मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना

श्रीशुक उवाच -

इति वैरोचनेर्वाक्यं धर्मयुक्तं स सूनृतम् ।
निशम्य भगवान्प्रीतः प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥ १ ॥

श्रीभगवानुवाच -

वचस्तवैतत् जनदेव सूनृतं
     कुलोचितं धर्मयुतं यशस्करम् ।
यस्य प्रमाणं भृगवः सांपराये
     पितामहः कुलवृद्धः प्रशान्तः ॥ २ ॥
न ह्येतस्मिन्कुले कश्चित् निःसत्त्वः कृपणः पुमान् ।
प्रत्याख्याता प्रतिश्रुत्य यो वादाता द्विजातये ॥ ३ ॥
न सन्ति तीर्थे युधि चार्थिनार्थिताः
     पराङ्‌मुखा ये त्वमनस्विनो नृपाः ।
युष्मत्कुले यद् यशसामलेन
     प्रह्लाद उद्‍भाति यथोडुपः खे ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजा बलिके ये वचन धर्मभावसे भरे और बड़े मधुर थे। उन्हें सुनकर भगवान्‌ वामन ने बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिनन्दन किया और कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवान्‌ ने कहाराजन् ! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी कुलपरम्परा के अनुरूप, धर्मभाव से परिपूर्ण, यश को बढ़ानेवाला और अत्यन्त मधुर है । क्यों न हो, परलोकहितकारी धर्म के सम्बन्ध में आप भृगुपुत्र शुक्राचार्य को परम प्रमाण जो मानते हैं । साथ ही अपने कुलवृद्ध पितामह परम शान्त प्रह्लादजी की आज्ञा भी तो आप वैसे ही मानते हैं ॥२॥ आपकी वंशपरम्परा में कोई धैर्यहीन अथवा कृपण पुरुष कभी हुआ ही नहीं । ऐसा भी कोई नहीं हुआ, जिसने ब्राह्मणको कभी दान न दिया हो अथवा जो एक बार किसी को कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके बादमें मुकर गया हो ॥ ३ ॥ दान के अवसर पर याचकों की याचना सुनकर और युद्धके अवसर पर शत्रु के ललकारने पर उनकी ओर से मुँह मोड़ लेनेवाला कायर आपके वंश में कोई भी नहीं हुआ। क्यों न हो, आपकी कुलपरम्परा में प्रह्लाद अपने निर्मल यश से वैसे ही शोभायमान होते हैं, जैसे आकाश में चन्द्रमा ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

वामन भगवान्‌ का प्रकट होकर
राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना

श्रीबलिरुवाच
स्वागतं ते नमस्तुभ्यं ब्रह्मन्किं करवाम ते
ब्रह्मर्षीणां तपः साक्षान्मन्ये त्वार्य वपुर्धरम् ॥ २९ ॥
अद्य नः पितरस्तृप्ता अद्य नः पावितं कुलम्
अद्य स्विष्टः क्रतुरयं यद्भवानागतो गृहान् ॥ ३० ॥
अद्याग्नयो मे सुहुता यथाविधि
द्विजात्मज त्वच्चरणावनेजनैः
हतांहसो वार्भिरियं च भूरहो
तथा पुनीता तनुभिः पदैस्तव ॥ ३१ ॥
यद्यद्वटो वाञ्छसि तत्प्रतीच्छ मे
त्वामर्थिनं विप्रसुतानुतर्कये
गां काञ्चनं गुणवद्धाम मृष्टं
तथान्नपेयमुत वा विप्रकन्याम्
ग्रामान्समृद्धांस्तुरगान्गजान्वा
रथांस्तथार्हत्तम सम्प्रतीच्छ ॥ ३२ ॥

बलिने कहाब्राह्मणकुमार ! आप भले पधारे। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आर्य ! ऐसा जान पड़ता है कि बड़े-बड़े ब्रहमर्षियों की तपस्या ही स्वयं मूर्तिमान् होकर मेरे सामने आयी है ॥ २९ ॥ आज आप मेरे घर पधारे, इससे मेरे पितर तृप्त हो गये। आज मेरा वंश पवित्र हो गया। आज मेरा यह यज्ञ सफल हो गया ॥ ३० ॥ ब्राह्मण- कुमार ! आपके पाँव पखारनेसे मेरे सारे पाप धुल गये और विधिपूर्वक यज्ञ करनेसे, अग्नि में आहुति डालनेसे जो फल मिलता, वह अनायास ही मिल गया। आपके इन नन्हें-नन्हें चरणों और इनके धोवनसे पृथ्वी पवित्र हो गयी ॥ ३१ ॥ ब्राह्मणकुमार ! ऐसा जान पड़ता है कि आप कुछ चाहते हैं। परम पूज्य ब्रह्मचारीजी ! आप जो चाहते होंगाय, सोना, सामग्रियोंसे सुसज्जित घर, पवित्र अन्न, पीनेकी वस्तु, विवाहके लिये ब्राह्मणकी कन्या, सम्पत्तियों से भरे हुए गाँव, घोड़े, हाथी, रथवह सब आप मुझ से माँग लीजिये। अवश्य ही वह सब मुझ से माँग लीजिये ॥ ३२ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
वामनप्रादुर्भावे बलिवामनसंवादोऽष्टादशोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

