रविवार, 15 सितंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌ 
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयोः
    करोति मानं बहुधा विभूतिभिः ।
प्रेङ्खं श्रिता या कुसुमाकरानुगैः
    विगीयमाना प्रियकर्म गायती ॥ १३ ॥
ददर्श तत्राखिलसात्वतां पतिं
    श्रियः पतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ।
सुनंदनंदप्रबलार्हणादिभिः
    स्वपार्षदाग्रैः परिसेवितं विभुम् ॥ १४ ॥
भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवं
    प्रसन्नहासारुणलोचनाननम् ।
किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजं
    पीतांशुकं वक्षसि लक्षितं श्रिया ॥ १५ ॥
अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं
    वृतं चतुःषोडशपञ्चशक्तिभिः ।
युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः
    स्व एव धामन् रममाणमीश्वरम् ॥ १६ ॥

उस वैकुण्ठलोकमें लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियोंके द्वारा भगवान्‌के चरणकमलोंकी अनेकों प्रकारसे सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूलेपर बैठकर अपने प्रियतम भगवान्‌की लीलाओंका गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभिसे उन्मत्त होकर भौंरे स्वयं उन लक्ष्मीजीका गुण-गान करने लगते हैं ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान्‌ विराजमान हैं। सुनन्द, नन्द, प्रबल और अहर्ण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभुकी सेवा कर रहे हैं ॥ १४ ॥ उनका मुख-कमल प्रसाद-मधुर मुसकानसे युक्त है। आँखोंमें लाल-लाल डोरियाँ हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्तको अपना सर्वस्व दे देंगे। सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कंधेपर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्ष:स्थलपर एक सुनहरी रेखाके रूपमें श्रीलक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं ॥ १५ ॥ वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसनपर विराजमान हैं। पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पञ्चभूत—ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: नित्य- सिद्ध स्वरूपभूत शक्तियोंसे वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूपसे निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरूपमें ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं ॥१६॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 14 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

सातवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन

 

कदम्बखण्डतीर्थं च लीलायुक्तं हरेः सदा ।
तस्य दर्शनमात्रेण नरो नारायणो भवेत् ॥२६॥
यत्र वै राधया रासे शृङ्गारोऽकारि मैथिल ।
तत्र गोवर्धने जातं स्थले शृङ्गारमण्डलम् ॥२७॥
येन रूपेण कृष्णेन धृतो गोवर्धनो गिरिः ।
तद्‌रूपं विद्यते तत्र नृप शृङ्गारमण्डलम् ॥२८॥
अब्दाश्चतुःसहस्राणि तथा चाष्टौ शतानि च ।
गतास्तत्र कलेरादौ क्षेत्रे शृङ्गारमण्डले ॥२९॥
गिरिराजगुहामध्यात्सर्वेषां पश्यतां नृप ।
स्वतः सिद्धं च तद्‌रूपं हरेः प्रादुर्भविष्यति ॥३०॥
श्रीनाथं देवदमनं तं वदिष्यन्ति सज्जनाः ।
गोवर्धने गिरौ राजन् सदा लीलां करोति यः ॥३१॥
ये करिष्यन्ति नेत्राभ्यां तस्य रूपस्य दर्शनम् ।
ते कृतार्था भविष्यन्ति मैथिलेन्द्र कलौ जनाः ॥३२॥
जगन्नाथो रंगनाथो द्वारकानाथ एव च ।
बद्रीनाथश्चतुष्कोणे भारतस्यापि पर्वते ॥३३॥
मध्ये गोवर्धनस्यापि नाथोऽयं वर्तते नृप ।
पवित्रे भारते वर्षे पंच नाथाः सुरेश्वराः ॥३४॥
सद्धर्ममण्डपस्तम्बा आर्तत्राणपरायणाः ।
तेषां तु दर्शनं कृत्वा नरो नारायणो भवेत् ॥३५॥
चतुर्णां भुवि नाथानां कृत्वा यात्रां नरः सुधीः ।
न पश्येद्देवदमनं स न यात्राफलं लभेत् ॥३६॥
श्रीनाथं देवदमनं पश्येद्‌गोवर्धने गिरौ ।
चतुर्णां भुवि नाथानां यात्रायाः फलमाप्नुयात् ॥३७॥
ऐरावतस्य सुरभेः पादचिह्नानि यत्र वै ।
तत्र नत्वा नरः पापी वैकुण्ठं याति मैथिल ॥३८॥
हस्तचिह्नं पादचिह्नं श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
दृष्ट्वा नत्वा नरः कश्चित्साक्षात्कृष्णपदं व्रजेत् ॥३९॥
एतानि नृप तीर्थानि कुंडाद्यायतनानि च ।
अंगानि गिरिराजस्य किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥४०॥

