सोमवार, 10 जून 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

सूत उवाच ।

यो वै द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः ।
अनुग्रहाद् भगवतः कृष्णस्याद्‍भुतकर्मणः ॥ १ ॥
ब्रह्मकोपोत्थिताद् यस्तु तक्षकात् प्राणविप्लवात् ।
न सम्मुमोहोरुभयाद् भगवत्यर्पिताशयः ॥ २ ॥
उत्सृज्य सर्वतः सङ्गं विज्ञाताजितसंस्थितिः ।
वैयासकेर्जहौ शिष्यो गङ्गायां स्वं कलेवरम् ॥ ३ ॥
नोत्तमश्लोकवार्तानां जुषतां तत्कथामृतम् ।
स्यात्सम्भ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम् ॥ ४ ॥
तावत्कलिर्न प्रभवेत् प्रविष्टोऽपीह सर्वतः ।
यावदीशो महानुर्व्यां आभिमन्यव एकराट् ॥ ५ ॥
यस्मिन्नहनि यर्ह्येव भगवान् उत्ससर्ज गाम् ।
तदैवेहानुवृत्तोऽसौ अधर्मप्रभवः कलिः ॥ ६ ॥

सूतजी कहते हैं—अद्भुत कर्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपासे राजा परीक्षित्‌ अपनी माताकी कोखमें अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे जल जानेपर भी मरे नहीं ॥ १ ॥ जिस समय ब्राह्मणके शापसे उन्हें डसनेके लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राणनाशकके महान् भयसे भी भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित कर रखा था ॥ २ ॥ उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गङ्गातटपर जाकर श्रीशुकदेवजीसे उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान्‌के स्वरूपको जानकर अपने शरीरको त्याग दिया ॥ ३ ॥ जो लोग भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाकथा कहते रहते हैं, उस कथामृतका पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनोंके द्वारा उनके चरणकमलोंका स्मरण करते रहते हैं, उन्हे अन्तकालमें भी मोह नहीं होता ॥ ४ ॥ जबतक पृथ्वीपर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित्‌ सम्राट् रहे, तबतक चारों ओर व्याप्त हो जानेपर भी कलियुगका कुछ भी प्रभाव नहीं था ॥ ५ ॥ वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्णने पृथ्वीका परित्याग किया, उसी समय पृथ्वीमें अधर्मका मूलकारण कलियुग आ गया था ॥ ६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


रविवार, 9 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 05)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 05)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

सन्नन्द उवाच -
आदौ वाराहकल्पेऽस्मिन् हरिर्वाराहरूपधृक् ।
रसातलात्समुद्धृत्य गां बभौ दंष्ट्रया प्रभुः ॥ ४६ ॥
गच्छन्तं वारिवृन्देषु भगवन्तं रमेश्वरम् ।
दंष्ट्राग्रे शोभिता पृथ्वी प्राह देवं जनार्दनम् ॥ ४७ ॥


धरोवाच -
देव कुत्र स्थले त्वं वै स्थापनां मे करिष्यसि ।
जलपूर्णं जगत्सर्वं दृश्यते वद हे प्रभो ॥ ४८ ॥


वाराह उवाच -
यदा वृक्षाः प्रदृष्टा हि भवन्त्युद्वेगता जले ।
तदा ते स्थापना भूयात्पश्यन्ती गच्छ भूरुहान् ॥ ४९ ॥


धरोवाच -
स्थावराणां तु रचना ममोपरि समास्थिता ।
अन्यास्ति किं वा धरणी त्वहं हि धारणामयी ॥ ५० ॥


सन्नन्द उवाच -
वदन्तीत्थं ददर्शाग्रे जले वृक्षान् मनोहरान् ।
वीक्ष्य पृथ्वी हरिं प्राह सर्वतो विगतविस्मया ॥ ५१ ॥


धरोवाच -
देव कस्मिंस्थले वृक्षाः सन्ति ह्येते सपल्लवाः ।
इदं मनसि मे चित्रं वद यज्ञपते प्रभो ॥ ५२ ॥


वाराह उवाच -
माथुरं मंडलं दिव्यं दृश्यतेऽग्रे नितम्बिनि ।
गोलोकभूमिसंयुक्तं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ५३ ॥


