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मंगलवार, 8 अक्तूबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०६)
सोमवार, 7 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) आठवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
आठवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
यज्ञसीतास्वरूपा गोपियों के पूछने पर श्रीराधा का श्रीकृष्णकी प्रसन्नता के लिये एकादशी- व्रत
का अनुष्ठान बताना और उसके विधि, नियम और वर्णन
करना
संवत्सरद्वादशीनां फलमाप्नोति सोऽपि
हि ।
एकादश्याश्च नियमं शृणुताथ व्रजाङ्गनाः ॥
भूमिशायी दशभ्यां तु चैकभुक्तो जितेन्द्रियः ॥ १८॥
एकवारं जलं पीत्वा धौतवस्त्रोऽतिनिर्मलः ।
ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय चैकादश्यां हरिं नतः ॥१९॥
अधमं कूपिकास्नानं वाप्यां स्नानं तु मध्यमम् ।
तडागे चोत्तमं स्नानं नद्याः स्नानं ततः परम् ॥२०॥
एवं स्नात्वा नरवरः क्रोधलोभविवर्जितः ।
नालपेत्तद्दिने नीचांस्तथा पाखण्डिनो नरान् ॥२१॥
मिथ्यावादरतांश्चैव तथा ब्राह्मणनिन्दकान् ।
अन्यांश्चैव दुराचारानगम्यागमने रतान् ॥२२॥
परद्रव्यापहारांश्च परदाराभिगामिनः ।
दुर्वृत्तान् भिन्नमर्यादान्नालपीत्स व्रती नरः ॥२३॥
केशवं पूजयित्वा तु नैवेद्यं तत्र कारयेत् ।
दीपं दद्याद्गृहे तत्र भक्तियुक्तेन चेतसा ॥२४॥
कथाः श्रुत्वा ब्राह्मणेभ्यो दद्यात्सद्दक्षिणां पुनः ।
रात्रौ जागरणं कुर्याद्गायन् कृष्णपदानि च ॥२५॥
कांस्यं मांसं मसूरांश्च कोद्रवं चणकं तथा ।
शाकं मधु परान्नं च पुनर्भोजनमैथुनम् ॥२६॥
विष्णुव्रते च कर्तव्ये दशाभ्यां दश वर्जयेत् ।
द्यूतं क्रीडां च निद्रां च ताम्बूलं दन्तधावनम् ॥२७॥
परापवादं पैशुन्यं स्तेयं हिंसां तथा रतिम् ।
क्रोधाढ्यं ह्यनृतं वाक्यमेकादश्यां विवर्जयेत् ॥२८॥
कांस्यं मांसं सुरां क्षौद्रं तैलं वितथभाषणम् ।
पुष्टिषष्टिमसूरांश्च द्वादश्यां परिवर्जयेत् ॥२९॥
अनीन विधिना कुर्याद्द्वादशीव्रतमुत्तमम् ॥३०॥
गोप्य ऊचुः -
एकादशीव्रतस्यास्य कालं वद महामते ।
किं फलं वद तस्यास्तु माहात्म्यं वद तत्त्वतः ॥३१॥
श्रीराधोवाच –
दशमी पञ्चपञ्चाशद्घटिका चेत्प्रदृश्यते ।
तर्हि चैकादशी त्याज्या द्वादशीं समुपोषयेत् ॥३२॥
दशमी पलमात्रेण त्याज्या चैकादशी तिथिः ।
मदिराबिन्दुपातेन त्याज्यो गङ्गाघटो यथा ॥३३॥
एकादशी यदा वृद्धिं द्वादशी च यदा गता ।
तदा परा ह्युपोष्या स्यात्पूर्वा वै द्वादशीव्रते ॥३४॥
व्रजाङ्गनाओ ! अब एकादशी व्रतके नियम सुनो। मनुष्यको
चाहिये कि वह दशमीको एक ही समय भोजन करे और रातमें जितेन्द्रिय रहकर भूमिपर शयन करे।
जल भी एक ही बार पीये। धुला हुआ वस्त्र पहने और तन- मनसे अत्यन्त निर्मल रहे। फिर ब्राह्म
मुहूर्तमें उठकर एकादशीको श्रीहरिके चरणोंमें प्रणाम करे । तदनन्तर शौचादिसे निवृत्त
हो स्नान करे। कुएँका स्नान सबसे निम्नकोटिका है, बावड़ीका स्नान मध्यमकोटिका है, तालाब
और पोखरेका स्नान उत्तम श्रेणीमें गिना गया है और नदीका स्नान उससे भी उत्तम है। इस
प्रकार स्नान करके व्रत करनेवाला नरश्रेष्ठ क्रोध और लोभका त्याग करके उस दिन नीचों
और पाखण्डी मनुष्यों से बात न करे । जो असत्यवादी, ब्राह्मणनिन्दक, दुराचारी, अगम्या
स्त्रीके साथ समागममें रत रहनेवाले, परधनहारी, परस्त्रीगामी, दुर्वृत्त तथा मर्यादाका
