मंगलवार, 23 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

कालिय पर कृपा

 

नागपत्‍न्य ऊचुः ।

न्याय्यो हि दण्डः कृतकिल्बिषेऽस्मिन्

तवावतारः खलनिग्रहाय ।

रिपोः सुतानामपि तुल्यदृष्टेः

धत्से दमं फलमेवानुशंसन् ॥ ३३ ॥

अनुग्रहोऽयं भवतः कृतो हि नो

दण्डोऽसतां ते खलु कल्मषापहः ।

यद् दन्दशूकत्वममुष्य देहिनः

क्रोधोऽपि तेऽनुग्रह एव सम्मतः ॥ ३४ ॥

तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वं

निरस्तमानेन च मानदेन ।

धर्मोऽथ वा सर्वजनानुकम्पया

यतो भवांस्तुष्यति सर्वजीवः ॥ ३५ ॥

कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे

तवाङ्‌घ्रिरेणु स्पर्शाधिकारः ।

यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपो

विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥ ३६ ॥

न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं

न पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् ।

न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा

वाञ्छन्ति यत्पादरजःप्रपन्नाः ॥ ३७ ॥

तदेष नाथाप दुरापमन्यैः

तमोजनिः क्रोधवशोऽप्यहीशः ।

संसारचक्रे भ्रमतः शरीरिणो

यदिच्छतः स्याद् विभवः समक्षः ॥ ३८ ॥

 

नागपत्नियों ने कहाप्रभो ! आपका यह अवतार ही दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये हुआ है। इसलिये इस अपराधीको दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टिमें शत्रु और पुत्रका कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसीको दण्ड देते हैं, वह उसके पापोंका प्रायश्चित्त कराने और उसका परम कल्याण करनेके लिये ही ॥ ३३ ॥ आपने हमलोगोंपर यह बड़ा ही अनुग्रह किया। यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है। क्योंकि आप जो दुष्टोंको दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस सर्पके अपराधी होनेमें तो कोई सन्देह ही नहीं है। यदि यह अपराधी न होता, तो इसे सर्पकी योनि ही क्यों मिलती ? इसलिये हम सच्चे हृदयसे आपके इस क्रोधको भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं ॥ ३४ ॥ अवश्य ही पूर्वजन्ममें इसने स्वयं मानरहित होकर और दूसरोंका सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब जीवोंपर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है। तभी तो आप इसके ऊपर सन्तुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवस्वरूप आपकी प्रसन्नताका यही उपाय है ॥ ३५ ॥ भगवन् ! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधनाका फल है, जो यह आपके चरणकमलोंकी धूलका स्पर्श पानेका अधिकारी हुआ है। आपके चरणोंकी रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अद्र्धाङ्गिनी लक्ष्मीजीको भी बहुत दिनोंतक समस्त भोगोंका त्याग करके नियमोंका पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी ॥ ३६ ॥ प्रभो ! जो आपके चरणोंकी धूलकी शरण ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्गका राज्य या पृथ्वीकी बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातलका ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्माका पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग- सिद्धियोंकी भी चाह नहीं होती। यहाँतक कि वे जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले कैवल्य-मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते ॥ ३७ ॥ स्वामी ! यह नागराज तमोगुणी योनि में उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है । फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरणरज प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छामात्र से ही संसारचक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्तिकी तो बात ही क्यामोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है ॥ ३८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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सोमवार, 22 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

कालिय पर कृपा

 

