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रविवार, 15 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०४)
शनिवार, 14 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन
कदम्बखण्डतीर्थं च लीलायुक्तं हरेः
सदा ।
तस्य दर्शनमात्रेण नरो नारायणो भवेत् ॥२६॥
यत्र वै राधया रासे शृङ्गारोऽकारि मैथिल ।
तत्र गोवर्धने जातं स्थले शृङ्गारमण्डलम् ॥२७॥
येन रूपेण कृष्णेन धृतो गोवर्धनो गिरिः ।
तद्रूपं विद्यते तत्र नृप शृङ्गारमण्डलम् ॥२८॥
अब्दाश्चतुःसहस्राणि तथा चाष्टौ शतानि च ।
गतास्तत्र कलेरादौ क्षेत्रे शृङ्गारमण्डले ॥२९॥
गिरिराजगुहामध्यात्सर्वेषां पश्यतां नृप ।
स्वतः सिद्धं च तद्रूपं हरेः प्रादुर्भविष्यति ॥३०॥
श्रीनाथं देवदमनं तं वदिष्यन्ति सज्जनाः ।
गोवर्धने गिरौ राजन् सदा लीलां करोति यः ॥३१॥
ये करिष्यन्ति नेत्राभ्यां तस्य रूपस्य दर्शनम् ।
ते कृतार्था भविष्यन्ति मैथिलेन्द्र कलौ जनाः ॥३२॥
जगन्नाथो रंगनाथो द्वारकानाथ एव च ।
बद्रीनाथश्चतुष्कोणे भारतस्यापि पर्वते ॥३३॥
मध्ये गोवर्धनस्यापि नाथोऽयं वर्तते नृप ।
पवित्रे भारते वर्षे पंच नाथाः सुरेश्वराः ॥३४॥
सद्धर्ममण्डपस्तम्बा आर्तत्राणपरायणाः ।
तेषां तु दर्शनं कृत्वा नरो नारायणो भवेत् ॥३५॥
चतुर्णां भुवि नाथानां कृत्वा यात्रां नरः सुधीः ।
न पश्येद्देवदमनं स न यात्राफलं लभेत् ॥३६॥
श्रीनाथं देवदमनं पश्येद्गोवर्धने गिरौ ।
चतुर्णां भुवि नाथानां यात्रायाः फलमाप्नुयात् ॥३७॥
ऐरावतस्य सुरभेः पादचिह्नानि यत्र वै ।
तत्र नत्वा नरः पापी वैकुण्ठं याति मैथिल ॥३८॥
हस्तचिह्नं पादचिह्नं श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
दृष्ट्वा नत्वा नरः कश्चित्साक्षात्कृष्णपदं व्रजेत् ॥३९॥
एतानि नृप तीर्थानि कुंडाद्यायतनानि च ।
अंगानि गिरिराजस्य किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥४०॥
श्रीहरिकी लीलासे युक्त जो 'कदम्बखण्ड' नामक तीर्थ
है, वहाँ सदा ही श्रीकृष्ण लीलारत रहते हैं। इस तीर्थका दर्शन करने मात्र से नर नारायण हो जाता है। मैथिल ! जहाँ गोवर्धनपर रास में श्रीराधा ने शृङ्गार धारण किया था, वह स्थान
'शृङ्गारमण्डल' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । नरेश्वर ! श्रीकृष्णने
जिस रूप से गोवर्धन पर्वत को धारण किया
था, उनका वही रूप शृङ्गारमण्डल – तीर्थ में विद्यमान है ॥ २६-२८ ॥
जब कलियुग के चार हजार आठ सौ
वर्ष बीत जायँगे, तब शृङ्गारमण्डल क्षेत्र में गिरिराज की गुफा के मध्यभाग से
सब के देखते-देखते श्रीहरिका स्वतः सिद्ध रूप प्रकट होगा ॥ २९-३० ॥
नरेश्वर । देवताओं का अभिमान
चूर्ण करनेवाले उस स्वरूपको सज्जन पुरुष 'श्रीनाथजी' के नाम से
पुकारेंगे। राजन् ! गोवर्धन पर्वतपर श्रीनाथजी सदा ही लीला करते हैं। मैथिलेन्द्र
! कलियुग में जो लोग अपने नेत्रों से श्रीनाथजी के रूप का दर्शन करेंगे, वे कृतार्थ हो जायँगे
