बुधवार, 25 सितंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भागवत के दस लक्षण

अन्तः शरीर आकाशात् पुरुषस्य विचेष्टतः ।
ओजः सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महान् असुः ॥ १५ ॥
अनुप्राणन्ति यं प्राणाः प्राणन्तं सर्वजन्तुषु ।
अपानंतं अपानन्ति नरदेवं इवानुगाः ॥ १६ ॥
प्राणेन आक्षिपता क्षुत् तृड् अन्तरा जायते विभोः ।
पिपासतो जक्षतश्च प्राङ् मुखं निरभिद्यत ॥ १७ ॥
मुखतः तालु निर्भिन्नं जिह्वा तत्र उपजायते ।
ततो नानारसो जज्ञे जिह्वया योऽधिगम्यते ॥ १८ ॥
विवक्षोर्मुखतो भूम्नो वह्निर्वाग् व्याहृतं तयोः ।
जले वै तस्य सुचिरं निरोधः समजायत ॥ १९ ॥
नासिके निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति ।
तत्र वायुः गन्धवहो घ्राणो नसि जिघृक्षतः ॥ २० ॥

विराट् पुरुष के हिलने-डोलनेपर उनके शरीरमें रहनेवाले आकाशसे इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ॥ १५ ॥ जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही सब के शरीरोंमें प्राणके प्रबल रहने पर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती हैं ॥ १६ ॥ जब प्राण जोरसे आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुषको भूख-प्यासका अनुभव हुआ। खाने-पीनेकी इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीरमें मुख प्रकट हुआ ॥ १७ ॥ मुखसे तालु और तालुसे रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकारके रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है ॥ १८ ॥ जब उनकी इच्छा बोलनेकी हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके अधिष्ठातृ-देवता अग्नि और उनका विषय बोलना—ये तीनों प्रकट हुए। इसके बाद बहुत दिनोंतक उस जलमें ही वे रुके रहे ॥ १९ ॥ श्वासके वेग से नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघने की इच्छा हुई, तब उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्ध को फैलानेवाले वायुदेव प्रकट हुए ॥२०॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 24 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पहला अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण

 

अतसीकुसुमोपमेयकांति-
     र्यमुनाकूलकदंबमध्यवर्ती ।
 नवगोपवधूविलासशाली
     वनमाली विरनोतु मंगलानि ॥ १ ॥
 परिकरीकृतपीतपटं हरिं
     शिखिकिरीटनतीकृतकंधरम् ।
 लकुटवेणुकरं चलकुण्डलं
     पटुतरं नटवेषधरं भजे ॥ २ ॥


 बहुलाश्व उवाच -
श्रुतिरूपादयो गोप्यो भूतपूर्वा वरान्मुने ।
 कथं श्रीकृष्णचन्द्रेण जाताः पूर्णमनोरथाः ॥ ३ ॥
 गोपालकृष्णचरितं पवित्रं परमाद्‌भुतम् ।
 एतद्‌वद महाबुद्धे त्वं परावरवित्तमः ॥ ४ ॥


 श्रीनारद उवाच -
श्रुतिरूपाश्च या गोप्यो गोपानां सुकुले व्रजे ।
 लेभिरे जन्म वैदेह शेषशायीवराच्छ्रुतात् ॥ ५ ॥
 कमनीयं नन्दसूनुं वीक्ष्य वृन्दावने च ताः ।
 वृन्दावनेश्वरीं वृन्दां भेजिरे तद्‌वरेच्छया ॥ ६ ॥
 वृन्दादत्ताद्‌वरादाशु प्रसन्नो भगवान् हरिः ।
 नित्यं तासां गृहे याति रासार्थं भक्तवत्सलः ॥ ७ ॥
 एकदा तु निशीथिन्या व्यतीते प्रहरद्वये ।
 रासार्थं भगवान् कृष्णः प्राप्तवान् तद्‌गृहान्नृप ॥ ८ ॥
 तदा उत्कंठिता गोप्यः कृत्वा तत्पूजनं परम् ।
 पप्रच्छुः परया भक्त्या गिरा मधुरया प्रभुम् ॥ ९ ॥


 गोप्य ऊचुः -
कथं न चागतः शीघ्रं नो गृहान् वृजिनार्दन ।
 उत्कंठितानां गोपीनां त्वयि चन्द्रे चकोरवत् ॥ १० ॥


 श्रीभगवानुवाच -
यो यस्य चित्ते वसति न स दूरे कदाचन ।
 खे सूर्यं कमलं भूमौ दृष्ट्वेदं स्फुटति प्रियाः ॥ ११ ॥
 भाण्डीरे मे गुरुः साक्षात् दुर्वासा भगवान् मुनिः ।
 आगतोऽद्य प्रियास्तस्य सेवार्थं गतवानहम् ॥ १२ ॥
 गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
 गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १३ ॥
 अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
 चक्षुरुमीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १४ ॥
 स्वगुरुं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।
 न मर्त्यबुद्ध्या सेवेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ १५ ॥
 तस्मात्तत्पूजनं कृत्वा नत्वा तत्पादपंकजम् ।
 आगतोऽहं विलंबेन भवतीनां गृहान् प्रियाः ॥ १६ ॥

