बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

छठा अध्याय (पोस्ट 01)

 

अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियोंका राजा विमलके यहाँ पुत्रीरूपसे उत्पन्न होना; उनके विवाहके लिये राजाका मथुरामें श्रीकृष्णको देखनेके निमित्त दूत भेजना; वहाँ पता न लगनेपर भीष्मजीसे अवतार - रहस्य जानकर उनका श्रीकृष्णके पास दूत प्रेषित करना

 

श्रीनारद उवाच -
एवमुक्त्वा गते साक्षाद्याज्ञवल्क्ये महामुनौ ॥
 अतीव हर्षमापन्नौ विमलश्चम्पकापतिः ॥ १ ॥
 अयोध्यापुरवासिन्यः श्रीरामस्य वराच्च याः ॥
 बभूवुस्तस्य भार्यासु ताः सर्वाः कन्यकाः शुभाः ॥ २ ॥
 विवाहयोग्यास्ता दृष्ट्वा चिन्तयन् चम्पकापतिः ॥
 याज्ञवल्क्यवचः स्मृत्वा दूतमाह नृपेश्वरः ॥ ३ ॥


 विमल उवाच -
मथुरां गच्छ दूत त्वं गत्वा शौरिगृहं शुभम् ॥
 दर्शनीयस्त्वया पुत्रो वसुदेवस्य सुन्दरः ॥ ४ ॥
 श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाली चतुर्भुजः ॥
 यदि स्यात्तर्हि दास्यामि तस्मै सर्वाः सुकन्यकाः ॥ ५ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति वाक्यं ततः श्रुत्वा दूतोऽसौ मथुरां गतः ।
 पप्रच्छ सर्वाभिप्रायं माथुरांश्च महाजनान् ॥ ६ ॥
 तद्वाक्यं माथुराः श्रुत्वा कंसभीताः सुबुद्धयः ।
 तं दूतं रहसि प्राहुः कर्णांते मंदवाग्यथा ॥ ७ ॥


 माथुरा ऊचुः
 वसुदेवस्य ये पुत्राः कंसेन बहवो हताः ।
 एकाऽवशिष्टावरजा कन्या साऽपि दिवं गता ॥ ८ ॥
 वसुदेवोऽस्ति चात्रैव ह्यपुत्रो दीनमानसः ।
 इदं न कथनीयं हि त्वया कंसभयं पुरे ॥ ९ ॥
 शौरिसंतानवार्तां यो वक्ति चेन्मथुरापुरे ।
 तं दंडयति कंसोऽसौ शौर्यष्टमशिशो रिपुः ॥ १० ॥


 श्रीनारद उवाच -
जनवाक्यं ततः श्रुत्वा दूतो वै चम्पकापुरीम् ।
 गत्वाऽथ कथयामास राज्ञे कारणमद्‌भुतम् ॥ ११ ॥


 दूत उवाच -
मथुरायामस्ति शौरिरनपत्योऽतिदीनवत् ।
 तत्पुत्रास्तु पुरा जाताः कंसेन निहताः श्रुतम् ॥ १२ ॥
 एकावशिष्टा कन्याऽपि खं गता कंसहस्ततः ।
 एवं शृत्वा यदुपुरान्निर्गतोऽहं शनैः शनैः ॥ १३ ॥
 चरन् वृन्दावने रम्ये कालिन्दीनिकटे शुभे ।
 अकस्माल्लतिकावृन्दे दृष्टः कश्चिच्छिशुर्मया ॥ १४ ॥
 तल्लक्षणसमो राजन् गोगोपगणमध्यतः ।
 श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाल्यतिसुन्दरः ॥ १५ ॥
 द्विभुजो गोपसूनुश्च परं त्वेतद्विलक्षणम् ।
 त्वया चतुर्भुजश्चोक्तो वसुदेवात्मजो हरिः ॥ १६ ॥
 किं कर्तव्यं वद नृप मुनिवाक्यं मृषा न हि ।
 यत्र यत्र यथेच्छा ते तत्र मां प्रेषय प्रभो ॥ १७ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर जब साक्षात् महामुनि याज्ञवल्क्य चले गये, तब चम्पका नगरीके स्वामी राजा विमलको बड़ा हर्ष हुआ। अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियाँ श्रीरामके वरदानसे उनकी रानियोंके गर्भ से पुत्रीरूपमें प्रकट हुईं। वें सभी राजकन्याएँ बड़ी सुन्दरी थीं । उन्हें विवाह के योग्य अवस्थामें देखकर नृपशिरोमणि चम्पकेश्वरको चिन्ता हुई। उन्होंने याज्ञवल्क्यजीकी बातको याद करके दूत से कहा ।। १ - ३ ॥

विमल बोले- दूत ! तुम मथुरा जाओ और वहाँ शूरपुत्र वसुदेवके सुन्दर घरतक पहुँचकर देखो। वसुदेवका कोई बहुत सुन्दर पुत्र होगा। उसके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न होगा, अङ्गकान्ति मेघमालाकी भाँति श्याम होगी तथा वह वनमालाधारी एवं चतुर्भुज होगा। यदि ऐसी बात हो तो मैं उसके हाथमें अपनी समस्त सुन्दरी कन्याएँ दे दूँगा ।। ४-५ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! महाराज विमलकी यह बात सुनकर वह दूत मथुरापुरीमें गया और मथुराके बड़े-बड़े लोगोंसे उसने सारी अभीष्ट बातें पूछीं। उसकी बात सुनकर मथुराके बुद्धिमान् लोग, जो कंससे डरे हुए थे, उस दूतको एकान्तमें ले जाकर उसके कानमें बहुत धीमे स्वरसे बोले ।। ६-७ ।।