सन्नन्द उवाच -
तच्छ्रुत्वा विस्मिता पृथ्वी गतमाना बभूव ह ।
तस्मान्नन्द महाबाहो व्रजोऽयं सर्वतोऽधिकः ॥ ५४ ॥
श्रुत्वेदं व्रजमाहात्म्यं जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
तीर्थराजात्परं विद्धि माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ५५ ॥

 

सन्नन्द ने कहा - इसी वाराहकल्प में पहले श्रीहरि ने वराहरूप धारण करके अपनी दाढ़पर उठाकर रसातल से पृथ्वी का उद्धार किया था । उस समय उन प्रभु की बड़ी शोभा हुई थी। जल में जाते हुए उन वराहरूपधारी भगवान् रमानाथ जनार्दन से उनकी दंष्ट्रा के अग्रभाग पर शोभित हुई पृथ्वी बोली ।। ४६-४७ ॥

 

पृथ्वी ने पूछा- प्रभो ! सारा विश्व पानी से भरा दिखायी देता है। अतः बताइये, आप किस स्थल पर मेरी स्थापना करेंगे ? ॥ ४८ ॥

 

भगवान् वराह बोले- जब वृक्ष दिखायी देने लगे और जलमें उद्वेगका भाव प्रकट हो, तब उसी स्थानपर तुम्हारी स्थापना होगी। तुम वृक्षोंको देखती चलो ॥ ४९ ॥

 

पृथ्वीने कहा- भगवन् ! स्थावर वस्तुओंकी रचना तो मेरे ही ऊपर हुई है। क्या कोई दूसरी भी धरणी है ? धारणामयी धरणी तो केवल मैं ही हूँ ॥ ५० ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं— यों कहती हुई पृथ्वीने अपने सामने जलमें मनोहर वृक्ष देखे। उन्हें देखकर पृथ्वीका अभिमान दूर हो गया और वह भगवान्से बोली- 'देव ! किस स्थलपर ये पल्लवसहित वृक्ष विद्यमान हैं ? यह दृश्य मेरे मनमें बड़ा आश्चर्य पैदा कर रहा है । यज्ञपते ! प्रभो ! इसका रहस्य बताइये ॥ ५१-५२ ॥

 

भगवान् वराह बोले- नितम्बिनि ! यह सामने दिव्य 'माथुर-मण्डल' दिखायी देता है, जो गोलोककी धरतीसे जुड़ा हुआ है। प्रलयकालमें भी इसका संहार नहीं होता ॥ ५३ ॥

 

सन्नन्द बोले- यह सुनकर पृथ्वीको बड़ा विस्मय हुआ । वह अभिमानशून्य हो गयी । अतः महाबाहु नन्द ! यह व्रजमण्डल समस्त लोकोंसे अधिक महत्त्वशाली है। व्रजका यह माहात्म्य सुनकर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। तुम 'माथुर व्रजमण्डल' को तीर्थराज प्रयागसे भी उत्कृष्ट समझो ॥ ५४-५५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नन्द-सन्नन्द-संवाद में 'वृन्दावन में आगमन के उद्योग का वर्णन' नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

वृषस्य नष्टांस्त्रीन् पादान् तपः शौचं दयामिति ।
प्रतिसंदध आश्वास्य महीं च समवर्धयत् ॥४२॥
स एष एतर्ह्यध्यास्त आसनं पार्थिवोचितम् ।
पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञारण्यं विविक्षता ॥४३॥
आस्तेऽधुना स राजर्षिः कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन् ।
गजाह्वयो महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः ॥४४॥
इत्थम्भूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो नृपः ।
यस्य पालयतः क्षोणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः ॥४५॥

