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शनिवार, 5 अक्तूबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०४)
शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
राजा विमल का संदेश
पाकर भगवान् श्रीकृष्ण का उन्हें दर्शन और मोक्ष प्रदान करना
तथा उनकी राजकुमारियों को साथ लेकर व्रजमण्डल में
लौटना
श्रीनारद उवाच -
अथ दूतः सिन्धुदेशान् माथुरान्पुनरागतः ।
चरन् वृन्दावने कृष्णातीरे कृष्णं ददर्श ह ॥ १ ॥
कृष्णं प्रणम्य रहसि कृताञ्जलिपुटः शनैः ।
प्रदक्षिणीकृत्य दूतो विमलोक्तमुवाच सः ॥ २ ॥
दूत उवाच -
स्वयं परं ब्रह्म परः परेशः
परैरदृश्यः परिपूर्णदेवः ।
यः पुण्यसंघैः सततं हि दूरः
तस्मै नमः सज्जनगोचराय ॥ ३ ॥
गोविप्रदेवश्रुतिसाधुधर्म
रक्षार्थमद्यैव यदोः कुलेऽजः ।
जातोऽसि कंसादिवधाय योऽसौ
तस्मै नमोऽनंतगुणार्णवाय ॥ ४ ॥
अहो परं भाग्यमलं व्रजौकसां
धन्यं कुलं नन्दवरस्य ते पितुः ।
धन्यो व्रजौ धन्यमरण्यमेतद्
यत्रैव साक्षात्प्रकटः परो हरिः ॥ ५
॥
यद्राधिकासुन्दरकण्ठरत्नं
यद्गोपिकाजीवनमूलरूपम् ।
तदेव मन्नेत्रपथि प्रजातं
किं वर्णये भाग्यमतः स्वकीयम् ॥ ६ ॥
गुप्तो व्रजे गोपभिषेण चासि
कस्तूरिकामोद इव प्रसिद्धः ।
यशश्च ते निर्मलमाशु शुक्ली
करोति सर्वत्र गतं त्रिलोकीम् ॥ ७ ॥
जानासि सर्वं जनचैत्यभावं
क्षेत्रज्ञ आत्मा कृतिवृन्दसाक्षी ।
तथापि वक्ष्ये नृपवाक्यमुक्तं
परं रहस्यं रहसि स्वधर्मम् ॥ ८ ॥
या सिंधुदेशेषु पुरी प्रसिद्धा
श्रीचम्पका नाम शुभा यथैन्द्री ।
तत्पालकोऽसौ विमलो यथेन्द्रः
त्वत्पादपद्मे कृतचित्तवृत्तिः ॥ ९ ॥
सदा कृतं यज्ञशतं त्वदर्थं
दानं तपो ब्राह्मणसेवनं च ।
तीर्थं जपं येन सुसाधनेन
तस्मै परं दर्शनमेव देहि ॥ १० ॥
तत्कन्यकाः पद्मविशालनेत्राः
पूर्णं पतिं त्वां मृगयंत्य आरात् ।
सदा त्वदर्थं नियमव्रतस्था-
स्त्वत्पादसेवाविमलीकृताङ्गाः ॥ ११ ॥
गृहाण तासां व्रजदेव पाणीन्
दत्वा परं दर्शनमद्भुतं स्वम् ।
गच्छाशु सिन्धून् विशदीकुरु त्वं
विमृश्य कर्तव्यमिदं त्वया हि ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर दूत पुनः सिन्धुदेशसे
मथुरा-मण्डलमें आया । वृन्दावनमें विचरते हुए यमुनाके तटपर उसको श्रीकृष्णका दर्शन
हुआ । एकान्तमें श्रीकृष्णको प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर और उनकी परिक्रमा करके उसने
धीरे-धीरे राजा विमलकी कही हुई बात दुहरायी ।। १-२ ।।
दूतने कहा- जो स्वयं परब्रह्म परमेश्वर हैं, सबसे परे
और सबके द्वारा अदृश्य हैं, जो परिपूर्ण देव पुण्यकी राशिसे भी सदा दूर - ऊपर उठे हुए
हैं, तथापि संतजनोंको प्रत्यक्ष दर्शन देनेवाले हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णको मेरा नमस्कार
है ।। ३ ।।
गौ, ब्राह्मण, देवता, वेद, साधु पुरुष तथा धर्मकी रक्षाके
लिये जो अजन्मा होनेपर भी इन दिनों कंसादि दैत्यों के वधके लिये
यदुकुल में उत्पन्न हुए हैं, उन अनन्त गुणों के
