मंगलवार, 22 अगस्त 2023

सच्चा सुधारक... गोस्वामी तुलसीदास जी (पोस्ट ०२)



दिनरात भजनमें संलग्न रहनेपर भी तुलसीदासजी कहते हैं-

तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पापपुञ्जहारी॥

कितना बड़ा आत्म-विश्लेषण है !

हम आजकल तनिक सा पूजा-पाठ करके अपने को कृतार्थ समझ लेते हैं और उस कृतकृत्य की आड़में मनमाने पाप करनेमें भी नहीं सकुचाते। इतना होनेपर भी लोगों के सामने बड़े भक्त, सदाचारी और निर्दोष बननेका दावा करते हैं । पर गोस्वामी जी महाराज जैसे परम पवित्र महापुरुष जीवनभर सच्ची भक्ति और मानसिक भजन में लगे रहनेपर भी अपनी मानवीय दुर्बलताओं को अपने इष्टदेव श्रीरामके सामने कितनी स्पष्टतासे प्रकट करते हैं। यही उनके सच्चे सुधारक होनेका ज्वलन्त प्रमाण है। आप बड़े ही आर्त्त भावसे कहते हैं-

कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये॥
जेहि साधन हरि द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये। 
जाते विपत्ति-जाल निसिदिन दुख तोहि पथ अनुसरिये॥
जानत हूं मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो विपरीत देखि परसुख बिनु कारन ही जरिये॥
स्रुति पुरान सबको मत यह सत्संग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह ईर्षावस तिनहिं न आदरिये॥
संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जाते भवनिधि परिये।
कहो, अब नाथ ! कौन बलतें संसार-सोक हरिये॥
जब कब निज करुना-सुभावतें द्रवहु तो निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आन नहिं कत पचि पचि मरिये॥

अपने दोषों के वर्णन के साथ ही करुणामय नाथ पर कितना भरोसा है। दूसरों को उपदेश देकर उनका सुधार करनेवाले और भगवान्‌ के आश्रय की उपेक्षा करने वाले आत्म-विस्मृत हम लोगों को गोस्वामी जी महाराज की इस विनय से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।

गोस्वामी जी महाराज के इस आत्मसंशोधन के कार्य को उनके सद्‌ग्रन्थों द्वारा जानकर हमें अपनी दुर्बलताओं का अनुभव करके एकमात्र सर्वगुणाधार सर्वनियन्ता सर्वशक्तिमान भगवान्‌ की शरण ग्रहण करनेके लिये तैयार हो जाना चाहिये। भगवान्‌ की शरण से समस्त पापों का नाश होकर सारा सुधार स्वयमेव हो जायगा।

भगवान्‌ की यह घोषणा याद रखनी चाहिये—

सर्वधर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

( बाबा राघवदासजी )

..................००४.०२.भाद्रपद कृष्ण ११ सं०१९८६. कल्याण (पृ०५७१)


सच्चा सुधारक... गोस्वामी तुलसीदास जी (पोस्ट ०१)



स्वामी रामतीर्थजी ने एक बार कहा था कि ‘एफ़ोर्मेर्स, नोत ओफ़ ओथेर्स बुत ओफ़ थेम्सेल्वेस, व्हो एअर्नेद नो उनिवेर्सित्य दिस्तिन्च्तिओन बुत चोन्त्रोल ओवेर थे लोचल सेल्फ़’ अर्थात्‌ हमें ऐसे सुधारक चाहिये जो दूसरों का नहीं, पर अपना सुधार करना चाहते हैं, जिन्हें विश्वविद्यालय की उपाधियां प्राप्त नहीं हैं, पर जो अपने आत्मा पर शासन कर सकते हैं ।*

संसार में जिन महापुरुषों ने ऐसा किया है, उनमें भगवद्भक्ति-परायण पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का नाम विशेष उल्लेखनीय है । गोस्वामीजी महाराज ने जो कुछ सुधार का काम किया सो केवल अपने ही सुधारका किया । वे आजकल की भांति आत्मनिरीक्षण न कर पराये सुधार का दम नहीं भरते थे। उनके जीवन में ऐसे प्रसंग नहीं के बराबर हैं जिनमें उन्होंने दूसरों को उपदेश देने के लिये कभी प्रवचन आदि किया हो। अपने जगत्‌-प्रसिद्ध पुण्य-ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस के आरम्भमें आप कहते हैं-

