस तरह जानेपर माता मुझे अवश्य
दण्ड देगी।' अतः उन स्वच्छन्दगति परमेश्वरने प्रभावतीके ही
पुत्रका रूप धारण कर लिया। रोषसे भरी हुई प्रभावती यशोदाजीके पास शीघ्र जाकर बोली-
इसने मेरा दहीका बर्तन फोड़ दिया और सारा दही लूट लिया' ।। ३३
- ३५॥
यशोदाजीने
देखा,
यह तो इसीका पुत्र है; तब वे हँसती हुई उस
गोपीसे बोली- 'पहले अपने मुखसे घूँघट तो हटाओ, फिर बालकके दोष बताना । यदि इस तरह झूठे ही दोष लगाना है तो मेरे नगरसे
बाहर चली जाओ। क्या तुम्हारे पुत्रकी की हुई चोरी मेरे बेटेके माथे मढ़ दी जायगी ?'
।। ३६-३७ ॥
तब
लोगोंके बीच लजाती हुई प्रभावतीने अपने मुँहसे घूँघटको हटाकर देखा तो उसे अपना ही
बालक दिखायी दिया। उसे देखकर वह मन ही मन चकित होकर बोली- 'अरे निगोड़े ! तू कहाँसे आ गया ! मेरे हाथमें तो व्रजका सार-सर्वस्व था।'
इस तरह बड़बड़ाती हुई वह अपने बेटेको लेकर नन्दभवनसे बाहर चली गयी।
यशोदा, रोहिणी, नन्द, बलराम तथा अन्यान्य गोप और गोपाङ्गनाएँ हँसने लगीं और बोलीं- 'अहो ! व्रजमें तो बड़ा भारी अन्याय दिखायी देने लगा है।' उधर भगवान् बाहरकी गलीमें पहुँचकर फिर नन्द-नन्दन बन गये और सम्पूर्ण
शरीरसे धृष्टताका परिचय देते हुए, चञ्चल नेत्र मटकाकर,
जोर-जोर से हँसते हुए उस गोपीसे बोले ॥ ३७–४१ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा - अरी गोपी! यदि फिर कभी तू मुझे पकड़ेगी तो अबकी बार मैं तेरे पति का रूप
धारण कर लूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर वह गोपी आश्चर्य से चकित हो अपने घर चली गयी। उस दिनसे
सब घरोंकी गोपियाँ लाजके मारे श्रीहरिका हाथ नहीं पकड़ती थीं ॥ ४३ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें
श्रीकृष्णके बालचरित्रगत 'दधि-चोरीका वर्णन'
नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १७ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
सोमवार, 27 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सत्रहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीकृष्ण
की बाल लीला में दधि-चोरी का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
तदा यशोदारोहिण्यौ सुतकल्याणहेतवे ।
वस्त्ररत्ननवान्नानां दानं नित्यं च चक्रतुः ॥ १३ ॥
अथ व्रजे रामकृष्णौ बालसिंहावलोकनौ ।
पद्भ्यां चलंतौ घोषेषु वर्धमानौ बभूवतुः ॥ १४ ॥
श्रीदामसुबलाद्यैश्च वयस्यैर्व्रजबालकैः ।
यमुनासिकते शुभ्रे लुठंतौ सकुतूहलौ ॥ १५ ॥
कालिंद्युपवने श्यामैस्तमालैः सघनैर्वृते ।
कदंबकुंजशोभाढ्ये चेरतू रामकेशवौ ॥ १६ ॥
जनयन् गोपगोपीनामानन्दं बाललीलया ।
वयस्यैश्चोरयामास नवनीतं घृतं हरिः ॥ १७ ॥
एकदा ह्युपनंदस्य पत्नी नाम्ना प्रभावती ।
श्रीनन्दमन्दिरं प्राप्ता यशोदां प्राह गोपिका ॥ १८ ॥
प्रभावत्युवाच -
नवनीतं घृतं दुग्धं दधि तक्रं यशोमति ।
आवयोर्भेदरहितः त्वत्प्रसादाच्च मेऽभवत् ॥ १९ ॥
नाहं वदामि चानेन स्तेयं कुत्रापि शिक्षितम् ।
शिक्षां करोषि न सुते नवनीतमुषि स्वतः ॥ २० ॥
यदा मया कृता शिक्षा तदा धृष्टस्तवांगजः ।
गालिप्रदानं दत्त्वायं द्रवति प्रांगणान्मम ॥ २१ ॥
व्रजाधीशस्य पुत्रोऽयं भूत्वा स्तेयं समाचरेत् ।
न मया कथितं किंचिद्यशोदे तव गौरवात् ॥ २२ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा प्रभावतीवाक्यं यशोदा नंदगेहिनी ।
बालं निर्भर्त्स्य तामाह साम्ना प्रेमपरायणा ॥ २३ ॥
श्रीयशोदा उवाच -
गवां कोटिर्गृहे मेऽस्ति गोरसैरार्द्रिताचला ।
न जाने दधिमुड् बालो नात्ति सोऽत्र कदाचन ॥ २४ ॥
