सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

को वा अमुष्याङ्‌घ्रिसरोजरेणुं
     विस्मर्तुमीशीत पुमान् विजिघ्रन् ।
यो विस्फुरद्भ्रू विटपेन भूमेः
     भारं कृतान्तेन तिरश्चकार ॥ १८ ॥
दृष्टा भवद्‌भिः ननु राजसूये
     चैद्यस्य कृष्णं द्विषतोऽपि सिद्धिः ।
यां योगिनः संस्पृहयन्ति सम्यग्
     योगेन कस्तद्विरहं सहेत ॥ १९ ॥
तथैव चान्ये नरलोकवीरा
     य आहवे कृष्णमुखारविन्दम् ।
नेत्रैः पिबन्तो नयनाभिरामं
     पार्थास्त्रपूतः पदमापुरस्य ॥ २० ॥

जिन्होंने कालरूप अपने भुकुटिविलास से ही पृथ्वी का सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्ण के पाद-पद्म-पराग का सेवन करनेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके ॥ १८ ॥ आप लोगों ने राजसूय यज्ञ में प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्ण से द्वेष करनेवाले शिशुपाल को वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भली-भाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है ॥ १९ ॥ शिशुपाल के ही समान महाभारत- युद्धमें जिन दूसरे योद्धाओं ने अपनी आँखों से भगवान्‌ श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुख-कमलका मकरन्द पान करते हुए,अर्जुन के बाणोंसे बिंधकर प्राणत्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान्‌ के परमधाम को प्राप्त हो गये ॥ २० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 20 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

सत्रहवाँ अध्याय

 

श्रीयमुनाका स्तोत्र

 

मांधातोवाच -
यमुनायाः स्तवं दिव्यं सर्वसिद्धिकरं परम् ।
सौभरे मुनिशार्दूल वद मां कृपया त्वरम् ॥ १ ॥


श्रीसौभरिरुवाच -
मार्तंडकन्यकायास्तु स्तवं शृणु महामते ।
सर्वसिद्धिकरं भूमौ चातुर्वर्ग्यफलप्रदम् ॥ २ ॥
कृष्णवामांसभूतायै कृष्णायै सततं नमः ।
नमः श्रीकृष्णरूपिण्यै कृष्णे तुभ्यं नमो नमः ॥ ३ ॥
यः पापपंकांबुकलंककुत्सितः
     कामी कुधीः सत्सु कलिं करोति हि ।
वृन्दावनं धाम ददाति तस्मै
     नदन्मिलिन्दादि कलिन्दनन्दिनी ॥ ४ ॥
कृष्णे साक्षात्कृष्णरूपा त्वमेव
     वेगावर्ते वर्तसे मत्स्यरूपी ।
ऊर्मावूर्मौ कूर्मरूपी सदा ते
     बिंदौ बिंदौ भाति गोविन्ददेवः ॥ ५ ॥
वन्दे लीलावतीं त्वां
     सगनघननिभां कृष्णवामांसभूतां ।
वेगं वै वैरजाख्यं
     सकलजलचयं खण्डयंतीं बलात्स्वात् ।
छित्वा ब्रह्माण्डमारात्
     सुरनगरनगान् गण्डशैलादिदुर्गान् ।
भित्वा भूखण्डमध्ये
     तटनिधृतवतीमूर्मिमालां प्रयान्तीम् ॥ ६ ॥
दिव्यं कौ नामधेयं
     श्रुतमथ यमुने दण्डयत्यद्रितुल्यं ।
पापव्यूहं त्वखण्डं
     वसतु मम गिरां मण्डले तु क्षणं तत् ।
दण्ड्यांश्चाकार्यदण्ड्या
     सकृदपि वचसा खण्डितं यद्‍गृहीतं ।
भ्रातुर्मार्तंडसूनो-
     रटति पुरि दृढः ते प्रचण्डोऽतिदण्डः ॥ ७ ॥
रज्जुर्वा विषयांधकूपतरणे
     पापाखुदर्वीकरी ।
वेण्युष्णिक् च विराजमूर्तिशिरसो
     मालाऽस्ति वा सुन्दरी ।
धन्यं भाग्यमतः परं भुवि नृणां
     यत्रादिकृद्वल्लभा ।
गोलोकेऽप्यतिदुर्लभाऽतिशुभगा
     भात्यद्वितीया नदी ॥ ८ ॥
गोपीगोकुलगोपकेलिकलिते
     कालिन्दि कृष्णप्रभे ।
त्वत्कूले जललोलगोलविचलत्
     कल्लोलकोलाहलः ।
त्वत्कांतारकुतूहलालिकुलकृत्
     झंकारकेकाकुलः ।
कूजत्कोकिलसंकुलो व्रजलता
     लंकारभृत्पातु माम् ॥ ९ ॥
भवंति जिह्वास्तनुरोमतुल्या
     गिरो यदा भूसिकता इवाशु ।
तदप्यलं यान्ति न ते गुणांतं
     संतो महांतः किल शेषतुल्याः ॥ १० ॥
कलिन्दगिरिनन्दिनीस्तव उषस्ययं वापरः
     श्रुतश्च यदि पाठितो भुवि तनोति सन्मंगलम् ।
जनोऽपि यदि धारयेत्किल पठेच्च यो नित्यशः
     स याति परमं पदं निजनिकुञ्जलीलावृतम् ॥ ११ ॥

 

मांधाता बोले—मुनिश्रेष्ठ सौभरे ! सम्पूर्ण सिद्धिप्रदान करनेवाला जो यमुनाजीका दिव्य उत्तम स्तोत्र है, उसका कृपापूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

श्री सौभरि मुनि ने कहा- महामते ! अब तुम सूर्यकन्या यमुनाका स्तोत्र सुनो, जो इस भूतलपर समस्त सिद्धियोंको देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थोंका फल देनेवाला है। श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई 'कृष्णा' को सदा मेरा नमस्कार है। कृष्णे ! तुम श्रीकृष्णस्वरूपिणी हो; तुम्हें बारंबार नमस्कार हैं । जो पापरूपी पङ्कजलके कलङ्कसे कुत्सित कामी कुबुद्धि मनुष्य सत्पुरुषोंके साथ कलह करता है, उसे भी गूँजते हुए भ्रमर और जलपक्षियोंसे युक्त कलिन्दनन्दिनी यमुना वृन्दावनधाम प्रदान करती हैं ॥ २-

कृष्णे ! तुम्हीं साक्षात् श्रीकृष्णस्वरूपा हो। तुम्हीं प्रलयसिन्धुके वेगयुक्त भँवरमें महामत्स्यरूप धारण करके विराजती हो। तुम्हारी ऊर्मि-ऊर्मि में भगवान् कूर्मरूप से वास करते हैं तथा तुम्हारे बिन्दु-बिन्दु में श्रीगोविन्ददेव की आभाका दर्शन होता है ॥