राजा परीक्षित्‌ ने इसके बाद वृषभरूप धर्म के तीनों चरण—तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ॥ ४२ ॥ वे ही महाराजा परीक्षित्‌ इस समय अपने राजसिंहासनपर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिरने वनमें जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं ॥ ४३ ॥ वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित्‌ इस समय हस्तिनापुरमें कौरव-कुलकी राज्यलक्ष्मीसे शोभायमान हैं ॥ ४४ ॥ अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित्‌ वास्तवमें ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकालमें आप-लोग इस दीर्घ कालीन यज्ञके लिये दीक्षित हुए हैं [*] ॥ ४५ ॥
...............................................................
[*] ४३से ४५ तकके श्लोकोंमें महाराज परीक्षित्‌का वर्तमानके समान वर्णन किया गया है। ‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (पा सू३। ३। १३१) इस पाणिनि-सूत्रके अनुसार वर्तमानके निकटवर्ती भूत और भविष्यके लिये भी वर्तमानका प्रयोग किया जा सकता है। जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी महाराजने अपनी टीकामें लिखा है कि यद्यपि परीक्षित्‌की मृत्यु हो गयी थी, फिर भी उनकी कीर्ति और प्रभाव वर्तमानके समान ही विद्यमान थे। उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न करनेके लिये उनकी दूरी यहाँ मिटा दी गयी है। उन्हें भगवान्‌का सायुज्य प्राप्त हो गया था, इसलिये भी सूतजीको वे अपने सम्मुख ही दीख रहे हैं। न केवल उन्हींको, बल्कि सबको इस बातकी प्रतीति हो रही है। ‘आत्मा वै जायते पुत्र:’ इस श्रुतिके अनुसार जनमेजय के रूपमें भी वही राजसिंहासनपर बैठे हुए हैं। इन सब कारणोंसे वर्तमान के रूपमें उनका वर्णन भी कथा के रस को पुष्ट ही करता है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमंहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे कलिनिग्रहो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शनिवार, 8 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 04)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

श्रीनारद उवाच -
तीर्थैः प्रपूजितस्त्वं वै तीर्थराज महातपः ।
तुभ्यं च सर्वतीर्थानि मुख्यानीह बलिं ददुः ॥ ३४ ॥
व्रजाद्‌वृंदावनादीनि नागतानीह ते पुरः ।
तीर्थानां राजराजस्त्वं प्रमत्तैस्तैस्तिरस्कृतः ॥ ३५ ॥
इति प्रभाष्य तं साक्षाद्‌गते देवर्षिसत्तमे ।
तीर्थराजस्तदा क्रुद्धो हरिलोकं जगाम ह ॥ ३६ ॥
नत्वा हरिं परिक्रम्य पुरः स्थित्वा कृतांजलिः ।
सर्वतीर्थैः परिवृतः श्रीनाथं प्राह तीर्थराट् ॥ ३७ ॥


तीर्थराज उवाच -
हे देवदेव प्राप्तोऽहं तीर्थराजस्त्वया कृतः ।
बलिं ददुर्मे तीर्थानि मथुरामंडलं विना ॥ ३८ ॥
प्रमत्तैर्व्रजतीर्थैश्च तैरहं तु तिरस्कृतः ।
तस्मात्तुभ्यं च कथितं प्राप्तोऽहं तव मंदिरे ॥ ३९ ॥


श्रीभगवानुवाच -
धरायां सर्वतीर्थानां त्वं कृतस्तीर्थराण्मया ।
किंतु स्वस्य गृहस्यापि न कृतो राट् त्वमेव हि ॥ ४० ॥
किं त्वं मे मंदिरं लिप्सुः मत्तवद्‌भाषसे वचः ।
तीर्थराज गृहं गच्छ शृणु वाक्यं शुभं च मे ॥ ४१ ॥
मथुरामंडलं साक्षान्मंदिरं मे परात्परम् ।
लोकत्रयात्परं दिव्यं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ४२ ॥


सन्नन्द उवाच -
इति श्रुत्वा तीर्थराजो विस्मितोऽभूद्‌गतस्मयः ।
आगत्य नत्वा संपूज्य माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ४३ ॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य स्वधाम गतवान् पुनः ।
धराया मानभंगार्थं पूर्वमेतत्प्रदर्शितम् ।
मया तवाग्रे कथितं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥


नंद उवाच -
धराया मानभङ्गार्थं केन पूर्वं प्रदर्शितम् ।
एतन्मे वद गोपेश माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ४५ ॥

श्रीनारदजीने कहा— महातपस्वी तीर्थराज ! निश्चय ही तुम समस्त तीर्थोंद्वारा विशेषरूपसे पूजित हुए हो, तुम्हें सभी मुख्य-मुख्य तीर्थोंने यहाँ आकर भेंट समर्पित की है; परंतु व्रजके वृन्दावनादि तीर्थ यहाँ तुम्हारे सामने नहीं आये। तुम तीर्थोके राजाधिराज हो, व्रज के प्रमादी तीर्थ ने यहाँ न आकर तुम्हारा तिरस्कार किया है ।। ३४-३५ ॥

 

