सोमवार, 26 अगस्त 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

ज्यायान् गुणैरवरजोऽप्यदितेः सुतानां ।
    लोकान् विचक्रम इमान् यदथाधियज्ञः ।
क्ष्मां वामनेन जगृहे त्रिपदच्छलेन ।
    याच्ञामृते पथि चरन् प्रभुभिर्न चाल्यः ॥ १७ ॥
नार्थो बलेरयमुरुक्रमपादशौचम् ।
    आपः शिखाधृतवतो विबुधाधिपत्यम् ।
यो वै प्रतिश्रुतमृते न चिकीर्षदन्यद् ।
    आत्मानमङ्ग शिरसा हरयेऽभिमेने ॥ १८ ॥

भगवान्‌ वामन अदिति के पुत्रों में सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों की दृष्टि से वे सबसे बड़े थे। क्योंकि यज्ञपुरुष भगवान्‌ ने इस अवतार में बलि के संकल्प छोड़ते ही सम्पूर्ण लोकोंको अपने चरणों से ही नाप लिया था। वामन बनकर उन्होंने तीन पग पृथ्वी के बहाने बलि से सारी पृथ्वी ले तो ली, परन्तु इससे यह बात सिद्ध कर दी कि सन्मार्ग पर चलनेवाले पुरुषों को याचना के सिवा और किसी उपाय से समर्थ पुरुष भी अपने स्थान से नहीं हटा सकते, ऐश्वर्य से च्युत नहीं कर सकते ॥ १७ ॥ दैत्यराज बलि ने अपने सिरपर स्वयं वामन भगवान्‌ का चरणामृत धारण किया था। ऐसी स्थिति में उन्हें जो देवताओं के राजा इन्द्रकी पदवी मिली, इसमें कोई बलि का पुरुषार्थ नहीं था। अपने गुरु शुक्राचार्य के मना करनेपर भी वे अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए। और तो क्या, भगवान्‌ का तीसरा पग पूरा करने के लिये उनके चरणों में सिर रखकर उन्होंने अपने आपको भी समर्पित कर दिया ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 25 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्णका विरजाके साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे सात समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना

 

अथ कृष्णो नदीभूतां विरजां विरजांबराम् ।
सविग्रहां चकाराशु स्ववरेण नृपेश्वर ॥ १५ ॥
पुनर्विरजया सार्धं विरजातीरजे वने ।
निकुंजवृंदकारण्ये चक्रे रासं हरिः स्वयम् ॥ १६ ॥
विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा ।
निकुंजं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया ॥ १७ ॥
एकदा तैः कलिरभूल्लघुर्ज्येष्ठश्च ताडितः ।
पलायमानो भयभृन्मातुः क्रोडे जगाम ह ॥ १८ ॥
तल्लालनं समारेभे समाश्वास्य सुतं सती ।
तदा वै भगवान् साक्षात्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १९ ॥
रुषा सुतं शशापेयं श्रीकृष्णविरहातुरा ।
त्वं जलं भव दुर्बुद्धे कृष्णविच्छेदकारकः ॥ २० ॥
कदापि त्वं जलं मर्त्या न पिबंतु कदाचन ।
ज्येष्ठान् शशाप व्रजत मेदिनीं कलिकारकाः ॥ २१ ॥
जलरूपा पृथग्याना न समेता भविष्यथ ।
नैमित्तिकं च भवतां मेलनं स्यात्सदा लये ॥ २२ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्थं ते मातृशापेन धरणीं वै समागताः ।
प्रियव्रतरथांगानां परिखासु समास्थिताः ॥ २३ ॥
लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलार्णवाः ।
बभूवुः सप्त ते राजन्नक्षोभ्याश्च दुरत्ययाः ॥ २४ ॥
दुर्विगाह्याश्च गंभीरा आयामं लक्षयोजनात् ।
द्विगुणं द्विगुणं जातं द्वीपे द्वीपे पृथक् पृथक ॥ २५ ॥
अथ पुत्रेषु यातेषु पुत्रस्नेहातिविह्वला ।
स्वप्रियां तां विरहिणीमेत्य कृष्णो वरं ददौ ॥ २६ ॥
कदा न ते मे विच्छेदो मयि भीरु भविष्यति ।
स्वतेजसा स्वपुत्राणां सदा रक्षां करिष्यसि ॥ २७ ॥
अथ राधां विरहिणीं ज्ञात्वा कृष्णो हरिः स्वयम् ।
श्रीदाम्ना सह वैदेह तन्निकुंजं समाययौ ॥ २८ ॥
निकुञ्जद्वारि संप्राप्तं ससखं प्राणवल्लभम् ।
वीक्ष्य मानवती भूत्वा राधा प्राह हरिं वचः ॥ २९ ॥
तत्रैव गच्छ यत्राभूत्स्नेहस्ते नूतनो हरे ।
नदीभूता हि विरजा नदो भवितुमर्हसि ॥ ३० ॥
कुरु वासं तन्निकुंजे मया ते किं प्रयोजनम् ।

 

नृपेश्वर ! तदनन्तर नदीरूपमें परिणत हुई विरजाको श्रीकृष्णने शीघ्र ही अपने वरके प्रभावसे मूर्तिमती एवं विमल वस्त्राभूषणोंसे विभूषित दिव्य नारी बना दिया। इसके बाद वे विरजा-तटवर्ती वनमें वृन्दावन के निकुञ्ज में विरजा के साथ स्वयं रास करने लगे। श्रीकृष्णके तेजसे विरजाके गर्भसे सात पुत्र हुए। वे सातों शिशु अपनी बालक्रीड़ासे निकुञ्ज की शोभा बढ़ाने लगे ॥ १-१७

एक दिन उन बालकोंमें झगड़ा हुआ। उनमें जो बड़े थे, उन सबने मिलकर छोटेको मारा । छोटा भयभीत होकर भागा और माताकी गोदमें चला गया। सती विरजा पुत्रको आश्वासन दे उसे दुलारने लगीं। उस समय साक्षात् भगवान् वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तब श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल हो, रोषसे अपने पुत्रको शाप देते हुए विरजाने कहा- 'दुर्बुद्धे ! तू श्रीकृष्णसे वियोग करानेवाला है, अतः जल हो जा; तेरा जल मनुष्य कभी न पीयें। फिर उसने बड़ोंको शाप देते हुए कहा— 'तुम सब-के-सब झगड़ालू हो; अतः पृथ्वीपर जाओ और वहाँ जल होकर रहो । तुम सबकी पृथक्-पृथक् गति होगी। एक-दूसरेसे कभी मिल न सकोगे। सदा ही प्रलयकालमें तुम्हारा नैमित्तिक मिलन होगा' ॥। १ - २२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार माताके शापसे वे सब पृथ्वीपर आ गये और राजा प्रियव्रतके रथके पहियोंसे बनी हुई परिखाओंमें समाविष्ट हो गये। खारा जल, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, क्षीर तथा शुद्ध जलके वे सात सागर हो गये । राजन् ! वे सातों समुद्र अक्षोभ्य तथा दुर्लङ्घय हैं। उनके भीतर प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है । वे बहुत ही गहरे तथा लाख योजनसे लेकर क्रमशः द्विगुण विस्तारवाले होकर पृथक्-पृथक् द्वीपोंमें स्थित हैं ॥२३-२