॥ ३१–३२ ॥
[भगवान् श्रीनाथजी] भारत के चारों कोनों में क्रमशः जगन्नाथ, श्रीरङ्गनाथ, श्रीद्वारकानाथ और श्रीबद्रीनाथके
नामसे प्रसिद्ध हैं। नरेश्वर ! भारतके मध्यभागमें भी वे गोवर्धननाथके नामसे विद्यमान
हैं। इस प्रकार पवित्र भारतवर्षमें ये पाँचों नाथ देवताओंके भी स्वामी हैं। वे पाँचों
नाथ सद्धर्मरूपी मण्डपके पाँच खंभे हैं और सदा आर्तजनोंकी रक्षामें तत्पर रहते हैं।
उन सबका दर्शन करके नर नारायण हो जाता है ॥ ३३-३५ ॥
जो विद्वान् पुरुष इस भूतलपर चारों नाथोंकी यात्रा
करके मध्यवर्ती देवदमन श्रीगोवर्धननाथका दर्शन नहीं करता, उसे यात्राका फल नहीं मिलता।
जो गोवर्धन पर्वतपर देवदमन श्रीनाथका दर्शन कर लेता है, उसे पृथ्वीपर चारों नाथोंकी
यात्राका फल प्राप्त हो जाता है । ३६ - ३७ ॥
मैथिल ! जहाँ ऐरावत हाथी और सुरभि गौके चरणोंके चिह्न
हैं, वहाँ नमस्कार करके पापी मनुष्य भी वैकुण्ठधाम में चला जाता
है। जो कोई भी मनुष्य महात्मा श्रीकृष्णके हस्तचिह्नका और चरणचिह्नका दर्शन कर लेता
है, वह साक्षात् श्रीकृष्णके धाममें जाता है। नरेश्वर ! ये तीर्थ, कुण्ड और मन्दिर
गिरिराजके अङ्गभूत हैं; उनको बता दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो । ३८-४० ।।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद-बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीगिरिराजके तीर्थोका वर्णन' नामक सातवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०३)
शुक्रवार, 13 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन
दृष्ट्वा शक्रपदं याति नत्वा
ब्रह्मपदं च तत् ।
विलुंठन् यस्य रजसा साक्षाद्विष्णुपदं व्रजेत् ॥१३॥
गोपानामुष्णिषाण्यत्र चोरयामास माधवः ।
औष्णिषं नाम तत्तीर्थं महापापहरं गिरौ ॥१४॥
तत्रैकदा वै दधिविक्रयार्थं
विनिर्गतो गोपवधूसमूहः ।
श्रुत्वा क्वणन्नूपुरशब्दमारा-
द्रुरोध तन्मार्गमनंगमोही ॥१५॥
वंशीधरो वेत्रवरेण गोपैः
पुरश्च तासां विनिधाय पादम् ।
मह्यं करादानधनाय दानं
देहीति गोपीर्निजगाद मार्गे ॥१६॥
गोप्य ऊचुः -
वक्रस्त्वमेवासि समास्थितः पथि
गोपार्भकैर्गोरसलम्पटो भृशम् ।
मात्रा च पित्रा सह कारयामो
बलाद्भवन्तं किल कंसबन्धने ॥१७॥
श्रीभगवानुवाच -
कंसं हनिष्यामि महोग्रदण्डं
सबांधवं मे शपथो गवां च ।
एवं करिष्यामि यदोः पुरे बला-
न्नेष्ये सदाहं गिरिराजभूमेः ॥१८॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा दधिपात्राणि बालैर्नीत्वा पृथक् पृथक् ।
भूपृष्ठे पोथयामास सानन्दं नन्दनन्दनः ॥१९॥
अहो एष परं धृष्टो निर्भयो नन्दनन्दनः ।
निरंकुशो भाषणीयो वने वीरः पुरेऽबलः ॥२०॥
ब्रुवामहे यशोदायै नन्दाय च किलाद्य वै ।
एवं वदन्त्यस्ता गोप्यः सस्मिताः प्रययुर्गृहान् ॥२१॥
नीपपालाशपत्राणां कृत्वा द्रोणानि माधवः ।
जघास बालकैः सार्द्धं पिच्छलानि दधीनि च ॥२२॥
द्रोणाकाराणि पत्राणि बभूवुः शाखिनां तदा ।
