शनिवार, 30 जून 2018

नवधा भक्ति

जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!
नवधा भक्ति
“ नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं । सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥“
भक्ति के प्रधान दो भेद हैं ---एक साधन रूप, जिसको वैध और नवधा के नाम से भी कहा गया है और दूसरा साध्यरूप, जिसको प्रेमा-प्रेमलक्षणा आदि नामों से कहा है | इनमें नवधा साधनरूप है और प्रेम साध्य है |
अब यह विचार करा चाहिए कि वैध-भक्ति किसका नाम है | इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि स्वामी जिससे संतुष्ट हो उस प्रकार के भाव से भावित होकर उसकी आज्ञा के अनुसार आचरण करने का नाम वैध-भक्ति है | शास्त्रों में उसके अनेक प्रकार के लक्षण बताए गये हैं |
तुलसीकृत रामायण में शबरी के प्रति भगवान् श्रीरामचंद्र जी कहते हैं:----
“ प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥“
( पहली भक्ति है संतों का सत्संग । दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम ॥ तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥ मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझपर दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है । छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना ॥ सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना । आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना ॥ नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना ) |
श्रीमद्भागवत में प्रह्लाद जी ने कहा है :-
“श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पाद सेवनम् |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||... (७.५.२३)
( भगवान विष्णु के नाम, रूप, गुण और प्रभावादि का श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान् की चरणसेवा, पूजन और वंदन एवं भगवान् में दासभाव सखाभाव और अपने को समर्पण कर देना—यह नौ प्रकार की भक्ति है )|
इस प्रकार शास्त्रों में भक्ति के भिन्न भिन्न प्रकार से अनेक लक्षण बतलाए गए हैं, किन्तु विचार करने पर सिद्धांत में कोई भेद नहीं है | तात्पर्य सबका प्राय: एक ही है कि स्वामी जिस भाव और आचरण से संतुष्ट हो,उसी प्रकार के भावों से भावित होकर उनकी आज्ञा के अनुकूल आचरण करना ही सेवा यानी भक्ति है ||
(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “नवधा भक्ति”--कोड:२९२, से उद्धृत)


बुधवार, 31 जनवरी 2018

कलिजुग सम जुग आन नहिं




कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।

(यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। क्योंकि इस युगमें श्रीरामजीके निर्मल गुणोंसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है )



गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 05)



❈ श्री हरिः शरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 05)

( सम्पादक-कल्याण ) 

सरलता-कठिनता तो उपासनाकी है, इससे उपासकमें उत्तम मध्यमका भेद क्यों होने लगा? व्यक्तोपासक केवल उत्तम ही नहीं, योगवित्तम है, योग जाननेवालोंमें श्रेष्ठ है। उपासनाकी सुगमताके कारण आरामकी इच्छासे कठिन मार्गको त्यागकर सरलका ग्रहण करनेवाला श्रेष्ठ योगवेत्ता कैसे हो गया। अवश्य ही इसमें कोई रहस्य छिपा होना चाहिये और वह यह है--