“स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा,
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।“

मानस में वन्दना करते समय तो आपने बड़ी ही खूबी से आत्म-संशोधन का कार्य किया है । आपने कहा है-

आकर चारि लाख चौरासी।
जाति जीव जल थल नभबासी॥
सीयराममय सब जग जानी।
करौं प्रणाम जोरि जुग पानी॥
जानि कृपा करि किंकर मोहू।
सब मिलि करहु छाँड़ि छल छोहु॥
निज बल बुधि भरोस मोहि नाहीं।
तातें विनय करौं सब पाही॥
आज जिसके भक्ति-सुधा-पूर्ण महान्‌ काव्य की धूम सारे संसार में मच रही है, जो जगत्‌ का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है, जिसकी उपर्युक्त पंक्तियों में भी अनुप्रास प्रासादिक भरे हैं, वह हृदयके सच्चे भावों से किस प्रकार सब के आशीर्वाद का इच्छुक है। कितना बड़ा आत्म-संशोधन है ! सर्वव्यापी भगवान्‌ के सर्वव्यापीपन में कैसी विलक्षण एकनिष्ठा है !
आपका दूसरा प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रन्थ विनयपत्रिका है, वह तो उनके आत्म-संशोधन का एक अनुपम संग्रह है । एक जगह आप कितनी दीनता के साथ भगवान्‌ से अपने उद्धार के लिये प्रार्थना करते हैं-

माधव अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर मोर पन जिअहु कमल पद लेखे॥
जबलगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास तैं स्वामी।
तबलगि जो दुख सहेउं कहेउं नहिं जद्यपि अन्तरजामी।
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत स्रुति गावै।
बहुत नात रघुनाथ तोहि मोहि अब न तजै बनि आवै॥

यह केवल दिखाने के लिये शब्द-रचनामात्र नहीं है, गोस्वामी जी महाराज अपने प्रभु के सम्मुख हृदय खोलकर रख रहे हैं और विनयपूर्वक अपने उद्धार के लिये प्रार्थना कर रहें हैं । इतना ही नहीं वे अपने मन-इन्द्रियों से भी इस कार्य में सहायता चाहते हैं-

रुचिर रसना तू राम राम क्यों न रटत।
सुमिरत सुख सुकृत बढ़त अघ अमंगल घटत॥

एक स्थानपर आप अपने उद्धार-कार्यों को लोगों की दृष्टि में अधिक चढ़ा हुआ देखकर बड़ी ग्लानि से कहते हैं-

लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
एतो बड़ो अपराधको न मन बावौं॥
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।
बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो॥
...........................................................................
(* भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने भी श्रीगीतोक्त अमृतोपदेश में यही उपदेश दिया है-‘उद्धरेदात्मनात्मानम्‌’ आप ही अपना उद्धार करे। )
( बाबा राघवदासजी )

शेष आगामी पोस्ट में ---
.......००४. ०२.भाद्रपद कृष्ण ११ सं०१९८६. कल्याण (पृ०५७१)


जय श्री कृष्ण



मेरे लिये तो जहाँ तुम हो, वहीं काशी है, वहीं द्वारका है ।  वहीं मक्का है और वहीं जेरूसलेम है ।  मुझे ऐसे ही तरण-तारण तीर्थों में ले चलो, मेरे नाथ ! 

 जहाँ भी तुम्हारे प्रेम-रस की विमल धारा बहती हो, वहीं गङ्गा है, वहीं जमुना है और वहीं आबे ज़मज़म है ।  मुझे ऐसी ही सरस सरिताओं की लहरों पर धीरे-धीरे झुलाते रहो, मेरे हृदय-रमण !

 जहाँ कहीं भी तुम्हारी प्यारी झलक देखने को मिलती हो, मेरी नज़र में, वहीं मन्दिर है, वहीं मसज़िद है और वहीं गिरिजा है ।  मेरा आसन किसी ऐसे उपासना-स्थल में जमा दो, मेरे स्वामी !

