शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

मोहिनीरूप से भगवान्‌ के द्वारा अमृत बाँटा जाना

श्रीभगवानुवाच -
कथं कश्यपदायादाः पुंश्चल्यां मयि संगताः ।
विश्वासं पण्डितो जातु कामिनीषु न याति हि ॥ ९ ॥
सालावृकाणां स्त्रीणां च स्वैरिणीनां सुरद्विषः ।
सख्यान्याहुरनित्यानि नूत्‍नं नूत्‍नं विचिन्वताम् ॥ १० ॥

श्रीशुक उवाच -
इति ते क्ष्वेलितैस्तस्या आश्वस्तमनसोऽसुराः ।
जहसुर्भावगम्भीरं ददुश्चामृतभाजनम् ॥ ११ ॥
ततो गृहीत्वामृतभाजनं हरिः
बभाष ईषत् स्मितशोभया गिरा ।
यद्यभ्युपेतं क्व च साध्वसाधु वा
कृतं मया वो विभजे सुधामिमाम् ॥ १२ ॥
इत्यभिव्याहृतं तस्या आकर्ण्यासुरपुंगवाः ।
अप्रमाणविदस्तस्याः तत् तथेत्यन्वमंसत ॥ १३ ॥
अथोपोष्य कृतस्नाना हुत्वा च हविषानलम् ।
दत्त्वा गोविप्रभूतेभ्यः कृतस्वस्त्ययना द्विजैः ॥ १४ ॥
यथोपजोषं वासांसि परिधायाहतानि ते ।
कुशेषु प्राविशन्सर्वे प्राग् अग्रेष्वभिभूषिताः ॥ १५ ॥

श्रीभगवान्‌ने कहाआपलोग महर्षि कश्यपके पुत्र हैं और मैं हूँ कुलटा। आपलोग मुझपर न्यायका भार क्यों डाल रहे हैं ? विवेकी पुरुष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियोंका कभी विश्वास नहीं करते ॥ ९ ॥ दैत्यो ! कुत्ते और व्यभिचारिणी स्त्रियोंकी मित्रता स्थायी नहीं होती। वे दोनों ही सदा नये-नये शिकार ढूँढ़ा करते हैं ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मोहिनीकी परिहासभरी वाणीसे दैत्योंके मनमें और भी विश्वास हो गया। उन लोगोंने रहस्यपूर्ण भावसे हँसकर अमृतका कलश मोहिनीके हाथमें दे दिया ॥ ११ ॥ भगवान्‌ने अमृतका कलश अपने हाथमें लेकर तनिक मुसकराते हुए मीठी वाणीसे कहा—‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब यदि तुमलोगोंको स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ॥ १२ ॥ बड़े-बड़े दैत्योंने मोहिनीकी यह मीठी बात सुनकर उसकी बारीकी नहीं समझी, इसलिये सबने एक स्वरसे कह दिया स्वीकार है।इसका कारण यह था कि उन्हें मोहिनीके वास्तविक स्वरूपका पता नहीं था ॥ १३ ॥
इसके बाद एक दिनका उपवास करके सबने स्नान किया। हविष्यसे अग्नि में हवन किया। गौ, ब्राह्मण और समस्त प्राणियोंको घास-चारा, अन्न-धनादिका यथायोग्य दान दिया तथा ब्राह्मणोंसे स्वस्त्ययन कराया ॥ १४ ॥ अपनी-अपनी रुचिके अनुसार सबने नये-नये वस्त्र धारण किये और इसके बाद सुन्दर-सुन्दर आभूषण धारण करके सब-के-सब उन कुशासनोंपर बैठ गये, जिनका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था ॥ १५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