इत्थं स्वगोकुलमनन्यगतिं निरीक्ष्य

सस्त्रीकुमारमतिदुःखितमात्महेतोः ।

आज्ञाय मर्त्यपदवीमनुवर्तमानः

स्थित्वा मुहूर्तमुदतिष्ठदुरङ्‌गबन्धात् ॥ २३ ॥

तत्प्रथ्यमानवपुषा व्यथितात्मभोगः

त्यक्त्वोन्नमय्य कुपितः स्वफणान्भुजङ्‌गः ।

तस्थौ श्वसन् श्वसनरन्ध्रविषाम्बरीष

स्तब्धेक्षणोल्मुकमुखो हरिमीक्षमाणः ॥ २४ ॥

तं जिह्वया द्विशिखया परिलेलिहानं

द्वे सृक्किणी ह्यतिकरालविषाग्निदृष्टिम् ।

क्रीडन्नमुं परिससार यथा खगेन्द्रो

बभ्राम सोऽप्यवसरं प्रसमीक्षमाणः ॥ २५ ॥

एवं परिभ्रमहतौजसमुन्नतांसम्

आनम्य तत्पृथुशिरःस्वधिरूढ आद्यः ।

तन्मूर्धरत्‍ननिकरस्पर्शातिताम्र

पादाम्बुजोऽखिलकलादिगुरुर्ननर्त ॥ २६ ॥

तं नर्तुमुद्यतमवेक्ष्य तदा तदीय

गन्धर्वसिद्धमुनिचारणदेववध्वः ।

प्रीत्या मृदङ्‌गपणवानकवाद्यगीत

पुष्पोपहारनुतिभिः सहसोपसेदुः ॥ २७ ॥

यद् यद् शिरो न नमतेऽङ्‌ग शतैकशीर्ष्णः

तत्तन्ममर्द खरदण्डधरोऽङ्‌घ्रिपातैः ।

क्षीणायुषो भ्रमत उल्बणमास्यतोऽसृङ्‌

नस्तो वमन् परमकश्मलमाप नागः ॥ २८ ॥

तस्याक्षिभिर्गरलमुद्वमतः शिरःसु

यद् यत् समुन्नमति निःश्वसतो रुषोच्चैः ।

नृत्यन् पदानुनमयन् दमयां बभूव

पुष्पैः प्रपूजित इवेह पुमान्पुराणः ॥ २९ ॥

तच्चित्रताण्डवविरुग्णफणातपत्रो

रक्तं मुखैरुरु वमन् नृप भग्नगात्रः ।

स्मृत्वा चराचरगुरुं पुरुषं पुराणं

नारायणं तमरणं मनसा जगाम ॥ ३० ॥

कृष्णस्य गर्भजगतोऽतिभरावसन्नं

पार्ष्णिप्रहारपरिरुग्णफणातपत्रम् ।

दृष्ट्वाहिमाद्यमुपसेदुरमुष्य पत्‍न्य

आर्ताः श्लथद्वसन भूषणकेशबन्धाः ॥ ३१ ॥

तास्तं सुविग्नमनसोऽथ पुरस्कृतार्भाः

कायं निधाय भुवि भूतपतिं प्रणेमुः ।

साध्व्यः कृताञ्जलिपुटाः शमलस्य भर्तुः

मोक्षेप्सवः शरणदं शरणं प्रपन्नाः ॥ ३२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! यह साँपके शरीरसे बँध जाना तो श्रीकृष्णकी मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि व्रजके सभी लोग स्त्री और बच्चोंके साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्पके बन्धनमें रहकर बाहर निकल आये ॥ २३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया। इससे साँपका शरीर टूटने लगा। वह अपना नागपाश छोडक़र अलग खड़ा हो गया और क्रोधसे आग बबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा। घात मिलते ही श्रीकृष्णपर चोट करनेके लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनोंसे विषकी फुहारें निकल रही थीं। उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्टी पर तपाया हुआ खपड़ा हो। उसके मुँहसे आगकी लपटें निकल रही थीं ॥ २४ ॥ उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होठोंके दोनों किनारोंको चाट रहा था और अपनी कराल आँखोंसे विषकी ज्वाला उगलता जा रहा था। अपने वाहन गरुडक़े समान भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैंतरा बदलने लगे और वह साँप भी उनपर चोट करनेका दाँव देखता हुआ पैंतरा बदलने लगा ॥ २५ ॥ इस प्रकार पैंतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया। तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसके बड़े-बड़े सिरोंको तनिक दबा दिया और उछलकर उनपर सवार हो गये। कालिय नागके मस्तकोंपर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्शसे भगवान्‌के सुकुमार तलुओंकी लालिमा और भी बढ़ गयी। नृत्य-गान आदि समस्त कलाओंके आदि प्रवर्तक भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसके सिरोंपर कलापूर्ण नृत्य करने लगे ॥ २६ ॥ भगवान्‌के प्यारे भक्त, गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवाङ्गनाओंने जब देखा कि भगवान्‌ नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेमसे मृदङ्ग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पोंकी वर्षा करते हुए और अपनेको निछावर करते हुए भेंट ले-लेकर उसी समय भगवान्‌के पास आ पहुँचे ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! कालिय नागके एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिरको नहीं झुकाता था, उसीको प्रचण्ड दण्डधारी भगवान्‌ अपने पैंरोंकी चोटसे कुचल डालते। इससे कालियनागकी जीवनशक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथुनोंसे खून उगलने लगा। अन्तमें चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया ॥ २८ ॥ तनिक भी चेत होता तो वह अपनी आँखोंसे विष उगलने लगता और क्रोधके मारे जोर-जोरसे फुफकारें मारने लगता। इस प्रकार वह अपने सिरोंमेंसे जिस सिरको ऊपर उठाता, उसीको नाचते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने चरणोंकी ठोकरसे झुकाकर रौंद डालते। उस समय पुराण-पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर जो खूनकी बूँदें पड़ती थीं, उनसे ऐसा मालूम होता, मानो रक्त-पुष्पोंसे उनकी पूजा की जा रही हो ॥ २९ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ के इस अद्भुत ताण्डव- नृत्यसे कालियके फणरूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गये। उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुँहसे खूनकी उलटी होने लगी। अब उसे सारे जगत् के आदि शिक्षक पुराणपुरुष भगवान्‌ नारायणकी स्मृति हुई। वह मन-ही-मन भगवान्‌ की शरणमें गया ॥ ३० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके उदरमें सम्पूर्ण विश्व है। इसलिये उनके भारी बोझसे कालिय नाग के शरीर की एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी। उनकी एडिय़ोंकी चोटसे उसके छत्रके समान फण छिन्न-भिन्न हो गये। अपने पतिकी यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान्‌की शरणमें आयीं। वे अत्यन्त आतुर हो रही थीं। भयके मारे उनके वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और केशकी चोटियाँ भी बिखर रही थीं ॥ ३१ ॥ उस समय उन साध्वी नागपत्नियोंके चित्तमें बड़ी घबराहट थी। अपने बालकोंको आगे करके वे पृथ्वीपर लोट गयीं और हाथ जोडक़र उन्होंने समस्त प्राणियोंके एकमात्र स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रणाम कयिा। भगवान्‌ श्रीकृष्णको शरणागत-वत्सल जानकर अपने अपराधी पतिको छुड़ानेकी इच्छासे उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की ॥ ३२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कालिय पर कृपा