(श्रीवियोगी हरिजी)
………..००४.०६.पौष कृष्ण ११ सं० १९८६वि०-कल्याण (पृ०८३८)


सोमवार, 21 अगस्त 2023

महाविद्या तारा


माँ तारा दस महाविद्याओं में से एक है | दस महाविद्याओं में काली प्रथम है | दूसरा स्थान माँ तारा का है |  देवी अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ है | भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा करती है | जिनके घर में भूत,प्रेत,पिशाच बाधा हो, बच्चे बुद्धिहीन हों, व्यापार में हानि होती हो तो इस स्तोत्र का पाठ नित्य प्रातः, मध्यान्ह तथा सांय करने से, नि:संदेह चामत्कारिक रूप से सब प्रकार की सुख शान्ति मिलती है | 
अनुभव अवश्य करके देखें | 

तारा महाविद्या स्तोत्र 

मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे 
प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे। 
फुल्लेन्दीवरलोचनत्रययुते कर्त्रीकपालोत्पले 
खड्गं चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये॥ १॥ 
वाचामीश्वरि भक्तकल्पलतिके सर्वार्थसिद्धीश्वरि 
सद्यः प्राकृतगद्यपद्यरचनासर्वार्थसिद्धिप्रदे। 
नीलेन्दीवरलोचनत्रययुते कारुण्यवारांनिधे 
सौभाग्यामृतवर्धनेन कृपया सिञ्चत्वमस्मादृशम्॥ २॥ 
खर्वे गर्वसमहपूरिततनो सर्पादिभूषोज्ज्वले 
व्याघ्रत्वक्परिवीतसुन्दरकटिव्याधूतघण्टाङ्किते। 
सद्यःकृत्तगलद्रजःपरिलसन्मुण्डद्वयीमूर्धज- 
ग्रन्थिश्रेणिनृमुण्डदामललिते भीमे भयं नाशय॥ ३॥
मायानङ्गविकाररूपललनाबिन्द्वर्धचन्द्रात्मिके
 हुंफट्कारमयि त्वमेव शरणं मन्त्रात्मिके मादृशः। 
मूर्तिस्ते जननि त्रिधामघटिता स्थूलातिसूक्ष्मा परा 
वेदानां नहि गोचरा कथमपि प्राज्ञैर्नुतामाश्रये॥ ४॥ 
त्वत्पादाम्बुजसेवया सुकृतिनो गच्छन्ति सायुज्यतां 
तस्या श्रीपरमेश्वरस्त्रिनयनब्रह्मादिसौम्यात्मनः। 
संसाराम्बुधिमज्जने पटतनुर्देवेन्द्रमुख्यान् सुरान् 
मातस्त्वत्पदसेवने हि विमुखान् को मन्दधीः सेवते॥ ५॥ 
मातस्त्वत्पदपङ्कजद्वयरजोमुद्राङ्ककोटीरिण: 
ते देवासुरसंगरे विजयिनो निःशङ्कमङ्के गताः। 
देवोऽहं भुवने न मे सम इति स्पर्द्धां वहन्तः परा:
तत्त्तुल्या नियतं तथा चिरममी नाशं व्रजन्ति स्वयम्॥ ६॥ 
त्वन्नामस्मरणात् पलायनपरा द्रष्टुं च शक्ता न ते 
भूतप्रेतपिशाचराक्षसगणा यक्षाश्च नागाधिपाः। 
दैत्या दानवपुङ्गवाश्च खचरा व्याघ्रादिका जन्तवो
डाकिन्यः कुपितान्तकाश्च मनुजा मातः क्षणं भूतले॥ ७॥
लक्ष्मीः सिद्धगणाश्च पादुकमुखाः सिद्धास्तथा वैरिणां 
स्तम्भश्चापि रणाङ्गणे गजघटास्तम्भस्तथा मोहनम्। 
मातस्त्वत्पदसेवया खलु नृणां सिद्ध्यन्ति ते ते गुणाः 
क्लान्तः कान्तमनोभवस्य भवती क्षुद्रोऽपि वाचस्पतिः॥ ८॥ 
ताराष्टकमिदं पुण्यं भक्तिमान् यः पठेन्नरः। 
प्रातर्मध्याह्नकाले च सायाह्ने नियतः शुचिः॥ ९॥ 
लभते कवितां विद्यां सर्वशास्त्रार्थविद् भवेत्। 
लक्ष्मीमनश्वरां प्राप्य भुक्त्वा भोगान् यथेप्सितान्॥ १०॥ 
कीर्ति कान्तिं च नैरुज्यं सर्वेषां प्रियतां व्रजेत्। 
विख्यातिं चैव लोकेषु प्राप्यान्ते मोक्षमाप्नुयात्॥ ११॥ 

