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सोमवार, 8 जुलाई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०१)
रविवार, 7 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
दसवाँ अध्याय ( पोस्ट
01 )
यशोदाजी की
चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण
श्रीनारद उवाच -
अष्टावक्रस्य शापेन सर्पो भूत्वा ह्यघासुरः ।
तद्वरात्परमं मोक्षं गतो देवैश्च दुर्लभम् ॥ १ ॥
वत्साद्बकमुखान्मुक्तं ततो मुक्तं ह्यघासुरात् ।
श्रुत्वा कतिदिनैः कृष्णं यशोदाऽभूद्भयातुरा ॥ २ ॥
कलावतीं रोहिणीं च गोपीगोपान् वयोऽधिकान् ।
वृषभानुवरं गोपं नन्दराजं व्रजेश्वरम् ॥ ३ ॥
नवोपनन्दान्नन्दाश्च वृषभानून् प्रजेश्वरान् ।
समाहूय तदग्रे च वचः प्राह यशोमती ॥ ४ ॥
यशोदोवाच -
किं करोमि क्व गच्छामि कल्याणं मे कथं भवेत् ।
मत्सुते बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणे क्षणे ॥ ५ ॥
पूर्वं महावनं त्यक्त्वा वृन्दारण्ये गता वयम् ।
एतत्त्यक्त्वा क्व यास्यामो देशे वदत निर्भये ॥ ६ ॥
चंचलोऽयं बालको मे क्रीडन्दूरे प्रयाति हि ।
बालकाश्चंचलाः सर्वे न मन्यन्ते वचो मम ॥ ७ ॥
बकासुरश्च मे बालं तीक्ष्णतुंडोऽग्रसद्बली ।
तस्मान्मुक्तन्तु जग्राहार्भकैर्दीनमघासुरः ॥ ८॥
वत्सासुरस्तज्जिघांसुः सोऽपि दैवेन मारितः ।
वत्सार्थं स्वगृहाद्बालं न बहिः कारयाम्यहम् ॥ ९ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं वदन्तीं सततं रुदन्तीं
यशोमतीं वीक्ष्य जगाद नन्दः ।
आश्वासयामासस्गर्गवाक्यैः
धर्मार्थविद्धर्मभृतां वरिष्ठः ॥ १०
॥
नारदजी
कहते हैं--अष्टावक्र के श्राप
से सर्प होकर अघासुर उन्हीं के वरदान – बल से उस परम मोक्ष को प्राप्त हुआ, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । वत्सासुर, वकासुर और फिर अघासुर के मुख से श्रीकृष्ण किसी तरह बच गये हैं और
कुछ ही दिनों में उनके ऊपर ये सारे संकट आये हैं- यह सुनकर यशोदा जी भयसे व्याकुल हो उठीं। उन्होंने कलावती, रोहिणी, बड़े-बूढ़े गोप,
वृषभानुवर, व्रजेश्वर नन्दराज, नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा प्रजाजनों के
स्वामी छः वृषभानुओं को बुलाकर उन सब के
सामने यह बात कही ॥ १-४ ॥
यशोदा
बोलीं-- [आप सब लोग बतायें--] मैं क्या
करूँ, कहाँ जाऊँ और कैसे मेरा कल्याण हो ? मेरे पुत्रपर तो यहाँ क्षण-क्षणमें बहुत-से
अरिष्ट आ रहे हैं। पहले महावन छोड़कर हमलोग वृन्दावनमें आये और अब इसे भी छोड़कर दूसरे
किस निर्भय देशमें मैं चली जाऊँ, यह बतानेकी कृपा करें। मेरा यह बालक स्वभावसे ही चपल
है। खेलते-खेलते दूरतक चला जाता है । व्रजके दूसरे बालक भी बड़े चञ्चल हैं । वे सब
मेरी बात मानते ही नहीं ॥ ५-७ ॥
तीखी
चोंचवाला बलवान् वकासुर पहले मेरे बालकको निगल गया था । उससे छूटा तो इस बेचारेको अघासुरने
समस्त ग्वाल-बालोंके साथ अपना ग्रास बना लिया । भगवान्की कृपासे किसी तरह उससे भी
इसकी रक्षा हुई। इन सबसे पहले वत्सासुर इसकी घातमें लगा था, किंतु वह भी दैवके हाथों
मारा गया। अब मैं बछड़े चरानेके लिये अपने बच्चे को घरसे बाहर