श्रीहरिकी लीलासे युक्त जो 'कदम्बखण्ड' नामक तीर्थ है, वहाँ सदा ही श्रीकृष्ण लीलारत रहते हैं। इस तीर्थका दर्शन करने मात्र से नर नारायण हो जाता है। मैथिल ! जहाँ गोवर्धनपर रास में श्रीराधा ने शृङ्गार धारण किया था, वह स्थान 'शृङ्गारमण्डल' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । नरेश्वर ! श्रीकृष्णने जिस रूप से गोवर्धन पर्वत को धारण किया था, उनका वही रूप शृङ्गारमण्डल – तीर्थ में विद्यमान है ॥ २६-२८

जब कलियुग के चार हजार आठ सौ वर्ष बीत जायँगे, तब शृङ्गारमण्डल क्षेत्र में गिरिराज की गुफा के मध्यभाग से सब के देखते-देखते श्रीहरिका स्वतः सिद्ध रूप प्रकट होगा ॥ २९-३०

नरेश्वर । देवताओं का अभिमान चूर्ण करनेवाले उस स्वरूपको सज्जन पुरुष 'श्रीनाथजी' के नाम से पुकारेंगे। राजन् ! गोवर्धन पर्वतपर श्रीनाथजी सदा ही लीला करते हैं। मैथिलेन्द्र ! कलियुग में जो लोग अपने नेत्रों से श्रीनाथजी के रूप का दर्शन करेंगे, वे कृतार्थ हो जायँगे ॥ ३१–३२ ॥

 

[भगवान् श्रीनाथजी] भारत के चारों कोनों में क्रमशः जगन्नाथ, श्रीरङ्गनाथ, श्रीद्वारकानाथ और श्रीबद्रीनाथके नामसे प्रसिद्ध हैं। नरेश्वर ! भारतके मध्यभागमें भी वे गोवर्धननाथके नामसे विद्यमान हैं। इस प्रकार पवित्र भारतवर्षमें ये पाँचों नाथ देवताओंके भी स्वामी हैं। वे पाँचों नाथ सद्धर्मरूपी मण्डपके पाँच खंभे हैं और सदा आर्तजनोंकी रक्षामें तत्पर रहते हैं। उन सबका दर्शन करके नर नारायण हो जाता है ॥ ३३-३५

जो विद्वान् पुरुष इस भूतलपर चारों नाथोंकी यात्रा करके मध्यवर्ती देवदमन श्रीगोवर्धननाथका दर्शन नहीं करता, उसे यात्राका फल नहीं मिलता। जो गोवर्धन पर्वतपर देवदमन श्रीनाथका दर्शन कर लेता है, उसे पृथ्वीपर चारों नाथोंकी यात्राका फल प्राप्त हो जाता है । ३ - ३७ ॥

मैथिल ! जहाँ ऐरावत हाथी और सुरभि गौके चरणोंके चिह्न हैं, वहाँ नमस्कार करके पापी मनुष्य भी वैकुण्ठधाम में चला जाता है। जो कोई भी मनुष्य महात्मा श्रीकृष्णके हस्तचिह्नका और चरणचिह्नका दर्शन कर लेता है, वह साक्षात् श्रीकृष्णके धाममें जाता है। नरेश्वर ! ये तीर्थ, कुण्ड और मन्दिर गिरिराजके अङ्गभूत हैं; उनको बता दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो । ३८-४० ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद-बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीगिरिराजके तीर्थोका वर्णन' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌ 
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो
    जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः ।
अतप्यत स्माखिललोकतापनं
    तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः ॥ ८ ॥
तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः
    सन्दर्शयामास परं न यत्परम् ।
व्यपेतसङ्क्लेशविमोहसाध्वसं
    स्वदृष्टवद्‌भिः विबुधैरभिष्टुतम् ॥ ९ ॥
प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः
    सत्त्वं च मिश्रं न च कालविक्रमः ।
न यत्र माया किमुतापरे हरेः
    अनुव्रता यत्र सुरासुरार्चिताः ॥ १० ॥
श्यामावदाताः शतपत्रलोचनाः
    पिशङ्गवस्त्राः सुरुचः सुपेशसः ।
सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणि
    प्रवेकनिष्काभरणाः सुवर्चसः ।
प्रवालवैदूर्यमृणालवर्चसः
    परिस्फुरत्कुण्डल मौलिमालिनः ॥ ११ ॥
भ्राजिष्णुभिर्यः परितो विराजते
    लसद्विमानावलिभिर्महात्मनाम् ।
विद्योतमानः प्रमदोत्तमाद्युभिः
    सविद्युदभ्रावलिभिर्यथा नभः ॥ १२ ॥