तटिनि ! तुम लीलावती हो, मैं तुम्हारी बन्दना करता हूँ। तुम घनीभूत मेघके समान श्याम कान्ति धारण करती हो । श्रीकृष्णके बायें कंधेसे तुम्हारा प्राकट्य हुआ है 1 सम्पूर्ण जलोंकी राशिरूप जो विरजा नदीका वेग है, उसको भी अपने बलसे खण्डित करती हुई, ब्रह्माण्ड- को छेदकर देवनगर, पर्वत, गण्डशैल आदि दुर्गम वस्तुओं का भेदन करके तुम इस भूमिखण्ड के मध्यभाग में अपनी तरङ्गमालाओंको स्थापित करके प्रवाहित होती हो ॥

यमुने! पृथ्वीपर तुम्हारा नाम दिव्य है वह श्रवणपथमें आकर पर्वताकार पापसमूहको भी दण्डित एवं खण्डित कर देता है। तुम्हारा वह अखण्ड नाम मेरे बाङ्मण्डल – वचनसमूहमें क्षणभर भी स्थित हो जाय । यदि वह एक बार भी वाणीद्वारा गृहीत हो जाय तो समस्त पापोंका खण्डन हो जाता है। उसके स्मरणसे दण्डनीय पापी भी अदण्डनीय हो जाते हैं। तुम्हारे भाई सूर्यपुत्र यमराजके नगरमें तुम्हारा 'प्रचण्डा' यह नाम सुदृढ़ अतिदण्ड बनकर विचरता है ॥

तुम विषयरूपी अन्धकूपसे पार जानेके लिये रस्सी हो; अथवा पापरूपी चूहोंके निगल जानेवाली काली नागिन हो; अथवा विराट् पुरुषकी मूर्तिकी वेणीको अलंकृत करनेवाला नीले पुष्पोंका गजरा हो या उनके मस्तकपर सुशोभित होनेवाली सुन्दर नीलमणिकी माला हो । जहाँ आदिकर्ता भगवान् श्रीकृष्णकी वल्लभा, गोलोकमें भी अतिदुर्लभा, अति सौभाग्यवती अद्वितीया नदी श्रीयमुना प्रवाहित होती हैं, उस भूतलके मनुष्योंका भाग्य इसी कारणसे धन्य है ॥

गौओंके समुदाय तथा गोप-गोपियोंकी क्रीडासे कलित कलिन्दनन्दिनी यमुने ! कृष्णप्रभे ! तुम्हारे तटपर जो जलकी गोलाकार, चपल एवं उत्ताल तरङ्गोंका कोलाहल (कल-कल ख) होता है, वह सदा मेरी रक्षा करें। तुम्हारे दुर्गम कुञ्जोंके प्रति कौतूहल रखनेवाले भ्रमरसमुदायके गुञ्जारव, मयूरोंकी केका तथा कूजते हुए कोकिलोंकी काकलीका शब्द भी उस कोलाहलमें मिला रहता है तथा वह व्रजलताओंके अलंकारको धारण करनेवाला है ॥

शरीरमें जितने रोम हैं, उतनी ही जिह्वाएँ हो जायँ, धरतीपर जितने सिकताकण हैं, उतनी ही वाग्देवियाँ आ जायँ और उनके साथ संत-महात्मा भी शेषनागके समान सहस्रों जिह्वाओंसे युक्त होकर गुणगान करने लग जायँ, तथापि तुम्हारे गुणोंका अन्त कभी नहीं हो सकता। कलिन्दगिरिनन्दिनी यमुनाका यह उत्तम स्तोत्र यदि उषःकालमें ब्राह्मणके मुखसे सुना जाय अथवा स्वयं पढ़ा जाय तो भूतलपर परम मङ्गलका विस्तार करता है। जो कोई मनुष्य भी यदि नित्यशः इसका धारण (चिन्तन) करे तो वह भगवान्‌की निज निकुञ्जलीलाके द्वारा वरण किये गये परमपदको प्राप्त होता है  १०- ११ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीसौभरि मांधाताके संवादमें 'श्रीयमुनास्तोत्र' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

स्वशान्तरूपेष्वितरैः स्वरूपैः
     अभ्यर्द्यमानेष्वनुकम्पितात्मा ।
परावरेशो महदंशयुक्तो
     ह्यजोऽपि जातो भगवान् यथाग्निः ॥ १५ ॥
मां खेदयत्येतदजस्य जन्म
     विडम्बनं यद्वसुदेवगेहे ।
व्रजे च वासोऽरिभयादिव स्वयं
     पुराद् व्यवात्सीद् यत् अनन्तवीर्यः ॥ १६ ॥
दुनोति चेतः स्मरतो ममैतद्
     यदाह पादावभिवन्द्य पित्रोः ।
ताताम्ब कंसाद् उरुशंकितानां
     प्रसीदतं नोऽकृतनिष्कृतीनाम् ॥ १७ ॥

(उद्धवजी कहरहे हैं) चराचर जगत् और प्रकृति के स्वामी भगवान्‌ ने जब अपने शान्त-रूप महात्माओं को अपने ही घोररूप असुरों से सताये जाते देखा, तब वे करुणाभाव से द्रवित हो गये और अजन्मा होने पर भी अपने अंश बलरामजी के साथ काष्ठ में अग्नि के समान प्रकट हुए ॥ १५ ॥ अजन्मा होकर भी वसुदेवजी के यहाँ जन्म लेने की लीला करना, सबको अभय देने वाले होने पर भी मानो कंस के भय से व्रजमें जाकर छिप रहना और अनन्तपराक्रमी होने पर भी कालयवन के सामने मथुरापुरी को छोडक़र भाग जाना—भगवान्‌ की ये लीलाएँ याद आ-आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं ॥ १६ ॥ उन्होंने जो देवकी-वसुदेवकी चरण-वन्दना करके कहा था— ‘पिताजी, माताजी ! कंसका बड़ा भय रहनेके कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराधपर ध्यान न देकर मुझपर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्णकी ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ॥ १७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सोलहवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

सोलहवाँ अध्याय

 

श्रीयमुना - कवच

 

मांधातोवाच –

यमुनायाः कृष्णराज्ञ्याः कवचं सर्वतोऽमलम् ।
देहि मह्यं महाभाग धारयिष्याम्यहं सदा ॥ १ ॥


