बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

उन्नीसवाँ अध्याय

 

यमुना - सहस्रनाम (हिन्दी)

 

मांधाता बोले- मनुष्यश्रेष्ठ ! यमुनाजीका सहस्रनाम समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति करानेवाला उत्तम साधन है, आप मुझे उसका उपदेश कीजिये; क्योंकि आप सर्वज्ञ और निरामय (रोग-शोकसे रहित) हैं ॥ १ ॥

सौभरिने कहा- मांधाता नरेश ! मैं तुमसे 'कालिन्दी सहस्रनाम' का वर्णन करता हूँ। वह समस्त

सिद्धियोंकी प्राप्ति करानेवाला, दिव्य तथा श्रीकृष्णको वशीभूत करनेवाला है ॥ २ ॥

 

विनियोग

ॐ अस्य श्रीकालिन्दीसहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य सौभरिऋषिः, श्रीयमुना देवता, अनुष्टुप्छन्दः, माया- बीजमिति कीलकम्, रमाबीजमिति शक्तिः, श्रीकलिन्दनन्दिनीप्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

उक्त वाक्य पढ़कर सहस्रनाम पाठ के लिये विनियोग का जल छोड़े

ध्यान

जो श्यामा (श्यामवर्णा एवं षोडश वर्षकी अवस्थावाली) हैं, जिनके नेत्र प्रफुल्ल कमल-दलकी शोभाको छीने लेते हैं, घनीभूत मेघके समान जिनकी नील कान्ति है, जो रत्नोंद्वारा निर्मित बजते हुए नूपुर और झनकारती हुई करधनी एवं केयूर आदि आभूषणोंसे युक्त हैं तथा कानोंमें सुवर्ण एवं मणिनिर्मित दो कुण्डल धारण करती हैं, दीप्तिमती नीली साड़ीपर चमकते हुए गजमौक्तिक के चञ्चल हारका भार वहन करनेसे अत्यन्त मनोहर जान पड़ती हैं, शरीरसे छिटकती हुई किरणोंकी राशिसे उद्दीप्त होनेके कारण जिनकी प्रज्वलित दीपमालाके समान शोभा हो रही है, उन सूर्यनन्दिनी यमुनाजीका मैं ध्यान करता हूँ ॥ ३ ॥

 

सहस्त्रनाम

१. ॐ कालिन्दी- सच्चिदानन्दस्वरूपा कलिन्दगिरि-नन्दिनी, २. यमुना यमकी बहिन, ३. कृष्णा-कृष्णवर्णा, ४. कृष्णरूपा=कृष्णस्वरूपा अथवा कृष्णरूपवाली, ५. सनातनी नित्या, ६ कृष्णवामांससम्भूता श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई, ७. परमानन्दरूपिणी- परमानन्दमयी ॥४॥

 

८. गोलोकवासिनी= गोलोकधाममें निवास करनेवाली, ९. श्यामा-श्यामवर्णा अथवा षोडश वर्षकी अवस्थावाली, १०. वृन्दावनविनोदिनी वृन्दावनमें मनोरञ्जन करनेवाली, ११. राधासखी - श्रीराधाकी सहचरी, १२. रासलीला - रासमण्डलमें लीलापरयणा अथवा रासलीलास्वरूपा, १३. रास- मण्डलमण्डिनी = रासमण्डलको अलंकृत करने- वाली ॥ ५ ॥

१४. निकुञ्जवासिनी-निकुञ्ज में निवास करने- वाली, १५. वल्ली = लतास्वरूपा, १६. रङ्गवल्ली- रासरङ्गस्थली में वल्ली के समान शोभा पानेवाली अथवा रङ्गवल्ली नाम की राधा - सखी गोपी से अभिन्नस्वरूपा,१७. मनोहरा = मन को हर लेनेवाली, १८. श्रीः = लक्ष्मीस्वरूपा, १९ रासमण्डलीभूता = रासमण्डल स्वरूपा अथवा मण्डलाकार होकर रासमण्डलको अलंकृत करनेवाली, २०. यूथीभूता= अपनी सहचरियोंके यूथसे संयुक्त, २१. हरिप्रिया- श्रीकृष्ण- की प्यारी ॥ ६ ॥

२२. गोलोकतटिनी- गोलोकधामकी नदी, २३. दिव्या दिव्यस्वरूपा, २४. निकुञ्जतलवासिनी निकुञ्जके भीतर निवास करनेवाली, २५. दीर्घा = बहुत लंबे परिमाणकी, २६. ऊर्मिवेगगम्भीरा = तरंगोंके वेगसे युक्त एवं गहरी, २७. पुष्पपल्लववाहिनी= फूलों और पल्लवोंको बहानेवाली ॥ ७ ॥

२८. घनश्यामा-मेघके समान श्याम कान्ति- वाली, २९. मेघमाला-घनमालास्वरूपा, बलाका- बकपङ्क्ति स्वरूपा, ३१. पद्ममालिनी- कमलोंकी मालासे अलंकृत, ३२. परिपूर्णतमा- परिपूर्णतम भगवत्स्वरूपा, ३३. पूर्णा पूर्णस्वरूपा, ३४. पूर्णब्रह्मप्रिया - पूर्णब्रह्म श्रीकृष्णकी प्रेयसी, ३५. परा- पराशक्तिस्वरूपा ॥ ८ ॥

३६. महावेगवती - बड़े वेगवाली, ३७. साक्षा- निकुञ्जद्वारनिर्गता-साक्षात् निकुञ्जके द्वारसे निकली हुई, ३८. महानदी - विशाल सरिता, ३९. मन्दगति- मन्दगतिसे बहनेवाली, ४०. विरजावेगभेदिनी = गोलोकधाम की विरजा नदी के वेग का भेदन करने- वाली ॥ ९ ॥

 ४१. अनेकब्रह्माण्डगता अनेकानेक ब्रह्माण्डों में व्याप्त, ४२. ब्रह्मद्रवसमाकुला - ब्रह्मद्रवस्वरूपा गङ्गाजीसे मिली हुई, ४३. गङ्गामिश्रा - गङ्गाके जलसे मिश्रित जलवाली, ४४. निर्मलाभा=निर्मल आभावाली, ४५. निर्मला = सब प्रकारके मलोंसे रहित, ४६. सरितांवरा = नदियोंमें श्रेष्ठ ॥ १० ॥

४७. रत्नबद्धो भयतटी दोनों किनारोंकी तट- भूमिमें रत्नसे आबद्ध, ४८. हंसपद्मादिसंकुला-हंसादि पक्षियों और कमल आदि पुष्पोंसे व्याप्त, ४९. नदी= अव्यक्त शब्द, कलकल नाद करनेवाली, ५०. निर्मल- पानीया= स्वच्छ जलवाली, ५१. सर्वब्रह्माण्डपावनी- समस्त ब्रह्माण्डों को पवित्र करनेवाली ॥ ५२. वैकुण्ठपरिखीभूता= वैकुण्ठधामको चारों ओरसे घेरकर परिखा (खाईं) के समान सुशोभित, ५३. परिखा = खाईंस्वरूपा, ५४. पापहारिणी पापोंका नाश करनेवाली, ५५. ब्रह्मलोकगता-ब्रह्म- लोकमें पहुँची हुई, ५६. ब्राह्मी ब्रह्मशक्तिस्वरूपा, ५७. स्वर्गा-स्वर्गलोकस्वरूपा, ५८. स्वर्गनिवा- सिनी स्वर्गलोकमें वास करनेवाली ॥ ११-१२ ॥

५९. उल्लसन्ती-तरङ्गोंद्वारा ऊपरकी ओर उठनेवाली, ६०. प्रोत्पतन्ती- जोर-जोरसे उछलने- वाली, ६१. मेरुमाला-मेरुपर्वतको मालाकी भाँति अलंकृत करनेवाली, ६२. महोज्ज्वला - अत्यन्त प्रकाशमाना, ६३. श्रीगङ्गाम्भः शिखरिणी- गङ्गाजीके जलको शिखरका रूप देनेवाली, ६४. गण्डशैल- विभेदिनी-गण्डशैलोंका भेदन करनेवाली ॥ १३ ॥

६५. देशान् पुनन्ती = देशोंको पवित्र करनेवाली, ६६. गच्छन्ती = गतिशीला, ६७. वहन्ती-प्रवहमाना, ६८. भूमिमध्यगा = धरतीके भीतर प्रवेश करनेवाली, ६९. मार्तण्डतनूजा - सूर्यपुत्री, ७०. पुण्यापुण्य- प्रदा, ७१. कलिन्दगिरिनन्दिनी - कलिन्द पर्वतसे निकली हुई ॥ १४ ॥

७२. यमस्वसा यमराज की बहन, ७३. मन्द- हासा- मन्द मन्द मुसकराने वाली, ७४. सुद्विजा= सुन्दर दाँतोंवाली, ७५. रचिताम्बरा = धरती के लिये आच्छादनवस्त्र के रूप में निर्मित, ७६. नीलाम्बरा = नील वस्त्र धारण करनेवाली, ७७ पद्ममुखी - कमलवदना, ७८. चरन्ती- विचरने वाली, ७९. चारुदर्शना-मनोहर दृष्टिवाली अथवा देखने में मनोहर ॥ १५ ॥

८०. भोरू = कदलीके खंबे-जैसे ऊरुद्वय धारण करनेवाली, ८१. पद्मनयना = कमललोचना, ८२. माधवी - माधवप्रिया, ८३. प्रमदा-यौवनशालिनी, ८४. उत्तमा=उत्तम, ८५. तपश्चरन्ती- श्रीकृष्ण- प्राप्तिके लिये तपस्या करनेवाली, ८६. सुश्रोणी- सुन्दर नितम्बको धारण करनेवाली, ८७. कूजन्नूपुरमेखला = बजते हुए नूपुरों और करधनीसे सुशोभित ॥ १६ ॥

८८. जलस्थिता=पानीमें निवास करनेवाली, ८९. श्यामलाङ्गी-श्यामल अङ्गवाली, ९०. खाण्डवाभा= खाण्डववनकी शोभा, ९१. विहारिणी - विहारशीला, २. गाण्डीविभाषिणी-अपनी तपस्याका उद्देश्य बतानेके लिये गाण्डीवधारी अर्जुनसे वार्तालाप करने- वाली, ९३. वन्या - बढ़े हुए प्रवाहवाली, ९४. श्रीकृष्णं वरमिच्छती - श्रीकृष्णको पति बनानेकी इच्छावाली ॥ १७ ॥

९५. द्वारकागमना - द्वारकामें आगमन करने- वाली, ९६. राज्ञी रानी, ९७. पट्टराज्ञी-पटरानी, ९८. परंगता-परमात्माको प्राप्त, ९९. महाराज्ञी-महारानी, १००. रत्नभूषा - रत्ननिर्मित आभूषणोंसे विभूषित, १०१. गोमती-गौओंके समुदायसे युक्त अथवा गोमती नदीस्वरूपा, १०२. तीरचारिणी-तटपर विचरनेवाली ॥ १८ ॥

१०३. स्वकीया = श्रीकृष्णकी अपनी विवाहिता पत्नी, १०४. सुखा- सुखस्वरूपा, १०५. स्वार्था = अपने अभीष्ट अर्थको प्राप्त, १०६. स्वभक्तकार्य- साधिनी-अपने भक्तोंका कार्य सिद्ध करनेवाली, १०७. नवलाङ्गा-नूतन अङ्गवाली, १०८. अबला - स्त्रीरूपा, १०९. मुग्धा = भोली-भाली अथवा मुग्धा नायिका, ११०. वराङ्गा-सुन्दर अङ्गवाली, १११. वामलोचना= बाँके नयनोंवाली ॥ १९ ॥

११२. अजातयौवना= अप्राप्त यौवना, ११३. अदीना दीनतारहित एवं उदारस्वरूपा, ११४. प्रभा= प्रभास्वरूपा, ११५. कान्तिः कान्तिस्वरूपा, ११६. द्युतिः - द्युतिस्वरूपा, ११७. छविः - छविस्वरूपा, ११८. सुशोभा-सुन्दर शोभावाली, परमा उत्कृष्टस्वरूपा, १२०. कीर्तिः = कीर्तिस्वरूपा, १२१. कुशला = चतुरा, १२२. अज्ञातयौवना= अपने यौवनके आरम्भको न जाननेवाली ॥ २० ॥

१२३. नवोढा = नवविवाहिता नायिका, १२४. मध्यगा = मुग्धा और प्रगल्भाके बीचकी अवस्थावाली, १२५. मध्या=मध्या नायिका, १२६. प्रौढिः = प्रौढतासे युक्त, १२७. प्रौढा-प्रौढस्वरूपा, १२८. प्रगल्भका= प्रगल्भानायिका, १२९. धीरा = धीरस्वभावा, १३०. अधीरा- भगवद्दर्शनके लिये अधीर रहनेवाली, १३१. धैर्यधरा - धैर्यधारिणी, १३२. ज्येष्ठा = ज्येष्ठ

अवस्थावाली, १३३. श्रेष्ठा = गुणोंसे श्रेष्ठ, १३४. कुलाङ्गना=कुलवधू ॥ २१ ॥

१३५. क्षणप्रभा-विद्युत्के समान कान्तिमती, १३६. चञ्चला = वेगशालिनी,१३७.अर्च्या= पूजनीया, १३८. विद्युत्-विद्योतमाना, १३९. सौदामनी - विद्युत्स्वरूपा, १४०. तडित् = घनश्यामके अङ्कमें विद्युल्लेखा - सी शोभमाना, १४१. स्वाधीन पतिका - स्नेह और सद्व्यवहारसे पतिको वशमें रखने वाली, १४२. लक्ष्मी - लक्ष्मीस्वरूपा, १४३. पुष्टा= पुष्ट अङ्गोंवाली अथवा अनुग्रहमयी, १४४. स्वाधीन भर्तृका = स्वाधीनपतिका ॥ २२ ॥

१४५-कलहान्तरिता-प्रेम- कलहके कभी-कभी प्रियतमके वियोगका कष्ट सहन करनेवाली नायिका, १४६. भीरुः - भीरु स्वभाववाली, १४७. इच्छा-प्रियतमकी कामनाका विषय अथवा अभिलाषारूपिणी, १४८. प्रोत्कण्ठिता-प्रिय के दर्शन या मिलनके लिये उत्सुक रहनेवाली, १४९. आकुला - प्रेम-परिपूर्ण अथवा प्रियतम की सेवाके कार्यमें व्यस्त, १५०. कशिपुस्था - शय्यापर विराजित रहनेवाली, १५१. दिव्यशय्या – श्यामसुन्दर के लिये दिव्य शय्या प्रस्तुत करनेवाली, १५२. गोविन्दहृत- मानसा = गोविन्द ने जिन के मन को हर लिया है, ऐसी ॥२३॥

१५३. खण्डिता - खण्डिता - नायिकास्वरूपा, १५४. अखण्डशो भाढ्या - अविकल शोभासे सम्पन्न, १५५. विप्रलब्धा विप्रलब्धा नायिका स्वरूपा, १५६. अभिसारिका - प्रियतम श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये संकेत-स्थानपर जानेवाली, १५७, विरहार्ता= प्रियतमके विरहकी अनुभूतिसे पीड़ित, १५८. विरहिणी = वियोगिनी, १५९. नारी-नरावतार श्रीकृष्णकी भार्या, १६०. प्रोषितभर्तृका - जिसका पति परदेशमें गया हो, ऐसी नायिका स्वरूपा ॥ २४ ॥

१६१. मानिनी मानवती, १६२. मानदा -मान देनेवाली, १६३. प्राज्ञा - विदुषी, १६४. मन्दारवन- वासिनी = कल्पवृक्षके काननमें निवास करनेवाली, १६५. झंकारिणी-चलते-फिरते या नृत्य करते समय आभूषणोंकी झंकार फैलानेवाली, १६६. झणत्कारी = झणत्कारी या सिञ्जन-ध्वनि करनेवाली, १६७. रणन्मञ्जीरनूपुरा - बजते हुए नूपुर और मञ्जीर धारण करनेवाली ॥ २५ ॥

१६८. मेखला - वृन्दावनकी नीलमणिमयी करधनीके समान सुशोभित, १६९. अमेखला - साधारण अवस्थामें मेखलासे रहित, १७०. काञ्ची= 'काञ्ची' नामक आभूषणस्वरूपा, १७१. अकाञ्चनी= काञ्चनरहित, १७२. काञ्चनामयी सुवर्णस्वरूपा, १७३. कञ्चुकी=कञ्चुकधारिणी, १७४. कञ्चक- मणिः = कञ्चुकमणिस्वरूपा, १७५. श्रीकण्ठा= शोभायुक्त कण्ठवाली, १७६. आढ्या - (श्रीकृष्ण- कारण रूप) सम्पत्तिशालिनी, १७७. महामणि:- महामणिस्वरूपा अथवा बहुमूल्य मणि धारण करने- वाली ॥ २६ ॥

१७८. श्रीहारिणी - श्रीहारधारिणी, पद्महारा= कमलोंकी मालासे अलंकृत, १८०. मुक्ता = नित्यमुक्त, १८१. मुक्तफलार्चिता-मुक्ताफलोंसे पूजित, १८२. रत्नकङ्कणकेयूरा - रत्ननिर्मित कंगन और केयूर (भुजबंद) धारण करनेवाली, १८३. स्फुरदङ्गुलिभूषणा = जिनकी अङ्गुलियों के भूषण उद्भासित हो रहे हैं, ऐसी ॥ २७ ॥

१८४. दर्पणा दर्पणस्वरूपा, १८५. दर्पणी- भूता- अपने जलकी निर्मलताके कारण दर्पणका काम देनेवाली, १८६. दुष्टदर्पविनाशिनी दुष्टोंके घमंडको चूर करनेवाली, १८७. कम्बुग्रीवा - शङ्खके समान सुन्दर कण्ठवाली, १८८. कम्बुधरा = शङ्खनिर्मित आभूषण धारण करनेवाली, १८९. ग्रैवेयकविराजिता =कण्ठभूषणसे सुशोभित ॥ २८ ॥

१९०. ताटङ्किनी - 'ताटङ्क (तरकी)' नामक आभूषणविशेषको धारण करनेवाली, १९१. दन्तधरा- दन्तधारिणी, १९२. हेमकुण्डलमण्डिता=काञ्चन- निर्मित कुण्डलोंसे अलंकृत, १९३. शिखाभूषा = अपनी चोटीको विभूषित करनेवाली, १९४. भाल- पुष्पा ललाट देशमें पुष्पमय शृङ्गार धारण करनेवाली, १९५. नासामौक्तिकशोभिता= नाकमें मोतीकी बुलाकसे शोभित ॥ २९ ॥