इति तारा महाविद्या स्तोत्रं समाप्तम्।


रविवार, 20 अगस्त 2023

यमराज के कुत्ते


 

ऋग्वेद में आया है—

 

अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा ।

अथपितृन्त्सुविदत्राँ उपेहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ||

( ऋग्वेद-सं० १० । १४ । १० }

 

हे अग्निदेव ! प्रेतों के बाधक यमराज के दोनों कुत्तों का उल्लङ्घन करके इस प्रेत को ले जाइये और ले जा करके यम के साथ जो पितर प्रसन्नतापूर्वक विहार कर रहे हैं, उन अच्छे ज्ञानी पितरों के पास पहुँचा दीजिये; क्योंकि ये दोनों कुत्ते देवसुनी शर्माके लड़के हैं और इनकी दो नीचे और दो ऊपर चार आँखें हैं ।

 

यौ ते श्वानं यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसौ ।

ताभ्यामेनं परि देहि राजन्त्स्वस्ति चास्मा अनमीत्रं च धेहि ॥

(ऋग्वेदसं० १० । १४ । ११ )

 

हे राजन् ! यस आपके घर की रखवाली करनेवाले आपके मार्ग की रक्षा करने वाले श्रुति-स्मृति-पुराणों के विद्वानों द्वारा ख्यापित चार आँखवाले अपने कुत्तों से इसकी रक्षा कीजिये तथा इसे नीरोग बनाइये |

 

उरुणसावसुतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु ।

तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥

(ऋग्वेद-सं० १० । १४ । १२ )

 

यम के दूत दोनों कुत्ते लोगों को देखते हुए सर्वत्र घूमते हैं | बहुत दूर से सूंघकर पता लगा लेते हैं और दूसरे प्राण से तृप्त होते हैं, बड़े बलवान् है । वे दोनों दूत सूर्य के दर्शन के लिये हमें शक्ति दें ।


......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक” पुस्तक से (कोड 572)

 

 



अन्नदान न करने के कारण ब्रह्मलोक जाने के बाद भी,अपने मुर्दे का मांस खाना पड़ा


 

विदर्भ देश के राजा श्वेत बड़े अच्छे पुरुष थे । राज्य से वैराग्य होने पर उन्होंने अरण्य में जाकर तक तप किया और तप के फलस्वरूप उन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति हुई; परंतु उन्होंने जीवन में कभी किसी को भोजन दान नहीं किया था। इससे वे ब्रह्मलोक में भी भूख से पीड़ित रहे । ब्रह्माजी ने उनसे कहा-'तुमने किसी भिक्षुक को कभी भिक्षा नहीं दी । विविध भोगों से केवल अपने शरीर को ही पाला-पोसा और  तप किया । तप के फल से तुम मेरे लोकमें आ गये । तुम्हारा मृत शरीर धरतीपर पड़ा है। वह पुष्ट तथा  अक्षय कर दिया गया है । तुम उसीका मांस खाकर भूख मिटाओ  अगस्त्य ऋषि के मिलने पर उस घृणित भोजन से छूट सकोगे ।"

 

उन्हीं श्वेत राजा को ब्रह्मलोक से आकर अपने शव का मांस खाना पड़ता था । यह अन्नदान न देने का फल  है । फिर एक दिन उन्हें अगस्त्य ऋषि मिले । तब उनको इस अत्यन्त घृणित कार्य से छुटकारा मिला |

 

अतएव यहाँ अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान अवश्य करना चाहिये । यहाँ का दिया हुआ ही----परलोक में या पुनर्जन्म होने पर प्राप्त होता है । यह आवश्यक नहीं है कि कोई इतने परिमाण में दान करे | जिसके पास जो हो-उसी में से यथाशक्ति कुछ दान दिया करे ।

 

राजा श्वेत हुए अति वैभवशाली तपोनिष्ठ मतिमान 

पर न किया था कभी उन्होंने जीवन में भोजन का दान ॥

क्षुधा भयानक से पीड़ित वे आले प्रतिदिन चढ़े विमान 

धरतीपर खाते स्वमांस अपने ही शवका घृणित महान 

 

----गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक“ पुस्तक से  (कोड 572)   




शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

श्राद्ध-तत्त्व - प्रश्नोत्तरी

 

 


श्रीहरि :

 

प्रश्न - श्राद्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर ---- श्रद्धा से किया जानेवाला वह कार्य, जो पितरों के निमित्त किया जाता है, श्राद्ध कहलाता है ।


प्रश्न – कई लोग कहते हैं कि श्राद्धकर्म असत्य है और इसे ब्राह्मणोंने ही अपने लेने-खाने के लिये बनाया है । इस विषयपर आपका क्या विचार है ?