महासागर आप श्रीहरि को मेरा नमस्कार है। अहो ! व्रजवासियों का बहुत बड़ा सौभाग्य है। आपके पिता नन्दराज का
कुल धन्य है, यह व्रजमण्डल तथा यह वृन्दावन धन्य हैं, जहाँ आप परमेश्वर श्रीहरि साक्षात्
प्रकट हैं ।। ४-५ ।।
प्रभो! आप श्रीराधारानी के कण्ठ में सुशोभित सुन्दर (नीलमणिमय) हार हैं, और गोपियों
के प्राणस्वरूप हैं, ऐसे आप आज मेरे
नेत्रों के समक्ष उपस्थित हैं, इससे अधिक मेरा और कौन सा सौभाग्य होगा, जिसका की
मैं वर्णन करूँ | आप भले ही इस व्रजमंडल
में गोपवेश में छिपे हुए हैं, पर कस्तूरी की सुगन्ध की भाँति सर्वत्र प्रसिद्ध हैं और
आपका सर्वत्र फैला हुआ निर्मल यश सम्पूर्ण त्रिलोकीको तत्काल श्वेत किये देता है ।
आप लोगोंके चित्तका सम्पूर्ण अभिप्राय जानते हैं; क्योंकि आप समस्त क्षेत्रोंके ज्ञाता
आत्मा हैं और कर्मराशिके साक्षी हैं ।। ६-७ ।।
तथापि राजा विमलने जो परम रहस्यकी और स्वधर्मसे सम्बद्ध
बात कही है, उसको मैं आपसे एकान्तमें बताऊँगा । सिन्धुदेशमें जो चम्पका नामसे प्रसिद्ध
इन्द्रपुरीके समान सुन्दर नगरी है, उसके पालक राजा विमल देवराज इन्द्रके समान ऐश्वर्यशाली
हैं। उनकी चित्तवृत्ति सदा आपके चरणारविन्दोंमें लगी रहती है। उन्होंने आपकी प्रसन्नताके
लिये सदा सैकड़ों यज्ञोंका अनुष्ठान किया है तथा दान, तप, ब्राह्मणसेवा, तीर्थसेवन
और जप आदि किये हैं। उनके इन उत्तम साधनोंको निमित्त बनाकर आप उन्हें अपना सर्वोत्कृष्ट
दर्शन अवश्य दीजिये ।। ८-१० ।।
उनकी बहुत-सी कन्याएँ हैं, जो प्रफुल्ल कमल दलके समान
विशाल नेत्रोंसे सुशोभित हैं और आप पूर्ण परमेश्वर को पतिरूप में अपने निकट पाने के शुभ अवसर की प्रतीक्षा करती हैं । वे राजकुमारियाँ सदा
आपकी प्राप्तिके लिये नियमों और व्रतोंके पालनमें तत्पर हैं तथा आपके चरणोंकी सेवासे
उनके तन, मन निर्मल हो गये हैं। व्रजके देवता ! आप अपना उत्तम और अद्भुत दर्शन देकर
उन सब राजकन्याओंका पाणिग्रहण कीजिये । इस समय आपके समक्ष जो यह कर्तव्य प्राप्त हुआ
है, इसका विचार करके आप सिन्धुदेशमें चलिये और वहाँके लोगोंको अपने पावन दर्शनसे विशुद्ध
कीजिये ॥ ११-१२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०३)
गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 02)
अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियोंका राजा विमलके
यहाँ पुत्रीरूपसे उत्पन्न होना; उनके विवाहके लिये राजाका मथुरामें श्रीकृष्णको देखनेके
निमित्त दूत भेजना; वहाँ पता न लगनेपर भीष्मजीसे अवतार - रहस्य जानकर उनका श्रीकृष्णके
पास दूत प्रेषित करना
श्रीनारद उवाच -
इति चिन्तयतस्तस्य विस्मितस्य नृपस्य च ।
गजाह्वयात्सिन्धुदेशान् जेतुं भीष्मः समागतः ॥ १८ ॥
तं पूज्य विमलो राजा दत्वा तस्मै बलिं बहु ।
पप्रच्छ सर्वाभिप्रायं भीष्मं धर्मभृतां वरम् ॥ १९ ॥
विमल उवाच -
याज्ञवल्क्येन पूर्वोक्तो मथुरायां हरिः स्वयम् ।
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यति न संशयः ॥ २० ॥