१९६. मणिभूमिगता - मणिमयी भूमिपर विचरने- वाली, १९७. देवी- दिव्यस्वरूपा, १९८. रैवताद्रि- विहारिणी-श्रीकृष्णकी पटरानीके रूपमें रैवतक पर्वतपर विहार करनेवाली, १९९. वृन्दावनगता = वृन्दावनमें विद्यमाना, २००. वृन्दा - वृन्दावनकी अधिष्ठातृदेवी-स्वरूपा, २०१. वृन्दारण्यनिवासिनी = वृन्दावन में निवास करनेवाली ॥ ३० ॥

२०२. वृन्दावनलता= वृन्दावनकी लताओंके साथ तादात्म्यको प्राप्त हुई, २०३. माध्वी = मकरन्द- स्वरूपा, २०४. वृन्दारण्यविभूषणा - वृन्दावनको विभूषित करनेवाली, २०५. सौन्दर्यलहरी लक्ष्मी: = सुन्दरताकी तरङ्गोंसे युक्त लक्ष्मीस्वरूपा, २०६.लक्ष्मी:-लक्ष्मीस्वरूपा,

२०७.मथुरातीर्थवासिनी= मथुरापुरीरूप तीर्थ में निवास करनेवाली ॥ ३१ ॥

२०. विश्रान्तवासिनी = 'विश्रान्त' तीर्थ (विश्रामघाट) में वास करनेवाली, २०. काम्या - कमनीया, २१०. रम्या - रमणीया, २११. गोकुल- वासिनी - गोकुलमें निवास करनेवाली, २१. रमणस्थलशोभाढ्या = रमणस्थलीकी शोभा बढ़ाने- वाली, २१. महावनमहानदी = 'महावन' नामक वनमें प्रवाहित होनेवाली महती नदी ।। ३२ ॥

२१. प्रणता-भक्तजनोंद्वारा वन्दिता, २१. प्रोन्नता= अत्यन्त उत्कृष्ट गोलोकधाममें स्थित अथवा ऊँची लहरोंके कारण उन्नत, २१. पुष्टा- प्रेमानुग्रहसे परिपुष्ट, २१. भारती - भारतवर्षकी नदी, २१. भरतार्चिता - भरतके द्वारा पूजित, २१. तीर्थ- राजगतिः = तीर्थराज प्रयागकी आश्रयभूता, २२०. गोत्रा-गौओं का त्राण करनेवाली अथवा गिरिस्वरूपा, २२. गङ्गासागरसंगमा गङ्गा तथा सागरसे संगत ॥ ३३ ॥

२२. सप्ताब्धिभेदिनी-सात समुद्रोंका भेदन करनेवाली, २२. लोला-लोल लहरोंवाली, २२. बलात्सप्तद्वीपगता=बलपूर्वक सातों द्वीपोंमें जाने- वाली, २२. लुठन्ती-धरतीपर लोटनेवाली, २२. शैलभिद्यन्ती= पर्वतोंका भेदन करनेवाली, २२. स्फुरन्ती=स्फुरणशीला अथवा अपनी दिव्य प्रभा बिखेरनेवाली, २२. वेगवत्तरा- अतिशय वेग- शालिनी ।। ३४ ।।

२२. काञ्चनी स्वर्णमयी, ३०. काञ्चनी- भूमिः = गोलोककी स्वर्णमयी भूमिपर प्रवाहित होने- वाली, २३. काञ्चनीभूमिभाविता = स्वर्णमयी भूमिपर प्रकट, २३. लोकदृष्टि = जगत्‌ को दिव्य- दृष्टि प्रदान करनेवाली, २३३. लोकलीला - लोकमें लीला करनेवाली, २३. लोकालोकाचलार्चिता= लोकालोकपर्वत पर पूजित होनेवाली ॥ ३५ ॥

२३. शैलोद्गता-कलिन्दपर्वतसे निकली हुई, २३. स्वर्गगता मन्दाकिनीरूप से स्वर्गमें गयी हुई, २३. स्वर्गार्चा स्वर्गमें अर्चित होनेवाली, २३. स्वर्गपूजिता = स्वर्गलोकमें पूजित, २३. वृन्दावनी- वृन्दावनकी अधिष्ठातृस्वरूपा देवी, २४०. वनाध्यक्षा = वनकी स्वामिनी, २४. रक्षा रक्षिता या रक्षारूपा २४. कक्षा-वृन्दावनके लिये मेखलारूपा, २४. तटीपटी-तटभूमिको वस्त्रकी भाँति ढकने- वाली ॥ ३६ ॥

२४. असिकुण्डगता-असिकुण्डमें प्राप्त, २४५. कच्छा-कछारकी भूमिस्वरूपा, २४. स्वच्छन्दा= स्वच्छन्दगामिनी, २४. उच्छलिता = (वेगसे) उछलने वाली, २४. आदिजा- आदिभूत श्रीकृष्णके वामांससे उद्भूत (अथवा 'अद्रिजा' पाठ माना जाय तो पर्वतसे उत्पन्न हुई), २४. कुहरस्था= सरस्वती- रूपसे भूछिद्र में अथवा भोगवतीरूपसे पाताल- विवरमें स्थित, २५०. रथ- प्रस्था - श्रीकृष्णकी पटरानीके रूप में रथपर यात्रा करनेवाली, २५. प्रस्था= प्रस्थानशीला, २५. शान्ततरा=परम शान्तिमयी, २५. आतुरा- श्रीकृष्णदर्शनेनके लिये आतुर रहने- वाली ॥ ३७ ॥

२५. अम्बुच्छटा=जलकी छटासे शोभित, २५. शीकराभा - कुहरोंसे सुशोभित होनेवाली, २५. दर्दुरा-मेढकोंका आश्रय, अथवा बादलके समान श्याम कान्तिवाली, २५. दार्दुरीधरा= अपने जलके कल-कल नादसे दादुरोंकी-सी ध्वनि धारण करनेवाली, २५. पापाङ्कुशा= पापोंको नष्ट करनेके लिये अङ्कुशस्वरूपा, २५. पापसिंही= पापरूपी गजराजको नष्ट करनेके लिये सिंहीके तुल्य, २६०. पापद्रुमकुठारिणी- पापरूपी वृक्षका उच्छेद करने के लिये कुठाररूपा ॥ ३८ ॥

२६१. पुण्यसंघा-पुण्यसमुदायरूपा,२६२.पुण्यकीर्तिः पवित्र कीर्तिवाली अथवा जिनका कीर्तन पुण्य प्रदान करनेवाला है, ऐसी, २६. पुण्यदा- पुण्यदायिनी, २६. पुण्यवर्द्धिनी-अपने दर्शनसे पुण्यकी वृद्धि करनेवाली, २६. मधुवननदी= मधुवनमें बहनेवाली नदी, २६. मुख्या- एक प्रधान नदी, २६. अतुला- तुलनारहित, २६. ताल- वनस्थिता=तालवनमें स्थित रहनेवाली ॥

२६. कुमुद्वननदी- कुमुदवनकी नदी, २७०. कुब्जा - टेढ़ी-मेढ़ी, २७. कुमुदा भगवती दुर्गा- स्वरूपा, २७. अम्भोजवर्द्धिनी अपने जलमें कमलोंको बढ़ानेवाली, २७. प्लवरूपा=संसार- सागरसे पार होनेके लिये नौकास्वरूपा, २७. वेगवती-वेगशालिनी, २७सिंहसर्पादिवाहिनी - अपने जलकी धारामें सिंहों तथा सर्पादि जन्तुओंको बहा ले जानेवाली ॥ ३९-४० ॥

२७. बहुली - बहुलरूपवाली, २७. बहुदा = बहुत देनेवाली, २७. बह्वी - भूम (ब्रह्म) स्वरूपा, २७. बहुला - गोरूपा, २८०. वनवन्दिता वनों द्वारा वन्दित, २८. राधाकुण्डकला अपनी कलासे राधाकुण्ड में स्थित, २८. आराध्या आराधनके योग्य, २८. कृष्णकुण्डजलाश्रिता- कृष्णकुण्ड के जलमें निवास करनेवाली ॥ २८. ललिताकुण्डगा – ललिताकुण्ड में व्याप्त, २८. घण्टा-घण्टा-ध्वनिके सदृश अनुरणनात्मक शब्द करनेवाली, २८. विशाखा - विशाखा-सखी- स्वरूपा, २८. कुण्डमण्डिता-कुण्डों (हदों) से सुशोभित, २८. गोविन्दकुण्डनिलया = गोविन्द- कुण्डमें निवास करनेवाली, २८.गोपकुण्ड-  तरंगिणी - गोपकुण्ड में तरंगित होनेवाली ॥ ४१-४२ ॥

९०. श्रीगङ्गा-श्रीगङ्गास्वरूपा, २९. मानसी- गङ्गा-मानसी-गङ्गास्वरूपा, २९. कुसुमाम्बर- कुसुमाम्बर- भाविनी - पुष्पमय वस्त्र से सुशोभित अथवा कुसुम- सरोवर के अवकाश में प्रकट होनेवाली, २९. गोवर्द्धिनी – गोवर्धननाथ की शक्ति अथवा गौओं की वृद्धि करनेवाली, २९. गोधनाढ्या-गोधन से सम्पन्न, २९. मयूरवरवर्णिनी- मोरोंके समान सुन्दर वर्णवाली ॥ ४३ ॥

२९. सारसी-सरोवरोंकी जल-सम्पत्ति अथवा सारस पक्षियोंकी आश्रयभूता, २९. नीलकण्ठाभा= नीलकण्ठ या मयूरकी-सी आभावाली, २९. कूजत्कोकिलपोतकी - जहाँ कोकिलकुमारियोंके कल-कूजन होते रहते हैं, ऐसी, २९. गिरिराज- प्रसूः - गिरिराज हिमालयके कलिन्दपर्वतसे प्रकट, ३००. भूरिः=बहुवैभवशालिनी, ३०. आतपत्रा= तटपर रहनेवाले लोगोंकी धूपके कष्टसे रक्षा करने- वाली, ३०. आतपत्रिणी-पटरानीके रूपमें छत्र धारण करनेवाली ॥ ४४ ॥

३०. गोवर्द्धनाङ्कगा-गोवर्धनगिरिकी गोदमें मोदमाना, ३०. गोदन्ती - हरतालके समान रंगवाले केसर आदिसे आमोदित, ३०. दिव्यौषधिनिधिः = दिव्य ओषधियोंकी निधि, ३०. सृतिः - सद्गतिकी राह, ३०. पारदी - भवसागरसे पार कर देनेवाली दिव्य शक्ति, ३०. पारदमयी पारदस्वरूपा, ३०. नारदी - नार अर्थात् जल प्रदान करनेवाली, ३१०. शारदी- शरत्कालीन शोभारूपा, ३१. भृतिः = भरण पोषणका साधन बनी हुई ।। ३१. श्रीकृष्णचरणाङ्कस्था-भगवान् श्रीकृष्णके चरणों के अङ्गमें विराजित, ३१. अकामा-लौकिक कामनाओंसे रहित (अथवा 'कामा' कामस्वरूपा), ३१. कामवनाञ्चिता - कामवनमें पूजित, ३१. कामाटवी कामवनरूपा, - कामवनरूपा, ३१. नन्दिनी सब को - आनन्दित करनेवाली, ३१. नन्दग्राममही-नन्द- ग्रामस्थित भूमिरूपा, ३१. धरा = पृथ्वीरूपा || ४५-४६ ।।

३१. बृहत्सानुद्युतिप्रोता- 'बृहत्सानु' पर्वतके शिखरकी शोभासे संयुक्त, ३२०. नन्दीश्वरसमन्विता- नन्दगाँवके नन्दीश्वरगिरिसे समन्विता, ३२. काकली=कोयलोंकी कुहू ध्वनिरूपमें स्थित, ३२. कोकिलमयी-कोयलसे व्याप्ता, ३२. भाण्डीर- कुशकौशला भाण्डीरवनमें कुशोत्पाटनके कौशलसे युक्त ॥ ४७ ॥

३२. लोहार्गलप्रदा- श्रीकृष्ण के लिये अपने प्रेमके द्वारा लोह की अर्गला लगा देनेवाली, ३२.

कारा= (श्रीकृष्णको अपने प्रेमके द्वारा रोके रखनेके लिये) कारारूपा, ३२. काश्मीरवसना केसरके रंगमें रँगे हुए वस्त्र धारण करनेवाली, ३२. वृता = श्रीकृष्णके द्वारा स्वीकृता, ३२. बर्हिषदी-बर्हिषदी- पुरीरूपा, ३२. शोणपुरी - शोणपुरीरूपा, ३३०. शूरक्षेत्रपुराधिका-शूरक्षेत्रपुरसे भी अधिक माहात्म्य- वाली ॥ ४८ ॥

३३. नानाभरणशोभाढ्या विविध प्रकारके आभूषणोंकी शोभांसे सम्पन्न, ३३. नानावर्ण- समन्विता = नाना प्रकारके रंगोंसे युक्त, ३३. नानानारीकदम्बाढ्या= नाना प्रकारकी स्त्रियोंके समुदायसे युक्त, ३३. नानारङ्गमहीरुहा - तटवर्ती विविध रंगके वृक्षोंसे सुशोभित ॥ ३३. नानालोकगता-नाना लोकोंमें पहुँची हुई, ३३. अभ्यर्चि:- जिनकी तेजोराशि सब ओर फैली हुई है, ऐसी, ३३. नानाजलसमन्विता - नाना नदियोंके मिले हुए जलसे युक्त, ३३. स्त्रीरत्नम् = स्त्रियों में रत्नस्वरूपा, ३३. रत्ननिलया - रत्ननिर्मित गृहमें निवास करनेवाली, ३४०. ललना-श्रीकृष्ण- कामिनी, ३४. रत्नरञ्जिनी - रत्नोंके द्वारा विविध रंगोंका प्रकाश फैलानेवाली ॥ ४९-५० ॥

३४. रङ्गिणी-रङ्गस्थलमें रासके रंगमें रँगी रहनेवाली, ३४. रङ्गभूमाढ्या रंगके बाहुल्यसे युक्त, ३४. रङ्गा-हर्षयुक्ता अथवा रङ्गानाम्नी नदीस्वरूपा, ३४५. रङ्गमहीरुहा - रंगीन वृक्षोंसे युक्त, ३४. राजविद्या - विद्याओंकी स्वामिनी, ३४. राजगुह्या:- गुह्य वस्तुओंमें सबसे श्रेष्ठ, ३४. जगत्कीर्ति-जगत्के लिये कीर्तिमयी अथवा कीर्तनीया, ३४. घना सघन प्रेमयुक्ता अथवा श्रीकृष्णके वंशीवादनके समय हिमवत् घनीभूत हो जानेवाली, ३४९. अघना- प्रवहणशीला ॥ ३५०. विलोलघण्टा चञ्चल घंटाके समान नाद करनेवाली, ३५१. कृष्णाङ्गा = कृष्णके समान अङ्ग वाली अथवा श्यामाङ्गी, ३५२. कृष्णदेहसमुद्भवा = श्रीकृष्णके शरीरसे उत्पन्न, ३५३. नीलपङ्कजवर्णाभा - नील कमल के समान वर्ण एवं आभा से युक्त, ३५. नीलपङ्कजहारिणी - नील कमलकी माला धारण करनेवाली ॥ ५१-५२ ॥

३५. नीलाभा-नील कान्तिमती, ३५. नील- पद्माढ्या = नील कमलोंकी सम्पदासे भरी-पूरी, ३५. नीलाम्भोरुहवासिनी - नील कमलमें निवास करने- वाली, ३५. नागवल्ली = ताम्बूललतास्वरूपा, ३६०. नागपुरी-नागोंकी नगरी (अर्थात् कालिय आदि नागों की निवासभूमि), ३६. नागवल्ली- दलार्चिता = ताम्बूलपत्रसे पूजित ॥ ५३ ॥

३६2. ताम्बूलचर्चिता-ताम्बूलसे रञ्जित, ३६. चर्चा - कस्तूरी-चन्दनादि आलेपमयी, ३६. मकरन्द- मनोहरा = कमलादिके मकरन्दसे मनको हर लेनेवाली, ३६. सकेशरा- केसरवती, ३६. केशरिणी= केसर धारण करनेवाली, ३६. केशपाशाभि- शोभिता - केशपाशद्वारा सब ओरसे सुशोभित ॥ ५४ ॥

३६. कज्जलाभा= काजलकी-सी काली आभावाली, ३६. कज्जलाक्ता-नेत्रोंमें काजलकी शोभासे युक्त अथवा काजलकी रँगी हुई, ३७०. कज्जली-कजलीके समान काली, ३७. कलिताञ्जना नेत्रोंमें अञ्जन धारण करनेवाली, ३७२.अलक्तचरणा-चरणोंमें महावरका रंग लगानेवाली, ३७. ताम्रा - ताम्रवर्णा, ३७. लाला = लालनीया, ३७. ताम्रीकृताम्बरा = ताँबेके समान लाल रंगके वस्त्र धारण करनेवाली ॥ ५५ ॥

३७. सिन्दूरिता – सीमन्त में सिन्दूर धारण करने- वाली, ३७. अलिप्तवाणी- जिसकी वाणी किसी दोषसे लिप्त नहीं होती, ऐसी, ३७. सुश्री - उत्तम शोभासे युक्त, ३७. श्रीखण्डमण्डिता - चन्दनसे अलंकृत, ३८०. पाटीरपङ्कवसना = चन्दन-पङ्कमय वस्त्र धारण करनेवाली, ३८. जटामांसी- जटा- मांसीके रूपमें स्थित, ३८. स्त्रगम्बरा= पुष्प- मालाओंको वस्त्ररूपमें धारण करनेवाली ॥ ५६ ॥

३८. आगरी-आगर (अमावास्या) के समान (कृष्ण) वर्णवाली, ३८. अगुरुगन्धाक्ता - अगुरुकी गन्धसे अभिषिक्त, ३८. तगराश्रितमारुता जिसकी हवामें तगरको सुगन्ध समायी हुई है, ऐसी, ३८. सुगन्धितैलरुचिरा- सुगन्धित तैल (इत्र आदि) से मनोहर, ३८. कुन्तलालि:- जिनकी अलकोंपर (सुगन्धसे आकृष्ट) भ्रमर मँडराते रहते हैं, ऐसी, ३८. सकुन्तला=कुन्तल - राशि से युक्त ॥ ५७ ॥

