गुरुवार, 7 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट१०)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य

श्रीभगवानुवाच ।
त्वमेव पूर्वसर्गेऽभूः पृश्निः स्वायंभुवे सति ।
तदायं सुतपा नाम प्रजापतिः अकल्मषः ॥ ३२ ॥
युवां वै ब्रह्मणाऽऽदिष्टौ प्रजासर्गे यदा ततः ।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तेपाथे परमं तपः ॥ ३३ ॥
वर्षवाता-तप-हिम घर्मकालगुणाननु ।
सहमानौ श्वासरोध विनिर्धूत-मनोमलौ ॥ ३४ ॥
शीर्णपर्णा-निलाहारौ उपशान्तेन चेतसा ।
मत्तः कामान् अभीप्सन्तौ मद् आराधनमीहतुः ॥ ३५ ॥
एवं वां तप्यतोस्तीव्रं तपः परमदुष्करम् ।
दिव्यवर्षसहस्राणि द्वादशेयुः मदात्मनोः ॥ ३६ ॥
तदा वां परितुष्टोऽहं अमुना वपुषानघे ।
तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हृदि भावितः ॥ ३७ ॥
प्रादुरासं वरदराड् युवयोः कामदित्सया ।
व्रियतां वर इत्युक्ते मादृशो वां वृतः सुतः ॥ ३८ ॥
अजुष्टग्राम्यविषयौ अनपत्यौ च दम्पती ।
न वव्राथेऽपवर्गं मे मोहितौ देवमायया ॥ ३९ ॥
गते मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सदृशं सुतम् ।
ग्राम्यान् भोगान् अभुञ्जाथां युवां प्राप्तमनोरथौ ॥ ४० ॥
अदृष्ट्वान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम् ।
अहं सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः ॥ ४१ ॥
तयोर्वां पुनरेवाहं अदित्यामास कश्यपात् ।
उपेन्द्र इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामनः ॥ ४२ ॥
तृतीयेऽस्मिन् भवेऽहं वै तेनैव वपुषाथ वाम् ।
जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहृतं सति ॥ ४३ ॥
एतद् वां दर्शितं रूपं प्राग्जन्म स्मरणाय मे ।
नान्यथा मद्‍भवं ज्ञानं मर्त्यलिङ्गेन जायते ॥ ४४ ॥
युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत् ।
चिन्तयन्तौ कृतस्नेहौ यास्येथे मद्‍गतिं पराम् ॥ ४५ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहादेवि ! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि  और ये वसुदेव सुतपा नामके प्रजापति थे । तुम दोनोंके हृदय बड़े ही शुद्ध थे ॥ ३२ ॥ जब ब्रह्माजी ने तुम दोनों को सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब तुम लोगों ने इन्द्रियों का दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की ॥ ३३ ॥ तुम दोनों ने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि काल के विभिन्न गुणोंका सहन किया और प्राणायामके द्वारा अपने मनके मल धो डाले ॥ ३४ ॥ तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते । तुम्हारा चित्त बड़ा शान्त था । इस प्रकार तुमलोगोंने मुझसे अभीष्ट वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छासे मेरी आराधना की ॥ ३५ ॥ मुझमें चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओंके बारह हजार वर्ष बीत गये ॥ ३६ ॥ पुण्यमयी देवि ! उस समय मैं तुम दोनोंपर प्रसन्न हुआ । क्योंकि तुम दोनोंने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्तिसे अपने हृदयमें नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी । उस समय तुम दोनोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये वर देनेवालोंका राजा मैं इसी रूपसे तुम्हारे सामने प्रकट हुआ । जब मैंने कहा कि तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनोंने मेरे-जैसा पुत्र माँगा ॥ ३७-३८ ॥ उस समयतक विषय-भोगोंसे तुम लोगोंका कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था । तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी । इसलिये मेरी मायासे मोहित होकर तुम दोनोंने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा ॥ ३९ ॥ तुम्हें मेरे-जैसा पुत्र होनेका वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँसे चला गया । अब सफलमनोरथ होकर तुमलोग विषयोंका भोग करने लगे ॥ ४० ॥ मैंने देखा कि संसारमें शील- स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणोंमें मेरे-जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिये मैं ही तुम दोनोंका पुत्र हुआ और उस समय मैं पृश्रगिर्भके नामसे विख्यात हुआ ॥ ४१ ॥ फिर दूसरे जन्ममें तुम हुर्ईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप । उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ । मेरा नाम था उपेन्द्र। शरीर छोटा होनेके कारण लोग मुझे वामनभी कहते थे ॥ ४२ ॥ सती देवकी ! तुम्हारे इस तीसरे जन्ममें भी मैं उसी रूपसे फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ [*] । मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है ॥ ४३ ॥ मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारोंका स्मरण हो जाय । यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीरसे मेरे अवतारकी पहचान नहीं हो पाती ॥ ४४ ॥ तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना । इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तनके द्वारा तुम्हें मेरे परम पदकी प्राप्ति होगी ॥ ४५ ॥
...........................................
[*] भगवान्‌ श्रीकृष्णने विचार किया कि मैंने इनको वर तो यह दे दिया कि मेरे सदृश पुत्र होगा, परंतु इसको मैं पूरा नहीं कर सकता । क्योंकि वैसा कोई है ही नहीं । किसीको कोई वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा करके पूरी न कर सके तो उसके समान तिगुनी वस्तु देनी चाहिये । मेरे सदृश पदार्थके समान मैं ही हूँ । अतएव मैं अपनेको तीन बार इनका पुत्र बनाऊँगा ।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य
स त्वं घोरात् उग्रसेनात्मजात् नः
त्राहि त्रस्तान् भृत्यवित्रासहासि ।
रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं
मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः ॥ २८ ॥

जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यात् मधुसूदन ।
समुद्विजे भवद्धेतोः कंसाद् अहमधीरधीः ॥ २९ ॥
उपसंहर विश्वात्मन् अदो रूपं अलौकिकम् ।
शंखचक्रगदापद्म श्रिया जुष्टं चतुर्भुजम् ॥ ३० ॥
विश्वं यदेतत् स्वतनौ निशान्ते
यथावकाशं पुरुषः परो भवान् ।
बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगो अभूद्
अहो नृलोकस्य विडंबनं हि तत् ॥ ३१ ॥


प्रभो ! आप हैं भक्तभयहारी । और हमलोग इस दुष्ट कंससे बहुत ही भयभीत हैं । अत: आप हमारी रक्षा कीजिये । आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यानकी वस्तु है । इसे केवल मांस-मज्जामय शरीरपर ही दृष्टि रखनेवाले देहाभिमानी पुरुषोंके सामने प्रकट मत कीजिये ॥ २८ ॥ मधुसूदन ! इस पापी कंसको यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भसे हुआ है । मेरा धैर्य टूट रहा है । आपके लिये मैं कंससे बहुत डर रही हूँ ॥ २९ ॥ विश्वात्मन् ! आपका यह रूप अलौकिक है । आप शङ्ख, चक्र, गदा और कमलकी शोभासे युक्त अपना यह चतुर्भुजरूप छिपा लीजिये ॥ ३० ॥ प्रलयके समय आप इस सम्पूर्ण विश्वको अपने शरीरमें वैसे ही स्वाभाविक रूपसे धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीरमें रहनेवाले छिद्ररूप आकाशको । वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या है ? ॥ ३१ ॥

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बुधवार, 6 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य

श्रीशुक उवाच ।
अथैनं आत्मजं वीक्ष्य महापुरुष लक्षणम् ।
देवकी तं उपाधावत् कंसाद् भीता सुचिस्मिता ॥ २३ ॥