'जिनकी अङ्गकान्तिको अलसीके फूलकी उपमा दी जाती है, जो यमुनाकूलवर्ती कदम्बवृक्षके मूलभागमें विद्यमान हैं तथा नूतन गोपाङ्गनाओंके साथ लीला - विलास करते हुए अत्यन्त शोभा पा रहे हैं, वे वनमाली श्रीकृष्ण मङ्गलका विस्तार करें ॥ १ ॥ 'जिन्होंने पीताम्बरकी फेंट बाँध रखी है, जिनके मस्तकपर मोरपंखका मुकुट सुशोभित है और गर्दन एक ओर झुकी हुई है, जो लकुटी और वंशी हाथ में लिये हुए हैं और जिनके कानोंमें चञ्चल कुण्डल झिलमला रहे हैं, उन परम पटु, नटवेषधारी श्रीकृष्ण का मैं भजन (ध्यान) करता हूँ' ॥ २ ॥

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! श्रुतिरूपा आदि गोपियोंने, जो पूर्वप्रदत्तवरके अनुसार पहले ही व्रजमें प्रकट हो चुकी थीं, किस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका साहचर्य पाकर अपना मनोरथ पूर्ण किया था ? महाबुद्धे ! गोपाल श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र परम अद्भुत है, इसे कहिये, क्योंकि आप परापरवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ हैं ।। ३-४ ।।

श्रीनारदजीने कहा- विदेहराज ! श्रुतिरूपा जो गोपियाँ थीं, वे शेषशायी भगवान् विष्णुके पूर्वकथित वरसे व्रजवासी गोपोंके उत्तम कुलमें उत्पन्न हुईं। उन सबने वृन्दावनमें परम कमनीय नन्दनन्दन का दर्शन करके उन्हें वररूप में पाने की इच्छासे वृन्दावनेश्वरी वृन्दादेवी की समाराधना की। वृन्दा के दिये हुए वर से भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरि उनके ऊपर शीघ्र प्रसन्न हो गये और प्रतिदिन उनके घरों में रासक्रीड़ा के लिये जाने लगे ॥५-

नरेश्वर ! एक दिन रात में दो पहर बीत जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण रासके लिये उनके घर गये। उस समय उत्कण्ठित गोपियोंने उन परम प्रभुका अत्यन्त भक्ति- भावसे पूजन करके मधुर वाणीमें पूछा ॥ - ९॥

गोपियाँ बोलीं- अघनाशन श्रीकृष्ण ! जैसे चकोरी चन्द्रदर्शनके लिये उत्सुक रहती है, उसी प्रकार हम गोपाङ्गनाएँ आपसे मिलनेको उत्कण्ठित रहती हैं। अतः आप हमारे घर में शीघ्र क्यों नहीं आये ? ॥ १० ॥

श्रीभगवान् ने कहा – प्रियाओ ! जो जिसके हृदयमें वास करता है, वह उससे दूर कभी नहीं रहता । देखो न, सूर्य तो आकाशमें है और कमल भूमिपर; फिर भी वह उन्हें देखते ही खिल उठता है (वह सूर्य- को अपने अत्यन्त निकटस्थ अनुभव करता है) । प्रियाओ ! आज मेरे साक्षात् गुरु भगवान् दुर्वासामुनि भाण्डीर-वनमें पधारे हैं। उन्हींकी सेवाके लिये मैं चला गया था ॥११-१२

गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु भगवान् महेश्वर हैं और गुरु साक्षात् परम ब्रह्म हैं। उन श्रीगुरु को मेरा नमस्कार है। अज्ञानरूपी रतौंधी से अंधे हुए मनुष्य की दृष्टि को जिन्होंने ज्ञानाञ्जन की शलाका से खोल दिया है, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है। अपने गुरु को मेरा स्वरूप ही समझना चाहिये और कभी उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। गुरु सम्पूर्ण देवताओंके स्वरूप होते हैं। अतः साधारण मनुष्य समझकर उनकी सेवा नहीं करनी चाहिये। हे प्रियाओं ! मैं उनका पूजन करके तथा उनके चरणकमलोंमें प्रणाम करके तुम्हारे घर देरी से पहुँचा हूँ ॥ १– १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भागवत के दस लक्षण

पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदाऽसौ स विनिर्गतः ।
आत्मनोऽयनमन्विच्छन् अपः अस्राक्षीच्छुचिः शुचीः ॥ १० ॥
तास्ववात्सीत् स्वसृष्टासु सहस्रं परिवत्सरान् ।
तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भंवाः ॥ ११ ॥
द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यद् उपेक्षया ॥ १२ ॥
एको नानात्वमन्विच्छन् योगतल्पात् समुत्थितः ।
वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत् त्रिधा ॥ १३ ॥
अधिदैवं अथ अध्यात्मं अधिभूतमिति प्रभुः ।
अथैकं पौरुषं वीर्यं त्रिधा भिद्यत तच्छृणु ॥ १४ ॥

जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रह्माण्ड को फोडक़र निकला, तब वह अपने रहनेका स्थान ढूँढने लगा और स्थानकी इच्छासे उस शुद्ध-सङ्कल्प पुरुषने अत्यन्त पवित्र जलकी सृष्टि की ॥ १० ॥ 
विराट् पुरुषरूप ‘नर’ से उत्पन्न होनेके कारण ही जलका नाम ‘नार’ पड़ा। और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’में वह पुरुष एक हजार वर्षोंतक रहा, इसीसे उसका नाम ‘नारायण’ हुआ ॥ ११ ॥ उन नारायणभगवान्‌की कृपासे ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदिकी सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देनेपर और किसीका अस्तित्व नहीं रहता ॥ १२ ॥ उन अद्वितीय भगवान्‌ नारायणने योगनिद्रासे जगकर अनेक होनेकी इच्छा की। तब अपनी मायासे उन्होंने अखिल ब्रह्माण्डके बीजस्वरूप अपने सुवर्णमय वीर्यको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत। परीक्षित्‌ ! विराट् पुरुषका एक ही वीर्य तीन भागोंमें कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो ॥ १३-१४ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 23 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

सिद्ध के द्वारा अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त का वर्णन तथा गोलोक से उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोक में गमन

 

श्रीनारद उवाच -
एवं प्रवदतस्तस्य गोलोकाच्च महारथः ॥१९॥
सहस्रादित्यसंकाशो हयायुतसमन्वितः ॥२०॥
सहस्रचक्रध्वनिभृल्लक्षपार्षदमण्डितः ।
मंजीरकिंकिणीजालो मनोहरतरो नृप ॥२१॥
पश्यतस्तस्य विप्रस्य तमानेतुं समागतः ।
तमागतं रथं दिव्यं नेमतुर्विप्रनिर्जरौ ॥२२॥
ततः समारुह्य रथं स सिद्धो
विरंजयन्मैथिल मण्डलं दिशाम् ।
श्रीकृष्णलोकं प्रययौ परात्परं
निकुंजलीलाललितं मनोहरम् ॥२३॥
विप्रोऽपि तस्मात् पुनरागतो गिरिं
गोवर्धनं सर्वगिरिन्द्रदैवतम् ।
प्रदक्षिणीकृत्य पुनः प्रणम्य तं
ययौ गृहं मैथिल तत्प्रभावित् ॥२४॥
इदं मया ते कथितं प्रचण्डं
सुमुक्तिदं श्रीगिरिराजखण्डम् ।
श्रुत्वा जनः पाप्यपि न प्रचण्डं
स्वप्नेऽपि पश्येद्यममुग्रदण्डम् ॥२५॥
यः शृणोतिगिरिराज यशस्यं
गोपराज नवकेलिरहस्यम् ।
देवराज इव सोऽत्र समेति
नन्दराज इव शान्तिममुत्र ॥२६॥
                            

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! वह इस प्रकार कह ही रहा था कि गोलोकसे एक विशाल रथ उतरा । वह सहस्रों सूर्योंके समान तेजस्वी था और उसमें दस हजार घोड़े जुते हुए थे। नरेश्वर ! उससे हजारों पहियोंके चलनेकी ध्वनि होती थी । लाखों पार्षद उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । मञ्जीर और क्षुद्र घण्टिकाओंके समूहसे आच्छादित वह रथ अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था ।। १९ - २

ब्राह्मणके देखते-देखते उस सिद्धको लेनेके लिये जब वह रथ आया, तब ब्राह्मण और सिद्ध दोनोंने उस दिव्य रथको नमस्कार किया । मिथिलेश्वर ! तदनन्तर वढ़ सिद्ध उस रथपर आरूढ़ हो दिङ्मण्डलको प्रकाशित करता हुआ परात्पर श्रीकृष्ण-लोकमें पहुँच गया, जो निकुञ्ज लीलाके कारण ललित एवं परम मनोहर है। मैथिल ! वह ब्राह्मण भी गोवर्द्धनका प्रभाव जान गया था, इसलिये वहाँसे लौटकर समस्त गिरिराजोंके देवता गोवर्द्धन गिरिपर आया और उसकी परिक्रमा एवं उसे प्रणाम करके अपने घरको गया ।। २२ - २४ ॥

राजन् ! इस प्रकार मैंने यह विचित्र एवं उत्तम मोक्षदायक श्रीगिरिराजखण्ड तुम्हें कह सुनाया । पापी मनुष्य भी इसका श्रवण करके स्वप्न में भी कभी उग्रदण्डधारी प्रचण्ड यमराज का दर्शन नहीं करता । जो मनुष्य गिरिराज के यशसे परिपूर्ण गोपराज श्रीकृष्णकी नूतन केलिके रहस्यको सुनता है, वह देवराज इन्द्रकी भाँति इस लोकमें सुख भोगता है और नन्दराज के समान परलोक में शान्ति का अनुभव करता है ।। २५-२६ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवादमें श्रीगिरिराज-प्रभाव प्रस्ताव-वर्णनके प्रसङ्गमें 'सिद्धमोक्ष' नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

 

श्रीगिरिराजखण्ड सम्पूर्ण ॥ ३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भागवत के दस लक्षण

अवतारानुचरितं हरेश्चास्यानुवर्तिनाम् ।
पुंसां ईशकथाः प्रोक्ता नानाख्यान उपबृंहिताः ॥ ५ ॥
निरोधोऽस्यानुशयनं आत्मनः सह शक्तिभिः ।
मुक्तिः हित्वान्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ॥ ॥ ६ ॥
आभासश्च निरोधश्च यतश्चाध्यवसीयते ।
स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते ॥ ७ ॥
योऽध्यात्मिकोऽयं पुरुषः सोऽसौ एवाधिदैविकः ।
यः तत्र उभय विच्छेदः स स्मृतोह्याधिभौतिकः ॥ ८ ॥
एकं एकतराभावे यदा न उपलभामहे ।
त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रयः ॥ ९ ॥