पुत्रों के चले जाने पर विरजा उनके स्नेह से अत्यन्त व्याकुल हो उठी । तब अपनी उस विरहिणी प्रिया के पास आकर श्रीकृष्णने वर दिया- 'भीरु ! तुम्हारा कभी मुझसे वियोग नहीं होगा। तुम अपने तेजसे सदैव पुत्रों की रक्षा करती रहोगी।' विदेहराज ! तदनन्तर श्रीराधाको विरह-दुःख से व्यथित जान श्यामसुन्दर श्रीहरि स्वयं श्रीदामाके साथ उनके निकुञ्ज में आये । निकुञ्जके द्वारपर सखाके साथ आये हुए प्राणवल्लभकी ओर देखकर राधा मानवती हो उनसे इस प्रकार बोलीं ।। २ - २९ ॥

श्रीराधाने कहा - हरे ! वहीं चले जाओ, जहाँ तुम्हारा नया नेह जुड़ा है। विरजा तो नदी हो गयी, अब तुम्हें उसके साथ नद हो जाना चाहिये। जाओ, उसीके कुञ्जमें रहो। मुझसे तुम्हारा क्या मतलब है ? ॥ ३०

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

त्रैविष्टपोरुभयहा स नृसिंहरूपं ।
    कृत्वा भ्रमद् भ्रुकुटिदंष्ट्रकरालवक्त्रम् ।
दैत्येन्द्रमाशु गदयाऽभिपतन्तमारात् ।
    ऊरौ निपात्य विददार नखैः स्फुरन्तम् ॥ १४ ॥
अन्तः सरस्युरुबलेन पदे गृहीतो ।
    ग्राहेण यूथपतिरम्बुजहस्त आर्तः ।
आहेदमादिपुरुषाखिललोकनाथ ।
    तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गलनामधेय ॥ १५ ॥
श्रुत्वा हरिस्तमरणार्थिनमप्रमेयः ।
    चक्रायुधः पतगराजभुजाधिरूढः ।
चक्रेण नक्रवदनं विनिपाद्य तस्माद् ।
    धस्ते प्रगृह्य भगवान् कृपयोज्जहार ॥ १६ ॥

देवताओंका महान् भय मिटानेके लिये उन्होंने नृसिंहका रूप धारण किया। फडक़ती हुई भौंहों और तीखी दाढ़ोंसे उनका मुख बड़ा भयावना लगता था। हिरण्यकशिपु उन्हें देखते ही हाथमें गदा लेकर उनपर टूट पड़ा। इसपर भगवान्‌ नृसिंहने दूरसे ही उसे पकडक़र अपनी जाँघोंपर डाल लिया और उसके छटपटाते रहनेपर भी अपने नखों से उसका पेट फाड़ डाला ॥ १४ ॥
बड़े भारी सरोवरमें महाबली ग्राह ने गजेन्द्र का पैर पकड़ लिया। जब बहुत थककर वह घबरा गया, तब उसने अपनी सूँड़ में कमल लेकर भगवान्‌ को पुकारा—‘हे आदिपुरुष ! हे समस्त लोकों के स्वामी ! हे श्रवणमात्र से कल्याण करनेवाले !’ ॥ १५ ॥ उसकी पुकार सुनकर अनन्तशक्ति भगवान्‌ चक्रपाणि गरुडकी पीठपर चढक़र वहाँ आये और अपने चक्रसे उन्होंने ग्राह का मस्तक उखाड़ डाला। इस प्रकार कृपापरवश भगवान्‌ ने अपने शरणागत गजेन्द्र की सूँड़ पकडक़र उस विपत्तिसे उसका उद्धार किया ॥ १६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 24 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्णका विरजाके साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे सात समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
अघासुरादिदैत्यानां ज्योतिः कृष्णे समाविशत् ।
श्रीदाम्नि शंखचूडस्य कस्माल्लीनं बभूव ह ॥ १ ॥
एतद्‌वद महाबुद्धे त्वं परावरवित्तम ।
अहो श्रीकृष्णचंद्रस्य चरितं परमाद्‌भुतम् ॥ २ ॥
पुरा गोलोकवृत्तान्तं नारायणमुखाच्छ्रुतम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं शृणु राजन् महामते ॥ ३ ॥
राधा श्रीर्विरजा भूश्च तिस्रः पत्‍न्योऽभवन्हरेः ।
तासां राधा प्रियाऽतीव श्रीकृष्णस्य महात्मनः ॥ ४ ॥
राधिकासमया राजन् कोटिचंद्रप्रकाशया ।
कुंजे विरजया रेमे एकान्ते चैकदा प्रभुः ॥ ५ ॥
सपत्‍नीसहितं कृष्णं राधा श्रुत्वा सखीमुखात् ।
अतीव विमना जाता सपत्‍नीसौख्यदुःखिता ॥ ६ ॥
शतयोजनविस्तारं शतयोजनमूर्ध्वगम् ।
कोट्यश्विनीसमायुक्तं कोटिसूर्यसमप्रभम् ॥ ७ ॥
विचित्रवर्णसौवर्णमुक्तादामविलंबितम् ।
पताकाहेमकलशैः कोटिभिर्मंडितं रथम् ॥ ८ ॥
समारुह्य सखीनां सा वेत्रहस्तैर्दशार्बुदैः ।
हरिं द्रष्टुं जगामाशु श्रीराधा भगवत्प्रिया ॥ ९ ॥
तन्निकुंजे द्वारपालं श्रीदामानं महाबलम् ।
हरिन्यस्तं समालोक्य तं निर्भर्त्स्य सखीजनैः ॥ १० ॥
वेत्रैः सन्ताड्य सहसा द्वारि गन्तुं समुद्यता ।
सखीकोलाहलं श्रुत्वा हरिरंतरधीयत ॥ ११ ॥
राधाभयाच्च विरजा नदी भूत्वाऽवहत्तदा ।
कोटियोजनमायामं गोलोकं सहसा नदी ॥ १२ ॥
सहसा कुण्डलीकृत्वा शुशुभेऽब्धिरिवावनिम् ।
रत्‍नपुष्पैर्विचित्रांगा यथोष्णिङ्‌मुद्रिता तथा ॥ १३ ॥
हरिं गतं तं विज्ञाय नदीभूतां च तां तथा ।
आलोक्य तन्निकुञ्जं च स्वकुञ्जं राधिका ययौ ॥ १४ ॥