मथुरानिवासियों ने कहा – वसुदेव के जो बहुत- से पुत्र हुए, वे कंसके द्वारा मारे गये। एक छोटी-सी कन्या बच गयी थी, किंतु वह भी आकाशमें उड़ गयी। वसुदेव यहीं रहते हैं, किंतु पुत्रोंसे बिछुड़ जानेके कारण उनके मनमें बड़ा दुःख है। इस समय जो बात तुम हम लोगोंसे पूछ रहे हो, उसे और कहीं न कहना क्योंकि इस नगरमें कंसका भय है। मथुरापुरीमें जो वसुदेवकी संतानके सम्बन्धमें कोई बात करता है, उसे उनके आठवें पुत्र का शत्रु कंस भारी दण्ड देता है । ८ - १० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जनसाधारणकी यह बात सुनकर दूत चम्पकापुरीमें लौट गया। वहाँ जाकर राजासे उसने वह अद्भुत संवाद कह सुनाया ॥ ११ ॥

दूत बोला - महाराज ! मथुरामें शूरपुत्र वसुदेव अवश्य हैं, किंतु संतानहीन होनेके कारण अत्यन्त दीनकी भाँति जीवन व्यतीत करते हैं। सुना है कि पहले उनके अनेक पुत्र हुए थे, जो कंसके हाथसे मारे गये हैं। एक कन्या बची थी, किंतु वह भी कंसके हाथसे छूटकर आकाशमें उड़ गयी। यह वृत्तान्त सुनकर मैं यदुपुरीसे धीरे-धीरे बाहर निकला ॥ १२-१३

वृन्दावनमें कालिन्दी के सुन्दर एवं रमणीय तटपर विचरते हुए मैंने लताओंके समूहमें अकस्मात् एक शिशु देखा । राजन् ! गोपोंके मध्य दूसरा कोई ऐसा बालक नहीं था, जिसके लक्षण उसके समान हों। उस बालकके वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न था । उसकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम थी और वह वनमाला धारण किये अत्यन्त सुन्दर दिखायी देता था ॥ १४-१५

परंतु अन्तर इतना ही है कि उस गोप- बालक के दो ही बाँहें थीं और आपने वसुदेवकुमार श्रीहरि को चतुर्भुज बताया था। नरेश्वर ! बताइये, अब क्या करना चाहिये ? क्योंकि मुनिकी बात झूठी नहीं हो सकती । प्रभो ! जहाँ-जहाँ, जिस तरह आपकी इच्छा हो, उसके अनुसार वहाँ-वहाँ मुझे भेजिये ।। १-१७॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धव और विदुर की भेंट

श्रीशुक उवाच ।
एवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान् किल ।
क्षत्त्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृह ऋद्धिमत् ॥ १ ॥
यद्वा अयं मंत्रकृद्वो भगवान् अखिलेश्वरः ।
पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम् ॥ २ ॥

राजोवाच ।
कुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सङ्गमः ।
कदा वा सहसंवाद एतद् वर्णय नः प्रभो ॥ ३ ॥
न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्य अमलात्मनः ।
तस्मिन् वरीयसि प्रश्नः साधुवादोपबृंहितः ॥ ४ ॥

सूत उवाच ।
स एवं ऋषिवर्योऽयं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता ।
प्रत्याह तं सुबहुवित् प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥ ५ ॥

श्रीशुक उवाच ।
यदा तु राजा स्वसुतानसाधून्
    पुष्णन् न धर्मेण विनष्टदृष्टिः ।
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून्
    प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥ ६ ॥
यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः
    केशाभिमर्शं सुतकर्म गर्ह्यम् ।
न वारयामास नृपः स्नुषायाः
    स्वास्रैर्हरन्त्याः कुचकुङ्कुमानि ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकालमें अपने सुख-समृद्धिसे पूर्ण घरको छोडक़र वनमें गये हुए विदुरजीने भगवान्‌ मैत्रेयजीसे पूछी थी ॥ १ ॥ जब सर्वेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधन के महलों को छोडक़र, उसी विदुरजी के घरमें उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ॥ २ ॥
राजा परीक्षित्‌ ने पूछा—प्रभो ! यह तो बतलाइये कि भगवान्‌ मैत्रेय के साथ विदुरजी का समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? ॥ ३ ॥ पवित्रात्मा विदुर ने महात्मा मैत्रेयजी से कोई साधारण प्रश्र नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेयजी-जैसे साधुशिरोमणि ने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ॥ ४ ॥
सूतजी कहते हैं—सर्वज्ञ शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌ के इस प्रकार पूछनेपर अति प्रसन्न होकर कहा—सुनो ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे—परीक्षित्‌ ! यह उन दिनों की बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अन्याय- पूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डुके अनाथ बालकोंको लाक्षाभवनमें भेजकर आग लगवा दी ॥ ६ ॥ जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिरकी पटरानी द्रौपदीके केश दु:शासनने भरी सभामें खींचे, उस समय द्रौपदीकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह चली और उस प्रवाहसे उसके वक्ष:स्थलपर लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्रने अपने पुत्रको उस कुकर्मसे नहीं रोका ॥ ७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

अयोध्यावासिनी गोपियों के आख्यान के प्रसङ्ग में राजा विमल की संतान के लिये चिन्ता तथा महामुनि याज्ञवल्क्य द्वारा उन्हें बहुत-सी पुत्री होने का विश्वास दिलाना

 

 श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
अस्मिन् जन्मनि राजेन्द्र पुत्रो नैव च नैव च ।
 पुत्र्यस्तव भविष्यन्ति कोटिशो नृपसत्तम ॥ १२ ॥


 राजोवाच -
पुत्रं विना पूर्वऋणान्न कोऽपि
     प्रमुच्यते भूमितले मुनीन्द्र ।
 सदा ह्यपुत्रस्य गृहे व्यथा स्या-
     त्परं त्विहामुत्र सुखं न किंचित् ॥ १३ ॥


 श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
मा खेदं कुरु राजेन्द्र पुत्र्यो देयास्त्वया खलु ।
 श्रीकृष्णाय भविष्याय परं दायादिकैः सह ॥ १४ ॥
 तेनैव कर्मणा त्वं वै देवर्षिपितृणामृणात् ।
 विमुक्तो नृपशार्दूल परं मोक्षमवाप्स्यसि ॥ १५ ॥


 श्रीनारद उवाच -
तदाऽतिहर्षितो राजा श्रुत्वा वाक्यं महामुनेः ।
 पुनः पप्रच्छ संदेहं याज्ञवल्क्यं महामुनिम् ॥ १६ ॥