तत्क्षेत्रं च महापुण्यं द्रोणं नाम नृपेश्वर ॥२३॥
दधिदानं तत्र कृत्वा पीत्वा पत्रधृतं दधि ।
नमस्कुर्यान्नरस्तस्य गोलोकान्न च्युतिर्भवेत् ॥२४॥
नेत्रे त्वाच्छाद्य यत्रैव लीनोऽभून्माधवोऽर्भकैः ।
तत्र तीर्थं लौकिकं च जातं पापप्रणाशनम् ॥२५॥
वहाँ 'शक्रपद' और 'ब्रह्मपद' नामक तीर्थ हैं, जिनका
दर्शन और जिन्हें प्रणाम करके मनुष्य इन्द्रलोक और ब्रह्मलोकमें जाता है। जो वहाँकी
धूलमें लोटता है, वह साक्षात् विष्णुपदको प्राप्त होता है । जहाँ माधवने गोपोंकी पगड़ियाँ
चुरायी थीं, वह महापापहारी तीर्थ उस पर्वतपर 'औष्णीष' नामसे प्रसिद्ध है ॥ १३-१४ ॥
एक समय वहाँ दधि बेचनेके लिये गोपवधुओंका समुदाय आ
निकला। उनके नूपुरोंकी झनकार सुनकर मदनमोहन श्रीकृष्णने निकट आकर उनकी राह रोक ली ।
वंशी और वेत्र धारण किये श्रीकृष्णने ग्वाल- बालोंद्वारा उनको चारों ओरसे घेर लिया
और स्वयं उनके आगे पैर रखकर मार्गमें उन गोपियोंसे बोले- 'इस मार्गपर हमारी ओरसे कर
वसूल किया जाता है, सो तुमलोग हमारा दान दे दो' ॥ १५-१६ ॥
गोपियाँ बोलीं- तुम बड़े टेढ़े हो, जो ग्वाल- बालोंके
साथ राह रोककर खड़े हो गये ? तुम बड़े गोरस - लम्पट हो । हमारा रास्ता छोड़ दो, नहीं
तो माँ-बापसहित तुमको हम बलपूर्वक राजा कंसके कारागारमें डलवा देंगी ॥ १७ ॥
श्रीभगवान् ने कहा- अरी! कंसका क्या डर अरी ! कंसका
क्या डर दिखाती हो ? मैं गौओंकी शपथ खाकर कहता हूँ, महान् उग्रदण्ड धारण करनेवाले कंसको
मैं उसके बन्धु बान्धव सहित मार डालूँगा; अथवा मैं उसे मथुरासे गोवर्धनकी घाटीमें खींच
लाऊँगा ।। १८ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर बालकोंद्वारा
पृथक्-पृथक् सबके दहीपात्र मँगवाकर नन्दनन्दनने बड़े आनन्दके साथ भूमिपर पटक दिये।
गोपियाँ परस्पर कहने लगीं— 'अहो ! यह नन्दका लाला तो बड़ा ही ढीठ और निडर है, निरङ्कुश
है। । इसके साथ तो बात भी नहीं करनी चाहिये । यह गाँवमें तो निर्बल बना रहता है और
वनमें आकर वीर बन जाता है। हम आज ही चलकर यशोदाजी और नन्द- रायजीसे कहती हैं ।' — यों
कहकर गोपियाँ मुस्कराती हुई अपने घरको लौट गयीं ॥ १९ – २१ ॥
इधर माधवने कदम्ब और पलाशके पत्तेके दोने बनाकर बालकोंके
साथ चिकना चिकना दही ले लेकर खाया। तबसे वहाँके वृक्षोंके पत्ते दोनेके आकारके होने
लग गये। नृपेश्वर ! वह परम पुण्य क्षेत्र 'द्रोण' नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ २२-२३ ॥
जो मनुष्य वहाँ दहीं दान करके
स्वयं भी पत्ते में रखे हुए दही को पीकर
उस तीर्थ को नमस्कार करता है, उसकी गोलोक से
कभी च्युति नहीं होती । जहाँ नेत्र मूँदकर माधव बालकों के साथ
लुका-छिपी के खेल खेलते थे, वहाँ 'लौकिक' नामक पापनाशन तीर्थ
हो गया ॥ २४-२५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०२)
गुरुवार, 12 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कति मुख्यानि तीर्थानि गिरिराजे महात्मनि ।