नहीं जाने दूँगी ।। ८-९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- इस तरह कहती तथा निरन्तर रोती हुई यशोदाकी ओर देखकर नन्दजी कुछ कहनेको उद्यत
हुए। पहले तो धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नन्दने गर्गजीके वचनोंकी
याद दिलाकर उन्हें धीरज बँधाया, फिर इस प्रकार कहा-- ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०८)
शनिवार, 6 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 07 )
# श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 07 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
अथ कृष्णो वनाच्छीघ्रमानयामास
वत्सकान् ।
यत्रापि पुलिने राजन् गोपानां राजमंडली ॥ ५२ ॥
गोपार्भकाश्च श्रीकृष्णं वत्सैः सार्धं समागतम् ।
क्षणार्धं मेनिरे वीक्ष्य कृष्णमायाविमोहिताः ॥ ५३ ॥
त ऊचुर्वत्सकैः कृष्ण त्वरं त्वं तु समागतः ।
कुरुष्व भोजनं चात्र केनापि न कृतं प्रभो ॥ ५४ ॥
ततश्च विहसन् कृष्णोऽभ्यवहृत्यार्भकैः सह ।
दर्शयामास सर्वेभ्यश्चर्माजगरमेव च ॥ ५५ ॥
सायंकाले सरामस्तु कृष्णो गोपैः परावृतः ।
अग्रे कृत्वा वत्सवृन्दं ह्याजगाम शनैर्व्रजम् ॥ ५६ ॥
गोवत्सकैः सितसितासितपीतवर्णै
रक्तादिधूम्रहरितैर्बहुशीलरूपैः ।
गोपालमण्डलगतं व्रजपालपुत्रं
वन्दे वनात् सुखदगोष्ठकमाव्रजन्तम् ॥
५७ ॥
आनन्दो गोपिकानां तु ह्यासीत्कृष्णस्य दर्शने ।
यासां येन विना राजन् क्षणो युगसमोऽभवत् ॥ ५८ ॥
कृत्वा गोष्ठे पृथग्वत्सान् बालाः स्वं स्वं गृहं गताः ।
जगुश्चाघासुरवधमात्मनो रक्षणं हरे ॥ ५९ ॥
राजन्
! इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण वनसे शीघ्रतापूर्वक गोवत्स एवं गोप- बालकोंको ले आये
और यमुनातटपर जिस स्थान पर गोपमण्डली विराजित थी, उन लोगोंको लेकर उसी
स्थानपर
पहुँचे। गोवत्सोंके साथ लौटे हुए श्रीकृष्णको देखकर उनकी माया से
विमोहित गोपोंने उतने समयको आधे क्षण जैसा समझा। वे लोग गोवत्सोंके साथ आये हुए श्रीकृष्णसे
कहने लगे- 'आप शीघ्रतासे आकर भोजन करें। प्रभो ! आपके चले जानेके कारण किसीने भी भोजन
नहीं किया।' इसके उपरान्त श्रीकृष्णने हँसकर बालकोंके साथ भोजन किया और बालकोंको अजगरका
चमड़ा दिखाया । तदनन्तर बलरामजीके साथ गोपोंसे घिरे हुए श्रीकृष्ण वत्सवृन्दको आगे
करके धीरे-धीरे व्रजको लौट आये ॥ ५२-५६ ॥
सफेद,
चितकबरे, लाल, पीले, धूम्र एवं हरे आदि अनेक रंग और स्वभाववाले गोवत्सोंको आगे करके
धीरे-धीरे सुखद वनसे गोष्ठमें लौटते हुए गोपमण्डली- के बीच स्थित नन्दनन्दनकी मैं वन्दना
करता हूँ । राजन् ! श्रीकृष्णके विरहमें जिनको क्षणभरका समय युगके समान लगता था, उन्हींके
दर्शनसे उन गोपियोंको आनन्द प्राप्त हुआ । बालकोंने अपने-अपने घर जाकर गोष्ठोंमें अलग-अलग
बछड़ोंको बाँधकर अघासुर-वध एवं श्रीहरिद्वारा हुई आत्मरक्षाके वृत्तान्तका वर्णन किया
॥ ५७-५९ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी
स्तुति' नामक नवम अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०७)
शुक्रवार, 5 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 06 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 06 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