सौभरिरुवाच -
यमुनायाश्च कवचं सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
चतुष्पदार्थदं साक्षाच्छृणु राजन्महामते ॥ २ ॥
कृष्णां चतुर्भुजां श्यामां पुण्डरीकदलेक्षणाम् ।
रथस्थां सुन्दरीं ध्यात्वा धारयेत्कवचं ततः ॥ ३ ॥
स्नातः पूर्वमुखो मौनि कृतसंध्यः कुशासने ।
कुशैर्बद्धशिखो विप्रः पठेद्वै स्वस्तिकासनः ॥ ४ ॥
यमुना मे शिरः पातु कृष्णा नेत्रद्वयं सदा ।
श्यामा भ्रूभंगदेशं च नासिकां नाकवासिनी ॥ ५ ॥
कपोलौ पातु मे साक्षात्परमानन्दरूपिणी ।
कृष्णवामांससंभूता पातु कर्णद्वयं मम ॥ ६ ॥
अधरौ पातु कालिन्दी चिबुकं सूर्यकन्यका ।
यमस्वसा कन्धरां च हृदयं मे महानदी ॥ ७ ॥
कृष्णप्रिया पातु पृष्ठं तटिनि मे भुजद्वयम् ।
श्रोणीतटं च सुश्रोणी कटिं मे चारुदर्शना ॥ ८ ॥
ऊरुद्वयं तु रंभोरुर्जानुनी त्वंघ्रिभेदिनी ।
गुल्फौ रासेश्वरी पातु पादौ पापप्रहारिणी ॥ ९ ॥
अंतर्बहिरधश्चोर्ध्वं दिशासु विदिशासु च ।
समंतात्पातु जगतः परिपूर्णतमप्रिया ॥ १० ॥
इदं श्रीयमुनाश्च कवचं परमाद्‌भुतम् ।
दशवारं पठेद्‌भक्त्या निर्धनो धनवान्भवेत् ॥ ११ ॥
त्रिभिर्मासैः पठेद्धीमान् ब्रह्मचारी मिताशनः ।
सर्वराज्याधिपत्यञ्च प्राप्यते नात्र संशयः ॥ १२ ॥
दशोत्तरशतं नित्यं त्रिमासावधि भक्तितः ।
यः पठेत्प्रयतो भूत्वा तस्य किं किं न जायते ॥ १३ ॥
यः पठेत्प्रातरुत्थाय सर्वतीर्थफलं लभेत् ।
अंते व्रजेत्परं धाम गोलोकं योगिदुर्लभम् ॥ १४ ॥

मांधाता बोले- महाभाग ! आप मुझे श्रीकृष्ण- की पटरानी यमुनाके सर्वथा निर्मल कवच का उपदेश दीजिये, मैं उसे सदा धारण करूँगा ॥ १ ॥

सौभरि बोले- महामते नरेश ! यमुनाजीका कवच मनुष्यों की सब प्रकारसे रक्षा करनेवाला तथा साक्षात् चारों पदार्थोंको देनेवाला है, तुम इसे सुनो- यमुनाजीके चार भुजाएँ हैं। वे श्यामा (श्यामवर्णा एवं षोडश वर्षकी अवस्थासे युक्त) हैं। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान सुन्दर एवं विशाल हैं । वे परम सुन्दरी हैं और दिव्य रथपर बैठी हुई हैं। इस प्रकार उनका ध्यान करके कवच धारण करे ॥ २-३ ॥

स्नान करके पूर्वाभिमुख हो मौनभावसे कुशासन- पर बैठे और कुशोंद्वारा शिखा बाँधकर संध्या-वन्दन करनेके अनन्तर ब्राह्मण (अथवा द्विजमात्र) स्वस्तिकासन से स्थित हो कवचका पाठ करे ॥

 'यमुना' मेरे मस्तककी रक्षा करें और 'कृष्णा' सदा दोनों नेत्रोंकी। 'श्यामा' भ्रूभंग-देशकी और 'नाकवासिनी' नासिकाकी रक्षा करें। 'साक्षात् परमानन्दरूपिणी' मेरे दोनों कपोलोंकी रक्षा करें। 'कृष्णवामांससम्भूता' (श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई वे देवी) मेरे दोनों कानोंका संरक्षण करें। 'कालिन्दी' अधरोंकी और 'सूर्यकन्या' चिबुक (ठोढ़ी) की रक्षा करें। 'यमस्वसा' ( यमराजकी बहिन) मेरी ग्रीवाकी और 'महानदी' मेरे हृदयकी रक्षा करें। 'कृष्णप्रिया' पृष्ठ-भागका और 'तटिनी' मेरी दोनों भुजाओंका रक्षण करें। 'सुश्रोणी' श्रोणीतट ( नितम्ब) की और 'चारुदर्शना' मेरे कटिप्रदेशकी रक्षा करें। 'रम्भोरू' दोनों ऊरुओं (जाँघों) की और 'अङ्घ्रिभेदिनी' मेरे दोनों घुटनोंकी रक्षा करें। 'रासेश्वरी' गुल्फों (घुट्टियों) का और 'पापापहारिणी' पादयुगलका त्राण करें। 'परिपूर्णतम- प्रिया' भीतर-बाहर, नीचे-ऊपर तथा दिशाओं और विदिशाओंमें सब ओरसे मेरी रक्षा करें ॥ - १० ॥

यह श्रीयमुनाका परम अद्भुत कवच है। जो भक्तिभावसे दस बार इसका पाठ करता है, वह निर्धन भी धनवान् हो जाता है। जो बुद्धिमान् मनुष्य ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक परिमित आहारका सेवन करते हुए तीन मासतक इसका पाठ करेगा, वह सम्पूर्ण राज्योंका आधिपत्य प्राप्त कर लेगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ११-१२

जो तीन महीने की अवधितक प्रतिदिन भक्तिभावसे शुद्धचित्त हो इसका एक सौ दस बार पाठ करेगा, उसको क्या-क्या नहीं मिल जायगा ? जो प्रातःकाल उठकर इसका पाठ करेगा, उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नानका फल मिल जायगा तथा अन्तमें वह योगिदुर्लभ परमधाम गोलोकमें चला जायगा ॥ १ – १४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीसौभरि मांधाताके संवादमें 'यमुना-कवच' नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

प्रदर्श्या तप्ततपसां अवितृप्तदृशां नृणाम् ।
आदायान्तरधाद्यस्तु स्वबिम्बं लोकलोचनम् ॥ ११ ॥
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग
     मायाबलं दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेः
     परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ॥ १२ ॥
यद्धर्मसूनोर्बत राजसूये
     निरीक्ष्य दृक्स्वस्त्ययनं त्रिलोकः ।
कार्त्स्न्येन चाद्येह गतं विधातुः
     अर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ॥ १३ ॥
यस्यानुरागप्लुतहासरास
     लीलावलोकप्रतिलब्धमानाः ।
व्रजस्त्रियो दृग्भिरनुप्रवृत्त
     धियोऽवतस्थुः किल कृत्यशेषाः ॥ १४ ॥

जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगों को भी इतने दिनों तक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसा को तृप्त किये बिना ही वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रह को छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रोंको ही छीन लिया है ॥ ११ ॥ भगवान्‌ ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखाने के लिए मानवलीलाओं के योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे । सौभाग्य और सुन्दरताकी पराकाष्ठा थी उस रूपमें। उससे आभूषण (अङ्गोंके गहने) भी विभूषित हो जाते थे ॥ १२ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें जब भगवान्‌ के उस नयनाभिराम रूपपर लोगों की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकी ने यही माना था कि मानवसृष्टि की रचना में विधाता की जितनी चतुराई है, सब इसी रूपमें पूरी हो गयी है ॥ १३ ॥ उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन से सम्मानित होने पर व्रजबालाओंकी आँखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घरके काम-धंधोंको अधूरा ही छोडक़र जड पुतलियोंकी तरह खड़ी रह जाती थीं॥१४॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पंद्रहवाँ अध्याय

 

बर्हिष्मतीपुरी आदि की वनिताओं का गोपीरूप में प्राकट्य तथा भगवान् के साथ उनका रासविलास; मांधाता और सौभरि के संवाद में यमुना-पञ्चाङ्ग की प्रस्तावना

 

श्रीनारद उवाच -
व्रजे शोणपुराधीशो गोपो नन्दो धनी महान् ।
 भार्याः पञ्चसहस्राणि बभूवुस्तस्य मैथिल ॥ १ ॥
 जाता मत्स्यवरात्तास्तु समुद्रे गोपकन्यकाः ।
 तथाऽन्याश्च त्रिवाचापि पृथिव्या दोहनान्नृप ॥ २ ॥
 बर्हिष्मतीपुरंध्र्यो या जाता जातिस्मराः पराः ।
 तथाऽन्याप्सरसोऽभूवन् वरान्नारायणस्य च ॥ ३ ॥
 तथा सुतलवासिन्यो वामनस्य वरात्स्त्रियः ।
 तथा नागेन्द्रकन्याश्च जाताः शेषवरात्परात् ॥ ४ ॥
 ताभ्यो दुर्वाससा दत्तं कृष्णापञ्चांगमद्‌भुतम् ।
 तेन संपूज्य यमुनां वव्रिरे श्रीपतिं वरम् ॥ ५ ॥
 एकदा श्रीहरिस्ताभिर्वृन्दारण्ये मनोहरे ।
 यमुनानिकटे दिव्ये पुंस्कोकिलतरुव्रजे ॥ ६ ॥
 मधुपध्वनिसंयुक्ते कूजत्कोकिलसारसे ।
 मधुमासे मन्दवायौ वसन्तलतिकावृते ॥ ७ ॥
 दोलोत्सवं समारेभे हरिर्मदनमोहनः ।
 कदम्बवृक्षे रहसि कल्पवृक्षे मनोहरे ॥ ८ ॥
 कालिन्दीजलकल्लोलकोलाहलसमाकुले ।
 तद्दोलाखेलनं चक्रुः ता गोप्यः प्रेमविह्वलाः ॥ ९ ॥
 राधया कीर्तिसुतया चन्द्रकोटिप्रकाशया ।
 रेजे वृन्दावने कृष्णो यथा रत्या रतीश्वरः ॥ १० ॥
 एवं प्राप्ताश्च याः सर्वाः श्रीकृष्णं नंदनंदनम् ।
 परिपूर्णतमं साक्षात्तासां किं वर्ण्यते तपः ॥ ११ ॥
 नागेन्द्रकन्या याः सर्वाः चैत्रमासे मनोहरे ।
 बलभद्रं हरिं प्राप्ताः कृष्णातीरे तु ताः शुभा ॥ १२ ॥
 इदं मया ते कथितं गोपीनां चरितं शुभम् ।
 सर्वपापहरं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १३ ॥


 श्रीबहुलाश्व उवाच -
यमुनायाश्च पंचांगं दत्तं दुर्वाससा मुने ।
 गोपीभ्यो येन गोविन्दः प्राप्तस्तद्‍ब्रूहि मां प्रभो ॥ १४ ॥


 श्रीनारद उवाच -
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
 यस्य श्रवणमात्रेण पापहानिः परा भवेत् ॥ १५ ॥
 अयोध्याधिपतिः श्रीमान् मांधाता राजसत्तमः ।
 मृगयां विचरन् प्राप्तः सौभरेराश्रमं शुभम् ॥ १६ ॥
 वृन्दावने स्थितं साक्षात्कृष्णातीरे मनोहरे ।
 नत्वा जामातरं राजा सौभरिं प्राह मानदः ॥ १७ ॥


 मांधातोवाच -
भगवन् सर्ववित्साक्षात्त्वं परावरवित्तमः ।
 लोकानां तमसोऽन्धानां दिव्यसूर्य इवापरः ॥ १८ ॥
 इह लोके भवेद्‌राज्यं सर्वसिद्धिसमन्वितम् ।
 अमुत्र कृष्णसारूप्यं येन स्यात्तद्वदाशु मे ॥ १९ ॥


 सौभरिरुवाच -
यमुनायाश्च पञ्चागं वदिष्यामि तवाग्रतः ।
 सर्वसिद्धिकरं शश्वत्कृष्णसारूप्यकारकम् ॥ २० ॥
 यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति ।
 तावद्‌राज्यप्रदं चात्र श्रीकृष्णवशकारकम् ॥ २१ ॥
 कवचं च स्तवं नाम्नां सहस्रं पटलं तथा ।
 पद्धतिं सूर्यवंशेन्द्र पञ्चांगानि विदुर्बुधाः ॥ २२ ॥

नारदजी कहते हैं— राजन् ! व्रजमें शोणपुरके स्वामी नन्द बड़े धनी थे। मिथिलेश्वर ! उनके पाँच हजार पत्नियाँ थीं । उनके गर्भसे समुद्रसम्भवा लक्ष्मीजीकी वे सखियाँ उत्पन्न हुईं, जिन्हें मत्स्यावतार - धारी भगवान् से वैसा वर प्राप्त हुआ था । नरेश्वर ! इनके सिवा और भी, विचित्र ओषधियाँ, जो पृथ्वीके दोहनसे प्रकट हुई थीं, वहाँ गोपीरूप में उत्पन्न हुईं ॥ १-२