बहुलाश्वने पूछा- महामते देवर्षे ! आप परावरवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। अतः यह बताइये कि अघासुर आदि दैत्योंकी ज्योति तो भगवान् श्रीकृष्णमें प्रविष्ट हुई थी, परंतु शङ्खचूडका तेज श्रीदामामें लीन हुआ, इसका क्या कारण है ? अहो ! श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र अत्यन्त अद्भुत है ॥ १-२ ॥

श्रीनारदजी बोले – महामते नरेश ! यह पूर्वकालमें घटित गोलोकका वृत्तान्त है, जिसे मैंने भगवान् नारायण के मुखसे सुना था । यह सर्वपाप- हारी पुण्य-प्रसङ्ग तुम मुझसे सुनो। श्रीहरिके तीन पत्नियाँ हुईं – श्रीराधा, विजया (विरजा) और भूदेवी । इन तीनोंमें महात्मा श्रीकृष्णको श्रीराधा ही अधिक प्रिय हैं। राजन् ! एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण एकान्त कुञ्जमें कोटि चन्द्रमाओंकी-सी कान्तिवाली तथा श्रीराधिका - सदृश सुन्दरी विरजाके साथ बिहार कर रहे थे। सखीके मुखसे यह सुनकर कि श्रीकृष्ण मेरी सौतके साथ हैं, श्रीराधा मन-ही-मन अत्यन्त खिन्न हो उठीं। सपत्नीके सौख्यसे उनको दुःख हुआ, तब भगवत्-प्रिया श्रीराधा सौ योजन विस्तृत, सौ योजन ऊँचे और करोड़ों अश्विनियोंसे जुते सूर्यतुल्य- कान्तिमान् रथपर — जो करोड़ों पताकाओं और सुवर्ण- कलशोंसे मण्डित था तथा जिसमें विचित्र रंगके रत्नों, सुवर्ण और मोतियोंकी लड़ियाँ लटक रही थीं- आरूढ़ हो, दस अरब वेत्रधारिणी सखियोंके साथ तत्काल श्रीहरिको देखनेके लिये गयीं। उस निकुञ्जके द्वारपर श्रीहरिके द्वारा नियुक्त महाबली श्रीदामा पहरा दे रहा था। उसे देखकर श्रीराधाने बहुत फटकारा और सखीजनोंद्वारा बेंतसे पिटवाकर सहसा कुञ्जद्वारके भीतर जानेको उद्यत हुईं। सखियोंका कोलाहल सुनकर श्रीहरि वहाँसे अन्तर्धान हो गये । ३ – ११ ॥

श्रीराधाके भयसे विरजा सहसा नदीके रूपमें परिणत हो, कोटियोजन विस्तृत गोलोक में उसके चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतल को घेरे हुए है, उसी प्रकार विरजा नदी सहसा गोलोक को अपने घेरेमें लेकर बहने लगीं। रत्नमय पुष्पोंसे विचित्र अङ्गोंवाली वह नदी विविध प्रकारके फूलोंकी छापसे अङ्कित उष्णीष वस्त्रकी भाँति शोभा पाने लगीं 'श्रीहरि चले गये और विरजा नदीरूपमें परिणत हो गयी' – यह देख श्रीराधिका अपने कुञ्जको लौट गयीं ॥ १-१४

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

सत्रे ममाऽस भगवान् हयशीर्ष एव ।
    साक्षात् स यज्ञपुरुषः तपनीयवर्णः ।
छन्दोमयो मखमयोऽखिलदेवतात्मा ।
    वाचो बभूवुरुशतीः श्वसतोऽस्य नस्तः ॥ ११ ॥
मत्स्यो युगान्तसमये मनुनोपलब्धः ।
    क्षोणीमयो निखिलजीवनिकायकेतः ।
विस्रंसितानुरुभये सलिले मुखान्मे ।
    आदाय तत्र विजहार ह वेदमार्गान् ॥ १२ ॥
क्षीरोदधावमरदानवयूथपानाम् ।
    उन्मथ्नताममृतलब्धय आदिदेवः ।
पृष्ठेन कच्छपवपुर्विदधार गोत्रं ।
    निद्राक्षणोऽद्रिपरिवर्तकषाणकण्डूः ॥ १३ ॥

इसके बाद स्वयं उन्हीं यज्ञपुरुष ने मेरे यज्ञमें स्वर्ण के समान कान्तिवाले हयग्रीव के रूप में अवतार ग्रहण किया। भगवान्‌ का वह विग्रह वेदमय, यज्ञमय और सर्वदेवमय है। उन्हींकी नासिकासे श्वासके रूपमें वेदवाणी प्रकट हुई ॥ ११ ॥
चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें भावी मनु सत्यव्रतने मत्स्यरूपमें भगवान्‌ को प्राप्त किया था। उस समय पृथ्वीरूप नौका के आश्रय होनेके कारण वे ही समस्त जीवोंके आश्रय बने। प्रलयके उस भयंकर जलमें मेरे मुखसे गिरे हुए वेदोंको लेकर वे उसीमें विहार करते रहे ॥ १२ ॥
जब मुख्य-मुख्य देवता और दानव अमृतकी प्राप्तिके लिये क्षीरसागरको मथ रहे थे, तब भगवान्‌ ने कच्छप के रूपमें अपनी पीठपर मन्दराचल धारण किया। उस समय पर्वतके घूमनेके कारण उसकी रगड़से उनकी पीठकी खुजलाहट थोड़ी मिट गयी, जिससे वे कुछ क्षणोंतक सुखकी नींद सो सके ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

शिव और आसुरि का गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्णका दर्शन और स्तवन करना तथा उनके वरदान से वृन्दावन में नित्य-निवास पाना

 