भङ्ग करनेवाले हैं, उनसे भी व्रती मनुष्य बात न करे। मन्दिरमें भगवान् केशवका पूजन
करके वहाँ नैवेद्य लगवाये और भक्तियुक्त चित्तसे दीपदान करे। ब्राह्मणोंसे कथा सुनकर
उन्हें दक्षिणा दे, रातको जागरण करे और श्रीकृष्ण-सम्बन्धी पदोंका गान एवं कीर्तन करे।
वैष्णवव्रत (एकादशी) का पालन करना हो तो दशमीको काँसेका पात्र, मांस, मसूर, कोदो, चना,
साग, शहद, पराया अन्न दुबारा भोजन तथा मैथुन – इन दस वस्तुओंको त्याग दे । जुएका खेल,
निद्रा, मद्य-पान, दन्तधावन, परनिन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, रति, क्रोध और असत्यभाषण
- एकादशीको इन ग्यारह वस्तुओंका त्याग कर देना चाहिये । काँसेका पात्र, मांस, शहद,
तेल, मिथ्याभोजन, पिठ्ठी साठीका चावल और मसूर आदिका द्वादशीको सेवन न करे। इस विधि
से उत्तम एकादशीव्रतका अनुष्ठान करे ।। १८-३० ॥
गोपियाँ बोलीं- परमबुद्धिमती श्रीराधे ! श्रीराधे
! एकादशीव्रतका समय बताओ। उससे क्या फल होता है, यह भी कहो तथा एकादशीके माहात्म्यका
भी यथार्थरूपसे वर्णन करो ॥ ३१ ॥
श्रीराधाने कहा – यदि दशमी पचपन घड़ी (दण्ड) तक देखी
जाती हो तो वह एकादशी त्याज्य है। फिर तो द्वादशीको ही उपवास करना चाहिये। यदि पलभर
भी दशमीसे वैध प्राप्त हो तो वह सम्पूर्ण एकादशी तिथि त्याग देनेयोग्य है-ठीक उसी तरह,
जैसे मदिराकी एक बूँद भी पड़ जाय तो गङ्गाजलसे भरा हुआ कलश त्याज्य हो जाता है। यदि
एकादशी बढ़कर द्वादशीके दिन भी कुछ कालतक विद्यमान हो तो दूसरे दिनवाली एकादशी ही व्रतके
योग्य है। पहली एकादशीको उस व्रतमें उपवास नहीं करना चाहिये ।। ३२-३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
रविवार, 6 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) आठवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
आठवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
यज्ञसीतास्वरूपा गोपियों के पूछने पर श्रीराधा का श्रीकृष्णकी प्रसन्नता के लिये एकादशी- व्रत
का अनुष्ठान बताना और उसके विधि, नियम और वर्णन
करना
श्रीनारद उवाच -
गोपीनां यज्ञसीतानामाख्यानं शृणु मैथिल ।
सर्वपापहरं पुण्यं कामदं मङ्गलायनम् ॥१॥
उशीनरो नाम देशो दक्षिणस्यां दिशि स्थितः ।
एकदा तत्र पर्जन्यो न ववर्ष समा दश ॥२॥
धनवन्तस्तत्र गोपा अनावृष्टिभयातुराः ।
सकुटुम्बा गोधनैश्च व्रजमण्डलमाययुः ॥३॥
पुण्ये वृन्दावने रम्ये कालिन्दीनिकटे शुभे ।
नन्दराजसहायेन वासं ते चक्रिरे नृप ॥४॥
तेषां गृहेषु सञ्जाता यज्ञसीताश्च गोपिकाः ।
श्रीरामस्य वरा दिव्या दिव्ययौवनभूषिताः ॥५॥
श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा मोहितास्ता नृपेश्वर ।
व्रतं कृष्णप्रसादार्थं प्रष्टुं राधां समाययुः ॥६॥
गोप्य ऊचुः –
वृषभानुसुते दिव्ये हे राधे कञ्जलोचने ।
श्रीकृष्णस्य प्रसादार्थं वद किञ्चिद्व्रतं शुभम् ॥७॥
तव वश्यो नन्दसूनुर्देवैरपि सुदुर्गमः ।
त्वं जगन्मोहिनी राधे सर्वशास्त्रार्थपारगा ॥८॥
श्रीराधोवाच -
श्रीकृष्णस्य प्रसादार्थं कुरुतैकादशीव्रतम् ।
तेन वश्यो हरिः साक्षाद्भविष्यति न संशयः ॥९॥
गोप्य ऊचुः –
संवत्सरस्य द्वादश्या नामानि वद राधिके ।
मासे मासे व्रतं तस्याः कर्तव्यं केन भावतः ॥१०॥
श्रीरधोवाच –
मार्गशीर्षे कृष्णपक्षे उत्पन्ना विष्णुदेहतः ।
मुरदैत्यवधार्थाय तिथिरेकादशी वरा ॥११॥