न जातो वसुदेवस्य सकाशेऽद्य हरिः परः ।
ऋषिवाक्यं मृषा न स्यात्कस्मै दास्यामि कन्यकाः ॥ २१ ॥
महाभागवतः साक्षात्त्वं परावरवित्तमः ।
जितेन्द्रियो बाल्यभावाद्वीरो धन्वी वसूत्तमः ।
एतद्वद महाबुद्धे किं कर्तव्यं मयाऽत्र वै ॥ २२ ॥
श्रीनारद उवाच -
विमलं प्राह गांगेयो महाभागवतः कविः ।
दिव्यदृग्धर्मतत्वज्ञः श्रीकृष्णस्य प्रभाववित् ॥ २३ ॥
भीष्म उवाच -
हे राजन् गुप्तमाख्यानं वेदव्यासमुखाच्छ्रुतम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं शृणु हर्षविवर्द्धनम् ॥ २४ ॥
देवानां रक्षणार्थाय दैत्यानां हि वधाय च ।
वसुदेवगृहे जातः परिपूर्णतमो हरिः ॥ २५ ॥
अर्धरात्रे कंसभयान्नीत्वा शौरिश्च तं त्वरम् ।
गत्वा च गोकुले पुत्रं निधाय शयने नृप ॥ २६ ॥
यशोदानन्दयोः पुत्रीं मायां नीत्वा पुरं ययौ ।
ववृधे गोकुले कृष्णो गुप्तो ज्ञातो न कैर्नृभिः ॥ २७ ॥
सोऽद्यैव वृदकारण्ये हरिर्गोपालवेषधृक् ।
एकादश समास्तत्र गूढो वासं करिष्यति ।
दैत्यं कंसं घातयित्वा प्रकटः स भविष्यति ॥ २८ ॥
अयोध्यापुरवासिन्यः श्रीरामस्य वराच्च याः ।
ताः सर्वास्तव भार्यासु बभूवुः कन्यकाः शुभाः ॥ २९ ॥
गूढाय देवदेवाय देयाः कन्यास्त्वया खलु ।
न विलम्बः क्वचित्कार्यो देहः कालवशो ह्ययम् ॥ ३० ॥
इत्युक्त्वाऽथ गते भीष्मे सर्वज्ञे हस्तिनापुरम् ।
दूतं स्वं प्रेषयामास विमलो नन्दसूनवे ॥ ३१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! राजा विमल जब इस प्रकार
विस्मित होकर विचार कर रहे थे, उसी समय हस्तिनापुरसे सिन्धुदेशको जीतनेके लिये भीष्म
आये ॥ १८ ॥
राजा विमल ने धर्मधारियों में श्रेष्ठ
पितामह भीष्म का आदर-सत्कार कर उन्हें प्रभूत मात्रा में उपहार दी और उनसे
याज्ञवल्क्यजी के वचनों का अभिप्राय पूछा ॥ १९ ॥
विमल बोले- महाबुद्धिमान्
भीष्मजी ! पहले याज्ञवल्क्यजीने मुझसे कहा था कि मथुरामें साक्षात् श्रीहरि वसुदेवकी
पत्नी देवकीके गर्भसे प्रकट होंगे, इसमें संशय नहीं है। परंतु इस समय वसुदेवके यहाँ
परमेश्वर श्रीहरिका प्राकट्य नहीं हुआ है। साथ ही ऋषिकी बात झूठी हो नहीं सकती; अतः
इस समय मैं अपनी कन्याओंका दान किसके हाथमें करूँ । आप साक्षात् महाभागवत हैं और पूर्वापर की बातें जानने- वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं।
बचपन से ही आपने इन्द्रियों पर विजय पायी
है। आप वीर, धनुर्धर एवं वसुओं में श्रेष्ठ हैं । इसलिये यह बताइये कि अब मुझे क्या करना चाहिये ।। २० - २२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- गङ्गानन्दन भीष्मजी महान् भगवद्भक्त,
विद्वान्, दिव्यदृष्टिसे सम्पत्र, धर्मके तत्त्वज्ञ तथा श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाले
थे । उन्होंने राजा विमलसे कहा-- ॥ २३ ॥
भीष्मजी बोले - राजन् ! यह एक गुप्त बात है, जिसे मैंने
वेदव्यासजीके मुँहसे सुनी थी । यह प्रसङ्ग समस्त पापों को हर