 

अथ व्रजे महोत्पाताः त्रिविधा ह्यतिदारुणाः ।

उत्पेतुर्भुवि दिव्यात्मन् यासन्नभयशंसिनः ॥ १२ ॥

तानालक्ष्य भयोद्विग्ना गोपा नन्दपुरोगमाः ।

विना रामेण गाः कृष्णं ज्ञात्वा चारयितुं गतम् ॥ १३ ॥

तैर्दुर्निमित्तैर्निधनं मत्वा प्राप्तमतद् विदः ।

तत् प्राणास्तन्मनस्कास्ते दुःखशोकभयातुराः ॥ १४ ॥

आबालवृद्धवनिताः सर्वेऽङ्‌ग पशुवृत्तयः ।

निर्जग्मुर्गोकुलाद् दीनाः कृष्णदर्शनलालसाः ॥ १५ ॥

तांस्तथा कातरान् वीक्ष्य भगवान् माधवो बलः ।

प्रहस्य किञ्चिन्नोवाच प्रभावज्ञोऽनुजस्य सः ॥ ॥

तेऽन्वेषमाणा दयितं कृष्णं सूचितया पदैः ।

भगवत् लक्षणैर्जग्मुः पदव्या यमुनातटम् ॥ १७ ॥

ते तत्र तत्राब्जयवाङ्‌कुशाशनि

ध्वजोपपन्नानि पदानि विश्पतेः ।

मार्गे गवामन्यपदान्तरान्तरे

निरीक्षमाणा ययुरङ्‌ग सत्वराः ॥ १८ ॥

अन्तर्ह्रदे भुजगभोगपरीतमारात् ।

कृष्णं निरीहमुपलभ्य जलाशयान्ते ।

गोपांश्च मूढधिषणान् परितः पशूंश्च

संक्रन्दतः परमकश्मलमापुरार्ताः ॥ १९ ॥

गोप्योऽनुरक्तमनसो भगवत्यनन्ते ।

तत्सौहृदस्मितविलोकगिरः स्मरन्त्यः ।

ग्रस्तेऽहिना प्रियतमे भृशदुःखतप्ताः

शून्यं प्रियव्यतिहृतं ददृशुस्त्रिलोकम् ॥ २० ॥

ताः कृष्णमातरमपत्यमनुप्रविष्टां

तुल्यव्यथाः समनुगृह्य शुचः स्रवन्त्यः ।

तास्ता व्रजप्रियकथाः कथयन्त्य आसन्

कृष्णाननेऽर्पितदृशो मृतकप्रतीकाः ॥ २१ ॥

कृष्णप्राणान् निर्विशतो नन्दादीन् वीक्ष्य तं ह्रदम् ।

प्रत्यषेधत् स भगवान् रामः कृष्णानुभाववित् ॥ २२ ॥

 