वामन भगवान्‌ का प्रकट होकर
राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना

इत्थं सशिष्येषु भृगुष्वनेकधा
वितर्क्यमाणो भगवान्स वामनः
छत्रं सदण्डं सजलं कमण्डलुं
विवेश बिभ्रद्धयमेधवाटम् ॥ २३ ॥
मौञ्ज्या मेखलया वीतमुपवीताजिनोत्तरम्
जटिलं वामनं विप्रं मायामाणवकं हरिम् ॥ २४ ॥
प्रविष्टं वीक्ष्य भृगवः सशिष्यास्ते सहाग्निभिः
प्रत्यगृह्णन्समुत्थाय सङ्क्षिप्तास्तस्य तेजसा ॥ २५ ॥
यजमानः प्रमुदितो दर्शनीयं मनोरमम्
रूपानुरूपावयवं तस्मा आसनमाहरत् ॥ २६ ॥
स्वागतेनाभिनन्द्याथ पादौ भगवतो बलिः
अवनिज्यार्चयामास मुक्तसङ्गमनोरमम् ॥ २७ ॥
तत्पादशौचं जनकल्मषापहं
  धर्मविन्मूर्ध्न्यदधात्सुमङ्गलम्
यद्देवदेवो गिरिशश्चन्द्र मौलि-
र्दधार मूर्ध्ना परया च भक्त्या ॥ २८ ॥

भृगुके पुत्र शुक्राचार्य आदि अपने शिष्यों के साथ इसी प्रकार अनेकों कल्पनाएँ कर रहे थे। उसी समय हाथ में छत्र, दण्ड और जलसे भरा कमण्डलु लिये हुए वामन भगवान्‌ ने अश्वमेध यज्ञके मण्डप में प्रवेश किया ॥ २३ ॥ वे कमर में मूँज की मेखला और गले में यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। बगलमें मृगचर्म था और सिरपर जटा थी। इसी प्रकार बौने ब्राह्मण के वेष में अपनी मायासे ब्रह्मचारी बने हुए भगवान्‌ ने जब उनके यज्ञमण्डपमें प्रवेश किया, तब भृगुवंशी ब्राह्मण उन्हें देखकर अपने शिष्योंके साथ उनके तेजसे प्रभावित एवं निष्प्रभ हो गये। वे सब-के-सब अग्नियों के साथ उठ खड़े हुए और उन्होंने वामन भगवान्‌ का स्वागत-सत्कार किया ॥ २४-२५ ॥ भगवान्‌ के लघुरूप के अनुरूप सारे अङ्ग छोटे-छोटे बड़े ही मनोरम एवं दर्शनीय थे। उन्हें देखकर बलिको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने वामनभगवान्‌ को एक उत्तम आसन दिया ॥ २६ ॥ फिर स्वागत-वाणीसे उनका अभिनन्दन करके पाँव पखारे और सङ्गरहित महापुरुषोंको भी अत्यन्त मनोहर लगनेवाले वामन भगवान्‌ की पूजा की ॥ २७ ॥ भगवान्‌ के चरणकमलों का धोवन परम मङ्गलमय है। उससे जीवोंके सारे पाप-ताप धुल जाते हैं। स्वयं देवाधिदेव चन्द्रमौलि भगवान्‌ शङ्करने अत्यन्त भक्तिभावसे उसे अपने सिरपर धारण किया था। आज वही चरणामृत धर्म के मर्मज्ञ राजा बलिको प्राप्त हुआ। उन्होंने बड़े प्रेमसे उसे अपने मस्तकपर रखा ॥ २८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

वामन भगवान्‌ का प्रकट होकर
राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना

श्रुत्वाश्वमेधैर्यजमानमूर्जितं
बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः
जगाम तत्रालिसारसम्भृतो
भारेण गां सन्नमयन्पदे पदे ॥ २० ॥
तं नर्मदायास्तट उत्तरे बले-
र्य ऋत्विजस्ते भृगुकच्छसंज्ञके
प्रवर्तयन्तो भृगवः क्रतूत्तमं
व्यचक्षतारादुदितं यथा रविम् ॥ २१ ॥
ते ऋत्विजो यजमानः सदस्या
हतत्विषो वामनतेजसा नृप
सूर्यः किलायात्युत वा विभावसुः
सनत्कुमारोऽथ दिदृक्षया क्रतोः ॥ २२ ॥

परीक्षित्‌ ! उसी समय भगवान्‌ ने सुना कि सब प्रकार की सामग्रियों से सम्पन्न यशस्वी बलि भृगुवंशी ब्राह्मणों के आदेशानुसार बहुत-से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँ के लिये यात्रा की। भगवान्‌ समस्त शक्तियोंसे युक्त हैं। उनके चलनेके समय उनके भारसे पृथ्वी पग-पगपर झुकने लगी ॥ २० ॥ नर्मदा नदीके उत्तर तटपर भृगुकच्छनामका एक बड़ा सुन्दर स्थान है। वहीं बलिके भृगुवंशी ऋत्विज् श्रेष्ठ यज्ञका अनुष्ठान करा रहे थे। उन लोगोंने दूरसे ही वामन भगवान्‌ को देखा, तो उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो साक्षात् सूर्यदेव का उदय हो रहा हो ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! वामन भगवान्‌ के तेजसे ऋत्विज्, यजमान और सदस्यसब-के-सब निस्तेज हो गये। वे लोग सोचने लगे कि कहीं यज्ञ देखनेके लिये सूर्य, अग्रि अथवा सनत्कुमार तो नहीं आ रहे हैं ॥ २२ ॥

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रविवार, 27 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

वामन भगवान्‌ का प्रकट होकर
राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना

तं वटुं वामनं दृष्ट्वा मोदमाना महर्षयः
कर्माणि कारयामासुः पुरस्कृत्य प्रजापतिम् ॥ १३ ॥
तस्योपनीयमानस्य सावित्रीं सविताब्रवीत्
बृहस्पतिर्ब्रह्मसूत्रं मेखलां कश्यपोऽददात् ॥ १४ ॥
ददौ कृष्णाजिनं भूमिर्दण्डं सोमो वनस्पतिः
कौपीनाच्छादनं माता द्यौश्छत्रं जगतः पतेः ॥ १५ ॥
कमण्डलुं वेदगर्भः कुशान्सप्तर्षयो ददुः
अक्षमालां महाराज सरस्वत्यव्ययात्मनः ॥ १६ ॥
तस्मा इत्युपनीताय यक्षराट्पात्रिकामदात्
भिक्षां भगवती साक्षादुमादादम्बिका सती ॥ १७ ॥
स ब्रह्मवर्चसेनैवं सभां सम्भावितो वटुः
ब्रह्मर्षिगणसञ्जुष्टामत्यरोचत मारिषः ॥ १८ ॥
समिद्धमाहितं वह्निं कृत्वा परिसमूहनम्
परिस्तीर्य समभ्यर्च्य समिद्भिरजुहोद्द्विजः ॥ १९ ॥

भगवान्‌ को वामन ब्रह्मचारीके रूपमें देखकर महर्षियोंको बड़ा आनन्द हुआ। उन लोगोंने कश्यप प्रजापतिको आगे करके उनके जातकर्म आदि संस्कार करवाये ॥ १३ ॥ जब उनका उपनयन-संस्कार होने लगा, तब गायत्रीके अधिष्ठातृ-देवता स्वयं सविताने उन्हें गायत्रीका उपदेश किया। देवगुरु बृहस्पतिजीने यज्ञोपवीत और कश्यपने मेखला दी ॥ १४ ॥ पृथ्वीने कृष्णमृगका चर्म, वनके स्वामी चन्द्रमाने दण्ड, माता अदितिने कौपीन और कटिवस्त्र एवं आकाशके अभिमानी देवताने वामन-वेषधारी भगवान्‌को छत्र दिया ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! अविनाशी प्रभुको ब्रह्माजीने कमण्डलु, सप्तर्षियोंने कुश और सरस्वतीने रुद्राक्षकी माला समर्पित की ॥ १६ ॥ इस रीतिसे जब वामनभगवान्‌का उपनयन-संस्कार हुआ, तब यक्षराज कुबेरने उनको भिक्षाका पात्र और सतीशिरो- मणि जगज्जननी स्वयं भगवती उमाने भिक्षा दी ॥ १७ ॥ इस प्रकार जब सब लोगोंने वटुवेष-धारी भगवान्‌का सम्मान किया, तब वे ब्रहमर्षियोंसे भरी हुई सभामें अपने ब्रह्मतेजके कारण अत्यन्त शोभायमान हुए ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान्‌ने स्थापित और प्रज्वलित अग्रिका कुशोंसे परिसमूहन और परिस्तरण करके पूजा की और समिधाओंसे हवन किया ॥ १९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