लेनेवाला, पुण्यप्रद तथा हर्षवर्धक है; इसे सुनो। परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरि देवताओं की रक्षा तथा दैत्यों का वध करने के लिये वसुदेव के घरमें अवतीर्ण हुए हैं ।।
२४ - २५ ॥
हे राजन् ! किंतु आधी रातके समय वसुदेव कंसके भयसे उस बालकको
लेकर तुरंत गोकुल चले गये और वहाँ अपने पुत्रको यशोदाकी शय्यापर सुलाकर, यशोदा और नन्दकी
पुत्री मायाको साथ ले, मथुरापुरीमें लौट आये। इस प्रकार श्रीकृष्ण गोकुलमें गुप्तरूपसे
पलकर बड़े हुए हैं, यह बात दूसरे कोई भी मनुष्य नहीं जानते ।। २६
- २७ ॥
वे ही गोपालवेषधारी श्रीहरि वृन्दावनमें ग्यारह वर्षोंतक
गुप्तरूपसे वास करेंगे। फिर कंस-दैत्यका वध करके प्रकट हो जायँगे । अयोध्यापुरवासिनी
जो नारियाँ श्रीरामचन्द्रजीके वरसे गोपीभावको प्राप्त हुई हैं, वे सब तुम्हारी पत्नियोंके
गर्भसे सुन्दरी कन्याओंके रूपमें उत्पन्न हुई हैं। तुम उन गूढरूपमें विद्यमान देवाधिदेव
श्रीकृष्णको अपनी समस्त कन्याएँ अवश्य दे दो। इस कार्यमें कदापि विलम्ब न करो, क्योंकि
यह शरीर कालके अधीन है ।। २८ - ३० ॥
यों कहकर जब सर्वज्ञ भीष्मजी हस्तिनापुरको चले गये,
तब राजा विमलने नन्दनन्दनके पास अपना दूत भेजा ॥ ३१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'अयोध्यापुरवासिनी गोपिकाओंका उपाख्यान' नामक छठा
अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०२)
बुधवार, 2 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 01)
अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियोंका राजा विमलके
यहाँ पुत्रीरूपसे उत्पन्न होना; उनके विवाहके लिये राजाका मथुरामें श्रीकृष्णको देखनेके
निमित्त दूत भेजना; वहाँ पता न लगनेपर भीष्मजीसे अवतार - रहस्य जानकर उनका श्रीकृष्णके
पास दूत प्रेषित करना
श्रीनारद उवाच -
एवमुक्त्वा गते साक्षाद्याज्ञवल्क्ये महामुनौ ॥
अतीव हर्षमापन्नौ विमलश्चम्पकापतिः ॥ १ ॥
अयोध्यापुरवासिन्यः श्रीरामस्य वराच्च याः ॥
बभूवुस्तस्य भार्यासु ताः सर्वाः कन्यकाः शुभाः ॥ २ ॥
विवाहयोग्यास्ता दृष्ट्वा चिन्तयन् चम्पकापतिः ॥
याज्ञवल्क्यवचः स्मृत्वा दूतमाह नृपेश्वरः ॥ ३ ॥
विमल उवाच -
मथुरां गच्छ दूत त्वं गत्वा शौरिगृहं शुभम् ॥
दर्शनीयस्त्वया पुत्रो वसुदेवस्य सुन्दरः ॥ ४ ॥
श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाली चतुर्भुजः ॥
यदि स्यात्तर्हि दास्यामि तस्मै सर्वाः सुकन्यकाः ॥ ५ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति वाक्यं ततः श्रुत्वा दूतोऽसौ मथुरां गतः ।
पप्रच्छ सर्वाभिप्रायं माथुरांश्च महाजनान् ॥ ६ ॥
तद्वाक्यं माथुराः श्रुत्वा कंसभीताः सुबुद्धयः ।
तं दूतं रहसि प्राहुः कर्णांते मंदवाग्यथा ॥ ७ ॥
माथुरा ऊचुः
वसुदेवस्य ये पुत्राः कंसेन बहवो हताः ।
एकाऽवशिष्टावरजा कन्या साऽपि दिवं गता ॥ ८ ॥
वसुदेवोऽस्ति चात्रैव ह्यपुत्रो दीनमानसः ।
इदं न कथनीयं हि त्वया कंसभयं पुरे ॥ ९ ॥
शौरिसंतानवार्तां यो वक्ति चेन्मथुरापुरे ।
तं दंडयति कंसोऽसौ शौर्यष्टमशिशो रिपुः ॥ १० ॥
श्रीनारद उवाच -