उत्तर - श्राद्धकर्म पूर्णरूपेण आवश्यक कर्म हैं और शास्त्रसम्मत है । हाँ, वर्तमानकाल में लोगों में ऐसी रीति ही चल पड़ी है कि जिस बात को वे समझ जायें, वह तो उनके लिये सत्य हैं; परंतु जो विषय उनकी समझ के बाहर हो, उने वे गलत कहने लगते हैं ।

कलिकाल के लोग प्रायः स्वार्थी हैं । उन्हें दूसरे का सुखी होना सुहाता नहीं । स्वयं तो मित्रों के बड़े-बड़े भोज - निमन्त्रण स्वीकार करते हैं, मित्रोंको अपने घर भोजनके लिये निमन्त्रित करते हैं, रात-दिन निरर्थक व्यय में आनन्द मनाते हैं; परंतु श्राद्धकर्म में एक ब्राह्मण ( जो हम से बड़ी जाति का है और पूजनीय है ) को भोजन कराने में भार अनुभव करते हैं । जिन माता - पिताकी जीवनभर सेवा करके भी ऋण नहीं चुकाया जा सकता, उनके पीछे भी उनके लिये श्राद्धकर्म करते रहना आवश्यक है ।

 

प्रश्न – श्राद्ध करने से क्या लाभ होता है ?

- मनुष्यमात्र के लिये शास्त्रों में देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण – ये तीन ऋण बताये गये हैं । इनमें श्राद्ध के द्वारा पितृ ऋण उतारा जाता है ।

विष्णुपुराण में कहा गया है कि श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं । ' ( | १५ | ५१ ) इसके अतिरिक्त आद्धकर्त्ता पुरुष से विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा कुटुम्बीजन - सभी संतुष्ट रहते हैं । ( ३ । १५ । ५४) पितृपक्ष (आश्विनका कृष्णपक्ष ) में तो पितृगण स्वयं श्राद्ध प्रहण करने आते हैं तथा श्राद्ध मिलने पर प्रसन्न होते हैं और न मिलने पर निराश हो शाप देकर लौट जाते हैं । विष्णुपुराण सें पितृगण कहते हैं – “हमारे कुलमें क्या कोई ऐसा बुद्धिमान् धन्य पुरुष उत्पन्न होगा, जो धन के लोभ को  त्याग कर हमारे लिये पिण्डदान करेगा | १ ( ३ | १४ |

विष्णुपुराण में श्राद्धकर्म के सरल-से-सरल उपाय गये हैं । अतः इतनी सरलता से होनेवाले कार्य को त्यागना नहीं चाहिये ।

 

प्रश्न – पितरोंको श्राद्ध कैसे प्राप्त होता है ?

उत्तर - यदि हम चिट्ठीपर नाम-पता लिखकर बक्स में डाल दें तो वह अभीष्ट पुरुष को, वह जहाँ अवश्य मिल जायगी । इसी प्रकार जिनका नामोच्चारण किया गया है, उन पितरों को, वे जिस योनि में भी हों, श्राद्ध प्राप्त हो जाता है । जिस प्रकार सभी पत्र पहले बड़े  डाकघर में एकत्रित होते हैं और फिर उनका अलग विभाग होकर उन्हें अभीष्ट स्थानों में पहुँचाया जाता है, उसी प्रकार अर्पित पदार्थ का सूक्ष्म अंश सूर्य- रश्मियों के द्वारा सूर्यलोक में पहुँचता है और वहाँ से बँटवारा होता है तथा अभीष्ट पितरों को प्राप्त होता है ।

पितृपक्ष में विद्वान् ब्राह्मणों के द्वारा आवाहन जानेपर पितृगण स्वयं उनके शरीर में सूक्ष्मरूप से स्थित हो जाते हैं । अन्नका स्थूल अंश ब्राह्मण खाता है और सूक्ष्म अंश को पितर ग्रहण करते हैं ।

 

प्रश्न -- यदि पितर पशु-योनि में हों, तो उन्हें योनि के योग्य आहार हमारे द्वारा कैसे प्राप्त होगा ?