 राजोवाच -
कस्मिन् कुले कुत्र देशे भविष्यः श्रीहरिः स्वयम् ।
 कीदृग्‌रूपश्च किंवर्णो वर्षैश्च कतिभिर्गतैः ॥ १७ ॥


 श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
द्वापरस्य युगस्यास्य तव राज्यान्महाभुज ।
 अवशेषे वर्षशते तथा पञ्चदशे नृप ॥ १८ ॥
 तस्मिन् वर्षे यदुकुले मथुरायां यदोः पुरे ।
 भाद्रे बुधे कृष्णपक्षे धात्रर्क्षे हर्षणे वृषे ॥ १९ ॥
 बवेऽष्टम्यामर्धरात्रे नक्षत्रेशमहोदये ।
 अंधकारावृते काले देवक्यां शौरिमन्दिरे ॥ २० ॥
 भविष्यति हरिः साक्षादरण्यामध्वरेऽग्निवत् ।
 श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाल्यतिसुन्दरः ॥ २१ ॥
 पीतांबरः पद्मनेत्रो भविष्यति चतुर्भुजः ।
 तस्मै देया त्वया कन्या आयुस्तेऽस्ति न संशयः ॥ २२ ॥

याज्ञवल्क्य बोले- राजेन्द्र ! इस जन्ममें तो तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है, नहीं है, परंतु नृपश्रेष्ठ ! तुम्हें पुत्रियाँ करोड़ोंकी संख्यामें प्राप्त होंगी ।। १२ ।।

राजाने कहा- मुनीन्द्र ! पुत्रके बिना कोई भी इस भूतलपर पूर्वजोंके ऋणसे मुक्त नहीं होता। पुत्र- हीनके घरमें सदा ही व्यथा बनी रहती है। उसे इस लोक या परलोकमें कुछ भी सुख नहीं मिलता ॥ १३ ॥

याज्ञवल्क्य बोले- राजेन्द्र ! खेद न करो। भविष्य में भगवान् श्रीकृष्णका अवतार होनेवाला है। तुम उन्हींको दहेजके साथ अपनी सब पुत्रियाँ समर्पित कर देना । नृपश्रेष्ठ ! उसी कर्मसे तुम देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके ऋणसे छूटकर परममोक्ष प्राप्त कर लोगे ।। १४-१५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- महामुनिका यह वचन सुनकर उस समय राजाको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने महर्षि याज्ञवल्क्यसे पुनः अपना संदेह पूछा ? ॥ १६ ॥

राजा बोले- मुनीश्वर ! कितने वर्ष बीतनेपर किस देशमें और किस कुलमें साक्षात् श्रीहरि अवतीर्ण होंगे ? उस समय उनका रूप-रंग क्या होगा ? ॥ १७ ॥

याज्ञवल्क्य बोले- महाबाहो ! इस द्वापरयुग के जो अवशेष वर्ष हैं, उन्हीं में तुम्हारे राज्यकाल से एक सौ पंद्रह वर्ष व्यतीत होने पर यादवपुरी मथुरा में यदुकुल के भीतर भाद्रपदमास, कृष्णपक्ष, बुधवार, रोहिणी नक्षत्र,हर्षण योग, वृषलग्न, वव करण और अष्टमी तिथिमें आधी रातके समय चन्द्रोदय-काल में, जब कि सब कुछ अन्धकार से आच्छन्न होगा, वसुदेव-भवन में देवकी के गर्भ से साक्षात् श्रीहरि का विर्भाव होगा- ठीक उसी तरह जैसे यज्ञमें अरणि-काष्ठसे अग्निका प्राकट्य होता है। भगवान्‌ के वक्षःस्थल पर श्रीवत्सका चिह्न होगा। उनकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम होगी। वे वनमाला से अलंकृत और अतीव सुन्दर होंगे। पीताम्बरधारी, कमलनयन तथा अवतारकाल में चतुर्भुज होंगे। तुम उन्हें अपनी कन्याएँ देना । तुम्हारी आयु अभी बहुत है। तुम उस समयतक जीवित रहोगे, इसमें संशय नहीं है ।। १८ – २२ ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में माधुर्यखण्ड के अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में 'अयोध्यावासिनी गोपाङ्गनाओं का उपाख्यान' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

भागवत के दस लक्षण

परिमाणं च कालस्य कल्पलक्षण विग्रहम् ।
यथा पुरस्ताद् व्याख्यास्ये पाद्मं कल्पमथो श्रृणु ॥ ४७ ॥

शौनक उवाच ।
यदाह नो भवान् सूत क्षत्ता भागवतोत्तमः ।
चचार तीर्थानि भुवः त्यक्त्वा बंधून् सु-दुस्त्यजान् ॥ ४८ ॥
क्षत्तुः कौशारवेः तस्य संवादोऽध्यात्मसंश्रितः ।
यद्वा स भगवान् तस्मै पृष्टः तत्त्वं उवाच ह ॥ ४९ ॥
ब्रूहि नः तद् इदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम् ।
बन्धुत्याग निमित्तं च यथैव आगतवान् पुनः ॥ ५० ॥

सूत उवाच ।
राज्ञा परीक्षिता पृष्टो यद् अवोचत् महामुनिः ।
तद्वोऽभिधास्ये श्रृणुत राज्ञः प्रश्नानुसारतः ॥ ५१ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहरहे  हैं) परीक्षित्‌ ! काल का परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरोंका वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम पाद्मकल्प का वर्णन सावधान होकर सुनो ॥ ४७ ॥
शौनकजीने पूछा—सूतजी ! आपने हम लोगों से कहा था कि भगवान्‌ के परम भक्त विदुरजी ने अपने अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोडक़र पृथ्वीके विभिन्न तीर्थोंमें विचरण किया था ॥ ४८ ॥ उस यात्रामें मैत्रेय ऋषिके साथ अध्यात्मके सम्बन्धमें उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेयजीने उनके प्रश्न करनेपर किस तत्त्वका उपदेश किया ? ॥ ४९ ॥ सूतजी ! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ? ॥ ५० ॥
सूतजीने कहा—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित्‌ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्नों के उत्तर में श्रीशुकदेव जी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही मैं आपलोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये ॥ ५१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