एतद्ब्रूहि महायोगिन् साक्षात्त्वं दिव्यदर्शनः ॥१॥
श्रीनारद उवाच -
राजन् गोवर्धनः सर्वः सर्वतीर्थवरः स्मृतः ।
वृन्दावनं च गोलोकमुकुटोऽद्रिः प्रपूजितः ॥२॥
गोपगोपीगवां रक्षाप्रदः कृष्णप्रियो महान् ।
पूर्णब्रह्मातपत्रो यः यस्मात्तीर्थवरस्तु कः ॥३॥
इन्द्रयागं विनिर्भर्स्त्य सर्वैर्निजजनैः सह ।
यत्पूजनं समारेभे भगवान् भुवनेश्वरः ॥४॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ॥५॥
यस्मिन्स्थितः सदा क्रीडामर्भकैः सह मैथिल ।
करोति तस्य माहात्म्यं वक्तुं नालं चतुर्मुखः ॥६॥
यत्र वै मानसी गंगा महापापौघनाशिनी ।
गोविन्दकुण्डं विशदं शुभं चन्द्रसरोवरम् ॥७॥
राधाकुण्डः कृष्णकुण्डो ललिताकुण्ड एव च ।
गोपालकुंडस्तत्रैव कुसुमाकर एव च ॥८॥
श्रीकृष्णमौलिसंस्पर्शान्मौलिचिह्ना शिलाऽभवत् ।
तस्या दर्शनमात्रेण देवमौलिर्भवेज्जनः ॥९॥
यस्यां शिलायां कृष्णेन चित्राणि लिखितानि च ।
अद्यापि चित्रिता पुण्या नाम्ना चित्रशिला गिरौ ॥१०॥
यां शिलामर्भकैः कृष्णो वादयन् क्रीडने रतः ।
वादनी सा शिला जाता महापापौघनाशिनी ॥११॥
यत्र श्रीकृष्णचन्द्रेण गोपालैः सह मैथिल ।
कृता वै कंदुकक्रीडा तत्क्षेत्रं कंदुकं स्मृतम् ॥१२॥
बहुलाश्वने पूछा – महायोगिन् ! आप साक्षात् दिव्यदृष्टिसे
सम्पन्न हैं; अतः यह बताइये कि महात्मा गिरिराजके आस-पास अथवा उनके ऊपर कितने मुख्य
तीर्थ हैं ? ॥ १ ॥
श्रीनारद बोले- राजन् । समूचा गोवर्धन पर्वत ही सब
तीर्थोंसे श्रेष्ठ माना जाता है। वृन्दावन साक्षात् गोलोक है और गिरिराजको उसका मुकुट
बताकर सम्मानित किया गया है। वह पर्वत गोपों, गोपियों तथा गौओंका रक्षक एवं महान् कृष्णप्रिय
है । जो साक्षात् पूर्णब्रह्मका छत्र बन गया, उससे श्रेष्ठ तीर्थ दूसरा कौन है। ॥ २-३ ॥
भुवनेश्वर एवं साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णने,
जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकके स्वामी तथा परात्पर पुरुष हैं, अपने समस्त
जनोंके साथ इन्द्रयागको धता बताकर जिसका पूजन आरम्भ किया, उस गिरिराजसे अधिक सौभाग्यशाली
कौन होगा । मैथिल ! जिस पर्वतपर स्थित हो भगवान् श्रीकृष्ण सदा ग्वाल-बालोंके साथ क्रीड़ा
करते हैं, उसकी महिमाका वर्णन करनेमें तो चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं ॥ ४-६ ॥
जहाँ बड़े-बड़े पापों की राशि का नाश करनेवाली मानसी गङ्गा विद्यमान हैं, विशद गोविन्दकुण्ड तथा
शुभ्र चन्द्रसरोवर शोभा पाते हैं, जहाँ राधाकुण्ड, कृष्णकुण्ड, ललिताकुण्ड गोपाल- कुण्ड
तथा कुसुमसरोवर सुशोभित हैं, उस गोवर्धनकी महिमाका कौन वर्णन कर सकता है। श्रीकृष्णके
मुकुटका स्पर्श पाकर जहाँकी शिला मुकुटके चिह्न से सुशोभित हो गयी, उस शिलाका दर्शन
करनेमात्रसे मनुष्य देवशिरोमणि हो जाता है। जिस शिलापर श्रीकृष्णने चित्र अङ्कित किये
हैं, वह चित्रित और पवित्र 'चित्रशिला' नामकी शिला आज भी गिरिराजके शिखरपर दृष्टिगोचर