भगवान्‌ के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तोंकी विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ ‘ईशकथा’ हैं ॥ ५ ॥ जब भगवान्‌ योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीवका अपनी उपाधियों के साथ उनमें लीन हो जाना ‘निरोध’ है। अज्ञानकल्पित कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनात्मभाव का परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मामें स्थित होना ही ‘मुक्ति’ है ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! इस चराचर जगत् की  उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्त्वसे प्रकाशित होते हैं, वह परम ब्रह्म ही ‘आश्रय’ है। शास्त्रोंमें उसी को परमात्मा कहा गया है ॥ ७ ॥ जो नेत्र आदि इन्द्रियों का अभिमानी द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता सूर्य आदि के रूप में भी है और जो नेत्र गोलक आदि से युक्त दृश्य देह है, वही उन दोनों को अलग-अलग करता है ॥ ८ ॥ इन तीनोंमें यदि एक का भी अभाव हो जाय तो दूसरे दो की उपलब्धि नहीं हो सकती। अत: जो इन तीनोंको जानता है, वह परमात्मा ही, सबका अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्त्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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रविवार, 22 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

सिद्ध के द्वारा अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त का वर्णन तथा गोलोक से उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोक में गमन

 

श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा सिद्धवाक्यं ब्राह्मणो विस्मयं गतः।
पुनः पप्रच्छ तं राजन् गिरिराजप्रभाववित् ॥१॥


ब्राह्मण उवाच -
पुरा जन्मनि कस्त्वं भोस्त्वया किं कलुषं कृतम् ।
सर्वं वद महाभाग त्वं साक्षाद्दिव्यदर्शनः ॥२॥


सिद्ध उवाच -
पुरा जन्मनि वैश्योऽहं धनी वैश्यसुतो महान् ।
आबाल्याद्द्युतनिरतो विटगोष्ठीविशारदः ॥३॥
वेश्यारतः कुमार्गोऽहं मदिरामदविह्वलः ।
मात्रा पित्रा भार्ययापि भर्त्सितोऽहं सदा द्विज ॥४॥
एकदा तु मया विप्र पितरौ गरदानतः ।
मारितौ च तथा भार्या खड्‍गेन पथि मारिता ॥५॥
गृहीत्वा तद्धनं सर्वं वेश्यया सहितः खलः ।
दक्षिणाशां च गतवान् दस्युकर्माऽतिनिर्दयः ॥६॥
एकदा तु मया वेश्या निःक्षिप्ता ह्यंधकूपके ।
दस्युना हि मया पाशैर्मारिताः शतशो नराः ॥७॥
धनलोभेन भो विप्र ब्रह्महत्याशतं कृतम् ।
क्षत्रहत्या वैश्यहत्याः शूद्रहत्याः सहस्रशः ॥८॥
एकदा मांसमानेतुं मृगान् हन्तुं वने गतम् ।
सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टो दुष्टं मां निधनं गतम् ॥९॥
संताड्य मुद्‌गरैर्घोरैर्यमदूता भयंकराः ।
बद्‌ध्वा मां नरकं निन्युर्महापातकिनं खलम् ॥१०॥
मन्वन्तरं तु पतितः कुम्भीपाके महाखले ।
कल्पैकं तप्तसूर्मौ च महादुःखं गतः खलः ॥११॥
चतुरशीतिलक्षाणां नरकाणां पृथक् पृथक् ।
वर्षं वर्षं निपतितो निर्गतोऽहं यमेच्छया ॥१२॥
ततस्तु भारते वर्षे प्राप्तोऽहं कर्मवासनाम् ।
दशवारं सूकरोऽहं व्याघ्रोऽहं शतजन्मसु ॥१३॥
उष्ट्रोऽहं जन्मशतकं महिषः शतजन्मसु ।
सर्पोऽहं जन्मसाहस्रं मारितो दुष्टमानवैः ॥१४॥
एवं वर्षायुतांते तु निर्जले विपिने द्विज ।
राक्षसश्चेदृशो जातो विकरालो महाखलः ॥१५॥
कस्य शूद्रस्य देहं वै समारुह्य व्रजं गतः ।
वृन्दावनस्य निकटे यमुना निकटाच्छुभात् ॥१६॥
समुत्थिता यष्टिहस्ताः श्यामलाः कृष्णपार्षदाः ।
तैस्ताडितो धर्षितोऽहं व्रजभूमौ पलायितः ॥१७॥
बुभिक्षितो बहुदिनैस्त्वां खादितुमिहागतः ।
तावत्त्वया ताडितोऽहं गिरिराजाश्मना मुने ॥१८॥
श्रीकृष्णकृपया साक्षात्कल्याणं मे बभूव ह ।

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! सिद्धकी यह बात सुनकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ । गिरिराजके प्रभावको जानकर उसने सिद्ध से पुनः प्रश्न किया ॥ १ ॥

ब्राह्मणने पूछा- महाभाग ! इस समय तो तुम साक्षात् दिव्यरूपधारी दिखायी देते हो। परंतु पूर्वजन्ममें तुम कौन थे और तुमने कौन-सा पाप किया था ? ॥ २ ॥