श्रीदेवक्युवाच ।
रूपं यत् तत् प्राहुरव्यक्तमाद्यं
ब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम् ।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं
स त्वं साक्षात् विष्णुरध्यात्मदीपः ॥ २४ ॥
नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने
महाभूतेषु आदिभूतं गतेषु ।
व्यक्ते अव्यक्तं कालवेगेन याते
भवान् एकः शिष्यते शेषसंज्ञः ॥ २५ ॥
योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धो
चेष्टां आहुः चेष्टते येन विश्वम् ।
निमेषादिः वत्सरान्तो महीयान्
तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये ॥ २६ ॥
मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन्
लोकान् सर्वान् निर्भयं नाध्यगच्छत् ।
त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य
स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति ॥ २७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्रमें तो पुरुषोत्तम भगवान्‌ के सभी लक्षण मौजूद हैं । पहले तो उन्हें कंससे कुछ भय मालूम हुआ, परंतु फिर वे बड़े पवित्र भावसे मुसकराती हुई स्तुति करने लगीं ॥ २३ ॥
माता देवकीने कहाप्रभो ! वेदोंने आपके जिस रूपको अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योति:स्वरूप, समस्त गुणोंसे रहित और विकारहीन है, जिसे विशेषणरहितअनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ताके रूपमें कहा गया हैवही बुद्धि आदिके प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं ॥ २४ ॥ जिस समय ब्रह्माकी पूरी आयुदो परार्ध समाप्त हो जाते हैं, कालशक्तिके प्रभावसे सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पञ्च महाभूत अहंकारमें, अहंकार महत्तत्त्वमें और महत्तत्त्व प्रकृतिमें लीन हो जाता हैउस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं । इसीसे आपका एक नाम शेषभी है ॥ २५ ॥ प्रकृतिके एकमात्र सहायक प्रभो ! निमेषसे लेकर वर्षपर्यन्त अनेक विभागोंमें विभक्त जो काल है, जिसकी चेष्टासे यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीलामात्र है । आप सर्वशक्तिमान् और परम कल्याणके आश्रय हैं । मैं आपकी शरण लेती हूँ ॥ २६ ॥ प्रभो ! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है । यह मृत्युरूप कराल व्यालसे भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरोंमें भटकता रहा है; परंतु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे । आज बड़े भाग्यसे इसे आपके चरणारविन्दोंकी शरण मिल गयी । अत: अब यह स्वस्थ होकर सुखकी नींद सो रहा है । औरों की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है ॥ २७ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)



भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य



त्वत्तोऽस्य जन्मस्थिति संयमान् विभो

वदन्ति अनीहात् अगुणाद् अविक्रियात् ।

त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते

त्वद् आश्रयत्वाद् उपचर्यते गुणैः ॥ १९ ॥

स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया

बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः ।

सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं

कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये ॥ २० ॥

त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषुः

गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर ।

राजन्य संज्ञासुरकोटि यूथपैः

निर्व्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः ॥ २१ ॥

अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहे

श्रुत्वाग्रजांस्ते न्यवधीत् सुरेश्वर ।

स तेऽवतारं पुरुषैः समर्पितं

श्रुत्वाधुनैव अभिसरत्युदायुधः ॥ २२ ॥



प्रभो ! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारोंसे रहित हैं । फिर भी इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं । यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिये असंगत नहीं है । क्योंकि तीनों गुणोंके आश्रय आप ही हैं, इसलिये उन गुणोंके कार्य आदिका आपमें ही आरोप किया जाता है ॥ १९ ॥ आप ही तीनों लोकोंकी रक्षा करनेके लिये अपनी मायासे सत्त्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्तिके लिये रज:प्रधान रक्तवर्ण (सृजनकारी ब्रह्मारूप) और प्रलयके समय तमोगुणप्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं ॥ २० ॥ प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं । इस संसारकी रक्षाके लिये ही आपने मेरे घर अवतार लिया है । आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियोंने राजाका नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं । आप उन सबका संहार करेंगे ॥ २१ ॥ देवताओंके भी आराध्यदेव प्रभो ! यह कंस बड़ा दुष्ट है । इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होनेवाला है, तब उसने आपके भयसे आपके बड़े भाइयोंको मार डाला । अभी उसके दूत आपके अवतारका समाचार उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथमें शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा ॥ २२ ॥



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मंगलवार, 5 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य

श्रीवसुदेव उवाच ।
विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः ।
केवलानुभवानन्द स्वरूपः सर्वबुद्धिदृक् ॥ १३ ॥
स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम् ।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे ॥ १४ ॥
यथा इमे अविकृता भावाः तथा ते विकृतैः सह ।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि ॥ १५ ॥
सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव ।
प्रागेव विद्यमानत्वात् न तेषां इह संभवः ॥ १६ ॥
एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणैः
ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद्‍गुणाग्रहः ।
अनावृतत्वाद् बहिरन्तरं न ते
सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः ॥ १७ ॥
य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति
व्यवस्यते स्व-व्यतिरेकतोऽबुधः ।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं
सम्यग् यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान् ॥ १८ ॥