जनवाक्यं ततः श्रुत्वा दूतो वै चम्पकापुरीम् ।
गत्वाऽथ कथयामास राज्ञे कारणमद्भुतम् ॥ ११ ॥
दूत उवाच -
मथुरायामस्ति शौरिरनपत्योऽतिदीनवत् ।
तत्पुत्रास्तु पुरा जाताः कंसेन निहताः श्रुतम् ॥ १२ ॥
एकावशिष्टा कन्याऽपि खं गता कंसहस्ततः ।
एवं शृत्वा यदुपुरान्निर्गतोऽहं शनैः शनैः ॥ १३ ॥
चरन् वृन्दावने रम्ये कालिन्दीनिकटे शुभे ।
अकस्माल्लतिकावृन्दे दृष्टः कश्चिच्छिशुर्मया ॥ १४ ॥
तल्लक्षणसमो राजन् गोगोपगणमध्यतः ।
श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाल्यतिसुन्दरः ॥ १५ ॥
द्विभुजो गोपसूनुश्च परं त्वेतद्विलक्षणम् ।
त्वया चतुर्भुजश्चोक्तो वसुदेवात्मजो हरिः ॥ १६ ॥
किं कर्तव्यं वद नृप मुनिवाक्यं मृषा न हि ।
यत्र यत्र यथेच्छा ते तत्र मां प्रेषय प्रभो ॥ १७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर जब साक्षात्
महामुनि याज्ञवल्क्य चले गये, तब चम्पका नगरीके स्वामी राजा विमलको बड़ा हर्ष हुआ।
अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियाँ श्रीरामके वरदानसे उनकी रानियोंके गर्भ से पुत्रीरूपमें
प्रकट हुईं। वें सभी राजकन्याएँ बड़ी सुन्दरी थीं । उन्हें विवाह के योग्य अवस्थामें
देखकर नृपशिरोमणि चम्पकेश्वरको चिन्ता हुई। उन्होंने याज्ञवल्क्यजीकी बातको याद करके
दूत से कहा ।। १ - ३ ॥
विमल बोले- दूत ! तुम मथुरा जाओ और वहाँ शूरपुत्र वसुदेवके
सुन्दर घरतक पहुँचकर देखो। वसुदेवका कोई बहुत सुन्दर पुत्र होगा। उसके वक्षःस्थलमें
श्रीवत्सका चिह्न होगा, अङ्गकान्ति मेघमालाकी भाँति श्याम होगी तथा वह वनमालाधारी एवं
चतुर्भुज होगा। यदि ऐसी बात हो तो मैं उसके हाथमें अपनी समस्त सुन्दरी कन्याएँ दे दूँगा
।। ४-५ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! महाराज विमलकी यह बात
सुनकर वह दूत मथुरापुरीमें गया और मथुराके बड़े-बड़े लोगोंसे उसने सारी अभीष्ट बातें
पूछीं। उसकी बात सुनकर मथुराके बुद्धिमान् लोग, जो कंससे डरे हुए थे, उस दूतको एकान्तमें
ले जाकर उसके कानमें बहुत धीमे स्वरसे बोले ।। ६-७ ।।
मथुरानिवासियों ने कहा – वसुदेव के जो बहुत-
से पुत्र हुए, वे कंसके द्वारा मारे गये। एक छोटी-सी कन्या बच गयी थी, किंतु वह भी
आकाशमें उड़ गयी। वसुदेव यहीं रहते हैं, किंतु पुत्रोंसे बिछुड़ जानेके कारण उनके मनमें
बड़ा दुःख है। इस समय जो बात तुम हम लोगोंसे पूछ रहे हो, उसे और कहीं न कहना क्योंकि
इस नगरमें कंसका भय है। मथुरापुरीमें जो वसुदेवकी संतानके सम्बन्धमें कोई बात करता
है, उसे उनके आठवें पुत्र का शत्रु कंस भारी दण्ड देता है । ८ - १० ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जनसाधारणकी यह बात सुनकर
दूत चम्पकापुरीमें लौट गया। वहाँ जाकर राजासे उसने वह अद्भुत संवाद कह सुनाया ॥ ११
॥
दूत बोला - महाराज ! मथुरामें शूरपुत्र वसुदेव अवश्य
हैं, किंतु संतानहीन होनेके कारण अत्यन्त दीनकी भाँति जीवन व्यतीत करते हैं। सुना है