ब्रह्माजी तपस्वियोंमें सबसे बड़े तपस्वी हैं। उनका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने उस समय एक सहस्र दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्र चित्तसे अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियोंको वशमें करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकों को प्रकाशित करनेमें समर्थ हो सके ॥ ८ ॥ उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोकमें किसी भी प्रकारके क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उसके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उसकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ९ ॥ वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्त्वगुण भी नहीं है। वहाँ न काल की दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवान्‌ के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं ॥ १० ॥ उनका उज्ज्वल आभा से युक्त श्याम शरीर, शतदल कमल के समान कोमल नेत्र और पीले रंगके वस्त्रसे शोभायमान है। अङ्ग-अङ्गसे राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलता की मूर्ति हैं। सभी के चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्ण के प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनकी छवि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमल के उज्ज्वल तन्तु के समान है। उनके कानों में कुण्डल, मस्तकपर मुकुट और कण्ठ में मालाएँ शोभाय- मान हैं ॥ ११ ॥ जिस प्रकार आकाश बिजली सहित बादलों से शोभायमान होता है, वैसे ही वह लोक मनोहर कामिनियों की कान्ति से युक्त महात्माओं के दिव्य तेजोमय विमानों से स्थान-स्थानपर सुशोभित होता रहता है ॥ १२ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन

 

दृष्ट्वा शक्रपदं याति नत्वा ब्रह्मपदं च तत् ।
विलुंठन् यस्य रजसा साक्षाद्‌विष्णुपदं व्रजेत् ॥१३॥
गोपानामुष्णिषाण्यत्र चोरयामास माधवः ।
औष्णिषं नाम तत्तीर्थं महापापहरं गिरौ ॥१४॥
तत्रैकदा वै दधिविक्रयार्थं
विनिर्गतो गोपवधूसमूहः ।
श्रुत्वा क्वणन्नूपुरशब्दमारा-
द्रुरोध तन्मार्गमनंगमोही ॥१५॥
वंशीधरो वेत्रवरेण गोपैः
पुरश्च तासां विनिधाय पादम् ।
मह्यं करादानधनाय दानं
देहीति गोपीर्निजगाद मार्गे ॥१६॥


गोप्य ऊचुः -
वक्रस्त्वमेवासि समास्थितः पथि
गोपार्भकैर्गोरसलम्पटो भृशम् ।
मात्रा च पित्रा सह कारयामो
बलाद्‌भवन्तं किल कंसबन्धने ॥१७॥


श्रीभगवानुवाच -
कंसं हनिष्यामि महोग्रदण्डं
सबांधवं मे शपथो गवां च ।
एवं करिष्यामि यदोः पुरे बला-
न्नेष्ये सदाहं गिरिराजभूमेः ॥१८॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा दधिपात्राणि बालैर्नीत्वा पृथक् पृथक् ।
भूपृष्ठे पोथयामास सानन्दं नन्दनन्दनः ॥१९॥
अहो एष परं धृष्टो निर्भयो नन्दनन्दनः ।
निरंकुशो भाषणीयो वने वीरः पुरेऽबलः ॥२०॥
ब्रुवामहे यशोदायै नन्दाय च किलाद्य वै ।
एवं वदन्त्यस्ता गोप्यः सस्मिताः प्रययुर्गृहान् ॥२१॥
नीपपालाशपत्राणां कृत्वा द्रोणानि माधवः ।
जघास बालकैः सार्द्धं पिच्छलानि दधीनि च ॥२२॥
द्रोणाकाराणि पत्राणि बभूवुः शाखिनां तदा ।
तत्क्षेत्रं च महापुण्यं द्रोणं नाम नृपेश्वर ॥२३॥
दधिदानं तत्र कृत्वा पीत्वा पत्रधृतं दधि ।
नमस्कुर्यान्नरस्तस्य गोलोकान्न च्युतिर्भवेत् ॥२४॥
नेत्रे त्वाच्छाद्य यत्रैव लीनोऽभून्माधवोऽर्भकैः ।
तत्र तीर्थं लौकिकं च जातं पापप्रणाशनम् ॥२५॥

वहाँ 'शक्रपद' और 'ब्रह्मपद' नामक तीर्थ हैं, जिनका दर्शन और जिन्हें प्रणाम करके मनुष्य इन्द्रलोक और ब्रह्मलोकमें जाता है। जो वहाँकी धूलमें लोटता है, वह साक्षात् विष्णुपदको प्राप्त होता है । जहाँ माधवने गोपोंकी पगड़ियाँ चुरायी थीं, वह महापापहारी तीर्थ उस पर्वतपर 'औष्णीष' नामसे प्रसिद्ध है ॥ १३-१४

एक समय वहाँ दधि बेचनेके लिये गोपवधुओंका समुदाय आ निकला। उनके नूपुरोंकी झनकार सुनकर मदनमोहन श्रीकृष्णने निकट आकर उनकी राह रोक ली । वंशी और वेत्र धारण किये श्रीकृष्णने ग्वाल- बालोंद्वारा उनको चारों ओरसे घेर लिया और स्वयं उनके आगे पैर रखकर मार्गमें उन गोपियोंसे बोले- 'इस मार्गपर हमारी ओरसे कर वसूल किया जाता है, सो तुमलोग हमारा दान दे दो' ॥ १५-१६ ॥

गोपियाँ बोलीं- तुम बड़े टेढ़े हो, जो ग्वाल- बालोंके साथ राह रोककर खड़े हो गये ? तुम बड़े गोरस - लम्पट हो । हमारा रास्ता छोड़ दो, नहीं तो माँ-बापसहित तुमको हम बलपूर्वक राजा कंसके कारागारमें डलवा देंगी ॥ १७ ॥