होती है ॥ ७-१० ॥
बालकोंके साथ क्रीड़ा में संलग्न श्रीकृष्णने जिस शिलाको
बजाया था, वह महान् पापसमूहोंका नाश करनेवाली शिला 'वादिनी शिला' (बाजनी शिला) के नामसे
प्रसिद्ध हुई । मैथिल ! जहाँ श्रीकृष्णने ग्वाल-बालोंके साथ कन्दुक-क्रीड़ा की थी,
उसे 'कन्दुकक्षेत्र' कहते हैं ॥ ११-१२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०१)
बुधवार, 11 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 03)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
श्रीनारद उवाच -
इत्थं विचार्य नन्दोऽपि कृष्णं पप्रच्छ सादरम् ।
प्रहसन् भगवान्नन्दं प्राह गोवर्धनोद्धरः ॥२५॥
श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥२६॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वाथ स्वात्मजेनोक्तं तं निर्भर्त्स्य व्रजेश्वरः ।
तानि नेतुं तत्सहितस्तत्क्षेत्राणि जगाम ह ॥२७॥
तत्र मुक्ताफलानां तु शाखिनः शतशः शुभाः ।
दृश्यन्ते दीर्घवपुषो हरित्पल्लवशोभिताः ॥२८॥
मुक्तानां स्तबकानां तु कोटिशः कोटिशो नृप ।
संघा विलंबिता रेजुर्ज्योतींषीव नभःस्थले ॥२९॥
तदाऽतिहर्षितो नन्दो ज्ञात्वा कृष्णं परेश्वरम् ।
मुक्ताफलानि दिव्यानि पूर्वस्थूलसमानि च ॥३०॥
तेषां तु कोटिभाराणि निधाय शकटेषु च ।
ददौ तेभ्यो वृणानेभ्यो नन्दराजो व्रजेश्वरः ॥३१॥
ते गृहीत्वाऽथ तत्सर्वं वृषभानुवरं गताः ।
सर्वेषां शृण्वतां नन्दवैभवं प्रजगुर्नृप ॥३२॥
तदाऽतिविस्मिताः सर्वे ज्ञात्वा नन्दसुतं हरिम् ।
वृषभानुवरं नेमुर्निःसन्देहा व्रजौकसः ॥३३॥
राधा हरेः प्रिया ज्ञाता राधायाश्च प्रियो हरिः ।
ज्ञातो व्रजजनैः सर्वैस्तद्दिनान्मैथिलेश्वर ॥३४॥
मुक्ताक्षेपः कृतो यत्र हरिणा नन्दसूनुना ।
मुक्तासरोवरस्तत्र जातो मैथिल तीर्थराट् ॥३५॥
एकं मुक्ताफलस्यापि दानं तत्र करोति यः ।
लक्षमुक्तादानफलं समाप्नोति न संशयः ॥३६॥
एवं ते कथितो राजन् गिरिराजमहोत्सवः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदो नॄणां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥३७॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार विचारकर नन्द ने भी श्रीकृष्णसे उन मोतियोंके विषय में आदरपूर्वक
पूछा। तब जोरसे हँसते हुए गोवर्धनधारी भगवान् नन्द से बोले-- ॥२५॥
श्रीभगवान् ने कहा- बाबा ! हम
सारे गोप किसान हैं, जो खेतोंमें सब के बीज बोया करते अतः हमने खेत में
मोती के बीज बिखेर दिये हैं ॥ २६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! बेटेके मुँहसे यह बात
सुनकर व्रजेश्वर नन्दने उसे डाँट बतायी और उन सबको चुन- बीनकर लानेके लिये उसके साथ
खेतोंमें गये । वहाँ मुक्ताफलके सैकड़ों सुन्दर वृक्ष दिखायी देने लगे, जो हरे-हरे
पल्लवोंसे सुशोभित और विशालकाय थे ॥ २७-२८ ॥
नरेश्वर ! जैसे आकाशमें झुंड- के झुंड तारे शोभा पाते
हैं, उसी प्रकार उन वृक्षोंमें कोटि-कोटि मुक्ताफलोंके गुच्छे समूह के समूह लटके हुए