मासे मासे पृथग्भूता सैव सर्वव्रतोत्तमा ।
तस्याः षड्विंशतिं नाम्नां वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१२॥
उत्पत्तिश्च तथा मोक्षा सफला च ततः परम् ।
पुत्रदा षट्तिला चैव जया च विजया तथा ॥१३॥
आमलकी तथा पश्चान्नाम्ना वै पापमोचनी ।
कामदा च ततः पश्चात्कथिता वै वरूथिनी ॥१४॥
मोहिनी चापरा प्रोक्ता निर्जला कथिता ततः ।
योगिनी देवशयनी कामिनी च ततः परम् ॥१५॥
पवित्रा चाप्यजा पद्मा इन्दिरा च ततः परम् ।
पाशाङ्कुशा रमा चैव ततः पश्चात्प्रबोधिनी ॥१६॥
सर्वसम्पत्प्रदा चैव द्वे प्रोक्ते मलमासजे ।
एवं षड्विंशतिं नाम्नामेकादश्याः पठेच्च यः ॥१७॥
श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब यज्ञ- सीतास्वरूपा
गोपियोंका वर्णन सुनो, जो सब पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यदायक, कामनापूरक तथा मङ्गलका
धाम है ॥ १ ॥
दक्षिण दिशामें उशीनर नामसे प्रसिद्ध एक देश है, जहाँ
एक समय दस वर्षोंतक इन्द्रने वर्षा नहीं की। उस देशमें जो गोधनसे सम्पन्न गोप थे, वे
अनावृष्टिके भयसे व्याकुल हो अपने कुटुम्ब और गोधनोंके साथ व्रजमण्डलमें आ गये। नरेश्वर
! नन्दराजकी सहायतासे वे पवित्र वृन्दावनमें यमुनाके सुन्दर एवं सुरम्य तटपर वास करने
लगे। भगवान् श्रीरामके वरसे यज्ञसीता- स्वरूपा गोपाङ्गनाएँ उन्हीं के घरोंमें उत्पन्न
हुईं। उन सबके शरीर दिव्य थे तथा वे दिव्य यौवनसे विभूषित थीं। नृपेश्वर ! एक दिन वे
सुन्दर श्रीकृष्णका दर्शन करके मोहित हो गयीं और श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये कोई
व्रत पूछनेके उद्देश्यसे श्रीराधाके पास गयीं ॥। २ -६ ॥
गोपियाँ बोलीं- दिव्यस्वरूपे, कमललोचने, वृषभानुनन्दिनी
श्रीराधे ! आप हमें श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये कोई शुभवत बतायें। जो देवताओंके लिये
भी अत्यन्त दुर्लभ हैं, वे श्रीनन्दनन्दन तुम्हारे वशमें रहते हैं। राधे ! तुम विश्वमोहिनी
हो और सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थज्ञानमें पारंगत भी हो ।। ७-८ ॥
श्रीराधाने कहा - प्यारी बहिनो ! श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके
लिये तुम सब एकादशी व्रतका अनुष्ठान करो। उससे साक्षात् श्रीहरि तुम्हारे वशमें हो
जायँगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥
गोपियोंने पूछा- राधिके ! पूरे वर्षभरकी एकादशियोंके
क्या नाम हैं, यह बताओ। प्रत्येक मासमें एकादशीका व्रत किस भावसे करना चाहिये ? ॥ १०
॥
श्रीराधाने कहा- गोपकुमारियो ! मार्गशीर्ष मासके कृष्णपक्षमें
भगवान् विष्णुके शरीरसे- मुख्यतः उनके मुखसे एक असुरका वध करनेके लिये एकादशीकी उत्पत्ति
हुई, अतः वह तिथि अन्य सब तिथियोंसे श्रेष्ठ है। प्रत्येक मासमें पृथक्-पृथक् एकादशी
होती है। वही सब व्रतोंमें उत्तम है। मैं तुम सबोंके हितकी कामनासे उस तिथिके छब्बीस
नाम बता रही हूँ। (मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशीसे आरम्भ करके कार्तिक शुक्ला एकादशीतक चौबीस
एकादशी तिथियाँ होती हैं। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं— ) उत्पन्ना, मोक्षा, सफला,
पुत्रदा, षट्तिला, जया, विजया, आमलकी, पापमोचनी, कामदा, वरूथिनी, मोहिनी, अपरा, निर्जला,