मोहिनीरूप से भगवान्‌ के द्वारा अमृत बाँटा जाना

श्रीशुक उवाच -
तेऽन्योन्यतोऽसुराः पात्रं हरन्तस्त्यक्तसौहृदाः ।
क्षिपन्तो दस्युधर्माण आयान्तीं ददृशुः स्त्रियम् ॥ १ ॥
अहो रूपमहो धाम अहो अस्या नवं वयः ।
इति ते तां अभिद्रुत्य पप्रच्छुर्जातहृच्छयाः ॥ २ ॥
का त्वं कञ्जपलाशाक्षि कुतो वा किं चिकीर्षसि ।
कस्यासि वद वामोरु मथ्नतीव मनांसि नः ॥ ३ ॥
न वयं त्वामरैर्दैत्यैः सिद्धगन्धर्वचारणैः ।
नास्पृष्टपूर्वां जानीमो लोकेशैश्च कुतो नृभिः ॥ ४ ॥
नूनं त्वं विधिना सुभ्रूः प्रेषितासि शरीरिणाम् ।
सर्वेन्द्रियमनःप्रीतिं विधातुं सघृणेन किम् ॥ ५ ॥
सा त्वं नः स्पर्धमानानां एकवस्तुनि मानिनि ।
ज्ञातीनां बद्धवैराणां शं विधत्स्व सुमध्यमे ॥ ६ ॥
वयं कश्यपदायादा भ्रातरः कृतपौरुषाः ।
विभजस्व यथान्यायं नैव भेदो यथा भवेत् ॥ ७ ॥
इति उपामंत्रितो दैत्यैः मायायोषिद् वपुर्हरिः ।
प्रहस्य रुचिरापाङ्‌गैः निरीक्षन् इदमब्रवीत् ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! असुर आपस के सद्भाव और प्रेम को छोडक़र एक-दूसरे की निन्दा कर रहे थे और डाकू की तरह एक-दूसरे के हाथ से अमृतका कलश छीन रहे थे। इसी बीचमें उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दरी स्त्री उनकी ओर चली आ रही है ॥ १ ॥ वे सोचने लगे—‘कैसा अनुपम सौन्दर्य है। शरीरमें से कितनी अद्भुत छटा छिटक रही है ! तनिक इसकी नयी उम्र तो देखो !बस, अब वे आपसकी लाग-डाँट भूलकर उसके पास दौड़ गये। उन लोगोंने काममोहित होकर उससे पूछा॥ २ ॥ कमलनयनी ! तुम कौन हो ? कहाँसे आ रही हो ? क्या करना चाहती हो ? सुन्दरी ! तुम किसकी कन्या हो ? तुम्हें देखकर हमारे मनमें खलबली मच गयी है ॥ ३ ॥ हम समझते हैं कि अबतक देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालोंने भी तुम्हें स्पर्शतक न किया होगा। फिर मनुष्य तो तुम्हें कैसे छू पाते ? ॥ ४ ॥ सुन्दरी ! अवश्य ही विधाताने दया करके शरीरधारियोंकी सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मनको तृप्त करनेके लिये तुम्हें यहाँ भेजा है ॥ ५ ॥ मानिनी ! वैसे हमलोग एक ही जातिके हैं। फिर भी हम सब एक ही वस्तु चाह रहे हैं, इसलिये हममें डाह और वैरकी गाँठ पड़ गयी है। सुन्दरी ! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो ॥ ६ ॥ हम सभी कश्यपजीके पुत्र होनेके नाते सगे भाई हैं। हमलोगोंने अमृतके लिये बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्यायके अनुसार निष्पक्षभावसे इसे बाँट दो, जिससे फिर हमलोगोंमें किसी प्रकारका झगड़ा न हो॥ ७ ॥ असुरोंने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब लीलासे स्त्री-वेष धारण करनेवाले भगवान्‌ने तनिक हँसकर और तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखते हुए कहा ॥ ८ ॥

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गुरुवार, 26 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना

मिथः कलिरभूत्तेषां तदर्थे तर्षचेतसाम्
अहं पूर्वमहं पूर्वं न त्वं न त्वमिति प्रभो ॥ ३८ ॥
देवाः स्वं भागमर्हन्ति ये तुल्यायासहेतवः
सत्रयाग इवैतस्मिन्नेष धर्मः सनातनः ॥ ३९ ॥
इति स्वान्प्रत्यषेधन्वै दैतेया जातमत्सराः
दुर्बलाः प्रबलान्राजन्गृहीतकलसान्मुहुः ॥ ४० ॥
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुः सर्वोपायविदीश्वरः
योषिद्रू पमनिर्देश्यं दधारपरमाद्भुतम् ॥ ४१ ॥
प्रेक्षणीयोत्पलश्यामं सर्वावयवसुन्दरम्
समानकर्णाभरणं सुकपोलोन्नसाननम् ॥ ४२ ॥
नवयौवननिर्वृत्त स्तनभारकृशोदरम्
मुखामोदानुरक्तालि झङ्कारोद्विग्नलोचनम् ॥ ४३ ॥
बिभ्रत्सुकेशभारेण मालामुत्फुल्लमल्लिकाम्
सुग्रीवकण्ठाभरणं सुभुजाङ्गदभूषितम् ॥ ४४ ॥
विरजाम्बरसंवीत नितम्बद्वीपशोभया
काञ्च्या प्रविलसद्वल्गु चलच्चरणनूपुरम् ॥ ४५ ॥
सव्रीडस्मितविक्षिप्त भ्रूविलासावलोकनैः
दैत्ययूथपचेतःसु काममुद्दीपयन्मुहुः ॥ ४६ ॥