सन्नन्द कहते हैं—यों कहकर साक्षात् देवर्षि- शिरोमणि नारदजी वहाँ से चले गये। तब तीर्थराज के मन में बड़ा क्रोध हुआ और वे उसी क्षण श्रीहरि के लोक में गये । श्रीहरिको प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके सम्पूर्ण तीर्थोंसे घिरे हुए तीर्थराज हाथ जोड़कर भगवान्‌के सामने खड़े हुए और उन श्रीनाथसे बोले ।। ३६-३७ ।।

 

तीर्थराज ने कहा— देवदेव ! मैं आपकी सेवामें इसलिये आया हूँ कि आपने तो मुझे 'तीर्थराज' बनाया और समस्त तीर्थों ने मुझे भेंट दी, किंतु मथुरामण्डल के तीर्थ मेरे पास नहीं आये उन प्रमादी व्रजतीर्थों ने मेरा तिरस्कार किया है। अतः यह बात आपसे कहने के लिये मैं आपके मन्दिर में आया हूँ ।। ३८-३९ ।।

 

श्रीभगवान् बोले—मैंने तुम्हें धरती के सब तीर्थोंका राजा - 'तीर्थराज' अवश्य बनाया है; किंतु अपने घरका भी राजा तुम्हें ही बना दिया हो, ऐसी बात तो नहीं हुई है ! फिर तुम तो मेरे गृहपर भी अधिकार जमाने की इच्छा लेकर प्रमत्त पुरुषके समान बात कैसे कर रहे हो ? तीर्थराज ! तुम अपने घर जाओ और मेरा यह शुभ वचन सुन लो । मथुरामण्डल मेरा साक्षात् परात्पर धाम है, त्रिलोकी से परे है। उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता ।। ४०-४२ ॥

 

सन्नन्द कहते हैं - यह सुनकर तीर्थराज बड़े विस्मित हुए। उनका सारा अभिमान गल गया। फिर वहाँ से आकर उन्होंने मथुराके व्रजमण्डलका पूजन और उसकी परिक्रमा करके अपने स्थानको पदार्पण किया। पृथ्वीका मानभङ्ग करनेके लिये यह व्रजमण्डल पहले दिखाया गया था। मैंने ये सारी बातें तुम्हारे सामने कहीं, अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४३-४४ ॥

 

नन्दजीने पूछा—गोपेश्वर ! किसने पहले पृथ्वी का मानभङ्ग करनेके लिये इस व्रजमण्डल को दिखलाया था, यह मुझे बताइये ॥ ४५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

कलिरुवाच ।
यत्र क्वचन वत्स्यामि सार्वभौम तवाज्ञया ।
लक्षये तत्र तत्रापि त्वामात्तेषुशरासनम् ॥३६॥
तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निर्देष्टुमर्हसि ।
यत्रैव नियतो वत्स्य आतिष्ठंस्तेऽनुशासनम् ॥३७॥

सूत उवाच ।
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानादि कलये ददौ ।
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः ॥३८॥
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः ।
ततोऽनृतं मदं कामं रजो वैरं च पंचमम् ॥३९॥
अमूनि पंच स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः ।
औत्तरेयेण दत्तानि न्यवसत् तन्निदेशकृत् ॥४०॥
अथैतानि न सेवेत बुभूषुः पुरुषःक्वचित् ।
विशेषतो धर्मशीलो राजा लोकपतिर्गुरुः ॥४१॥

कलि ने (राजा परीक्षित्‌से) कहा—सार्वभौम ! आपकी आज्ञासे जहाँ कहीं भी मैं रहनेका विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं ॥ ३६ ॥ धार्मिक-शिरोमणे ! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ॥ ३७ ॥

सूतजी कहते हैं—कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित्‌ ने उसे चार स्थान दिये—द्यूत, मद्यपान, स्त्री-सङ्ग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमश: असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता—ये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं ॥ ३८ ॥ उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित्‌ ने उसे रहने के लिये एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन)—दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये—झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा ॥ ४० ॥ इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजावर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ॥ ४१ ॥ 

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शुक्रवार, 7 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 03)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