योगिनी, देवशयनी, कामिनी, पवित्रा, अजा, पद्मा, इन्दिरा, पापाङ्कुशा, रमा तथा प्रबोधिनी
। दो एकादशी तिथियाँ मलमास की होती हैं। उन दोनोंका नाम सर्वसम्पत्प्रदा है। इस प्रकार
जो एकादशी के छब्बीस नामों का पाठ करता है, वह भी वर्षभर की द्वादशी (एकादशी) तिथियोंके
व्रतका फल पा लेता है । ११ – १७ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०५)
शनिवार, 5 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
राजा विमल का संदेश
पाकर भगवान् श्रीकृष्ण का उन्हें दर्शन और मोक्ष प्रदान करना
तथा उनकी राजकुमारियों को साथ लेकर व्रजमण्डल में
लौटना
श्रीनारद उवाच -
दूतवाक्यं च तच्छ्रुत्वा प्रसन्नो भगवान्हरिः ।
क्षणमात्रेण गतवान् सदूतश्चम्पकां पुरीम् ॥ १३ ॥
विमलस्य महायज्ञे वेदध्वनिसमाकुले ।
सदूतः कृष्ण आकाशात्सहसाऽवततार ह ॥ १४ ॥
श्रीवत्सांकं घनश्यामं सुन्दरं वनमालिनम् ।
पीतांबरं पद्मनेत्रं यज्ञवाटागतं हरिम् ॥ १५ ॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय विमलः प्रेमविह्वलः ।
पपात चरणोपांते रोमांची सन्कृताञ्जलिः ॥ १६ ॥
संस्थाप्य पीठके दिव्ये रत्नृहेमखचित्पदे ।
स्तुत्वा सम्पूज्य विधिवद्राजा तत्संमुखे स्थितः ॥ १७ ॥
गवाक्षेभ्यः प्रपश्यन्तीः सुन्दरीर्वीक्ष्य माधवः ।
उवाच विमलं कृष्णो मेघगंभीरया गिरा ॥ १८ ॥
श्रीभगवानुवाच -
महामते वरं ब्रूहि यत्ते मनसि वर्तते ।
याज्ञवल्क्यस्य वचसा जातं मद्दर्शनं तव ॥ १९ ॥
विमल उवाच -
मनो मे भ्रमरीभूतं सदा त्वत्पादपंकजे ।
वासं कुर्याद् देवदेव नान्येच्छा मे कदाचन ॥ २० ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा विमलो राजा सर्वं कोशधनं महत् ।
द्विपवाजिरथैः सार्द्धं चक्रे आत्मनिवेदनम् ॥ २१ ॥
समर्प्य विधिना सर्वाः कन्यका हरये नृप ।
नमश्चकार कृष्णाय विमलो भक्तितत्परः ॥ २२ ॥
तदा जयजयारावो बभूव जनमण्डले ।
ववृषुः पुष्पवर्षाणि देवता गगनस्थिताः ॥ २३ ॥
तदैव कृष्णसारूप्यं प्राप्तोऽनंगस्फुरद्द्युतिः ।
शतसूर्यप्रतीकाशो द्योतयन्मंडलं दिशाम् ॥ २४ ॥
वैनतेयं समारुह्य नत्वा श्रीगरुडध्वजम् ।
सभार्यः पश्यतां नॄणां वैकुण्ठं विमलो ययौ ॥ २५ ॥
दत्वा मुक्तिं नृपतये श्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
तत्सुताः सुन्दरीर्नीत्वा व्रजमंडलमाययौ ॥ २६ ॥
तत्र कामवने रम्ये दिव्यमन्दिरसंयुते ।
क्रीडन्त्यः कंदुकैः सर्वाः तस्थुः कृष्णप्रियाः शुभाः ॥ २७ ॥
यावतीश्च प्रिया मुख्याः तावद् रूपधरो हरिः ।
रराज रासे व्रजराड् अञ्जयंस्तन्मनाः प्रभुः ॥ २८ ॥
रासे विमलपुत्रीणां आनन्दजलबिन्दुभिः ।
च्युतैर्विमलकुण्डोऽभूत् तीर्थानां तीर्थमुत्तमम् ॥ २९ ॥
दृष्ट्वा पीत्वा च तं स्नात्वा पूजयित्वा नृपेश्वर ।
छित्वा मेरुसमं पापं गोलोकं याति मानवः ॥ ३० ॥
अयोध्यावासिनीनां तु कथां यः शृणुयान्नरः ।
स व्रजेद्धाम परमं गोलोकं योगिदुर्लभम् ॥ ३१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उस दूतकी यह बात सुनकर
भगवान् श्रीहरि बड़े प्रसन्न हुए और क्षणभरमें दूतके साथ ही चम्पकापुरीमें जा पहुँचे।
उस समय राजा विमलका महान् यज्ञ चालू था । उसमें वेदमन्त्रों की
ध्वनि गूँज रही थी । दूतसहित भगवान् श्रीकृष्ण सहसा आकाशसे उस यज्ञमें उतरे ।। १३-१४ ।।
वक्षः- स्थलमें श्रीवत्सके चिह्नसे सुशोभित, मेघके
समान श्याम कान्तिधारी, सुन्दर वनमालालंकृत, पीतपटावृत कमलनयन श्रीहरिको यज्ञभूमिमें
