रविवार, 23 जुलाई 2023

नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 03)

 


 

शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम् ।

आत्मज्ञानं परं ज्ञानं न सत्याद् विद्यते परम् ॥ १२ ॥

 

क्रूर स्वभावका परित्याग सबसे बड़ा धर्म है | क्षमा सबसे बड़ा बल है। आत्माका ज्ञान ही सबसे उत्कृष्ट ज्ञान है और सत्यसे बढ़कर

तो कुछ है ही नहीं ॥ १२ ॥

 

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् ।

यद् भूतहितमत्यन्तमेतत् सत्यं मतं मम ॥ १३ ॥

 

सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ है; परंतु सत्यसे भी श्रेष्ठ है हितकारक वचन बोलना । जिससे प्राणियोंका अत्यन्त हित होता हो, वही मेरे विचारसे सत्य है ॥ १३ ॥

 

सर्वारम्भपरित्यागी निराशीर्निष्परिग्रहः ।

येन सर्वं परित्यक्तं स विद्वान् स च पण्डितः ॥ १४ ॥

 

जो कार्य आरम्भ करनेके सभी संकल्पोंको छोड़ चुका है, जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जो किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता तथा जिसने सब कुछ त्याग दिया है, वही विद्वान् है और वही पण्डित ॥ १४ ॥

 

इन्द्रियैरिन्द्रियार्थान् यश्चरत्यात्मवशैरिह।

असज्जमानः शान्तात्मा निर्विकारः समाहितः ॥ १५ ॥

आत्मभूतैरतद्भूतः सह चैव विनैव च।

स विमुक्तः परं श्रेयो नचिरेणाधितिष्ठति ॥ १६ ॥

 

जो अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा यहाँ अनासक्त- भावसे विषयोंका अनुभव करता है, जिसका चित्त शान्त, निर्विकार और एकाग्र है तथा जो आत्मस्वरूप प्रतीत होनेवाले देह और इन्द्रियाँ हैं, उनके साथ रहकर भी उनसे तद्रूप न हो अलग - सा ही रहता है, वह मुक्त है और उसे बहुत शीघ्र परम कल्याण की प्राप्ति होती है ॥ १५-१६॥

 

अदर्शनमसंस्पर्शस्तथासम्भाषणं सदा ।

यस्य भूतैः सह मुने स श्रेयो विन्दते परम् ॥ १७ ॥

 

मुने! जिसकी किसी प्राणीकी ओर दृष्टि नहीं जाती, जो किसीका स्पर्श तथा किसी से बातचीत नहीं करता, वह परम कल्याण को प्राप्त होता है॥१७॥

 

न हिंस्यात् सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत् ।

नेदं जन्म समासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ १८ ॥

 

किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे। सबके प्रति मित्रभाव रखते हुए विचरे तथा यह मनुष्य - जन्म पाकर किसीके साथ वैर न करे ॥ १८ ॥

 

आकिञ्चन्यं सुसन्तोषो निराशीस्त्वमचापलम्।

एतदाहुः परं श्रेय आत्मज्ञस्य जितात्मनः॥१९॥

 

जो आत्मतत्त्व का ज्ञाता तथा मनको वशमें रखनेवाला है, उसके लिये यही परम कल्याणका साधन बताया गया है कि वह किसी वस्तुका संग्रह न करे, सन्तोष रखे तथा कामना और चंचलताको त्याग दे ॥ १९ ॥

 

परिग्रहं परित्यज्य भव तात जितेन्द्रियः ।

अशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाभयम् ॥ २० ॥

 

तात शुकदेव ! तुम संग्रहका त्याग करके जितेन्द्रिय हो जाओ

तथा उस पदको प्राप्त करो, जो इस लोक और परलोकमें भी निर्भय

एवं सर्वथा शोकरहित है ॥ २० ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



शनिवार, 22 जुलाई 2023

नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 02)

 


 

शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

निवृत्तिःकर्मणः पापात् सततं पुण्यशीलता ।

सद्वृत्तिः समुदाचारः श्रेय एतदनुत्तमम् ॥ ७ ॥

 