वसुदेवजीने कहामैं समझ गया कि आप प्रकृतिसे अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं । आपका स्वरूप है केवल अनुभव और केवल आनन्द । आप समस्त बुद्धियोंके एकमात्र साक्षी हैं ॥ १३ ॥ आप ही सर्गके आदिमें अपनी प्रकृतिसे इस त्रिगुणमय जगत्की सृष्टि करते हैं । फिर उसमें प्रविष्ट न होनेपर भी आप प्रविष्टके समान जान पड़ते हैं ॥ १४ ॥ जैसे जबतक महत्तत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक्-पृथक् रहते हैं, तबतक उनकी शक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारोंके साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्डकी रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसीमें अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परंतु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थमें प्रवेश नहीं करते । ऐसा होनेका कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहलेसे ही विद्यमान रहते हैं ॥ १५-१६ ॥ ठीक वैसे ही बुद्धिके द्वारा केवल गुणोंके लक्षणोंका ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियोंके द्वारा केवल गुणमय विषयोंका ही ग्रहण होता है । यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणोंके ग्रहणसे आपका ग्रहण नहीं होता । इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं । गुणोंका आवरण आपको ढक नहीं सकता । इसलिये आपमें न बाहर है न भीतर । फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे ? (इसलिये प्रवेश न करनेपर भी आप प्रवेश किये हुएके समान दीखते हैं) ॥ १७ ॥ जो अपने इन दृश्य गुणोंको अपनेसे पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है । क्योंकि विचार करनेपर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नहीं सिद्ध होते । विचारके द्वारा जिस वस्तुका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है ? ॥ १८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य

तमद्‍भुतं बालकमम्बुजेक्षणं
चतुर्भुजं शंखगदार्युदायुधम् ।
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभि कौस्तुभं
पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम् ॥ ९ ॥
महार्हवैदूर्यकिरीटकुण्डल
त्विषा परिष्वक्त सहस्रकुन्तलम् ।
उद्दाम काञ्च्यङ्‍गद कङ्कणादिभिः
विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत ॥ १० ॥
स विस्मयोत्फुल्ल विलोचनो हरिं
सुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा ।
कृष्णावतारोत्सव संभ्रमोऽस्पृशन्
मुदा द्विजेभ्योऽयुतमाप्लुतो गवाम् ॥ ११ ॥
अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं
परं नताङ्‌गः कृतधीः कृताञ्जलिः ।
स्वरोचिषा भारत सूतिकागृहं
विरोचयन्तं गतभीः प्रभाववित् ॥ १२ ॥

वसुदेवजीने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है । उसके नेत्र कमलके समान कोमल और विशाल हैं । चार सुन्दर हाथों में शङ्ख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए हैं । वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्नअत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है । गलेमें कौस्तुभमणि झिलमिला रही है । वर्षाकालीन मेघके समान परम सुन्दर श्यामल शरीरपर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है । बहुमूल्य वैदूर्यमणिके किरीट और कुण्डल की कान्ति से सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्य की किरणोंके समान चमक रहे हैं । कमर में चमचमाती करधनी की लडिय़ाँ लटक रही हैं । बाँहोंमें बाजूबंद और कलाइयोंमें कङ्कण शोभायमान हो रहे हैं । इन सब आभूषणोंसे सुशोभित बालक के अङ्ग-अङ्गसे अनोखी छटा छिटक रही है ॥ ९-१० ॥ जब वसुदेवजीने देखा कि मेरे पुत्रके रूपमें तो स्वयं भगवान्‌ ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्दसे उनकी आँखें खिल उठीं । उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्र हो गया । श्रीकृष्णका जन्मोत्सव मनानेकी उतावलीमें उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिये दस हजार गायों का संकल्प कर दिया ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी अङ्गकान्ति से सूतिकागृह को जगमग कर रहे थे । जब वसुदेवजीको यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान्‌ का प्रभाव जान लेनेसे उनका सारा भय जाता रहा । अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान्‌ के चरणोंमें अपना सिर झुका दिया और फिर हाथ जोडक़र वे उनकी स्तुति करने लगे॥ १२ ॥