नत्वा श्रीकृष्णपादाब्जमूचतुर्हर्षविह्वलौ ।


द्वावूचतुः -
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् देवदेव जगत्पते ॥ २१ ॥
पुण्डरीकाक्ष गोविंद गरुडध्वज ते नमः ।
जनार्दन जगन्नाथ पद्मनाभ त्रिविक्रम ।
दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २२ ॥
अद्यैव देव परिपूर्णतमस्तु साक्षा-
     द्‌भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय ।
प्राप्तोऽसि नंदभवने परतः परस्त्वं
     कृत्वा हि सर्वनिजलोकमशेषशून्यम् ॥ २३ ॥
अंशांशकांशकलयाभिरुताभिराम-
     मावेशपूर्णनिचयाभिरतीव युक्तः ।
विश्वं बिभर्षि रसरासमलंकरोषि
     वृंदावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥ २४ ॥
गोलोकनाथ गिरिराजपते परेश
     वृंदावनेश कृतनित्यविहारलील ।
राधापते व्रजवधूजनगीतकीर्ते
     गोविंद गोकुलपते किल ते जयोऽस्तु ॥ २५ ॥
श्रीमन्निकुंजलतिका कुसुमाकरस्त्वं
     श्रीराधिकाहृदयकंठ विभूषणस्त्वम् ।
श्रीरासमंडलपतिर्व्रजमंडलेशो
     ब्रह्मांडमंडलमहीपरिपालकोऽसि ॥ २६ ॥


श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नो भगवान् राधया सहोतो हरिः ।
मन्दस्मितो मुनिं प्राह मेघगंभीरया गिरा ॥ २७ ॥
षष्टिवर्षसहस्राणि युवयोस्तपतोस्तपः ।
मद्दर्शनं तेन जातं सर्वतो नैरपेक्षयोः ॥ २८ ॥
निष्किंचनो यः शान्तश्चाजातशत्रुः स मत्सखा ।
तस्माद्‌युवाभ्यां मनसा व्रियतामीप्सितो वरः ॥ २९ ॥


शिवासुरी ऊचतुः -
नमोऽस्तु भूमन्युवयोः पदाब्जे
     सदैव वृंदावनमध्यवास ।
न रोचते नोऽन्यमतस्त्वदंघ्रे-
     र्नमो युवाभ्यां हरिराधिकाभ्याम् ॥ ३० ॥


श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् वृंदारण्ये मनोहरे ।
कालिंदीनिकटे राजन् रासमंडलमंडिते ॥ ३१ ॥
निकुञ्जपार्श्वे पुलिने वंशीवटसमीपतः ।
शिवोऽपि चासुरिमुनिर्नित्यं वासं चकार ह ॥ ३२ ॥
अथ कृष्णो रासलीलां चक्रे पद्माकरे वने ।
पतत्सुगंधिरजसि गोपीभिर्भ्रमराकुले ॥ ३३ ॥
एवं षाण्मासिकी रात्रिः
     कृता कृष्णेन मैथिल ।
गोपीनां रासलीलायां
     व्यतीता क्षणवत्सुखैः ॥ ३४ ॥
अरुणोदयवेलायां स्वगृहान् व्रजयोषितः ।
यूथीभूत्त्वा ययू राजन् सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ ३५ ॥
श्रीनंदमंदिरं साक्षात्प्रययौ नंदनंदनः ।
वृषभानुपुरं प्रागाद्‌वृषभानुसुता त्वरम् ॥ ३६ ॥
एवं श्रीकृष्णचंद्रस्य रासाख्यानं मनोहरम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं कामदं मंगलायनम् ॥ ३७ ॥
त्रिवर्ग्यदं जनानां तु
     मुमुक्षुणां सुमुक्तिदम् ।
मया तवाग्रे कथितं
     किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३८ ॥

 

दोनों (आसुरि और शिव) बोले-- कृष्ण ! महायोगी कृष्ण ! देवाधि- देव जगदीश्वर ! पुण्डरीकाक्ष ! गोविन्द ! गरुडध्वज ! आपको नमस्कार है । जनार्दन ! जगन्नाथ ! पद्मनाभ ! त्रिविक्रम ! दामोदर ! हृषीकेश ! वासुदेव ! आपको नमस्कार है ॥२१-२२

देव ! आप परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् हैं। इन दिनों भूतलका भारी भार हरने और सत्पुरुषोंका कल्याण करनेके लिये अपने समस्त लोकोंको पूर्णतया शून्य करके यहाँ नन्दभवन में प्रकट हुए हैं। वास्तव में तो आप परात्पर परमात्मा ही हैं। अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण - समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो, आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्वकी रक्षा करते हैं तथा वृन्दावनमें सरस रासमण्डलको भी अलंकृत करते हैं ॥२३-२४

गोलोकनाथ ! गिरिराजपते ! परमेश्वर ! वृन्दावनाधीश्वर ! नित्यविहार- लीलाका विस्तार करनेवाले राधावल्लभ ! व्रजसुन्दरियोंके मुखसे अपना यशोगान सुननेवाले गोविन्द ! गोकुलपते ! सर्वथा आपकी जय हो शोभाशालिनी निकुञ्जलताओंके विकासके लिये आप ऋतुराज वसन्त हैं। श्रीराधिकाके वक्ष और कण्ठको विभूषित करने- वाले रत्नहार हैं। श्रीरासमण्डलके पालक, व्रज- मण्डलके अधीश्वर तथा ब्रह्माण्ड-मण्डलकी भूमिके संरक्षक हैं  ॥ २-२६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब श्रीराधा- सहित भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मन्द मन्द मुसकराते हुए मेघगर्जनकी-सी गम्भीर वाणीमें मुनिसे बोले ॥ २७ ॥

श्रीभगवान् ने कहा- तुम दोनोंने साठ हजार वर्षोंतक निरपेक्षभावसे तप किया है, इसीसे तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। जो अकिंचन, शान्त तथा सर्वत्र शत्रुभावनासे रहित है, वही मेरा सखा है। अतः तुम दोनों अपने मनके अनुसार अभीष्ट वर माँगो ।। २८-२९ ।

शिव और आसुरि बोले— भूमन् ! आपको नमस्कार हैं। आप दोनों प्रिया-प्रियतमके चरण- कमलोंकी संनिधिमें सदा ही वृन्दावनके भीतर हमारा निवास हो। आपके चरणसे भिन्न और कोई वर हमें नहीं रुचता है; अतः आप दोनों— श्रीहरि एवं श्रीराधिका को हमारा सादर नमस्कार है ॥ ३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब भगवान् ने 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तभी से शिव और आसुरिमुनि मनोहर वृन्दावन में वंशीवट के समीप रासमण्डल से मण्डित कालिन्दी के निकटवर्ती पुलिनपर निकुञ्ज के पास ही नित्य निवास करने लगे ।। ३१-३२ ॥