३८. शकुन्तला - शकुन्तों पक्षियोंका स्वागत करनेवाली, ३९०. अपांसुला पतिव्रता, ३९. पातिव्रत्यपरायणा=पतिव्रताधर्मके पालनमें तत्पर, ३९. सूर्यप्रभा - सूर्यके समान उद्भासित होनेवाली, ३९. सूर्यकन्या- सूर्यकी पुत्री, ३९. सूर्यदेह- समुद्भवा = सूर्यके शरीरसे उत्पन्ना ।। ५८ ।।

३९. कोटिसूर्यप्रतीकाशा-करोड़ों सूर्योक समान तेजस्विनी, ३९. सूर्यजा= सूर्यपुत्री, ३९. सूर्यनन्दिनी - सूर्यदेवको आनन्द प्रदान करनेवाली, ३९. संज्ञा=सम्यक् ज्ञानस्वरूपा, ३९. संज्ञासुता = संज्ञाकी पुत्री, ४००. स्वेच्छा-स्वाधीना, ४०. संज्ञामोदप्रदायिनी आनन्द प्रदान करनेवाली ॥ ५९ ॥

४०. संज्ञापुत्री-संज्ञाकी बेटी, ४०. स्फुरच्छाया - उद्भासित कान्तिवाली, ४०तपती तापकारिणी= (सौतेली बहिन) तपतीको ताप देने- बाली, ४०. सावर्ण्यानुभवा-श्रीकृष्णके साथ वर्ण- सादृश्यका अनुभव करनेवाली, ४०. देवी-देव- कन्या, ४०. वडवा- वडवारूपा, ४०. सौख्य- दायिनी - सौख्य प्रदान करनेवाली ॥ ६० ॥

०९. शनैश्चरानुजा= शनैश्चरकी छोटी बहिन ४१. कीला=ज्वालामयी, ४१. चन्द्रवंश विवर्द्धिनी = चन्द्रवंशकी वृद्धि करनेवाली, ४१. चन्द्रवंशवधूः=चन्द्रवंशकी बहू, ४१. चन्द्रा- आह्लाद प्रदान करनेवाली, ४१. चन्द्रावलि - सहायिनी = चन्द्रावली सखीकी सहायता करने वाली ॥ ६१ ॥

४१. चन्द्रावती- चन्द्रावतीस्वरूपा, ४१. चन्द्रलेखा-चन्द्रलेखास्वरूपा, ४१. चन्द्रकान्ता = चन्द्रमाके समान कान्तिमती, ४१. अनुगा- (सदा) प्रियतमका अनुगमन करनेवाली, ४१९. अंशुका= उज्ज्वल - वस्त्रधारिणी, ४२. भैरवी-भैरवप्रिया, ४२. पिङ्गलाशङ्की-सूर्यके पारिपार्श्वक पिङ्गलसे आशङ्कित होनेवाली, ४२. लीलावती-भाँति- भाँतिकी लीला करनेवाली, ४२. आगरीमयी= अगरकी सुगन्धसे व्याप्त ।। ६२ ।।

४२४. धनश्री धनलक्ष्मी या रागिनीविशेष, ४२. देवगान्धारी - रागिनीविशेष, ४२. स्वर्मणि:- स्वर्गलोककी मणि, ४२. गुणवर्द्धिनी - गुणोंकी वृद्धि करनेवाली, ४२. व्रजमल्ला - व्रजमण्डलमें मल्ल- स्वरूपा, ४२९. बन्धकारी विरोधियोंको बन्धनमें डालनेवाली, ४३. विचित्रा - विचित्र रूप और शक्तिसे सम्पन्न, ४३. जयकारिणी - विजय प्राप्त करानेवाली ॥६३॥

४३. गान्धारी, ४३. मञ्जरी, ४३. टोडी, ४३. गुर्जरी, ४३. आशावरी, ४३७. जया, ४३. कर्णाटी- गान्धारीसे लेकर कर्णाटीतक विशेष रागिनियोंके नाम हैं। ये समस्त रागिनियाँ यमुनाजीसे अभिन्न हैं, ४३९. रागिणी - रागिनीस्वरूपा, ४४०. गौरी-गौरी नामकी रागिनी, ४४. वैराटी= रागिनीविशेष, ४४. गौरवाटिका - रागिनी - विशेष अथवा गौरतेजः-स्वरूपा श्रीराधाके लिये उद्यान- रूपिणी ॥ ६४ ॥

४४. चतुश्चन्द्रा, ४४. कलाहेरी, ४४तैलङ्गी, ४४. विजयावती, ४४. ताली- चतुश्चन्द्रासे लेकर तालीतक राग-रागिनियाँ और तालके नाम हैं, ४४. तलस्वरा-ताली बजाकर स्वरकी सूचना देनेवाली, ४४९. गाना गानस्वरूपा, ४५. क्रियामात्रप्रकाशिनी-तालके क्रियामात्रको प्रकाशित करनेवाली ॥ ६५ ॥

४५. वैशाखी, ४५. चञ्चला, ४५. चारुः, ४५. माचारी, ४५. घूघटी, ४५. घटा, ४५. वैरागरी, ४५. सोरटी, ४५९. ईशा, ४६. कैदारी, ४६. जलधारिका – वैशाखी से लेकर जलधारिकापर्यन्त सभी नामविशेष रागिनी आदिके सूचक हैं ॥ ६६ ॥

४६. कामाकरश्री, ४६. कल्याणी, ४६. गौडकल्याणमिश्रिता, ४६. रामसंजीविनी, ४६. हेला, ४६. मन्दारी, ४६. कामरूपिणी सब भी विशेष प्रकार को रागिनियाँ हैं ॥ ६७ ॥

६९, सारङ्गी, ४७. मारुती, ४७. होढा, ४७. सागरी, ४७. कामवादिनी, ४७. वैभासी, ४७. मङ्गला - ये भी रागिनियोंके ही नाम हैं । ४७. चान्द्री - रासपूर्णिमाकी चाँदनीस्वरूपा, ४७. रासमण्डलमण्डना = रासमण्डल को मण्डित करनेवाली ॥ ६८ ॥

४७. कामधेनुः = कामधेनुकी भाँति व्यक्तिकी मनोवाञ्छित कामनाको पूर्ण करनेवाली, ४७९. कामलता = कामना पूर्ण करनेवाली कल्पलतास्वरूपा, ४८. कामदा-अभीष्ट मनोरथ देनेवाली, ४८. कमनीयका कमनीया, ४८. कल्पवृक्षस्थली = कल्पवृक्षोंकी स्थानभूता ४८. स्थूला स्थूल- रूपिणी, ४८. क्षुधा बुभुक्षास्वरूपिणी, ४८. सौधनिवासिनी महलमें रहनेवाली ॥६९॥

४८. गोलोकवासिनी - गोलोकधाममें निवास करनेवाली, ४८. सुश्रूः - सुन्दर भौंहोंवाली, ४८. यष्टिभृत्-छड़ी धारण करनेवाली, ४८९ द्वार पालिका=द्वाररक्षिका, ४९. शृङ्गारप्रकरा = शृङ्गार- साधन-सामग्री-समुदायरूपा, ४९. शृङ्गा मन्मथो- द्भेदस्वरूपा, ४९. स्वच्छा-विमलस्वरूपा, ४९. शय्योपकारि का प्रिया-प्रियतम के लिये शय्या सुसज्जित करने में उपकारिणी ॥ ७० ॥

४९. पार्षदा श्रीराधा-कृष्ण की पार्षदस्वरूपा, .सुमुखी= सुन्दर मुख वाली, ४९.सेव्या= सेवा करने योग्य,४९७.श्रीवृन्दावनपालिका – श्रीवृन्दावन की रक्षा करनेवाली, ४९. निकुञ्जभृत्= निकुञ्ज का पोषण करनेवाली, ४९. कुञ्जपुञ्जा=कुञ्जसमुदायस्वरूपा, ५००. गुञ्जाभरणभूषिता-गुञ्जा के आभूषणों से विभूषित ॥ ७१ ॥

५०१. निकुञ्जवासिनी - निकुञ्जमें निवास करने- वाली, ५०२. प्रोष्या- प्रवासिनी, ५०३. गोवर्द्धन तटीभवा- गोवर्धनकी उपत्यकामें मानसी गङ्गाके रूपमें प्रकट, ५०४. विशाखा - विशाखासखीस्वरूपा, ५०५. ललिता = ललिता-सखीस्वरूपा अथवा लालित्यशालिनी, ५०६. रामा - श्रीकृष्णरमणी, ५०७ नीरुजा - रोगरहित, ५०८. मधुमाधवी मधुमासकी माधवी लतारूपिणी ।। ७२ ।।

५०९. एका = अद्वितीया, ५१०. नैकसखी= अनेक सखियोंवाली,५११. शुक्ला - शुद्धस्वरूपा, ५१२. सखीमध्या - सखियोंके मध्यमें विराजमान, ५१३. महामनाः- विशालहृदया, ५१४. श्रुतिरूपा - गोपीरूपमें श्रुतिस्वरूपा, ५१५. ऋषिरूपा-ऋषि- स्वरूपा गोपी, ५१६. मैथिला :- गोपीरूपमें उत्पन्न मिथिलावासिनी स्त्रियाँ, ५१७. कौशलाः स्त्रियः= गोपीरूपमें उत्पन्न कौशलवासिनी स्त्रियाँ ॥ ७३ ॥

५१८. अयोध्यापुरवासिन्यः - गोपीरूपमें उत्पन्न अयोध्या नगरकी स्त्रियाँ, ५१९. यज्ञसीता :- यज्ञ- सीतास्वरूपा गोपियाँ, ५२०. पुलिन्दकाः- गोपी- भावको प्राप्त पुलिन्द - कन्याएँ, ५२१. रमावैकुण्ठ- वासिन्यः – लक्ष्मीजी के वैकुण्ठमें निवास करनेवाली स्त्रियाँ (जो गोपीरूपको प्राप्त हुई थीं), ५२२. श्वेत- द्वीपसखीजना:- श्वेतद्वीप निवासिनी सखियाँ ॥ ७४ ॥

५२३. ऊर्ध्ववैकुण्ठवासिन्यः – ऊर्ध्ववैकुण्ठ में वास करनेवाली सखियाँ, ५२४. दिव्याजित- पदाश्रिताः = दिव्य अजित पद के आश्रित सखियाँ, ५२५. श्रीलोकाचलवासिन्यः-श्रीलोकाचल में निवास करनेवाली सखियाँ, ५२६. सागरोद्भवाः श्रीसख्य: = समुद्र से उत्पन्न श्रीलक्ष्मीजीकी सखियाँ ॥ ७५ ॥

५२७. दिव्या:-दिव्यरूपा गोपियाँ, ५२८. अदिव्या:- मानवरूपिणी गोपियाँ, ५२९. दिव्याङ्गाः- दिव्य अङ्गोंवाली, ५३०. व्याप्ताः = सर्वव्यापिनी, ५३१. त्रिगुणवृत्तयः- त्रिगुणात्मक वृत्तिस्वरूपा, ५३२. भूमिगोप्यः - भूतलपर उत्पन्न गोपियाँ, ५३३. देवनार्यः = देवाङ्गनास्वरूपा गोपियाँ, ५३४. लता:= लतारूपिणी गोपियाँ, ५३५. ओषधिवीरुधः - ओषधि एवं लता-झाड़ी आदिस्वरूपा गोपाङ्गनाएँ ॥ ७६ ॥

५३६. जालंधर्य :- गोपीभावको प्राप्त जालंधरी स्त्रियाँ, ५३७. सिन्धुसुताः - समुद्रकन्याएँ, ५३८. पृथुबर्हिष्मतीभवा: - राजा पृथुकी बर्हिष्मतीपुरीमें होनेवाली स्त्रियाँ, जो गोपीभावको प्राप्त हुई थीं, ५३९. दिव्याम्बराः - दिव्यवस्त्रधारिणी गोपियाँ, ५४०. अप्सरसः - गोपीभावको प्राप्त अप्सराएँ, ५४१. सौतलाः- सुतललोकवासिनी असुराङ्गनाएँ, जिन्हें गोपीभावकी प्राप्ति हुई थी, ५४२. नागकन्यकाः नागकन्यास्वरूपा गोपियाँ ॥ ७७ ॥

५४३. परं धाम परमधामस्वरूपा, ५४४. परं ब्रह्म=परब्रह्मस्वरूपा, ५४५. पौरुषा - पुरुषार्थस्वरूपा, ५४६. प्रकृतिः परा- पराप्रकृतिस्वरूपा, ५४७. तटस्था-तटस्थाशक्तिस्वरूपा,

५४८. गुणभूः = गुणोंकी जन्मभूमि, ५४९. गीता-सबके द्वारा जिसका यशोगान होता हो, वह, अथवा भगवद्गीतास्वरूपा,  ५५०. गुणागुणमयी= गुणागुणस्वरूपा, ५५१. गुणा= दिव्यगुणात्मिका ॥ ७८ ॥

५५२. चिद्घना - चिदानन्दघनस्वरूपा, ५५३. सदसन्माला=सदसत्-समूहात्मिका, ५५४. दृष्टि:- ज्ञानस्वरूपा अथवा दर्शनस्वरूपा, ५५५. दृश्या = दृश्यस्वरूपा, ५५६. गुणाकरी - गुणोंकी निधिरूपा, ५५७. महत्तत्त्वम् समष्टि बुद्धिरूपा, ५५८. अहंकार:- अहंकारस्वरूपा, ५५९. मनः = मनः- स्वरूपा, ५६०. बुद्धि: - बुद्धिरूपा, ५६१. प्रचेतना= प्रकृष्ट चेतनास्वरूपा ॥ ७९ ॥

५६२. चेतो: - चित्तरूपा, ५६३. वृत्तिः - व्यवहार स्वरूपा, ५६४. स्वान्तरात्मा = निजान्तरात्मस्वरूपा, ५६५. चतुर्थी-जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिसे अतीत तुरीयावस्थारूपा, ५६६. चतुरक्षरा=प्रणवके चार अक्षर - अकार, उकार, मकार और अर्धमात्रा – ये जिसके स्वरूप हैं, वह, ५६७. चतुर्व्यूहा- वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध — ये चार व्यूह जिसके स्वरूप हैं, वह, ५६८. चतुर्मूर्तिः- एकपदी, द्विपदी, त्रिपदी और चतुष्पदी – इन चार मूर्तियोंवाली गायत्री अथवा चतुर्व्यूहस्वरूपा, ५६९. व्योम= आकाशरूपा, ५७०. वायुः = वायुरूपा, ५७१. अदः - दृश्य प्रपञ्चके रूपमें स्थित, ५७२. जलम् - जलस्वरूपा ॥ ८० ॥

५७३. मही- पृथ्वीरूपा, ५७४. शब्दः - शब्द- स्वरूपा, ५७५. रस: - रसस्वरूपा, ५७६. गन्ध: - गन्धस्वरूपा, ५७७. स्पर्श:-स्पर्शस्वरूपा, ५७८. रूपम्=रूपस्वरूपा, ५७९. अनेकधा-नाना रूप- वाली, ५८०. कर्मेन्द्रियम्-कर्मेन्द्रियस्वरूपा, ५८१. कर्ममयी कर्मस्वरूपा, ५८२. ज्ञानम् ज्ञानमयी, ५८३. ज्ञानेन्द्रियम्- ज्ञानेन्द्रियस्वरूपा, ५८४. द्विधा = प्रकृति - पुरुषरूप दो शरीरवाली अथवा ज्ञानेन्द्रिय- कर्मेन्द्रिय-भेदसे द्विविध इन्द्रियरूपा ॥ ८१ ॥

५८५. त्रिधा -क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम त्रिविध रूपवाली अथवा अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव-भेदसे त्रिविध रूपवाली, ५८६. अधि- भूतम्-भौतिक सृष्टिमें व्याप्त, ५८७. अध्यात्मम्- अध्यात्मस्वरूपा, ५८८. अधिदैवम्-आधिदैविक- रूपवाली, ५८९. अधिष्ठितम् = सर्वरूपोंमें अधिष्ठित, ५९०. ज्ञानशक्तिः ज्ञानशक्ति) ५९१. क्रियाशक्तिः क्रियाशक्ति, ५९२. सर्वदेवाधिदेवता= समस्त देवताओं की अधिदेवी ॥ ८२ ॥

५९३. तत्त्वसंघा-तत्त्वसमूहरूपा, ५९४. विराणू- मूर्तिः = विराट्स्वरूपा, ५९५. धारणा धारणाशक्ति, ५९६. धारणामयी धारणाशक्तिरूपा, ५९७. श्रुतिः वेदरूपा, ५९८. स्मृतिः = धर्मशास्त्ररूपा, ५९९. वेदमूर्तिः = वेदात्मिका, ६००. संहिता - संहितास्वरूपा, ६०१. गर्गसंहिता गर्गसंहितारूपा ॥ ८३ ॥

६०२. पाराशरी - पाराशरसंहिता (विष्णुपुराण) रूपा, ६०३. सृष्टि:- सृष्टिरूपा अथवा पाराशरी- रचनारूपा, ६०४. पारहंसी- परमहंस - विद्यारूपा अथवा परमहंससंहिता, ६०५. विधातृका - विधातृ- स्वरूपा अथवा ब्रह्मसंहिता, ६०६. याज्ञवल्की = याज्ञवल्क्यस्मृतिरूपा, ६०७. भागवती- भगवान्‌की शक्ति अथवा वैष्णवागमरूपा, ६०८. श्रीमद्भाग- वतार्चिता श्रीमद्भागवतके द्वारा पूजित- प्रशंसित ॥ ८४ ॥

६०९. रामायणमयी-वाल्मीकि रामायण अथवा प्राचेतससंहिता अथवा रामचरितस्वरूपा ६१०. रम्या रमणीया, ६११. पुराणपुरुषप्रिया = पुराणपुरुष श्रीकृष्णकी प्रिया, ६१२. पुराणमूर्त्तिः पुराणस्वरूपा, ६१३. पुण्याङ्गा= पुण्यशरीरवाली, ६१४. शास्त्रमूर्तिः= शास्त्रस्वरूपा, ६१५. महोन्नता= परम उन्नत ॥ ८५ ॥