अव्यक्तोपासक उपासनाके फलस्वरूप अन्तमें भगवान्‌को प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु व्यक्तोपासकके तो त्रिभुवन-मोहन साकार-रूप-धारी भगवान्‌ आरम्भसे ही साथ रहते हैं। अव्यक्तोपासक अपनी ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की ज्ञान-नौकापर सवार होकर यदि मार्ग में अहंकार, मान, लोकैषणा आदि विघ्नोंसे बचकर अगे बढ़ जाता है, तो अन्तमें संसार-सागरके पार पहुँच जाता है। परन्तु व्यक्तोपासक तो पहलेसे ही भगवान्‌की कृपारूपी नौकापर सवार होता है और भगवान्‌ स्वयं उसे खेकर पार करते हैं। नौकापर सवार होते ही उसे केवट कृष्णका साथ मिल जाता है। पार पहुँचनेके बाद तो दोनोंके आनन्दकी स्थिति समान है ही, परन्तु यह तो मार्गमें भी पल-पलमें परम कारुणिक मोहनकी माधुरी मूरति के देवदुर्लभ दर्शन कर पुलकित होता है, इसे उनकी मधुर वाणी, विश्व-विमोहिनी वंशीकी ध्वनि सुननेको एवं उनकी सुन्दर और शक्तिमयी क्रियाएँ देखनेको मिलती है। यह निश्चिन्त बैठा हुआ उनके स्वरूप और उनकी लीलाका मजा लूटता है। इसके सिवा एक महत्त्वकी बात और होती है। भगवान्‌ किस मार्गसे क्योंकर नौका चलाते हैं, वह इस बातको भी ध्यानपूर्वक देखता है, जिससे वह भी परमधामके इस सुगम मार्गको और भव-तारण-कलाको सीख जाता है। ऐसे तारण-कलामें निपुण विश्वासपात्र भक्तको यदि भगवान्‌ कृपापूर्वक अपने परम धामका अधिकारी स्वीकार कर और जगत्‌के लोगोंको तारनेका अधिकार देकर, अपने कार्यमें सहायक बनने या अपनी लोक-कल्याणकारिणी लीलामें सम्मिलित रखनेके लिये नौका देकर वापस संसारमें भेज देते हैं तो वह मुक्त हुआ भी भगवान्‌की ही भाँति जगत्‌ के यथार्थ हितका कार्य करता है और एक चतुर विश्वासपात्र सेवक की भाँति भगवान्‌ के लीलाकार्य में भी साथ रहता है। ऐसे ही स्थिति के महापुरुष कारक बनकर जगत्‌में आविर्भूत हुआ करते हैं। 

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 04)


❈ श्री हरिः शरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 04)

( सम्पादक-कल्याण ) 

यहाँ भगवान्‌ ने जो साकारोपासक की श्रेष्ठता बतलायी है उसका कारण भी भगवान्‌ ने अगले तीन श्लोकोंमें स्पष्ट कर दिया है-

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌।
अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्भिरवाप्यते॥
..........( गी० १२ । ५ )
‘जिनका मन तो अव्यक्तकी ओर आसक्त है, परन्तु जिनके हृदयमें देहाभिमान बना हुआ है, ऐसे लोगोंके लिये अव्यक्त ब्रह्मकी उपासनामें चित्त टिकाना विशेष क्लेशसाध्य है। वास्तवमें निराकारकी गति दुःखपूर्वक ही प्राप्त होती है।’ भगवान्‌के साकार-व्यक्तस्वरूपको एक आधार रहता है, जिसका सहारा लेकर ही कोई साधन-मार्गपर आरूढ़ हो सकता है, परन्तु निराकारका साधक तो बिना केवटकी नावकी भाँति निराधार अपने ही बलपर चलता है। अपार संसार-सागरमें विषय-वासनाकी भीषण तरंगोंसे तरीको बचाना, भोगोंके प्रचण्ड तूफानसे नावकी रक्षा करना और बिना किसी मददगारके लक्ष्यपर स्थिर रहते हुए आप ही डाँड़ चलाते जाना बड़ा ही कठिन कार्य है। परन्तु इसके विपरीत-

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌॥
...............( गी० १२ । ६-७ )