अनेन मुषितं गव्यं तत्समं त्वं गृहाण मे ।
ते शिशौ मे शिशौ भेदो नास्ति किंचित्प्रभावति ॥ २५ ॥
नवनीतमुखं चैनमत्र त्वं ह्यानयिष्यसि ।
तदा शिक्षां करिष्यामि भर्त्सनं बंधनं तथा ॥ २६ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तबसे यशोदा और रोहिणीजी पुत्रोंकी कल्याण-कामनासे प्रतिदिन
वस्त्र,
रत्न तथा नूतन अन्नका दान करने लगीं। कुछ दिनों बाद सिंह - शावककी
भाँति दीखनेवाले राम और कृष्ण- दोनों बालक कुछ बड़े होकर गोष्ठोंमें अपने पैरोंके
बलसे चलने लगे ।। १३-१४ ॥
श्रीदामा
और सुबल आदि व्रज-बालक सखाओं के साथ यमुनाजीके शुभ्र वालुकामय तटपर कौतूहलपूर्वक
लोटते हुए राम और श्याम नील-सघन तमालोंसे घिरे और कदम्ब कुञ्जकी शोभासे विलसित
कालिन्दी-तटवर्ती उपवनमें विचरने लगे । १५ – १६ ॥
श्रीहरि
अपनी बाललीलासे गोप-गोपियोंको आनन्द प्रदान करते हुए सखाओंके साथ घरोंमें जा-जाकर
माखन और घृतकी चोरी करने लगे। एक दिन उपनन्दपत्नी गोपी प्रभावती श्रीनन्द – मन्दिर
में आकर यशोदाजीसे बोलीं ।। १७-१८ ।।
प्रभावती
ने कहा- यशोमति ! हमारे और तुम्हारे घरों में जो माखन,
घी, दूध, दही और तक्र है
उसमें ऐसा कोई बिलगाव नहीं है कि यह हमारा है और वह तुम्हारा। मेरे यहाँ तो
तुम्हारे कृपाप्रसादसे ही सब कुछ हुआ है। मैं यह नहीं कहना चाहती कि तुम्हारे इस
लाला ने कहीं चोरी सीखी है। माखन तो यह स्वयं ही चुराता फिरता है, परंतु तुम इसे ऐसा न करने के लिये कभी शिक्षा नहीं देती। एक दिन जब मैंने
शिक्षा दी तो तुम्हारा यह ढीठ बालक मुझे गाली देकर मेरे आँगनसे भाग निकला। यशोदाजी
! व्रजराज का बेटा होकर यह चोरी करे, यह उचित नहीं है;
किंतु मैंने तुम्हारे गौरव का खयाल करके इसे कभी कुछ नहीं कहा है ॥ २१–२२
॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! प्रभावतीकी बात सुनकर नन्द - गेहिनी यशोदाने बालकको डाँट बतायी
और बड़े प्रेमसे सान्त्वनापूर्वक प्रभावतीसे कहा ॥ २३ ॥
श्रीयशोदा
बोलीं- बहिन ! मेरे घर में करोड़ों गौएँ हैं, इस
घरकी धरती सदा गोरससे भीगी रहती है। पता नहीं, यह बालक क्यों
तुम्हारे घरमें दही चुराता है। यहाँ तो कभी ये सब चीजें चावसे खाता ही नहीं।
प्रभावती ! इसने जितना भी दही या माखन चुराया हो, वह सब तुम
मुझसे ले लो। तुम्हारे पुत्र और मेरे लाला- में किंचिन्मात्र भी कोई भेद नहीं है।
यदि तुम इसे माखन चुराकर खाते और मुखमें माखन लपेटे हुए पकड़कर मेरे पास ले आओगी
तो मैं इसे अवश्य ताड़ना दूँगी, डाँदूँगी और घर में बाँध
रखूँगी || २४ - २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
रविवार, 26 मई 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सत्रहवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
श्रीकृष्ण की बाल
लीला में दधि-चोरी का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
अथ बालौ कृष्णरामौ गौरश्यामौ मनोहरौ ।
लीलया चक्रतुरलं सुंदरं नंदमंदिरम् ॥ १ ॥
रिंगमाणौ च जानुभ्यां पाणिभ्यां सह मैथिल ।
व्रजताल्पेन कालेन ब्रुवंतौ मधुरं व्रजे ॥ २ ॥
यशोदया च रोहिण्या लालितौ पोषितौ शिशू ।
कदा विनिर्गतावङ्कात्क्वचिदङ्कं समास्थितौ ॥ ३ ॥
मंजीरकिंकिणीरावं कुर्वंतौ तावितस्ततः ।
त्रिलोकीं मोहयंतौ द्वौ मायाबालकविग्रहौ ॥ ४ ॥
क्रीडन्तमादाय शिशुं यशोदा-
जिरे लुठंतं व्रजबालकैश्च ।
तद्धूलिलेपावृतधूसरांगं
चक्रे ह्यलं प्रोक्षणमादरेण ॥ ५ ॥
जानुद्वयाभ्यां च समं कराभ्यां
पुनर्व्रजन्प्रांगणमेत्य कृष्णः ।
