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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
पंद्रहवाँ अध्याय
बर्हिष्मतीपुरी आदि की
वनिताओं का गोपीरूप में प्राकट्य तथा भगवान् के साथ उनका रासविलास; मांधाता और सौभरि के संवाद में यमुना-पञ्चाङ्ग की प्रस्तावना
श्रीनारद उवाच -
व्रजे शोणपुराधीशो गोपो नन्दो धनी महान् ।
भार्याः पञ्चसहस्राणि बभूवुस्तस्य मैथिल ॥ १ ॥
जाता मत्स्यवरात्तास्तु समुद्रे गोपकन्यकाः ।
तथाऽन्याश्च त्रिवाचापि पृथिव्या दोहनान्नृप ॥ २ ॥
बर्हिष्मतीपुरंध्र्यो या जाता जातिस्मराः पराः ।
तथाऽन्याप्सरसोऽभूवन् वरान्नारायणस्य च ॥ ३ ॥
तथा सुतलवासिन्यो वामनस्य वरात्स्त्रियः ।
तथा नागेन्द्रकन्याश्च जाताः शेषवरात्परात् ॥ ४ ॥
ताभ्यो दुर्वाससा दत्तं कृष्णापञ्चांगमद्भुतम् ।
तेन संपूज्य यमुनां वव्रिरे श्रीपतिं वरम् ॥ ५ ॥
एकदा श्रीहरिस्ताभिर्वृन्दारण्ये मनोहरे ।
यमुनानिकटे दिव्ये पुंस्कोकिलतरुव्रजे ॥ ६ ॥
मधुपध्वनिसंयुक्ते कूजत्कोकिलसारसे ।
मधुमासे मन्दवायौ वसन्तलतिकावृते ॥ ७ ॥
दोलोत्सवं समारेभे हरिर्मदनमोहनः ।
कदम्बवृक्षे रहसि कल्पवृक्षे मनोहरे ॥ ८ ॥
कालिन्दीजलकल्लोलकोलाहलसमाकुले ।
तद्दोलाखेलनं चक्रुः ता गोप्यः प्रेमविह्वलाः ॥ ९ ॥
राधया कीर्तिसुतया चन्द्रकोटिप्रकाशया ।
रेजे वृन्दावने कृष्णो यथा रत्या रतीश्वरः ॥ १० ॥
एवं प्राप्ताश्च याः सर्वाः श्रीकृष्णं नंदनंदनम् ।
परिपूर्णतमं साक्षात्तासां किं वर्ण्यते तपः ॥ ११ ॥
नागेन्द्रकन्या याः सर्वाः चैत्रमासे मनोहरे ।
बलभद्रं हरिं प्राप्ताः कृष्णातीरे तु ताः शुभा ॥ १२ ॥
इदं मया ते कथितं गोपीनां चरितं शुभम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १३ ॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
यमुनायाश्च पंचांगं दत्तं दुर्वाससा मुने ।
गोपीभ्यो येन गोविन्दः प्राप्तस्तद्ब्रूहि मां प्रभो ॥ १४ ॥
श्रीनारद उवाच -
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण पापहानिः परा भवेत् ॥ १५ ॥
अयोध्याधिपतिः श्रीमान् मांधाता राजसत्तमः ।
मृगयां विचरन् प्राप्तः सौभरेराश्रमं शुभम् ॥ १६ ॥
वृन्दावने स्थितं साक्षात्कृष्णातीरे मनोहरे ।
नत्वा जामातरं राजा सौभरिं प्राह मानदः ॥ १७ ॥
मांधातोवाच -
भगवन् सर्ववित्साक्षात्त्वं परावरवित्तमः ।
लोकानां तमसोऽन्धानां दिव्यसूर्य इवापरः ॥ १८ ॥
इह लोके भवेद्राज्यं सर्वसिद्धिसमन्वितम् ।
अमुत्र कृष्णसारूप्यं येन स्यात्तद्वदाशु मे ॥ १९ ॥
सौभरिरुवाच -
यमुनायाश्च पञ्चागं वदिष्यामि तवाग्रतः ।
सर्वसिद्धिकरं शश्वत्कृष्णसारूप्यकारकम् ॥ २० ॥
यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति ।
तावद्राज्यप्रदं चात्र श्रीकृष्णवशकारकम् ॥ २१ ॥
कवचं च स्तवं नाम्नां सहस्रं पटलं तथा ।
पद्धतिं सूर्यवंशेन्द्र पञ्चांगानि विदुर्बुधाः ॥ २२ ॥
नारदजी
कहते हैं— राजन् ! व्रजमें शोणपुरके स्वामी नन्द बड़े धनी थे। मिथिलेश्वर ! उनके पाँच
हजार पत्नियाँ थीं । उनके गर्भसे समुद्रसम्भवा लक्ष्मीजीकी वे सखियाँ उत्पन्न हुईं,
जिन्हें मत्स्यावतार - धारी भगवान् से वैसा वर प्राप्त हुआ था । नरेश्वर ! इनके सिवा
और भी, विचित्र ओषधियाँ, जो पृथ्वीके दोहनसे प्रकट हुई थीं, वहाँ गोपीरूप में उत्पन्न हुईं ॥ १-२ ॥
बर्हिष्मतीपुरी की वे नारियाँ
भी, जिन्हें महाराज पृथुका वर प्राप्त था, जातिस्मरा गोपियों के
रूप में व्रज में उत्पन्न हुई थीं तथा नर-नारायण के वरदान से अप्सराएँ भी गोपीरूपमें प्रकट हुई
थीं । सुतलवासिनी दैत्यनारियाँ वामनके वरसे तथा नागराजोंकी कन्याएँ भगवान् शेषके उत्तम
वरसे व्रजमें उत्पन्न हुईं। दुर्वासामुनिने उन सबको अद्भुत 'कृष्णा-पञ्चाङ्ग' दिया