इधर व्रजमें पृथ्वी, आकाश और शरीरोंमें बड़े भयङ्कर-भयङ्कर तीनों प्रकारके उत्पात उठ खड़े हुए, जो इस बातकी सूचना दे रहे थे कि बहुत ही शीघ्र कोई अशुभ घटना घटनेवाली है ॥ १२ ॥ नन्दबाबा आदि गोपोंने पहले तो उन अपशकुनोंको देखा और पीछेसे यह जाना कि आज श्रीकृष्ण बिना बलरामके ही गाय चराने चले गये। वे भयसे व्याकुल हो गये ॥ १३ ॥ वे भगवान्‌का प्रभाव नहीं जानते थे। इसीलिये उन अपशकुनोंको देखकर उनके मनमें यह बात आयी कि आज तो श्रीकृष्णकी मृत्यु ही हो गयी होगी। वे उसी क्षण दु:ख, शोक और भयसे आतुर हो गये। क्यों न हों, श्रीकृष्ण ही उनके प्राण, मन और सर्वस्व जो थे ॥ १४ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! व्रजके बालक, वृद्ध और स्त्रियोंका स्वभाव गायों-जैसा ही वात्सल्यपूर्ण था। वे मनमें ऐसी बात आते ही अत्यन्त दीन हो गये और अपने प्यारे कन्हैयाको देखनेकी उत्कट लालसासे घरद्वार छोडक़र निकल पड़े ॥ १५ ॥ बलरामजी स्वयं भगवान्‌ के स्वरूप और सर्वशक्तिमान् हैं। उन्होंने जब व्रजवासियोंको इतना कातर और इतना आतुर देखा, तब उन्हें हँसी आ गयी। परंतु वे कुछ बोले नहीं, चुप ही रहे। क्योंकि वे अपने छोटे भाई श्रीकृष्णका प्रभाव भलीभाँति जानते थे ॥ १६ ॥ व्रजवासी अपने प्यारे श्रीकृष्णको ढूँढऩे लगे। कोई अधिक कठिनाई न हुई; क्योंकि मार्गमें उन्हें भगवान्‌के चरणचिह्न मिलते जाते थे। जौ, कमल, अङ्कुश आदिसे युक्त होनेके कारण उन्हें पहचान होती जाती थी। इस प्रकार वे यमुना-तटकी ओर जाने लगे ॥ १७ ॥

 

परीक्षित्‌ ! मार्ग में गौओं और दूसरों के चरणचिह्नों के बीच-बीच में भगवान्‌ के चरणचिह्न भी दीख जाते थे। उनमें कमल, जौ, अङ्कुश, वज्र और ध्वजा के चिह्न बहुत ही स्पष्ट थे। उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रतासे चले ॥ १८ ॥ उन्होंने दूर से ही देखा कि कालियदह में कालिय नागके शरीरसे बँधे हुए श्रीकृष्ण चेष्टाहीन हो रहे हैं। कुण्डके किनारे पर ग्वालबाल अचेत हुए पड़े हैं और गौएँ, बैल, बछड़े आदि बड़े आर्तस्वर से डकरा रहे हैं। यह सब देखकर वे सब गोप अत्यन्त व्याकुल और अन्तमें मूर्च्छित हो गये ॥ १९ ॥ गोपियोंका मन अनन्त गुणगणनिलय भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्रेमके रंगमें रँगा हुआ था। वे तो नित्य-निरन्तर भगवान्‌ के सौहार्द, उनकी मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन तथा मीठी वाणीका ही स्मरण करती रहती थीं। जब उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर को काले साँपने जकड़ रखा है, तब तो उनके हृदयमें बड़ा ही दु:ख और बड़ी ही जलन हुई। अपने प्राणवल्लभ जीवनसर्वस्वके बिना उन्हें तीनों लोक सूने दीखने लगे ॥ २० ॥ माता यशोदा तो अपने लाड़ले लालके पीछे कालियदहमें कूदने ही जा रही थीं; परंतु गोपियोंने उन्हें पकड़ लिया। उनके हृदयमें भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखोंसे भी आँसुओंकी झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुखकमलपर लगी थीं। जिनके शरीर में चेतना थी, वे व्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्यकी लीलाएँ कह-कहकर यशोदाजी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु अधिकांश तो मुर्देकी तरह पड़ ही गयी थीं ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! नन्दबाबा आदिके जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्णके लिये कालियदह में घुसने लगे। यह देखकर श्रीकृष्णका प्रभाव जाननेवाले भगवान्‌ बलरामजी ने किन्हींको समझा-बुझाकर, किन्हींको बलपूर्वक और किन्हींको उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया ॥ २२ ॥