६१६. मनीषा - बुद्धिरूपा, ६१७. धिषणा-प्रज्ञा-रूपा ६१८. बुद्धिः - मेधारूपा, ६१९. वाणी वाग्देवता, ६२०. धी:- बुद्धिरूपा ६२१. शेमुषी- बुद्धिरूपा, ६२२. मतिः - निश्चयरूपा, ६२३. गायत्री- गायत्रीमन्त्रस्वरूपा, ६२४. वेदसावित्री - वेदोक्त गायत्री, ६२५. ब्रह्माणी = ब्रह्मशक्ति, ६२६. ब्रह्म- लक्षणा= वेदमन्त्रोंद्वारा लक्षित होनेवाली ॥ ८६ ॥

६२७. दुर्गा दुर्गम्या अथवा दुर्गादेवी, ६२८. अपर्णा तपस्विनी पार्वती, ६२९. सती दक्षकन्या सती, ६३०. सत्या - सत्यस्वरूपा अथवा सत्यभामा, ६३१. पार्वती - गिरिराज हिमालयकी पुत्री, ६३२. चण्डिका - असुरसंहारिणी शक्ति, ६३३. अम्बिका= जगन्माता, ६३४. आर्या= श्रेष्ठस्वरूपा, ६३५. दाक्षायणी-दक्षप्रजापतिकी कन्या, ६३६. दाक्षी- दक्षपुत्री, ६३७. दक्षयज्ञविघातिनी= दक्ष-यज्ञ- विध्वंसमें कारणभूता ॥ ८७ ॥

६३८. पुलोमजा = पुलोम दानवकी पुत्री शची- स्वरूपा, ६३९. शची-इन्द्रपत्नी, ६४०. इन्द्राणी- शची, ६४१. देवी - प्रकाशमाना, ६४२. देववरार्पिता= देवेश्वर इन्द्रको अर्पित, ६४३. वायुना धारिणी-वायुके द्वारा धारण करनेवाली अथवा वयुना ज्ञानस्वरूपा और धारिणी धारणशक्ति, ६४४. धन्या = धन्यवादके योग्य, ६४५. वायवी= वायुशक्ति, ६४६. वायुवेगगा= वायुवेगसे चलनेवाली ॥ ८८ ॥

६४७. यमानुजा= यमकी छोटी बहिन ६४८. संयमनी - संयमनशक्ति अथवा संयमनीपुरी, ६४९. संज्ञा - सूर्यप्रिया संज्ञास्वरूपा, ६५०. छाया - संज्ञाकी छायाभूता सवर्णा, ६५१. स्फुरद्युतिः- उद्दीप्त कान्तिवाली, ६५२. रत्नवेदी - रत्नवेदिकारूपा, ६५३. रत्नवृन्दा= रत्नसमूहरूपा, ६५४. तारा = तारामण्डलरूपा, ६५५. तरणिमण्डला= सूर्यमण्डल-स्वरूपा ।। ८९ ॥

६५६. रुचि:- प्रभा, ६५७. शान्तिः शान्ति रूपा, ६५८. क्षमा- तितिक्षामयी अथवा पृथ्वी, ६५९. शोभा - छविमयी, ६६०. दया करुणामयी, ६६१. दक्षा-कुशला या चतुरा, ६६२. द्युतिः कान्तिमयी, ६६३. त्रपा = लज्जा, ६६४. तलतुष्टिः = ताली बजानेसे तुष्ट होनेवाली, ६६५. विभा - प्रभा, ६६६. पुष्टिः=पुष्टिरूपा, ६६७. संतुष्टिः = संतोषमयी, ६६८. पुष्टभावना - सुदृढ़ भावनावाली ॥ ९० ॥

६६९. चतुर्भुजा = चार भुजाएँ धारण करनेवाली (लक्ष्मी), ६७०. चारुनेत्रा - सुन्दर नेत्रवाली, ६७१. द्विभुजा - दो बाहुवाली ( कालिन्दी या श्रीराधा), ६७२. अष्टभुजा = आठ भुजावाली (सरस्वती), ६७३. अबला - बलका प्रदर्शन न करनेवाली, ६७४. शङ्खहस्ता - हाथमें शङ्ख धारण करनेवाली (वैष्णवी मूर्ति), ६७५. पद्महस्ता हाथमें कमल धारण करनेवाली (लक्ष्मी), ६७६. चक्रहस्ता हाथमें चक्र धारण करनेवाली वैष्णवी मूर्ति, ६७७. गदाधरा-गदा धारण करनेवाली ॥ ९१ ॥

६७८. निषङ्गधारिणी-तरकस धारण करनेवाली, ६७९. चर्मखड्गपाणि: - हाथमें ढाल-तलवार लेने- वाली, ६८०. धनुर्धरा = धनुष धारण करनेवाली, ६८१. धनुष्टंकारिणी - (दुर्गाके रूपमें) धनुषका टंकार करनेवाली, ६८२.  योद्ध्री  = युद्ध करनेवाली, ६८३. दैत्योद्भटविनाशिनी= दैत्यसेनाके उद्घट योद्धाओंका विनाश करनेवाली ॥ ९२ ॥

६८४, रथस्था= रथपर बैठनेवाली, ६८५. गरुडा- रूढा - गरुडपर आरूढ़ होनेवाली, ६८६. श्रीकृष्ण- हृदयस्थिता = श्रीकृष्णके हृदयरूपी सिंहासनपर आसीन, ६८७. वंशीधरा - कृष्णरूपसे वंशी धारण करनेवाली, ६८८. कृष्णवेषा-श्रीकृष्णका वेष धारण करनेवाली, ६८९. स्रग्विणी-पुष्पोंके हारोंसे अलंकृत, ६९०. वनमालिनी = वनमाला करनेवाली ॥ ९३ ॥

६९१. किरीटधारिणी= मस्तकपर किरीट धारण करनेवाली, ६९२. याना - यानस्वरूपा, ९३. मन्द- मन्दगतिः = धीरे-धीरे चलनेवाली, ६९४. गतिः- सद्गतिस्वरूपा अथवा गमनशक्तिरूपा ६९५. चन्द्र- कोटिप्रतीकाशा- कोटिचन्द्रतुल्या, ६९६. तन्वी = कृशाङ्गी, ६९७. कोमलविग्रहा मृदुल शरीर- वाली ॥ ९४ ॥

६९८. भैष्मी - भीष्मपुत्री रुक्मिणीरूपा, ६९९. भीष्मसुता राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणी, ७००., अभीमा - अभयंकर – सौम्यरूपवाली, ७०१. रुक्मिणी- श्रीकृष्णकी प्रमुख पटरानी, ७०२. रुक्मरूपिणी= सुनहले रूपवाली, ७०३. सत्यभामा= सत्राजितकी पुत्री, श्रीकृष्णप्रिया, ७०४. जाम्बवती जाम्बवान्द्वारा पोषित एवं उन्हींसे प्राप्त दिव्यरूपा पटरानी, ७०५. सत्या- 'सत्या' नामवाली श्रीकृष्णकी पटरानी, ७०६. भद्रा - 'भद्रा' नामवाली पटरानी, ७०७ सुदक्षिणा परम उदारस्वरूपा श्रीकृष्णकी पटरानी ॥ ९५ ॥

७०८. मित्रविन्दा- 'मित्रविन्दा' नामवाली पटरानी, ७०९. सखी - राधारानीकी सखी, ७१०. वृन्दा-वृन्दावनकी अधिदेवी, ७११. वृन्दारण्यध्वजोर्ध्वगा - वृन्दावनकी ध्वजतुल्या - ऊर्ध्वगामिनी, ७१२. शृङ्गारकारिणी - शृङ्गार करनेवाली, ७१३, शृङ्गा- शृङ्गस्वरूपा, ७१४. शृङ्गभूः = शिखरभूमि, ७१५. शृङ्गदा - शिखरपर स्थान देनेवाली, ७१६. खगा = आकाशचारिणी ॥ ९६ ॥

७१७. तितिक्षा - क्षमा, ७१८. ईक्षा- ईक्षणस्वरूपा, ७१९. स्मृतिः - स्मरण शक्ति, ७२०. स्पर्धा स्पर्धा- रूपा, ७२१. स्पृहा- अभिलाषा, ७२२. श्रद्धा = आस्तिक्य-बुद्धिस्वरूपा, ७२३. स्वनिर्वृतिः = निजानन्दस्वरूपा, ७२४. ईशा-ईशनकर्त्री, ७२५. तृष्णा = कामना, ७२६. भिदा-भेदस्वरूपा, ७२७. प्रीतिः - प्रेम या प्रसन्नता, ७२८. हिंसा - हिंसावृत्तिरूपा, ७२९. याञ्चा-याचनारूपा, ७३०. क्लमा= क्लान्तिरूपा अथवा अक्लमा क्लमरहिता, ७३१. कृषिः - कृषि (वार्ताका एक भेद) ॥ ९७ ॥

७३२. आशा = आशारूपिणी, ७३३. निद्रा- निद्राकी अधिष्ठात्री या निद्रारूपा, ७३४. योगनिद्रा- योगनिद्रा, जिसका आश्रय लेकर भगवान् विष्णु चार मासतक शयन करते हैं, ७३५. योगिनी योगिनीरूपा, ७३६. योगदा= योगदायिनी, ७३७. युगा-युग-स्वरूपा, ७३८. निष्ठा = परमगति, आश्रयशक्ति अथवा आधारस्वरूपा, ७३९. प्रतिष्ठा = प्रतिष्ठास्वरूपा, आश्रय अथवा अवलम्ब, ७४०. शमितिः = शमन-स्वरूपा, ७४१. सत्त्वप्रकृतिः = सत्त्वगुणमयी प्रकृतिवाली, ७४२. उत्तमा- उत्कृष्टस्वरूपा ॥ ९८ ॥

७४३. तमः प्रकृतिदुर्मर्षी= तमोगुणमय स्वभावको दुःखसे सहन करनेवाली, ७४४. रजः प्रकृतिः = रजोगुणप्रधान प्रकृतिरूपा, ७४५. आनतिः = सब ओरसे नमनशीला, ७४६. क्रिया- क्रियाशक्ति, ७४७. अक्रिया - निष्क्रिय, ७४८. कृतिः = प्रयत्नरूपा, ७४९. ग्लानिः = ग्लानिरूपिणी, ७५०. सात्त्विकी - सत्त्व- प्रधाना शक्ति, ७५९. आध्यात्मिकी- आध्यात्मिक शक्ति, ७५२. वृषा = धर्मस्वरूपा ॥ ९९ ॥

७५३. सेवा-सेवारूपिणी, ७५४. शिखा= नदियोंकी शिखाभूता, ७५५. मणिः मणि-रत्न - स्वरूपा, ७५६. वृद्धिः - अभ्युदयकी हेतुभूता, ७५७. आहूतिः = आह्वानस्वरूपा, ७५८. सुमतिः- सद्बुद्धिस्वरूपिणी, ७५९. द्युः = द्युलोकरूपिणी, ७६०. भूः - पृथ्वीरूपा, ७६१. रज्जुर्द्विदाम्नी = दो तटोंवाली, ७६२. षड्वर्गा- षड्वर्गरूपिणी, ७६३. संहिता - वेदरूपिणी, ७६४. सौख्यदायिनी = सर्वसुखदा ॥ १०० ॥

७६५. मुक्ति: = मुक्तिरूपा, ७६६. प्रोक्तिः = श्रेष्ठवाणी- रूपा, ७६७. देशभाषा - देशीयभाषा, ७६८. प्रकृतिः प्रकृतिरूपा, ७६९. पिङ्गलोद्भवा = पिङ्गला नाड़ीसे उत्पन्न, ७७०. नागभाषा-नागोंकी भाषाको जाननेवाली अथवा नागों से भाषण करनेवाली, ७७१. नागभूषा = नागसे भूषित, ७७२. नागरी नागरी अर्थात् चतुरा, ७७३. नगरी - नगरस्वरूपा, ७७४. नगा- वृक्ष अथवा गिरिरूपा ॥ ७७५. नौ:-नाव, ७७६. नौका-नाव, ७७७. भवनौ: संसारसागरसे पार उतारनेवाली नौका, ७७८. भाव्या =मनमें भावना (ध्यान) करनेयोग्य, ७७९. भवसागरसेतुका = भवसागरसे पार जानेके लिये सेतुरूपा, भवसागरसेतुका=भवसागरसे ७८०. मनोमयी= मनःस्वरूपा, ७८१ दारुमयी-काष्ठकी बनी, ७८२. सैकती-सिकतासे पूर्ण, ७८३, सिकतामयी = वालुकासे परिपूर्ण या वालुकामयी ॥१०१- १०२ ॥

७८४. लेख्या- चित्रमयी, ७८५. लेप्या-मिट्टीकी प्रतिमा, ७८६. मणिमयी-मणिनिर्मित प्रतिमा, ७८७. प्रतिमा हेमनिर्मिता सोनेकी बनी प्रतिमा, ७८८. शैली- शिलामयी प्रतिमा, ७८९. शैलभवा-पर्वतसे प्रकट प्रतिमा, ७९०, शीला शीलयुक्ता अथवा शीलस्वरूपा, ७९१. शीकराभा - जलकणों अथवा जलकी फुहारोंसे शोभित, ७९२. चला चलस्वरूपा, ७९३. अचला- अचलस्वरूपा ॥ ७९४. अस्थिता=अस्थिर, ७९५. सुस्थिता = सुस्थिर, ७९६. तूली - तूलिका, ७९७. वैदिकी- वेदोक्त पद्धति, ७९८. तान्त्रिकी= तन्त्रोक्त पद्धति, ७९९. विधि:- विधिवाक्यस्वरूपा, ८००. संध्या = रात और दिनकी संधिवेला, ८०१. संध्याभ्रवसना-संध्या- कालिक बादल या आकाशकी भाँति लाल वस्त्रवाली, ८०२. वेदसंधि:- वेदमन्त्रोंमें संधि (संहिता) स्वरूपा, ८०३. सुधामयी अमृतमयी ।।१०३- १०४ ॥

८०४. सायंतनी सायंकालिकी शोभा, ८०५. शिखा = ज्वालामयी, ८०६. अवेध्या-अभेदनीया, ८०७. सूक्ष्मा-सूक्ष्मस्वरूपा, ८०८. जीवकला = जीवरूप भगवत्कला, ८०९. कृतिः = कृतिरूपा, ८१०. आत्मभूता = सबकी आत्मस्वरूपा, ८११. भाविता - ध्यान या भावनाकी विषयभूता, ८१२. अण्वी सूक्ष्मस्वरूपा, ८१३. प्रह्वी-विनयशीला, ८१४. कमलकर्णिका -हृदय-कमलकी कर्णिकामें ध्येया ॥ १०५ ॥

८१५. नीराजनी- आरती, ८१६. महाविद्या = तत्त्वसाक्षात्कार करानेवाली महावाक्यबोधात्मिका महाविद्या, अथवा ब्रह्मविद्यारूपा महाविद्या, ८१७. कंदली - सुखकी अङ्करस्वरूपा, ८१८. कार्यसाधनी = भक्तजनोंके अभीष्ट कार्यको सिद्ध करनेवाली, ८१९. पूजा- अर्चना, ८२०. प्रतिष्ठा स्थापना, ८२१. विपुला = विपुलस्वरूपा, ८२२. पुनन्ती पवित्र करनेवाली, ८२३. पारलौकिकी-परलोकके लिये हितकारिणी ॥ १०६ ॥

८२४ शुक्लशुक्तिः = श्वेत सीपी या सितुहीकी उपलब्धिका स्थान, ८२५. मौक्तिका - मुक्तास्वरूपा, ८२६. प्रतीतिः प्रतीतिस्वरूपा, ८२७. परमेश्वरी = परमेश्वरप्रिया, ८२८. विरजा-निर्मला, ८२९. उष्णिक् = वैदिक छन्द- विशेष, ८३०. विराड्-विराट्- रूपा, ८३१. वेणी-त्रिवेणीरूपा, ८३२. वेणुका - वंशीरूपिणी, ८३३. वेणुनादिनी वेणु नाद करनेवाली - बाँसुरीकी तान छेड़नेवाली ॥ १०७ ॥

८३४.आवर्तिनी - भँवरोंसे युक्ता, ८३५. वार्तिकदा- वार्तिकदायिनी, ८३६. वार्ता - कृषि, गोरक्षा और वाणिज्यके भेदसे त्रिविध वार्ता, ८३७. वृत्तिः - जीविकारूपा, ८३८. विमानगा-विमानपर यात्रा करने-वाली, ८३९. रासाढ्या रासजनित सुखसे सम्पन्न, ८४०. रासिनी - रासपरायणा, ८४१. रासा= रासस्वरूपा, ८४२. रासमण्डलवर्तिनी - रासमण्डलमें वर्तमान ॥ १०८ ॥

८४३. गोपगोपीश्वरी-गोपों तथा गोपाङ्गनाओंकी आराध्या ईश्वरी, ८४४. गोपी गोपीरूपा, ८४५. गोपी- गोपालवन्दिता=गोपियों और ग्वालोंसे वन्दित, ८४६. गोचारिणी - अपने तटपर गौओंको चरनेके लिये स्थान और सुविधा देनेवाली, ८४७. गोपनदी - गोपोंकी नदी, ८४८. गोपानन्दप्रदायिनी - गोपोंको आनन्द प्रदान करनेवाली ॥ १०९ ॥

८४९. पशव्यदा= पशुओंके लिये हितकर घास प्रदान करनेवाली, ८५०. गोपसेव्या= गोपोंके द्वारा सेवनीया, ८५१. कोटिशो गोगणावृता-करोड़ों गौओंके समुदायसे घिरी हुई, ८५२. गोपानुगा = गोपगण जिनका अनुगमन हुई, ८५२. गोपानुगा- गोपगण जिनका अनुगमन करते हैं या गोप जिनके सेवक हैं, ऐसी, ८५३. गोपवती-गोपोंसे युक्त, ८५४. गोविन्दपदपादुका- गोविन्द चरणोंकी पादुकास्वरूपा ॥ ११० ॥

८५५. वृषभानुसुता = वृषभानुनन्दिनी राधासे अभिन्न, ८५६. राधा = श्रीकृष्णकी आराध्या राधा-स्वरूपा, ८५७. श्रीकृष्णवशकारिणी= श्रीकृष्णको वशमें कर लेनेवाली, ८५८. कृष्णप्राणाधिका= श्रीकृष्णको प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय, ८५९. शश्वद्रसिका नित्यरसिका, ८६०.