वयं
तु गोपदेहेषु संस्थिताश्च शिवादयः ।
सकृत्कृष्णं तु पश्यन्तस्तस्माद्धन्याश्च भारते ॥ ४४ ॥
अहोभाग्यं तु कृष्णस्य मातापित्रोस्तव प्रभो ।
तथा च गोपगोपीनां पूर्णस्त्वं दृश्यसे व्रजे ॥ ४५ ॥
मुक्ताहारः सर्वविश्वोपकारः
सर्वाधारः पातु मां विश्वकारः ।
लीलागारं सूरिकन्याविहारः
क्रीडापारः कृष्णचन्द्रावतारः ॥ ४६ ॥
श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्कर नन्दपुत्र
राधापते मदनमोहन देवदेव ।
संमोहितं व्रजपते भुवि तेऽजया मां
गोविन्द गोकुलपते परिपाहि पाहि ॥ ४७
॥
करोति यः कृष्णहरेः प्रदक्षिणां
भवेज्ज्गत्तीर्थफलं च तस्य तु ।
ते कृष्णलोकं सुखदं परात्परं
गोलोकलोकं प्रवरं गमिष्यति ॥ ४८ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्यभिष्टूय गोविन्दं श्रीमद्वृन्दावनेश्वरम् ।
नत्वा त्रिवारं लोकेशश्चकार तु प्रदक्षिणम् ॥ ४९ ॥
तत्र चालक्षितो भूत्वा नेत्रेणाज्ञां ददौ हरिः ।
पुनः प्रणम्य स्वं लोकमात्मभूः प्रत्यपद्यत ॥ ५१ ॥
भगवान्
शंकर आदि हम (इन्द्रियोंके अधिष्ठाता) देवगण ने भारतवासी इन गोपों की देह में स्थित होकर एक बार भी श्रीकृष्णका
दर्शन कर लिया, अतः हम धन्य हो गये। श्रीकृष्ण ! आपके माता-पिता एवं गोप- गोपियों का तो कितना अनिर्वचनीय सौभाग्य है, जो व्रजमें आपके पूर्णरूप का दर्शन कर रहे हैं ॥ ४४-४५ ॥
सम्पूर्ण
विश्व का उपकार करनेवाले, मुक्ताहार धारण करने
वाले, विश्व के रचयिता, सर्वाधार, लीलाके धाम, रवितनया
यमुना में विहार करनेवाले, क्रीडापरायण, श्रीकृष्णचन्द्र का अवतार ग्रहण करनेवाले प्रभु मेरी रक्षा करें। वृष्णिकुलरूप सरोवरके
कमलस्वरूप नन्द- नन्दन, राधापति, देव-देव, मदनमोहन, व्रजपति, गोकुलपति, गोविन्द मुझ
माया से मोहित की रक्षा करें। जो व्यक्ति
श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा करता है, उसको जगत्
के सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा का
फल प्राप्त होता है वह आपके सुखदायक परात्पर 'गोलोक' नामक लोक को
जाता है ॥ ४६–४८ ॥
नारदजी
कहने लगे- लोकपति लोक-पितामह ब्रह्मा ने इस प्रकार सुन्दर वृन्दावन के अधिपति गोविन्द का स्तवन करके प्रणाम करते
हुए उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और कुछ देर के लिये अदृश्य होकर
गोवत्स तथा गोप-बालकों को वरदान देकर लौट जाने
के लिये अनुमति की प्रार्थना की ।। तदनन्तर श्रीहरिने
नेत्रोंके संकेतसे उनको जानेका आदेश दिया। लोकपितामह ब्रह्मा भी पुनः प्रणाम करके अपने
लोकको चले गये ॥ ४९-५१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०६)
गुरुवार, 4 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 05 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 05 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
मायया
यस्य मुह्यन्ति देवदैत्यनरादयः ।
स्वमायया तन्मोहाय मूर्खोऽहं ह्युद्यतोऽभवम् ॥ ३४ ॥
नारायणस्त्वं गोविन्द नाहं नारायणो हरे ।
ब्रह्माण्डं त्वं विनिर्माय शेषे नारायणः पुरा ॥ ३५ ॥
यस्य श्रीब्रह्मणि धाम्नि प्राणं त्यक्त्वा तु योगिनः ।