शूलं चिक्षेप हरये शंखो दैत्यो महाबलः ।
स्वचक्रेण हरिः साक्षात्तच्छूलं शतधाकरोत् ॥ २३ ॥
हरिं तताड शिरसा शंखो विष्णुमुरःस्थले ।
तस्य मूर्द्धप्रहारेण न चचाल परात्परः ॥ २४ ॥
तदा गदां समादाय मत्स्यरूपधरो हरिः ।
पृष्ठे जघान तं दैत्यं शंखरूपं महाबलम् ॥ २५ ॥
गदाप्रहारव्यथितः किंचिद्‌व्याकुलमानसः ।
पुनरुत्थाय सर्वेशं मुष्टिना स तताड ह ॥ २६ ॥
तदा विष्णुः स्वचक्रेण सशृङ्गं तच्छिरो दृढम् ।
जहार कुपितः साक्षाद्‌भगवान् कमलेक्षणः ॥ २७ ॥
जित्वा शंखं देववरैः सार्धं विष्णुर्व्रजेश्वर ।
प्रयागमेत्य स हरिर्वेदान् तान् ब्रह्मणे ददौ ॥ २८ ॥
यज्ञं चकार विधिवत्सर्वदेवगणैः सह ।
प्रयागं च समाहूय तीर्थराजं चकार ह ॥ २९ ॥
तत्साक्षादक्षयवटः कृतो लीलातपत्रवत् ।
मुनिभानुसुतेऽथोर्मिचामरैस्तं विरेजतुः ॥ ३० ॥
तदैव सर्वतीर्थानि जंबूद्वीपस्थितानि च ।
नीत्वा बलिं समाजग्मुस्तीर्थराजाय धीमते ॥ ३१ ॥
तीर्थराजं च संपूज्य नत्वा तीर्थानि सर्वतः ।
स्वधामानि ययुर्नन्द हरौ देवैर्गते सति ॥ ३२ ॥
तदैव नारदः प्राप्तो मुनीन्द्रः कलहप्रियः ।
सिंहासने भ्राजमानं तीर्थराजमुवाच ह ॥ ३३ ॥

महाबली दैत्य शङ्ख ने श्रीहरि के ऊपर शूल चलाया। किंतु साक्षात् श्रीहरि ने अपने चक्रसे उस शूल के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। तब शङ्ख ने अपने सिर से भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में प्रहार किया। किंतु उसके उस प्रहार से परात्पर श्रीहरि विचलित नहीं हुए। उस समय मत्स्यरूपधारी श्रीहरिने हाथमें  गदा लेकर महाबली शङ्खरूपधारी उस दैत्य की पीठ पर आघात किया ।। २३-२५ ॥

 

गदा के प्रहार से वह इतना पीड़ित हुआ कि उसका चित्त कुछ व्याकुल हो गया; किंतु पुनः उठकर उसने सर्वेश्वर श्रीहरिको मुक्केसे मारा। तब कमलनयन साक्षात् भगवान् विष्णुने कुपित हो अपने चक्रसे उसके सुदृढ़ मस्तक को सींगसहित काट डाला ।। २६-२७ ॥

 

व्रजेश्वर ! इस प्रकार शङ्ख को जीतकर देवताओंके साथ सर्वव्यापी श्रीहरि ने प्रयागमें आकर वे चारों वेद ब्रह्माजीको दे दिये। फिर सम्पूर्ण देवताओंके साथ उन्होंने विधिवत् यज्ञका अनुष्ठान किया और प्रयागतीर्थके अधिष्ठाता देवताको बुलाकर उसे 'तीर्थराज' पदपर अभिषिक्त कर दिया । साक्षात् अक्षयवटको तीर्थराजके लिये लीला - छत्र-सा बना दिया । मुनिकन्या गङ्गा तथा सूर्यसुता यमुना अपनी तरङ्गरूपी चामरों से उनकी सेवा करने लगीं ।। २८-३० ॥

उसी समय जम्बूद्वीपके सारे तीर्थ भेंट लेकर बुद्धिमान् तीर्थराजके पास आये और उनकी पूजा और वन्दना करके वे तीर्थ अपने-अपने स्थान- को चले गये। नन्द ! जब देवताओंके साथ श्रीहरि भी चले गये, तब वहीं कलहप्रिय मुनीन्द्र नारदजी आ पहुँचे और सिंहासनपर देदीप्यमान तीर्थराजसे बोले ॥ ३१ - ३३ ॥

 

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गुरुवार, 6 जून 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
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महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