रसिकेश्वरी= रसिकोंकी ईश्वरी ॥ १११ ॥

८६१. अवटोदा-अवटोदा नामकी नदी, ८६२. ताम्रपर्णी- ताम्रपर्णी नामकी नदी, ८६३. कृतमाला = इसी नामवाली नदी, ८६४. विहायसी-विहायसी नदी, ८६५. कृष्णा कृष्णा नदी, ८६६. वेणी-वेणी नामकी नदी, ८६७. भीमरथी- भीमा नामकी नदी, ८६८. तापी-तपती नामकी नदी ८६९. रेवा नर्मदा, ८७०. महापगा- विशाल नदी अथवा महानदी नामकी नदी ॥

८७१. वैयासकी-वैयासकी (व्यास) नदी, ८७२. कावेरी=कावेरी नदी, ८७३. तुङ्गभद्रा = तुङ्गभद्रा नामकी नदी, ८७४. सरस्वती सरस्वती नदी, ८७५. चन्द्रभागा = चिनाब नदी, ८७६. वेत्रवती = बेतबा नदी, ८७७ ऋषिकुल्या- इसी नामकी नदी, ८७८. ककुद्मिनी = ककुद्मिनी नदी ॥११२-११३ ॥

८७९. गौतमी गोदावरी, ८८०. कौशिकी-कोसी नदी, ८८९. सिन्धुः = सिन्धु नदी, ८८२. बाण- गङ्गा-अर्जुनके बाणसे प्रकट हुई पातालगङ्गा, ८८३. अतिसिद्धिदा अत्यन्त सिद्धि प्रदान करनेवाली, ८८४. गोदावरी-गौतमी, ८८५. रत्नमाला नदी, ८८६. गङ्गा-गङ्गा नदी, ८८७. मन्दाकिनी आकाश-गङ्गा, ८८८. बला= बला नामकी नदी ॥ ११४ ॥

८८९. स्वर्णदी= स्वर्गलोककी नदी गङ्गा, ८९०. जाह्नवी = जह्नुनन्दिनी गङ्गा, ८९१. वेला-वेला नदी, ८९२. वैष्णवी विष्णुकुल्या, ८९३. मङ्गलालया=मङ्गलका आवास, ८९४. बाला- बाला नदी, ८९५. विष्णुपदी- गङ्गा, ८९६. सिन्धुसागरसंगता गङ्गासागर-संगम- स्वरूपा ॥

८९७. गङ्गासागरशोभाढ्या - गङ्गा और सागरके संगमकी शोभासे सम्पन्न, ८९८. सामुद्री समुद्रप्रिया, ८९९. रत्नदा-रत्न प्रदान करनेवाली, ९००. धुनी नदीरूपा, ९०१. भागीरथी = राजा भगीरथके द्वारा लायी गयी गङ्गा, ९०२. स्वर्धुनीभूः – गङ्गा के प्राकट्य- की भूमि, ९०३. श्रीवामनपदच्युता= श्रीवामन के चरणों से च्युत हुई ॥ ११५-११६ ॥

९०४. लक्ष्मीः=लक्ष्मीस्वरूपा, ९०५. रमा - पद्मा, ९०६. रमणीया= रमणीयतासे

युक्त, ९०७. भार्गवी - भृगुपुत्री, ९०८. विष्णुवल्लभा भगवान् विष्णुकी प्रिया, ९०९. सीता= सीतास्वरूपा, ९१०. अर्चि : = अग्निज्वालारूपिणी, ९११. जानकी जनक- नन्दिनी, ९१२. माता जगज्जननी, ९१३. कलङ्क-रहिता- निष्कलङ्का, ९१४. कला-भगवत्कला-स्वरूपा ॥ ११७ ॥

९१५. कृष्णपादाब्जसम्भूता श्रीकृष्णके चरणारविन्दों- से प्रकट हुई, ९१६. सर्वा= सर्वस्वरूपा, ९१७. त्रिपथगामिनी = त्रिपथगा गङ्गा, ९१८. धरा - धरणी- स्वरूपा, ९१९. विश्वम्भरा = विश्वका भरण-पोषण करनेवाली, ९२०. अनन्ता= अन्तरहिता, ९२१. भूमिः = आधारभूमिस्वरूपा, ९२२. धात्री = धाय, ९२३. क्षमामयी क्षमास्वरूपा ॥ ११८ ॥

९२४. स्थिरा-स्थिरस्वरूपा, ९२५. धरित्री- धारण करनेवाली, ९२६. धरणी लोकधारणी पृथ्वी, ९२७. उर्वी भूमि, ९२८. शेषफणस्थिता - शेषनागके फणोंपर रहनेवाली, ९२९. अयोध्या-जिसके साथ युद्ध न किया जा सके, ऐसी अजेय पुरी, ९३०. राघवपुरी - राघवेन्द्रकी नगरी, ३१. कौशिकी-कुशिकवंशजा, ९३२. रघुवंशजा - रघुकुलमें उत्पन्न होनेवाली ॥ ११९ ॥

९३३. मथुरा-मथुरा-नगरी, ९३४. माथुरी मथुरा- मण्डलमें प्रकट, ९३५. पन्था - मार्गस्वरूपा, ९३६. यादवी यदुवंशियोंकी नगरी, ९३७. ध्रुवपूजिता-ध्रुवसे प्रशंसित, ९३८. मयायुः= मयासुरको आयु प्रदान करने- वाली, ९३९. बिल्वनीलोदा-बिल्वके समान नील रंगके जलवाली, ९४०. गङ्गाद्वारविनिर्गता-हरद्वारसे निकली हुई ॥ १२० ॥

४१. कुशावर्तमयी कुशावर्तनामक तीर्थस्वरूपा, ९४२.धौव्या- ध्रुवत्वसे युक्त, ९४३. ध्रुवमण्डलमध्यगा -ध्रुवमण्डलके बीचसे निकली हुई, ९४४. काशी- वाराणसी, ९४५. शिवपुरी - शिवकी नगरी, ९४६. शेषा-शेषस्वरूपा, ९४७. विन्ध्या= विन्ध्यस्वरूपा, ९४८. वाराणसी काशी, ९४९. शिवा- शिवास्वरूपा ॥ १२१ ॥

९५०. अवन्तिका = मालव प्रदेशकी राजधानी और महाकालकी नगरी, ९५१. देवपुरी-देवनगरी, ९५२. प्रोज्ज्वला - प्रकृष्ट शोभासे सम्पन्न, ९५३. उज्जयिनी = उज्जैन, ९५४. जिता-जितस्वरूपा, ९५५. द्वारावती = द्वारकापुरी, ९५६. द्वारकामा- द्वारकी कामनावाली, ९५७. कुशभूता - कुशके प्रकट होनेका स्थान, ९५८. कुशस्थली- कुशोंकी उत्पत्ति-स्थली द्वारका ॥ १२२ ॥

९५९. महापुरी - महानगरी, ९६०. सप्तपुरी-सप्त- पुरीस्वरूपा, ९६१. नन्दिग्रामस्थलस्थिता - नन्दिग्रामके स्थलमें स्थित सरयू अथवा यमुना, ९६२. शालग्राम- शिलादित्या शालग्रामशिलाकी उत्पत्तिका स्थान गण्डकी नदी, ९६३. सम्भलग्राममध्यगा=सम्भल ग्रामके मध्यमें गयी हुई ॥ १२३ ॥

९६४. वंशगोपालिनी- वंशगोपाल- मन्त्रसे युक्त, ९६५. क्षिप्ता- क्षिप्तस्वरूपा, ९६६. हरिमन्दिरवर्तिनी= भगवान् के मन्दिरमें विद्यमान, ९६७. बर्हिष्मती - बर्हिष्मती नामकी नगरी, ९६८. हस्तिपुरी- हस्तिनापुर- नगरी, ९६९. शक्रप्रस्थनिवासिनी इन्द्रप्रस्थ (देहली) में निवास करनेवाली ॥ १२४ ॥

९७०. दाडिमी - दाड़िमफलस्वरूपा, ९७१. सैन्धवी-सिन्धुप्रिया, ९७२. जम्बूः = जम्बूनदीरूपा, ९७३. पौष्करी= पुष्करद्वीपसे सम्बन्ध रखनेवाली, ९७४. पुष्करप्रसूः- पुष्करकी उत्पत्तिका स्थान, ९७५. उत्पलावर्तगमना-उत्पलावर्त तीर्थमें जानेवाली, ९७६. नैमिषी=  नैमिषारण्यवासिनी ॥ १२५ ॥

९७७. अनिमिषादृता- देवपूजिता, ९७८. कुरुजाङ्गलभूः कुरुजाङ्गलदेशमें प्रकट, ९७९.

काली कृष्णवर्णा अथवा काली गङ्गा, ९८०. हैमवती - हिमालयसे उत्पन्न, ९८१. आर्बुदी = आबूमें प्रकट, ९८२. बुधा=विदुषी, ९८३. शूकरक्षेत्र- विदिता = शूकरक्षेत्रमें प्रसिद्ध, ९८४. श्वेतवाराह- धारिता-श्वेतवाराहके द्वारा धारित ॥ १२६ ॥

९८५. सर्वतीर्थमयी- सर्वतीर्थस्वरूपा, ९८६. तीर्था - तीर्थभूता, ९८७. तीर्थानां तीर्थकारिणी तीर्थोंको तीर्थ बनानेवाली, ९८८. हारिणी सर्वदोषाणाम्-सब दोषोंको हर लेनेवाली, ९८९. दायिनी सर्वसम्पदाम् सब सम्पत्तियोंको देनेवाली ॥ १२७ ॥

९९०. वर्धिनी तेजसाम् तेजको बढ़ानेवाली, ९९१. साक्षात् = प्रत्यक्ष प्रकट, ९९२. गर्भवास निकृन्तनी= माताके गर्भमें वास करनेके कष्टका उच्छेद करनेवाली, ९९३. गोलोकधाम = गोलोककी प्रकाश-रूपा, ९९४. धनिनी= धनसे सम्पन्न, ९९५. निकुञ्ज-निजमञ्जरी= निकुञ्जमें अपनी मञ्जरियोंके साथ रहनेवाली ॥ १२८ ॥

९९६. सर्वोत्तमा = सबसे उत्तम, ९९७. सर्वपुण्या सर्वाधिक पुण्यशालिनी, ९९८. सर्वसौन्दर्यशृङ्खला = सम्पूर्ण सुन्दरताको बाँध रखनेवाली, ९९९, सर्वतीर्थोपरिगता-सब तीर्थोंके ऊपर पहुँची हुई, १०००. सर्वतीर्थाधिदेवता = सम्पूर्ण तीर्थोंकी अधिदेवी ॥ १२९ ॥

 

कालिन्दी के सहस्रनाम का वर्णन कीर्ति देनेवाला तथा उत्तम कामपूरक है। यह बड़े-बड़े पापोंको हर लेता, पुण्य देता और आयुको बढ़ानेवाला श्रेष्ठ साधन है। रातमें एक बार इसका पाठ कर ले तो चोरोंसे भय नहीं होता । रास्तेमें दो बार पढ़ ले तो डाकू और लुटेरोंसे कहीं भय नहीं होता । द्विजको चाहिये कि वह द्वितीयासे पूर्णिमातक प्रतिदिन कालिन्दी देवीका ध्यान करके भक्तिभावसे दस बार इस सहस्रनामका पाठ करे; ऐसा करनेसे यदि रोगी हो तो रोगसे छूट जाता है, कैदमें पड़ा हो तो वहाँके बन्धन से मुक्त हो जाता है, गर्भिणी नारी हो तो वह पुत्र पैदा करती है और विद्यार्थी हो तो वह पण्डित होता है । मोहन, स्तम्भन, वशीकरण, उच्चाटन, मारण, शोषण, दीपन, उन्मादन, तापन, निधिदर्शन आदि जो-जो वस्तु मनुष्य मनमें चाहता है, उस-उसको वह प्राप्त कर लेता है ॥ १३० - १३५ ॥

इसके पाठसे ब्राह्मण ब्रह्मतेजसे सम्पन्न होता है, क्षत्रिय पृथ्वीका आधिपत्य प्राप्त करता है, वैश्य खजानेका मालिक होता है और शूद्र इसको सुनकर निर्मल- शुद्ध हो जाता है ॥ १३६ ॥

जो पूजाकालमें प्रतिदिन भक्तिभावसे इसका पाठ करता है, वह जलसे अलिप्त रहनेवाले कमलपत्रकी भाँति पापोंसे कभी लिप्त नहीं होता ॥ १३७ ॥

जो लोग एक वर्षतक पटल और पद्धतिकी विधिका पालन करके प्रतिदिन इस सहस्रनामका सौ बार पाठ करते हैं और उसके बाद स्तोत्र और कवच पढ़ते हैं, वे सातों द्वीपोंसे युक्त पृथिवीका राज्य प्राप्त कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है। जो यमुनाजीमें भक्तिभाव रखकर निष्कामभावसे इसका पाठ करता है, वह पुण्यात्मा धर्म-अर्थ-काम- इस त्रिवर्गको पाकर इस जीवनमें ही जीवन्मुक्त हो जाता है। जो इस प्रसङ्गका पाठ करता है, वह निकुञ्जलीलासे ललित, मनोहर तथा कालिन्दीतटके लता-समुदायोंसे विलसित वृन्दावनके मतवाले भ्रमरोंसे अनुनादित गोलोकधाममें पहुँच जाता है ।। १३८ - १४१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीसौभरि और मांधाताके संवादमें 'यमुना-सहस्रनामका वर्णन' नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १९ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

वसुदेवस्य देवक्यां जातो भोजेन्द्रबन्धने ।
चिकीर्षुर्भगवानस्याः शमजेनाभियाचितः ॥ २५ ॥
ततो नन्दव्रजमितः पित्रा कंसाद् विबिभ्यता ।
एकादश समास्तत्र गूढार्चिः सबलोऽवसत् ॥ २६ ॥
परीतो वत्सपैर्वत्सान् चारयन् व्यहरद्विभुः ।
यमुनोपवने कूजद् द्विजसङ्कुलिताङ्‌घ्रिपे ॥ २७ ॥

ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे पृथ्वीका भार उतारकर उसे सुखी करनेके लिये कंसके कारागार में वसुदेव-देवकी के यहाँ भगवान्‌ ने अवतार लिया था ॥ २५ ॥ उस समय कंस के डर से पिता वसुदेवजी ने उन्हें नन्दबाबा के व्रज में पहुँचा दिया था। वहाँ वे बलरामजी के साथ ग्यारह वर्ष तक इस प्रकार छिपकर रहे कि उनका प्रभाव व्रजके बाहर किसीपर प्रकट नहीं हुआ ॥ २६ ॥ यमुनाके उपवनमें, जिसके हरे-भरे वृक्षोंपर कलरव करते हुए पक्षियोंके झुंड-के-झुंड रहते हैं, भगवान्‌ श्रीकृष्णने बछड़ोंको चराते हुए ग्वाल-बालोंकी मण्डलीके साथ विहार किया था ॥ २७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय

 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

उन्नीसवाँ अध्याय

 

यमुना - सहस्रनाम (संस्कृत)

 

मान्धातोवाच -
नाम्नां सहस्रं कृष्णायाः सर्वसिद्धिकरं परम् ।
वद मां मुनिशार्दूल त्वं सर्वज्ञो निरामयः ॥ १ ॥


सौभरिरुवाच -
नाम्ना सहस्रं कालिंद्या मान्धातस्ते वदाम्यहम् ।
सर्वसिद्धिकरं दिव्यं श्रीकृष्णवशकारकम् ॥ २ ॥
ॐअस्य श्रीकालिन्दीसहस्रनामस्तोत्रमंत्रस्य
सौभरिऋषिः श्रीयमुना देवताः अनुष्टुप् छंदः
मायाबीजमिति कीलकम् रमाबीजमिति शक्तिः
श्रीकलिंदनन्दिनी प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।


अथ ध्यानम् ।


श्यामामंभोजनेत्रां सघनघनरुचिं
     रत्‍नमञ्जीरकूजत्
काञ्जीकेयुरयुक्तां कनकमणीमये
     बिभ्रतीं कुण्डले द्वे ।
भ्राजच्छ्रीनीलवस्त्र स्फुरदमलचल-
     द्धारभारां मनोज्ञां
ध्यायेन्मार्तंडपुत्रीं तनुकिरणचयो-
     द्दीप्तपाभिरामाम् ॥ ३ ॥