सिद्धने कहा – पूर्वजन्म में मैं एक धनी वैश्य था । अत्यन्त समृद्ध वैश्य -बालक होनेके कारण मुझे बचपन से ही जुआ खेलने की आदत पड़ गयी थी। धूर्तों और जुआरियोंकी गोष्ठी में मैं सब से चतुर समझा जाता था ॥

आगे चलकर मैं वेश्या में आसक्त हो गया, कुपथपर चलने और मदिरा के मदसे उन्मत्त रहने लगा । ब्रह्मन् ! इसके कारण मुझे अपने माता-पिता और पत्नीकी ओरसे बड़ी फटकार मिलने लगी। एक दिन मैंने माँ-बापको तो जहर देकर मार डाला और पत्नीको साथ लेकर कहीं जानेके बहाने निकला और रास्तेमें मैंने तलवारसे उसकी हत्या कर दी। इस तरह उन सबके धनको हथियाकर मैं उस वेश्याके साथ दक्षिण दिशामें चला गया। यह है मेरी दुष्टताका परिचय । दक्षिण जाकर मैं अत्यन्त निर्दयतापूर्वक लूट-पाटका काम करने लगा ॥ ४-६

एक दिन उस वेश्या को भी मैंने अँधेरे कुऍ में डाल दिया। डाकू तो मैं हो ही गया था, मैंने फाँसी लगाकर सैकड़ों मनुष्योंको मौतके घाट उतार दिया। विप्रवर ! धनके लोभसे मैंने सैकड़ों ब्रह्महत्याएँ कीं । क्षत्रिय- हत्या, वैश्य - हत्या और शूद्र हत्याकी संख्या तो हजारों तक पहुँच गयी होगी ॥ ७-८

एक दिनकी बात है कि मैं मांस लानेके निमित्त मृगोंका वध करनेके लिये वनमें गया । वहाँ एक सर्पके ऊपर मेरा पैर पड़ गया और उसने मुझे डॅस लिया। फिर तो तत्काल मेरी मृत्यु हो गयी और यमराजके भयंकर दूतोंने आकर मुझ दुष्ट और महापातकी को भयानक मुद्गरों से पीट-पीटकर बाँधा और नरक में पहुँचा दिया ॥ ९-१०

मुझे महादुष्ट मानकर 'कुम्भीपाक' में डाला गया और वहाँ एक मन्वन्तरतक रहना पड़ा। तत्पश्चात् 'तप्तसूर्मि' नामक नरकमें मुझ दुष्टको एक कल्पतक महान् दुःख भोगना पड़ा। इस तरह चौरासी लाख नरकोंमेंसे प्रत्येकमें अलग-अलग यमराजकी इच्छासे मैं एक-एक वर्षतक पड़ता और निकलता रहा ॥ ११-१२

तदनन्तर भारतवर्षमें कर्मवासना के अनुसार मेरा दस बार तो सूअरकी योनिमें जन्म हुआ और सौ बार व्याघ्रकी योनिमें। फिर सौ जन्मोंतक ऊँट और उतने ही जन्मोंतक भैंसा हुआ। इसके बाद एक सहस्र जन्मतक मुझे सर्पकी योनिमें रहना पड़ा। फिर कुछ दुष्ट मनुष्यों ने मिलकर मुझे मार डाला ॥१३-१४

विप्रवर! इस तरह दस हजार वर्ष बीतनेपर जलशून्य विपिन में मैं ऐसा विकराल और महाखल राक्षस हुआ, जैसा कि तुमने अभी-अभी देखा है ॥ १५

एक दिन किसी शूद्र के शरीरमें आविष्ट होकर व्रजमें गया । वहाँ वृन्दावन के निकटवर्ती यमुनाके सुन्दर तटसे हाथमें छड़ी लिये हुए कुछ श्यामवर्णवाले श्रीकृष्णके पार्षद उठे और मुझे पीटने लगे। उनके द्वारा तिरस्कृत होकर मैं व्रजभूमिसे इधर भाग आया; तबसे बहुत दिनोंतक मैं भूखा रहा और तुम्हें खा जानेके लिये यहाँ आया। इतनेमें ही तुमने मुझे गिरिराजके पत्थरसे मार दिया। मुने ! मुझपर साक्षात् श्रीकृष्णकी कृपा हो गयी, जिससे मेरा कल्याण हो गया ॥१६ -१८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भागवत के दस लक्षण

श्रीशुक उवाच ।

अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥ १ ॥
दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् ।
वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा ॥ २ ॥
भूतमात्रेन्द्रियधियां जन्म सर्ग उदाहृतः ।
ब्रह्मणो गुणवैषम्यात् विसर्गः पौरुषः स्मृतः ॥ ३ ॥
स्थितिर्वैकुण्ठविजयः पोषणं तदनुग्रहः ।
मन्वन्तराणि सद्धर्म ऊतयः कर्मवासनाः ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! इस भागवतपुराण में सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय—इन दस विषयों का वर्णन है ॥ १ ॥ इन में जो दसवाँ आश्रय-तत्त्व है, उसीका ठीक-ठीक निश्चय करनेके लिये कहीं श्रुतिसे, कहीं तात्पर्यसे और कहीं दोनोंके अनुकूल अनुभवसे महात्माओंने अन्य नौ विषयोंका बड़ी सुगम रीतिसे वर्णन किया है ॥ २ ॥ ईश्वरकी प्रेरणासे गुणोंमें क्षोभ होकर रूपान्तर होनेसे जो आकाशादि पञ्चभूत, शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है, उसको ‘सर्ग’ कहते हैं। उस विराट् पुरुषसे उत्पन्न ब्रह्माजीके द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियोंका निर्माण होता है, उसका नाम है ‘विसर्ग’ ॥ ३ ॥ प्रतिपद नाशकी ओर बढऩेवाली सृष्टिको एक मर्यादामें स्थिर रखनेसे भगवान्‌ विष्णुकी जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम ‘स्थान’ है। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टिमें भक्तोंके ऊपर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम है ‘पोषण’। मन्वन्तरोंके अधिपति जो भगवद्भक्ति और प्रजा- पालनरूप शुद्ध धर्मका अनुष्ठान करते हैं, उसे ‘मन्वन्तर’ कहते हैं। जीवोंकी वे वासनाएँ, जो कर्मके द्वारा उन्हें बन्धनमें डाल देती हैं, ‘ऊति’ नामसे कही जाती हैं ॥ ४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 21 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

दसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

गोवर्धन शिला के स्पर्श से एक राक्षस का उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्ध के मुख से गोवर्द्धन की महिमा का वर्णन

 

चित्रकूटे पयस्विन्यां श्रीरामनवमीदिने ।
पारियात्रे तृतीयायां वैशाखस्य द्विजोत्तम ॥२८॥
कुकुराद्रौ च पूर्णायां नीलाद्रौ द्वादशीदिने ।
इन्द्रकीले च सप्तम्यां स्नानं दानं तपःक्रियाः ॥२९॥
तत्सर्वं कोटिगुणितं भवतीत्थं हि भारते ।
गोवर्धने तु तत्सर्वमनन्तं जायते द्विज ॥३०॥
गोदावर्यां गुरौ सिंहे मायापुर्यां तु कुंभगे ।
पुष्करे पुष्यनक्षत्रे कुरुक्षेत्रे रविग्रहे ॥३१॥
चन्द्रग्रहे तु काश्यां वै फाल्गुने नैमिषे तथा ।
एकादश्यां शूकरे च कार्तिक्यां गणमुक्तिदे ॥३२॥
जन्माष्टम्यां मधोः पुर्यां खाण्डवे द्वादशीदिने ।
कार्तिक्यां पूर्णिमायां तु वटेश्वरमहावटे ॥३३॥
मकरार्के प्रयागे तु बर्हिष्मत्यां हि वैधृतौ ।
अयोध्यासरयूतीरे श्रीरामनवमीदिने ॥३४॥
एवं शिवचतुर्दश्यां वैजनाथशुभे वने ।
तथा दर्शे सोमवारे गंगासागरसंगमे ॥३५॥
दशम्यां सेतुबन्धे च श्रीरङ्गे सप्तमीदिने ।
एषु दानं तपः स्नानं जपो देवद्विजार्चनम् ॥३६॥
तत्सर्वं कोटिगुणितं भवतीह द्विजोत्तम ।
तत्तुल्यं पुण्यमाप्नोति गिरौ गोवर्धने वरे ॥३७॥
गोविन्दकुण्डे विशदे यः स्नाति कृष्णमानसः ।
प्राप्नोति कृष्णसारूप्यं मैथिलेन्द्र न संशयः ॥३८॥
अश्वमेधसहस्राणि राजसूयशतानि च ।
मानसीगङ्गया तुल्यं न भवंत्यत्र नो गिरौ ॥३९॥
त्वया विप्र कृतं साक्षाद्‌गिरिराजस्य दर्शनम् ।
स्पर्शनं च ततः स्नानं न त्वत्तोऽप्यधिको भुवि ॥४०॥
न मन्यसे चेन्मां पश्य महापातकिनं परम् ।
गोवर्धनशिलास्पर्शात्कृष्णसारूप्यतां गतम् ॥४१॥

द्विजोत्तम ! चित्रकूट पर्वतपर श्रीरामनवमी के दिन पयस्विनी (मन्दाकिनी) में वैशाख की तृतीया को पारियात्र पर्वतपर, पूर्णिमा को कुकुराचलपर, द्वादशी के दिन नीलाचलपर और सप्तमी को इन्द्रकील पर्वतपर जो स्नान, दान और तप आदि पुण्यकर्म किये जाते हैं, वे सब कोटिगुने हो जाते हैं। ब्रह्मन् ! इसी प्रकार भारतवर्षके गोवर्द्धन तीर्थमें जो स्नानादि शुभकर्म किया जाता है, वह सब अनन्तगुना हो जाता है ।। २८-३०

बृहस्पति के सिंहराशि में स्थित होने पर गोदावरी में और कुम्भराशि में स्थित होनेपर हरद्वार में, पुष्यनक्षत्र आनेपर पुष्करमें, सूर्यग्रहण होनेपर कुरुक्षेत्र में, चन्द्रग्रहण होनेपर काशीमें, फाल्गुन आनेपर नैमिषारण्य में, एकादशी के दिन शूकरतीर्थ में, कार्तिक की पूर्णिमा को गढ़मुक्तेश्वर में, जन्माष्टमीके दिन मथुरामें, द्वादशीके दिन खाण्डव-वनमें, कार्तिककी पूर्णिमाको वटेश्वर नामक महावटके पास, मकर संक्राति लगनेपर प्रयाग- तीर्थमें, वैधृतियोग आनेपर बर्हिष्मतिमें, श्रीरामनवमीके दिन अयोध्यागत सरयूके तटपर, शिव चतुर्दशीको शुभ वैद्यनाथ- वनमें, सोमवारगत अमावास्याको गङ्गासागर-संगममें, दशमीको सेतुबन्धपर तथा सप्तमीको श्रीरङ्गतीर्थमें किया हुआ दान, तप, स्नान, जप, देवपूजन, ब्राह्मणपूजन आदि जो शुभकर्म किया जाता है, द्विजोत्तम ! वह कोटिगुना हो जाता है ।। ३१६ ॥