पापकर्मों से दूर रहना, सदा पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करना, श्रेष्ठ पुरुषों के से बर्ताव और सदाचार का पालन करना - यही सर्वोत्तम श्रेय (कल्याण) -का साधन है ॥७॥

 

मानुष्यमसुखं प्राप्य यः सज्जति स मुह्यति ।

नालं स दुःखमोक्षाय संयोगो दुःखलक्षणम् ॥ ८ ॥

 

जहाँ सुखका नाम भी नहीं है, ऐसे इस मानव – शरीर को पाकर जो विषयों में आसक्त होता है, वह मोह को प्राप्त होता है। विषयों का संयोग दुःखरूप ही है, अतः दुःखों से छुटकारा नहीं दिला सकता ॥ ८ ॥

 

सक्तस्य बुद्धिश्चलति मोहजालविवर्धनी ।

मोहजालावृतो दुःखमिह चामुत्र सोऽश्नुते ॥ ९ ॥

विषयासक्त पुरुषकी बुद्धि चंचल होती है। वह मोहजालको बढ़ानेवाली है, मोहजालसे बँधा हुआ पुरुष इस लोक तथा परलोकमें दुःख ही भोगता है ॥ ९ ॥

 

सर्वोपायात् तु कामस्य क्रोधस्य च विनिग्रहः ।

कार्यः श्रेयोऽर्थिना तौ हि श्रेयोघातार्थमुद्यतौ ॥ १० ॥

 

जिसे कल्याणप्राप्तिकी इच्छा हो, उसे सभी उपायोंसे काम और क्रोधको दबाना चाहिये; क्योंकि ये दोनों दोष कल्याणका नाश करनेके लिये उद्यत रहते हैं ॥ १० ॥


नित्यं क्रोधात् तपो रक्षेच्छ्रियं रक्षेच्च मत्सरात् ।

विद्यां मानावमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः ॥ ११॥

 

मनुष्यको चाहिये कि सदा तपको क्रोधसे, लक्ष्मीको डाहसे, विद्याको मानापमानसे और अपने-आपको प्रमादसे बचाये ॥ ११ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



नारद गीता पहला अध्याय (पोस्ट 01)

 


 [ महाभारत के शान्तिपर्व में तीन अध्याय वाली नारदगीता प्राप्त होती है। इसमें देवर्षि नारद द्वारा श्रीशुकदेवजी को ज्ञान तथा वैराग्य का उपदेश दिया गया है तथा इसी क्रम में सदाचार की प्रेरणा देते हुए धैर्य तथा अनासक्ति पर विशेष बल दिया गया है । तदनन्तर मनुष्य को प्रारब्धानुसार प्राप्त सुख-दु:ख आदिका वर्णन है। प्रारब्ध स्वयं उसी के पूर्वकृत कर्मों के परिणामस्वरूप बनता है तथा मनुष्य परवश-सा होकर उन्हें भोगने को विवश होता है । अतः अहंबुद्धि का सर्वथा त्याग करके, बन्धनमुक्त हो सनातन – पद को प्राप्त करना चाहिये । यही तथ्य इस गीत में बहुत रोचक ढंग से बताया गया है। इसकी भाषा अत्यन्त सुबोध, दृष्टान्त अत्यन्त रोचक तथा उपदेश सभी के लिये उपयोगी है। सहज बोधगम्य इस नारदगीता को यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है- ]

 

शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और

ज्ञान का उपदेश देना

 

भीष्म उवाच

 

एतस्मिन्नन्तरे शून्ये नारदः समुपागमत्।

शुकं स्वाध्यायनिरतं वेदार्थान् वक्तुमीप्सितान् ॥ १ ॥

 

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! व्यासजीके चले जानेके बाद उस सूने आश्रम में स्वाध्यायपरायण शुकदेवसे अपना इच्छित वेदोंका अर्थ कहनेके लिये देवर्षि नारदजी पधारे ॥ १ ॥

 

देवर्षि तु शुको दृष्ट्वा नारदं समुपस्थितम् ।

अर्घ्यपूर्वेण विधिना वेदोक्तेनाभ्यपूजयत्॥ २ ॥

 

देवर्षि नारद को उपस्थित देखकर शुकदेव ने वेदोक्त विधि से अर्घ्य आदि निवेदन करके उनका पूजन किया ॥ २ ॥