मात्रंकदेशे पुनराव्रजन्सन्
बभौ व्रजे केसरिबाललीलः ।
तं सर्वतो हैमनचित्रयुक्तं
पीतांबरं कंचुकमादधानम् ।
स्फुरत्प्रभं रत्नमयं च मौलिं
दृष्ट्वा सुतं प्राप मुदं यशोदा ॥ ७
॥
बालं मुकुंदमतिसुंदरबालकेलिं
दृष्ट्वा परं मुदमवापुरतीव गोप्यः ।
श्रीनंदराजव्रजमेत्य गृहं विहाय
सर्वास्तु विस्मृतगृहाः
सुखविग्रहास्ताः ॥ ८ ॥
श्रीनंदराजगृहकृत्रिमसिंहरूपं
दृष्ट्वा व्रजन्प्रतिरवन्नृप
भीरुवद्यः ।
नीत्वा च तं निजसुतं गृहमाव्रजंतीं
गोप्यो व्रजे सघृणया ह्यवदन् यशोदाम्
॥ ९ ॥
गोप्य ऊचुः -
क्रीडार्थं चपलं ह्येनं मा बहिः कारयांगणात् ।
बालकेलिं दुग्धमुखं काकपक्षधरं शुभे ॥ १० ॥
ऊर्ध्वदंतद्वयं जातं पूर्वं मातुलदोषदम् ।
अस्यापि मातुलो नास्ति ते सुतस्य यशोमति ॥ ११ ॥
तस्माद्दानं तु कर्तव्यं विघ्नानां नाशहेतवे ।
गोविप्रसुरसाधूनां छंदसां पूजनं तथा ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर बलराम और श्रीकृष्ण — दोनों गौरश्याम मनोहर बालक विविध
लीलाओंसे नन्दभवनको अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक बनाने लगे। मिथिलेश्वर ! वे दोनों
हाथों और घुटनोंके बलसे चलते हुए और मीठी - तोतली बोली बोलते हुए थोड़े ही समय में
व्रज में इधर-उधर डोलने लगे । माता यशोदा और रोहिणी के द्वारा लालित-पालित वे
दोनों शिशु, कभी माताओं की गोद से निकल जाते
और कभी पुनः उनके अङ्क में आ बैठते थे ।
मायासे
बालरूप धारण करके त्रिभुवन को मोहित करनेवाले वे दोनों भाई,
राम और श्याम, इधर-उधर मञ्जीर और करधनी की
झंकार फैलाते फिरते थे। माता यशोदा व्रज- बालकोंके साथ आँगनमें खेलते-लोटते तथा
धूल लग जानेसे धूसर अङ्गवाले अपने लालाकी गोदमें लेकर बड़े आदरसे झाड़ती- पोंछती
थीं ।। १-५ ॥
श्रीकृष्ण
दोनों हाथों और घुटनोंके बल चलते हुए पुनः आँगनमें चले जाते और वहाँसे फिर माताकी
गोदमें आ जाते थे। इस तरह वे व्रजमें सिंह शावक की भाँति लीला कर रहे थे। माता
यशोदा उन्हें सोनेके तार जड़े पीताम्बर और पीली झगुली पहनाती तथा मस्तक- पर
दीप्तिमान् रत्नमय मुकुट धारण कराती और इस प्रकार अत्यन्त शोभाशाली भव्यरूपमें
उन्हें देखकर अत्यन्त आनन्दका अनुभव करती थीं। अत्यन्त सुन्दर बालोचित क्रीड़ामें
तत्पर बालमुकुन्दका दर्शन करके गोपियाँ बड़ा सुख पाती थीं। वे सुखस्वरूपा
गोपाङ्गनाएँ अपना घर छोड़कर नन्दराजके गोष्ठमें आ जातीं और वहाँ आकर वे सब की सब
अपने घरोंकी सुध-बुध भूल जाती थीं ।। ६-८ ॥
राजन्
! नन्दरायजीके गृह-द्वारपर कृत्रिम सिंहकी मूर्ति देखकर भयभीतकी तरह जब
श्रीकृष्ण
पीछे लौट पड़ते, तब यशोदाजी अपने लालाको गोदमें
उठाकर घरके भीतर चली जाती थीं । उस समय गोपियाँ व्रजमें दयासे द्रवित हृदय हो
यशोदाजीसे इस प्रकार कहती थीं ॥ ९ ॥
श्रीगोपाङ्गनाएँ
कहने लगीं- शुभे ! तुम्हारा लाला खेलनेके लिये बड़ी चपलता दिखाता है। इसकी बालकेलि
अत्यन्त मनोहर है। ऐसा न हो कि इसे किसीकी नजर लग जाय । अतः तुम इस काक- पक्षधारी
दुधमुँहे बालकको आँगनसे बाहर मत निकलने दिया करो। देखो न,
इसके ऊपरके दो दाँत ही पहले निकले हैं, जो
मामाके लिये दोषकारक हैं। यशोदाजी ! तुम्हारे इस बालकके भी कोई मामा नहीं है,
इसलिये विघ्ननिवारण के हेतु तुम्हें दान करना चाहिये। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु,
महात्मा तथा वेदों की पूजा करनी चाहिये । १० - १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
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