‘जो लोग मेरे ( भगवान्‌के ) परायण होकर, मुझको ही अपनी परमगति, परम आश्रय, परम शक्ति, परम लक्ष्य मानते हुए सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके मुझ साकार ईश्वरकी अनन्य योगसे निरन्तर उपासना करते हैं, उन मुझमें चित्त लगानेवाले भक्तोंको मृत्युशील संसार-सागरसे बहुत ही शीघ्र सुखपूर्वक मैं पार कर देता हूँ।’ उनको न तो अनन्त अम्बुधि की क्षुब्ध उत्ताल तरंगोंका भय है और न भीषण झञ्झावातके आघातसे नौकाके ध्वंस होने या डूबनेका ही डर है। वे तो बस, मेरी कृपासे आच्छादित सुन्दर सुसज्जित दृढ़ ‘बजरे’में बैठकर केवल सर्वात्मभावसे मेरी ओर निर्निमेष-दृष्टिसे ताकते रहें, मेरी लीलाएँ देख-देखकर प्रफुल्लित होते रहें, मेरी वंशीध्वनि सुन-सुनकर आनन्द में डूबते रहें। उनकी नावका खेवनहार केवट बनकर मैं उन्हें ‘नचिरात्‌’ इसी जन्म में अपने हाथों डाँड़ चलाकर संसार-सागरके उस पार परम धाममें पहुँचा दूँगा। जो भाग्यवान्‌ भक्त भगवान्‌ के इन वचनोंपर विश्वास कर समस्त शक्तियों के आधार, सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार, अखिल ऐश्वर्य के आकर, सौन्दर्य, प्रभुत्व, बल और प्रेमके अनन्त निधि उस परमात्माको अपनी जीवन-नौका का खेवनहार बना लेता है, जो अपनी बाँह उसे पकड़ा देता है, उनके अनायास ही पार उतरनेमें कोई खटका कैसे रह सकता है? उसको न तो नावके टकराने, टूटने और डूबनेका भय है, न चलाने का कष्ट है और न पार पहुँचने में ही तनिक-सा सन्देह है। पार तो अव्यक्तोपासक भी पहुँचता है, परन्तु उसका मार्ग कठिन है। इसप्रकार दोनोंका फल एक ही होनेके कारण सुगमता की वजह से यदि भगवान्‌ के अव्यक्तोपासक की अपेक्षा व्यक्तोपासक को श्रेष्ठ या योगवित्तम बतलाया तो उनका ऐसा कहना सर्वथा उचित ही है, परन्तु बात इतनी ही नहीं है। 

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 03)


❈ श्री हरिः शरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 03)

( सम्पादक-कल्याण )

भगवान्‌ ने अर्जुन से कहा--

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥
( गी० १२ । २ )

‘हे अर्जुन ! जो मुझ साकाररूप परमेश्वरमें मन लगाकर निश्चल परम श्रद्धासे युक्त हो निरन्तर मेरी ही उपासनामें लगे रहते हैं, मेरे मतसे वे ही परम उत्तम योगी हैं।’ उत्तर भी स्पष्ट है-भगवान्‌ कहते हैं, मेरे द्वारा बतलायी हुई विधिके अनुसार मुझमें निरन्तर चित्त एकाग्र करके जो परम श्रद्धासे मेरी उपासना करते हैं, मेरे मतमें वे ही श्रेष्ठ हैं। यहाँ प्रथम श्लोकके ‘त्वां’ और इस श्लोकके ‘मां’ शब्द अव्यक्त-निराकारवाचक न होकर साकार वाचक ही हैं। क्योंकि अगले श्लोकोंमें अव्यक्तोपासनाका स्पष्ट वर्णन है, जो ‘तु’ शब्दसे इससे सर्वथा पृथक कर दिया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवानके मतमें उनके साकाररूपके उपासक ही अतिश्रेष्ठ योगी हैं एवं एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकके अनुसार उनको भगवत्‌प्राप्ति होना निश्चित है, परन्तु इससे कोई यह न समझे कि अव्यक्तोपासना निम्न-श्रेणीकी है या उन्हें भगवत्प्राप्ति नहीं होती। इसी भ्रमकी गुंजायशको सर्वथा मिटा देनेके लिये भगवान्‌ स्वयमेव कहते हैं।

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥
( गीता १२ । ३-४ )

