गुरुवार, 27 जून 2019

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०१)



।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०१)

नाम-जपकी खास विधि क्या है ? खास विधि है कि भगवान्‌के होकर भगवान्‌ के नाम का जप करें, ‘होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु। अब थोड़ी दूसरी बात बताते हैं । भगवान्‌ के नामका जप करो; पर जप के साथ में प्रभु के स्वरूप का चिन्तन भी होना चाहिये । जैसे‒‘गंगाजीका नाम लेते हैं तो गंगाजी की धारा दिखती है कि ऐसे बह रही है । गौमाताका नाम लेते हैं तो गाय का रूप दिखता है । ऐसे ब्राह्मणका नाम लेते हैं तो ब्राह्मणरूपी व्यक्ति दिखता है । मनमें एक स्वरूप आता है । ऐसे रामकहते ही धनुषधारी राम दीखने चाहिये मन से । इस प्रकार नाम लेते हुए मन से भगवान्‌ के स्वरूप का चिन्तन करो । यह खास विधि है । पातंजलयोगदर्शन में लिखा है‒‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’, ‘तस्य वाचकः प्रणवःभगवान्‌ के नाम का जप करना और उसके अर्थ का चिन्तन करना अर्थात् नाम लेते जाओ और उसको याद करते जाओ ।

श्रीकृष्ण के भक्त हों तो उनके चरणों की शरण होकर,‘श्रीकृष्णः शरणं ममइस मन्त्रको जपते हुए साथ-साथ स्वरूपको याद करते जाओ । नाम-जप की यह खास विधि है । एक विधि तो उसके होकर नाम जपना और दूसरी विधि-नाम जपते हुए उसके स्वरूप का ध्यान करते रहना । कहीं भूल होते ही हे नाथ ! हे नाथ !!पुकारो । हे प्रभो ! बचाओ,मैं तो भूल गया । मेरा मन और जगह चला गया, हे नाथ ! बचाओ ।भगवान्‌से ऐसी प्रार्थना करो तो भगवान् मदद करेंगे । उनकी मदद से जो काम होगा, वह काम आप अपनी शक्तिसे कर नहीं सकोगे । इस वास्ते भगवान्‌ के नाम का जप और उनके स्वरूप का ध्यानये दोनों साथमें रहें ।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् ।
………………(गीता ८ । १३)

’ --इस एक अक्षर का उच्चारण करे और मेरा स्मरण करे । यह जगह-जगह बात आती है । इस वास्ते भगवान्‌ के नाम-जप के साथ भगवान्‌ के स्वरूप की भी याद रहे ।

नाम-जप दिखावटीपन में न चला जाय अर्थात् मैं नाम जपता हूँ तो लोग मेरे को भक्त मानें, अच्छा मानें, लोग मेरे को देखेंयह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिये । यह भाव होगा तो नाम की बिक्री हो जायगी । नामका पूरा फल नहीं मिलेगा; क्योंकि आपने नाम को मान-बडाईमें खर्च कर दिया । इस वास्ते दिखावटीपन नहीं होना चाहिये नाम-जपमें । नाम-जप भीतरसे होना चाहियेलगनपूर्वक । लौकिक धन को भी लोग दिखाते नहीं । उसको भी तिजोरी में बंद रखते हैं, तो लौकिक धन-जैसा भी यह धन नहीं है क्या ? जो लोगोंको दिखाया जाय । लोगों को पता लगे तो क्या भजन किया ? गुप्तरीति से करे, दिखावटीपन बिलकुल न आवे । नाम-जप भीतर-ही-भीतर करते रहें । एकान्तमें करते रहें,मन-ही-मन करते रहें और मन-ही-मनसे पुकारें, लोगों को दिखाने के लिये नहीं । लोग देख लें तो उसमें शर्म आनी चाहिये कि मेरी गलती हो गयी । लोगों को पता लग गया ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की भगवन्नामपुस्तकसे



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट५)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