कि पहले उनके अनेक पुत्र हुए थे, जो कंसके हाथसे मारे गये हैं। एक कन्या बची थी, किंतु
वह भी कंसके हाथसे छूटकर आकाशमें उड़ गयी। यह वृत्तान्त सुनकर मैं यदुपुरीसे धीरे-धीरे
बाहर निकला ॥ १२-१३ ॥
वृन्दावनमें कालिन्दी के सुन्दर एवं रमणीय तटपर विचरते
हुए मैंने लताओंके समूहमें अकस्मात् एक शिशु देखा । राजन् ! गोपोंके मध्य दूसरा कोई
ऐसा बालक नहीं था, जिसके लक्षण उसके समान हों। उस बालकके वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न
था । उसकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम थी और वह वनमाला धारण किये अत्यन्त सुन्दर दिखायी
देता था ॥ १४-१५ ॥
परंतु अन्तर इतना ही है कि उस गोप- बालक के दो ही बाँहें थीं और आपने वसुदेवकुमार श्रीहरि को
चतुर्भुज बताया था। नरेश्वर ! बताइये, अब क्या करना चाहिये ? क्योंकि मुनिकी बात झूठी
नहीं हो सकती । प्रभो ! जहाँ-जहाँ, जिस तरह आपकी इच्छा हो, उसके अनुसार वहाँ-वहाँ मुझे
भेजिये ।। १६-१७॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०१)
मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
अयोध्यावासिनी गोपियों के
आख्यान के प्रसङ्ग में राजा विमल की संतान के लिये चिन्ता तथा महामुनि याज्ञवल्क्य द्वारा उन्हें बहुत-सी पुत्री होने का विश्वास
दिलाना
श्रीयाज्ञवल्क्य
उवाच -
अस्मिन् जन्मनि राजेन्द्र पुत्रो नैव च नैव च ।
पुत्र्यस्तव भविष्यन्ति कोटिशो नृपसत्तम ॥ १२ ॥
राजोवाच -
पुत्रं विना पूर्वऋणान्न कोऽपि
प्रमुच्यते भूमितले मुनीन्द्र ।
सदा ह्यपुत्रस्य गृहे व्यथा स्या-
त्परं त्विहामुत्र सुखं न किंचित् ॥
१३ ॥
श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
मा खेदं कुरु राजेन्द्र पुत्र्यो देयास्त्वया खलु ।
श्रीकृष्णाय भविष्याय परं दायादिकैः सह ॥ १४ ॥
तेनैव कर्मणा त्वं वै देवर्षिपितृणामृणात् ।
विमुक्तो नृपशार्दूल परं मोक्षमवाप्स्यसि ॥ १५ ॥
श्रीनारद उवाच -
तदाऽतिहर्षितो राजा श्रुत्वा वाक्यं महामुनेः ।
पुनः पप्रच्छ संदेहं याज्ञवल्क्यं महामुनिम् ॥ १६ ॥
राजोवाच -
कस्मिन् कुले कुत्र देशे भविष्यः श्रीहरिः स्वयम् ।
कीदृग्रूपश्च किंवर्णो वर्षैश्च कतिभिर्गतैः ॥ १७ ॥
श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
द्वापरस्य युगस्यास्य तव राज्यान्महाभुज ।
अवशेषे वर्षशते तथा पञ्चदशे नृप ॥ १८ ॥
तस्मिन् वर्षे यदुकुले मथुरायां यदोः पुरे ।
भाद्रे बुधे कृष्णपक्षे धात्रर्क्षे हर्षणे वृषे ॥ १९ ॥
बवेऽष्टम्यामर्धरात्रे नक्षत्रेशमहोदये ।
अंधकारावृते काले देवक्यां शौरिमन्दिरे ॥ २० ॥
भविष्यति हरिः साक्षादरण्यामध्वरेऽग्निवत् ।
श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाल्यतिसुन्दरः ॥ २१ ॥
पीतांबरः पद्मनेत्रो भविष्यति चतुर्भुजः ।
तस्मै देया त्वया कन्या आयुस्तेऽस्ति न संशयः ॥ २२ ॥
याज्ञवल्क्य बोले- राजेन्द्र ! इस जन्ममें तो तुम्हारे
भाग्य में पुत्र नहीं है, नहीं है, परंतु नृपश्रेष्ठ ! तुम्हें पुत्रियाँ करोड़ोंकी
