सोमवार, 5 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

रासक्रीडा का वर्णन

 

राधया शुशुभे रासे यथा रत्या रतीश्वरः ।
एवं गायन् हरिः साक्षात्सुन्दरीगणसंवृतः ॥ २७ ॥
यमुनापुलिनं पुण्यमाययौ राधया युतः ।
गृहीत्वा हस्तपादेन पद्माभं स्वप्रियाकरम् ॥ २८ ॥
निषसाद हरिः कृष्णातीरे नीरमनोहरे ।
पुनर्जल्पन् सुमधुरं पश्यन् वृन्दावनं प्रियम् ॥ २९ ॥
चलन् हसन् राधिकया कुंजं कुंजं चचार ह ।
कुंजे निलीयमानं तं त्वरं त्यक्त्वा प्रियाकरम् ॥ ३० ॥
विलोक्य शाखान्तरितं राधा जग्राह माधवम् ।
राधा दुद्राव तद्धस्ताज्झंकारं कुर्वती पदे ॥ ३१ ॥
निलीयमाना कुंजेषु पश्यतो माधवस्य च ।
धावन् हरिर्गतो यावत्तावद्‌राधा ततो गता ॥ ३२ ॥
वृक्षपार्श्वे हस्तमात्रादितश्चेतश्च धावती ।
तमालो हेमवल्ल्येव घनश्चंचलया यथा ॥ ३३ ॥
हेमखन्येव नीलाद्री रेजे राधिकया हरिः ।
राधया विश्वमोहिन्या बभौ मदनमोहनः ॥ ३४ ॥
वृन्दावने रासरंगे रत्येव मदनो यथा ।
धृत्वा रूपाणि तावन्ति यावन्ति व्रजयोषितः ॥ ३५ ॥
ननर्त रासरंगेऽसौ रंगभूम्यां नटो यथा ।
गायन्त्यश्चापि नृत्यन्त्यः सर्वा गोप्यो मनोहराः ॥ ३६ ॥
विरेजुः कृष्णचन्द्रैश्च यथा शक्रैः सुरांगनाः ।
वारां विहारं कृष्णायां चकार मधुसूदनः ॥ ३७ ॥
सर्वैर्गोपीगणैः सार्धं यक्षीभिर्यक्षराडिव ।
कबरीकेशपाशाभ्यां प्रसूनैः प्रच्युतैः शुभैः ।
चित्रवर्णैर्बभौ कृष्णो यथोष्णिङ्‌मुद्रिता तथा ॥ ३८ ॥
मृदंगतालैर्मधुरध्वनिस्वनै-
     र्जगुर्यशस्ता मधुसूदनस्य ।
प्रापुर्मुदं पूर्णमनोरथाश्चल-
     त्प्रसूनहारा हरिणा गतव्यथाः ॥ ३९ ॥
श्रीहस्तसंताडितवारिबिंदुभिः
     स्फारासमस्फूर्जितशीकरद्युभिः ।
वृन्दावनेशो व्रजसुंदरीभी
     रेजे गजीभिर्गजराडिव स्वयम् ॥ ४० ॥
विद्याधर्यो देवगंधर्वपत्‍न्यः
     पश्यन्त्यस्ता रासरंगं दिविस्थाः ।
देवैः सार्धं चक्रिरे पुष्पवर्षं
     मोहं प्राप्ताः प्रश्लथद्‌वस्त्रनीव्यः ॥ ४१ ॥

 

रतिके साथ रतिनाथ की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार रासमण्डलमें श्रीराधाके साथ राधावल्लभकी हो रही थी। इस प्रकार सुन्दरियोंके अलापसे संयुक्त होकर साक्षात् श्रीहरि अपनी प्रिया राधाके साथ यमुनाके पुण्य- पुलिनपर आये। उन्होंने अपनी प्राणवल्लभाका हाथ अपने करकमलमें ले रखा था। यमुना के मनोहर तीरपर उन सुन्दरियोंके साथ श्यामसुन्दर थोड़ी देर बैठे रहे*। फिर मधुर-मधुर बातें करते हुए अपने प्रिय वृन्दाविपिनकी शोभा निहारने लगे ।। २७-२९ ॥

वे श्रीराधाके साथ चलते और हास-विनोद करते हुए कुञ्जवनमें विचरने लगे। एक कुञ्जमें प्रियाका हाथ छोड़कर वे तुरंत कहीं छिप गये। किंतु एक शाखाकी ओटमें उन्हें खड़ा देख श्रीराधाने माधवको अविलम्ब जा पकड़ा। फिर श्रीराधा उनके हाथसे छूटकर पग- पगपर नूपुरोंका झंकार प्रकट करती हुई भागीं और माधवके देखते-देखते कुञ्जोंमें छिपने लगीं । माधव हरि ज्यों ही दौड़कर उनके स्थानपर पहुँचे, त्यों-ही राधा वहाँसे अन्यत्र चली गयीं ।। ३०-३२

 वृक्षोंके पास हाथ- भरकी दूरीपर इधर-उधर वे भागने लगीं। उस समय श्रीराधाके साथ श्यामसुन्दर हरिकी उसी तरह शोभा हो रही थी, जैसे सुवर्णलतासे श्याम तमालकी, चपलासे घनमण्डलकी तथा सोनेकी खानसे नीलाचलकी होती है । वृन्दावनमें रासकी रङ्गस्थलीमें रतिके साथ कामदेवकी भाँति विश्वमोहिनी श्रीराधाके साथ मदनमोहन श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे ॥३३-३४

जितनी व्रजसुन्दरियाँ वहाँ विद्यमान थीं, उतने ही रूप धारण करके रङ्गभूमिमें नटके समान नटवर श्रीकृष्ण रासरङ्गमें नृत्य करने लगे। उनके साथ सम्पूर्ण मनोहर गोप सुन्दरियाँ भी गाने और नृत्य करने लगीं ॥३५-३६