इति द्वितीय स्कन्ध समाप्त

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
 
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सोमवार, 30 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

अयोध्यावासिनी गोपियों के आख्यान के प्रसङ्ग में राजा विमल की संतान के लिये चिन्ता तथा महामुनि याज्ञवल्क्य द्वारा उन्हें बहुत-सी पुत्री होने का विश्वास दिलाना

 

श्रीनारद उवाच -
अयोध्यावासिनीनां तु गोपीनां वर्णनं शृणु ।
 चतुष्पदार्थदं साक्षात्कृष्णप्राप्तिकरं परम् ॥ १ ॥
 सिन्धुदेशेषु नगरी चंपका नाम मैथिल ।
 बभूव तस्यां विमलो राजा धर्मपरायणः ॥ २ ॥
 कुवेर इव कोशाढ्यो मनस्वी मृगराडिव ।
 विष्णुभक्तः प्रशांतात्मा प्रह्लाद इव मूर्तिमान् ॥ ३ ॥
 भार्याणां षट्सहस्राणि बभूवुस्तस्य भूपतेः ।
 रूपवत्यः कंजनेत्रा वंध्यात्वं ताः समागताः ॥ ४ ॥
 अपत्यं केन पुण्येन भूयान् मेऽत्र शुभं नृप ।
 एवं चिन्तयतस्तस्य बहवो वत्सरा गताः ॥ ५ ॥
 एकदा याज्ञवल्क्यस्तु मुनीन्द्रस्तमुपागतः ।
 तं नत्वाभ्यर्च विधिवन्नृपस्तत्संमुखे स्थितः ॥ ६ ॥
 चिंताकुलं नृपं वीक्ष्य याज्ञवल्क्यो महामुनिः ।
 सर्वज्ञः सर्वविच्छान्तः प्रत्युवाच नृपोत्तमम् ॥ ७ ॥


 श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
राजन् कृशोऽसि कस्मात्त्वं का चिंता ते हृदि स्थिता ।
 सप्रस्वगेषु कुशलं दृश्यते सांप्रतं तव ॥ ८ ॥


 विमल उवाच -
ब्रह्मंस्त्वं किं न जानासि तपसा दिव्यचक्षुषा ।
 तथाऽप्यहं वदिष्यामि भवतो वाक्यगौरवात् ॥ ९ ॥
 आनपत्येन दुःखेन व्याप्तोऽहं मुनिसत्तम ।
 किं करोमि तपो दानं वद येन भवेत्प्रजा ॥ १० ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा याज्ञवल्क्यो ध्यानस्तिमितलोचनः ।
 दीर्घं दध्यौ मुनिश्रेष्ठो भूतं भव्यं विचिंतयन् ॥ ११ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! अब अयोध्या- वासिनी गोपियोंका वर्णन सुनो, जो चारों पदार्थोंको देनेवाला तथा साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला सर्वोत्कृष्ट साधन है ॥ १ ॥

मिथिलेश्वर ! सिन्धुदेश में चम्पका नाम से प्रसिद्ध एक नगरी थी, जिसमें धर्मपरायण विमल नामक राजा हुए थे। वे कुबेरके समान कोष से सम्पन्न तथा सिंह के समान मनस्वी थे। वे भगवान् विष्णुके भक्त और प्रशान्तचित्त महात्मा थे। वे अपनी अविचल भक्तिके कारण मूर्तिमान् प्रह्लाद से प्रतीत होते थे । उन भूपालके  छः हजार रानियाँ थीं। वे सब की सब सुन्दर रूप- वाली तथा कमलनयनी थीं, परंतु भाग्यवश वे वन्ध्या हो गयीं। राजन् ! 'मुझे किस पुण्यसे उत्तम संतानकी प्राप्ति होगी ?' - ऐसा विचार करते हुए राजा विमलके बहुत वर्ष व्यतीत हो गये ॥ २-५ ॥

एक दिन उनके यहाँ मुनिवर याज्ञवल्क्य पधारे । राजा ने उनको प्रणाम करके उनका विधिवत् पूजन किया और फिर उनके सामने वे विनीतभाव से खड़े हो गये ॥

नृपतिशिरोमणि राजा को चिन्ता से आकुल देख सर्वज्ञ, सर्ववित् तथा शान्तस्वरूप महामुनि याज्ञवल्क्यने उनसे पूछा-- ।। ७ ।।

याज्ञवल्क्य बोले- राजन् ! तुम दुर्बल क्यों हो गये हो ? तुम्हारे हृदयमें कौन-सी चिन्ता खड़ी हो गयी है ? इस समय तुम्हारे राज्यके सातों अङ्गों में तो कुशल- मङ्गल ही दिखायी देता है ? ॥ ८ ॥

विमल ने कहा- -ब्रह्मन् ! आप अपनी तपस्या एवं दिव्यदृष्टि से क्या नहीं जानते हैं ? तथापि आपकी आज्ञाका गौरव मानकर मैं अपना कष्ट बता रहा हूँ । मुनिश्रेष्ठ ! मैं संतान हीनता के दुःख से चिन्तित हूँ। कौन-सा तप और दान करूँ, जिससे मुझे संतान की प्राप्ति हो ।। ९-१० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- विमलकी यह बात सुनकर याज्ञवल्क्यमुनिके नेत्र ध्यानमें स्थित हो गये। वे मुनिश्रेष्ठ भूत और वर्तमानका चिन्तन करते हुए दीर्घकालतक ध्यानमें मग्न रहे ॥ ११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