परीक्षित्‌ ! अमृतलोलुप दैत्योंमें उसके लिये आपसमें झगड़ा खड़ा हो गया। सभी कहने लगे पहले मैं पीऊँगा, पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं॥ ३८ ॥ उनमें जो दुर्बल थे, वे उन बलवान् दैत्योंका विरोध करने लगे, जिन्होंने कलश छीनकर अपने हाथमें कर लिया था, वे ईष्र्यावश धर्मकी दुहाई देकर उनको रोकने और बार-बार कहने लगे कि भाई ! देवताओंने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है, उनको भी यज्ञभागके समान इसका भाग मिलना ही चाहिये। यही सनातनधर्म है॥ ३९-४० ॥ इस प्रकार इधर दैत्योंमें तू-तू, मैं-मैंहो रही थी और उधर सभी उपाय जानने- वालोंके स्वामी चतुरशिरोमणि भगवान्‌ने अत्यन्त अद्भुत और अवर्णनीय स्त्रीका रूप धारण किया ॥ ४१ ॥ शरीरका रंग नील कमलके समान श्याम एवं देखने ही योग्य था। अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़े ही आकर्षक थे। दोनों कान बराबर और कर्णफूलसे सुशोभित थे। सुन्दर कपोल, ऊँची नासिका और रमणीय मुख ॥ ४२ ॥ नयी जवानीके कारण स्तन उभरे हुए थे और उन्हींके भारसे कमर पतली हो गयी थी। मुखसे निकलती हुई सुगन्धके प्रेमसे गुनगुनाते हुए भौंरे उसपर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रोंमें कुछ घबराहटका भाव आ जाता था ॥ ४३ ॥ अपने लंबे केशपाशोंमें उन्होंने खिले हुए बेलेके पुष्पोंकी माला गूँथ रखी थी। सुन्दर गलेमें कण्ठके आभूषण और सुन्दर भुजाओंमें बाजूबंद सुशोभित थे ॥ ४४ ॥ इनके चरणोंके नूपुर मधुर ध्वनिसे रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ीसे ढके नितम्बद्वीपपर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छटा छिटका रही थी ॥ ४५ ॥ अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौंहें और विलासभरी चितवनसे मोहिनी-रूपधारी भगवान्‌ दैत्यसेनापतियोंके चित्तमें बार-बार कामोद्दीपन करने लगे ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
भगवन्मायोपलम्भनं नामाष्टमोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना

अथोदधेर्मथ्यमानात्काश्यपैरमृतार्थिभिः
उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः ॥ ३१ ॥
दीर्घपीवरदोर्दण्डः कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः
श्यामलस्तरुणः स्रग्वी सर्वाभरणभूषितः ॥ ३२ ॥
पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः
स्निग्धकुञ्चितकेशान्त सुभगः सिंहविक्रमः ॥ ३३ ॥
अमृतापूर्णकलसं बिभ्रद्वलयभूषितः
स वै भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसम्भवः ॥ ३४ ॥
धन्वन्तरिरिति ख्यात आयुर्वेददृगिज्यभाक्
तमालोक्यासुराः सर्वे कलसं चामृताभृतम् ॥ ३५ ॥
लिप्सन्तः सर्ववस्तूनि कलसं तरसाहरन्
नीयमानेऽसुरैस्तस्मिन्कलसेऽमृतभाजने ॥ ३६ ॥
विषण्णमनसो देवा हरिं शरणमाययुः
इति तद्दैन्यमालोक्य भगवान्भृत्यकामकृत्
मा खिद्यत मिथोऽर्थं वः साधयिष्ये स्वमायया ॥ ३७ ॥