‘जो पुरुष समस्त इन्द्रियोंको वशमें करके सर्वत्र समबुद्धि-सम्पन्न हो जीवमात्रके हितमें रत रहते हुए अचिन्त्य ( मन-बुद्धिसे परे ) सर्वत्रग ( सर्वव्यापी ) अनिर्देश्य ( अकथनीय ) कूटस्थ ( नित्य एक रस ) ध्रुव ( नित्य ) अचल, अव्यक्त ( निराकार ) अक्षर ब्रह्मस्वरूपकी निरन्तर उपासना करते हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’
इस कथन से यह निश्चय हो गया कि दोनों ही उपासनाओंका फल एक है, तो फिर अव्यक्तोपासकसे व्यक्तोपासकको उत्तम क्यों बतलाया? क्या बिना ही कारण भगवान्‌ने ऐसी बात कह दी? क्या मन्दबुद्धि मुमुक्षुओंको सगुणोपासनाकी प्रवृत्ति को सिद्धिके लिये उन्हें युक्ततम बतला दिया या उन्हें उत्साही बनाये रखने के लिये व्यक्तोपासनाकी रोचक स्तुति कर दी अथवा अर्जुनको साकारका मन्द अधिकारी समझकर उसीके लिये व्यक्तोपासनाको श्रेष्ठ करार दे दिया ? भगवान्‌ का क्या अभिप्राय था सो तो भगवान्‌ ही जानें, परन्तु मेरा मन तो यही कहता है कि भगवान्‌ ने जहाँ पर जो कुछ कहा है सो सभी यथार्थ है। उनके शब्दोंमें रोचक-भयानककी कल्पना करना कदापि उचित नहीं । भगवान्‌ ने न तो किसीकी अयथार्थ स्तुति की है और न अयथार्थ किसी को कोसा ही है।

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 02)


❈ श्री हरिःशरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 02)

( सम्पादक-कल्याण ) 

भगवान्‌ ने कृपापूर्वक अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदानकर अपना विराट स्वरूप दिखलाया। उस विकराल कालस्वरूपको देखकर अर्जुनके घबराकर प्रार्थना करनेपर अपने चतुर्भुज रूपके दर्शन कराये, तदन्तर मनुष्य-देह-धारी सौम्य रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूप दिखाकर उनके चित्तमें प्रादुर्भूत भय और अशान्तिका नाश कर उन्हें सुखी किया। इस प्रसंगमें भगवान्‌ने अपने विराट और चतुर्भुज-स्वरूपकी महिमा गाते हुए इनके दर्शन प्राप्त करनेवाले अर्जुनके प्रेमकी प्रशंसा की और कहा कि मेरे इन स्वरूपोंको प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा देखना, इनके तत्त्वको समझना और इनमें प्रवेश करना केवल ‘अनन्य भक्ति’से ही सम्भव है। इसके बाद अनन्य भक्तिका स्वरूप और उसका फल अपनी प्राप्ति बतलाकर भगवान्‌ने अपना वक्तव्य समाप्त किया। एकादश अध्याय यहीं पूरा हो गया। अर्जुन अबतक भगवान्‌के अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्वरूपोंकी और दोनोंके ही उपासकोंकी प्रशंसा और दोनोंसे ही परमधामकी प्राप्ति होनेकी बात सुन चुके हैं। अब वे इस समबन्धमें एक स्थिर निश्चयात्मक सिद्धान्त-वाक्य सुनना चाहते हैं, अतएव उन्होंने विनम्र शब्दोंमें भगवानसे प्रार्थना करते हुए पूछा-

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥
............( गी० १२ । १ )

हे नाथ! जो अनन्य भक्त आपके द्वारा कथित विधिके अनुसार निरन्तर मन लगाकर आप व्यक्त साकाररूप मनमोहन श्यामसुन्दरकी उपासना करते हैं, एवं जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन अव्यक्त-निराकाररूपकी उपासना करते हैं, इन दोनोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? प्रश्न स्पष्ट है | अर्जुन कहते हैं, आपने अपने व्यक्त रूपकी दुर्लभता बताकर केवल अनन्यभक्तिसे ही उस रूपके प्रत्यक्ष दर्शन, उसका तत्त्वज्ञान और उसमें एकत्व प्राप्त करना सम्भव बतलाया तथा फिर उस अनन्यता के लक्षण बतलाये। परन्तु इससे पहले आप कई बार अपने अव्यक्तोपासकों की भी प्रशंसा कर चुके हैं। अब आप निर्णयपूर्वक एक निश्चित मत बतलाइये कि इन दोनों प्रकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन-से हैं? 