अनेक कृष्णचन्द्रोंके साथ वे गोपसुन्दरियाँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो बहुसंख्यक इन्द्रोंके साथ देवाङ्गनाएँ नृत्य कर रही हों । तदनन्तर मधुसूदन श्रीकृष्ण समस्त गोप- सुन्दरियोंके साथ यमुनाजल में विहार करने लगे- ठीक उसी तरह जैसे यक्षसुन्दरियोंके साथ यक्षराज कुबेर विहार करते हैं । उन सुन्दरियों के केशपाश तथा कबरी (बँधी हुई चोटी) से खिसककर गिरे हुए सुन्दर चित्र-विचित्र पुष्पोंसे यमुनाजीकी ऐसी शोभा हो रही थी, जैसे किसी नीलपटपर विभिन्न रंगके फूल छाप दिये गये हों ३७-३८

मृदङ्ग और खड़तालोंकी मधुर ध्वनिके साथ वे व्रजाङ्गनाएँ मधुसूदनका यश गाती थीं। उनका मनोरथ पूर्ण हो गया। श्रीहरिने उनकी सारी व्यथा हर ली थी। उनके पुष्पहार चञ्चल हो रहे थे और वे परमानन्दमें निमग्न हो गयी थीं। जिनके सुन्दर हाथोंसे ताडित हो उछलते हुए वारि-बिन्दु, जो फुहारोंसे छूटते हुए असंख्य अनुपम जलकणोंकी छवि धारण कर रहे थे, उन व्रज-सुन्दरियोंके साथ वृन्दावनाधीश्वर श्रीकृष्ण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो बहुत-सी हथिनियोंके साथ यूथपति गजराज सुशोभित हो रहा हो । आकाशमें खड़ी हुई विद्याधरियाँ, देवाङ्गनाएँ तथा गन्धर्वपत्नियाँ उस रास - रङ्गको देखती हुई वहाँ देवताओंके साथ पुष्पवर्षा कर रही थीं। वे सब की सब मोहको प्राप्त हो गयी थीं। उनके वस्त्रोंके नीवी-बन्ध ढीले पड़कर खिसक रहे थे । ३ – ४१ ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रासलीला' नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

सृष्टि-वर्णन

सत्त्वं रजस्तम इति निर्गुणस्य गुणास्त्रयः ।
स्थितिसर्गनिरोधेषु गृहीता मायया विभोः ॥ १८ ॥
कार्यकारणकर्तृत्वे द्रव्यज्ञानक्रियाश्रयाः ।
बध्नन्ति नित्यदा मुक्तं मायिनं पुरुषं गुणाः ॥ १९ ॥
स एष भगवान् लिङ्गैः त्रिभिरेतैरधोक्षजः ।
स्वलक्षितगतिर्ब्रह्मन् सर्वेषां मम चेश्वरः ॥ २० ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) भगवान्‌ मायाके गुणोंसे रहित एवं अनन्त हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण—ये तीन गुण मायाके द्वारा उनमें स्वीकार किये गये हैं ॥ १८ ॥ ये ही तीनों गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रियाका आश्रय लेकर मायातीत नित्यमुक्त पुरुषको ही मायामें स्थित होनेपर कार्य, कारण और कर्तापनके अभिमानसे बाँध लेते हैं ॥ १९ ॥ नारद ! इन्द्रियातीत भगवान्‌ गुणोंके इन तीन आवरणोंसे अपने स्वरूपको भलीभाँति ढक लेते हैं, इसलिये लोग उनको नहीं जान पाते। सारे संसारके और मेरे भी एकमात्र स्वामी वे ही हैं ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 4 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

रासक्रीडा का वर्णन

 

काश्चिद्‌गोलोकवासिन्यः काश्चिच्छय्योपकारिकाः ।
शृङ्गारप्रकराः काश्चित्काश्चित्वै द्वारपालिकाः ॥ १४ ॥
पार्षदाख्याः सखिजनाः छत्रचामरपाणयः ।
पुष्पाभरणकारिण्यः श्रीवृन्दावनपालिकाः ॥ १५ ॥
गोवर्धननिवासिन्यः काश्चित्कुंजविधायिकाः ।
तन्निकुंजनिवासिन्यो नर्तक्यो वाद्यतत्पराः ॥ १६ ॥
सर्वा वै चन्द्रवदनाः किशोरवयसा नृप ।
आसां द्वादशयूथाश्चा जग्मुः श्रीकृष्णसन्निधिम् ॥ १७ ॥
तथैव यमुना साक्षाद्‌यूथीभूत्वा समाययौ ।
श्वेताम्बरा श्वेतवर्णा मुक्ताभरणभूषिता ॥ १८ ॥
तथाऽऽययौ कृष्णपत्‍नी नाम्ना या मधुमाधवी ।
पद्मवर्णा पुष्पभूषा यूथीभूत्वा शुभांबरा ॥ २१ ॥
तथैव विरजा साक्षाद्‌यूथीभूत्वा समाययौ ।
हरिद्‌वस्त्रा गौरवर्णा रत्‍नालंकारभूषिता ॥ २२ ॥
ललिताया विशाखाया मायायूथः समाययौ ।
एवं स्वष्टसखीनां च सखीनां किल षोडश ॥ २३ ॥
द्वात्रिंशच्च सखीनां च यूथा सर्वे समाययुः ।
रराज भगवान् राजन् स्त्रीगणै रासमण्डले ॥ २४ ॥
वृन्दावने यथाऽऽकाशे चंद्रस्तारागणैर्यथा ।
पीतवासःपरिकरो नटवेषो मनोहरः ॥ २५ ॥
वेत्रभूद्‌वादयन् वंशीं गोपीनां प्रीतिमावहन् ।
मयूरपक्षभृन्मौली स्रग्वी कुण्डलमण्डितः ॥ २६ ॥