भागवत के दस लक्षण

स एवेदं जगद्धाता भगवान् धर्मरूपधृक् ।
पुष्णाति स्थापयन् विश्वं तिर्यङ्नरसुरादिभिः ॥ ४२ ॥
ततः कालाग्निरुद्रात्मा यत्सृष्टं इदमात्मनः ।
सं नियच्छति तत्काले घनानीकं इवानिलः ॥ ४३ ॥
इत्थं भावेन कथितो भगवान् भगवत्तमः ।
न इत्थं भावेन हि परं द्रष्टुं अर्हन्ति सूरयः ॥ ४४ ॥
नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्य अनुविधीयते ।
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययारोपितं हि तत् ॥ ४५ ॥
अयं तु ब्रह्मणः कल्पः सविकल्प उदाहृतः ।
विधिः साधारणो यत्र सर्गाः प्राकृतवैकृताः ॥ ४६ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहरहे  हैं) वे भगवान्‌ जगत् के  धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपों में अवतार लेते हैं तथा विश्व का पालन-पोषण करते हैं ॥ ४२ ॥ प्रलय का समय आने पर वे ही भगवान्‌ अपने बनाये हुए इस विश्व को कालाग्निस्वरूप रुद्र का रूप ग्रहण करके अपने में वैसे ही लीन कर लेते हैं, जैसे वायु मेघमाला को ॥ ४३ ॥
परीक्षित्‌ ! महात्माओंने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान्‌ का इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्त्वज्ञानी पुरुषों को केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करनेवाले रूप में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं ॥ ४४ ॥ सृष्टि की रचना आदि कर्मों का निरूपण करके पूर्ण परमात्मा से कर्म या कर्तापनका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो मायासे आरोपित होनेके कारण कर्तृत्वका निषेध करनेके लिये ही है ॥ ४५ ॥ यह मैंने ब्रह्माजीके महाकल्पका अवान्तर कल्पोंके साथ वर्णन किया है। सब कल्पोंमें सृष्टि-क्रम एक-सा ही है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्पके प्रारम्भमें प्रकृतिसे क्रमश: महत्तत्त्वादिकी उत्पत्ति होती है और कल्पोंके प्रारम्भमें प्राकृत सृष्टि तो ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर प्राणियोंकी वैकृत सृष्टि नवीन रूपसे होती है ॥ ४६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 29 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौथा अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौथा अध्याय

 

कोसलप्रान्तीय स्त्रियों का व्रज में गोपी होकर श्रीकृष्ण के प्रति अनन्यभाव से प्रेम करना

 

श्रीनारद उवाच -
कौशलानां गोपिकानां वर्णनं शृणु मैथिल ।
 सर्वपापहरं पुण्यं श्रीकृष्णचरितामृतम् ॥ १ ॥
 नवोपनन्दगेहेषु जाता रामवराद्‌व्रजे ।
 परिणीता गोपजनै रत्नरभूषणभूषिताः ॥ २ ॥
 पूर्णचन्द्रप्रतीकाशा नवयौवनसंयुताः ।
 पद्मिन्यो हंसगमनाः पद्मपत्रविलोचनाः ॥ ३ ॥
 जारधर्मेण सुस्नेहं सुदृढं सर्वतोऽधिकम् ।
 चक्रुः कृष्णे नन्दसुते कमनीये महात्मनि ॥ ४ ॥
 ताभिः सार्द्धं सदा हास्यं व्रजवीथीषु माधवः ।
 स्मितैः पीतपटादानैः कर्षणैः स चकार ह ॥ ५ ॥
 दधिविक्रयार्थं यान्त्यस्ताः कृष्ण कृष्णेति चाब्रुवन् ।
 कृष्णे हि प्रेमसंयुक्ता भ्रमंत्यः कुंजमडले ॥ ६ ॥
 खे वायौ चाग्निजलयोर्मह्यां ज्योतिर्दिशासु च ।
 द्रुमेषु जनवृन्देषु तासां कृष्णो हि लक्ष्यते ॥ ७ ॥
 प्रेमलक्षणसंयुक्ताः श्रीकृष्णहृतमानसाः ।
 अष्टभिः सात्त्विकैर्भावैः संपन्नास्ताश्च योषितः ॥ ८ ॥
 प्रेम्णा परमहंसानां पदवीं समुपागताः ।
 कृष्णनन्दाः प्रधावन्त्यो व्रजवीथीषु ता नृप ॥ ९ ॥
 जडा जडं न जानंत्यो जडोन्मत्तपिशाचवत् ।
 अब्रुवन्त्यो ब्रुवन्त्यो वा गतलज्जा गतव्यथाः ॥ १० ॥
 एवं कृतार्थतां प्राप्प्तास्तन्मया याश्च गोपिकाः ।
 बलादाकृष्य कृष्णस्य चुचुंबुर्मुखपंकजम् ॥ ११ ॥
 तासां तपः किं कथयामि राजन्
     पूर्णे परे ब्रह्मणि वासुदेवे ।
 याश्चक्रिरे प्रेम हृदिंद्रियाद्यै-
     र्विसृज्य लोकव्यवहारमार्गम् ॥ १२ ॥
 या रासरंगे विनिधाय बाहुं
     कृष्णांसयोः प्रेमविभिन्नचित्ताः ।
 चक्रुर्वशे कृष्णमलं तपस्त-
     द्‌वक्तुं न शक्तो वदनैः फणीन्द्रः ॥ १३ ॥
 योगेन सांख्येन शुभेन कर्मणा
     न्यायादिवैशेषिकतत्त्ववित्तमैः ।
 यत्प्राप्यते तच्च पदं वेदेहराट्
     संप्राप्यते केवलभक्तिभावतः ॥ १४ ॥
 भक्त्यैव वश्यो हरिरादिदेवः
     सदा प्रमाणं किल चात्र गोप्यः ।
 सांख्यं च योगं न कृतं कदापि
     प्रेम्णैव यस्य प्रकृतिं गताः स्युः ॥ १५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! अब कोसल- प्रदेशकी गोपिकाओंका वर्णन सुनो। यह श्रीकृष्ण चरितामृत समस्त पापोंका नाश करनेवाला तथा पुण्य-जनक है। कोसलप्रान्तकी स्त्रियाँ श्रीरामके वरसे व्रजमें नौ उपनन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुईं और व्रजके गोपजनोंके साथ उनका विवाह हो गया। वे सब-की- सब रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित थीं। उनकी अङ्गकान्ति पूर्ण चन्द्रमाकी चाँदनीके समान थी। वे नूतन यौवनसे सम्पन्न थीं। उनकी चाल हंसके समान थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल थे । वे पद्मिनी जाति की नारियाँ थीं । उन्होंने कमनीय महात्मा नन्द-नन्दन श्रीकृष्णके प्रति जारधर्मके अनुसार उत्तम, सुदृढ़ तथा सबसे अधिक स्नेह किया ॥ १-४ ॥                                                                                                                                                                              व्रजकी गलियोंमें माधव मुस्कराकर पीताम्बर छीन- कर और आँचल खींचकर उनके साथ सदा हास- परिहास किया करते थे । वे गोपबालाएँ जब दही बेचने- के लिये निकलतीं तो 'दही लो, दही लो' -यह कहना भूलकर 'कृष्ण लो, कृष्ण लो' कहने लगती थीं । श्रीकृष्णके प्रति प्रेमासक्त होकर वे कुञ्जमण्डलमें घूमा करती थीं। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र- मण्डल, सम्पूर्ण दिशा, वृक्ष तथा जनसमुदायोंमें भी उन्हें केवल कृष्ण ही दिखायी देते थे । प्रेमके समस्तलक्षण उनमें प्रकट थे। श्रीकृष्णने उनके मन हर लिये थे । वे सारी व्रजाङ्गनाएँ आठों सात्त्विक भावों से सम्पन्न थीं*  ॥ ५-८ ॥