वामन भगवान्‌ का प्रकट होकर
राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना

दृष्ट्वादितिस्तं निजगर्भसम्भवं
परं पुमांसं मुदमाप विस्मिता
गृहीतदेहं निजयोगमायया
प्रजापतिश्चाह जयेति विस्मितः ॥ ११ ॥
यत्तद्वपुर्भाति विभूषणायुधै-
रव्यक्तचिद्व्यक्तमधारयद्धरिः
बभूव तेनैव स वामनो वटुः
सम्पश्यतोर्दिव्यगतिर्यथा नटः ॥ १२ ॥

जब अदितिने अपने गर्भसे प्रकट हुए परम पुरुष परमात्माको देखा, तो वह अत्यन्त आश्चर्य- चकित और परमानन्दित हो गयी। प्रजापति कश्यपजी भी भगवान्‌को अपनी योगमायासे शरीर धारण किये हुए देख विस्मित हो गये और कहने लगे जय हो ! जय हो॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ स्वयं अव्यक्त एवं चित्स्वरूप हैं। उन्होंने जो परम कान्तिमय आभूषण एवं आयुधोंसे युक्त वह शरीर ग्रहण किया था, उसी शरीरसे, कश्यप और अदितिके देखते-देखते वामन ब्रह्मचारीका रूप धारण कर लियाठीक वैसे ही, जैसे नट अपना वेष बदल ले। क्यों न हो, भगवान्‌की लीला तो अद्भुत है ही ॥ १२ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

वामन भगवान्‌ का प्रकट होकर
राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना

श्रोणायां श्रवणद्वादश्यां मुहूर्तेऽभिजिति प्रभुः
सर्वे नक्षत्रताराद्याश्चक्रुस्तज्जन्म दक्षिणम् ॥ ५ ॥
द्वदश्यां सवितातिष्ठमध्यन्दिनगतो नृप
विजयानाम सा प्रोक्ता यस्यां जन्म विदुर्हरेः ॥ ६ ॥
शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्मृदङ्गपणवानकाः
चित्रवादित्रतूर्याणां निर्घोषस्तुमुलोऽभवत् ॥ ७ ॥
प्रीताश्चाप्सरसोऽनृत्यन्गन्धर्वप्रवरा जगुः
तुष्टुवुर्मुनयो देवा मनवः पितरोऽग्नयः ॥ ८ ॥
सिद्धविद्याधरगणाः सकिम्पुरुषकिन्नराः
चारणा यक्षरक्षांसि सुपर्णा भुजगोत्तमाः ॥ ९ ॥
गायन्तोऽतिप्रशंसन्तो नृत्यन्तो विबुधानुगाः
अदित्या आश्रमपदं कुसुमैः समवाकिरन् ॥ १० ॥

परीक्षित्‌ ! जिस समय भगवान्‌ने जन्म ग्रहण किया, उस समय चन्द्रमा श्रवण नक्षत्रपर थे। भाद्रपद मासके शुक्लपक्षकी श्रवणनक्षत्रवाली द्वादशी थी। अभिजित् मुहूर्तमें भगवान्‌का जन्म हुआ था। सभी नक्षत्र और तारे भगवान्‌के जन्मको मङ्गलमय सूचित कर रहे थे ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! जिस तिथिमें भगवान्‌का जन्म हुआ था, उसे विजया द्वादशीकहते हैं। जन्मके समय सूर्य आकाशके मध्यभागमें स्थित थे ॥ ६ ॥ भगवान्‌ के अवतारके समय शङ्ख, ढोल, मृदङ्ग, डफ और नगाड़े आदि बाजे बजने लगे। इन तरह-तरहके बाजों और तुरहियोंकी तुमुल ध्वनि होने लगी ॥ ७ ॥ अप्सराएँ प्रसन्न होकर नाचने लगीं। श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे। मुनि, देवता, मनु, पितर और अग्नि स्तुति करने लगे ॥ ८ ॥ सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, पक्षी, मुख्य-मुख्य नागगण और देवताओंके अनुचर नाचने-गाने एवं भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे तथा उन लोगोंने अदितिके आश्रमको पुष्पोंकी वर्षासे ढक दिया ॥ ९-१० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...