यदाचार्यः परावृत्तो गृहमेधीयकर्मसु
वयस्यैर्बालकैस्तत्र सोपहूतः कृतक्षणैः ||५४||
अथ तान्श्लक्ष्णया वाचा प्रत्याहूय महाबुधः
उवाच विद्वांस्तन्निष्ठां कृपया प्रहसन्निव ||५५||
ते तु तद्गौरवात्सर्वे त्यक्तक्रीडापरिच्छदाः
बाला अदूषितधियो द्वन्द्वारामेरितेहितैः ||५६||
पर्युपासत राजेन्द्र तन्न्यस्तहृदयेक्षणाः
तानाह करुणो मैत्रो महाभागवतोऽसुरः ||५७||

एक दिन गुरुजी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण समवयस्क बालकों ने प्रह्लाद जी को खेलने के लिये पुकारा ॥ ५४ ॥ प्रह्लादजी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकोंको ही बड़ी मधुर वाणीसे पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उनपर कृपा करके हँसते हुए- से उन्हें उपदेश करने लगे ॥ ५५ ॥ युधिष्ठिर ! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषयभोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसीसे, और प्रह्लादजी के प्रति आदर-बुद्धि होनेसे उन सबने अपनी खेल-कूदकी सामग्रियोंको छोड़ दिया तथा प्रह्लादजी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेशमें मन लगाकर बड़े प्रेमसे एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादका हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्रीके भावसे भर गया तथा वे उनसे कहने लगे ॥ ५६-५७ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते पञ्चमोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



भगवान्‌की आवश्यकता का अनुभव करना (पोस्ट १)


श्रीहरि :

भगवान्‌की आवश्यकता का अनुभव करना
(पोस्ट १)

जब मनुष्य इस बातको जान लेता है कि इतने बड़े संसारमें, अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत जिसके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वही अपना है, तब उसके भीतर भगवान्‌की आवश्यकताका अनुभव होता है । कारण कि अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें । जो कभी हमारेसे अलग न हो और हम कभी उससे अलग न हों । ऐसी वस्तु भगवान् ही हो सकते हैं ।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब मनुष्यको भगवान्‌की आवश्यकता है, तो फिर भगवान् मिलते क्यों नहीं ? इसका कारण यह है कि मनुष्य भगवान्‌की प्राप्तिके बिना सुख-आरामसे रहता है, वह अपनी आवश्यकताको भूले रहता है । वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्यमें ही सन्तोष कर लेता है । अगर वह भगवान्‌की आवश्यकताका अनुभव करे, उनके बिना चैनसे न रह सके तो भगवान्‌की प्राप्तिमें देरी नहीं है । कारण कि जो नित्यप्राप्त है, उसकी प्राप्तिमें क्या देरी ? भगवान् कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि आज बोयेंगे और वर्षोंके बाद फल मिलेगा ! वे तो सब देशमें सब समयमें, सब वस्तुओंमें, सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियोंमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए ।

शेष आगामी पोस्ट में.......
गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित लक्ष्य अब दूर नहीं !पुस्तक से




श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट४)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

तथेति गुरुपुत्रोक्तमनुज्ञायेदमब्रवीत्
धर्मो ह्यस्योपदेष्टव्यो राज्ञां यो गृहमेधिनाम् ||५१||
धर्ममर्थं च कामं च नितरां चानुपूर्वशः
प्रह्रादायोचतू राजन्प्रश्रितावनताय च ||५२||
यथा त्रिवर्गं गुरुभिरात्मने उपशिक्षितम्
न साधु मेने तच्छिक्षां द्वन्द्वारामोपवर्णिताम् ||५३||

हिरण्यकशिपु ने अच्छा, ठीक है कहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं॥ ५१ ॥ युधिष्ठिर ! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमश: धर्म, अर्थ और कामइन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे ॥ ५२ ॥ परंतु गुरुओंकी वह शिक्षा प्रह्लादको अच्छी न लगी। क्योंकि गुरुजी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और कामकी ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगोंके लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द्व और विषय- भोगोंमें रस ले रहे हों ॥ ५३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





बुधवार, 26 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट३)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