उत्तर—विदेशमें हम जितने रुपये भेजें,उतने ही रुपयोंका डालर आदि ( देशके अनुसार विभिन्न सिक्के ) होकर अभीष्ट व्यक्ति को प्राप्त हो जाते हैं  । उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक अर्पित अन्न पितृगण को, वे जैसे  आहार के योग्य होते हैं, वैसा ही होकर उन्हें मिलता है |

 

प्रश्न- यदि पितर परमधाम में हों, जहाँ आनन्द ही आनन्द है, वहाँ तो उन्हें किसी वस्तु की भी आवश्यकता  नहीं है । फिर उनके लिये किया गया श्राद्ध क्या व्यर्थ चला जायगा ?

उत्तर—नहीं । जैसे, हम दूसरे शहर में अभीष्ट व्यक्ति को  कुछ रुपये भेजते हैं, परंतु रुपये वहाँ पहुँचने पर पता चले कि अभीष्ट व्यक्ति तो मर चुका है, तब वह रुपये हमारे ही नाम होकर हमें ही मिल जायेंगे ।

ऐसे ही परमधामवासी पितरोंके निमित्त किया गया श्राद्ध पुण्परूप से हमें ही मिल जाएगा अतः हमारा लाभ तो सब प्रकारसे ही होगा ।

 

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !

 .....गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनार्जन्मांक” पुस्तक (कोड ५७२) से

 



बुधवार, 2 अगस्त 2023

नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 11)

 


नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

न ह्येष क्षयतां याति सोमः सुरगणैर्यथा ।

कम्पितः पतते भूमिं पुनश्चैवाधिरोहति ॥ ५४॥

 

देवता लोग चन्द्रमा का अमृत पीकर जिस प्रकार उसे क्षीण कर देते हैं, उस प्रकार सूर्यदेव का क्षय नहीं होता । धूममार्ग से चन्द्रमण्डल में गया हुआ जीव कर्मभोग समाप्त होनेपर कम्पित हो फिर इस पृथ्वीपर गिर पड़ता है। इसी प्रकार नूतन कर्मफल भोगने के लिये वह पुनः चन्द्रलोक में जाता है ( सारांश यह कि चन्द्रलोकमें जानेवालेको आवागमनसे छुटकारा नहीं मिलता है ) ॥ ५४ ॥

 

क्षीयते हि सदा सोमः पुनश्चैवाभिपूर्यते ।

नेच्छाम्येवं विदित्वैते ह्रासवृद्धी पुनः पुनः ॥ ५५ ॥

 

इसके सिवा चन्द्रमा सदा घटता-बढ़ता रहता है । उसकी हास- वृद्धिका क्रम कभी टूटता नहीं है । इन सब बातोंको जानकर मुझे चन्द्र- लोकमें जाने या ह्रास-वृद्धिके चक्करमें पड़नेकी इच्छा नहीं होती है ॥ ५५ ॥

 

रविस्तु सन्तापयते लोकान् रश्मिभिरुल्बणैः ।

सर्वतस्तेज आदत्ते नित्यमक्षयमण्डलः॥५६॥

 

सूर्यदेव अपनी प्रचण्ड किरणों से समस्त जगत्‌ को सन्तप्त करते हैं । वे सब जगहसे तेज को स्वयं ग्रहण करते हैं (उनके तेजका कभी ह्रास नहीं होता); इसलिये उनका मण्डल सदा अक्षय बना रहता है ॥ ५६ ॥

 

अतो मे रोचते गन्तुमादित्यं दीप्ततेजसम् ।

अत्र वत्स्यामि दुर्धर्षो निःशङ्केनान्तरात्मना ॥ ५७ ॥

 

अतः उद्दीप्त तेजवाले आदित्यमण्डलमें जाना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है। इसमें मैं निर्भीकचित्त होकर निवास करूँगा । किसीके लिये भी मेरा पराभव करना कठिन होगा ॥ ५७ ॥

 

सूर्यस्य सदने चाहं निक्षिप्येदं कलेवरम् ।

ऋषिभिः सह यास्यामि सौरं तेजोऽतिदुःसहम् ॥ ५८

 

॥ इस शरीरको सूर्यलोकमें छोड़कर मैं ऋषियोंके साथ सूर्यदेवके अत्यन्त दुःसह तेजमें प्रवेश कर जाऊँगा ॥ ५८ ॥