श्रीभगवान् ने कहा- अरी! कंसका क्या डर अरी ! कंसका क्या डर दिखाती हो ? मैं गौओंकी शपथ खाकर कहता हूँ, महान् उग्रदण्ड धारण करनेवाले कंसको मैं उसके बन्धु बान्धव सहित मार डालूँगा; अथवा मैं उसे मथुरासे गोवर्धनकी घाटीमें खींच लाऊँगा ।। १८ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर बालकोंद्वारा पृथक्-पृथक् सबके दहीपात्र मँगवाकर नन्दनन्दनने बड़े आनन्दके साथ भूमिपर पटक दिये। गोपियाँ परस्पर कहने लगीं— 'अहो ! यह नन्दका लाला तो बड़ा ही ढीठ और निडर है, निरङ्कुश है। । इसके साथ तो बात भी नहीं करनी चाहिये । यह गाँवमें तो निर्बल बना रहता है और वनमें आकर वीर बन जाता है। हम आज ही चलकर यशोदाजी और नन्द- रायजीसे कहती हैं ।' — यों कहकर गोपियाँ मुस्कराती हुई अपने घरको लौट गयीं ॥ १९ – २१ ॥

इधर माधवने कदम्ब और पलाशके पत्तेके दोने बनाकर बालकोंके साथ चिकना चिकना दही ले लेकर खाया। तबसे वहाँके वृक्षोंके पत्ते दोनेके आकारके होने लग गये। नृपेश्वर ! वह परम पुण्य क्षेत्र 'द्रोण' नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ २२-२३

जो मनुष्य वहाँ दहीं दान करके स्वयं भी पत्ते में रखे हुए दही को पीकर उस तीर्थ को नमस्कार करता है, उसकी गोलोक से कभी च्युति नहीं होती । जहाँ नेत्र मूँदकर माधव बालकों के साथ लुका-छिपी के खेल खेलते थे, वहाँ 'लौकिक' नामक पापनाशन तीर्थ हो गया ॥ २४-२५

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌ के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवानृतम् ।
ब्रह्मणे दर्शयन् रूपं अव्यलीकव्रतादृतः ॥ ४ ॥
स आदिदेवो जगतां परो गुरुः
    स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत ।
तां नाध्यगछ्रद्दृशमत्र सम्मतां
    प्रपञ्चनिर्माणविधिर्यया भवेत् ॥ ५ ॥
स चिन्तयन् द्व्यक्षरमेकदाम्भसि
    उपाशृणोत् द्विर्गदितं वचो विभुः ।
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं
    निष्किञ्चनानां नृप यद्धनं विदुः ॥ ६ ॥
निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षया दिशो
    विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः ।
स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं
    तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः ॥ ७ ॥

ब्रह्माजी की निष्कपट तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ ने उन्हें अपने रूपका दर्शन कराया और आत्मतत्त्वके ज्ञानके लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तुका उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) ॥ ४ ॥
तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रह्मा जी अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि करनेकी इच्छा से विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञानदृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि व्यापारके लिये वाञ्छनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई ॥ ५ ॥ एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलयके समुद्र में उन्होंने व्यञ्जनों के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को—‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित्‌ ! महात्मालोग इस तपको ही त्यागियोंका धन मानते हैं ॥ ६ ॥ यह सुनकर ब्रह्माजी ने वक्ता को देखने की इच्छासे चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमलपर बैठ गये और ‘मुझे तप करने की प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चयकर और उसी में अपना हित समझकर उन्होंने अपने मनको तपस्यामें लगा दिया ॥ ७ ॥ 

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गुरुवार, 12 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
कति मुख्यानि तीर्थानि गिरिराजे महात्मनि ।
एतद्‍ब्रूहि महायोगिन् साक्षात्त्वं दिव्यदर्शनः ॥१॥


श्रीनारद उवाच -
राजन् गोवर्धनः सर्वः सर्वतीर्थवरः स्मृतः ।
वृन्दावनं च गोलोकमुकुटोऽद्रिः प्रपूजितः ॥२॥
गोपगोपीगवां रक्षाप्रदः कृष्णप्रियो महान् ।
पूर्णब्रह्मातपत्रो यः यस्मात्तीर्थवरस्तु कः ॥३॥
इन्द्रयागं विनिर्भर्स्त्य सर्वैर्निजजनैः सह ।
यत्पूजनं समारेभे भगवान् भुवनेश्वरः ॥४॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥५॥
यस्मिन्स्थितः सदा क्रीडामर्भकैः सह मैथिल ।
करोति तस्य माहात्म्यं वक्तुं नालं चतुर्मुखः ॥६॥
यत्र वै मानसी गंगा महापापौघनाशिनी ।
गोविन्दकुण्डं विशदं शुभं चन्द्रसरोवरम् ॥७॥
राधाकुण्डः कृष्णकुण्डो ललिताकुण्ड एव च ।
गोपालकुंडस्तत्रैव कुसुमाकर एव च ॥८॥
श्रीकृष्णमौलिसंस्पर्शान्मौलिचिह्ना शिलाऽभवत् ।
तस्या दर्शनमात्रेण देवमौलिर्भवेज्जनः ॥९॥
यस्यां शिलायां कृष्णेन चित्राणि लिखितानि च ।
अद्यापि चित्रिता पुण्या नाम्ना चित्रशिला गिरौ ॥१०॥
यां शिलामर्भकैः कृष्णो वादयन् क्रीडने रतः ।
वादनी सा शिला जाता महापापौघनाशिनी ॥११॥
यत्र श्रीकृष्णचन्द्रेण गोपालैः सह मैथिल ।
कृता वै कंदुकक्रीडा तत्क्षेत्रं कंदुकं स्मृतम् ॥१२॥