 

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रविवार, 21 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कालिय पर कृपा

 

तस्य ह्रदे विहरतो भुजदण्डघूर्ण

वार्घोषमङ्‌ग वरवारणविक्रमस्य ।

आश्रुत्य तत् स्वसदनाभिभवं निरीक्ष्य

चक्षुःश्रवाः समसरत् तदमृष्यमाणः ॥ ८ ॥

तं प्रेक्षणीयसुकुमारघनावदातं

श्रीवत्सपीतवसनं स्मितसुन्दरास्यम् ।

क्रीडन्तमप्रतिभयं कमलोदराङ्‌घ्रिं

सन्दश्य मर्मसु रुषा भुजया चछाद ॥ ९ ॥

तं नागभोगपरिवीतमदृष्टचेष्टम्

आलोक्य तत्प्रियसखाः पशुपा भृशार्ताः ।

कृष्णेऽर्पितात्मसुहृदर्थकलत्रकामा

दुःखानुशोकभयमूढधियो निपेतुः ॥ १० ॥

गावो वृषा वत्सतर्यः क्रन्दमानाः सुदुःखिताः ।

कृष्णे न्यस्तेक्षणा भीता रुदत्य इव तस्थिरे ॥ ११ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण कालियदह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे। इस प्रकार जल-क्रीड़ा करनेपर उनकी भुजाओंकी टक्करसे जलमें बड़े जोरका शब्द होने लगा। आँखसे ही सुननेवाले कालिय नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवास-स्थानका तिरस्कार कर रहा है। उसे यह सहन न हुआ। वह चिढक़र भगवान्‌ श्रीकृष्ण के सामने आ गया ॥ ८ ॥ उसने देखा कि सामने एक साँवला-सलोना बालक है। वर्षाकालीन मेघके समान अत्यन्त सुकुमार शरीर है, उसमें लगकर आँखें हटनेका नाम ही नहीं लेतीं। उसके वक्ष:स्थलपर एक सुनहली रेखाश्रीवत्सका चिह्न है और वह पीले रंगका वस्त्र धारण किये हुए है। बड़े मधुर एवं मनोहर मुखपर मन्द-मन्द मुसकान अत्यन्त शोभायमान हो रही है। चरण इतने सुकुमार और सुन्दर हैं, मानो कमलकी गद्दी हो। इतना आकर्षक रूप होनेपर भी जब कालिय नागने देखा कि बालक तनिक भी न डरकर इस विषैले जलमें मौजसे खेल रहा है, तब उसका क्रोध और भी बढ़ गया। उसने श्रीकृष्णको मर्मस्थानोंमें डँसकर अपने शरीरके बन्धनसे उन्हें जकड़ लिया ॥ ९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण नागपाशमें बँधकर निश्चेष्ट हो गये। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीडि़त हुए और उसी समय दु:ख, पश्चात्ताप और भयसे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद्, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएँसब कुछ भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही समर्पित कर रखा था ॥ १० ॥ गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दु:खसे डकराने लगे। श्रीकृष्णकी ओर ही उनकी टकटकी बँध रही थी। वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गये, मानो रो रहे हों। उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था ॥ ११ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कालिय पर कृपा

 

श्रीशुक उवाच ।

विलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्णः कृष्णाहिना विभुः ।

तस्या विशुद्धिमन्विच्छन्सर्पं तमुदवासयत् ॥ १ ॥

 

श्रीराजोवाच ।

कथमन्तर्जलेऽगाधे न्यगृह्णाद् भगवानहिम् ।

स वै बहुयुगावासं यथाऽऽसीद् विप्र कथ्यताम् ॥ २ ॥

ब्रह्मन्भगवतस्तस्य भूम्नः स्वच्छन्दवर्तिनः ।

गोपालोदारचरितं कस्तृप्येतामृतं जुषन् ॥ ३ ॥

 