आया देख राजा विमल सहसा उठकर खड़े हो गये और प्रेमसे विह्वल हो, दोनों हाथ जोड़ उनके
चरणोंके समीप गिर पड़े। उस समय उनके अङ्ग अङ्गमें रोमाञ्च हो आया था। फिर उठकर राजाने
रत्न और सुवर्णसे जटित दिव्य सिंहासनपर भगवान् को बिठाया उनका
स्तवन किया तथा विधिवत् पूजन करके वे उनके सामने खड़े हो गये। खिड़कियोंसे झाँककर देखती
हुई सुन्दरी राजकुमारियोंकी ओर दृष्टिपात करके माधव श्रीकृष्णने मेघके समान गम्भीर
वाणीमें राजा विमलसे कहा-- ।। १५ - १८ ॥
श्रीभगवान् बोले - महामते ! तुम्हारे मनमें जो वाञ्छनीय
हो, वह वर मुझसे माँगो । महामुनि याज्ञवल्क्य के वचन से ही इस समय तुम्हें मेरा दर्शन हुआ है ॥ १९ ॥
विमल ने कहा- देवदेव ! मेरा मन
आपके चरणारविन्दमें भ्रमर होकर निवास करे, यही मेरी इच्छा है । इसके सिवा दूसरी कोई
अभिलाषा कभी मेरे मनमें नहीं होती ।। २० ।।
श्रीनारदजी कहते हैं— यों कहकर राजा विमलने अपना सारा
कोश और महान् वैभव, हाथी, घोड़े एवं रथोंके साथ श्रीकृष्णार्पण कर दिया। अपने-आपको
भी उनके चरणोंकी भेंट कर दिया ।। २१ ।।
नरेश्वर ! अपनी समस्त कन्याओंको विधिपूर्वक श्रीहरिके
हाथों में समर्पित करके भक्ति-विह्वल राजा विमलने श्रीकृष्णको नमस्कार किया। उस समय
जन मण्डलमें जय- जयकारका शब्द गूँज उठा और आकाशमें खड़े हुए देवताओंने वहाँ दिव्य पुष्पोंकी
वर्षा की ।। २२-२३ ।।
फिर उसी समय राजा विमल को भगवान्
श्रीकृष्ण का सारूप्य प्राप्त हो गया। उनकी अङ्गकान्ति कामदेव के समान प्रकाशित हो उठी । शत सूर्य के समान तेज धारण किये वे दिशामण्डल को उद्भासित
करने लगे ।। २४ ।।
उस यज्ञमें उपस्थित सम्पूर्ण मनुष्योंके देखते-देखते
पत्नियोंसहित राजा विमल गरुडपर आरूढ हो भगवान् श्रीगरुडध्वजको नमस्कार करके वैकुण्ठलोकमें
चले गये ।। २५ ।।
इस प्रकार राजाको मोक्ष प्रदान करके स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण
उनकी सुन्दरी कुमारियोंको साथ लें, व्रजमण्डलमें आ गये ।। २६ ।।
वहाँ रमणीय कामवन में, जो दिव्य
मन्दिरों से सुशोभित था, वे सुन्दरी कृष्णप्रियाएँ आकर रहने लगीं
और भगवान् के साथ कन्दुक- क्रीड़ा से मन
बहलाने लगीं ।। २७ ।।
जितनी संख्यामें वे श्रीकृष्णप्रिया सखियाँ थीं, उतने
ही रूप धारण करके सुन्दर व्रजराज श्रीकृष्ण रासमण्डलमें उनका मनोरञ्जन करते हुए विराजमान
हुए ।। २८ ।।
उस रासमण्डल में उन विमलकुमारियों के
नेत्रों से जो आनन्दजनित जलबिन्दु च्युत होकर गिरे, उन सबसे वहाँ विमलकुण्ड' नामक तीर्थ
प्रकट हो गया, जो सब तीर्थोंमें उत्तम है ।। २९ ।।
नृपेश्वर ! विमलकुण्ड का दर्शन करके, उसका जल पीकर
तथा उसमें स्नान-पूजन करके मनुष्य मेरुपर्वतके समान विशाल पाप को भी नष्ट कर डालता
और गोलोकधाम में जाता है ।। ३० ।।
जो मनुष्य अयोध्यावासिनी गोपियों के इस कथानक को सुनेगा,
वह योगिदुर्लभ परमधाम गोलोक में जायगा ॥ ३१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'अयोध्यापुरवासिनी गोपियोंका उपाख्यान' नामक सातवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०४)
शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
राजा विमल का संदेश
पाकर भगवान् श्रीकृष्ण का उन्हें दर्शन और मोक्ष प्रदान करना
तथा उनकी राजकुमारियों को साथ लेकर व्रजमण्डल में
