॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
अधोक्षजालम्भमिहाशुभात्मनः
शरीरिणः
संसृतिचक्रशातनम्
तद्ब्रह्मनिर्वाणसुखं
विदुर्बुधा-
स्ततो
भजध्वं हृदये हृदीश्वरम् ||३७||
कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका
हरे-
रुपासने
स्वे हृदि छिद्र वत्सतः
स्वस्यात्मनः
सख्युरशेषदेहिनां
सामान्यतः
किं विषयोपपादनैः ||३८||
इस
अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जानेवाले जीव के लिये भगवान् की यह
प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देनेवाली है। इसी वस्तुको कोई विद्वान् ब्रह्म और
कोई निर्वाण-सुख के रूपमें पहचानते हैं। इसलिये मित्रो ! तुमलोग अपने-अपने हृदय में
हृदयेश्वर भगवान् का भजन करो ॥ ३७ ॥ असुरकुमारो ! अपने हृदयमें ही आकाशके समान
नित्य विराजमान भगवान् का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समानरूपसे
समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या,
अपने आत्मा ही हैं । उनको छोडक़र भोगसामग्री इकट्ठी करने के लिये
भटकना—राम ! राम ! कितनी मूर्खता है ॥ ३८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से