बर्हिष्मतीपुरी की वे नारियाँ भी, जिन्हें महाराज पृथुका वर प्राप्त था, जातिस्मरा गोपियों के रूप में व्रज में उत्पन्न हुई थीं तथा नर-नारायण के वरदान से अप्सराएँ भी गोपीरूपमें प्रकट हुई थीं । सुतलवासिनी दैत्यनारियाँ वामनके वरसे तथा नागराजोंकी कन्याएँ भगवान् शेषके उत्तम वरसे व्रजमें उत्पन्न हुईं। दुर्वासामुनिने उन सबको अद्भुत 'कृष्णा-पञ्चाङ्ग' दिया था, जिससे यमुनाजीकी पूजा करके उन्होंने श्रीपतिका वररूपमें वरण किया ।। -५

एक दिनकी बात है— मनोहर वृन्दावनमें दिव्य यमुनातटपर, जहाँ नर-कोकिलोंसे सुशोभित हरे-भरे वृक्ष-समुदाय शोभा दे रहे थे, भ्रमरोंके गुञ्जारवके साथ कोकिलों और सारसोंकी मीठी बोली गूँज रही थी, वासन्ती लताओं से आवृत तथा शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु से परिसेवित मधुमास में, उन गोपाङ्गनाओंके साथ, मदनमोहन श्यामसुन्दर श्रीहरिने कल्पवृक्षों की श्रेणीसे मनोरम प्रतीत होनेवाले कदम्बवृक्षके नीचे एकान्त स्थानमें झूला झूलनेका उत्सव आरम्भ किया ॥ ६-८

 वहाँ यमुना-जलकी उत्ताल तरङ्गोंका कोलाहल फैला हुआ था। वे प्रेमविह्वला गोपाङ्गनाएँ श्रीहरिके साथ झूला झूलनेकी क्रीड़ा कर रही थीं। जैसे रतिके साथ रति- पति कामदेव शोभा पाते हैं, उसी प्रकार करोड़ों चन्द्रोंसे भी अधिक कान्तिमती कीर्तिकुमारी श्रीराधाके साथ वृन्दावनमें श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे । इस प्रकार जो साक्षात् परिपूर्णतम नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को प्राप्त हुई थीं, उन समस्त गोपाङ्गनाओंके तपका क्या वर्णन हो सकता है ? ॥ ९-११

नागराजोंकी समस्त सुन्दरी कन्याएँ, जो गोपीरूपमें उत्पन्न हुई थीं, मनोहर चैत्र मासमें यमुनाके तटपर श्रीबलभद्र हरिकी सेवामें उपस्थित थीं। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया, जो परम पवित्र तथा समस्त पापोंको हर लेनेवाला है। अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? ।। १२ – १३॥

बहुलाश्व बोले- मुने ! प्रभो ! दुर्वासाका दिया हुआ यमुनाजीका पञ्चाङ्ग क्या है, जिससे गोपियोंको गोविन्दकी प्राप्ति हो गयी ? उसका मुझसे वर्णन कीजिये ॥ १४ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! इस विषयमें विज्ञजन एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण देते हैं, जिसके श्रवणमात्रसे पापोंकी पूर्णतया निवृत्ति हो जाती है। अयोध्यामें मांधाता नामसे प्रसिद्ध एक तेजस्वी राजशिरोमणि उस पुरीके अधिपति थे। एक दिन वे शिकार खेलनेके लिये वनमें गये और विचरते हुए, सौभरिमुनिके सुन्दर आश्रमपर जा पहुँचे । उनका वह आश्रम साक्षात् वृन्दावनमें यमुनाजीके मनोहर तटपर स्थित था । वहाँ अपने जामाता सौभरिमुनिको प्रणाम करके मानदाता मांधाताने कहा ।। १५–१७ ॥

मांधाता बोले- भगवन् ! आप साक्षात् सर्वज्ञ हैं, परावरवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं और अज्ञानान्धकारसे अंधे हुए लोगोंके लिये दूसरे दिव्य सूर्यके समान हैं। मुझे शीघ्र ही ऐसा कोई उत्तम साधन बताइये, जिससे इस लोकमें सम्पूर्ण सिद्धियोंसे सम्पन्न राज्य बना रहे और परलोकमें भगवान् श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त हो ।। १८-१९ ॥

सौभरि बोले- राजन् ! मैं तुम्हारे सामने यमुनाजीके पञ्चाङ्गका वर्णन करूँगा, जो सदा समस्त सिद्धियोंको देनेवाला तथा श्रीकृष्णके सारूप्यकी प्राप्ति करानेवाला है । यह साधन जहाँसे सूर्यका उदय होता है और जहाँ वह अस्तभावको प्राप्त होता है, वहाँ तक के राज्यकी प्राप्ति करानेवाला तथा यहाँ श्रीकृष्ण को भी वशीभूत करनेवाला है। सूर्यवंशेन्द्र ! किसी भी देवताके कवच, स्तोत्र, सहस्रनाम, पटल तथा पद्धति-ये पाँच अङ्ग विद्वानोंने बताये हैं ।। २० - २२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'सौभरि और मांधाताका संवाद तथा बर्हिष्मतीपुरीकी नारियों, अप्सराओं, सुतलवासिनी, असुर-कन्याओं तथा नागराज कन्याओंके गोपीरूपमें 'उत्पन्न होनेका उपाख्यान' नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

कृष्णद्युमणि निम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह ।
किं नु नः कुशलं ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम् ॥ ७ ॥
दुर्भगो बत लोकोऽयं यदवो नितरामपि ।
ये संवसन्तो न विदुः हरिं मीना इवोडुपम् ॥ ८ ॥
इङ्‌गितज्ञाः पुरुप्रौढा एकारामाश्च सात्वताः ।
सात्वतां ऋषभं सर्वे भूतावासममंसत ॥ ९ ॥
देवस्य मायया स्पृष्टा ये चान्यद् असदाश्रिताः ।
भ्राम्यते धीर्न तद्वाक्यैः आत्मन्युप्तात्मनो हरौ ॥ १० ॥

उद्धवजी बोले—विदुरजी ! श्रीकृष्णरूप सूर्यके छिप जाने से हमारे घरों को कालरूप अजगर ने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ ॥ ७ ॥ ओह ! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्णके साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना—जिस तरह अमृतमय चन्द्रमाके समुद्रमें रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान सकी थीं ॥ ८ ॥ यादवलोग मनके भावको ताडऩेवाले, बड़े समझदार और भगवान्‌के साथ एक ही स्थानमें रहकर क्रीडा करनेवाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्वके आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्णको एक श्रेष्ठ यादव ही समझा ॥ ९ ॥ किंतु भगवान्‌ की माया से मोहित इन यादवों और इनसे व्यर्थका वैर ठानने वाले शिशुपाल आदि के अवहेलना और निन्दासूचक वाक्यों से भगवत्प्राण महानुभावों की बुद्धि भ्रम में नहीं पड़ती थी ॥ १० ॥ 