श्रीशुक उवाच ।

कालिन्द्यां कालियस्यासीद् ह्रदः कश्चिद् विषाग्निना ।

श्रप्यमाणपया यस्मिन् पतन्त्युपरिगाः खगाः ॥ ४ ॥

विप्रुष्मता विषदोर्मि मारुतेनाभिमर्शिताः ।

म्रियन्ते तीरगा यस्य प्राणिनः स्थिरजङ्‌गमाः ॥ ५ ॥

तं चण्डवेगविषवीर्यमवेक्ष्य तेन

दुष्टां नदीं च खलसंयमनावतारः ।

कृष्णः कदम्बमधिरुह्य ततोऽतितुङ्‌गम्

आस्फोट्य गाढरशनो न्यपतद् विषोदे ॥ ६ ॥

सर्पह्रदः पुरुषसारनिपातवेग

संक्षोभितोरगविषोच्छ्वसिताम्बुराशिः ।

पर्यक्‌प्लुतो विषकषायबिभीषणोर्मिः

धावन् धनुःशतमनन्तबलस्य किं तत् ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि महाविषधर कालिय नाग ने यमुनाजी का जल विषैला कर दिया है । तब यमुनाजीको शुद्ध करनेके विचारसे उन्होंने वहाँ से उस सर्प को निकाल दिया ॥ १ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाब्रह्मन् ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने यमुनाजीके अगाध जलमें किस प्रकार उस सर्पका दमन किया ? फिर कालिय नाग तो जलचर जीव नहीं था, ऐसी दशामें वह अनेक युगोंतक जलमें क्यों और कैसे रहा ? सो बतलाइये ॥ २ ॥ ब्रह्मस्वरूप महात्मन् ! भगवान्‌ अनन्त हैं । वे अपनी लीला प्रकट करके स्वच्छन्द विहार करते हैं । गोपालरूप से उन्होंने जो उदार लीला की है, वह तो अमृतस्वरूप है । भला, उसके सेवनसे कौन तृप्त हो सकता है ? ॥ ३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी ने कहापरीक्षित्‌ ! यमुनाजी में कालिय नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँतक कि उसके ऊपर उडऩेवाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे ॥ ४ ॥ उसके विषैले जलकी उत्ताल तरङ्गों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूँदें लेकर जब वायु बाहर आती और तटके घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदिका स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ का अवतार तो दुष्टों का दमन करनेके लिये होता ही है। जब उन्होंने देखा कि उस साँपके विष का वेग बड़ा प्रचण्ड (भयंकर) है और वह भयानक विष ही उसका महान् बल है तथा उसके कारण मेरे विहारका स्थान यमुनाजी भी दूषित हो गयी हैं, तब भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी कमरका फेंटा कसकर एक बहुत ऊँचे कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये और वहाँसे ताल ठोंककर उस विषैले जलमें कूद पड़े ॥ ६ ॥ यमुनाजीका जल साँपके विषके कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी तरङ्गें लाल-पीली और अत्यन्त भयङ्कर उठ रही थीं। पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णके कूद पडऩेसे उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथतक फैल गया। अचिन्त्य अनन्त बलशाली भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 20 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

धेनुकासुर का उद्धार और

ग्वालबालों को कालियनाग के विष से बचाना

 