पतितं पादयोर्वीरः कृपया दीनवत्सलः ।
शरण्यो नावधीच्छ्लोक्य आह चेदं हसन्निव ॥३०॥

राजोवाच
न ते गुडाकेशयशोधराणां 
बद्धाञ्जलेर्वै भयमस्ति किंचित् ।
न वर्तितव्यं भवता कथंचन 
क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धुः॥३१॥
त्वां वर्तमानं नरदेवदेहे- 
ष्वनु प्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः ।
लोभो‍ऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो 
ज्येष्ठा च माया कलहश्च दम्भः ॥३२॥
न वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो 
धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये ।
ब्रह्मावर्ते यत्र यजन्ति यज्ञै- 
र्यज्ञेश्वरं यज्ञवितानविज्ञाः ॥३३॥
यस्मिन् हरिर्भगवानिज्यमान 
इज्यामूर्तिर्यजतां शं तनोति ।
कामानमोघान् स्थिरजंगमाना- 
मन्तर्बाहिर्वायुरिवैष आत्मा ॥३४॥

सूत उवाच ।
परिक्षितैवमादिष्टः स कलिर्जातवेपथु: ।
तमुद्यातासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम् ॥३५॥

परीक्षित्‌ बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको अपने पैरोंपर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा ॥ ३० ॥

परीक्षित्‌ बोले—जब तू हाथ जोडक़र शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ॥ ३१ ॥ तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्मत्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है ॥ ३२ ॥ अत: अधर्मके साथी ! इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान्‌की आराधना करते रहते हैं ॥ ३३ ॥ इस देशमें भगवान्‌ श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान्‌ वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ॥ ३४ ॥
सूतजी कहते हैं—परीक्षित्‌की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्‌से वह बोला ॥ ३५ ॥

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श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 02)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

वैकुंठान्नापरो लोको न भूतो न भविष्यति ।
एकं वृंदावनं नाम वैकुंठाच्च परात्परम् ॥ १५ ॥
यत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ।
कालिन्दीनिकटे यत्र पुलिनं मंगलायनम् ॥ १६ ॥
बृहत्सानुर्गिरिर्यत्र यत्र नन्दीश्वरो गिरिः ।
क्रोशानां च चतुर्विंशद्‌विस्तृतैः काननैर्वृतम् ॥ १७ ॥
पशव्यं गोपगोपीनां गवां सेव्यं मनोहरम् ।
लताकुंजावृतं तद्वै वनं वृंदावनं स्मृतम् ॥ १८ ॥


नंद उवाच -
कदा व्रजोऽयं सन्नंद तीर्थराजेन पूजितः ।
एतद्वेदितुमिच्छामि परं कौतुहलं हि मे ॥ १९ ॥


सन्नंद उवाच -
शंखासुरो महादैत्यः पुरा नैमित्तिके लये ।
स्वपतो ब्रह्मणः सोऽपि वेदध्रुग्दैत्यपुंगवः ॥ २० ॥
जित्वा देवान् ब्रह्मलोकाद्धृत्वा वेदान् गतोऽर्णवे ।
गतेषु तेषु वेदेषु देवानां च गतं बलम् ॥ २१ ॥
तदा साक्षाद्धरिः पूर्णो धृत्वा मात्स्यं वपुः पुरम् ।
नैमित्तिकलयांभोधौ युयुधे तेन यज्ञराट् ॥ २२ ॥

वैकुण्ठ से बढ़कर दूसरा कोई लोक न तो हुआ है और न आगे होगा। केवल एक 'वृन्दावन' ही ऐसा है, जो वैकुण्ठ की अपेक्षा भी परात्पर (परम उत्कृष्ट) है । जहाँ 'गोवर्धन' नाम से प्रसिद्ध गिरिराज विराजमान है, जहाँ कालिन्दी के तटपर मङ्गलधाम पुलिन है, जहाँ बृहत्सानु (बरसाना) पर्वत है तथा जहाँ नन्दीश्वर गिरि शोभा पाता है, जो चौबीस कोस के विस्तार में स्थित तथा विशाल काननोंसे आवृत है; जो पशुओंके लिये हितकर, गोप-गोपी और गौओंके लिये सेवन करनेयोग्य तथा लताकुज्जोंसे आवृत है, उस मनोहर बनको 'वृन्दावन' के नामसे स्मरण किया जाता है ।। १५ - १८ ॥

 

नन्दजीने पूछा – सन्नन्दजी ! तीर्थराज प्रयागने कब इस व्रज की पूजा की है, मैं यह जानना चाहता हूँ । इसे सुनने के लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल- बड़ी उत्कण्ठा है ॥ १९ ॥

 