बहुलाश्वने पूछा – महायोगिन् ! आप साक्षात् दिव्यदृष्टिसे सम्पन्न हैं; अतः यह बताइये कि महात्मा गिरिराजके आस-पास अथवा उनके ऊपर कितने मुख्य तीर्थ हैं ? ॥

श्रीनारद बोले- राजन् । समूचा गोवर्धन पर्वत ही सब तीर्थोंसे श्रेष्ठ माना जाता है। वृन्दावन साक्षात् गोलोक है और गिरिराजको उसका मुकुट बताकर सम्मानित किया गया है। वह पर्वत गोपों, गोपियों तथा गौओंका रक्षक एवं महान् कृष्णप्रिय है । जो साक्षात् पूर्णब्रह्मका छत्र बन गया, उससे श्रेष्ठ तीर्थ दूसरा कौन है। ॥ २-३

भुवनेश्वर एवं साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णने, जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकके स्वामी तथा परात्पर पुरुष हैं, अपने समस्त जनोंके साथ इन्द्रयागको धता बताकर जिसका पूजन आरम्भ किया, उस गिरिराजसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा । मैथिल ! जिस पर्वतपर स्थित हो भगवान् श्रीकृष्ण सदा ग्वाल-बालोंके साथ क्रीड़ा करते हैं, उसकी महिमाका वर्णन करनेमें तो चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं ॥ ४-६

जहाँ बड़े-बड़े पापों की राशि का नाश करनेवाली मानसी गङ्गा विद्यमान हैं, विशद गोविन्दकुण्ड तथा शुभ्र चन्द्रसरोवर शोभा पाते हैं, जहाँ राधाकुण्ड, कृष्णकुण्ड, ललिताकुण्ड गोपाल- कुण्ड तथा कुसुमसरोवर सुशोभित हैं, उस गोवर्धनकी महिमाका कौन वर्णन कर सकता है। श्रीकृष्णके मुकुटका स्पर्श पाकर जहाँकी शिला मुकुटके चिह्न से सुशोभित हो गयी, उस शिलाका दर्शन करनेमात्रसे मनुष्य देवशिरोमणि हो जाता है। जिस शिलापर श्रीकृष्णने चित्र अङ्कित किये हैं, वह चित्रित और पवित्र 'चित्रशिला' नामकी शिला आज भी गिरिराजके शिखरपर दृष्टिगोचर होती है ॥ ७-१०

बालकोंके साथ क्रीड़ा में संलग्न श्रीकृष्णने जिस शिलाको बजाया था, वह महान् पापसमूहोंका नाश करनेवाली शिला 'वादिनी शिला' (बाजनी शिला) के नामसे प्रसिद्ध हुई । मैथिल ! जहाँ श्रीकृष्णने ग्वाल-बालोंके साथ कन्दुक-क्रीड़ा की थी, उसे 'कन्दुकक्षेत्र' कहते हैं ॥ ११-१२

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌ 
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

श्रीशुक उवाच ।
आत्ममायामृते राजन् पन्परस्यानुभवात्मनः ।
न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा ॥ १ ॥
बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया ।
रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते ॥ २ ॥
यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन् कालमाययोः ।
रमेत गतसम्मोहः त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम् ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! जैसे स्वप्नमें देखे जानेवाले पदार्थोंके साथ उसे देखनेवालेका कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही देहादिसे अतीत अनुभवस्वरूप आत्माका मायाके बिना दृश्य पदार्थोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ॥ १ ॥ विविध रूपवाली मायाके कारण वह विविध रूपवाला प्रतीत होता है, और जब उसके गुणोंमें रम जाता है तब ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार मानने लगता है ॥ २ ॥ किन्तु जब यह गुणोंको क्षुब्ध करनेवाले काल और मोह उत्पन्न करनेवाली माया—इन दोनोंसे परे अपने अनन्त स्वरूपमें मोहरहित होकर रमण करने लगता है—आत्माराम हो जाता है, तब यह ‘मैं, मेरा’ का भाव छोडक़र पूर्ण उदासीन—गुणातीत हो जाता है ॥ ३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 11 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