सुशोभित हो रहे थे। तब हर्षसे भरे हुए व्रजेश्वर नन्दराजने श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर
पहलेके समान ही मोटे-मोटे दिव्य मुक्ताफल उन वृक्षोंसे तोड़ लिये और उनके एक कोटि भार
गाड़ियों- पर लदवाकर उन वर-वरणकर्ताओंको दे दिये । नरेश्वर ! वह सब लेकर वे वरदर्शी
लोग वृष- भानुवरके पास गये और सबके सुनते हुए नन्दराजके अनुपम वैभवका वर्णन करने लगे
। २९ – ३२ ॥
उस समय सब गोप बड़े विस्मित हुए। नन्द- नन्दनको साक्षात्
श्रीहरि जानकर समस्त व्रज- वासियोंका संशय दूर हो गया और उन्होंने वृषभानुवरको प्रणाम
किया। मिथिलेश्वर ! उसी दिन से व्रजके सब लोगोंने यह जान लिया कि श्रीराधा श्रीहरिकी
प्रियतमा हैं और श्रीहरि श्रीराधाके प्राणवल्लभ हैं ॥ ३३-३४ ॥
मिथिलापते
! जहाँ नन्दनन्दन श्रीहरिने मोती बिखेरे थे, वहाँ 'मुक्ता-सरोवर' प्रकट हो गया, जो
तीर्थोंका राजा है। जो वहाँ एक मोती का भी दान करता है, वह लाख
मोतियोंके दानका फल पाता है, इसमें संशय नहीं है। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे गिरिराज-महोत्सवका
वर्णन किया, जो मनुष्योंके लिये भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। अब तुम और क्या सुनना
चाहते हो ? ॥ ३५--३७॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीहरिकी भगवत्ताका परीक्षण' नामक छठा अध्याय
पूरा हुआ || ६ ||
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०५)
मंगलवार, 10 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 02)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
वृणाना ऊचुः -
विवाहयोग्यां नवकंजनेत्रां
कोटीन्दुबिम्बद्युतिमादधानाम् ।
विज्ञाय राधां वृषभानुमुख्य-
श्चक्रे विचारं सुवरं विचिन्वन् ॥१३॥
तवांगजं दिव्यमनंगमोहनं
गोवर्द्धनोद्धारणदोःसामुद्भटम् ।
संवीक्ष्य चास्मान्वृषभानुवंदितः
संप्रेषयामास विशाम्पते प्रभो ॥१४॥
वरस्य चांके भरणाय पूर्वं
मुक्ताफलानां निचयं गृहाण ।
इतश्च कन्यार्थमलं प्रदेहि
सैषा हि चास्मत्कुलजा प्रसिद्धिः ॥१५॥
श्रीनारद उवाच -
दृष्ट्वा द्रव्यं परो नन्दो विस्मितोऽपि विचारयन् ।
प्रष्टुं यशोदां तत्तुल्यं नीत्वा चान्तःपुरं ययौ ॥१६॥
चिरं दध्यौ तदा नन्दो यशोदा च यशस्विनी ।
एतन्मुक्तासमानं तु द्रव्यं नास्ति गृहे मम ॥१७॥
लोके लज्जा गता सर्वा हासः स्याच्चेद्धनोद्धृतम् ।
किं कर्तव्यं तत्प्रति यच्छ्रीकृष्णोद्वाहकर्मणि ॥१८॥
ततोऽयोग्यं तद्ग्रहणं पश्चात्कार्यं धनागमे ।
एवं चिन्तयतस्तस्य नन्दस्यैव यशोदया ॥१९॥
अलक्ष्य आगतस्तत्र भगवान्वृजिनार्दनः ।
नीत्वा दामशतं तेषु बहिःक्षेत्रेषु सर्वतः ॥२०॥
मुक्ताफलानि चैकैकम्प्राक्षिपत्स्वकरेण वै ।
यथा बीजानि चान्नानां स्वक्षेत्रेषु कृषीवलः ॥२१॥
अथ नन्दोऽपि गणयन् कलिकानिचयं पुनः ।
शतं न्यूनं च तद्दृष्ट्वा सन्देहं स जगाम ह ॥२२॥