इसी समय बहुत सी गोपाङ्गनाएँ श्रीकृष्णकी सेवामें उपस्थित हुई। कोई गोलोकनिवासिनी थीं, कोई शय्या सजाने में सहयोग करनेवाली थीं। कोई शृङ्गार धारण कराने की कला में कुशल थीं, तो कोई द्वारपालिका थीं। कुछ गोपियाँ 'पार्षद' नामधारिणी थीं, कुछ छत्र- चंवर धारण करनेवाली सखियाँ थीं और कुछ श्रीवृन्दावनकी रक्षामें नियुक्त थीं। कुछ गोवर्धनवासिनी, कुछ कुञ्जविधायिनी और कुछ निकुञ्जनिवासिनी थीं। कोई नृत्यमें निपुण और कोई वाद्य वादनमें प्रवीण थीं। नरेश्वर ! उन सबके मुख अपने सौन्दर्य- माधुर्यसे चन्द्रमाको भी लज्जित करते थे । वे सब की सब किशोरावस्थावाली तरुणियाँ थीं । इन सबके बारह यूथ श्रीकृष्णके समीप आये ।। १४-१७

इसी प्रकार साक्षात् यमुना भी अपना यूथ लिये आयीं। उनके अङ्गोंपर नीलवस्त्र शोभा पा रहे थे। वे रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित तथा श्यामा (सोलह वर्षकी अवस्था अथवा श्याम कान्तिसे युक्त) थीं। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदलको तिरस्कृत कर रहे थे। उन्हींकी तरह जह्नुनन्दिनी गङ्गा भी यूथ बाँधकर वहाँ आ पहुँची । उनकी अङ्ग- कान्ति श्वेतगौर थी। वे श्वेत वस्त्र तथा मोतीके आभूषणोंसे विभूषित थीं। वैसे ही साक्षात् रमा भी अपना यूथ लिये आयीं। उनके श्रीअङ्गोंपर अरुण वस्त्र सुशोभित थे। चन्द्रमाकी-सी अङ्ग - कान्ति, अधरोंपर मन्द मन्द हासकी छटा तथा विभिन्न अङ्गों में पद्मरागमणिके बने हुए अलंकार शोभा दे रहे थे ।। १८-२०

इसी तरह कृष्णपत्नी के नाम से अपना परिचय देने वाली मधुमाधवी (वसन्त-लक्ष्मी) भी वहाँ आयीं। उनके साथ भी सखियोंका समूह था । वे सब की सब प्रफुल्ल कमलकी-सी अङ्ग कान्तिवाली, पुष्पहारसे अलंकृत तथा सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित थीं। इसी रीतिसे साक्षात् विरजा भी सखियोंका यूथ लिये वहाँ आयीं। उनके अङ्गोंपर हरे रंगके वस्त्र शोभा दे रहे थे। वे गौरवर्णा तथा रत्नमय अलंकारोंसे अलंकृत थीं ।। २१-२२

 ललिता, विशाखा और लक्ष्मीके भी यूथ वहाँ आये। इसी प्रकार अष्टसखियों के, षोडश सखियों के तथा बत्तीस सखियोंके सम्पूर्ण यूथ भी वहाँ आ पहुँचे । राजन् ! भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण उन युवतीजनों- के साथ रासमण्डल की रङ्गभूमि में बड़ी शोभा पाने लगे ॥ २ - २४ ॥

जैसे आकाशमें चन्द्रमा ताराओं के साथ सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार श्रीवृन्दावनमें उन सुन्दरियोंके साथ श्रीकृष्णचन्द्रकी शोभा हो रही थी। उनकी कमरमें पीताम्बर कसा हुआ था। वे नटवेषमें सबका मन मोहे लेते थे। उनके हाथमें बेंतकी छड़ी थी। वे वंशी बजाकर उन गोप- सुन्दरियोंकी प्रीति बढ़ा रहे थे । माथेपर मोरपंखका मुकुट, वक्षःस्थलपर पुष्पहार एवं वनमाला तथा कानोंमें कुण्डल - ये ही उनके अलंकार थे ।। २५-२६

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

सृष्टि-वर्णन

द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
वासुदेवात्परो ब्रह्मन् न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वतः ॥ १४ ॥
नारायणपरा वेदा देवा नारायणाङ्गजाः ।
नारायणपरा लोका नारायणपरा मखाः ॥ १५ ॥
नारायणपरो योगो नारायणपरं तपः ।
नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः ॥ १६ ॥
तस्यापि द्रष्टुः ईशस्य कूटस्थस्याखिलात्मनः ।
सृज्यं सृजामि सृष्टोऽहं ईक्षयैवाभिचोदितः ॥ १७ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) भगवत्स्वरूप नारद ! द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव—वास्तवमें भगवान्‌से भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है ॥ १४ ॥ वेद नारायणके परायण हैं। देवता भी नारायणके ही अङ्गोंमें कल्पित हुए हैं, और समस्त यज्ञ भी नारायणकी प्रसन्नताके लिये ही हैं तथा उनसे जिन लोकोंकी प्राप्ति होती है, वे भी नारायणमें ही कल्पित हैं ॥ १५ ॥ सब प्रकारके योग भी नारायणकी प्राप्तिके ही हेतु हैं। सारी तपस्याएँ नारायणकी ओर ही ले जानेवाली हैं, ज्ञानके द्वारा भी नारायण ही जाने जाते हैं। समस्त साध्य और साधनोंका पर्यवसान भगवान्‌ नारायण में ही है ॥ १६ ॥ वे द्रष्टा होनेपर भी ईश्वर हैं, स्वामी हैं; निर्विकार होनेपर भी सर्वस्वरूप हैं। उन्होंने ही मुझे बनाया है और उनकी दृष्टिसे ही प्रेरित होकर मैं उनके इच्छानुसार सृष्टि-रचना करता हूँ ॥ १७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 3 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

रासक्रीडा का वर्णन

 