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गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

कौरव सेना से पीड़ित रंगोजि गोप का कंस की सहायता से व्रजमण्डल की सीमा पर निवास तथा उसकी पुत्रीरूप में जालंधरी गोपियों का प्राकट्य

 

इत्थं श्रुत्वा वचस्तस्य कंसो वै दीनवत्सलः ।
 दैत्यकोटिसमायुक्तो मनो गंतुं समादधे ॥ १८ ॥
 गोमूत्रचयसिन्दूरकस्तूरीपत्रभृन्मुखम् ।
 विन्ध्याद्रिसदृशं श्यामं मदनिर्झरसंयुतम् ॥ १९ ॥
 पादे च शृङ्खलाजालं नदंतं घनवद्‍भृशम् ।
 द्विपं कुवलयापीडं समारुह्य मदोत्कटः ॥ २० ॥
 चाणूरमुष्टिकाद्यैश्च केशिव्योमवृषासुरैः ।
 सहसा दंशितः कंसः प्रययौ रंगपत्तनम् ॥ २१ ॥
 यदूनां च कुरूणां च बलयोस्तु परस्परम् ।
 बाणैः खड्गैः त्रिशूलैश्च घोरं युद्धं बभूव ह ॥ २२ ॥
 बाणांधकारे संजाते कंसो नीत्वा महागदाम् ।
 विवेश कुरुसेनासु वने वैश्वानरो यथा ॥ २३ ॥
 कांश्चिद्वीरान् सकवचान् गदया वज्रकल्पया ।
 पातयामास भूपृष्ठे वज्रेणेंद्रो यथा गिरिम् ॥ २४ ॥
 रथान्ममर्द पादाभ्यां पार्ष्णिघातेन घोटकान् ।
 गजे गजं ताडयित्वा गजान्प्रोन्नीय चांघ्रिषु ॥ २५ ॥
 स्कन्धयोः कक्षयोर्धृत्वा सनीडान् रत्‍नकंबलान् ।
 कांश्चिद्‌बलाद्‌‌भ्रामयित्वा चिक्षेप गगने बली ॥ २६ ॥
 गजाञ्छुण्डासु चोन्नीय लोलघंटासमावृतान् ।
 चिक्षेप संमुखे राजन् मृधे व्योमासुरो बली ॥ २७ ॥
 रथान् गृहीत्वा साश्वांश्च शृङ्गाभं भ्रामयन्मुहुः ।
 चिक्षेप दिक्षु बलवान् दैत्यो दुष्टो वृषासुरः ॥ २८ ॥
 बलात्पश्चिमपादाभ्यां वीरानश्वानितस्ततः ।
 पातयामास राजेंद्र केशी दैत्याधिपो बली ॥ २९ ॥
 एवं भयंकरं युद्धं दृष्ट्वा वै कुरुसैनिकाः ।
 शेषा भयातुरा वीरा जग्मुस्तेऽपि दिशो दश ॥ ३० ॥
 रंगोजिं सकुटुम्बं तं नीत्वा कंसोऽथ दैत्यराट् ।
 मथुरां प्रययौ वीरो नादयन् दुंदुभीञ्छनैः ॥ ३१ ॥
 श्रुत्वा पराजयं स्वस्य कौरवाः क्रोधमूर्छिताः ।
 दैत्यानां समयं दृष्ट्वा सर्वे वै मौनमास्थिताः ॥ ३२ ॥
 पुरं बर्हिषदं नाम व्रजसीम्नि मनोहरम् ।
 रंगोजये ददौ कंसो दैत्यानामधिपो बली ॥ ३३ ॥
 वासं चकार तत्रैव रंगोजिर्गोपनायकः ।
 बभूवुस्तस्य भार्यासु जालंधर्यो हरेर्वरात् ॥ ३४ ॥
 परिणीता गोपजनै रूपयौवनभूषिताः ।
 जारधर्मेण सुस्नेहं श्रीकृष्णे ताः प्रचक्रिरे ॥ ३५ ॥
 चैत्रमासे महारासे ताभिः साकं हरिः स्वयम् ।
 पुण्ये वृन्दावने रम्ये रेमे वृन्दावनेश्वरः ॥ ३६ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! दूतकी यह बात सुनकर दीनवत्सल कंसने करोड़ों दैत्योंकी सेनाके साथ वहाँ जानेका विचार किया। उसके हाथीके गण्ड- स्थलपर गोमूत्रमें घोले गये सिन्दूर और कस्तूरीके द्वारा पत्र - रचना की गयी थी। वह हाथी विन्ध्याचलके समान ऊँचा था और उसके गण्डस्थलसे मद झर रहे थे। उसके पैरमें साँकलें थीं। वह मेघकी गर्जनाके समान जोर-जोरसे चिग्घाड़ता था । ऐसे कुवलयापीड नामक गजराजपर चढ़कर मदमत्त राजा कंस सहसा कवच आदिसे सुसज्जित हो चाणूर, मुष्टिक आदि मल्लों तथा केशी, व्योमासुर और वृषासुर आदि दैत्य-योद्धाओंके साथ रङ्गपत्तनकी ओर प्रस्थित हुआ ॥ १८-२१

वहाँ. यादवों और कौरवोंकी सेनाओंमें परस्पर बाणों, खड्गों और त्रिशूलोंके प्रहारसे घोर युद्ध हुआ । जब बाणोंसे सब ओर अन्धकार - सा छा गया, तब कंस एक विशाल गदा हाथमें लेकर कौरव सेनामें उसी प्रकार घुसा, जैसे वनमें दावानल प्रविष्ट हुआ हो। जैसे इन्द्र अपने वज्रसे पर्वतको गिरा देते हैं, उसी प्रकार कंसने अपनी वज्र- सरीखी गदाकी मारसे कितने ही कवचधारी वीरोंको धराशायी कर दिया ॥ २२-२४

उसने पैरोंके आघातसे रथोंको रौंद डाला, एड़ियोंसे मार-मारकर घोड़ोंका कचूमर निकाल दिया। हाथीको हाथीसे ही मारकर कितने ही गजोंको उनके पाँव पकड़कर उछाल दिया। महाबली कंसने कितने ही हाथियोंके कंधों अथवा कक्षभागोंको पकड़कर उन्हें हौदों और झूलों- सहित बलपूर्वक घुमाते हुए आकाशमें फेंक दिया ॥ २५-२६