तदनन्तर श्रीकृष्णने जहाँ कमलपुष्पोंके सौरभयुक्त पराग उड़ रहे थे और भ्रमर मँडरा रहे थे, उस पद्माकर वनमें गोपाङ्गनाओंके साथ रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। मिथिलेश्वर ! उस समय श्रीकृष्णने छः महीनेकी रात बनायी। परंतु उस रासलीलामें सम्मिलित हुई गोपियों- के लिये वह सुख और आमोदसे पूर्ण रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। राजन् ! उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये। अरुणोदयकी वेलामें वे सभी व्रजसुन्दरियाँ झुंड की झुंड एक साथ होकर अपने घरको लौटीं । श्रीनन्दनन्दन साक्षात् नन्दमन्दिर में चले गये और श्रीवृषभानुनन्दिनी तुरंत ही वृषभानुपुरमें जा पहुँचीं ॥ ३३-३६॥

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका यह मनोहर रासोपाख्यान सुनाया गया, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यप्रद, मनोरथपूरक तथा मङ्गलका धाम हैं । साधारण लोगोंको यह धर्म, अर्थ और काम प्रदान करता है तथा मुमुक्षुओंको मोक्ष देनेवाला है। राजन् ! यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने कहा। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ।। ३७-३८ ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'रासक्रीडाका वर्णन' नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 
 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

विद्धः सपत्‍न्युदितपत्रिभिरन्ति राज्ञो ।
    बालोऽपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि ।
तस्मा अदाद् ध्रुवगतिं गृणते प्रसन्नो ।
    दिव्याः स्तुवन्ति मुनयो यदुपर्यधस्तात् ॥ ८ ॥
यद्वेनमुत्पथगतं द्विजवाक्यवज्र ।
    निष्प्लुष्टपौरुषभगं निरये पतन्तम् ।
त्रात्वाऽर्थितो जगति पुत्रपदं च लेभे ।
    दुग्धा वसूनि वसुधा सकलानि येन ॥ ९ ॥
नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुः ।
    यो वै चचार समदृग् जडयोगचर्याम् ।
यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति ।
    स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः ॥ १० ॥

अपने पिता राजा उत्तानपादके पास बैठे हुए पाँच वर्षके बालक ध्रुवको उनकी सौतेली माता सुरुचिने अपने वचन-बाणोंसे बेध दिया था। इतनी छोटी अवस्था होनेपर भी वे उस ग्लानिसे तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। उनकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ प्रकट हुए और उन्होंने ध्रुवको ध्रुवपदका वरदान दिया। आज भी ध्रुवके ऊपर-नीचे प्रदक्षिणा करते हुए दिव्य महर्षिगण उनकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ८ ॥
कुमार्गगामी वेनका ऐश्वर्य और पौरुष ब्राह्मणोंके हुंकाररूपी वज्रसे जलकर भस्म हो गया। वह नरकमें गिरने लगा। ऋषियोंकी प्रार्थनापर भगवान्‌ने उसके शरीरमन्थनसे पृथुके रूपमें अवतार धारण कर उसे नरकोंसे उबारा और इस प्रकार ‘पुत्र’ [*] शब्दको चरितार्थ किया। उसी अवतारमें पृथ्वीको गाय बनाकर उन्होंने उससे जगत्के लिये समस्त ओषधियोंका दोहन किया ॥ ९ ॥
राजा नाभिकी पत्नी सुदेवीके गर्भसे भगवान्‌ने ऋषभदेवके रूपमें जन्म लिया। इस अवतारमें समस्त आसक्तियोंसे रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मनको अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूपमें स्थित होकर समदर्शीके रूपमें उन्होंने जड़ोंकी भाँति योगचर्याका आचरण किया। इस स्थितिको महर्षिलोग परमहंसपद अथवा अवधूतचर्या कहते हैं ॥ १० ॥
...................................................................
[*] ‘पुत्र’ शब्दका अर्थ ही है ‘पुत्’ नामक नरकसे रक्षा करनेवाला।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 22 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

शिव और आसुरि का गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्णका दर्शन और स्तवन करना तथा उनके वरदान से वृन्दावन में नित्य-निवास पाना

 

श्रीनारद उवाच -
एवं विचिन्त्य मनसा शिवो वाऽऽसुरिणा सह ।
तौ कृष्णदर्शनार्थाय जग्मतुर्व्रजमण्डलम् ॥ १ ॥
दिव्यद्रुमलताकुञ्जतोलिकापुंजशोभिताम् ।
पश्यन्तौ तौ दिव्यभूमिं कालिन्दीनिकटे गतौ ॥ २ ॥
गोलोकवासिन्यो नार्यो वेत्रहस्ता महाबलाः ।
चक्रुर्बलात्तन्निषेधं मार्गस्था द्वारपालिकाः ॥ ३ ॥
तावूचतुश्चागतौ स्वः कृष्णदर्शनलालसौ ।
तावाहुर्नृपशार्दूल मार्गस्था द्वारपालिकाः ॥ ४ ॥


द्वारपालिका ऊचुः -
सर्वतो वृंदकारिण्यं कोटिशः कोटिशो वयम् ।
रासरक्षां सदा कुर्मो न्यस्ता कृष्णेन भो द्विजौ ॥ ५ ॥
एकोऽस्ति पुरुषः कृष्णो निर्जने रासमण्डले ।
अन्यो न याति रहसि गोपीयूथं विना क्वचित् ॥ ६ ॥
चेद्दिदृक्षू युवां तस्य स्नानं मानसरोवरे ।
कुरुतं तत्र गोपीत्वं प्राप्याशु व्रजतं मुनी ॥ ७ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तौ तौ मुनिशिवौ स्नात्वा मानसरोवरे ।
गोपीत्वं प्राप्य सहसा जग्मतू रासमण्डले ॥ ८ ॥
सौवर्णप्रखचित्पद्मरागभूमि मनोहरे ।
माधवीलतिकावृन्दकदंबाच्छादिते शुभे ॥ ९ ॥
वसंतचंद्रकौमुद्या प्रदीप्ते सर्वकौशले ।
यमुनारत्‍नसोपानतोलिकाभिर्विराजिते ॥ १० ॥
मयूरहंसदात्यूहकोकिलैः कूजिते परे ।
यमुनानिलनीलैजत्तरुपल्लवशोभिते ॥ ११ ॥
सभामण्डपवीथीभिः प्रांगणस्तम्भपंक्तिभिः ।
पतत्पताकैर्दिव्याभैः सौवर्णैः कलशैर्वृते ॥ १२ ॥
श्वेतारुणैः पुष्पसंघैः पुष्पमंदिरवर्त्मभिः ।
अलिकोलाहलैर्व्याप्ते वादित्रमधुरध्वनौ ॥ १३ ॥
सहस्रदलपद्मानां वायुना मंदगामिना ।
शीतलेन सुपुण्येन सर्वतः सुरभीकृते ॥ १४ ॥
तस्मिन्निकुंजे श्रीकृष्णं कोटिचंद्रप्रकाशया ।
पद्मिन्या हंसगामिन्या राधया समलंकृतम् ॥ १५ ॥
स्त्रीरत्‍नैरावृतं शश्वद्‌रासमण्डलमध्यगम् ।
कोटिमन्मथलावण्यं श्यामसुंदरविग्रहम् ॥ १६ ॥
वंशीधरं पीतपटं वेत्रपाणिं मनोहरम् ।
श्रीवत्सांकं कौस्तुभिनं वनमालाविराजितम् ॥ १७ ॥
क्वणन्नूपुरमंजीर कांचिकेयूरभूषितम् ।
हारकंकण बालार्क कुंडलद्वयमंडितम् ॥ १८ ॥
कोटिचंद्रप्रतीकाशमौलिनं नंदनंदनम् ।
दानदक्षैः कटाक्षैश्च हरन्तं योषितां मनः ॥ १९ ॥
दूरादपश्यतां राजन् आसुरीशौ कृतांजली ।
गोपीजनानां सर्वेषां पश्यतां नृपसत्तम ॥ २० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! भगवान् शिव आसुरि के साथ सम्पूर्ण हृदयसे ऐसा निश्चय करके वहाँसे चले। वे दोनों श्रीकृष्णदर्शनके लिये व्रज- मण्डल में गये । वहाँकी भूमि दिव्य वृक्षों, लताओं, कुञ्जों और गुमटियोंसे सुशोभित थी । उस दिव्य भूमिका दर्शन करते हुए दोनों ही यमुनातटपर गये ॥-