यत्र यास्यन्ति तस्मिंस्तु सकुला पूतना गता ॥ ३६ ॥
वत्सानां वत्सपानाञ्च कृत्वा रूपाणि माधव ।
विचचार वने त्वं तु ह्यपराधान्मम प्रभो ॥ ३७ ॥
तस्मात्क्षमस्व गोविन्द प्रसीद त्वं ममोपरि ।
अगणय्यापराधं मे सुतोपरि पिता यथा ॥ ३८ ॥
त्वदभक्ता रता ज्ञाने तेषां क्लेशो विशिष्यते ।
परिश्रमात्कर्षकाणां यथा क्षेत्रे तुषार्थिनाम् ॥ ३९ ॥
त्वद्भक्तिभावे निरता बहवस्त्वद्गतिं गताः ।
योगिनो मुनयश्चैव तथा ये व्रजवासिनः ॥ ४० ॥
द्विधा रतिर्भवेद्वरा श्रुताच्च दर्शनाच्च वा ।
अहो हरे तु मायया बभूव नैव मे रतिः ॥ ४१ ॥
इत्युक्त्वाऽश्रुमुखो भूत्वा नत्वा तत्पादपंकजौ ।
पुनराह विधिः कृष्णं भक्त्या सर्वं क्षमापयन् ॥ ४२ ॥
घोषेषु वासिनामेषां भूत्वाऽहं त्वत्पदाम्बुजम् ।
यदा भजेयं सुगतिस्तदा भूयान्न चान्यथा ॥ ४३ ॥
जिनकी
मायासे देवता, दैत्य एवं मनुष्य – सभी मोहित हैं, मैं मूर्ख उनको अपनी मायासे मोहित
करने चला था ! गोविन्द आप नारायण हैं, मैं नारायण नहीं हूँ। हरि ! आप कल्पके आदिमें
ब्रह्माण्डकी रचना करके नारायणरूपसे शेषशायी हो गये ॥ ३४-३५ ॥
आपके
जिस ब्रह्मरूप तेजमें योगी प्राण त्याग करके जाते हैं, बालघातिनी पूतना भी अपने कुलसहित
आपके उसी तेजमें समा गयी । माधव ! मेरे ही अपराधसे आपने गोवत्स एवं गोप-बालकोंका रूप
धारण करके वनोंमें विचरण किया। अतएव गोविन्द ! आप मुझको क्षमा
करें। गोविन्द ! पिता जैसे पुत्रका अपराध नहीं देखता, वैसे ही आप भी मेरे अपराधकी उपेक्षा
करके मेरे ऊपर प्रसन्न हों। जो लोग आपके भक्त न होकर ज्ञानमें रति करते हैं, उनको क्लेश
ही हाथ लगता है, जैसे भूसेके लिये परिश्रमपूर्वक खेत जोतनेवालोंको भूसामात्र प्राप्त
होता है ॥ ३६–३९ ॥
आपके
भक्तिभावमें ही नितरां रत रहनेवाले अनेकों योगी, मुनि एवं व्रजवासी आपको प्राप्त हो
चुके हैं। दर्शन और श्रवण- दो प्रकारसे उनकी आपमें रति होती है, किंतु अहो ! श्रीहरिकी
मायाके कारण उनके प्रति मेरी रति नहीं हुई || ४०
– ४१ ॥
ब्रह्माजीने
यों कहकर नेत्रों से आँसू बहाते हुए उनके (श्रीकृष्णके) पादपद्मों में प्रणाम किया एवं सारे अपराधों को क्षमा करानेके
लिये भक्तिभाव से श्रीकृष्ण- से वे फिर निवेदन करने लगे – “मैं
गोपकुल में जन्म लेकर आपके पादपद्मों की
आराधना करता हुआ सुगति प्राप्त कर सकूँ, इसका व्यतिरेक न हो ॥ ४२-४३
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०५)
बुधवार, 3 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
नवाँ
अध्याय ( पोस्ट 04 )
ब्रह्माजीके
द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
भजे
कृष्णक्रोडे भृगुमुनिपदं श्रीगृहमलं
तथा श्रीवत्साङ्कं निकषरुचियुक्तं
द्युतिपरम् ।
गले हीराहारान् कनकमणिमुक्तावलिधरान्
स्फुरत् ताराकारान् भ्रमरवलिभारान्
ध्वनिकरान् ॥ २५ ॥
वंशीविभूषितमलं द्विजदानशीलं
सिंद्रूरवर्णमतिकीचकरावलीलम् ।
हेमांगुलीयनिकरं नखचंद्रयुक्तं
हस्तद्वयं स्मर कदम्बसुगन्धपृक्तम् ॥
२६ ॥
शनैश्चलन् मानसराजहंस-
ग्रीवाकृतौ कन्धर उच्चदेशे ।
कादम्बिनीमानहरौ करौ च
भजामि नित्यं हरिकाकपक्षौ ॥ २७ ॥
कलदर्पणवद्विशदं सुखदं
नवयौवनरूपधरं नृपतिम् ।