छठा अध्याय (पोस्ट 03)

 

गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके  लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि भेजना

 

श्रीनारद उवाच -
इत्थं विचार्य नन्दोऽपि कृष्णं पप्रच्छ सादरम् ।
प्रहसन् भगवान्नन्दं प्राह गोवर्धनोद्धरः ॥२५॥
श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥२६॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वाथ स्वात्मजेनोक्तं तं निर्भर्त्स्य व्रजेश्वरः ।
तानि नेतुं तत्सहितस्तत्क्षेत्राणि जगाम ह ॥२७॥
तत्र मुक्ताफलानां तु शाखिनः शतशः शुभाः ।
दृश्यन्ते दीर्घवपुषो हरित्पल्लवशोभिताः ॥२८॥
मुक्तानां स्तबकानां तु कोटिशः कोटिशो नृप ।
संघा विलंबिता रेजुर्ज्योतींषीव नभःस्थले ॥२९॥
तदाऽतिहर्षितो नन्दो ज्ञात्वा कृष्णं परेश्वरम् ।
मुक्ताफलानि दिव्यानि पूर्वस्थूलसमानि च ॥३०॥
तेषां तु कोटिभाराणि निधाय शकटेषु च ।
ददौ तेभ्यो वृणानेभ्यो नन्दराजो व्रजेश्वरः ॥३१॥
ते गृहीत्वाऽथ तत्सर्वं वृषभानुवरं गताः ।
सर्वेषां शृण्वतां नन्दवैभवं प्रजगुर्नृप ॥३२॥
तदाऽतिविस्मिताः सर्वे ज्ञात्वा नन्दसुतं हरिम् ।
वृषभानुवरं नेमुर्निःसन्देहा व्रजौकसः ॥३३॥
राधा हरेः प्रिया ज्ञाता राधायाश्च प्रियो हरिः ।
ज्ञातो व्रजजनैः सर्वैस्तद्दिनान्मैथिलेश्वर ॥३४॥
मुक्ताक्षेपः कृतो यत्र हरिणा नन्दसूनुना ।
मुक्तासरोवरस्तत्र जातो मैथिल तीर्थराट् ॥३५॥
एकं मुक्ताफलस्यापि दानं तत्र करोति यः ।
लक्षमुक्तादानफलं समाप्नोति न संशयः ॥३६॥
एवं ते कथितो राजन् गिरिराजमहोत्सवः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदो नॄणां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥३७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार विचारकर नन्द ने भी श्रीकृष्णसे उन मोतियोंके विषय में आदरपूर्वक पूछा। तब जोरसे हँसते हुए गोवर्धनधारी भगवान् नन्द से बोले-- ॥२५॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा- बाबा ! हम सारे गोप किसान हैं, जो खेतोंमें सब के बीज बोया करते अतः हमने खेत में मोती के बीज बिखेर दिये हैं ॥ २६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! बेटेके मुँहसे यह बात सुनकर व्रजेश्वर नन्दने उसे डाँट बतायी और उन सबको चुन- बीनकर लानेके लिये उसके साथ खेतोंमें गये । वहाँ मुक्ताफलके सैकड़ों सुन्दर वृक्ष दिखायी देने लगे, जो हरे-हरे पल्लवोंसे सुशोभित और विशालकाय थे ॥ २७-२८

नरेश्वर ! जैसे आकाशमें झुंड- के झुंड तारे शोभा पाते हैं, उसी प्रकार उन वृक्षोंमें कोटि-कोटि मुक्ताफलोंके गुच्छे समूह के समूह लटके हुए सुशोभित हो रहे थे। तब हर्षसे भरे हुए व्रजेश्वर नन्दराजने श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर पहलेके समान ही मोटे-मोटे दिव्य मुक्ताफल उन वृक्षोंसे तोड़ लिये और उनके एक कोटि भार गाड़ियों- पर लदवाकर उन वर-वरणकर्ताओंको दे दिये । नरेश्वर ! वह सब लेकर वे वरदर्शी लोग वृष- भानुवरके पास गये और सबके सुनते हुए नन्दराजके अनुपम वैभवका वर्णन करने लगे । २ – ३२ ॥

उस समय सब गोप बड़े विस्मित हुए। नन्द- नन्दनको साक्षात् श्रीहरि जानकर समस्त व्रज- वासियोंका संशय दूर हो गया और उन्होंने वृषभानुवरको प्रणाम किया। मिथिलेश्वर ! उसी दिन से व्रजके सब लोगोंने यह जान लिया कि श्रीराधा श्रीहरिकी प्रियतमा हैं और श्रीहरि श्रीराधाके प्राणवल्लभ हैं ॥ ३३-३४