संख्यामें प्राप्त होंगी ।। १२ ।।
राजाने कहा- मुनीन्द्र ! पुत्रके बिना कोई भी इस भूतलपर
पूर्वजोंके ऋणसे मुक्त नहीं होता। पुत्र- हीनके घरमें सदा ही व्यथा बनी रहती है। उसे
इस लोक या परलोकमें कुछ भी सुख नहीं मिलता ॥ १३ ॥
याज्ञवल्क्य बोले- राजेन्द्र ! खेद न करो। भविष्य में
भगवान् श्रीकृष्णका अवतार होनेवाला है। तुम उन्हींको दहेजके साथ अपनी सब पुत्रियाँ
समर्पित कर देना । नृपश्रेष्ठ ! उसी कर्मसे तुम देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके ऋणसे
छूटकर परममोक्ष प्राप्त कर लोगे ।। १४-१५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- महामुनिका यह वचन सुनकर उस समय
राजाको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने महर्षि याज्ञवल्क्यसे पुनः अपना संदेह पूछा ? ॥ १६
॥
राजा बोले- मुनीश्वर ! कितने वर्ष बीतनेपर किस देशमें
और किस कुलमें साक्षात् श्रीहरि अवतीर्ण होंगे ? उस समय उनका रूप-रंग क्या होगा ? ॥
१७ ॥
याज्ञवल्क्य बोले- महाबाहो ! इस द्वापरयुग के जो अवशेष वर्ष हैं, उन्हीं में तुम्हारे राज्यकाल से एक सौ पंद्रह वर्ष व्यतीत होने पर यादवपुरी
मथुरा में यदुकुल के भीतर भाद्रपदमास, कृष्णपक्ष,
बुधवार, रोहिणी नक्षत्र,हर्षण योग, वृषलग्न, वव करण और अष्टमी तिथिमें आधी रातके समय
चन्द्रोदय-काल में, जब कि सब कुछ अन्धकार से
आच्छन्न होगा, वसुदेव-भवन में देवकी के
गर्भ से साक्षात् श्रीहरि का आविर्भाव होगा- ठीक उसी तरह जैसे यज्ञमें अरणि-काष्ठसे अग्निका प्राकट्य
होता है। भगवान् के वक्षःस्थल पर श्रीवत्सका
चिह्न होगा। उनकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम होगी। वे वनमाला से
अलंकृत और अतीव सुन्दर होंगे। पीताम्बरधारी, कमलनयन तथा अवतारकाल में चतुर्भुज होंगे।
तुम उन्हें अपनी कन्याएँ देना । तुम्हारी आयु अभी बहुत है। तुम उस समयतक जीवित रहोगे,
इसमें संशय नहीं है ।। १८ – २२ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में माधुर्यखण्ड के अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में 'अयोध्यावासिनी गोपाङ्गनाओं का उपाख्यान'
नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट१०)
सोमवार, 30 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
अयोध्यावासिनी गोपियों के
आख्यान के प्रसङ्ग में राजा विमल की संतान के लिये चिन्ता तथा महामुनि याज्ञवल्क्य द्वारा उन्हें बहुत-सी पुत्री होने का विश्वास
दिलाना
श्रीनारद उवाच -
अयोध्यावासिनीनां तु गोपीनां वर्णनं शृणु ।
चतुष्पदार्थदं साक्षात्कृष्णप्राप्तिकरं परम् ॥ १ ॥
सिन्धुदेशेषु नगरी चंपका नाम मैथिल ।
बभूव तस्यां विमलो राजा धर्मपरायणः ॥ २ ॥
कुवेर इव कोशाढ्यो मनस्वी मृगराडिव ।
विष्णुभक्तः प्रशांतात्मा प्रह्लाद इव मूर्तिमान् ॥ ३ ॥
भार्याणां षट्सहस्राणि बभूवुस्तस्य भूपतेः ।
रूपवत्यः कंजनेत्रा वंध्यात्वं ताः समागताः ॥ ४ ॥
अपत्यं केन पुण्येन भूयान् मेऽत्र शुभं नृप ।