इति ध्यानम् ।


ॐकालिन्दी यमुना कृष्णा कृष्णरूपा सनातनी ।
कृष्णवामांससंभूता परमानदरुपिणी ॥ ४ ॥
गोलोकवासिनी श्यामा वृन्दावनविनोदिनी ।
राधासखी रासलीला रासमंडलमंडनी ॥ ५ ॥
निकुञ्जमाधवीवल्ली रंगवल्ली मनोहरा ।
श्रीरासमण्डलीभूता यूथीभूता हरिप्रिया ॥ ६ ॥
गोलोकतटिनी दिव्या निकुञ्जतलवासिनी ।
दीर्घोर्मिवेग गंभीरा पुष्पपल्लववाहिनी ॥ ७ ॥
घनश्यामा मेघमाला बलाका पद्ममालिनी ।
परिपूर्णतमा पूर्णा पूर्णब्रह्मप्रिया परा ॥ ८ ॥
महावेगवती साक्षान्निकुञ्जद्वारनिर्गता ।
महानदी मंदगतिर्विरजा वेगभेदनी ॥ ९ ॥
अनेकब्रह्मांडगता ब्रह्मद्रवसमाकुला ।
गंगामिश्रा निर्जलाभा निर्मला सरितां वरा ॥ १० ॥
रत्‍नबद्धोभयतटी हंसपद्मादिसंकुला ।
नदी निर्मलपानीया सर्वब्रह्मांडपावनी ॥ ११ ॥
वैकुण्ठपरिखीभूता परिखा पापहारिणी ।
ब्रह्मलोकगता ब्राह्मी स्वर्गा स्वर्गनिवासिनी ॥ १२ ॥
उल्लसन्ती प्रोत्पतंती मेरुमाला महोज्ज्वला ।
श्रीगंगांभःशिखरिणी गंडशैलविभेदिनी ॥ १३ ॥
देशान्पुनन्ती गच्छन्ती वहंती भूमिमध्यगा ।
मार्तण्डतनुजा पुण्या कलिन्दगिरिनन्दिनी ॥ १४ ॥
यमस्वसा मन्दहासा सुद्विजा रचिताम्बरा ।
नीलांबरा पद्ममुखी चरंती चारुदर्शना ॥ १५ ॥
रंभोरूः पद्मनयना माधवी प्रमदोत्तमा ।
तपश्चरंती सुश्रोणी कूजन्नूपुरमेखला ॥ १६ ॥
जलस्थिता श्यामलांगी खाण्डवाभा विहारिणी ।
गांडीविभाषिणी वन्या श्रीकृष्णं वरमिच्छती ॥ १७ ॥
द्वारकागमना राज्ञी पट्टराज्ञी परंगता ।
महाराज्ञी रत्‍नभूषा गोमतीतीरचारिणी ॥ १८ ॥
स्वकीया च सुखा स्वार्था स्वभक्तकार्यसाधिनी ।
नवलाङ्गाबला मुग्धा वरांगा वामलोचना ॥ १९ ॥
अज्ञातयौवना दीना प्रभाकान्तिर्द्युतिश्छविः ।
सुशोभा परमा कीर्तिः कुशलाऽज्ञातयौवना ॥ २० ॥
नवोढा मध्यगा मध्या प्रौढिः प्रौढा प्रगल्भका ।
धीराऽधीरा धैर्यधरा जेष्ठा श्रेष्ठा कुलांगना ॥ २१ ॥
क्षणप्रभा चञ्चलार्चा विद्युत्सौदामिनी तडित् ।
स्वाधीनपतिका लक्ष्मीः पुष्टा स्वाधीनभर्तृका ॥ २२ ॥
कलहान्तरिता भीरुरिच्छाप्रोत्कण्ठिताकुला ।
कशिपुस्था दिव्यशय्या गोविंदहृतमानसा ॥ २३ ॥
खंडिताखण्डशोभाढ्या विप्रलब्धाभिसारिका ।
विरहार्ता विरहिणी नारी प्रोषितभर्तृका ॥ २४ ॥
मानिनी मानदा प्राज्ञा मन्दारवनवासिनी ।
झंकारिणी झणत्कारी रणन्मञ्जीरनूपुरा ॥ २५ ॥
मेखलाऽमेखला काञ्ची काञ्चीनी काञ्चनामयी ।
कंचुकी कंचुकमणिः श्रीकण्ठाढ्या महामणिः ॥ २६ ॥
श्रीहारिणी पद्महारा मुक्ता मुक्तफलार्चिता ।
रत्‍नकंकणकेयूरा स्फुरदंगुलिभूषणा ॥ २७ ॥
दर्पणा दर्पणीभूता दुष्टदर्पविनाशिनी ।
कंबुग्रीवा कंबुधरा ग्रैवेयकविराजिता ॥ २८ ॥
ताटंकिनी दंतधरा हेमकुण्डलमण्डिता ।
शिखाभूषा भालपुष्पा नासामौक्तिकशोभिता ॥ २९ ॥
मणिभूमिगता देवी रैवताद्रिविहारिणी ।
वृन्दावनगता वृन्दा वृन्दारण्यनिवासिनी ॥ ३० ॥
वृन्दावनलता माध्वी वृन्दारण्यविभूषणा ।
सौंदर्यलहरी लक्ष्मीर्मथुरातीर्थवासिनी ॥ ३१ ॥
विश्रांतवासिनी काम्या रम्या गोकुलवासिनी ।
रमणस्थलशोभाढ्या महावनमहानदी ॥ ३२ ॥
प्रणता प्रोन्नता पुष्टा भारती भरतार्चिता ।
तीर्थराजगतिर्गोत्रा गंगासागरसंगमा ॥ ३३ ॥
सप्ताब्धिभेदिनी लोला सप्तद्वीपगता बलात् ।
लुठन्ती शैलान् भिद्यंती स्फुरंती वेगवत्तरा ॥ ३४ ॥
काञ्चनी कञ्चनीभूमिः काञ्चनीभूमिभाविता ।
लोकदृष्टिर्लोकलीला लोकालोकाचलार्चिता ॥ ३५ ॥
शैलोद्‌गता स्वर्गगता स्वर्गर्चा स्वर्गपूजिता ।
वृन्दावनी वनाध्यक्षा रक्षा कक्षा तटीपटी ॥ ३६ ॥
असिकुण्डगता कच्छा स्वच्छन्दोच्छलितादिजा ।
कुहरस्था रथप्रस्था प्रस्था शांततराऽऽतुरा ॥ ३७ ॥
अंबुच्छटा शीकराभा दर्दुरा दार्दुरीधरा ।
पापांकुशा पापसिंही पापद्रुमकुठारिणी ॥ ३८ ॥
पुण्यसंघा पुण्यकीर्तिः पुण्यदा पुण्यवर्द्धिनी ।
मधोर्वननदी मुख्या अतुला तालवनस्थिता ॥ ३९ ॥
कुमुद्वननदी कुब्जा कुमुदांभोजवर्द्धिनी ।
प्लवरूपा वेगवती सिंहसर्पादिवाहिनी ॥ ४० ॥
बहुली बहुदा बह्वी बहुला वनवन्दिता ।
राधाकुण्डकलाराध्या कृष्णकुण्डजलाश्रिता ॥ ४१ ॥
ललिताकुण्डगा घंटा विशाखाकुण्डमंडिता ।
गोविन्दकुण्डनिलया गोपकुण्डतरंगिणी ॥ ४२ ॥
श्रीगंगा मानसी गंगा कुसुमांबरभाविनी ।
गोवर्धिनी गोधनाढ्या मयूरी वरवर्णिनी ॥ ४३ ॥
सारसी नीलकंठाभा कूजत्कोकिलपोतकी ।
गिरिराजप्रसूर्भूरिरातपत्राऽऽतपत्रिणी ॥ ४४ ॥
गोवर्धनांका गोदंती दिव्यौषधिनिधिः सृतिः ।
पारदी पारदमयी नारदी शारदी भृतिः ॥ ४५ ॥
श्रीकृष्णचरणांकस्था कामा कामवनाञ्चिता ।
कामाटवी नन्दिनी च नन्दग्राममहीधरा ॥ ४६ ॥
बृहत्सानुद्युतिः प्रोता नन्दीश्वरसमन्विता ।
काकली कोकिलमयी भांडीरकुशकौशला ॥ ४७ ॥
लोहार्गलप्रदा कारा काश्मीरवसनावृता ।
बर्हिषदी शोणपुरी शूरक्षेत्रपुराधिका ॥ ४८ ॥
नानाऽऽभरणशोभाढ्या नानावर्णसमन्विता ।
नानानारीकंदबाढ्या रंगा रंगमहीरुहा ॥ ४९ ॥
नानालोकगताभ्यर्चिः नानाजलसमन्विता ।
स्त्रीरत्‍नं रत्‍ननिलया ललनारत्‍नरञ्जिनी ॥ ५० ॥
रंगिणी रंगभूमाढ्या रंगा रंगमहीरुहा ।
राजविद्या राजगुह्या जगत्कीर्तिर्घनाऽघना ॥ ५१ ॥
विलोलघंटा कृष्णांगा कृष्णदेहसमुद्‌भवा ।
नीलपंकजवर्णाभा नीलपंकजहारिणी ॥ ५२ ॥
निलाभा नीलपद्माढ्या नीलांभोरुहवासिनी ।
नागवल्ली नागपुरी नागवल्लीदलार्चिता ॥ ५३ ॥
ताम्बूलचर्चिता चर्चा मकरन्दमनोहरा ।
सकेसरा केसरिणी केशपाशाभिशोभिता ॥ ५४ ॥
कज्जलाभा कज्जलाक्ता कज्जली कलिताञ्जना ।
अलक्तचरणा ताम्रा लाला ताम्रीकृतांबरा ॥ ५५ ॥
सिन्दूरिताऽलिप्तवाणी सुश्रीः श्रीखंडमंडिता ।
पाटीरपंकवसना जटामांसीरुचाम्बरा ॥ ५६ ॥
आगर्य्यगुरुगन्धाक्ता तगराश्रितमारुता ।
सुगन्धितैलरुचिरा कुन्तलालिः सकुन्तला ॥ ५७ ॥
शकुन्तलाऽपांसुला च पातिव्रत्यपरायणा ।
सूर्यप्रभा सूर्यकन्या सूर्यदेहसमुद्‌भवा ॥ ५८ ॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशा सूर्यजा सूर्यनन्दिनी ।
संज्ञा संज्ञासुता स्वेच्छा संज्ञामोदप्रदायिनी ॥ ५९ ॥
संज्ञापुत्री स्फुरच्छाया तपती तापकारिणी ।
सावर्ण्यानुभवा वेदी वडवा सौख्यदायिनी ॥ ६० ॥
शनैश्चरानुजा कीला चन्द्रवंशविवर्द्धिनी ।
चन्द्रवंशवधूश्चद्रा चन्द्रावलिसहायिनी ॥ ६१ ॥
चन्द्रावती चन्द्रलेखा चन्द्रकांतानुगांशुका ।
भैरवी पिंगलाशंकी लीलावत्यागरीमयी ॥ ६२ ॥
धनश्रीर्देवगान्धारी स्वर्मणिर्गुणवर्द्धिनी ।
व्रजमल्ला बन्धकारी विचित्रा जयकारिणी ॥ ६३ ॥
गान्धारी मञ्जरी टोडी गुर्ज्जर्य्यासावरी जया ।
कर्णाटी रागिणी गौरी वैराटी गौरवाटिका ॥ ६४ ॥
चतुश्चन्द्रा कला हेरी तैलंगी विजयावती ।
ताली तलस्वरा गाना क्रियामात्रप्रकाशिनी ॥ ६५ ॥
वैशाखी चाचला चारुर्माचारी घूघटी घटा ।
वैहागरी सोरठीशा कैदारी जलधारिका ॥ ६६ ॥
कामाकरश्रीः कल्याणी गौडकल्याणमिश्रिता ।
राजसंजीविनी हेला मन्दारी कामरूपिणी ॥ ६७ ॥
सारंगी मारुती होढा सागरी कामवादिनी ।
वैभासी मंगला चान्द्री रासमंडलमंडना ॥ ६८ ॥
कामधेनुः कामलता कामदा कमनीयका ।
कल्पवृक्षस्थली स्थूला सुधासौधनिवासिनी ॥ ६९ ॥
गोलोकवासिनी सुभ्रूः यष्टिभृद्‍द्वारपालिका ।
शृङ्गारप्रकरा शृङ्गा स्वच्छा शय्योपकारिका ॥ ७० ॥
पार्षदा सुसखीसेव्या श्रीवृन्दावनपालिका ।
निकुञभृत्कुंजपुञ्जा गुञ्जाभरणभूषिता ॥ ७१ ॥
निकुञ्जवासिनी प्रोष्या गोवर्धनतटीभवा ।
विशाखा ललिता रामा नीरुजा मधुमाधवी ॥ ७२ ॥
एका नैकसखी शुक्ला सखीमध्या महामनाः ।
श्रुतिरूपा ऋषिरूपा मैथिलाः कौशलाः स्त्रियः ॥ ७३ ॥
अयोध्यापुरवासिन्यो यज्ञसीताः पुलिंदकाः ।
रमावैकुण्ठवासिन्यः श्वेतद्वीपसखीजनाः ॥ ७४ ॥
ऊर्ध्ववैकुण्ठवासिन्यो द्विव्याऽजितपदाश्रिताः ।
श्रीलोकचलवासिन्यः श्रीसख्यः सागरोद्‌भवाः ॥ ७५ ॥
दिव्या अदिव्या दिव्यांगा व्याप्तास्त्रिगुणवृत्तयः ।
भूमिगोप्यो देवनार्यो लता ओषधिवीरूधः ॥ ७६ ॥
जालंधर्य्यः सिन्धुसुताः पृथुबर्हिष्मतीभवाः ।
दिव्यांबरा अप्सरसः सौतला नागकन्यकाः ॥ ७७ ॥
परं धाम परं ब्रह्म पौरुषा प्रकृतिः परा ।
तटस्था गुणभूर्गीता गुणागुणमयी गुणा ॥ ७८ ॥
चिद्‌घना सदसन्माला दृष्टिर्दृश्या गुणाकरी ।
महत्तत्वमहंकारो मनो बुद्धिः प्रचेतना ॥ ७९ ॥
चेतो वृत्तिः स्वांतरात्मा चतुर्थी चतुरक्षरा ।
चतुर्व्यूहा चतुर्मूर्तिः व्योमवायुरदो जलम् ॥ ८० ॥
मही शब्दो रसो गन्धः स्पर्शो रूपमनेकधा ।
कर्मेन्द्रियं कर्ममयी ज्ञानं ज्ञानेन्द्रियं द्विधा ॥ ८१ ॥
त्रिधाधिभूतमध्यात्ममधिदैवमधिस्थितम् ।
ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिः सर्वदेवाधिदेवता ॥ ८२ ॥
तत्वसंघा विराण्मूर्तिः धारणा धारणामयी ।
श्रुतिः स्मृतिर्वेदमूर्तिः संहिता गर्गसंहिता ॥ ८३ ॥
पाराशरी सैव सृष्टिः पारहंसी विधातृका ।
याज्ञवल्की भागवती श्रीमद्‌भागवतार्चिता ॥ ८४ ॥
रामायणमयी रम्या पुराणपुरुषप्रिया ।
पुराणमूर्तिः पुण्यांगा शास्त्रमूर्तिर्महोन्नता ॥ ८५ ॥
मनीषा धिषणा बुद्धिर्वाणी धीः शेमुषी मतिः ।
गायत्री वेदसावित्री ब्रह्माणी ब्रह्मलक्षणा ॥ ८६ ॥
दुर्गाऽपर्णा सती सत्या पार्वती चंडिकांबिका ।
आर्या दाक्षायणी दाक्षी दक्षयज्ञविघातिनी ॥ ८७ ॥
पुलोजमा शचीन्द्राणी देवी देववरार्पिता ।
वायुना धारिणी धन्या वायवी वायुवेगगा ॥ ८८ ॥
यमानुजा संयमनी संज्ञा छाया स्फुरद्द्युतिः ।
रत्‍नदेवी रत्‍नवृन्दा तारा तरणिमण्डला ॥ ८९ ॥
रुचिः शान्तिः क्षमा शोभा दया दक्षा द्युतिस्त्रपा ।
तलतुष्टिर्विभा पुष्टिः सन्तुष्टिः पुष्टभावना ॥ ९० ॥
चतुर्भुजा चारुनेत्रा द्विभुजाऽष्टभुजाऽबला ।
शंखहस्ता पद्महस्ता चक्रहस्ता गदाधरा ॥ ९१ ॥
निषंगधारिणी चर्मखड्गपाणिर्धनुर्द्धरा ।
धनुष्टंकारणी योध्री दैत्योद्‌भटविनाशिनी ॥ ९२ ॥
रथस्था गरुडारूढा श्रीकृष्णहृदयस्थिता ।
वंशीधरा कृष्णवेषा स्रग्विणी वनमालिनी ॥ ९३ ॥
किरीटधारिणी याना मन्दमन्दगतिर्गतिः ।
चन्द्रकोटिप्रतीकाशा तन्वी कोमलविग्रहा ॥ ९४ ॥
भैष्मी भीष्मसुता भीमा रुक्मिणी रूक्मरूपिणी ।
सत्यभामा जांबवती सत्या भद्रा सुदक्षिणा ॥ ९५ ॥
मित्रविन्दा सखीवृन्दा वृन्दारण्यध्वजोर्ध्वगा ।
शृङ्गारकारिणी शृङ्गा शृङ्गभूः शृङ्गदा खगा ॥ ९६ ॥
तितिक्षेक्षा स्मृतिःस्पर्धा स्पृहा श्रद्धा स्वनिर्वृतिः ।
ईशा तृष्णा भिदा प्रीतिः हिंसायाच्ञाक्लमा कृषिः ॥ ९७ ॥
आशा निद्रा योगनिद्रा योगिनी योगदाऽयुगा ।
निष्ठा प्रतिष्ठा शमितिः सत्वप्रकृतिरुत्तमा ॥ ९८ ॥
तमःप्रकृतिदुर्मर्षी रजःप्रकृतिरानतिः ।
क्रियाऽक्रिया कृतिर्ग्लानिः सात्विक्याध्यात्मिकी वृषा ॥ ९९ ॥
सेवाशिखामणिर्वृद्धिराहूतिः पिंगलोद्‌भवा ।
नागभाषा नागभूषा नागरी नगरी नगा ॥ १०० ॥
नौर्नौंका भवनौर्भाव्या भवसागरसेतुका ।
मनोमयी दारुमयी सैकती सिकतामयी ॥ १०१ ॥
लेख्या लेप्या मणिमयी प्रतिहेमविनिर्मिता ।
शैली शैलभवा शीला शीकराभा चलाऽचला ॥ १०२ ॥
अस्थिता सुस्थिता तूली वैदकी तांत्रिकी विधिः ।
संध्या संध्याभ्रवसना वेदसंधिः सुधामयी ॥ १०३ ॥
सायंतनी शिखा वेध्या सूक्ष्मा जीवकलाकृतिः ।
आत्मभूता भाविताऽण्वी प्रह्वी कमलकर्णिका ॥ १०४ ॥
नीराजनी महाविद्या कंदली कार्यसाधनी ।
पूजा प्रतिष्ठा विपुला पुनंती पारलौकिकी ॥ १०५ ॥
शुक्लशुक्तिर्मौक्तिकी च प्रतीतिः परमेश्वरी ।
विरजोष्णिग्विराड्वेणी वेणुका वेणुनादिनी ॥ १०६ ॥
आवर्तिनी वार्तिकदा वार्ता वृत्तिर्विमानगा ।
रासाढ्या रासिनी रासा रासमण्डलवर्तिनी ॥ १०७ ॥
गोपगोपीश्वरी गोपी गोपीगोपालवन्दिता ।
गोचारिणी गोपनदी गोपानन्दप्रदायिनी ॥ १०८ ॥
पशव्यदा गोपसेव्या कोटिशो गोगणावृता ।
गोपानुगा गोपवती गोविन्दपदपादुका ॥ १०९ ॥
वृषभानुसुता राधा श्रीकृष्णवशकारिणी ।
कृष्णप्राणाधिका शश्वद्‌रसिका रसिकेश्वरी ॥ ११० ॥
अवटोदा ताम्रपर्णी कृतमाला विहायसी ।
कृष्णा वेणी भीमरथी तापी रेवा महापगा ॥ १११ ॥
वैयासकी च कावेरी तुंगभद्रा सरस्वती ।
चन्द्रभागा वेत्रवती ऋषिकुल्या ककुद्मिनी ॥ ११२ ॥
गौतमी कौशिकी सिन्धुः बाणगंगाऽतिसिद्धिदा ।
गोदावरी रत्‍नमाला गंगा मन्दाकिनी बला ॥ ११३ ॥
स्वर्णदी जाह्नवी वेला वैष्णवी मंगलालया ।
बाला विष्णुपदी प्रोक्ता सिन्धुसागरसंगता ॥ ११४ ॥
गंगासागरशोभाढ्या सामुद्री रत्‍नदा धुनी ।
भागीरथी स्वर्धुनी भूः श्रीवामनपदच्युता ॥ ११५ ॥
लक्ष्मी रमा रमणीया भार्गवी विष्णुवल्लभा ।
सीताऽर्चिर्जानकी माता कलंकरहिता कला ॥ ११६ ॥
कृष्णपादाब्जसंभूता सर्वा त्रिपथगामिनी ।
धरा विश्वंभराऽनन्ता भूमिर्धात्री क्षमामयी ॥ ११७ ॥
स्थिरा धरित्री धरणी उर्वी शेषफणस्थिता ।
अयोध्या राघवपुरी कौशिकी रघुवंशजा ॥ ११८ ॥
मथुरा माथुरी पंथा यादवी ध्रुवपूजिता ।
मयायुर्बिल्वनीलोदा गंगाद्वारविनिर्गता ॥ ११९ ॥
कुशावर्तमयी ध्रौव्या ध्रुवमण्डलमध्यगा ।
काशी शिवपुरी शेषा विंध्या वाराणसी शिवा ॥ १२० ॥
अवंतिका देवपुरी प्रोज्ज्वलोज्जयिनी जिता ।
द्वारावती द्वारकामा कुशभूता कुशस्थली ॥ १२१ ॥
महापुरी सप्तपुरी नन्दिग्रामस्थलस्थिता ।
शालग्रामशिलादित्या शंभलग्राममध्यगा ॥ १२२ ॥
वंशगोपालिनी क्षिप्ता हरिमन्दिरवर्तिनी ।
बर्हिष्मती हस्तिपुरी शक्रप्रस्थनिवासिनी ॥ १२३ ॥
दाडिमी सैंधवी जंबूः पौष्करी पुष्करप्रसूः ।
उत्पलावर्तगमना नैमिषी नैमिषावृता ॥ १२४ ॥
कुरुजांगलभूः काली हैमवत्यर्बुदी बुधा ।
शूकरक्षेत्रविदिता श्वेतवाराहधारिता ॥ १२५ ॥
सर्वतीर्थमयी तीर्था तीर्थानां तीर्थकारिणी ।
हारिणी सर्वदोषाणां दायिनी सर्वसम्पदाम् ॥ १२६ ॥
वर्द्धिनी तेजसां साक्षाद्‌‌गर्भवासनिकृंतनी ।
गोलोकधामधनिनी निकुञ्जनिजमंजरी ॥ १२७ ॥
सर्वोत्तमा सर्वपुण्या सर्वसौंदर्यशृङ्खला ।
सर्वतीर्थोपरिगता सर्वतीर्थाधिदेवता ॥ १२८ ॥
श्रीदा श्रीशा श्रीनिवासा श्रीनिधिः श्रीविभावना ।
स्वक्षा स्वंगा शतानंदा नन्दा ज्योतिर्गणेश्वरी ॥ १२९ ॥
नाम्नां सहस्रं कालिंद्याः कीर्तिदं कामदं परम् ।
महापापहरं पुण्यं आयुर्वर्द्धनमुत्तमम् ॥ १३० ॥
एकवारं पठेद्‌रात्रौ चौरेभ्यो न भयं भवेत् ।
द्विवारं प्रपठेन्मार्गे दस्युभ्यो न भयं क्वचित् ॥ १३१ ॥
द्वितीयां तु समारभ्य पठेत्पूर्णावधिं द्विजः ।
दशवारमिदं भक्त्या ध्यात्वा देवीं कलिंदजाम् ॥ १३२ ॥
रोगी रोगात्प्रमुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
गुर्विणी जनयेत्पुत्रं विद्यार्थी पंडितो भवेत् ॥ १३३ ॥
मोहनं स्तंभनं शश्वद्‌वशीकरणमेव च ।
उच्चाटनं घातनं च शोषणं दीपनं तथा ॥ १३४ ॥
उन्मादनं तापनं च निधिदर्शनमेव च ।
यद्यद्‌वांच्छति चित्तेन तत्तत्प्राप्नोति मानवः ॥ १३५ ॥
ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चस्वी राजन्यो जगतीपतिः ।
वैश्यो निधिपतिर्भूयाच्छूद्रः श्रुत्वा तु निर्मलः ॥ १३६ ॥
पूजाकाले तु यो नित्यं पठते भक्तिभावतः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा ॥ १३७ ॥
शतवारं पठेन्नित्यं वर्षावधिमतः परम् ।
पटलं पद्धतिं कृत्वा स्तवं च कवचं तथा ॥ १३८ ॥
सप्तद्वीपमहीराज्यं प्राप्नुयान्नात्र संशयः ॥ १३९ ॥
निष्कारणं पठेद्यस्तु यमुनाभक्तिसंयुतः ।
त्रैवर्ग्यमेत्य सुकृती जीवन्मुक्तो भवेदिह ॥ १४० ॥
निकुंजलीलाललितं मनोहरं
     कलिंदजाकूललताकदम्बकम् ।
वृन्दावनोन्मत्तमिलिंदशब्दितं
     व्रजेत्स गोलोकमिदं पठेच्च यः ॥ १४१ ॥