बहुलाश्व उवाच -
राधायै दर्शनं दत्त्वा कृत्वा प्रेमपरीक्षणम् ।
अग्रे चकार कां लीलां भगवानात्मलीलया ॥ १ ॥


श्रीनारद उवाच -
माधवो माधवे मासि माधवीभिः समाकुले ।
वृंदावने समारेभे रासं रासेश्वरः स्वयम् ॥ २ ॥
वैशाखमासि पंचम्यां जाते चन्द्रोदये शुभे ।
यमुनोपवने रेमे रासेश्वर्या मनोहरः ॥ ३ ॥
पुरा मैथिल गोलोकाद् भूमिर्या कौ समागता ।
सर्वा बभूव सौवर्णपद्मरागमयी त्वरम् ॥ ४ ॥
वृन्दावनं दिव्यवपुः दधत् कामदुघैर्द्रुमैः ।
माधवीभिर्लताभिश्च प्राक्षिपन्नन्दनन्दनम् ।
रत्‍नसोपानसंपन्ना स्फुरत्सौवर्णतोलिका ।
रराज यमुना राजन् हंसपद्मादिसंकुला ॥ ६ ॥
रत्‍नधातुमयः श्रीमद्‌रत्‍नशृङ्गस्फुरद्द्युतिः ।
सपक्षिगणसंयुक्तो लतापुष्पमनोहरः ॥ ७ ॥
निर्झरैः सुन्दरीभिश्च दरीभिर्भ्रमरीवृतः ।
रेजे गोवर्धनो नाम गिरिराजः करीन्द्रवत् ॥ ८ ॥
सर्वे निकुंजाः परितो रेजुर्दिव्यवपुर्धराः ।
सभामण्डपवीथीभिः प्रांगणस्तंभपंक्तिभिः ॥ ९ ॥
पतत्पताकैर्दिव्याभैः सौवर्णैः कलशैर्नृप ।
स्वेतारुणैः पुष्पदलैः पुष्पमन्दिरवर्तिभिः ॥ १० ॥
वसन्तमाधुर्यधराः कूजत्कोकिलसारसाः ।
पारावतैर्मयूरैश्च यत्र तत्र निकूजिताः ॥ ११ ॥
राधाकृष्णकथां पुण्यां गायमानैर्मधुव्रतैः ।
पतद्‌भिर्मधुमत्तैश्च कुंजाः सर्वे विराजिताः ॥ १२ ॥
पुलिने शीतलो वायुः मन्दगामी वहत्यलम् ।
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ॥ १३ ॥

राजा बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! श्रीराधाको और सुन्दरी दरियों (कन्दराओं) तथा भ्रमरियोंसे वह दर्शन दे, उसके प्रेमकी परीक्षा करके, भगवान् श्रीकृष्णने अपनी लीलाशक्तिके द्वारा आगे चलकर कौन-सी लीला प्रकट की ? ॥ १ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! माधव (वैशाख) मासमें माधवी लताओंसे व्याप्त वृन्दावनमें रासेश्वर माधवने स्वयं रासका आरम्भ किया। वैशाख मासकी कृष्णपक्षीया पञ्चमीको जब सुन्दर चन्द्रोदय हुआ, उस समय मनोहर श्यामसुन्दरने यमुनाके तटवर्ती उपवनमें रासेश्वरी श्रीराधाके साथ रास-विहार किया। मिथिलेश्वर ! इसके पूर्व गोलोकसे जिस भूमिका पृथ्वीपर अवतरण हो चुका था, वह सब की सब तत्काल सुवर्ण तथा पद्मरागमणिसे मण्डित हो गयी ॥ २-४

वृन्दावन भी दिव्यरूप धारण करके, कामपूरक कल्पवृक्षों तथा माधवी लताओंसे समलंकृत हो, अपनी शोभासे नन्दनवनको भी तिरस्कृत करने लगा। राजन् ! रत्नोंके सोपानों और सुवर्ण-निर्मित तोलिकाओं (गुमटियों) से मण्डित तथा हंसों और कमल आदिके पुष्पोंसे व्याप्त यमुना नदीकी अपूर्व शोभा हो रही थी ॥ ५-६

गिरिराज गोवर्धन गजराजके समान शोभा पाता था । जैसे गजराजके गण्डस्थलसे मदकी धाराएँ झरती हैं और उस पर भ्रमरोंकी भीड़ लगी रहती है, उसी प्रकार गिरिराजकी घाटियोंसे जलके निर्झर प्रवाहित होते थे और सुन्दरी दरियों (कंदराओं) तथा भ्रमरियों से पर्वत व्याप्त था । वहाँ विभिन्न धातुओंकी जगह नाना प्रकारके रत्न उद्भासित होते थे । उसके रत्नमय शिखरोंकी दिव्य दीप्ति सब ओर प्रकाशित हो रही थी । वह पक्षियोंके कलरवसे मुखरित तथा लता-पुष्पोंसे मनोहर जान पड़ता था ॥ ७-८

 गिरिराज के चारों ओर समस्त निकुञ्ज दिव्यरूप धारण करके सुशोभित होने लगे । सभा-मण्डपोंसे मण्डित वीथियाँ, प्राङ्गण और खंभोंकी पतियाँ उनकी शोभा बढ़ाने लगीं। नरेश्वर ! फहराती हुई दिव्य पताकाएँ, सुवर्णमय कलश तथा पुष्पमय मन्दिरोंमें विद्यमान श्वेतारुण पुष्पदल उन निकुञ्जको विभूषित कर रहे थे। उन सबमें वसन्त ऋतुकी माधुरी भरी थी । वहाँ कोकिल और सारस अपने मीठे बोल सुना रहे थे। जहाँ-तहाँ सब ओर कबूतर और मोर आदि पक्षी कलरव करते थे। श्रीराधा-कृष्णकी पुण्यमयी गाथाका गान करते हुए टूट पड़नेवाले मधुमत्त भ्रमरोंसे सभी कुञ्ज विशेष शोभा पाते थे । यमुना - पुलिनपर सहस्रदल कमलोंके पुष्प-पराग को बारंबार बिखेरता हुआ शीतल-मन्द-सुगन्ध समीर प्रवाहित हो रहा था ।। -१३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