सन्नन्द बोले- नन्दराज ! पूर्वकालमें नैमित्तिक प्रलय के अवसर पर एक महान् दैत्य प्रकट हुआ, जो शङ्खासुर के नामसे प्रसिद्ध था। वह वेदद्रोही दैत्यराज समस्त देवताओं को जीतकर ब्रह्मलोक में गया और वहाँ सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा। वेदों के जाते ही देवताओं का सारा बल चला गया। तब पूर्ण भगवान् यज्ञेश्वर श्रीहरिने मत्स्यरूप धारण करके नैमित्तिक प्रलयके सागरमें उस शङ्खासुरके साथ युद्ध किया ॥ २०-२२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



बुधवार, 5 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 01)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

कृष्णातीरे कोकिलाकेलिकीरे
     गुंजापुंजे देवपुष्पादिकुंजे ।
कंबुग्रीवौ क्षिप्तबाहू चलन्तौ
     राधाकृष्णौ मंगलं मे भवेताम् ॥ १ ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ २ ॥


श्रीनारद उवाच -
एकदोपद्रवं वीक्ष्य नंदो नन्दान्सहायकान् ।
वृषभानूपनंदांश्च वृषभानुवरांस्तथा ॥ ३ ॥
समाहूय परान्वृद्धान् सभायां तानुवाच ह ।


नंद उवाच -
किं कर्तव्यं तु वदतोत्पाताः सन्ति महावने ॥ ४ ॥


श्रीनारद उवाच -
तेषां श्रुत्वाथ सन्नन्दो गोपो वृद्धोतिमंत्रवित् ।
अंके नीत्वा रामकृष्णौ नंदराजमुवाच ह ॥ ५ ॥


सन्नन्द उवाच -
उत्थातव्यमितोऽस्माभिः सर्वैः परिकरैः सह ।
गंतव्यं चान्यदेशेषु यत्रोत्पाता न संति हि ॥ ६ ॥
बालस्ते प्राणवत्कृष्णो जीवनं व्रजवासिनाम् ।
व्रजे धनं कुले दीपो मोहनो बाललीलया ॥ ७ ॥
हा बक्या शकटेनापि तृणावर्तेन बालकः ।
मुक्तोऽयं द्रुमपातेन ह्युत्पातं किमतः परम् ॥ ८ ॥
तस्माद्‌वृंदावनं सर्वैः गंतव्यं बालकैः सह ।
उत्पातेषु व्यतीतेषु पुनराग्मनं कुरु ॥ ९ ॥


नन्द उवाच -
कतिक्रोशैर्विस्तृतम् तद्‌वनं वृंदावनं व्रहात् ।
तल्लक्षणं तत्सुखं च वद बुद्धिमतां वर ॥ १० ॥


सन्नन्द उवाच -
प्रागुदीच्यां बर्हिषदो दक्षिणस्यां यदोः पुरात् ।
पश्चिमायां शोणितपुरान् माथुरं मंडलं विदुः ॥ ११ ॥
विंशद्‌योजनविस्तीर्णं सार्धं यद्योजनेन वै
माथुरं मंडलं दिव्यं व्रजमाहुर्मनीषिणः ॥ १२ ॥
मथुरायां शौरिगृहे गर्गाचार्यमुखाच्छ्रुतम् ।
माथुरं मंडलं दिव्यं तीर्थराजेन पूजितम् ॥ १३ ॥
वनेभ्यस्तत्र सर्वेभ्यो वनं वृंदावनं वरम् ।
परिपूर्णतमस्यापि लीलाक्रीडं मनोहरम् ॥ १४ ॥

श्रीयमुनाजी के तटपर, जहाँ कोकिलाएँ तथा क्रीडाशुक विचरते हैं, गुञ्जापुञ्जसे विलसित देवपुष्प (पारिजात) आदिके कुञ्जमें, शङ्ख-सदृश सुन्दर ग्रीवासे सुशोभित तथा एक-दूसरेके गलेमें बाँह डालकर चलनेवाले प्रिया-प्रियतम श्रीराधा-कृष्ण मेरे लिये मङ्गलमय हों ॥ १ ॥

 

मैं अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधा हो रहा था; जिन्होंने ज्ञानरूपी अञ्जनकी शलाकासे मेरी आँखें खोल दी हैं, उन श्रीगुरुदेवको नमस्कार है ॥ २ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! एक समयकी बात है— व्रजमें विविध उपद्रव होते देख नन्दराजने अपने सहायक नन्दों, उपनन्दों, वृषभानुओं, वृषभानु- वरों तथा अन्य बड़े-बूढ़े गोपोंको बुलाकर सभामें उनसे कहा ॥३॥