इति श्रीगर्गसंहितायां माधुर्यखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
श्रीसौभरिमांधातृसंवादे श्रीयमुनासहस्रनामकथनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

ऋषय ऊचुः –

न वयं भगवन् विद्मः तव देव चिकीर्षितम् ।
कृतो मेऽनुग्रहश्चेति यदध्यक्षः प्रभाषसे ॥ १६ ॥
ब्रह्मण्यस्य परं दैवं ब्राह्मणाः किल ते प्रभो ।
विप्राणां देवदेवानां भगवान् आत्मदैवतम् ॥ १७ ॥
त्वत्तः सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव ।
धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः ॥ १८ ॥
तरन्ति ह्यञ्जसा मृत्युं निवृत्ता यदनुग्रहात् ।
योगिनः स भवान् किंस्विद् अनुगृह्येत यत्परैः ॥ १९ ॥

मुनियोंने कहा—स्वप्रकाश भगवन् ! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या अभिप्राय है—यह हम नहीं जान सके हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आप ब्राह्मणोंके परम हितकारी हैं; इससे लोक-शिक्षाके लिये आप भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुत: तो ब्राह्मण तथा देवताओंके भी देवता ब्रह्मादिके भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं ॥ १७ ॥ सनातनधर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारोंद्वारा ही समय-समयपर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्मके परम गुह्य रहस्य हैं—यह शास्त्रोंका मत है ॥ १८ ॥ आपकी कृपासे निवृत्तिपरायण योगिजन सहजमें ही मृत्युरूप संसार-सागरसे पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आपपर क्या कृपा कर सकता है ॥ १९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) अठारहवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

अठारहवाँ अध्याय

 

यमुनाजी के जप और पूजन के लिये पटल और पद्धति का वर्णन

 

मांधातोवाच -
कृष्णायाः पटलं पुण्यं कामदं पद्धतिं तथा ।
वद मां मुनिशार्दूल त्वं साक्षात् ज्ञानशेवधिः ॥ १ ॥


सौभरिरुवाच -
पटलं पद्धतिं वक्ष्ये यमुनाया महामते ।
कृत्वा श्रुत्वाऽथ जप्त्वा वा जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ २ ॥
प्रणवं पूर्वमुद्‍धृत्य मायाबीजं ततः परम् ।
रमाबीजं ततः कृत्वा कामबीजं विधानतः ॥ ३ ॥
कालिन्दीति चतुर्थ्यंते देवीपदमतः परम् ।
नमः पश्चात्संविधार्य जपेन्मन्त्रमिमं नरः ॥ ४ ॥
जप्त्वैकादशलक्षाणि मंत्रसिद्धिर्भवेद्‌भुवि ।
जनैः प्रार्थ्याश्च ये कामाः सर्वे प्राप्याः स्वतश्च ते ॥ ५ ॥
विधाय षोडशदलं पद्मं सिंहासने शुभे ।
कर्णिकायां च कालिंदीं न्यसेच्छ्रीकृष्णसंयुताम् ॥ ६ ॥
जाह्नवीं विरजां कृष्णां चन्द्रभागां सरस्वतीम् ।
गोमतीं कौशिकीं वेणीं सिंधुं गोदावरीं तथा ॥ ७ ॥
वेदस्मृतिं वेत्रवतीं शतद्रुं सरयूं तथा ।
पूजयेन् मानवश्रेष्ठ ऋषिकुल्यां ककुद्मिनीम् ॥ ८ ॥
पृथक्पृथक् तद्दलेषु नामोच्चार्य विधानतः ।
वृन्दावनं गोवर्द्धनं वृन्दां च तुलसीं तथा ।
चतुर्दिक्षु विधायाशु पूजयेन्नामभिः पृथक् ॥ ९ ॥
ॐनमो भगवत्यै कलिन्दनन्दिन्यै सूर्यकन्यकायै
यमभगिन्यै श्रीकृष्णप्रियायै यूथीभूतायै स्वाहा ।
अनेन मंत्रेण आवाहनादि षोडशोपचारान् समाहित उपाहरेत् ॥ १० ॥
इत्येव पटलं विद्धि तुभ्यं वक्ष्यामि पद्धतिम् ।
यावत्संपूर्णतां याति पुरश्चरणमेव हि ॥ ११ ॥
तावद्‌ भवेद् ब्रह्मचारी जपेन्मौनव्रती द्विजः ।
यवभोजी भूमिशायी पत्रभुग् जितमानसः ॥ १२ ॥
कामं क्रोधं तथा लोभं मोहं द्वेषं विसृज्य सः ।
भक्त्या परमया राजन् वर्तमानस्तु देशकः ॥ १३ ॥
ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय ध्यात्वा देवीं कलिंदजाम् ।
अरुणोदयवेलायां नद्यां स्नानं समाचरेत् ॥ १४ ॥
माध्याह्ने चापि संध्यायां संध्यावन्दनतत्परः ।
सप्तमे नियमे राजन् कालिन्दीतीरमास्थितः ॥ १५ ॥
दशलक्षं ब्राह्मणानां सपुत्राणां महात्मनाम् ।
पूजयित्वा गन्धपुष्पैर्दत्वा तेभ्यः सुभोजनम् ॥ १६ ॥
वस्त्रभूषणसौवर्णपात्राणि प्रस्फुरंति च ।
दक्षिणाश्च शुभा दद्यात्ततः सिद्धिर्भवेत् खलु ॥ १७ ॥
इति ते पद्धतिः प्रोक्ता मया राजन् महमते ।
कुरु त्वं नियमं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १८ ॥

मांधाता बोले – मुनिश्रेष्ठ ! यमुनाजीके काम- पूरक पवित्र पटल तथा पद्धतिका जैसा स्वरूप है, वह मुझे बताइये; क्योंकि आप साक्षात् ज्ञानकी निधि हैं ॥ १ ॥

सौभरि ने कहा- महामते ! अब मैं यमुनाजीके पटल तथा पद्धतिका भी वर्णन करता हूँ, जिसका अनुष्ठान, श्रवण अथवा जप करके मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। पहले प्रणव (ॐ) का उच्चारण करके फिर मायाबीज (ह्रीं) का उच्चारण करे। तत्पश्चात् श्रीकृष्णप्रियायै यूथीभूतायै स्वाहा।' इस मन्त्रसे लक्ष्मीबीज (श्रीं) को रखकर उसके बाद कामबीज आवाहन आदि सोलह उपचारोंको एकाग्रचित्त हो (क्लीं) का विधिवत् प्रयोग करे। इसके अनन्तर 'कालिन्दी' शब्दका चतुर्थ्यन्त रूप (कालिन्यै) रखे । फिर 'देवी' शब्दके चतुर्थ्यन्तरूप (देव्यै) का प्रयोग करके अन्तमें 'नमः' पद जोड़ दे। (इस प्रकार 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिन्द्यै देव्यै नमः ।' यह मन्त्र बनेगा ।) इस मन्त्रका मनुष्य विधिवत् जप करे। इस ग्यारह तू जप करे। इस ग्यारह अक्षरवाले मन्त्रका ग्यारह लाख जप करनेसे इस पृथ्वीपर सिद्धि प्राप्त हो सकती है। मनुष्योंद्वारा जिन-जिन काम्य-पदार्थोंके लिये प्रार्थना की जाती है, वे सब स्वतः सुलभ हो जाते हैं । २-

सुन्दर सिंहासनपर षोडशदल कमल अङ्कित करके उसकी कर्णिकामें श्रीकृष्णसहित कालिन्दीका न्यास (स्थापन) करे। कमलके सोलह दलोंमें अलग- अलग विधिपूर्वक नाम ले-लेकर मानवश्रेष्ठ साधक क्रमशः गङ्गा, विरजा, कृष्णा, चन्द्रभागा, सरस्वती, गोमती, कौशिकी, वेणी, सिंधु, गोदावरी, वेदस्मृति, वेत्रवती, शतद्रू, सरयू, ऋषिकुल्या तथा ककुद्मिनीका पूजन करे। पूर्वादि चार दिशाओंमें क्रमशः वृन्दावन, गोवर्धन, वृन्दा तथा तुलसीका उनके नामोच्चारणपूर्वक क्रमशः पूजन करे। तत्पश्चात् 'ॐ नमो भगवत्यै कलिन्दनन्दिन्यै सूर्यकन्यकायै यमभगिन्यै श्रीकृष्णप्रियायै यूथीभूतायै स्वाहा |’ इस मंत्र से आवाहन आदि सोलह उपचारों को एकाग्रचित्त हो  अर्पित करे ।। - १० ॥

इस प्रकार यमुनाका पटल जानो । अब पद्धति बताऊँगा। जबतक पुरश्चरण पूरा न हो जाय, तबतक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मौनावलम्बनपूर्वक द्विजको जप करना चाहिये । पुरश्चरणकाल में जौ का आटा खाय, पृथ्वीपर शयन करे, पत्तलपर भोजन करे और मन को वश में रखे ॥ ११-१२

राजन् ! आचार्यको चाहिये कि काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा द्वेषको त्यागकर परम भक्ति भावसे जपमें प्रवृत्त रहे। ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर कालिन्दी देवीका ध्यान करे और अरुणोदयकी बेलामें नदीमें स्नान करे। मध्याह्नकालमें और दोनों संध्याओंके समय संध्या-वन्दन अवश्य किया करे। राजन् ! जब अनुष्ठान समाप्त हो, तब यमुनाके तटपर जाकर पुत्रों- सहित दस लाख महात्मा ब्राह्मणोंका गन्ध-पुष्पसे पूजन करके उन्हें उत्तम भोजन दे । तदनन्तर वस्त्र, आभूषण और सुवर्णमय चमकीले पात्र तथा उत्तम दक्षिणाएँ दे । इससे निश्चय ही सिद्धि होती है । ११ – १७ ॥

महामते ! नरेश! इस प्रकार मैंने तुमसे यमुनाजीके जप और पूजनकी पद्धति बतायी है। तुम सारा नियम पूर्ण करो। बताओ ! अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १८ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत मांधाता और सौभरि के संवादमें 'पटल और पद्धतिका वर्णन' नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ || १८ ||

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

को वा अमुष्याङ्‌घ्रिसरोजरेणुं
     विस्मर्तुमीशीत पुमान् विजिघ्रन् ।
यो विस्फुरद्भ्रू विटपेन भूमेः
     भारं कृतान्तेन तिरश्चकार ॥ १८ ॥
दृष्टा भवद्‌भिः ननु राजसूये
     चैद्यस्य कृष्णं द्विषतोऽपि सिद्धिः ।
यां योगिनः संस्पृहयन्ति सम्यग्
     योगेन कस्तद्विरहं सहेत ॥ १९ ॥
तथैव चान्ये नरलोकवीरा
     य आहवे कृष्णमुखारविन्दम् ।
नेत्रैः पिबन्तो नयनाभिरामं
     पार्थास्त्रपूतः पदमापुरस्य ॥ २० ॥

जिन्होंने कालरूप अपने भुकुटिविलास से ही पृथ्वी का सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्ण के पाद-पद्म-पराग का सेवन करनेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके ॥ १८ ॥ आप लोगों ने राजसूय यज्ञ में प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्ण से द्वेष करनेवाले शिशुपाल को वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भली-भाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है ॥ १९ ॥ शिशुपाल के ही समान महाभारत- युद्धमें जिन दूसरे योद्धाओं ने अपनी आँखों से भगवान्‌ श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुख-कमलका मकरन्द पान करते हुए,अर्जुन के बाणोंसे बिंधकर प्राणत्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान्‌ के परमधाम को प्राप्त हो गये ॥ २० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 20 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

सत्रहवाँ अध्याय

 

श्रीयमुनाका स्तोत्र

 

मांधातोवाच -
यमुनायाः स्तवं दिव्यं सर्वसिद्धिकरं परम् ।
सौभरे मुनिशार्दूल वद मां कृपया त्वरम् ॥ १ ॥