इति तच्चिन्तया किञ्चिन्म्लानश्रियमधोमुखम्
शण्डामर्कावौशनसौ विविक्त इति होचतुः ||४८||
जितं त्वयैकेन जगत्त्रयं भ्रुवो-
र्विजृम्भणत्रस्तसमस्तधिष्ण्यपम्
न तस्य चिन्त्यं तव नाथ चक्ष्वहे
न वै शिशूनां गुणदोषयोः पदम् ||४९||
इमं तु पाशैर्वरुणस्य बद्ध्वा
निधेहि भीतो न पलायते यथा
बुद्धिश्च पुंसो वयसार्यसेवया
यावद्गुरुर्भार्गव आगमिष्यति ||५०||

इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही॥ ४८ ॥ स्वामी ! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करनेपर ही सारे लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चोंके खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोचने की कोई बात है ॥ ४९ ॥ जब तक हमारे पिता शुक्राचार्य जी नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाय। इसलिये इसे वरुणके पाशों से बाँध रखिये। प्राय: ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है॥ ५० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट२)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

चिन्तां दीर्घतमां प्राप्तस्तत्कर्तुं नाभ्यपद्यत
एष मे बह्वसाधूक्तो वधोपायाश्च निर्मिताः
तैस्तैद्रोहैरसद्धर्मैर्मुक्तः स्वेनैव तेजसा ||४५||
वर्तमानोऽविदूरे वै बालोऽप्यजडधीरयम्
न विस्मरति मेऽनार्यं शुनः शेप इव प्रभुः ||४६||
अप्रमेयानुभावोऽयमकुतश्चिद्भयोऽमरः
नूनमेतद्विरोधेन मृत्युर्मे भविता न वा ||४७||

वह (हिरण्यकशिपु ) सोचने लगा—‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा- भला कहा, मार डालने के बहुत-से उपाय किये। परंतु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारों से बिना किसी की सहायता से अपने प्रभाव से ही बचता गया ॥ ४५ ॥ यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही नि:शङ्क भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुन:शेप[*] अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा ॥ ४६ ॥ न तो यह किसी से डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो॥ ४७ ॥
......................................
[*] शुन:शेप अजीगर्त का मँझला पुत्र था। उसे पिता ने वरुण के यज्ञ में बलि देने के लिये हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व के हाथ बेच दिया था। तब उसके मामा विश्वामित्रजी ने उसकी रक्षा की और वह अपने पिता से विरुद्ध होकर उनके विपक्षी विश्वामित्रजी के ही गोत्र में हो गया। यह कथा आगे नवम स्कन्धके सातवें अध्याय में आवेगी।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 25 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

प्रयासेऽपहते तस्मिन्दैत्येन्द्रः परिशङ्कितः
चकार तद्वधोपायान्निर्बन्धेन युधिष्ठिर ||४२||
दिग्गजैर्दन्दशूकेन्द्रैरभिचारावपातनैः
मायाभिः सन्निरोधैश्च गरदानैरभोजनैः ||४३||
हिमवाय्वग्निसलिलैः पर्वताक्रमणैरपि
न शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम् ||४४||

युधिष्ठिर ! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शङ्का हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालनेके लिये बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा ॥ ४२ ॥ उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डँसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाडक़ी चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया ॥ ४३ ॥ बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्रमें बारी-बारीसे डलवाया, आँधीमें छोड़ दिया तथा पर्वतोंके नीचे दबवा दिया; परंतु इनमेंसे किसी भी उपायसे वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लादका बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मारने के लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा ॥ ४४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
नैर्ॠतास्ते समादिष्टा भर्त्रा वै शूलपाणयः
तिग्मदंष्ट्रकरालास्यास्ताम्रश्मश्रुशिरोरुहाः ||३९||
नदन्तो भैरवं नादं छिन्धि भिन्धीति वादिनः
आसीनं चाहनन्शूलैः प्रह्लादं सर्वमर्मसु ||४०||
परे ब्रह्मण्यनिर्देश्ये भगवत्यखिलात्मनि
युक्तात्मन्यफला आसन्नपुण्यस्येव सत्क्रियाः ||४१||