लौटना
श्रीनारद उवाच -
अथ दूतः सिन्धुदेशान् माथुरान्पुनरागतः ।
चरन् वृन्दावने कृष्णातीरे कृष्णं ददर्श ह ॥ १ ॥
कृष्णं प्रणम्य रहसि कृताञ्जलिपुटः शनैः ।
प्रदक्षिणीकृत्य दूतो विमलोक्तमुवाच सः ॥ २ ॥
दूत उवाच -
स्वयं परं ब्रह्म परः परेशः
परैरदृश्यः परिपूर्णदेवः ।
यः पुण्यसंघैः सततं हि दूरः
तस्मै नमः सज्जनगोचराय ॥ ३ ॥
गोविप्रदेवश्रुतिसाधुधर्म
रक्षार्थमद्यैव यदोः कुलेऽजः ।
जातोऽसि कंसादिवधाय योऽसौ
तस्मै नमोऽनंतगुणार्णवाय ॥ ४ ॥
अहो परं भाग्यमलं व्रजौकसां
धन्यं कुलं नन्दवरस्य ते पितुः ।
धन्यो व्रजौ धन्यमरण्यमेतद्
यत्रैव साक्षात्प्रकटः परो हरिः ॥ ५
॥
यद्राधिकासुन्दरकण्ठरत्नं
यद्गोपिकाजीवनमूलरूपम् ।
तदेव मन्नेत्रपथि प्रजातं
किं वर्णये भाग्यमतः स्वकीयम् ॥ ६ ॥
गुप्तो व्रजे गोपभिषेण चासि
कस्तूरिकामोद इव प्रसिद्धः ।
यशश्च ते निर्मलमाशु शुक्ली
करोति सर्वत्र गतं त्रिलोकीम् ॥ ७ ॥
जानासि सर्वं जनचैत्यभावं
क्षेत्रज्ञ आत्मा कृतिवृन्दसाक्षी ।
तथापि वक्ष्ये नृपवाक्यमुक्तं
परं रहस्यं रहसि स्वधर्मम् ॥ ८ ॥
या सिंधुदेशेषु पुरी प्रसिद्धा
श्रीचम्पका नाम शुभा यथैन्द्री ।
तत्पालकोऽसौ विमलो यथेन्द्रः
त्वत्पादपद्मे कृतचित्तवृत्तिः ॥ ९ ॥
सदा कृतं यज्ञशतं त्वदर्थं
दानं तपो ब्राह्मणसेवनं च ।
तीर्थं जपं येन सुसाधनेन
तस्मै परं दर्शनमेव देहि ॥ १० ॥
तत्कन्यकाः पद्मविशालनेत्राः
पूर्णं पतिं त्वां मृगयंत्य आरात् ।
सदा त्वदर्थं नियमव्रतस्था-
स्त्वत्पादसेवाविमलीकृताङ्गाः ॥ ११ ॥
गृहाण तासां व्रजदेव पाणीन्
दत्वा परं दर्शनमद्भुतं स्वम् ।
गच्छाशु सिन्धून् विशदीकुरु त्वं
विमृश्य कर्तव्यमिदं त्वया हि ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर दूत पुनः सिन्धुदेशसे
मथुरा-मण्डलमें आया । वृन्दावनमें विचरते हुए यमुनाके तटपर उसको श्रीकृष्णका दर्शन
हुआ । एकान्तमें श्रीकृष्णको प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर और उनकी परिक्रमा करके उसने
धीरे-धीरे राजा विमलकी कही हुई बात दुहरायी ।। १-२ ।।
दूतने कहा- जो स्वयं परब्रह्म परमेश्वर हैं, सबसे परे
और सबके द्वारा अदृश्य हैं, जो परिपूर्ण देव पुण्यकी राशिसे भी सदा दूर - ऊपर उठे हुए
हैं, तथापि संतजनोंको प्रत्यक्ष दर्शन देनेवाले हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णको मेरा नमस्कार
है ।। ३ ।।
गौ, ब्राह्मण, देवता, वेद, साधु पुरुष तथा धर्मकी रक्षाके
लिये जो अजन्मा होनेपर भी इन दिनों कंसादि दैत्यों के वधके लिये
यदुकुल में उत्पन्न हुए हैं, उन अनन्त गुणों के
महासागर आप श्रीहरि को मेरा नमस्कार है। अहो ! व्रजवासियों का बहुत बड़ा सौभाग्य है। आपके पिता नन्दराज का
कुल धन्य है, यह व्रजमण्डल तथा यह वृन्दावन धन्य हैं, जहाँ आप परमेश्वर श्रीहरि साक्षात्
प्रकट हैं ।। ४-५ ।।
प्रभो! आप श्रीराधारानी के कण्ठ में सुशोभित सुन्दर (नीलमणिमय) हार हैं, और गोपियों
के प्राणस्वरूप हैं, ऐसे आप आज मेरे
नेत्रों के समक्ष उपस्थित हैं, इससे अधिक मेरा और कौन सा सौभाग्य होगा, जिसका की
मैं वर्णन करूँ | आप भले ही इस व्रजमंडल
में गोपवेश में छिपे हुए हैं, पर कस्तूरी की सुगन्ध की भाँति सर्वत्र प्रसिद्ध हैं और
आपका सर्वत्र फैला हुआ निर्मल यश सम्पूर्ण त्रिलोकीको तत्काल श्वेत किये देता है ।