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 01)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 01)
( सम्पादक-कल्याण )
श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात्‌ सच्चिदानन्दघन परमात्मा प्रभु श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी है। जगत्‌ में इसकी जोड़ी का कोई भी शास्त्र नहीं । सभी श्रेणी के लोग इससे अपने-अपने अधिकारानुसार भगवत्‌प्राप्ति के सुगम साधन प्राप्त कर सकते हैं। इसमें सभी मुख्य-मुख्य साधनों का विशद वर्णन है, परन्तु कोई भी एक-दूसरेका विरोधी नहीं है, सभी परस्पर सहायक हैं। ऐसा सामञ्जस्यपूर्ण ग्रन्थ केवल गीता ही है । कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीन प्रधान सिद्धान्तों की जैसी उदार, पूर्ण, निर्मल, उज्ज्वल, सरल एवं अन्तर और बाह्य लक्षणों से युक्त हृदयस्पर्शी सुन्दर व्यावहारिक व्याख्या इस ग्रन्थमें मिलती है, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं । प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचिके अनुसार किसी एक मार्गपर आरूढ़ होकर अनायास ही अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच सकता है।
"श्रीमद्भगवद्गीता को हम ‘निष्काम कर्मयोगयुक्त, भक्तिप्रधान और ज्ञानपूर्ण अध्यात्मशास्त्र कह सकते हैं ।" यह सभी प्रकार के मार्गों में संरक्षक, सहायक, मार्गदर्शक, प्रकाशदाता और पवित्र पाथेय का प्रत्यक्ष व्यावहारिक काम दे सकता है । गीता के प्रत्येक साधन में कुछ ऐसे दोषनाशक प्रयोग बतलाये गये हैं जिनका उपयोग करने से दोष समूल नष्ट होकर साधन सर्वथा शुद्ध और उपादेय बन जाता है । इसीलिये गीता का कर्म, गीता का ज्ञान, गीता का ध्यान और गीता की भक्ति सभी सर्वथा पापशून्य, दोषरहित, पवित्र और पूर्ण हैं । किसी में तनिक भी पोलकी गुंजायश नहीं। आज गीतोक्त व्यक्तोपासनाके विषयमें कुछ देखना है।
गीता के बारहवें अध्याय का नाम भक्तियोग है, इसमें कुल बीस श्लोक हैं । पहले श्लोक में भक्तवर अर्जुनका प्रश्न है और शेष उन्नीस श्लोकों में भगवान्‌ उसका उत्तर देते हैं। इनमें प्रथम ११ श्लोकों में तो भगवान्‌ के व्यक्त ( साकार ) और अव्यक्त ( निराकार ) स्वरूप के उपासकों की उत्तमता का निर्णय किया गया है एवं भगवत्प्राप्ति के कुछ उपाय बतलाये गये हैं । अगले आठ श्लोकों में परमात्मा के परम प्रिय भक्तों के स्वाभाविक लक्षणों का वर्णन है ।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


||श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:||

||श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:||

जिस घर में नित्यप्रति श्रीमद्भागवत की कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥

“कथा भागवतस्यापि नित्यं भवति यद्‌गृहे ।
तद्‌गृहं तीर्थरूपं हि वसतां पापनाशनम् ॥ “

...... (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य ०३/२९)


“मुकुंद माधव गोविन्द बोल | केशव माधव हरि हरि बोल || हरि हरि बोल हरि हरि बोल | कृष्ण कृष्ण बोल कृष्ण कृष्ण बोल ||”