श्रीनन्द उवाच -
नास्ति पूर्वं यत्समानं तत्रापि न्यूनतां गतम् ।
अहो कलंको भविता ज्ञातिषु स्वेषु सर्वतः ॥२३॥
अथवा क्रीडनार्थ हि कृष्णो यदि गृहीतवान् ।
बलदेवोऽथवा बालस्तौ पृच्छे दीनमानसः ॥२४॥
वर-वरणकर्ता बोले- नन्दराज ! जिसके नेत्र नूतन विकसित
कमलके समान शोभा पाते हैं तथा जो मुखमें करोड़ों चन्द्रमण्डलोंकी-सी कान्ति धारण करती
है, उस अपनी पुत्री श्रीराधाको विवाहके योग्य जानकर वृषभानुवरने सुन्दर वरकी खोज करते
हुए यह विचार किया है कि तुम्हारे पुत्र मदनमोहन श्रीकृष्ण दिव्य वर हैं। गोवर्धन पर्वतको
उठाने में समर्थ, दिव्य भुजाओंसे सम्पन्न तथा उद्भट वीर हैं।
प्रभो ! वैश्य-प्रवर !! यह सब देख और सोच-विचारकर वृषभानुवन्दित वृषभानुवरने हम सबको
यहाँ भेजा हैं। आप बरकी गोद भरनेके लिये पहले कन्या- पक्षकी ओरसे यह मौक्तिकराशि ग्रहण
कीजिये । फिर इधरसे भी कन्याकी गोद भरनेके लिये पर्याप्त मौक्तिकराशि प्रदान कीजिये
। यही हमारे कुलकी प्रसिद्ध रीति है । १३ – १५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस द्रव्य- राशिको देखकर
उत्कृष्ट नन्दराज बड़े विस्मित हुए; तो भी वे कुछ विचारकर यशोदाजीसे 'उसके तुल्य रत्न-
राशि है या नहीं' इस बातको पूछनेके लिये वह सब सामान लेकर अन्तःपुरमें गये। वहाँ उस
समय नन्द और यशस्विनी यशोदाने चिरकालतक विचार किया, किंतु (अन्ततोगत्वा) इसी निष्कर्षपर
पहुँचे कि 'इस मौक्तिकराशि के बराबर दूसरी कोई द्रव्यराशि मेरे
घर में नहीं है । आज लोगों में हमारी सारी लाज गयी । हम लोगोंकी
सब ओर हँसी उड़ायी जायगी। इस धनके बदले में हम दूसरा कौन-सा धन
दें ? क्या करें ? श्रीकृष्ण के इस विवाह के
निमित्त हमारे द्वारा क्या किया जाना चाहिये ? ।। १६ – १८ ॥
पहले तो जो कुछ वरके लिये आया है, उसे ग्रहण कर लेना
चाहिये। पीछे अपने पास धन आनेपर वधूके लिये उपहार भेजा जायगा।' ऐसा विचार करते हुए
नन्द और यशोदाजीके पास भगवान् अघमर्दन श्रीकृष्ण अलक्षितभावसे ही वहाँ आ गये। उन मौक्तिक-
हारोंमेंसे सौ हार उन्होंने घरसे बाहर खेतोंमें ले जाकर अपने हाथसे मोतीका एक-एक दाना
लेकर, उन्होंने उसी भाँति सारे खेतमें छींट दिया, जैसे किसान अपने खेतोंमें अनाजके
दाने बिखेर देता है । तदनन्तर नन्द भी जब उन मुक्ता- मालाओंकी गणना करने लगे, तब उनमें
सौ मालाओंकी कमी देखकर उनके मनमें संदेह हुआ ।। १९ – २२ ॥
नन्दजी बोले - हाय ! पहले तो मेरे घरमें जिस रत्नराशिके
समान दूसरी कोई रत्नराशि थी ही नहीं, उसमें भी अब सौकी कमी हो गयी। अहो ! चारों ओर से भाई-बन्धुओं के बीच मुझपर बड़ा भारी कलङ्क
पोता जायगा । अथवा यदि श्रीकृष्ण या बलरामने खेलनेके लिये उसमेंसे कुछ मोती निकाल लिये
हों तो अब दीनचित्त होकर मैं उन्हीं दोनों बालकोंसे पूछूंगा ॥ २३-२४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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