आप लोगोंके चित्तका सम्पूर्ण अभिप्राय जानते हैं; क्योंकि आप समस्त क्षेत्रोंके ज्ञाता
आत्मा हैं और कर्मराशिके साक्षी हैं ।। ६-७ ।।
तथापि राजा विमलने जो परम रहस्यकी और स्वधर्मसे सम्बद्ध
बात कही है, उसको मैं आपसे एकान्तमें बताऊँगा । सिन्धुदेशमें जो चम्पका नामसे प्रसिद्ध
इन्द्रपुरीके समान सुन्दर नगरी है, उसके पालक राजा विमल देवराज इन्द्रके समान ऐश्वर्यशाली
हैं। उनकी चित्तवृत्ति सदा आपके चरणारविन्दोंमें लगी रहती है। उन्होंने आपकी प्रसन्नताके
लिये सदा सैकड़ों यज्ञोंका अनुष्ठान किया है तथा दान, तप, ब्राह्मणसेवा, तीर्थसेवन
और जप आदि किये हैं। उनके इन उत्तम साधनोंको निमित्त बनाकर आप उन्हें अपना सर्वोत्कृष्ट
दर्शन अवश्य दीजिये ।। ८-१० ।।
उनकी बहुत-सी कन्याएँ हैं, जो प्रफुल्ल कमल दलके समान
विशाल नेत्रोंसे सुशोभित हैं और आप पूर्ण परमेश्वर को पतिरूप में अपने निकट पाने के शुभ अवसर की प्रतीक्षा करती हैं । वे राजकुमारियाँ सदा
आपकी प्राप्तिके लिये नियमों और व्रतोंके पालनमें तत्पर हैं तथा आपके चरणोंकी सेवासे
उनके तन, मन निर्मल हो गये हैं। व्रजके देवता ! आप अपना उत्तम और अद्भुत दर्शन देकर
उन सब राजकन्याओंका पाणिग्रहण कीजिये । इस समय आपके समक्ष जो यह कर्तव्य प्राप्त हुआ
है, इसका विचार करके आप सिन्धुदेशमें चलिये और वहाँके लोगोंको अपने पावन दर्शनसे विशुद्ध
कीजिये ॥ ११-१२ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०३)
गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 02)
अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियोंका राजा विमलके
यहाँ पुत्रीरूपसे उत्पन्न होना; उनके विवाहके लिये राजाका मथुरामें श्रीकृष्णको देखनेके
निमित्त दूत भेजना; वहाँ पता न लगनेपर भीष्मजीसे अवतार - रहस्य जानकर उनका श्रीकृष्णके
पास दूत प्रेषित करना
श्रीनारद उवाच -
इति चिन्तयतस्तस्य विस्मितस्य नृपस्य च ।
गजाह्वयात्सिन्धुदेशान् जेतुं भीष्मः समागतः ॥ १८ ॥
तं पूज्य विमलो राजा दत्वा तस्मै बलिं बहु ।
पप्रच्छ सर्वाभिप्रायं भीष्मं धर्मभृतां वरम् ॥ १९ ॥
विमल उवाच -
याज्ञवल्क्येन पूर्वोक्तो मथुरायां हरिः स्वयम् ।
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यति न संशयः ॥ २० ॥
न जातो वसुदेवस्य सकाशेऽद्य हरिः परः ।
ऋषिवाक्यं मृषा न स्यात्कस्मै दास्यामि कन्यकाः ॥ २१ ॥
महाभागवतः साक्षात्त्वं परावरवित्तमः ।
जितेन्द्रियो बाल्यभावाद्वीरो धन्वी वसूत्तमः ।
एतद्वद महाबुद्धे किं कर्तव्यं मयाऽत्र वै ॥ २२ ॥
श्रीनारद उवाच -
विमलं प्राह गांगेयो महाभागवतः कविः ।
दिव्यदृग्धर्मतत्वज्ञः श्रीकृष्णस्य प्रभाववित् ॥ २३ ॥
भीष्म उवाच -
हे राजन् गुप्तमाख्यानं वेदव्यासमुखाच्छ्रुतम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं शृणु हर्षविवर्द्धनम् ॥ २४ ॥
देवानां रक्षणार्थाय दैत्यानां हि वधाय च ।
वसुदेवगृहे जातः परिपूर्णतमो हरिः ॥ २५ ॥
अर्धरात्रे कंसभयान्नीत्वा शौरिश्च तं त्वरम् ।
गत्वा च गोकुले पुत्रं निधाय शयने नृप ॥ २६ ॥
यशोदानन्दयोः पुत्रीं मायां नीत्वा पुरं ययौ ।
ववृधे गोकुले कृष्णो गुप्तो ज्ञातो न कैर्नृभिः ॥ २७ ॥
सोऽद्यैव वृदकारण्ये हरिर्गोपालवेषधृक् ।
एकादश समास्तत्र गूढो वासं करिष्यति ।
दैत्यं कंसं घातयित्वा प्रकटः स भविष्यति ॥ २८ ॥
