#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)
गोपों द्वारा गिरिराज-पूजन का महोत्सव
द्विजैश्च गोवर्धनदेवपूजनं
कृत्वाऽच्युतोक्तं द्विजवह्निगोधनम् ।
सम्पूज्य धृत्वा सुधनं महाधनं
बलिं ददौ श्रीगिरये व्रजेश्वरः ॥१८॥
नन्दोपनन्दैर्वृषभानुभिश्च
गोपीगणैर्गोपगणैः प्रहर्षितः ।
गायद्भिरानर्तनवाद्यतत्परै-
श्चकार कृष्णोऽद्रिवरप्रदक्षिणाम् ॥१९॥
देवेषु वर्षत्सु च पुष्पवर्षं
जनेषु वर्षत्सु च लाजसङ्घम् ।
रेजे महाराज इवाध्वरे जनै-
र्गोवर्धनो नाम गिरीन्द्रराजराट् ॥२०॥
कृष्णोऽपि साक्षाद्व्रजशैलमध्या-
द्धृत्वाऽतिदीर्घं किल चान्यरूपम् ।
शैलोऽस्मि लोकानिति भाषयन्सन्
जघास सर्वं कृतमन्नकूटम् ॥२१॥
गोपालगोपीगणवृन्दमुख्या
ऊचुः स्वयं वीक्ष्य गिरेः प्रभावम् ।
दातुं वरं तत्र समुद्यतं तं
सुविस्मिता हर्षितमानसास्ते ॥२२॥
ज्ञातोऽसि गोपैर्गिरिराजदेवः
प्रदर्शितो नन्दसुतेन साक्षात् ।
नो गोधनं वा किल बन्धुवर्यो
वृद्धिं समायातु दिने दिने कौ ॥२३॥
तथाऽस्तु चोक्त्वा गिरिराजराजो
गोवर्धनो दिव्यवपुर्दधानः ।
किरीटकेयूरमनोहराङ्गः
क्षणेन तत्रान्तरधीयतारात् ॥२४॥
नन्दोपनन्दा वृषभानवश्च
बलः सुचन्द्रो वृषभानुराजः ।
श्रीनन्दराजश्च हरिश्च गोपा
गोप्यश्च सर्वा निजगोधनैश्च ॥२५॥
द्विजाश्च योगेश्वरसिद्धसङ्घाः
शिवादयश्चान्यजनाश्च सर्वे ।
नत्वाऽथ सम्पूज्य गिरिं प्रसन्नाः
स्वं स्वं गृहं जग्मुरनिच्छया च ॥२६॥
श्रीकृष्णचन्द्रस्य परं चरित्रं
गिरीन्द्रराजस्य महोत्सवं च ।
मया तवाग्रे कथितं विचित्रं
नॄणां महापापहरं पवित्रम् ॥२७॥
भगवान् श्रीकृष्णकी बतायी हुई विधिके अनुसार द्विजोंद्वारा
गोवर्धन पूजन सम्पन्न करके, ब्राह्मणों, अग्नियों तथा गोधनकी सम्यक् पूजा करनेके पश्चात्,
व्रजेश्वर नन्दने गिरिराजकी सेवामें बहुत सा धन तथा बहुमूल्य भेंट- सामग्री प्रस्तुत
की । नन्द, उपनन्द, वृषभानु, गोपीवृन्द तथा गोपगण नाचने गाने और बाजे बजाने लगे। उन
सबके साथ हर्षसे भरे हुए श्रीकृष्णने गिरिराजकी परिक्रमा की । आकाशसे देवता फूल बरसाने
लगे और भूतलवासी जनसमुदाय लाजा लावा या खील) छींटने लगा। उस यज्ञमें गिरीन्द्रोंका
सम्राट् गोवर्धन लोगोंसे घिरकर किसी महाराजके समान सुशोभित होने लगा ।। १८-२० ॥
साक्षात् श्रीकृष्ण भी व्रजस्थित शैल गोवर्धनके बीचसे
एक दूसरा विशाल रूप धारण करके निकले और 'मैं गिरिराज गोवर्धन हूँ’
— लोगों से यों कहते हुए वहाँ का सारा अन्नकूट
भोग लगाने लगे। गोपालों और गोपियोंके समुदायमें जो मुख्य- मुख्य लोग थे, उन्होंने गिरिका
यह प्रभाव अपनी आँखों देखा तथा गिरिराजको वहाँ वर देने के लिये
उद्यत देख सब-के-सब आश्चर्यचकित हो उठे । सब के मन में अपूर्व उल्लास छा गया ।। २१-२२ ॥
उस समय गोपोंने कहा—प्रभो! आज हमने जान लिया कि आप साक्षात् गिरिराज देवता हैं। स्वयं
नन्दनन्दनने हमें आपके दर्शनका अवसर दिया है। आपकी कृपासे हमारा गोधन और बन्धुवर्ग
प्रतिदिन इस भूतलपर वृद्धिको प्राप्त हो। 'ऐसा ही होगा' —यों कहकर किरीट और केयूर आदि
आभूषणोंसे मनोहर अङ्गवाले दिव्यरूपधारी गिरिराजराज गोवर्धन क्षण- भरमें वहाँ उनके निकट
ही अन्तर्धान हो गये ।। २३-२४ ॥
तब नन्द-उपनन्द, वृषभानु, बलराम, वषृभानुराज सुचन्द्र,
श्रीनन्दराज, श्रीहरि एवं समस्त गोप-गोपीगण अपने गोधनोंके साथ वहाँसे चले। ब्राह्मण,
योगेश्वर- समुदाय, सिद्धसंघ, शिव आदि देवता तथ अन्य सब लोग गिरिराजको प्रणाम और उनका
पूजन करके प्रसन्नतापूर्वक अनिच्छासे अपने-अपने घरको गये । राजन्! श्रीकृष्णचन्द्रके
इस उत्तम चरित्रका तथा गिरिराजराजके उस विचित्र महोत्सवका मैंने तुम्हारे सामने वर्णन
किया। यह पावन प्रसङ्ग बड़े-बड़े पापोंको हर लेनेवाला है ।। २५-२७
॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गिरिराजखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'गिरिराज महोत्सवका वर्णन' नामक दूसरा अध्याय पूरा
हुआ ॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से