प्रेम ने उन सबको परमहंसों (ब्रह्मनिष्ठ महात्माओं) की अवस्था को पहुँचा दिया था। नरेश्वर ! वे कान्तिमती गोपाङ्गनाएँ श्रीकृष्णके आनन्दमें ही मग्न हो व्रजकी गलियोंमें विचरा करती थीं। उनमें जड़-चेतनका भान नहीं रह गया था । वे जड, उन्मत्त और पिशाचोंकी भाँति कभी मौन रहतीं और कभी बहुत बोलने लगती थीं। वे लाज और चिन्ताको तिलाञ्जलि दे चुकी थीं। इस प्रकार कृतार्थताको प्राप्त हो जो श्रीकृष्णमें तन्मय हो रही थीं, वे गोपाङ्गनाएँ बलपूर्वक खींचकर श्रीकृष्णके मुखार- विन्दको चूम लेती थीं। राजन् ! उनके तपका मैं क्या वर्णन करूँ ? जो सारे लोक व्यवहार एवं मर्यादा- मार्गको तिलाञ्जलि देकर हृदय तथा इन्द्रिय आदिके द्वारा पूर्ण परब्रह्म वासुदेवमें अविचल प्रेम करती थीं ॥ ९-१२

जो रास-क्रीडामें श्रीकृष्णके कंधोंपर अपनी बाँहें रखकर, प्रेमसे विगलितचित्त हो श्रीकृष्णको पूर्णतया अपने वशमें कर चुकी थीं, उनकी तपस्याका अपने सहस्रमुखोंसे वर्णन करनेमें नागराज शेष भी समर्थ नहीं हैं ॥ १३

विदेहराज ! न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनोंके तत्त्वज्ञोंमें श्रेष्ठतम महात्मा योग-सांख्य और शुभ- कर्मद्वारा जिस पदको प्राप्त करते हैं, वहीं पद केवल भक्ति भावसे उपलब्ध हो जाता है। आदि देव श्रीहरि केवल भक्तिसे ही वशमें होते हैं, निश्चय ही इस विषय में सदा गोपियाँ ही प्रमाण हैं। उन्होंने कभी सांख्य और योगका अनुष्ठान नहीं किया, तथापि केवल प्रेमसे ही वे भगवत्स्वरूपता को प्राप्त हो गयीं ॥ १४ – १५ ॥

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* आठ सात्त्विक भावोंके नाम इस प्रकार हैं-

'अङ्गोंका अकड़ जाना, पसीना होना, रोमाञ्च हो आना, बोलते समय आवाजका बदल जाना, शरीरमें कम्पन होना, मुँहका रंग उड़ जाना, नेत्रोंसे आँसू बहना तथा मरणान्तिक अवस्थातक पहुँच जाना — ये आठ प्रेमके सात्त्विक भाव माने गये हैं।

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'कोसलप्रान्तीय गोपिकाओंका आख्यान' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

भागवत के दस लक्षण

अमुनी भगवद् रूपे मया ते ह्यनुवर्णिते ।
उभे अपि न गृह्णन्ति मायासृष्टे विपश्चितः ॥ ३५ ॥
स वाच्य वाचकतया भगवान् ब्रह्मरूपधृक् ।
नामरूपक्रिया धत्ते सकर्माकर्मकः परः ॥ ३६ ॥
प्रजापतीन् मनून् देवान् ऋषीन् पितृगणान् पृथक् ।
सिद्धचारणगन्धर्वान् विद्याध्रासुर गुह्यकान् ॥ ३७ ॥
किन्नराप्सरसो नागान् सर्पान् किम्पुरुषोरगान् ।
मातृरक्षःपिशाचांश्च प्रेतभूतविनायकान् ॥ ३८ ॥
कूष्माण्दोन्माद वेतालान् यातुधानान् ग्रहानपि ।
खगान् मृगान् पशून् वृक्षान् गिरीन् नृप सरीसृपान् ॥ ३९ ॥
द्विविधाश्चतुर्विधा येऽन्ये जल स्थल वनौकसः ।
कुशला-अकुशला मिश्राः कर्मणां गतयस्त्विमाः ॥ ४० ॥
सत्त्वं रजस्तम इति तिस्रः सुर-नृ-नारकाः ।
तत्राप्येकैकशो राजन् भिद्यन्ते गतयस्त्रिधा ।
यद् एकैकतरोऽन्याभ्यां स्वभाव उपहन्यते ॥ ४१ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं) मैंने तुम्हें भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म—व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान्‌ की मायाके द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन दोनों को ही स्वीकार नहीं करते ॥ ३५ ॥ वास्तवमें भगवान्‌ निष्क्रिय हैं। अपनी शक्तिसे ही वे सक्रिय बनते हैं। फिर तो वे ब्रह्मा का या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचक—शब्द और उसके अर्थ के रूपमें प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं ॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! प्रजापति, मनु, देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सराएँ, नाग, सर्प, किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच, प्रेत, भूत, विनायक, कूष्माण्ड, उन्माद, वेताल, यातुधान, ग्रह, पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, सरीसृप इत्यादि जितने भी संसारमें नाम-रूप हैं, सब भगवान्‌के ही हैं ॥ ३७—३९ ॥ संसारमें चर और अचर भेदसे दो प्रकारके तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेदसे चार प्रकारके जितने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मोंके तदनुरूप फल हैं ॥ ४० ॥  सत्त्व की प्रधानता से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ मिलती हैं। इन गुणोंमें भी जब एक गुण दूसरे दो गुणोंसे अभिभूत हो जाता है, तब प्रत्येक गतिके तीन-तीन भेद और हो जाते हैं ॥ ४१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 28 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) तीसरा अध्याय