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सोमवार, 4 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्राकट्य

दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम् ।
मही मंगलभूयिष्ठ पुरग्राम-व्रजाकरा ॥ २ ॥
नद्यः प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः ।
द्विजालिकुल सन्नाद स्तबका वनराजयः ॥ ३ ॥
ववौ वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः ।
अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत ॥ ४ ॥
मनांस्यासन् प्रसन्नानि साधूनां असुरद्रुहाम् ।
जायमानेऽजने तस्मिन् नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ॥ ५ ॥
जगुः किन्नरगन्धर्वाः तुष्टुवुः सिद्धचारणाः ।
विद्याधर्यश्च ननृतुः अप्सरोभिः समं तदा ॥ ६ ॥
मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः ।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुः अनुसागरम् ॥ ७ ॥
निशीथे तम उद्‍भूते जायमाने जनार्दने ।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कलः ॥ ८ ॥

दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थीं | पृथ्वीके बड़े बड़े नगर, छोटे छोटे गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें मङ्गलमय हो रही थीं ॥ २ ॥ नदियोंका जल निर्मल हो गया था । रात्रिके समय भी सरोवरोंमें कमल खिल रहे थे । वनमें वृक्षोंकी पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पोंके गुच्छोंसे लद गयी थीं । कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे ॥ ३ ॥ उस समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्शसे लोगोंको सुखदान करती हुई बह रही थी । ब्राह्मणोंके अग्निहोत्र की कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ जो कंसके अत्याचारसे बुझ गयी थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं ॥ ४ ॥
संत पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये । अब उनका मन सहसा प्रसन्नतासे भर गया । जिस समय भगवान्‌ के आविर्भावका अवसर आया, स्वर्गमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं ॥ ५ ॥ किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वरमें गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान्‌ के मङ्गलमय गुणोंकी स्तुति करने लगे । विद्याधरियाँ अप्सराओंके साथ नाचने लगीं ॥ ६ ॥ बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्दसे भरकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे[*] । जलसे भरे हुए बादल समुद्रके पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे[#] ॥ ७ ॥ जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले जनार्दनके अवतारका समय था निशीथ । चारों ओर अन्धकारका साम्राज्य था । उसी समय सबके हृदयमें विराजमान भगवान्‌ विष्णु देवरूपिणी देवकीके गर्भसे प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय हो गया हो ॥ ८ ॥
............................................
[*] ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनकी वर्षा करनेके लिये मथुराकी ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा । उन्होंने अपने निरोध और बाधसम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मनको श्रीकृष्णकी ओर जानेके लिये मुक्त कर दिया, उनपर न्योछावर कर दिया ।
[#] १. मेघ समुद्र के पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहतेजलनिधे ! यह तुम्हारे उपदेश (पास आने) का फल है कि हमारे पास जल-ही-जल हो गया । अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान्‌ रहते हैं, वैसे हमारे भीतर भी रहें ।
२. बादल समुद्र के पास जाते और कहते कि समुद्र ! तुम्हारे हृदयमें भगवान्‌ रहते हैं, हमें भी उनका दर्शन-प्यार प्राप्त करवा दो । समुद्र उन्हें थोड़ा-सा जल देकर कह देताअपनी उत्ताल तरङ्गों से ढकेल देताजाओ अभी विश्वकी सेवा करके अन्त:करण शुद्ध करो, तब भगवान्‌ के दर्शन होंगे । स्वयं भगवान्‌ मेघश्याम बनकर समुद्रसे बाहर व्रजमें आ रहे हैं । हम धूपमें उनपर छाया करेंगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर जीवन न्योछावर करेंगे और उनकी बाँसुरीके स्वरपर ताल देंगे । अपने इस सौभाग्यका अनुसन्धान करके बादल समुद्रके पास पहुँचे और मन्द-मन्द गर्जना करने लगे । मन्द-मन्द इसलिये कि यह ध्वनि प्यारे श्रीकृष्णके कानोंतक न पहुँच जाय ।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...