 मिथिलापते ! जहाँ नन्दनन्दन श्रीहरिने मोती बिखेरे थे, वहाँ 'मुक्ता-सरोवर' प्रकट हो गया, जो तीर्थोंका राजा है। जो वहाँ एक मोती का भी दान करता है, वह लाख मोतियोंके दानका फल पाता है, इसमें संशय नहीं है। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे गिरिराज-महोत्सवका वर्णन किया, जो मनुष्योंके लिये भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३--३७॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीहरिकी भगवत्ताका परीक्षण' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ || ६ ||

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

राजा परीक्षित् के विविध प्रश्न 

यथात्मतन्त्रो भगवान् विक्रीडत्यात्ममायया ।
विसृज्य वा यथा मायां उदास्ते साक्षिवद्विभुः ॥ २३ ॥
सर्वमेतच्च भगवन् पृच्छतो मेऽनुपूर्वशः ।
तत्त्वतोऽर्हस्युदाहर्तुं प्रपन्नाय महामुने ॥ २४ ॥
अत्र प्रमाणं हि भवान् परमेष्ठी यथात्मभूः ।
अपरे चानुतिष्ठन्ति पूर्वेषां पूर्वजैः कृतम् ॥ २५ ॥
न मेऽसवः परायन्ति ब्रह्मन् अनशनादमी ।
पिबतोऽच्युतपीयूषं अन्यत्र कुपिताद् द्विजात् ॥ २६ ॥

श्रीसूत उवाच
स उपामन्त्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पतेः ।
ब्रह्मरातो भृशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि ॥ २७ ॥
प्राह भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
ब्रह्मणे भगवत्प्रोक्तं ब्रह्मकल्प उपागते ॥ २८ ॥
यद्यत् परीक्षिदृषभः पाण्डूनामनुपृच्छति ।
आनुपूर्व्येण तत्सर्वं आख्यातुमुपचक्रमे ॥ २९ ॥

भगवान्‌ तो परम स्वतन्त्र हैं। वे अपनी मायासे किस प्रकार क्रीड़ा करते हैं और उसे छोडक़र साक्षीके समान उदासीन कैसे हो जाते हैं ? ॥ २३ ॥ भगवन् ! मैं यह सब आपसे पूछ रहा हूँ। मैं आपकी शरणमें हूँ। महामुने ! आप कृपा करके क्रमश: इनका तात्त्विक निरूपण कीजिये ॥ २४ ॥ इस विषयमें आप स्वयम्भू ब्रह्माके समान परम प्रमाण हैं। दूसरे लोग तो अपनी पूर्वपरम्परासे सुनी-सुनायी बातोंका ही अनुष्ठान करते हैं ॥ २५ ॥ ब्रह्मन् आप मेरी भूख-प्यासकी चिन्ता न करें। मेरे प्राण कुपित ब्राह्मणके शाप के अतिरिक्त और किसी कारणसे निकल नहीं सकते; क्योंकि मैं आपके मुखारविन्दसे निकलनेवाली भगवान्‌ की अमृतमयी लीला-कथा का पान कर रहा हूँ ॥ २६ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्‌ ने संतोंकी सभामें भगवान्‌ की लीलाकथा सुनाने के लिये इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ २७ ॥ उन्होंने उन्हें वही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत-महापुराण सुनाया, जो ब्राह्मकल्पके आरम्भमें स्वयं भगवान्‌ ने ब्रह्माजीको सुनाया था ॥ २८ ॥ पाण्डुवंशशिरोमणि परीक्षित्‌ ने उनसे जो-जो प्रश्न किये थे, वे उन सबका उत्तर क्रमश: देने लगे ॥ २९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 10 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

छठा अध्याय (पोस्ट 02)

 

गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके  लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि भेजना

 

वृणाना ऊचुः -
विवाहयोग्यां नवकंजनेत्रां
कोटीन्दुबिम्बद्युतिमादधानाम् ।
विज्ञाय राधां वृषभानुमुख्य-
श्चक्रे विचारं सुवरं विचिन्वन् ॥१३॥
तवांगजं दिव्यमनंगमोहनं
गोवर्द्धनोद्धारणदोःसामुद्‌भटम् ।
संवीक्ष्य चास्मान्वृषभानुवंदितः
संप्रेषयामास विशाम्पते प्रभो ॥१४॥
वरस्य चांके भरणाय पूर्वं
मुक्ताफलानां निचयं गृहाण ।
इतश्च कन्यार्थमलं प्रदेहि
सैषा हि चास्मत्कुलजा प्रसिद्धिः ॥१५॥