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

तीसरा अध्याय

 

मैथिलीरूपा गोपियों का आख्यान; चीरहरणलीला और वरदान-प्राप्ति

 

श्रीनारद उवाच -
मैथिलीनां गोपिकानामाख्यानं शृणु मैथिल ।
 दशाश्वमेधतीर्थस्य फलदं भक्तिवर्धनम् ॥ १ ॥
 श्रीरामस्य वराज्जाताः नवनन्दगृहेषु याः ।
 कमनीयं नन्दसूनुं दृष्ट्वा ता मोहमास्थिताः ॥ २ ॥
 मार्गशीर्षे शुभे मासि चक्रुः कात्यायनीव्रतम् ।
 उपचारैः षोडशभिः कृत्वा देवीं महीमयीम् ॥ ३ ॥
 अरुणोदयवेलायां स्नाताः श्रीयमुनाजले ।
 नित्यं समेता आजग्मुर्गायन्त्यो भगवद्‌गुणान् ॥ ४ ॥
 एकदा ताः स्ववस्त्राणि तीरे न्यस्य व्रजांगनाः ।
 विजर्ह्रुर्यमुनातोये कराभ्यां सिंचतीर्मिथः ॥ ५ ॥
 तासां वासांसि संनीय भगवान् प्रातरागतः ।
 त्वरं कदंबमारुह्य चौरवन्मौनमास्थितः ॥ ६ ॥
 ता न वीक्ष्य स्ववासांसि विस्मिता गोपकन्यकाः ।
 नीपस्थितं विलोक्याथ सलज्जा जहसुर्नृप ॥ ७ ॥
 प्रतीच्छन्तु स्ववासांसि सर्वा आगत्य चात्र वै ।
 अन्यथा न हि दास्यामि वृक्षात्कृष्ण उवाच ह ॥ ८ ॥
 राजंत्यस्ताः शीतजले हसंत्यः प्राहुरानताः ॥ ९ ॥


 गोप्य ऊचुः -
हे नन्दनन्दन मनोहर गोपरत्‍न
     गोपालवंशनवहंस महार्तिहारिन् ।
 श्रीश्यामसुन्दर तवोदितमद्य वाक्यं
     कुर्मः कथं विवसनाः किल तेऽपि दास्यः ॥ १० ॥
 गोपाङ्गनावसनमुण्नवनीतहारी
     जातो व्रजेऽतिरसिकः किल निर्भयोऽसि ।
 वासांसि देहि न चेन्मथथुराधिपाय
     वक्ष्यामहेऽनयमतीव कृतं त्वयाऽ‍त्र ॥ ११ ॥


 श्रीभगवानुवाच -
दास्यो ममैव यदि सुन्दरमन्दहासा
     इच्छन्तु वैत्य किल चात्र कदंबमूले ।
 नोचेत्समस्तवसनानि नयामि गेहां-
     स्तस्मात्करिष्यथ ममैव वचोऽविलम्बात् ॥ १२ ॥


 श्रीनारद उवाच –

तदा ता निर्गताः सर्वा जलाद्‌गोप्योऽतिवेपिताः ।
 आनता योनिमाच्छाद्य पाणिभ्यां शीतकर्शिताः ॥ १३ ॥
 कृष्णदत्तानि वासांसि ददुः सर्वा व्रजजांगनाः ।
 मोहिताश्च स्थितास्तत्र कृष्णे लज्जायितेक्षणाः ॥ १४ ॥
 ज्ञात्वा तासामभिप्रायं परमप्रेमलक्षणम् ।
 आह मन्दस्मितः कृष्णः समन्ताद्‌वीक्ष्य ता वचः ॥ १५ ॥


 श्रीभगवानुवाच -
भवतीभिर्मार्गशीर्षे कृतं कात्यायनीव्रतम् ।
 मदर्थं तच्च सफलं भविष्यति न संशयः ॥ १६ ॥
 परश्वोऽहनि चाटव्यां कृष्णातीरे मनोहरे ।
 युष्माभिश्च करिष्यामि रासं पूर्णमनोरथम् ॥ १७ ॥
 इत्युक्त्वाऽथ गते कृष्णे परिपूर्णतमे हरौ ।
 प्राप्तानन्दा मंदहासा गोप्यः सर्वा गृहान् ययुः ॥ १८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! मिथिलेश्वर ! अब मिथिलादेशमें उत्पन्न गोपियोंका आख्यान सुनो। यह दशाश्वमेध - तीर्थपर स्नानका फल देनेवाला और भक्ति-भावको बढ़ानेवाला है। श्रीरामचन्द्रजीके वरसे जो नौ नन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुई थीं, वे मैथिलीरूपा गोपकन्याएँ परम कमनीय नन्दनन्दनका दर्शन करके मोहित हो गयीं ॥ १-

उन्होंने मार्गशीर्षक शुभ मास में कात्यायनीका व्रत किया और उनकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर वे षोडशोपचा रसे उसकी पूजा करने लगीं। अरुणोदयकी वेला में वे प्रतिदिन एक साथ भगवान् के गुण गाती हुई आतीं और श्रीयमुनाजीके जल में स्नान करती थीं। एक दिन वे व्रजाङ्गनाएँ अपने वस्त्र यमुनाजीके किनारे रखकर उनके जलमें प्रविष्ट हुईं और दोनों हाथोंसे जल उलीचकर एक-दूसरी को भिगोती हुई जल-विहार करने लगीं ॥ -