 

आपृच्छामि नगान् नागान् गिरिमुर्वी दिशो दिवम् ।

देवदानवगन्धर्वान् पिशाचोरगराक्षसान् ॥ ५९ ॥

 

इसके लिये मैं नग-नाग, पर्वत, पृथ्वी, दिशा, द्युलोक, देव, दानव, गन्धर्व, पिशाच, सर्प और राक्षसों से आज्ञा माँगता हूँ ॥ ५९ ॥

 

लोकेषु सर्वभूतानि प्रवेक्ष्यामि न संशयः ।

पश्यन्तु योगवीर्यं मे सर्वे देवाः सहर्षिभिः ॥ ६० ॥

 

आज मैं निःसन्देह जगत् के सम्पूर्ण भूतोंमें प्रवेश करूँगा । समस्त देवता और ऋषि मेरी योगशक्तिका प्रभाव देखें ॥ ६० ॥

 

अथानुज्ञाप्य तमृषिं नारदं लोकविश्रुतम् ।

तस्मादनुज्ञां सम्प्राप्य जगाम पितरं प्रति ॥ ६१ ॥

 

ऐसा निश्चय करके शुकदेवजीने विश्वविख्यात देवर्षि नारदजीसे आज्ञा माँगी। उनसे आज्ञा लेकर वे अपने पिता व्यासजीके पास गये ॥ ६१ ॥

 

सोऽभिवाद्य महात्मानं कृष्णद्वैपायनं मुनिम् ।

शुकः प्रदक्षिणं कृत्वा कृष्णमापृष्टवान् मुनिम् ॥ ६२ ॥

 

वहाँ अपने पिता महात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिको प्रणाम करके शुकदेवजीने उनकी प्रदक्षिणा की और उनसे जानेके लिये आज्ञा माँगी ॥ ६२ ॥

 

श्रुत्वा चर्षिस्तद् वचनं शुकस्य

प्रीतो महात्मा पुनराह चैनम् ।

भो भो पुत्र स्थीयतां तावदद्य

यावच्चक्षुः प्रीणयामि त्वदर्थे ॥ ६३ ॥

 

शुकदेवकी यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए महात्मा व्यासने उनसे कहा - 'बेटा! बेटा! आज यहीं रहो, जिससे तुम्हें जी - भर निहारकर अपने नेत्रोंको तृप्त कर लूँ ' ॥ ६३ ॥

 

निरपेक्षः शुको भूत्वा निःस्नेहो मुक्तसंशयः ।

मोक्षमेवानुसञ्चिन्त्य गमनाय मनो दधे॥६४॥

 

परंतु शुकदेवजी स्नेह का बन्धन तोड़कर निरपेक्ष हो गये थे । तत्त्व के विषय में उन्हें कोई संशय नहीं रह गया था; अतः बारम्बार मोक्षका ही चिन्तन करते हुए उन्होंने वहाँ से जाने का ही विचार किया ॥ ६४ ॥

 

पितरं सम्परित्यज्य जगाम मुनिसत्तमः ।

कैलासपृष्ठं विपुलं सिद्धसङ्घनिषेवितम् ॥ ६५ ॥

 

पिता को वहीं छोड़कर मुनिश्रेष्ठ शुकदेव सिद्ध- समुदाय से सेवित विशाल कैलासशिखर पर चले गये ॥ ६५॥

 

॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारदगीतायां तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

 

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 10)

 



नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

परं भावं हि काङ्क्षामि यत्र नावर्तते पुनः ।

सर्वसङ्गान् परित्यज्य निश्चितो मनसा गतिम् ॥ ५० ॥

 

जहाँ जानेपर जीव की पुनरावृत्ति नहीं होती, मैं उसी परमभाव को प्राप्त करना चाहता हूँ । सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग करके

मैंने मन के द्वारा उत्तम गति प्राप्त करने का निश्चय किया है ॥ ५० ॥

 

तत्र यास्यामि यत्रात्मा शमं मेऽधिगमिष्यति ।

अक्षयश्चाव्ययश्चैव यत्र स्थास्यामि शाश्वतः ॥ ५१ ॥

 

अब मैं वहीं जाऊँगा, जहाँ मेरे आत्माको शान्ति मिलेगी तथा जहाँ मैं अक्षय, अविनाशी और सनातनरूपसे स्थित रहूँगा॥५१॥

 