उस समय अत्यन्त बलशालिनी गोलोकवासिनी गोप- सुन्दरियाँ हाथमें बेंतकी छड़ी लिये वहाँ पहरा दे रही थीं। उन द्वारपालिकाओंने मार्गमें स्थित होकर उन्हें बलपूर्वक रासमण्डलमें जानेसे रोका। वे दोनों बोले— 'हम श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे यहाँ आये हैं।' नृपश्रेष्ठ ! तब राह रोककर खड़ी द्वारपालिकाओं ने उन दोनोंसे कहा ॥ -४ ॥

द्वारपालिकाएँ बोलीं- विप्रवरो ! हम कोटि- कोटि गोपाङ्गनाएँ वृन्दावनको चारों ओरसे घेरकर निरन्तर रासमण्डलकी रक्षा कर रही हैं। इस कार्यमें श्यामसुन्दर श्रीकृष्णने ही हमें नियुक्त किया है। इस एकान्त रासमण्डलमें एकमात्र श्रीकृष्ण ही पुरुष हैं । उस पुरुषरहित एकान्त स्थानमें गोपीयूथके सिवा दूसरा कोई कभी नहीं जा सकता। मुनियो ! यदि तुम दोनों उनके दर्शनके अभिलाषी हो तो इस मानसरोवरमें स्नान करो । वहाँ तुम्हें शीघ्र ही गोपीस्वरूपकी प्राप्ति हो जायगी, तब तुम रासमण्डलके भीतर जा सकते हो ॥ ५ – ७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— द्वारपालिकाओंके यों कहनेपर वे मुनि और शिव मानसरोवरमें स्नान करके, गोपी भावको प्राप्त हो, सहसा रासमण्डल में गये ॥ ८ ॥

सुवर्णजटित पद्मरागमयी भूमि उस रासमण्डलकी मनोहरता बढ़ा रही थी। वह सुन्दर प्रदेश माधवीलता- समूहोंसे व्याप्त और कदम्बवृक्षोंसे आच्छादित था । वसन्त ऋतु तथा चन्द्रमाकी चाँदनीने उसको प्रदीप्त कर रखा था। सब प्रकारकी कौशलपूर्ण सजावट वहाँ दृष्टिगोचर होती थी। यमुनाजीकी रत्नमयी सीढ़ियों तथा तोलिकाओंसे रासमण्डलकी अपूर्व शोभा हो रही थी ॥-१०

मोर, हंस, चातक और कोकिल वहाँ अपनी मीठी बोली सुना रहे थे। वह उत्कृष्ट प्रदेश यमुनाजीके जलस्पर्शसे शीतल-मन्द वायुके बहनेसे हिलते हुए, तरुपल्लवोंद्वारा बड़ी शोभा पा रहा था । सभामण्डपों और वीथियोंसे, प्राङ्गणों और खंभोंकी पंक्तियोंसे, फहराती हुई दिव्य पताकाओंसे और सुवर्णमय कलशोंसे सुशोभित तथा श्वेतारुण पुष्पसमूहोंसे सज्जित तथा पुष्पमन्दिर और मार्गोंसे एवं भ्रमरोंकी गुंजारों और वाद्योंकी मधुर ध्वनियोंसे व्याप्त रासमण्डलकी शोभा देखते ही बनती थी ॥११-१३

सहस्रदलकमलों की सुगन्धसे पूरित शीतल, मन्द एवं परम पुण्यमय समीर सब ओरसे उस स्थानको सुवासित कर रहा था। रास- मण्डलके निकुञ्जमें कोटि-कोटि चन्द्रमाओंके समान प्रकाशित होनेवाली पद्मिनी नायिका हंसगामिनी श्रीराधासे सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे। रास मण्डल के भीतर निरन्तर स्त्रीरत्नों से घिरे हुए श्यामसुन्दरविग्रह श्रीकृष्णका लावण्य करोड़ों कामदेवोंको लज्जित करनेवाला था। हाथमें वंशी और बेंत लिये तथा श्रीअङ्गपर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न, कौस्तुभमणि तथा वनमाला शोभा दे रही थी । झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबंद से वे विभूषित थे। हार, कङ्कण तथा बालरवि के समान कान्तिमान् दो कुण्डलों से वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओं की कान्ति उनके आगे फीकी जान पड़ती थी। मस्तकपर मोरमुकुट धारण किये वे नन्द-नन्दन मनोरथ दान-दक्ष कटाक्षों द्वारा युवतियों का मन हर लेते थे ॥१४-१९

राजन् आसुरि और शिव — दोनों ने दूर से ही जब श्रीकृष्णको देखा तो हाथ जोड़ लिये । नृपश्रेष्ठ ! समस्त गोपसुन्दरियोंके देखते-देखते श्रीकृष्ण- चरणारविन्दमें मस्तक झुकाकर, आनन्दविह्वल हुए उन दोनोंने कहा ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