सृष्टि-वर्णन

ब्रह्मोवाच ॥

सम्यक् कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम् ।
यदहं चोदितः सौम्य भगवद्वीर्यदर्शने ॥ ९ ॥
नानृतं तव तच्चापि यथा मां प्रब्रवीषि भोः ।
अविज्ञाय परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे ॥ १० ॥
येन स्वरोचिषा विश्वं रोचितं रोचयाम्यहम् ।
यथार्कोऽग्निः यथा सोमो यथा ऋक्षग्रहतारकाः ॥ ११ ॥
तस्मै नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि ।
यन्मायया दुर्जयया मां वदन्ति जगद्‍गुरुम् ॥ १२ ॥
विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया ।
विमोहिता विकत्थन्ते ममाहमिति दुर्धियः ॥ १३ ॥

ब्रह्माजीने कहा—बेटा नारद ! तुमने जीवोंके प्रति करुणा के भावसे भरकर यह बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि इससे भगवान्‌ के गुणोंका वर्णन करने की प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है ॥ ९ ॥ तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, तुम्हारा वह कथन भी असत्य नहीं है। क्योंकि जबतक मुझसे परे का तत्त्व—जो स्वयं भगवान्‌ ही हैं—जान नहीं लिया जाता, तब तक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता है ॥ १० ॥ जैसे सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे उन्हींके प्रकाशसे प्रकाशित होकर जगत् में प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयंप्रकाश भगवान्‌ के चिन्मय प्रकाशसे प्रकाशित होकर संसार को प्रकाशित कर रहा हूँ ॥ ११ ॥ उन भगवान्‌ वासुदेव की मैं वन्दना करता हूँ और ध्यान भी, जिनकी दुर्जय मायासे मोहित होकर लोग मुझे जगद्गुरु कहते हैं ॥ १२ ॥ यह माया तो उनकी आँखों के सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूरसे ही भाग जाती है। परन्तु संसार के अज्ञानी जन उसी से मोहित होकर ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार बकते रहते हैं ॥ १३॥ 

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शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा

श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन

 

गोपदेवतावाच -
राधे त्वदीयधिषणा धिषणं हसन्ती
     वाणीं श्रुतिं प्रकुशलेन विडंबयन्ती ।
अत्रागमिष्यति यदाथ हरिः परेशः
     सत्यं ददाति वचनं तव देवि मन्ये ॥ २८ ॥


राधोवाच -
यथाऽऽगमिष्यति यदाऽद्य हरिः परेशः
     किं कारयामि भवतीं वद तर्हि सुभ्रु ।
चेदागमो न हि भवेद्‌वनमालिनः स्वं
     सर्वं धनं च भवनं च ददामि तुभ्यम् ॥ २९ ॥


श्रीनारद उवाच -
अथ राधा समुत्थाय नत्वा श्रीनन्दनन्दनम् ।
उपविश्यासने दध्यौ ध्यानस्तिमितलोचना ॥ ३० ॥
उत्कंठितां स्वेदयुक्तां बाष्पकंठीं प्रियां हरिः ।
अश्रुपूर्णमुखीं वीक्ष्य बिभ्रत्स्वां पौरुषीं तनुम् ॥ ३१ ॥
पश्यन्तीनां सखीनां च सहसा भक्तवत्सलः ।
राधां प्राह प्रसन्नात्मा मेघगंभीरया गिरा ॥ ३२ ॥


श्रीकृष्ण उवाच -
रंभोरु चन्द्रवदने व्रजसुन्दरीशे
     राधे प्रिये नवलयौवनमानशीले ।
उमील्य नेत्रमपि पश्य समागतं मां
     तूर्णं त्वया मधुरया च गिरोपहूतम् ॥ ३३ ॥
आगच्छ कृष्ण इति वाक्यमतः श्रुतं मे
     सद्यो विसृज्य निजगोकुलगोपवृन्दम् ।
वंशीवटाच्च यमुनानिकटात्प्रधावन्
     त्वत्प्रीतयेऽथ ललनेत्र समागतोऽस्मि ॥ ३४ ॥
मय्यागते सति गता सखिरूपिणी का

 यक्ष्यासुरीसुरवधू किल किन्नरी वा ।

मायावती छलयितुं भवतीं च तस्मा-
     द्विश्वास एव न विधेय उरंगपत्‍न्याम् ॥ ३५ ॥


श्रीनारद उवाच -
अथ राधा हरिं दृष्ट्वा नत्वा तत्पादपंकजम् ।
मुदमाप परं राजन् सद्यः पूर्णमनोरथा ॥ ३६ ॥
एवं श्रीकृष्णचन्द्रस्य चरितान्यद्‌भुतानि च ।
यः शृणोति नरो भक्त्या स कृतार्थो भवेन्नरः ॥ ३७ ॥

 

गोपदेवी बोली- श्रीराधे ! तुम्हारी बुद्धि बृहस्पतिका भी उपहास करती है और वाणी अपने प्रवचन - कौशलसे वेदवाणीका अनुकरण करती है। किंतु देवि ! तुम्हारे बुलानेसे यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण सचमुच यहाँ आ जायँ और तुम्हारी बातका उत्तर दें, तब मैं मान लूँगी कि तुम्हारा कथन सच है ॥ २८ ॥