इन सबके समान पुण्य फल केवल गोवर्धन पर्वतकी यात्रा करनेसे प्राप्त हो जाता है। मैथिलेन्द्र ! जो भगवान् श्रीकृष्णमें मन लगाकर निर्मल गोविन्दकुण्डमें स्नान करता है, वह भगवान् श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त कर लेता है—इसमें संशय नहीं है ।। ३७-३८

हमारे गोवर्द्धन पर्वतपर जो मानसी गङ्गा है, उनमें डुबकी लगानेकी समानता करनेवाले सहस्रों अश्वमेध यज्ञ तथा सैकड़ों राजसूय यज्ञ भी नहीं हैं। विप्रवर! आपने साक्षात् गिरिराजका दर्शन, स्पर्श तथा वहाँ स्नान किया है, अतः इस भूतलपर आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। यदि आपको विश्वास न हो तो मेरी ओर देखिये। मैं बहुत बड़ा महापातकी था, किंतु गोवर्द्धनकी शिलाका स्पर्श होनेमात्र से मैंने भगवान् श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त कर लिया ।। ३९-४१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीगिरिराजका माहात्म्य' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌ 
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

श्रीशुक उवाच ।
सम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम् ।
पश्यतः तस्य तद् रूपं आत्मनो न्यरुणद्धरिः ॥ ३७ ॥
अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलिः ।
सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत् ॥ ३८ ॥
प्रजापतिर्धर्मपतिः एकदा नियमान् यमान् ।
भद्रं प्रजानामन्विच्छन् नातिष्ठत्स्वार्थकाम्यया ॥ ३९ ॥
तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः ।
शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च ॥ ४० ॥
मायां विविदिषन् विष्णोः मायेशस्य महामुनिः ।
महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत् ॥ ४१ ॥
तुष्टं निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम् ।
देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान् यन्मानुपृच्छति ॥ ४२ ॥
तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम् ।
प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत् ॥ ४३ ॥
नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप ।
ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासाय अमिततेजसे ॥ ४४ ॥
यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात्पुरुषादिदम् ।
यथासीत् तदुपाख्यास्ते प्रश्नान् अन्यांश्च कृत्स्नशः ॥ ४५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—लोकपितामह ब्रह्माजीको इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान्‌ ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूपको छिपा लिया ॥ ३७ ॥ जब सर्वभूतस्वरूप ब्रह्माजीने देखा कि भगवान्‌ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरूपको हमारे नेत्रोंके सामनेसे हटा लिया है, तब उन्होंने अञ्जलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्पमें जैसी सृष्टि थी, उसी रूपमें इस विश्वकी रचना की ॥ ३८ ॥ एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रह्माजीने सारी जनताका कल्याण हो, अपने इस स्वार्थकी पूर्तिके लिये विधिपूर्वक यम-नियमोंको धारण किया ॥ ३९ ॥ उस समय उनके पुत्रोंमें सबसे अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजीने मायापति भगवान्‌की मायाका तत्त्व जाननेकी इच्छासे बड़े संयम, विनय और सौम्यतासे अनुगत होकर उनकी सेवा की। और उन्होंने सेवासे ब्रह्माजीको बहुत ही सन्तुष्ट कर लिया ॥ ४०-४१ ॥ परीक्षित्‌ ! जब देवर्षि नारदने देखा कि मेरे लोकपितामह पिताजी मुझपर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्र किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो ॥ ४२ ॥ उनके प्रश्न से ब्रह्मा जी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षणवाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारद को सुनाया जिसका स्वयं भगवान्‌ ने उन्हें उपदेश किया था ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वतीके तटपर बैठकर परमात्माके ध्यानमें मग्र थे, उस समय देवर्षि नारदजीने वही भागवत उन्हें सुनाया ॥ ४४ ॥ तुमने मुझसे जो यह प्रश्न किया है कि विराट् पुरुषसे इस जगत् की  उत्पत्ति कैसे हुई, तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर मैं उसी भागवतपुराणके रूपमें देता हूँ ॥ ४५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायांद्वितीयस्कंधे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

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शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

दसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

गोवर्धन शिला के स्पर्श से एक राक्षस का उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्ध के मुख से गोवर्द्धन की महिमा का वर्णन

 