तदनन्तर महाराज ! देवता और असुरों ने अमृतकी इच्छा से जब और भी समुद्रमन्थन किया, तब उसमें से एक अत्यन्त अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ ॥ ३१ ॥ उसकी भुजाएँ लंबी एवं मोटी थीं। उसका गला शङ्ख के समान उतार-चढ़ाववाला था और आँखोंमें लालिमा थी। शरीरका रंग बड़ा सुन्दर साँवला-साँवला था। गलेमें माला, अङ्ग-अङ्ग सब प्रकार के आभूषणोंसे सुसज्जित, शरीरपर पीताम्बर, कानोंमें चमकीले मणियोंके कुण्डल, चौड़ी छाती, तरुण अवस्था, सिंहके समान पराक्रम, अनुपम सौन्दर्य, चिकने और घुँघराले बाल लहराते हुए उस पुरुषकी छबि बड़ी अनोखी थी ॥ ३२-३३ ॥ उसके हाथोंमें कंगन और अमृतसे भरा हुआ कलश था। वह साक्षात् विष्णुभगवान्‌के अंशांश अवतार थे ॥ ३४ ॥ वे ही आयुर्वेदके प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरिके नामसे सुप्रसिद्ध हुए। जब दैत्योंकी दृष्टि उनपर तथा उनके हाथमें अमृतसे भरे हुए कलश- पर पड़ी, तब उन्होंने शीघ्रतासे बलात् उस अमृतके कलशको छीन लिया। वे तो पहलेसे ही इस ताकमें थे कि किसी तरह समुद्रमन्थनसे निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायँ। जब असुर उस अमृतसे भरे कलशको छीन ले गये, तब देवताओंका मन विषादसे भर गया। अब वे भगवान्‌की शरणमें आये। उनकी दीन दशा देखकर भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान्‌ने कहा—‘देवताओ ! तुमलोग खेद मत करो। मैं अपनी मायासे उनमें आपसकी फूट डालकर अभी तुम्हारा काम बना देता हूँ॥ ३५३७ ॥

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बुधवार, 25 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना

तस्याः श्रियस्त्रिजगतो जनको जनन्या
वक्षो निवासमकरोत्परमं विभूतेः
श्रीः स्वाः प्रजाः सकरुणेन निरीक्षणेन
यत्र स्थितैधयत साधिपतींस्त्रिलोकान् ॥ २५ ॥
शङ्खतूर्यमृदङ्गानां वादित्राणां पृथुः स्वनः
देवानुगानां सस्त्रीणां नृत्यतां गायतामभूत् ॥ २६ ॥
ब्रह्मरुद्रा ङ्गिरोमुख्याः सर्वे विश्वसृजो विभुम्
ईडिरेऽवितथैर्मन्त्रैस्तल्लिङ्गैः पुष्पवर्षिणः ॥ २७ ॥
श्रियावलोकिता देवाः सप्रजापतयः प्रजाः
शीलादिगुणसम्पन्ना लेभिरे निर्वृतिं पराम् ॥ २८ ॥
निःसत्त्वा लोलुपा राजन्निरुद्योगा गतत्रपाः
यदा चोपेक्षिता लक्ष्म्या बभूवुर्दैत्यदानवाः ॥ २९ ॥
अथासीद्वारुणी देवी कन्या कमललोचना
असुरा जगृहुस्तां वै हरेरनुमतेन ते ॥ ३० ॥

जगत्पिता भगवान्‌ ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठातृ-देवता श्रीलक्ष्मीजी को अपने वक्ष:स्थलपर ही सर्वदा निवास करनेका स्थान दिया। लक्ष्मीजी ने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणाभरी चितवन से तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजा की अभिवृद्धि की ॥ २५ ॥ उस समय शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग आदि बाजे बजने लगे। गन्धर्व अप्सराओंके साथ नाचने-गाने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा ॥ २६ ॥ ब्रह्मा, रुद्र, अङ्गिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान्‌के गुण, स्वरूप और लीला आदिके यथार्थ वर्णन करनेवाले मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ २७ ॥ देवता, प्रजापति और प्रजासभी लक्ष्मीजीकी कृपादृष्टिसे शील आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न होकर बहुत सुखी हो गये ॥ २८ ॥ परीक्षित्‌ ! इधर जब लक्ष्मीजीने दैत्य और दानवोंकी उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये ॥ २९ ॥ इसके बाद समुद्रमन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुर्ईं। भगवान्‌ की अनुमति से दैत्यों ने उसे ले लिया ॥ ३० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना

एवं विमृश्याव्यभिचारिसद्गुणै-
र्वरं निजैकाश्रयतयागुणाश्रयम्
वव्रे वरं सर्वगुणैरपेक्षितं
रमा मुकुन्दं निरपेक्षमीप्सितम् ॥ २३ ॥
तस्यांसदेश उशतीं नवकञ्जमालां
माद्यन्मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टाम्
तस्थौ निधाय निकटे तदुरः स्वधाम
सव्रीडहासविकसन्नयनेन याता ॥ २४ ॥

इस प्रकार सोच-विचारकर अन्तमें श्रीलक्ष्मीजी ने अपने चिर अभीष्ट भगवान्‌को ही वरके रूपमें चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परंतु वे किसीकी भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तवमें लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय भगवान्‌ ही हैं। इसी से उन्होंने उन्हींको वरण किया ॥ २३ ॥ लक्ष्मीजी ने भगवान्‌ के गले में वह नवीन कमलों की सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवनसे अपने निवासस्थान उनके वक्ष:स्थलको देखती हुर्ईं वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं ॥ २४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...