श्रीराधा बोलीं- शुभ्रु ! यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण मेरे बुलानेसे यहाँ आ जायँ, तब मैं तुम्हारे प्रति क्या करूँ, यह तुम्हीं बताओ। परंतु अपनी ओरसे इतना ही कह सकती हूँ कि यदि मेरे स्मरण करनेसे वनमाली का शुभागमन नहीं हुआ तो मैं अपना सारा धन और यह भवन तुम्हें दे दूँगी ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर श्रीराधा उठकर श्रीनन्दनन्दनको नमस्कार करके आसनपर बैठ गयीं और उनका ध्यान करने लगीं। उस समय उनके नेत्र ध्यानरत होनेके कारण निश्चल हो गये थे । श्रीहरिने देखा - 'प्रियतमा श्रीराधा मेरे दर्शनके लिये उत्कण्ठित हैं । इनके अङ्ग अङ्गमें स्वेद (पसीना) हो आया है और मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली है।' यह देख अपना पुरुषरूप धारण करके भक्तवत्सल श्रीकृष्ण सखियोंके देखते-देखते सहसा वहाँ प्रकट हो गये और प्रसन्नचित्त हो घनगर्जनके समान गम्भीर वाणीमें श्रीराधासे बोले || ३०–३२ ॥

श्रीकृष्णने कहा— रम्भोरु ! व्रज-सुन्दरी-शिरोमणे ! चन्द्रवदने ! नूतनयौवनशालिनि ! मानशीले ! प्रिये राधे ! तुमने अपनी मधुरवाणीसे मुझे बुलाया है, इसलिये मैं तुरंत यहाँ आ गया हूँ। अब आँख खोलकर मुझे देखो। ललने ! 'प्रियतम कृष्ण ! आओ' – यह वाक्य यहाँसे प्रकट हुआ और मैंने सुना। फिर उसी क्षण अपने गोकुल और गोपवृन्दको छोड़कर, वंशीवट और यमुनाके तटसे वेगपूर्वक दौड़ता हुआ तुम्हारी प्रसन्नताके लिये यहाँ आ पहुँचा हूँ । मेरे आते ही कोई सखीरूपधारिणी यक्षी, आसुरी, देवाङ्गना अथवा किनरी, जो कोई भी मायाविनी तुम्हें छलनेके लिये आयी थी, यहाँसे चल दी। अतः तुम्हें ऐसी नागिन पर विश्वास ही नहीं करना चाहिये ॥ ३३-३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— तदनन्तर श्रीराधा श्रीहरिको देखकर उनके चरण-कमलोंमें प्रणत हो परमानन्दमें निमग्न हो गयीं। उनका मनोरथ तत्काल पूर्ण हो गया। श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे अद्भुत चरित्रोंका जो भक्तिभावसे श्रवण करता है, वह मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ।। ३६-३७ ।।


इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधाको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन' नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

सृष्टि-वर्णन

नारद उवाच ।

देवदेव नमस्तेऽस्तु भूतभावन पूर्वज ।
तद्विजानीहि यद् ज्ञानं आत्मतत्त्वनिदर्शनम् ॥ १ ॥
यद् रूपं यद् अधिष्ठानं यतः सृष्टमिदं प्रभो ।
यत्संस्थं यत्परं यच्च तत् तत्त्वं वद तत्त्वतः ॥ २ ॥
सर्वं ह्येतद् भवान् वेद भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
करामलकवद् विश्वं विज्ञानावसितं तव ॥ ३ ॥
यद् विज्ञानो यद् आधारो यत् परस्त्वं यदात्मकः ।
एकः सृजसि भूतानि भूतैरेवात्ममायया ॥ ४ ॥
आत्मन् भावयसे तानि न पराभावयन् स्वयम् ।
आत्मशक्तिमवष्टभ्य ऊर्णनाभिरिवाक्लमः ॥ ५ ॥
नाहं वेद परं ह्यस्मिन् नापरं न समं विभो ।
नामरूपगुणैर्भाव्यं सदसत् किञ्चिदन्यतः ॥ ६ ॥
स भवानचरद् घोरं यत्तपः सुसमाहितः ।
तेन खेदयसे नस्त्वं पराशङ्कां च यच्छसि ॥ ७ ॥
एतन्मे पृच्छतः सर्वं सर्वज्ञ सकलेश्वर ।
विजानीहि यथैवेदं अहं बुद्ध्येऽनुशासितः ॥ ८ ॥

नारदजीने पूछा—पिताजी ! आप केवल मेरे ही नहीं, सबके पिता, समस्त देवताओं से श्रेष्ठ एवं सृष्टिकर्ता हैं। आपको मेरा प्रणाम है । आप मुझे वह ज्ञान दीजिये, जिससे आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है ॥ १ ॥ पिताजी ! इस संसार का क्या लक्षण है ? इसका आधार क्या है ? इसका निर्माण किसने किया है ? इसका प्रलय किसमें होता है ? यह किसके अधीन है ? और वास्तवमें यह है क्या वस्तु ? आप इसका तत्त्व बतलाइये ॥ २ ॥ आप तो यह सब कुछ जानते हैं; क्योंकि जो कुछ हुआ है, हो रहा है या होगा, उसके स्वामी आप ही हैं। यह सारा संसार हथेलीपर रखे हुए आँवलेके समान आपकी ज्ञान-दृष्टिके अन्तर्गत ही है ॥ ३ ॥ पिताजी ! आपको यह ज्ञान कहाँसे मिला ? आप किसके आधारपर ठहरे हुए हैं ? आपका स्वामी कौन है ? और आपका स्वरूप क्या है ? आप अकेले ही अपनी मायासे पञ्चभूतोंके द्वारा प्राणियोंकी सृष्टि कर लेते हैं, कितना अद्भुत है ! ॥ ४ ॥ जैसे मकड़ी अनायास ही अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें खेलने लगती है, वैसे ही आप अपनी शक्तिके आश्रयसे जीवोंको अपनेमें ही उत्पन्न करते हैं और फिर भी आपमें कोई विकार नहीं होता ॥ ५ ॥ जगत् में  नाम, रूप और गुणोंसे जो कुछ जाना जाता है, उसमें मैं ऐसी कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता, जो आपके सिवा और किसीसे उत्पन्न हुई हो ॥ ६ ॥ इस प्रकार सबके ईश्वर होकर भी आपने एकाग्र चित्तसे घोर तपस्या की, इस बातसे मुझे मोहके साथ-साथ बहुत बड़ी शङ्का भी हो रही है कि आपसे बड़ा भी कोई है क्या ॥ ७ ॥ पिताजी ! आप सर्वज्ञ और सर्वेश्वर हैं। जो कुछ मैं पूछ रहा हूँ, वह सब आप कृपा करके मुझे इस प्रकार समझाइये कि जिससे मैं आपके उपदेशको ठीक-ठीक समझ सकूँ ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 1 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा

श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन


गोपदेवतोवाच -
राधे व्रजन्सानुगिरेस्तटीषु
     संकोचवीथीषु मनोहरासु ।
यान्तीं स्वतो मां दधिविक्रयार्थं
     रुरोध मार्गे नवनन्दपुत्रः ॥ १४ ॥
वंशीधरो वेत्रकरः करे मां
     त्वरं गृहीत्वा प्रसहन्विलज्जः ।
मह्यं करादानधनाय दानं
     देहीति जल्पन्विपिने रसज्ञः ॥ १५ ॥
तुभ्यं न दास्यामि कदापि दानं
     स्वयंभुवे गोरसलंपटाय ।
एवं मयोक्ते वचनेऽथ भाण्डं
     नीत्वा विशीर्णीकृतवान् स दध्नः ॥ १६ ॥
भाण्डं स भित्त्वा दधि किं च पीत्वा
     नीत्वोत्तरीयं मम चेदुरीयम् ।
नन्दीश्वराद्रेर्विदिशं जगाम
     तेनाहमाराद्‌विमनाः स्म जाता ॥ १७ ॥
जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णो
     ऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः ।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीले
     त्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ॥ १८ ॥
इत्थं सवैरं परुषं वचस्तत्
     श्रुत्वा च राधा वृषभानुनन्दिनी ।
सुविस्मिता वाक्यपदे सरस्वती
     पदं स्मयन्ती निजगाद तां प्रति ॥ १९ ॥


राधोवाच -
यत्प्राप्तये विधिहरप्रमुखास्तपन्ति
     वह्नौ तपः परमया निजयोगरीत्या ।
दत्तः शुकः कपिल आसुरिरंगिरा
     यत्पादारविन्दमकरन्दरजः स्पृशन्ति ॥ २० ॥
तं कृष्णमादिपुरुषम् परिपूर्णदेवम्
     लीलावतारमजमार्तिहरं जनानाम् ।
भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय
     जातं विनिन्दसि कथं सखि दुर्विनीते ॥ २१ ॥
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
     गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
     जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥ २२ ॥
तत्कृष्णवर्णविलसत्सुकलां समीक्ष्य
     तस्मिन्विलग्नमनसा सुसुखं विहाय ।
उन्मत्तवद्‌व्रजति धावति नीलकण्ठो
     बिभ्रत्कपर्दविषभस्मकपालसर्पान् ॥ २३ ॥
स्वर्लोकसिद्धमुनियक्ष मरुद्‌गणानां
     पालाः समस्तनरकिन्नरनागनाथाः ।
यत्पादपद्ममनिशं प्रणिपत्य भक्त्या
     लब्धश्रियः किल बलिं प्रददुः स्म तस्मै ॥ २४ ॥
वत्साघकालियबकार्जुनधेनुकाना-
     माचक्रवातशकटासुरपूतनानाम् ।
एषां वधः किमुत तस्य यशो मुरारे-
     र्यः कोटिशोऽण्डनिचयोद्‌भवनाशहेतुः ॥ २५ ॥
भक्तात्प्रियो न विदितः पुरुषोत्तमस्य
     शंभुर्व्हिधिर्न च रमा न च रौहिणेयः ।
भक्ताननुव्रजति भक्ति निबद्ध चित्तः
     चुडामणिः सकललोकजनस्य कृष्णः ॥ २६ ॥
गच्छन्निजं जनमनुप्रपुनाति लोका-
     नावेदयन् हरिजने स्वरुचिं महात्मा ।
तस्मादतीव भजतां भगवान् मुकुन्दो
     मुक्तिं ददाति न कदापि सुभक्तियोगम् ॥ २७ ॥

 

गोपदेवीने कहा- राधे ! वरसानुगिरिकी घाटियोंमें जो मनोहर साँकरी गली है, उसीसे होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतनेमें नन्दजीके नवतरुण कुमार श्यामसुन्दरने मुझे मार्गमें रोक लिया। उनके हाथमें वंशी और बेंतकी छड़ी थी। उन रसिकशेखरने लाजको तिलाञ्जलि दे, तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से हँसते हुए, उस एकान्त वनमें वे इस प्रकार कहने लगे- 'सुन्दरी ! मैं कर लेनेवाला हूँ । अतः तू मुझे करके रूपमें दहीका दान दे।' मैंने कहा - 'चलो, हटो। अपने-आप कर लेनेवाले बने हुए तुम जैसे गोरस- लम्पटको मैं कदापि दान नहीं दूँगी।' मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिरपरसे दहीका मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला । मटका फोड़कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर उतार ली और नन्दीश्वर गिरिकी ईशानकोणवाली दिशाकी ओर वे चल दिये। इससे मैं बहुत अनमनी हो रही हूँ । जातका ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान् न वीर, न सुशील और न सुरूप ? सुशीले! ऐसे पुरुषके प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आजसे शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्णको मनसे निकाल दो (उसे सर्वथा त्याग दो) । इस प्रकार वैरभावसे युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ा विस्मय हुआ। वे वाक्य और पदोंके प्रयोगके सम्बन्धमें सरस्वतीके चरणोंका स्मरण करती हुई उनसे बोलीं- ॥ १४–१९ ॥