सिद्ध उवाच -
गिरिराजो हरे रूपं श्रीमान् गोवर्धनो गिरिः ।
तस्य दर्शनमात्रेण नरो याति कृतार्थताम् ॥१४॥
गन्धमादनयात्रायां यत्फलं लभते नरः ।
तस्मात्कोटिगुणं पुण्यं गिरिराजस्य दर्शने ॥१५॥
पंचवर्षसहस्राणि केदारे यत्तपःफलम् ।
तच्च गोवर्धने विप्र क्षणेन लभते नरः ॥१६॥
मलयाद्रौ स्वर्णभारदानस्यापि च यत्फलम् ।
तस्मात्कोटिगुणं पुण्यं गिरिराजे हि मासिकम् ॥१७॥
पर्वते मंगलप्रस्थे यो दद्याद्धेमदक्षिणाम् ।
स याति विष्णुसारूप्यं युक्तः पापशतैरपि ॥१८॥
तत्पदं हि नरो याति गिरिराजस्य दर्शनात् ।
गिरिराजसमं पुण्यमन्यत्तीर्थं न विद्यते ॥१९॥
ऋषभाद्रौ कूटकाद्रौ कोलकाद्रौ तथा नरः ।
सुवर्णशृङ्गयुक्तानां गवां कोटीर्ददाति यः ॥२०॥
महापुण्यं लभेत्सोऽपि विप्रान्संपूज्य यत्‍नतः ।
तस्माल्लक्षगुणं पुण्यं गिरौ गोवर्धने द्विज ॥२१॥
ऋष्यमूकस्य सह्यस्य तथा देवगिरेः पुनः ।
यात्रायां लभते पुण्यं समस्ताया भुवः फलम् ॥२२॥
गिरिराजस्य यात्रायां तस्मात्कोटिगुणं फलम् ।
गिरिराजसमं तीर्थं न भूतं न भविष्यति ॥२३॥
श्रीशैले दश वर्षाणि कुण्डे विद्याधरे नरः ।
स्नानं करोति सुकृती शतयज्ञफलं लभेत् ॥२४॥
गोवर्धने पुच्छकुण्डे दिनैकं स्नानकृन्नरः ।
कोटियज्ञफलं साक्षात्पुण्यमेति न संशयः ॥२५॥
वेंकटाद्रौ वारिधारे महेन्द्रे विन्ध्यपर्वते ।
यज्ञं कृत्वा ह्यश्वमेधं नरो नाकपतिर्भवेत् ॥२६॥
गोवर्धनेऽस्मिन्यो यज्ञं कृत्वा दत्वा सुदक्षिणाम् ।
नाके पदं संविधाय स विष्णोः पदमाव्रजेत् ॥२७॥

सिद्ध ने कहा- ब्रह्मन् ! श्रीमान् गिरिराज गोवर्द्धन पर्वत साक्षात् श्रीहरिका रूप है। उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है । गन्धमादन की यात्रा करनेसे मनुष्य को जिस फलकी प्राप्ति होती है, उससे कोटिगुना पुण्य गिरिराज के दर्शनसे होता है। विप्रवर ! केदारतीर्थ में पाँच हजार वर्षों तक तपस्या करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही फल गोवर्द्धन पर्वत पर तप करनेसे मनुष्यको क्षणभरमें प्राप्त हो जाता है ।। १४–१६ ॥

मलयाचलपर एक भार स्वर्णका दान करनेसे जिस पुण्यफलकी प्राप्ति होती है, उससे कोटिगुना पुण्य गिरिराजपर एक माशा सुवर्णका दान करनेसे ही मिल जाता है। जो मङ्गलप्रस्थ पर्वतपर सोनेकी दक्षिणा देता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त होनेपर भी भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त कर लेता है। भगवान्‌के उसी पदको मनुष्य गिरिराजका दर्शन करनेमात्रसे पा लेता है। गिरिराजके समान पुण्यतीर्थ दूसरा कोई नहीं है ।। १–१

ऋषभ पर्वत, कूटक पर्वत तथा कोलक पर्वतपर सोनेसे मढ़े सींगवाली एक करोड़ गौओंका जो दान करता है, वह भी ब्राह्मणोंका यत्नपूर्वक पूजन करके महान् पुण्यका भागी होता है । ब्रह्मन् ! उसकी अपेक्षा भी लाखगुना पुण्य गोवर्द्धन पर्वतकी यात्रा करनेमात्रसे सुलभ होता है ।। २०२१

ऋष्यमूक, सह्यगिरि तथा देवगिरिकी एवं सम्पूर्ण पृथ्वी की यात्रा करनेपर मनुष्य जिस पुण्यफलको पाता है,गिरिराज गोवर्धनकी यात्रा करनेपर उससे भी कोटिगुना अधिक फल उसे प्राप्त हो जाता है। अतः गिरिराजके समान तीर्थ न तो पहले कभी हुआ है और न भविष्यत्काल में होगा ही ।। २२२३

श्रीशैल पर दस वर्षों तक रहकर वहाँ के विद्याधर- कुण्ड में जो प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुण्यात्मा मनुष्य सौ यज्ञोंके अनुष्ठान का फल पा लेता है; परंतु गोवर्द्धन पर्वत के पुच्छकुण्ड में एक दिन स्नान करने- वाला मनुष्य कोटियज्ञोंके साक्षात् अनुष्ठानका पुण्य- फल पा लेता है, इसमें संशय नहीं है ।। २४-२५

वेङ्कटाचल, वारिधार, महेन्द्र और विन्ध्याचलपर एक अश्वमेध - यज्ञका अनुष्ठान करके मनुष्य स्वर्गलोकका अधिपति हो जाता है; परंतु इस गोवर्द्धन पर्वतपर जो यज्ञ करके उत्तम दक्षिणा देता है, वह स्वर्गलोकके मस्तकपर पैर रखकर भगवान् विष्णुके धाममें चला जाता है ।। २६-२७

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...