अयोध्यापुरवासिन्यः श्रीरामस्य वराच्च याः ।
ताः सर्वास्तव भार्यासु बभूवुः कन्यकाः शुभाः ॥ २९ ॥
गूढाय देवदेवाय देयाः कन्यास्त्वया खलु ।
न विलम्बः क्वचित्कार्यो देहः कालवशो ह्ययम् ॥ ३० ॥
इत्युक्त्वाऽथ गते भीष्मे सर्वज्ञे हस्तिनापुरम् ।
दूतं स्वं प्रेषयामास विमलो नन्दसूनवे ॥ ३१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! राजा विमल जब इस प्रकार
विस्मित होकर विचार कर रहे थे, उसी समय हस्तिनापुरसे सिन्धुदेशको जीतनेके लिये भीष्म
आये ॥ १८ ॥
राजा विमल ने धर्मधारियों में श्रेष्ठ
पितामह भीष्म का आदर-सत्कार कर उन्हें प्रभूत मात्रा में उपहार दी और उनसे
याज्ञवल्क्यजी के वचनों का अभिप्राय पूछा ॥ १९ ॥
विमल बोले- महाबुद्धिमान्
भीष्मजी ! पहले याज्ञवल्क्यजीने मुझसे कहा था कि मथुरामें साक्षात् श्रीहरि वसुदेवकी
पत्नी देवकीके गर्भसे प्रकट होंगे, इसमें संशय नहीं है। परंतु इस समय वसुदेवके यहाँ
परमेश्वर श्रीहरिका प्राकट्य नहीं हुआ है। साथ ही ऋषिकी बात झूठी हो नहीं सकती; अतः
इस समय मैं अपनी कन्याओंका दान किसके हाथमें करूँ । आप साक्षात् महाभागवत हैं और पूर्वापर की बातें जानने- वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं।
बचपन से ही आपने इन्द्रियों पर विजय पायी
है। आप वीर, धनुर्धर एवं वसुओं में श्रेष्ठ हैं । इसलिये यह बताइये कि अब मुझे क्या करना चाहिये ।। २० - २२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- गङ्गानन्दन भीष्मजी महान् भगवद्भक्त,
विद्वान्, दिव्यदृष्टिसे सम्पत्र, धर्मके तत्त्वज्ञ तथा श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाले
थे । उन्होंने राजा विमलसे कहा-- ॥ २३ ॥
भीष्मजी बोले - राजन् ! यह एक गुप्त बात है, जिसे मैंने
वेदव्यासजीके मुँहसे सुनी थी । यह प्रसङ्ग समस्त पापों को हर
लेनेवाला, पुण्यप्रद तथा हर्षवर्धक है; इसे सुनो। परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरि देवताओं की रक्षा तथा दैत्यों का वध करने के लिये वसुदेव के घरमें अवतीर्ण हुए हैं ।।
२४ - २५ ॥
हे राजन् ! किंतु आधी रातके समय वसुदेव कंसके भयसे उस बालकको
लेकर तुरंत गोकुल चले गये और वहाँ अपने पुत्रको यशोदाकी शय्यापर सुलाकर, यशोदा और नन्दकी
पुत्री मायाको साथ ले, मथुरापुरीमें लौट आये। इस प्रकार श्रीकृष्ण गोकुलमें गुप्तरूपसे
पलकर बड़े हुए हैं, यह बात दूसरे कोई भी मनुष्य नहीं जानते ।। २६
- २७ ॥
वे ही गोपालवेषधारी श्रीहरि वृन्दावनमें ग्यारह वर्षोंतक
गुप्तरूपसे वास करेंगे। फिर कंस-दैत्यका वध करके प्रकट हो जायँगे । अयोध्यापुरवासिनी
जो नारियाँ श्रीरामचन्द्रजीके वरसे गोपीभावको प्राप्त हुई हैं, वे सब तुम्हारी पत्नियोंके
गर्भसे सुन्दरी कन्याओंके रूपमें उत्पन्न हुई हैं। तुम उन गूढरूपमें विद्यमान देवाधिदेव
श्रीकृष्णको अपनी समस्त कन्याएँ अवश्य दे दो। इस कार्यमें कदापि विलम्ब न करो, क्योंकि
यह शरीर कालके अधीन है ।। २८ - ३० ॥
यों कहकर जब सर्वज्ञ भीष्मजी हस्तिनापुरको चले गये,
तब राजा विमलने नन्दनन्दनके पास अपना दूत भेजा ॥ ३१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'अयोध्यापुरवासिनी गोपिकाओंका उपाख्यान' नामक छठा
अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)
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