श्रीराधाने कहा- सखी! जिनकी प्राप्तिके लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योगरीति से पञ्चाग्निसेवनपूर्वक तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अङ्गिरा आदि भी जिनके चरणारविन्दोंके मकरन्द और परागका सादर स्पर्श करते हैं; उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजन दुःखहारी, भूतल - भूरि-भार- हरणकारी तथा सत्पुरुषोंके कल्याणके लिये यहाँ प्रकट हुए आदिपुरुष श्रीकृष्णकी निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ग्वाले सदा गौओंका पालन करते हैं, गोरजकी गङ्गामें नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओंके उत्तम नामोंका जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओंके सुन्दर मुखका दर्शन होता है। मेरी समझमें तो इस भूतलपर गोप-जातिसे बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। तुम उसे काला कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णकी श्याम विभासे विलसित सुन्दर कलाका दर्शन करके उन्हींमें मन लग जानेके कारण भगवान् नीलकण्ठ औरोंके सुन्दर मुखको छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये उस काले-कलूटेके लिये ही पागलोंकी भाँति व्रजमें दौड़ते फिरते हैं ॥ २०-२३

स्वर्गलोक, सिद्ध, मुनि, यक्ष और मरुद्गणोंके पालक तथा समस्त नरों, किंनरों और नागोंके स्वामी भी निरन्तर भक्तिभावसे जिनके चरणारविन्दोंमें प्रणिपात करके उत्कृष्ट लक्ष्मी एवं ऐश्वर्यको पाकर निश्चय ही उन्हें बलि (कर) समर्पित किया करते हैं, उनको तुम निर्धन कहती हो ? वत्सासुर, अघासुर, कालियनाग, बकासुर, यमलार्जुन वृक्ष, तृणावर्त, शकटासुर और पूतना आदिका वध (सम्भवतः तुम्हारी दृष्टिमें उनकी वीरताका परिचायक नहीं है ! मेरा भी ऐसा ही मत है।) उन मुरारिके लिये क्या यश देनेवाला हो सकता है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समूहोंके एकमात्र स्रष्टा और संहारक हैं ? उन पुरुषोत्तमके लिये भक्तसे बढ़कर कोई प्रिय हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता । शंकर, ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा रोहिणीनन्दन बलरामजी भी उनके लिये भक्तोंसे अधिक प्रिय नहीं हैं। वे भक्तिसे बद्धचित्त होकर भक्तोंके पीछे-पीछे चलते हैं। अतः श्रीकृष्ण केवल सुशील ही नहीं, समस्त लोकोंके सुजन-समुदायके चूडामणि हैं। वे भक्तोंके पीछे चलते हुए अपने रोम-रोममें स्थित लोकोंको पवित्र करते रहते हैं। वे परमात्मा अपने भक्तजनोंके प्रति सदा ही अभिरुचि सूचित करते रहते हैं । अतः अत्यन्त भजन करनेवालोंको भगवान् मुकुन्द मुक्ति तो अनायास दे देते हैं, किंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते; क्योंकि उन्हें भक्तिके बन्धनमें बँधे रहना पड़ता है ॥ २ - २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)

राजाका सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजी का कथारम्भ

यदङ्घ्र्यभिध्यानसमाधिधौतया
    धियानुपश्यन्ति हि तत्त्वमात्मनः ।
वदन्ति चैतत् कवयो यथारुचं
    स मे मुकुंदो भगवान् प्रसीदताम् ॥ २१ ॥
प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती
    वितन्वताऽजस्य सतीं स्मृतिं हृदि ।
स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलास्यतः
    स मे ऋषीणां ऋषभः प्रसीदताम् ॥ २२ ॥
भूतैर्महद्‌भिर्य इमाः पुरो विभुः
    निर्माय शेते यदमूषु पूरुषः ।
भुङ्क्ते गुणान् षोडश षोडशात्मकः
    सोऽलङ्कृषीष्ट भगवान् वचांसि मे ॥ २३ ॥
नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम् ॥ २४ ॥
एतद् एवात्मभू राजन् नारदाय विपृच्छते ।
वेदगर्भोऽभ्यधात् साक्षाद् यदाह हरिरात्मनः ॥ २५ ॥

विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलोंके चिन्तनरूप समाधिसे शुद्ध हुई बुद्धिके द्वारा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करते हैं तथा उनके दर्शनके अनन्तर अपनी-अपनी मति और रुचिके अनुसार जिनके स्वरूपका वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्तिके लुटानेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ॥ २१ ॥ जिन्होंने सृष्टिके समय ब्रह्माके हृदयमें पूर्वकल्पकी स्मृति जागरित करनेके लिये ज्ञानकी अधिष्ठात्री देवीको प्रेरित किया और वे अपने अङ्गोंके सहित वेदके रूपमें उनके मुखसे प्रकट हुर्ईं, वे ज्ञानके मूलकारण भगवान्‌ मुझपर कृपा करें, मेरे हृदयमें प्रकट हों ॥ २२ ॥ भगवान्‌ ही पञ्चमहाभूतोंसे इन शरीरोंका निर्माण करके इनमें जीवरूपसे शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन—इन सोलह कलाओंसे युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयोंका भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान्‌ मेरी वाणीको अपने गुणोंसे अलङ्कृत कर दें ॥ २३ ॥ संत पुरुष जिनके मुखकमलसे मकरन्दके समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधाका पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतार सर्वज्ञ भगवान्‌ व्यासके चरणोंमें मेरा बार-बार नमस्कार है ॥ २४ ॥
परीक्षित्‌ ! वेदगर्भ स्वयम्भू ब्रह्माने नारदके प्रश्न करनेपर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान्‌ नारायण ने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुमसे कह रहा हूँ) ॥ २५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...