था, जिससे यमुनाजीकी पूजा करके उन्होंने श्रीपतिका वररूपमें वरण किया ।। ३-५ ॥
एक दिनकी बात है— मनोहर वृन्दावनमें दिव्य यमुनातटपर,
जहाँ नर-कोकिलोंसे सुशोभित हरे-भरे वृक्ष-समुदाय शोभा दे रहे थे, भ्रमरोंके गुञ्जारवके
साथ कोकिलों और सारसोंकी मीठी बोली गूँज रही थी, वासन्ती लताओं से
आवृत तथा शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु से परिसेवित मधुमास में, उन गोपाङ्गनाओंके साथ, मदनमोहन श्यामसुन्दर श्रीहरिने कल्पवृक्षों की श्रेणीसे मनोरम प्रतीत होनेवाले कदम्बवृक्षके नीचे एकान्त स्थानमें
झूला झूलनेका उत्सव आरम्भ किया ॥ ६-८ ॥
वहाँ यमुना-जलकी
उत्ताल तरङ्गोंका कोलाहल फैला हुआ था। वे प्रेमविह्वला गोपाङ्गनाएँ श्रीहरिके साथ झूला
झूलनेकी क्रीड़ा कर रही थीं। जैसे रतिके साथ रति- पति कामदेव शोभा पाते हैं, उसी प्रकार
करोड़ों चन्द्रोंसे भी अधिक कान्तिमती कीर्तिकुमारी श्रीराधाके साथ वृन्दावनमें श्यामसुन्दर
श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे । इस प्रकार जो साक्षात् परिपूर्णतम नन्दनन्दन श्रीकृष्ण
को प्राप्त हुई थीं, उन समस्त गोपाङ्गनाओंके तपका क्या वर्णन हो सकता है ? ॥ ९-११ ॥
नागराजोंकी समस्त सुन्दरी कन्याएँ, जो गोपीरूपमें उत्पन्न
हुई थीं, मनोहर चैत्र मासमें यमुनाके तटपर श्रीबलभद्र हरिकी सेवामें उपस्थित थीं। राजन्
! इस प्रकार मैंने तुमसे गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया, जो परम पवित्र तथा समस्त
पापोंको हर लेनेवाला है। अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? ।। १२
– १३॥
बहुलाश्व बोले- मुने ! प्रभो ! दुर्वासाका दिया हुआ
यमुनाजीका पञ्चाङ्ग क्या है, जिससे गोपियोंको गोविन्दकी प्राप्ति हो गयी ? उसका मुझसे
वर्णन कीजिये ॥ १४ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! इस विषयमें विज्ञजन एक प्राचीन
इतिहासका उदाहरण देते हैं, जिसके श्रवणमात्रसे पापोंकी पूर्णतया निवृत्ति हो जाती है।
अयोध्यामें मांधाता नामसे प्रसिद्ध एक तेजस्वी राजशिरोमणि उस पुरीके अधिपति थे। एक
दिन वे शिकार खेलनेके लिये वनमें गये और विचरते हुए, सौभरिमुनिके सुन्दर आश्रमपर जा
पहुँचे । उनका वह आश्रम साक्षात् वृन्दावनमें यमुनाजीके मनोहर तटपर स्थित था । वहाँ
अपने जामाता सौभरिमुनिको प्रणाम करके मानदाता मांधाताने कहा ।। १५–१७ ॥
मांधाता बोले- भगवन् ! आप साक्षात् सर्वज्ञ हैं, परावरवेत्ताओंमें
सर्वश्रेष्ठ हैं और अज्ञानान्धकारसे अंधे हुए लोगोंके लिये दूसरे दिव्य सूर्यके समान
हैं। मुझे शीघ्र ही ऐसा कोई उत्तम साधन बताइये, जिससे इस लोकमें सम्पूर्ण सिद्धियोंसे
सम्पन्न राज्य बना रहे और परलोकमें भगवान् श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त हो ।। १८-१९
॥
सौभरि बोले- राजन् ! मैं तुम्हारे सामने यमुनाजीके
पञ्चाङ्गका वर्णन करूँगा, जो सदा समस्त सिद्धियोंको देनेवाला तथा श्रीकृष्णके सारूप्यकी
प्राप्ति करानेवाला है । यह साधन जहाँसे सूर्यका उदय होता है और जहाँ वह अस्तभावको
प्राप्त होता है, वहाँ तक के राज्यकी प्राप्ति करानेवाला तथा
यहाँ श्रीकृष्ण को भी वशीभूत करनेवाला है। सूर्यवंशेन्द्र ! किसी
भी देवताके कवच, स्तोत्र, सहस्रनाम, पटल तथा पद्धति-ये पाँच अङ्ग विद्वानोंने बताये
हैं ।। २० - २२ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'सौभरि और मांधाताका संवाद तथा बर्हिष्मतीपुरीकी
नारियों, अप्सराओं, सुतलवासिनी, असुर-कन्याओं तथा नागराज कन्याओंके गोपीरूपमें 'उत्पन्न
होनेका उपाख्यान' नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से