अत्रेः अपत्यमभिकाङ्क्षत आह तुष्टो ।
    दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः ।
यत् पादपङ्कजपराग पवित्रदेहा ।
    योगर्द्धिमापुरुभयीं यदुहैहयाद्याः ॥ ४ ॥
तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया मे ।
    आदौ सनात् स्वतपसः स चतुःसनोऽभूत् ।
प्राक्कल्प संप्लवविनष्टमिह आत्मतत्त्वं ।
    सम्यग् जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन् ॥ ५ ॥
धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां ।
    नारायणो नर इति स्वतपः प्रभावः ।
दृष्ट्वात्मनो भगवतो नियमावलोपं ।
    देव्यस्त्वनङ्गपृतना घटितुं न शेकुः ॥ ६ ॥
कामं दहन्ति कृतिनो ननु रोषदृष्ट्या ।
    रोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्यम् ।
सोऽयं यदन्तरमलं प्रविशन् बिभेति ।
    कामः कथं नु पुनरस्य मनः श्रयेत ॥ ७ ॥

महर्षि अत्रि भगवान्‌ को पुत्ररूप में प्राप्त करना चाहते थे। उनपर प्रसन्न होकर भगवान्‌ ने उनसे एक दिन कहा कि ‘मैंने अपने आपको तुम्हें दे दिया।’ इसीसे अवतार लेनेपर भगवान्‌ का नाम ‘दत्त’ (दत्तात्रेय) पड़ा। उनके चरणकमलोंके परागसे अपने शरीरको पवित्र करके राजा यदु और सहस्रार्जुन आदिने योगकी भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त कीं ॥ ४ ॥
नारद ! सृष्टिके प्रारम्भमें मैंने विविध लोकोंको रचनेकी इच्छासे तपस्या की। मेरे उस अखण्ड तपसे प्रसन्न होकर उन्होंने ‘तप’ अर्थवाले ‘सन’ नामसे युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमारके रूपमें अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने प्रलयके कारण पहले कल्पके भूले हुए आत्मज्ञानका ऋषियोंके प्रति यथावत् उपदेश किया, जिससे उन लोगोंने तत्काल परम तत्त्वका अपने हृदयमें साक्षात्कार कर लिया ॥ ५ ॥
धर्म की पत्नी दक्षकन्या मूर्ति के गर्भ से वे नर-नारायण के रूप में प्रकट हुए। उनकी तपस्या का प्रभाव उन्हीं के जैसा है। इन्द्र की भेजी हुई काम की सेना अप्सराएँ उनके सामने जाते ही अपना स्वभाव खो बैठीं। वे अपने हाव-भाव से उन आत्मस्वरूप भगवान्‌ की तपस्या में विघ्र नहीं डाल सकीं ॥ ६ ॥ नारद ! शङ्कर आदि महानुभाव अपनी रोषभरी दृष्टि से कामदेव को जला देते हैं, परंतु अपने आपको जलाने वाले असह्य क्रोध को वे नहीं जला पाते। वही क्रोध नर-नारायण के निर्मल हृदयमें प्रवेश करनेके पहले ही डरके मारे काँप जाता है। फिर भला, उनके हृदय में काम का प्रवेश तो हो ही कैसे सकता है ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 21 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

रास-विहार तथा आसुरि मुनि का उपाख्यान

 

ज्ञानिनामपि नास्त्येवं कर्मिणां तु कुतश्च सः ।
एवं श्रीकृष्णचंद्रस्य हरे राधापतेः प्रभोः ॥ २८ ॥
रासे चित्रं यद्‌बभूव तच्छृणुष्व महामते ।
मुनीन्द्र आसुरिर्नाम श्रीकृष्णेष्टो महातपाः ॥ २९ ॥
नारदाद्रौ तपस्तेपे हरौ ध्यानपरायणः ।
हृत्पुंडरीके श्रीकृष्णं ज्योतिर्मंडलमास्थितम् ॥ ३० ॥
मनोज्ञं राधया सार्धं नित्यं ध्याने ददर्श ह ।
एकदा ध्यानमध्ये तु रात्रौ कृष्णो न चागतः ॥ ३१ ॥
वारं वारं कृतं ध्यानं खिन्नो जातो महामुनिः ।
ध्यानादुत्थाय स मुनिः कृष्णदर्शनलालसः ॥ ३२ ॥
नारायणाश्रमं प्रागाद्‌बदरीखण्डमंडितम् ।
न ददर्श हरिं देवं नरनारायणं मुनिः ॥ ३३ ॥
तदातिविस्मितो विप्रो लोकालोकगिरिं ययौ ।
सहस्रशिरसं देवं न ददर्श स तत्र वै ॥ ३४ ॥
पप्रच्छ पार्षदान् तत्र क्व गतो भगवानितः ।
न विद्मो भो वयं चोक्तो मुनिः खिन्नमनास्तदा ॥ ३५ ॥
श्वेतद्वीपं ययौ दिव्यं क्षीरसागरशोभितम् ।
तत्रापि शेषपर्यंके न ददर्श हरिं पुनः ॥ ३६ ॥
तदा मुनिः खिन्नमनाः प्रेम्णा पुलकिताननः ।
पप्रच्छ पार्षदांस्तत्र क्व गतो भगवानितः ॥ ३७ ॥
न विद्मो भो वयं चोक्तो मुनिश्चिन्तापरायणः ।
किं करोमि क्व गच्छामि दर्शनं तत्कथं भवेत् ॥ ३८ ॥
एवं ब्रुवन्मनोयायी वैकुंठं प्राप्तवांस्ततः ।
नापश्यत्तत्र देवेशं रमां वैकुंठवासिनीम् ॥ ३९ ॥
न दृष्टस्तत्र भक्तेषु मुनिनाऽसुरिणा नृप ।
ततो मुनीन्द्रो योगीन्द्रो गोलोकं स जगाम ह ॥ ४० ॥
वृंदावने निकुंजेऽपि न ददर्श परात्परम् ।
तदा मुनिः खिन्नमनाः श्रीकृष्णविरहातुरः ॥ ४१ ॥
पप्रच्छ पार्षदांस्तत्र क्व गतो भगवानितः ।
ऊचुस्तं पार्षदा गोपा वामनाण्डे मनोहरे ॥ ४२ ॥
पृश्निगर्भो यत्र जातः तत्रैव भगवान् स्वयम् ।
इत्युक्त आसुरिस्तस्मादस्मिन्नण्डे समागतः ॥ ४३ ॥
हरिं ह्यपश्यन्प्रचलन् कैलासं प्राप्तवान्मुनिः ।
तत्र स्थितं महादेव कृष्णध्यानपरायणम् ॥ ४४ ॥
नत्वा पप्रच्छ तद्‌रात्रौ खिन्नचेता महामुनिः ।