 

नन्द बोले- गोपगण ! महावनमें तो बहुत-से उत्पात हो रहे हैं। बताइये, हमलोगोंको इस समय क्या करना चाहिये ॥ ४ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- यह सुनकर उन सबमें विशेष मन्त्रकुशल वृद्ध गोप सन्नन्दने बलराम और श्रीकृष्णको गोदमें लेकर नन्दराजसे कहा ॥ ५ ॥

 

सन्नन्द बोले—मेरे विचार से तो हमें अपने समस्त परिकरों के साथ यहाँसे उठ चलना चाहिये और किसी दूसरे ऐसे स्थान में जाकर डेरा डालना चाहिये, जहाँ उत्पात की सम्भावना न हो। तुम्हारा बालक श्रीकृष्ण हम सबको प्राणोंके समान प्रिय है, व्रजवासियों का जीवन है, व्रजका धन और गोपकुल का दीपक है और अपनी बाललीला से सबके मन को मोह लेनेवाला है। हाय ! कितने खेदकी बात है कि इस बालकपर पूतना, शकट और तृणावर्तका आक्रमण हुआ, फिर इसके ऊपर वृक्ष गिर पड़े; इन सब संकटोंसे यह किसी प्रकार बचा है, इससे बढ़कर उत्पात और क्या हो सकता है। इसलिये हमलोग अपने बालकोंके साथ वृन्दावनमें चलें और जब उत्पात शान्त हो जायँ, तब फिर यहाँ आयें ॥ ६- ९॥

नन्दने पूछा- बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सन्नन्दजी ! इस व्रजसे वृन्दावन कितनी दूर है ? वह वन कितने कोसोंमें फैला हुआ है, उसका लक्षण क्या है और वहाँ कौन-सा सुख सुलभ है ? यह सब बताइये ॥ १० ॥

 

सन्नन्द बोले- बर्हिषत् से ईशानकोण, यदुपुरसे दक्षिण और शोणपुरसे पश्चिमकी भूमिको 'माथुर-मण्डल' कहते हैं । मथुरामण्डलके भीतर साढ़े बीस योजन विस्तृत भूभागको मनीषी पुरुषोंने 'दिव्य माथुर-मण्डल' या 'व्रज' बताया है ॥ ११-१२ ॥  एक बार मैं मथुरापुरी में वसुदेवजी के घर ठहरा हुआ था; वहीं श्रीगर्गाचार्यजी के मुखसे मैंने सुना था कि तीर्थराज प्रयाग ने भी इस दिव्य मथुरा-मण्डल की पूजा की है। यों तो मथुरा-मण्डलमें बहुत से वन हैं किंतु उन सबसे श्रेष्ठ 'वृन्दावन' नामक वन है, जो परिपूर्णतम भगवान्‌ के भी मनको हरण करनेवाला लीला-क्रीडा- स्थल है ॥ १३-१४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

तपः शौचं दया सत्यमिति पादाःकृते कृताः ।
अधर्मांशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसंगमदैस्तव ॥२४॥
इदानीं धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः ।
तं जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनैधितः कलिः ॥२५॥
इयं च भूर्भगवता न्यासितोरुभरा सती ।
श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः सर्वतः कृतकौतुका ॥२६॥
शोचत्यश्रुकला साध्वी दुर्भगेवोज्झिताधुना ।
अब्रह्यण्या नृपव्याजाः शूद्राः भोक्ष्यन्ति मामिति ॥२७॥
इति धर्म महीं चैव सान्त्वयित्वा महारथः ।
निशातमाददे खड्गं कलयेऽधर्महेतवे ॥२८॥
तं जिघांसुमभिप्रेत्य विहाय नृपलाञ्छनम् ।
तत्पादमूलं शिरसा समगाद् भयविह्वलः ॥२९॥

(राजा परीक्षित्‌ कहते हैं) धर्मदेव ! सत्ययुग में आपके चार-चरण थे—तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके हैं ॥ २४ ॥ अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बलपर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ॥ २५ ॥ ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान्‌ ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले चरणचिह्नों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं ॥ २६ ॥ अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी अभागिनीके समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ॥ २७ ॥ महारथी परीक्षित्‌ ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ॥ २८ ॥ कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अत: झटपट उसने अपने राजचिह्न उतार डाले और भयविह्वल होकर उनके चरणोंमें अपना सिर रख दिया ॥ २९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...