श्रीसौभरिरुवाच -
मार्तंडकन्यकायास्तु स्तवं शृणु महामते ।
सर्वसिद्धिकरं भूमौ चातुर्वर्ग्यफलप्रदम् ॥ २ ॥
कृष्णवामांसभूतायै कृष्णायै सततं नमः ।
नमः श्रीकृष्णरूपिण्यै कृष्णे तुभ्यं नमो नमः ॥ ३ ॥
यः पापपंकांबुकलंककुत्सितः
     कामी कुधीः सत्सु कलिं करोति हि ।
वृन्दावनं धाम ददाति तस्मै
     नदन्मिलिन्दादि कलिन्दनन्दिनी ॥ ४ ॥
कृष्णे साक्षात्कृष्णरूपा त्वमेव
     वेगावर्ते वर्तसे मत्स्यरूपी ।
ऊर्मावूर्मौ कूर्मरूपी सदा ते
     बिंदौ बिंदौ भाति गोविन्ददेवः ॥ ५ ॥
वन्दे लीलावतीं त्वां
     सगनघननिभां कृष्णवामांसभूतां ।
वेगं वै वैरजाख्यं
     सकलजलचयं खण्डयंतीं बलात्स्वात् ।
छित्वा ब्रह्माण्डमारात्
     सुरनगरनगान् गण्डशैलादिदुर्गान् ।
भित्वा भूखण्डमध्ये
     तटनिधृतवतीमूर्मिमालां प्रयान्तीम् ॥ ६ ॥
दिव्यं कौ नामधेयं
     श्रुतमथ यमुने दण्डयत्यद्रितुल्यं ।
पापव्यूहं त्वखण्डं
     वसतु मम गिरां मण्डले तु क्षणं तत् ।
दण्ड्यांश्चाकार्यदण्ड्या
     सकृदपि वचसा खण्डितं यद्‍गृहीतं ।
भ्रातुर्मार्तंडसूनो-
     रटति पुरि दृढः ते प्रचण्डोऽतिदण्डः ॥ ७ ॥
रज्जुर्वा विषयांधकूपतरणे
     पापाखुदर्वीकरी ।
वेण्युष्णिक् च विराजमूर्तिशिरसो
     मालाऽस्ति वा सुन्दरी ।
धन्यं भाग्यमतः परं भुवि नृणां
     यत्रादिकृद्वल्लभा ।
गोलोकेऽप्यतिदुर्लभाऽतिशुभगा
     भात्यद्वितीया नदी ॥ ८ ॥
गोपीगोकुलगोपकेलिकलिते
     कालिन्दि कृष्णप्रभे ।
त्वत्कूले जललोलगोलविचलत्
     कल्लोलकोलाहलः ।
त्वत्कांतारकुतूहलालिकुलकृत्
     झंकारकेकाकुलः ।
कूजत्कोकिलसंकुलो व्रजलता
     लंकारभृत्पातु माम् ॥ ९ ॥
भवंति जिह्वास्तनुरोमतुल्या
     गिरो यदा भूसिकता इवाशु ।
तदप्यलं यान्ति न ते गुणांतं
     संतो महांतः किल शेषतुल्याः ॥ १० ॥
कलिन्दगिरिनन्दिनीस्तव उषस्ययं वापरः
     श्रुतश्च यदि पाठितो भुवि तनोति सन्मंगलम् ।
जनोऽपि यदि धारयेत्किल पठेच्च यो नित्यशः
     स याति परमं पदं निजनिकुञ्जलीलावृतम् ॥ ११ ॥

 

मांधाता बोले—मुनिश्रेष्ठ सौभरे ! सम्पूर्ण सिद्धिप्रदान करनेवाला जो यमुनाजीका दिव्य उत्तम स्तोत्र है, उसका कृपापूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

श्री सौभरि मुनि ने कहा- महामते ! अब तुम सूर्यकन्या यमुनाका स्तोत्र सुनो, जो इस भूतलपर समस्त सिद्धियोंको देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थोंका फल देनेवाला है। श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई 'कृष्णा' को सदा मेरा नमस्कार है। कृष्णे ! तुम श्रीकृष्णस्वरूपिणी हो; तुम्हें बारंबार नमस्कार हैं । जो पापरूपी पङ्कजलके कलङ्कसे कुत्सित कामी कुबुद्धि मनुष्य सत्पुरुषोंके साथ कलह करता है, उसे भी गूँजते हुए भ्रमर और जलपक्षियोंसे युक्त कलिन्दनन्दिनी यमुना वृन्दावनधाम प्रदान करती हैं ॥ २-

कृष्णे ! तुम्हीं साक्षात् श्रीकृष्णस्वरूपा हो। तुम्हीं प्रलयसिन्धुके वेगयुक्त भँवरमें महामत्स्यरूप धारण करके विराजती हो। तुम्हारी ऊर्मि-ऊर्मि में भगवान् कूर्मरूप से वास करते हैं तथा तुम्हारे बिन्दु-बिन्दु में श्रीगोविन्ददेव की आभाका दर्शन होता है ॥

तटिनि ! तुम लीलावती हो, मैं तुम्हारी बन्दना करता हूँ। तुम घनीभूत मेघके समान श्याम कान्ति धारण करती हो । श्रीकृष्णके बायें कंधेसे तुम्हारा प्राकट्य हुआ है 1 सम्पूर्ण जलोंकी राशिरूप जो विरजा नदीका वेग है, उसको भी अपने बलसे खण्डित करती हुई, ब्रह्माण्ड- को छेदकर देवनगर, पर्वत, गण्डशैल आदि दुर्गम वस्तुओं का भेदन करके तुम इस भूमिखण्ड के मध्यभाग में अपनी तरङ्गमालाओंको स्थापित करके प्रवाहित होती हो ॥

यमुने! पृथ्वीपर तुम्हारा नाम दिव्य है वह श्रवणपथमें आकर पर्वताकार पापसमूहको भी दण्डित एवं खण्डित कर देता है। तुम्हारा वह अखण्ड नाम मेरे बाङ्मण्डल – वचनसमूहमें क्षणभर भी स्थित हो जाय । यदि वह एक बार भी वाणीद्वारा गृहीत हो जाय तो समस्त पापोंका खण्डन हो जाता है। उसके स्मरणसे दण्डनीय पापी भी अदण्डनीय हो जाते हैं। तुम्हारे भाई सूर्यपुत्र यमराजके नगरमें तुम्हारा 'प्रचण्डा' यह नाम सुदृढ़ अतिदण्ड बनकर विचरता है ॥

तुम विषयरूपी अन्धकूपसे पार जानेके लिये रस्सी हो; अथवा पापरूपी चूहोंके निगल जानेवाली काली नागिन हो; अथवा विराट् पुरुषकी मूर्तिकी वेणीको अलंकृत करनेवाला नीले पुष्पोंका गजरा हो या उनके मस्तकपर सुशोभित होनेवाली सुन्दर नीलमणिकी माला हो । जहाँ आदिकर्ता भगवान् श्रीकृष्णकी वल्लभा, गोलोकमें भी अतिदुर्लभा, अति सौभाग्यवती अद्वितीया नदी श्रीयमुना प्रवाहित होती हैं, उस भूतलके मनुष्योंका भाग्य इसी कारणसे धन्य है ॥

गौओंके समुदाय तथा गोप-गोपियोंकी क्रीडासे कलित कलिन्दनन्दिनी यमुने ! कृष्णप्रभे ! तुम्हारे तटपर जो जलकी गोलाकार, चपल एवं उत्ताल तरङ्गोंका कोलाहल (कल-कल ख) होता है, वह सदा मेरी रक्षा करें। तुम्हारे दुर्गम कुञ्जोंके प्रति कौतूहल रखनेवाले भ्रमरसमुदायके गुञ्जारव, मयूरोंकी केका तथा कूजते हुए कोकिलोंकी काकलीका शब्द भी उस कोलाहलमें मिला रहता है तथा वह व्रजलताओंके अलंकारको धारण करनेवाला है ॥

शरीरमें जितने रोम हैं, उतनी ही जिह्वाएँ हो जायँ, धरतीपर जितने सिकताकण हैं, उतनी ही वाग्देवियाँ आ जायँ और उनके साथ संत-महात्मा भी शेषनागके समान सहस्रों जिह्वाओंसे युक्त होकर गुणगान करने लग जायँ, तथापि तुम्हारे गुणोंका अन्त कभी नहीं हो सकता। कलिन्दगिरिनन्दिनी यमुनाका यह उत्तम स्तोत्र यदि उषःकालमें ब्राह्मणके मुखसे सुना जाय अथवा स्वयं पढ़ा जाय तो भूतलपर परम मङ्गलका विस्तार करता है। जो कोई मनुष्य भी यदि नित्यशः इसका धारण (चिन्तन) करे तो वह भगवान्‌की निज निकुञ्जलीलाके द्वारा वरण किये गये परमपदको प्राप्त होता है  १०- ११ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीसौभरि मांधाताके संवादमें 'श्रीयमुनास्तोत्र' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

स्वशान्तरूपेष्वितरैः स्वरूपैः
     अभ्यर्द्यमानेष्वनुकम्पितात्मा ।
परावरेशो महदंशयुक्तो
     ह्यजोऽपि जातो भगवान् यथाग्निः ॥ १५ ॥
मां खेदयत्येतदजस्य जन्म
     विडम्बनं यद्वसुदेवगेहे ।
व्रजे च वासोऽरिभयादिव स्वयं
     पुराद् व्यवात्सीद् यत् अनन्तवीर्यः ॥ १६ ॥
दुनोति चेतः स्मरतो ममैतद्
     यदाह पादावभिवन्द्य पित्रोः ।
ताताम्ब कंसाद् उरुशंकितानां
     प्रसीदतं नोऽकृतनिष्कृतीनाम् ॥ १७ ॥

(उद्धवजी कहरहे हैं) चराचर जगत् और प्रकृति के स्वामी भगवान्‌ ने जब अपने शान्त-रूप महात्माओं को अपने ही घोररूप असुरों से सताये जाते देखा, तब वे करुणाभाव से द्रवित हो गये और अजन्मा होने पर भी अपने अंश बलरामजी के साथ काष्ठ में अग्नि के समान प्रकट हुए ॥ १५ ॥ अजन्मा होकर भी वसुदेवजी के यहाँ जन्म लेने की लीला करना, सबको अभय देने वाले होने पर भी मानो कंस के भय से व्रजमें जाकर छिप रहना और अनन्तपराक्रमी होने पर भी कालयवन के सामने मथुरापुरी को छोडक़र भाग जाना—भगवान्‌ की ये लीलाएँ याद आ-आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं ॥ १६ ॥ उन्होंने जो देवकी-वसुदेवकी चरण-वन्दना करके कहा था— ‘पिताजी, माताजी ! कंसका बड़ा भय रहनेके कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराधपर ध्यान न देकर मुझपर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्णकी ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ॥ १७ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सोलहवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

सोलहवाँ अध्याय

 

श्रीयमुना - कवच

 

मांधातोवाच –

यमुनायाः कृष्णराज्ञ्याः कवचं सर्वतोऽमलम् ।
देहि मह्यं महाभाग धारयिष्याम्यहं सदा ॥ १ ॥


सौभरिरुवाच -
यमुनायाश्च कवचं सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
चतुष्पदार्थदं साक्षाच्छृणु राजन्महामते ॥ २ ॥
कृष्णां चतुर्भुजां श्यामां पुण्डरीकदलेक्षणाम् ।
रथस्थां सुन्दरीं ध्यात्वा धारयेत्कवचं ततः ॥ ३ ॥
स्नातः पूर्वमुखो मौनि कृतसंध्यः कुशासने ।
कुशैर्बद्धशिखो विप्रः पठेद्वै स्वस्तिकासनः ॥ ४ ॥
यमुना मे शिरः पातु कृष्णा नेत्रद्वयं सदा ।
श्यामा भ्रूभंगदेशं च नासिकां नाकवासिनी ॥ ५ ॥
कपोलौ पातु मे साक्षात्परमानन्दरूपिणी ।
कृष्णवामांससंभूता पातु कर्णद्वयं मम ॥ ६ ॥
अधरौ पातु कालिन्दी चिबुकं सूर्यकन्यका ।
यमस्वसा कन्धरां च हृदयं मे महानदी ॥ ७ ॥
कृष्णप्रिया पातु पृष्ठं तटिनि मे भुजद्वयम् ।
श्रोणीतटं च सुश्रोणी कटिं मे चारुदर्शना ॥ ८ ॥
ऊरुद्वयं तु रंभोरुर्जानुनी त्वंघ्रिभेदिनी ।
गुल्फौ रासेश्वरी पातु पादौ पापप्रहारिणी ॥ ९ ॥
अंतर्बहिरधश्चोर्ध्वं दिशासु विदिशासु च ।
समंतात्पातु जगतः परिपूर्णतमप्रिया ॥ १० ॥
इदं श्रीयमुनाश्च कवचं परमाद्‌भुतम् ।
दशवारं पठेद्‌भक्त्या निर्धनो धनवान्भवेत् ॥ ११ ॥
त्रिभिर्मासैः पठेद्धीमान् ब्रह्मचारी मिताशनः ।
सर्वराज्याधिपत्यञ्च प्राप्यते नात्र संशयः ॥ १२ ॥
दशोत्तरशतं नित्यं त्रिमासावधि भक्तितः ।
यः पठेत्प्रयतो भूत्वा तस्य किं किं न जायते ॥ १३ ॥
यः पठेत्प्रातरुत्थाय सर्वतीर्थफलं लभेत् ।
अंते व्रजेत्परं धाम गोलोकं योगिदुर्लभम् ॥ १४ ॥

मांधाता बोले- महाभाग ! आप मुझे श्रीकृष्ण- की पटरानी यमुनाके सर्वथा निर्मल कवच का उपदेश दीजिये, मैं उसे सदा धारण करूँगा ॥ १ ॥

सौभरि बोले- महामते नरेश ! यमुनाजीका कवच मनुष्यों की सब प्रकारसे रक्षा करनेवाला तथा साक्षात् चारों पदार्थोंको देनेवाला है, तुम इसे सुनो- यमुनाजीके चार भुजाएँ हैं। वे श्यामा (श्यामवर्णा एवं षोडश वर्षकी अवस्थासे युक्त) हैं। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान सुन्दर एवं विशाल हैं । वे परम सुन्दरी हैं और दिव्य रथपर बैठी हुई हैं। इस प्रकार उनका ध्यान करके कवच धारण करे ॥ २-३ ॥

स्नान करके पूर्वाभिमुख हो मौनभावसे कुशासन- पर बैठे और कुशोंद्वारा शिखा बाँधकर संध्या-वन्दन करनेके अनन्तर ब्राह्मण (अथवा द्विजमात्र) स्वस्तिकासन से स्थित हो कवचका पाठ करे ॥

 'यमुना' मेरे मस्तककी रक्षा करें और 'कृष्णा' सदा दोनों नेत्रोंकी। 'श्यामा' भ्रूभंग-देशकी और 'नाकवासिनी' नासिकाकी रक्षा करें। 'साक्षात् परमानन्दरूपिणी' मेरे दोनों कपोलोंकी रक्षा करें। 'कृष्णवामांससम्भूता' (श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई वे देवी) मेरे दोनों कानोंका संरक्षण करें। 'कालिन्दी' अधरोंकी और 'सूर्यकन्या' चिबुक (ठोढ़ी) की रक्षा करें। 'यमस्वसा' ( यमराजकी बहिन) मेरी ग्रीवाकी और 'महानदी' मेरे हृदयकी रक्षा करें। 'कृष्णप्रिया' पृष्ठ-भागका और 'तटिनी' मेरी दोनों भुजाओंका रक्षण करें। 'सुश्रोणी' श्रोणीतट ( नितम्ब) की और 'चारुदर्शना' मेरे कटिप्रदेशकी रक्षा करें। 'रम्भोरू' दोनों ऊरुओं (जाँघों) की और 'अङ्घ्रिभेदिनी' मेरे दोनों घुटनोंकी रक्षा करें। 'रासेश्वरी' गुल्फों (घुट्टियों) का और 'पापापहारिणी' पादयुगलका त्राण करें। 'परिपूर्णतम- प्रिया' भीतर-बाहर, नीचे-ऊपर तथा दिशाओं और विदिशाओंमें सब ओरसे मेरी रक्षा करें ॥ - १० ॥

यह श्रीयमुनाका परम अद्भुत कवच है। जो भक्तिभावसे दस बार इसका पाठ करता है, वह निर्धन भी धनवान् हो जाता है। जो बुद्धिमान् मनुष्य ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक परिमित आहारका सेवन करते हुए तीन मासतक इसका पाठ करेगा, वह सम्पूर्ण राज्योंका आधिपत्य प्राप्त कर लेगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ११-१२

जो तीन महीने की अवधितक प्रतिदिन भक्तिभावसे शुद्धचित्त हो इसका एक सौ दस बार पाठ करेगा, उसको क्या-क्या नहीं मिल जायगा ? जो प्रातःकाल उठकर इसका पाठ करेगा, उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नानका फल मिल जायगा तथा अन्तमें वह योगिदुर्लभ परमधाम गोलोकमें चला जायगा ॥ १ – १४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीसौभरि मांधाताके संवादमें 'यमुना-कवच' नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

प्रदर्श्या तप्ततपसां अवितृप्तदृशां नृणाम् ।
आदायान्तरधाद्यस्तु स्वबिम्बं लोकलोचनम् ॥ ११ ॥
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग
     मायाबलं दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेः
     परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ॥ १२ ॥
यद्धर्मसूनोर्बत राजसूये
     निरीक्ष्य दृक्स्वस्त्ययनं त्रिलोकः ।
कार्त्स्न्येन चाद्येह गतं विधातुः
     अर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ॥ १३ ॥
यस्यानुरागप्लुतहासरास
     लीलावलोकप्रतिलब्धमानाः ।
व्रजस्त्रियो दृग्भिरनुप्रवृत्त
     धियोऽवतस्थुः किल कृत्यशेषाः ॥ १४ ॥

जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगों को भी इतने दिनों तक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसा को तृप्त किये बिना ही वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रह को छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रोंको ही छीन लिया है ॥ ११ ॥ भगवान्‌ ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखाने के लिए मानवलीलाओं के योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे । सौभाग्य और सुन्दरताकी पराकाष्ठा थी उस रूपमें। उससे आभूषण (अङ्गोंके गहने) भी विभूषित हो जाते थे ॥ १२ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें जब भगवान्‌ के उस नयनाभिराम रूपपर लोगों की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकी ने यही माना था कि मानवसृष्टि की रचना में विधाता की जितनी चतुराई है, सब इसी रूपमें पूरी हो गयी है ॥ १३ ॥ उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन से सम्मानित होने पर व्रजबालाओंकी आँखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घरके काम-धंधोंको अधूरा ही छोडक़र जड पुतलियोंकी तरह खड़ी रह जाती थीं॥१४॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...