आसुरिरुवाच -
भगवन् सर्व ब्रह्माण्डं मया दृष्टमितस्ततः ॥ ४५ ॥
आवैकुण्ठाश्च गोलोकाद्‌भ्रमता तद्दिद्रुक्षुणा ।
कुत्रापि देवदेवस्य दर्शनं न बभूव मे ॥ ४६ ॥


श्रीमहादेव उवाच -
धन्यस्त्वमासुरे ब्रह्मन् कृष्णभक्तोऽस्यहैतुकः ।
दिदृक्षुणा त्वयाऽऽयासं कृत्वं वेद्मि महामुने ॥ ४७ ॥
हंसं मुनिं दुःखगतं महोदधौ
     यः सर्वतो मोचयितुं गतस्त्वरम् ।
सोऽद्यैव वृंदाविपिने सखीजनैः
     करोति रासं रसिकेश्वरः स्वयम् ॥ ४८ ॥
षाण्मासिकी चाद्य कृता निशीथिनी
     स्वमायया देववरेण भो मुने ।
अहं गमिष्यामि तदेव द्रष्टुं
     त्वमेव गच्छाशु मनोरथं यथा ॥ ४९ ॥

 

महामते ! इस प्रकार राधावल्लभ प्रभु श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्रके रासमें जो एक विचित्र घटना हुई, उसे सुनो। श्रीकृष्णके प्रिय भक्त एवं महातपस्वी एक मुनि थे, जिनका नाम 'आसुरि' था । वे नारद गिरिपर श्रीहरिके ध्यानमें तत्पर हो तपस्या करते थे। हृदय- कमलमें ज्योतिर्मण्डलके भीतर राधासहित मनोहर- मूर्ति श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका वे चिन्तन किया करते थे । एक समय रातमें जब मुनि ध्यान करने लगे, तब श्रीकृष्ण उनके ध्यानमें नहीं आये ॥ २८-३१

उन्होंने बारंबार ध्यान लगाया, किंतु सफलता नहीं मिली। इससे वे महामुनि खिन्न हो गये। फिर वे मुनि ध्यानसे उठकर श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे बदरीखण्डमण्डित नारायणाश्रमको गये; किंतु वहाँ उन मुनीश्वरको नर- नारायणके दर्शन नहीं हुए। तब अत्यन्त विस्मित हो, वे ब्राह्मण देवता लोकालोक पर्वतपर गये; किंतु वहाँ सहस्र सिरवाले अनन्तदेवका भी उन्हें दर्शन नहीं हुआ ॥ ३२-३६

तब उन्होंने वहाँके पार्षदोंसे पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हम नहीं जानते।' उनके इस प्रकार उत्तर देनेपर उस समय मुनिके मनमें बड़ा खेद हुआ। फिर वे क्षीरसागरसे सुशोभित श्वेतद्वीपमें गये; किंतु वहाँ भी शेषशय्यापर श्रीहरिका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनिका चित्त और भी खिन्न हो गया। उनका मुख प्रेमसे पुलकित दिखायी देता था । उन्होंने पार्षदोंसे पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ चले गये ?' पुनः वही उत्तर मिला— 'हमलोग नहीं जानते।' उनके यों कहनेपर मुनि भारी चिन्तामें पड़ गये और सोचने लगे- 'क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कैसे श्रीहरिका दर्शन हो ?' ।। ३६- ३८ ॥

यों कहते हुए मनके समान गतिशील आसुरिमुनि वैकुण्ठधाम में गये; किंतु वहाँ भी लक्ष्मीके साथ निवास करनेवाले भगवान् नारायणका दर्शन उन्हें नहीं हुआ । नरेश्वर ! वहाँके भक्तोंमें भी आसुरि मुनिने भगवान्‌ को नहीं देखा । तब वे योगीन्द्र मुनीश्वर गोलोकमें गये; परंतु वहाँके वृन्दावनीय निकुञ्ज में भी परात्पर श्रीकृष्णका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनि का चित्त खिन्न हो गया और वे श्रीकृष्ण-विरह से अत्यन्त व्याकुल हो गये ॥ ३९-४१

वहाँ उन्होंने पार्षदोंसे पूछा- भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' तब वहाँ रहनेवाले पार्षद गोपोंने उनसे कहा- 'वामनावतारके ब्रह्माण्डमें, जहाँ कभी पृश्निगर्भ अवतार हुआ था, वहाँ साक्षात् भगवान् पधारे हैं। ' उनके यों कहनेपर महामुनि आसुरि वहाँ से उस ब्रह्माण्ड में आये ॥ ४-४३

[वहां भी] श्रीहरिका दर्शन न होने से तीव्र गति से चलते हुए मुनि कैलास पर्वतपर गये । वहाँ महादेव जी श्रीकृष्णके ध्यान में तत्पर होकर बैठे थे । उन्हें नमस्कार करके रात्रि में खिन्न-चित्त हुए महामुनि ने पूछा ।। ४४ ॥

आसुरि बोले- भगवन् ! मैंने सारा ब्रह्माण्ड इधर-उधर छान डाला, भगवद्दर्शनकी इच्छासे वैकुण्ठसे लेकर गोलोकतकका चक्कर लगा आया, किंतु कहीं भी देवाधिदेवका दर्शन मुझे नहीं हुआ। सर्वज्ञशिरोमणे ! बताइये, इस समय भगवान् कहाँ हैं ? ॥ ४५-४६॥

श्रीमहादेवजी बोले- आसुरे ! तुम धन्य हो । ब्रह्मन् ! तुम श्रीकृष्णके निष्काम भक्त हो । महामुने ! मैं जानता हूँ, तुमने श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे महान् क्लेश उठाया है। क्षीरसागरमें रहनेवाले हंसमुनि बड़े कष्टमें पड़ गये थे । उन्हें उस क्लेशसे मुक्त करनेके लिये जो बड़ी उतावलीके साथ वहाँ गये थे, वे ही भगवान् रसिकशेखर साक्षात् श्रीकृष्ण अभी-अभी वृन्दावनमें आकर सखियोंके साथ रास-क्रीडा कर रहे हैं। मुने ! आज उन देवेश्वर ने अपनी माया से छः महीने-बराबर बड़ी रात बनायी है । मैं उसी रासोत्सव का दर्शन करने के लिये वहाँ जाऊँगा । तुम भी शीघ्र ही चलो, जिससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाय ॥४७-४९

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवाद में रासक्रीड़ा-प्रसङ्ग में 'आसुरि मुनि का उपाख्यान' नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...