श्रीनारद उवाच -
दृष्ट्वा द्रव्यं परो नन्दो विस्मितोऽपि विचारयन् ।
प्रष्टुं यशोदां तत्तुल्यं नीत्वा चान्तःपुरं ययौ ॥१६॥
चिरं दध्यौ तदा नन्दो यशोदा च यशस्विनी ।
एतन्मुक्तासमानं तु द्रव्यं नास्ति गृहे मम ॥१७॥
लोके लज्जा गता सर्वा हासः स्याच्चेद्धनोद्‌धृतम् ।
किं कर्तव्यं तत्प्रति यच्छ्रीकृष्णोद्वाहकर्मणि ॥१८॥
ततोऽयोग्यं तद्‍ग्रहणं पश्चात्कार्यं धनागमे ।
एवं चिन्तयतस्तस्य नन्दस्यैव यशोदया ॥१९॥
अलक्ष्य आगतस्तत्र भगवान्वृजिनार्दनः ।
नीत्वा दामशतं तेषु बहिःक्षेत्रेषु सर्वतः ॥२०॥
मुक्ताफलानि चैकैकम्प्राक्षिपत्स्वकरेण वै ।
यथा बीजानि चान्नानां स्वक्षेत्रेषु कृषीवलः ॥२१॥
अथ नन्दोऽपि गणयन् कलिकानिचयं पुनः ।
शतं न्यूनं च तद्‍दृष्ट्वा सन्देहं स जगाम ह ॥२२॥


श्रीनन्द उवाच -
नास्ति पूर्वं यत्समानं तत्रापि न्यूनतां गतम् ।
अहो कलंको भविता ज्ञातिषु स्वेषु सर्वतः ॥२३॥
अथवा क्रीडनार्थ हि कृष्णो यदि गृहीतवान् ।
बलदेवोऽथवा बालस्तौ पृच्छे दीनमानसः ॥२४॥

वर-वरणकर्ता बोले- नन्दराज ! जिसके नेत्र नूतन विकसित कमलके समान शोभा पाते हैं तथा जो मुखमें करोड़ों चन्द्रमण्डलोंकी-सी कान्ति धारण करती है, उस अपनी पुत्री श्रीराधाको विवाहके योग्य जानकर वृषभानुवरने सुन्दर वरकी खोज करते हुए यह विचार किया है कि तुम्हारे पुत्र मदनमोहन श्रीकृष्ण दिव्य वर हैं। गोवर्धन पर्वतको उठाने में समर्थ, दिव्य भुजाओंसे सम्पन्न तथा उद्भट वीर हैं। प्रभो ! वैश्य-प्रवर !! यह सब देख और सोच-विचारकर वृषभानुवन्दित वृषभानुवरने हम सबको यहाँ भेजा हैं। आप बरकी गोद भरनेके लिये पहले कन्या- पक्षकी ओरसे यह मौक्तिकराशि ग्रहण कीजिये । फिर इधरसे भी कन्याकी गोद भरनेके लिये पर्याप्त मौक्तिकराशि प्रदान कीजिये । यही हमारे कुलकी प्रसिद्ध रीति है । १३ – १५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस द्रव्य- राशिको देखकर उत्कृष्ट नन्दराज बड़े विस्मित हुए; तो भी वे कुछ विचारकर यशोदाजीसे 'उसके तुल्य रत्न- राशि है या नहीं' इस बातको पूछनेके लिये वह सब सामान लेकर अन्तःपुरमें गये। वहाँ उस समय नन्द और यशस्विनी यशोदाने चिरकालतक विचार किया, किंतु (अन्ततोगत्वा) इसी निष्कर्षपर पहुँचे कि 'इस मौक्तिकराशि के बराबर दूसरी कोई द्रव्यराशि मेरे घर में नहीं है । आज लोगों में हमारी सारी लाज गयी । हम लोगोंकी सब ओर हँसी उड़ायी जायगी। इस धनके बदले में हम दूसरा कौन-सा धन दें ? क्या करें ? श्रीकृष्ण के इस विवाह के निमित्त हमारे द्वारा क्या किया जाना चाहिये ? ।। १६ – १

पहले तो जो कुछ वरके लिये आया है, उसे ग्रहण कर लेना चाहिये। पीछे अपने पास धन आनेपर वधूके लिये उपहार भेजा जायगा।' ऐसा विचार करते हुए नन्द और यशोदाजीके पास भगवान् अघमर्दन श्रीकृष्ण अलक्षितभावसे ही वहाँ आ गये। उन मौक्तिक- हारोंमेंसे सौ हार उन्होंने घरसे बाहर खेतोंमें ले जाकर अपने हाथसे मोतीका एक-एक दाना लेकर, उन्होंने उसी भाँति सारे खेतमें छींट दिया, जैसे किसान अपने खेतोंमें अनाजके दाने बिखेर देता है । तदनन्तर नन्द भी जब उन मुक्ता- मालाओंकी गणना करने लगे, तब उनमें सौ मालाओंकी कमी देखकर उनके मनमें संदेह हुआ ।। ९ – २ ॥

नन्दजी बोले - हाय ! पहले तो मेरे घरमें जिस रत्नराशिके समान दूसरी कोई रत्नराशि थी ही नहीं, उसमें भी अब सौकी कमी हो गयी। अहो ! चारों ओर से भाई-बन्धुओं के बीच मुझपर बड़ा भारी कलङ्क पोता जायगा । अथवा यदि श्रीकृष्ण या बलरामने खेलनेके लिये उसमेंसे कुछ मोती निकाल लिये हों तो अब दीनचित्त होकर मैं उन्हीं दोनों बालकोंसे पूछूंगा ॥ २३-२४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...