जब हिरण्यकशिपु ने दैत्योंको इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल- लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशोंवाले दैत्य हाथोंमें त्रिशूल ले-लेकर मारो, काटो’—इस प्रकार बड़े जोरसे चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानोंमें शूलसे घाव कर रहे थे ॥ ३९-४० ॥ उस समय प्रह्लादजी का चित्त उन परमात्मामें लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं ॥ ४१ ॥

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सोमवार, 24 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ||३२||
इत्युक्त्वोपरतं पुत्रं हिरण्यकशिपू रुषा
अन्धीकृतात्मा स्वोत्सङ्गान्निरस्यत महीतले ||३३|
आहामर्षरुषाविष्टः कषायीभूतलोचनः
वध्यतामाश्वयं वध्यो निःसारयत नैर्ॠताः ||३४||
अयं मे भ्रातृहा सोऽयं हित्वा स्वान्सुहृदोऽधमः
पितृव्यहन्तुः पादौ यो विष्णोर्दासवदर्चति ||३५||
विष्णोर्वा साध्वसौ किं नु करिष्यत्यसमञ्जसः
सौहृदं दुस्त्यजं पित्रोरहाद्यः पञ्चहायनः ||३६||
परोऽप्यपत्यं हितकृद्यथौषधं
स्वदेहजोऽप्यामयवत्सुतोऽहितः
छिन्द्यात्तदङ्गं यदुतात्मनोऽहितं
शेषं सुखं जीवति यद्विवर्जनात्       ||३७||
सर्वैरुपायैर्हन्तव्यः सम्भोजशयनासनैः
सुहृल्लिङ्गधरः शत्रुर्मुनेर्दुष्टमिवेन्द्रियम् ||३८||

जिनकी बुद्धि भगवान्‌ के चरणकमलोंका स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थका सर्वथा नाश हो जाता है। परंतु जो लोग अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणोंकी धूलमें स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती ॥ ३२ ॥
प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमिपर पटक दिया ॥ ३३ ॥ प्रह्लाद की बात को वह सह न सका । रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगादैत्यो ! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालनेयोग्य है ॥ ३४ ॥ देखो तो सहीजिसने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्- स्वजनों को छोडक़र यह नीच दास के समान उसी विष्णु के चरणोंकी पूजा करता है ! हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारनेवाला विष्णु ही आ गया है ॥ ३५ ॥ अब यह विश्वासके योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिसने अपने माता-पिताके दुस्त्यज वात्सल्यस्नेह को भुला दियावह कृतघ्न भला, विष्णु का ही क्या हित करेगा ॥ ३६ ॥ कोई दूसरा भी यदि औषधके समान भलाई करे तो वह एक प्रकारसे पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोगके समान वह शत्रु है। अपने शरीरके ही किसी अङ्गसे सारे शरीरको हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देने से शेष शरीर सुख से जी सकता है ॥ ३७ ॥ यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोगलोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करनेवाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो॥ ३८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

श्रीगुरुपुत्र उवाच
न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं सुतो वदत्येष तवेन्द्र शत्रो
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः ||२८||

श्रीनारद उवाच
गुरुणैवं प्रतिप्रोक्तो भूय आहासुरः सुतम्
न चेद्गुरुमुखीयं ते कुतोऽभद्रा सती मतिः ||२९||

श्रीप्रह्लाद उवाच
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ||३०||
न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिरर्थमानिनः
अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना-
स्तेऽपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धाः ||३१||

गुरुपुत्रने कहाइन्द्रशत्रो ! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन् ! यह तो इस की जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है । आप क्रोध शान्त कीजिये । व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये ॥ २८ ॥
नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर ! जब गुरुजी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा—‘क्यों रे ! यदि तुझे ऐसी अहित करनेवाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँसे प्राप्त हुई ?’ ॥ २९ ॥
प्रह्लादजीने कहापिताजी ! संसारके लोग तो पिसे हुएको पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वशमें न होनेके कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप घोर नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगोंके सङ्ग से भगवान्‌ श्रीकृष्णमें नहीं लगती ॥ ३० ॥ जो इन्द्रियों से दीखनेवाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढेमें गिरनेके लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सीकेकाम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान्‌ विष्णु ही हैंउन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थोंकी प्राप्ति हो सकती है ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति मैत्...