कृष्णः कमलपत्राक्षः पुण्यश्रवणकीर्तनः

स्तूयमानोऽनुगैर्गोपैः साग्रजो व्रजमाव्रजत् ॥ ४१ ॥

तं गोरजश्छुरितकुन्तलबद्धबर्ह

वन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम्

वेणुम्क्वणन्तमनुगैरुपगीतकीर्तिं

गोप्यो दिदृक्षितदृशोऽभ्यगमन्समेताः ॥ ४२ ॥

पीत्वा मुकुन्दमुखसारघमक्षिभृङ्गैस्

तापं जहुर्विरहजं व्रजयोषितोऽह्नि

तत्सत्कृतिं समधिगम्य विवेश गोष्ठं

सव्रीडहासविनयं यदपाङ्गमोक्षम् ॥ ४३ ॥

तयोर्यशोदारोहिण्यौ पुत्रयोः पुत्रवत्सले

यथाकामं यथाकालं व्यधत्तां परमाशिषः ॥ ४४ ॥

गताध्वानश्रमौ तत्र मज्जनोन्मर्दनादिभिः

नीवीं वसित्वा रुचिरां दिव्यस्रग्गन्धमण्डितौ ॥ ४५ ॥

जनन्युपहृतं प्राश्य स्वाद्वन्नमुपलालितौ

संविश्य वरशय्यायां सुखं सुषुपतुर्व्रजे ॥ ४६ ॥

एवं स भगवान्कृष्णो वृन्दावनचरः क्वचित्

ययौ राममृते राजन्कालिन्दीं सखिभिर्वृतः ॥ ४७ ॥

अथ गावश्च गोपाश्च निदाघातपपीडिताः

दुष्टं जलं पपुस्तस्यास्तृष्णार्ता विषदूषितम् ॥ ४८ ॥

विषाम्भस्तदुपस्पृश्य दैवोपहतचेतसः

निपेतुर्व्यसवः सर्वे सलिलान्ते कुरूद्वह ॥ ४९ ॥

वीक्ष्य तान्वै तथाभूतान्कृष्णो योगेश्वरेश्वरः

ईक्षयामृतवर्षिण्या स्वनाथान्समजीवयत् ॥ ५० ॥

ते सम्प्रतीतस्मृतयः समुत्थाय जलान्तिकात्

आसन्सुविस्मिताः सर्वे वीक्षमाणाः परस्परम् ॥ ५१ ॥

अन्वमंसत तद्राजन्गोविन्दानुग्रहेक्षितम्

पीत्वा विषं परेतस्य पुनरुत्थानमात्मनः ॥ ५२ ॥

 

इसके बाद कमलदललोचन भगवान्‌ श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ व्रजमें आये । उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे । क्यों न हो; भगवान्‌ की लीलाओं का श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढक़र पवित्र जो है ॥ ४१ ॥ उस समय श्रीकृष्ण की घुँघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उडक़र धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंख का मुकुट था और बालोंमें सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे । उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी । वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे थे । वंशीकी ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही व्रजसे बाहर निकल आयीं । उनकी आँखें न जाने कबसे श्रीकृष्णके दर्शनके लिये तरस रही थीं ॥ ४२ ॥ गोपियोंने अपने नेत्ररूप भ्रमरोंसे भगवान्‌के मुखारविन्दका मकरन्द-रस पान करके दिनभरके विरहकी जलन शान्त की । और भगवान्‌ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनयसे युक्त प्रेमभरी तिरछी चितवनका सत्कार स्वीकार करके व्रजमें प्रवेश किया ॥ ४३ ॥ उधर यशोदामैया और रोहिणीजीका हृदय वात्सल्यस्नेहसे उमड़ रहा था । उन्होंने श्याम और रामके घर पहुँचते ही उनकी इच्छाके अनुसार तथा समयके अनुरूप पहलेसे ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं- पिलायीं और पहनायीं ॥ ४४ ॥ माताओंने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया । इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरनेकी मार्गकी थकान दूर हो गयी । फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पोंकी माला पहनायी तथा चन्दन लगाया ॥ ४५ ॥ तत्पश्चात् दोनों भाइयोंने माताओंका परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया । इसके बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शय्यापर सुलाया । श्याम और राम बड़े आरामसे सो गये ॥ ४६ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में अनेकों लीलाएँ करते । एक दिन अपने सखा ग्वाल बालों के साथ वे यमुनातटपर गये । राजन् ! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे ॥ ४७ ॥ उस समय जेठ-आषाढक़े घामसे गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीडि़त हो रहे थे । प्यास से उनका कण्ठ सूख रहा था । इसलिये उन्होंने यमुनाजीका विषैला जल पी लिया ॥ ४८ ॥ परीक्षित्‌ ! होनहार के वश उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहा था । उस विषैले जल के पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुनाजीके तटपर गिर पड़े ॥ ४९ ॥ उन्हें ऐसी अवस्थामें देखकर योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी अमृत बरसानेवाली दृष्टिसे उन्हें जीवित कर दिया । उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे ॥ ५० ॥ परीक्षित्‌ ! चेतना आने पर वे सब यमुनाजी के तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे ॥ ५१ ॥राजन् ! अन्त में उन्होंने यही निश्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे,परंतु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टि से देखकर हमें फिर से जिला दिया है॥५२॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे

धेनुकवधो नाम पञ्चदशोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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