एवं चिन्तयतस्तस्य बहवो वत्सरा गताः ॥ ५ ॥
एकदा याज्ञवल्क्यस्तु मुनीन्द्रस्तमुपागतः ।
तं नत्वाभ्यर्च विधिवन्नृपस्तत्संमुखे स्थितः ॥ ६ ॥
चिंताकुलं नृपं वीक्ष्य याज्ञवल्क्यो महामुनिः ।
सर्वज्ञः सर्वविच्छान्तः प्रत्युवाच नृपोत्तमम् ॥ ७ ॥
श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
राजन् कृशोऽसि कस्मात्त्वं का चिंता ते हृदि स्थिता ।
सप्रस्वगेषु कुशलं दृश्यते सांप्रतं तव ॥ ८ ॥
विमल उवाच -
ब्रह्मंस्त्वं किं न जानासि तपसा दिव्यचक्षुषा ।
तथाऽप्यहं वदिष्यामि भवतो वाक्यगौरवात् ॥ ९ ॥
आनपत्येन दुःखेन व्याप्तोऽहं मुनिसत्तम ।
किं करोमि तपो दानं वद येन भवेत्प्रजा ॥ १० ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा याज्ञवल्क्यो ध्यानस्तिमितलोचनः ।
दीर्घं दध्यौ मुनिश्रेष्ठो भूतं भव्यं विचिंतयन् ॥ ११ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! अब अयोध्या- वासिनी गोपियोंका
वर्णन सुनो, जो चारों पदार्थोंको देनेवाला तथा साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला
सर्वोत्कृष्ट साधन है ॥ १ ॥
मिथिलेश्वर ! सिन्धुदेश में चम्पका
नाम से प्रसिद्ध एक नगरी थी, जिसमें धर्मपरायण विमल नामक राजा
हुए थे। वे कुबेरके समान कोष से सम्पन्न तथा सिंह के समान मनस्वी थे। वे भगवान् विष्णुके भक्त और प्रशान्तचित्त महात्मा
थे। वे अपनी अविचल भक्तिके कारण मूर्तिमान् प्रह्लाद से प्रतीत
होते थे । उन भूपालके छः हजार रानियाँ थीं। वे सब की सब सुन्दर रूप- वाली
तथा कमलनयनी थीं, परंतु भाग्यवश वे वन्ध्या हो गयीं। राजन् ! 'मुझे किस पुण्यसे उत्तम
संतानकी प्राप्ति होगी ?' - ऐसा विचार करते हुए राजा विमलके बहुत वर्ष व्यतीत हो गये
॥ २-५ ॥
एक दिन उनके यहाँ मुनिवर याज्ञवल्क्य पधारे । राजा ने उनको प्रणाम करके उनका विधिवत् पूजन किया और फिर उनके सामने वे
विनीतभाव से खड़े हो गये ॥ ६ ॥
नृपतिशिरोमणि राजा को चिन्ता से आकुल देख सर्वज्ञ, सर्ववित् तथा शान्तस्वरूप महामुनि याज्ञवल्क्यने
उनसे पूछा-- ।। ७ ।।
याज्ञवल्क्य बोले- राजन् ! तुम दुर्बल क्यों हो गये
हो ? तुम्हारे हृदयमें कौन-सी चिन्ता खड़ी हो गयी है ? इस समय तुम्हारे राज्यके सातों
अङ्गों में तो कुशल- मङ्गल ही दिखायी देता है ? ॥ ८ ॥
विमल ने कहा- -ब्रह्मन् ! आप
अपनी तपस्या एवं दिव्यदृष्टि से क्या नहीं जानते हैं ? तथापि
आपकी आज्ञाका गौरव मानकर मैं अपना कष्ट बता रहा हूँ । मुनिश्रेष्ठ ! मैं संतान हीनता के दुःख से चिन्तित हूँ। कौन-सा तप और दान करूँ,
जिससे मुझे संतान की प्राप्ति हो ।। ९-१० ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- विमलकी यह बात सुनकर याज्ञवल्क्यमुनिके
नेत्र ध्यानमें स्थित हो गये। वे मुनिश्रेष्ठ भूत और वर्तमानका चिन्तन करते हुए दीर्घकालतक
ध्यानमें मग्न रहे ॥ ११ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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