राजन् ! उस युद्धभूमिमें बलवान् व्योमासुर हाथियोंके शुण्डदण्ड पकड़कर उन्हें चञ्चल घंटाओंसहित उछालकर सामने फेंक देता था। दुष्ट दैत्य बलवान् वृषासुर घोड़ोंसहित रथोंको अपने सींगोंपर उठाकर बारंबार घुमाता हुआ चारों दिशाओंमें फेंकने लगा ॥ २७-२८

राजेन्द्र ! बलवान् दैत्यराज केशीने बलपूर्वक अपने पिछले पैरोंसे बहुत-से वीरों और अश्वोंको इधर-उधर धराशायी कर दिया। ऐसा भयंकर युद्ध देखकर कौरव सेनाके शेष वीर भयसे व्याकुल हो दसों दिशाओंमें भाग गये। दैत्यराज वीर कंस विजयके उल्लासमें नगारे बजवाता हुआ कुटुम्बसहित रंगोजि गोपको अपने साथ ही मथुरा ले गया ॥ २९-३१

अपनी सेनाकी पराजयका समाचार सुनकर कौरव क्रोधसे मूर्च्छित हो उठे। परंतु वर्तमान समयको दैत्योंके अनुकूल देखकर वे सब-के-सब चुप रह गये। व्रजमण्डलकी सीमापर बर्हिषद् नामसे प्रसिद्ध एक मनोहर पुर था, जिसे बलवान् दैत्यराज कंसने रंगोजिको दे दिया । गोपनायक रंगोजि वहीं निवास करने लगा । श्रीहरिके वरदानसे जालंधरके अन्तः- पुरकी स्त्रियाँ उसी गोपकी पत्नियोंके गर्भ से उत्पन्न हुईं ॥ ३२-३४

रूप और यौवनसे विभूषित वे गोपकन्याएँ दूसरे दूसरे गोपजनोंको ब्याह दी गयीं, परंतु वे जारभाव से भगवान् श्रीकृष्णके प्रति प्रगाढ़ प्रेम करने लगीं। वृन्दावनेश्वर श्यामसुन्दरने चैत्र मास के महारास में उन सबके साथ पुण्यमय रमणीय वृन्दावन- के भीतर विहार किया ।। ३-३६ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'जालंधरी गोपियोंका उपाख्यान' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १४ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।
इति भागवतः पृष्टः क्षत्त्रा वार्तां प्रियाश्रयाम् ।
प्रतिवक्तुं न चोत्सेह औत्कण्ठ्यात् स्मारितेश्वरः ॥ १ ॥
यः पञ्चहायनो मात्रा प्रातराशाय याचितः ।
तन्नैच्छत् रचयन् यस्य सपर्यां बाललीलया ॥ २ ॥
स कथं सेवया तस्य कालेन जरसं गतः ।
पृष्टो वार्तां प्रतिब्रूयाद् भर्तुः पादौ अनुस्मरन् ॥ ३ ॥
स मुहूर्तं अभूत्तूष्णीं कृष्णाङ्‌घ्रिसुधया भृशम् ।
तीव्रेण भक्तियोगेन निमग्नः साधु निर्वृतः ॥ ४ ॥
पुलकोद् भिन्नसर्वाङ्गो मुञ्चन्मीलद्‌दृशा शुचः ।
पूर्णार्थो लक्षितस्तेन स्नेहप्रसरसम्प्लुतः ॥ ५ ॥
शनकैः भगवल्लोकान् नृलोकं पुनरागतः ।
विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रीत्याहोद्धव उत्स्मयन् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब विदुरजीने परम भक्त उद्धवसे इस प्रकार उनके प्रियतम श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखनेवाली बातें पूछीं, तब उन्हें अपने स्वामी का स्मरण हो आया और वे हृदय भर आनेके कारण कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ १ ॥ जब ये पाँच वर्षके थे, तब बालकोंकी तरह खेलमें ही श्रीकृष्णकी मूर्ति बनाकर उसकी सेवा-पूजा में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि कलेवे के लिये माता के बुलानेपर भी उसे छोडक़र नहीं जाना चाहते थे ॥ २ ॥ अब तो दीर्घकाल से उन्हीं की सेवामें रहते-रहते ये बूढ़े हो चले थे; अत: विदुरजीके पूछनेसे उन्हें अपने प्यारे प्रभुके चरणकमलों का स्मरण हो आया—उनका चित्त विरहसे व्याकुल हो गया। फिर वे कैसे उत्तर दे सकते थे ॥ ३ ॥ उद्धवजी श्रीकृष्णके चरणारविन्द-मकरन्द-सुधा से सराबोर होकर दो घड़ीतक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोगसे उसमें डूबकर वे आनन्द-मग्न ॥ ४ ॥ उनके सारे शरीर में रोमाञ्च हो आया तथा मुँदे हुए नेत्रोंसे प्रेम के आँसुओं की धारा बहने लगी। उद्धवजी को इस प्रकार प्रेम-प्रवाहमें डूबे हुए देखकर विदुरजीने उन्हें कृतकृत्य माना ॥ ५ ॥ कुछ समय बाद जब उद्धवजी भगवान्‌ के प्रेमधामसे उतरकर पुन: धीरे-धीरे संसार में आये, तब अपने नेत्रों को पोंछकर भगवल्लीलाओं का स्मरण हो आनेसे विस्मित हो विदुरजी से इस प्रकार कहने लगे ॥ ६ ॥

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बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

कौरव सेना से पीड़ित रंगोजि गोप का कंस की सहायता से व्रजमण्डल की सीमा पर निवास तथा उसकी पुत्रीरूप में जालंधरी गोपियों का प्राकट्य

 