प्रातःकाल भगवान् श्यामसुन्दर वहाँ आये और तुरंत उन सबके वस्त्र लेकर कदम्बपर आरूढ़ हो चोर की तरह चुपचाप बैठ गये । राजन् ! अपने वस्त्रोंको न देखकर वे गोपकन्याएँ बड़े विस्मयमें पड़ीं तथा कदम्बपर बैठे हुए श्यामसुन्दरको देखकर लजा गयीं और हँसने लगीं। तब वृक्षपर बैठे हुए श्रीकृष्ण उन गोपियोंसे कहने लगे- 'तुम सब लोग यहाँ आकर अपने- अपने कपड़े ले जाओ, अन्यथा मैं नहीं दूँगा ।' राजन् ! तब वे गोपकन्याएँ शीतल जलके भीतर खड़ी खड़ी हँसती हुई लज्जासे मुँह नीचे किये बोलीं --६-९ ॥

गोपियोंने कहा- हे मनोहर नन्दनन्दन ! हे गोपरत्न ! हे गोपाल बंशके नूतन हंस ! हे महान् पीड़ाको हर लेनेवाले श्रीश्यामसुन्दर ! तुम जो आज्ञा करोगे, वही हम करेंगी। तुम्हारी दासी होकर भी हम यहाँ वस्त्रहीन होकर कैसे रहें? आप गोपियोंके वस्त्र लूटनेवाले और माखनचोर हैं। व्रजमें जन्म लेकर भी बड़े रसिक हैं। भय तो आपको छू नहीं सका है। हमारा वस्त्र हमें लौटा दीजिये, नहीं तो हम मथुरा- नरेशके दरबार में आपके द्वारा इस अवसरपर की गयी बड़ी भारी अनीतिकी शिकायत करेंगी ।। १०-११ ॥

श्रीभगवान् बोले- सुन्दर मन्दहास्य से सुशोभित होनेवाली गोपाङ्गनाओ ! यदि तुम मेरी दासियाँ हो तो इस कदम्बकी जड़के पास आकर अपने वस्त्र ले लो । नहीं तो मैं इन सब वस्त्रों को अपने घर उठा ले जाऊँगा । अतः तुम अविलम्ब मेरे कथनानुसार कार्य करो ॥ १२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब वे सब व्रजवासिनी गोपियाँ अत्यन्त काँपती हुई जलसे बाहर निकलीं और आनत-शरीर हो, हाथोंसे योनिको ढककर शीतसे कष्ट पाते हुए श्रीकृष्णके हाथसे दिये गये वस्त्र लेकर उन्होंने अपने अङ्गों में धारण किये । इसके बाद श्रीकृष्णको लजीली आँखोंसे देखती हुई वहाँ मोहित हो खड़ी रहीं । उनके परम प्रेमसूचक अभिप्रायको जानकर मन्द मन्द मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण उनपर चारों ओरसे दृष्टिपात करके इस प्रकार बोले-- ॥ १३ – १५ ॥

श्रीभगवान् ने कहा—गोपाङ्गनाओ! तुमने मार्गशीर्ष मासमें मेरी प्राप्तिके लिये जो कात्यायनी - व्रत किया है, वह अवश्य सफल होगा—इसमें संशय नहीं है। परसों दिनमें वनके भीतर यमुनाके मनोहर तटपर मैं तुम्हारे साथ रास करूँगा, जो तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करनेवाला होगा ।। १६-१७ ।।

यों कहकर परिपूर्णतम श्रीहरि जब चले गये, तब आनन्दोल्लाससे परिपूर्ण हो मन्दहासकी छटा बिखेरती हुई वे समस्त गोप-बालाएँ अपने घरों को गयीं ॥ १८ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'मैथिलीरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भागवत के दस लक्षण

आदित्सोः अन्नपानानां आसन् कुक्ष्यन्न नाडयः ।
नद्यः समुद्राश्च तयोः तुष्टिः पुष्टिः तदाश्रये ॥ २९ ॥
निदिध्यासोः आत्ममायां हृदयं निरभिद्यत ।
ततो मनः ततश्चंद्रः सङ्कल्पः काम एव च ॥ ३० ॥
त्वक् चर्म मांस रुधिर मेदो मज्जास्थि धातवः ।
भूम्यप्तेजोमयाः सप्त प्राणो व्योमाम्बु वायुभिः ॥ ३१ ॥
गुणात्मकान् इंद्रियाणि भूतादि प्रभवा गुणाः ।
मनः सर्व विकारात्मा बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी ॥ ३२ ॥
एतद् भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया ।
मह्यादिभिश्च आवरणैः अष्टभिः बहिरावृतम् ॥ ३३ ॥
अतः परं सूक्ष्मतमं अव्यक्तं निर्विशेषणम् ।
अनादिमध्यनिधनं नित्यं वाङ् मनसः परम् ॥ ३४ ॥

जब विराट् पुरुषको अन्न-जल ग्रहण करनेकी इच्छा हुई, तब कोख, आँतें और नाडिय़ाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही कुक्षिके देवता समुद्र, नाडिय़ोंके देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए ॥ २९ ॥ जब उन्होंने अपनी मायापर विचार करना चाहा, तब हृदयकी उत्पत्ति हुई। उससे मनरूप इन्द्रिय और मनसे उसका देवता चन्द्रमा तथा विषय कामना और सङ्कल्प प्रकट हुए ॥ ३० ॥ विराट् पुरुषके शरीरमें पृथ्वी, जल और तेजसे सात धातुएँ प्रकट हुर्ईं—त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायुसे प्राणोंकी उत्पत्ति हुई ॥ ३१ ॥ श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली हैं। वे विषय अहंकारसे उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारोंका उत्पत्तिस्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थोंका बोध करानेवाली है ॥ ३२ ॥ मैंने भगवान्‌ के इस स्थूलरूप का वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहरकी ओरसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन आठ आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥ ३३ ॥ इससे परे भगवान्‌ का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्तसे रहित एवं नित्य है। वाणी और मनकी वहाँतक पहुँच नहीं है ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...