न तु योगमृते शक्या प्राप्तुं सा परमा गतिः ।

अवबन्धो हि बुद्धस्य कर्मभिर्नोपपद्यते ॥ ५२॥

 

परंतु योगके बिना उस परम गतिको नहीं प्राप्त किया जा सकता । बुद्धिमान् का कर्मोंके निकृष्ट बन्धनसे बँधा रहना उचित नहीं है ॥ ५२ ॥

 

तस्माद् योगं समास्थाय त्यक्त्वा गृहकलेवरम् ।

वायुभूतः प्रवेक्ष्यामि तेजोराशिं दिवाकरम् ॥ ५३ ॥

 

अतः मैं योग का आश्रय ले इस देह – गेह का परित्याग करके वायुरूप हो तेजोराशिमय सूर्यमण्डल में प्रवेश करूँगा ॥ ५३ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



मंगलवार, 1 अगस्त 2023

नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 09)

 



नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

द्वन्द्वारामेषु भूतेषु गच्छन्त्येकैकशो नराः ।

इदमन्यत् पदं पश्य मात्र मोहं करिष्यसि ॥ ४३ ॥

 

सभी प्राणी सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें रम रहे हैं। मनुष्य उनमेंसे एक-एकका अनुभव करते हैं अर्थात् किसीको सुखका अनुभव होता है, किसीको दुःखका । यह जो ब्रह्म नामक वस्तु है, इसे सबसे भिन्न एवं विलक्षण समझो। इसके विषयमें तुम्हें मोहग्रस्त नहीं होना चाहिये ॥ ४३ ॥

 

त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज ।

उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज ॥ ४४ ॥

 

धर्म और अधर्मको छोड़ो। सत्य और असत्य दोनोंका त्याग करो । सत्य और असत्य दोनोंका त्याग करके जिससे त्याग करते हो, उस अहंकारको भी त्याग दो ॥ ४४ ॥

 

एतत् ते परमं गुह्यमाख्यातमृषिसत्तम ।

येन देवाः परित्यज्य मर्त्यलोकं दिवं गताः ॥ ४५ ॥

 

मुनिश्रेष्ठ ! यह मैंने तुमसे परम गूढ़ बात बतलायी है, जिससे

देवतालोग मर्त्यलोक छोड़कर स्वर्गलोकको चले गये ॥ ४५ ॥

 

नारदस्य वचः श्रुत्वा शुकः परमबुद्धिमान् ।

सञ्चिन्त्य मनसा धीरो निश्चयं नाध्यगच्छत ॥ ४६ ॥

 

नारदजीकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् और धीरचित्त शुकदेवजीने मन-ही-मन बहुत विचार किया; किंतु सहसा वे किसी निश्चयपर न पहुँच सके ॥ ४६ ॥

 

पुत्रदारैर्महान् क्लेशो विद्याम्नाये महाञ्च्छ्रमः ।

किं नु स्याच्छाश्वतं स्थानमल्पक्लेशं महोदयम् ॥ ४७ ॥

 

वे सोचने लगे, स्त्री- पुत्रोंके झमेलेमें पड़नेसे महान् क्लेश होगा । विद्याभ्यासमें भी बहुत अधिक परिश्रम है। कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे सनातन पद प्राप्त हो जाय। उस साधनमें क्लेश तो थोड़ा हो, किन्तु अभ्युदय महान् हो ॥ ४७ ॥

 

ततो मुहूर्तं सञ्चिन्त्य निश्चितां गतिमात्मनः ।

परावरज्ञो धर्मस्य परां नैःश्रेयसीं गतिम् ॥ ४८ ॥

 

तदनन्तर उन्होंने दो घड़ीतक अपनी निश्चित गतिके विषय में विचार किया; फिर भूत और भविष्य के ज्ञाता शुकदेवजीको अपने धर्मकी कल्याणमयी परम गतिका निश्चय हो गया ॥ ४८ ॥

 

कथं त्वहमसंश्लिष्टो गच्छेयं गतिमुत्तमाम् ।

नावर्तेयं यथा भूयो योनिसङ्करसागरे ॥ ४९ ॥

 

फिर वे सोचने लगे, मैं सब प्रकारकी उपाधियोंसे मुक्त होकर किस प्रकार उस उत्तम गति को प्राप्त करूँ, जहाँसे फिर इस संसार - सागरमें आना न पड़े ॥ ४९ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...