मणिकुण्डलकुन्तलशालिरतिं
भज गण्डयुगं रविचन्द्ररुचिम् ॥ २८ ॥
खचितकनकमुक्ता रक्तवैदूर्यवासं
मदनवदनलीला सर्वसौन्दर्यरासम् ।
अरुणविधुसकाशं कोटिसूर्यप्रकाशं
घटितशिखिसुवीटं नौमि विष्णोः किरीटम्
॥ २९ ॥
यद्द्वारिदेशे न गतिर्गुहेन्द्र
गणेशतारीरेशदिवाकराणाम् ।
आज्ञां विना यान्ति न कुञ्जमण्डलं
तं कृष्णचन्द्रं जगदीश्वरं भजे ॥ ३०
॥
इति कृत्वा स्तुतिं ब्रह्मा श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
पुनः कृताञ्जलिर्भूत्वा स्वविज्ञप्तिं चकार ह ॥ ३१ ॥
अपराधं तु पुत्रस्य मातृवत्त्वं क्षमस्व च ।
अहं त्वन्नाभिकमलात्सम्भवोऽहं जगत्पते ॥ ३२ ॥
काहं लोकपतिः क्व त्वं कोटिब्रह्माण्डनायकः ।
तस्माद्व्रजपते देव रक्ष मां मधुसूदन ॥ ३३ ॥
जिनके
कान्तिमान् कसौटी- सदृश एवं भृगुपद- अङ्कित विशाल वक्षःस्थलपर लक्ष्मी विलास करती हैं,
जिनके गलेमें स्वर्णमणि एवं मोतियोंकी लड़ियोंसे युक्त तथा तारोंके समान झिलमिल प्रकाश
करनेवाले तथा भ्रमरोंकी ध्वनिसे युक्त हीरोंके हार हैं, जो सिन्दूरवर्णकी सुन्दर अँगुलियोंसे
वंशी बजा रहे हैं, जिनकी अँगुलियों में सोनेकी अंगूठियाँ सुशोभित हैं, जिनके दोनों
हाथ द्विजोंको दान देनेवाले, चन्द्रमाके समान नखोंसे युक्त एवं कामदेवके वनके कदम्बवृक्षोंके
पुष्पोंकी सुगन्धसे सुवासित हैं, जिनकी मन्दगति राजहंसकी भाँति सुन्दर है, जिनके कंधे
गलेतक ऊँचे उठे हुए हैं, उन श्रीहरि- की मेघमालाका मान हरण करनेवाली मनोहर काकुल का मैं स्मरण करता हूँ। जो स्वच्छ दर्पणकी भाँति निर्मल, सुखद, नवयौवनकी
कान्तिसे युक्त, मनुष्योंके रक्षक तथा मणिकुण्डलों एवं सुन्दर घुँघराले बालोंसे सुशोभित
हैं, श्रीहरि के सूर्य तथा चन्द्रमा की
भाँति प्रभा से युक्त उन दोनों कपोलों का
मैं स्मरण करता हूँ ।। २५-२८ ॥
जो
सुवर्ण तथा मुक्ता एवं वैदूर्यमणिसे जटित लाल वस्त्रका बना हुआ है, जो कामदेवके मुख-
पर क्रीड़ा करनेवाले सम्पूर्ण सौन्दर्यसे विलसित है— जो अरुण - कान्ति तथा चन्द्र एवं
करोड़ों सूर्येक समान प्रभा- सम्पन्न है और मयूरपिच्छसे अलंकृत है, श्रीकृष्णके उस
मुकुटको मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके द्वारदेशपर स्वामिकार्तिकेय, गणेश, इन्द्र, चन्द्र
एवं सूर्यकी भी गति नहीं है; जिनकी आज्ञाके बिना कोई निकुञ्जमें प्रवेश नहीं कर सकता,
उन जगदीश्वर श्रीकृष्णचन्द्रकी मैं आराधना करता हूँ ॥ २९–३० ॥
ब्रह्माजी
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णका स्तवन करके पुनः हाथ जोड़कर कहने लगे- 'जगत्के स्वामी
! मैं आपके नाभि-कमलसे उत्पन्न हूँ; अतएव जिस प्रकार माता अपने पुत्रके अपराधोंको क्षमा
कर देती है, उसी प्रकार आप भी मेरे अपराधोंको क्षमा कर दें। व्रजपते ! कहाँ तो मैं
एक लोकका अधिपति और कहाँ आप करोड़ों ब्रह्माण्डोंके नायक ! अतएव व्रजेश, मधुसूदन !
देव ! आप मेरी रक्षा करें ॥ ३१–३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)
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शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...
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