“मुकुंद माधव गोविन्द बोल | केशव माधव हरि हरि बोल ||
हरि हरि बोल हरि हरि बोल | कृष्ण कृष्ण बोल कृष्ण कृष्ण बोल ||”

विवेकीजन सङ्ग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बन्धन मानते हैं; किन्तु वही सङ्ग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है, तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है ॥ 
{प्रसङ्गमजरं पाशं आत्मनः कवयो विदुः ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारं अपावृतम् ॥}
....श्रीमद्भागवत..३|२५|२३


नामका प्रभाव (02)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नामका प्रभाव (02)
अमर कैसे हों ? ‘नाम-प्रसाद’‒नामकी कृपासे भगवान् शंकर अविनाशी हो गये । उनका साज देखा जाय तो महाराज ! सर्प है, मुर्देकी राख है, मुण्डमाला है । ऐसा अमंगल साज है, विचित्र ढंगका साज है ।
भगवान् शंकरके साज विचित्र हैं ! भगवान् शंकरके साज अमंगल हैं, केवल इतनी ही बात नहीं है, बड़ी आफत है महाराज ! इधर तो खुदका गहना साँप है और उधर गणेशजीका वाहन चूहा है । इधर आपका वाहन बैल है तो भवानीका वाहन सिंह है । इस प्रकार घरमें एक-दूसरेकी कितनी कलह है, इसको तो वे ही जानें । भगवान् शंकर ही निभाते हैं । विरोधी-ही-विरोधी इकट्ठे हुए हैं सभी । सर्प गलेमें बैठा है तो कार्तिकेयके मयूर है । मयूर साँपको खाने दौड़े तो साँप चूहेको खाने दौड़े । ऐसे एक-एक के वैरी हैं । यह दशा है घरमें । ऐसे साज हैं अमंगलराशि ! फिर भी मंगलराशि हैं । ‘शिव-शिव’ कहने से कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय, मंगल हो जाय । सदा ही सबके मंगल कर दे । इसमें कारण क्या है ? यह नाम महाराजकी कृपा है ।
“सनकादि सिद्ध मुनि जोगी ।
नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥“
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । २)
शुकदेव मुनि, वही तोता जिसने अमरकथा सुनी और सनकादि सिद्ध, मुनि और योगी लोग हरदम भगवान्‌का नाम लेते हुए भगवान्‌के चरणोंमें ही रहते हैं । सनकादि हमेशा पाँच वर्षकी बालक-अवस्थामें ही रहते हैं । ये ब्रह्माजीसे सबसे पहले प्रकट हुए सृष्टि पीछे हुई, ऐसे इतने पुराने; परंतु देखनेमें छोटे-छोटे बच्चे, चार-पाँच वर्षके । वे सदा नग्न रहनेवाले महात्माकी तरह घूमते फिरते हैं । सदैव ‘हरिः शरणम्’ ऐसे रटते रहते हैं । वे नामके प्रसाद से ब्रह्मसुख लेते हैं ।
“नारद जानेउ नाम प्रतापू ।
जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥“
…………(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । ३)
संसार को तो विष्णु भगवान् प्यारे लगते हैं, वे संसार का पालन-पोषण करने वाले हैं । जैसे बालकको माँ बड़ी प्यारी लगती है ‘मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम्’‒ शरीरका पालन करनेमें माँ के समान कोई नहीं है । कोई आफत हो तो बालक को माँ याद आती है । हम भाई-बहन जितने हैं, हम सबका पालन-पोषण माँ ने ही किया है । माँ की तरह संसारमात्रका पालन करनेवाली शक्ति (माँ) है भगवान् हरि (विष्णु) । नारदजी भगवान्‌के नामका कीर्तन करते हैं । इस नामके कारण भगवान् विष्णुको और भगवान् शंकरको भी प्यारे लगने लगे । इस प्रकार सबको प्रिय लगनेवाले नारदजी महाराज हो गये ।
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...