श्रीनारद उवाच -
जालंधरीणां गोपीनां जन्मानि शृणु मैथिल ।
 कर्माणि च महाराज पापघ्नानि नृणां सदा ॥ १ ॥
 रजन् सप्तनदीतीरे रंगपत्तनमुत्तमम् ।
 सर्वसंपद्युतं दीर्घं योजनद्वयवर्तुलम् ॥ २ ॥
 रंगोजिस्तत्र गोपालः पुराधीशो महाबलः ।
 पुत्रपौत्रसमायुक्तो धनधान्यसमृद्धिमान् ॥ ३ ॥
 हस्तिनापुरनाथाय धृतराष्ट्राय भूभृते ।
 हैमानामर्बुदशतं वार्षिकं स ददौ सदा ॥ ४ ॥
 एकदा तत्र वर्षांते व्यतीते किल मैथिल ।
 वार्षिकं तु करं राज्ञे न ददौ स मदोत्कटः ॥ ५ ॥
 मिलनार्थं न चायते रंगोजौ गोपनायके ।
 वीरा दश सहस्राणि धृतराष्ट्रप्रणोदिताः ॥ ६ ॥
 बद्ध्वा तं दामभिर्गोपमाजग्मुस्ते गजह्वयम् ।
 कति वर्षाणि रंगोजिः कारागारे स्थितोऽभवत् ॥ ७ ॥
 सन्निरुद्धस्ताडितोऽपि लोभी भीरुर्न चाभवत् ।
 न ददौ स धनं किंचिद्धृतराष्ट्राय भूभृते ॥ ८ ॥
 कारागारान्महाभीमात्कदाचित्स पलायितः ।
 रात्रौ रंगपुरं प्रागाद् रंगोजिर्गोपनायकः ॥ ९ ॥
 पुनस्तं हि समाहर्तुं धृतराष्ट्रप्रणोदितम् ।
 अक्षौहिणीत्रयं राजन् समर्थबलवाहनम् ॥ १० ॥
 तेन सार्द्धं स बाणौघैस्तीक्ष्णधारैः स्फुरत्प्रभैः ।
 युयुधे दंशितो युद्धे धनुष्टंकारयन्मुहुः ॥ ११ ॥
 शत्रुभिश्छिन्नकवचः छिन्नधन्वा हतस्वकः ।
 पुरमेत्य मृधं चक्रे रंगोजिः कतिभिर्दिनैः ॥ १२ ॥
 अनाथः शरणं चेच्छन् कंसाय यदूभूभृते ।
 दूतं स्वं प्रेषयामास रंगोजिर्भयपीडितः ॥ १३ ॥
 दूतस्तु मथुरामेत्य सभां गत्वा नताननः ।
 कृताञ्जलिश्चौग्रसेनिं नत्वा प्राह गिराऽऽर्द्रया ॥ १४ ॥
 रंगोजिनामा नृप रंगपत्तने
     गोपोऽस्ति नीतिज्ञवरः पुराधिपः ।
 स्वशत्रुसंरुद्धपुरो महाधिभृद्
     अलब्धनाथः शरणं गतस्तव ॥ १५ ॥
 त्वं दीनदुःखार्तिहरो महीतले
     भौमदिसंगीतगुणो महाबलः ।
 सुरासुरानुद्भटभूमिपालकान्
     विजित्य युद्धे सुरराडिव स्थितः ॥ १६ ॥
 चन्द्रं चकोरश्च रविं कुशेशयो
     यथा शरच्छीकरमेव चातकः ।
 क्षुधातुरोऽन्नं च जलं तृषातुरः
     स्मरत्यसौ शत्रुभये तथा त्वाम् ॥ १७ ॥

नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब जालंधर के अन्तःपुर की स्त्रियों के गोपीरूप में जन्म लेने का वर्णन सुनो। महाराज ! साथ ही उनके कर्मों को भी सुनो, जो सदा ही मनुष्यों के पापों का नाश करने वाले हैं ॥ १ ॥

राजन् ! सप्तनदीके किनारे 'रङ्गपत्तन' नामसे प्रसिद्ध एक उत्तम नगर था, जो सब प्रकार की सम्पदाओंसे सम्पन्न तथा विशाल था । वह दो योजन विस्तृत गोलाकार नगर था। उस नगर का मालिक या पुराधीश रंगोजि नामक एक गोप था, जो महान् बलवान् था । वह पुत्र-पौत्र आदि से संयुक्त तथा धन-धान्य से समृद्धिशाली था ॥ २-३

हस्तिनापुरके स्वामी राजा धृतराष्ट्रको वह सदा एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ वार्षिक करके रूपमें दिया करता था । मिथिलेश्वर ! एक समय वर्ष बीत जानेपर भी धनके मदसे उन्मत्त गोपने राजाको वार्षिक कर नहीं दिया। इतना ही नहीं, वह गोपनायक रंगोजि मिलनेतक नहीं गया। तब धृतराष्ट्रके भेजे हुए दस हजार वीर जाकर उस गोपको बाँधकर हस्तिनापुरमें ले आये। कई वर्षोंतक तो रंगोजि कारागारमें बँधा पड़ा रहा। बाँधे और पीटे जानेपर भी वह लोभी गोप डरा नहीं। उसने राजा धृतराष्ट्रको थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया ॥ ४-८ ॥

किसी समय गोपनायक रंगोजि उस महाभयंकर कारागार से भाग निकला तथा रातों-रात रङ्गपुर में आ गया । तब पुनः उसे पकड़ लाने के लिये धृतराष्ट्रकी भेजी हुई शक्तिशाली बल-वाहनसे सम्पन्न तीन अक्षौहिणी सेना गयी। वह गोप भी कवच धारण करके युद्धभूमिमें बारंबार धनुषकी टंकार फैलाता हुआ तीखी धारवाले चमकीले बाणसमूहोंकी वर्षा करके धृतराष्ट्रकी उस सेनाका सामना करने लगा ॥ ९-११

शत्रुओंने उसके कवच और धनुष काट दिये तथा उसके स्वजनोंका भी वध कर डाला; तब वह अपने पुर (दुर्ग) में आकर कुछ दिनोंतक युद्ध चलाता रहा । अन्तमें अनाथ एवं भयसे पीड़ित रंगोजि किसी शरणदाता या रक्षककी इच्छा करने लगा। उसने यादवराज कंसके पास अपना दूत भेजा । दूत मथुरा पहुँचकर राज दरबारमें गया और उसने मस्तक झुकाकर दोनों हाथोंकी अञ्जलि बाँधे उग्रसेनकुमार कंसको प्रणाम करके करुणासे आर्द्र वाणीमें कहा ।। १२-१४ ।।

'महाराज ! रङ्गपत्तन में रंगोजि नाम से प्रसिद्ध एक गोप हैं, जो उस नगरके स्वामी तथा नीतिवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। शत्रुओंने उनके नगर को चारों ओरसे घेर लिया है। वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये हैं और अनाथ होकर आपकी शरणमें आये हैं। इस भूतलपर केवल आप ही दीनों और दुःखियोंकी पीड़ा हरनेवाले हैं। भौमासुरादि वीर आपके गुण गाया करते हैं। आप महाबली हैं और देवता, असुर तथा उद्भट भूमिपालोंको युद्धमें जीतकर देवराज इन्द्रके समान अपनी राजधानीमें विराजमान हैं ॥ १५-१६

जैसे चकोर चन्द्रमाको, कमलोंका समुदाय सूर्यको, चातक शरद् ऋतुके बादलोंद्वारा बरसाये गये जलकणोंको, भूखसे व्याकुल मनुष्य अन्नको तथा प्याससे पीड़ित प्राणी पानी को ही याद करता है, उसी प्रकार रंगोजि गोप शत्रुके भयसे आक्रान्त हो केवल आपका स्मरण कर रहे हैं' ।। १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...