 

नारदोऽथाब्रवीत् प्रीतो ब्रूहि धर्मभृतां वर ।

केन त्वां श्रेयसा वत्स योजयामीति हृष्टवत् ॥ ३॥

 

उस समय नारदजी ने प्रसन्न होकर कहा - ' वत्स ! तुम धर्मात्माओं में श्रेष्ठ हो। बताओ, तुम्हें किस श्रेष्ठ वस्तु की प्राप्ति कराऊँ ?' यह बात उन्होंने बड़े हर्ष के साथ कही ॥ ३ ॥

 

नारदस्य वचः श्रुत्वा शुकः प्रोवाच भारत ।

अस्मिँल्लोके हितं यत् स्यात् तेन मां योक्तुमर्हसि ॥ ४ ॥

 

भरतनन्दन! नारदजी की यह बात सुनकर शुकदेव ने कहा - ' इस लोक में जो परम कल्याण का साधन हो, उसी का मुझे उपदेश देनेकी कृपा करें' ॥४॥

 

नारद उवाच

 

तत्त्वं जिज्ञासतां पूर्वमृषीणां भावितात्मनाम् ।

सनत्कुमारो भगवानिदं वचनमब्रवीत्॥५॥

 

नारदजी ने कहा – वत्स ! पूर्वकाल की बात है, पवित्र अन्तःकरण वाले ऋषियों ने तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रश्न किया। उसके उत्तर में भगवान् सनत्कुमार ने यह उपदेश दिया ॥ ५ ॥

 

नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः ।

नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ ६ ॥

 

विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है । सत्य के समान कोई तप नहीं है । राग के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के सदृश कोई सुख नहीं है ॥६॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



बुधवार, 12 जुलाई 2023

रावण कृत शिव तांडव स्तोत्र { हिन्दी भावार्थ } ..पोस्ट..०२




|| ॐ नम: शिवाय ||

जिन्होंने जटारूपी अटवी(वन)-से निकलती हुई गंगाजी के गिरते हुए प्रवाहों से पवित्र किये गए गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारण कर, डमरू के दम-दम शब्दों से मंडित प्रचंड तांडव(नृत्य) किया, वे शिवजी हमारे कल्याण का विस्तार करें ||१||
जिनका मस्तक जतारूपी कड़ाह में वेग से घूमती हुई गंगा की चंचल तरंग-लताओं से सुशोभित हो रहा है, ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही है, सर पर बाल चन्द्रमा विराजमान हैं, उन (भगवान् शिव)-में मेरा निरंतर अनुराग हो ||२||
गिरिराजकिशोरी पार्वती के विलासकालोपयोगी शिरोभूषण से समस्त दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिनका मन आनंदित हो रहा है,जिनकी निरन्तर कृपादृष्टि से कठिन आपत्ति का भी निवारण होजाता है, ऐसे किसी दिगंबर तत्त्व में मेरा मन विनोद करे ||३||
जिनके जटाजूटवर्ती भुजंगमों के फणों की मणियों का फैलता हुआ पिंगल प्रभापुंज दिशारूपिणी अंगनाओं के मुखपर कुंकुमराग का अनुलेपन कर रहा है, मतवाले हाथी के हिलते हुए चमड़े का उत्तरीय वस्त्र(चादर) धारण करने से स्निग्धवर्ण हुए उन भूतनाथ में मेरा चित्त अद्भुत विनोद करे ||४||
जिनकी चरणपादुकाएं इन्द्र समस्त देवताओं के (प्रणाम करते समय) मस्तकवर्ती कुसुमों की धूली से धूसरित हो रही हैं; नागराज (शेष)- के हार से बंधी हुई जटा वाले वे भगवान् चन्द्रशेखर मेरे लिए मेरे चिरस्थायिनी समाप्ति के साधक हों ||५||
जिसने ललाट-वेदी पर प्रज्वलित हुई अग्नि के स्फुलिंगों के तेज से कामदेव को नष्ट कर डाला था, जिसे इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, सुधाकर की कला से सुशोभित मुकुटवाला वह [श्रीमहादेवजी का] उन्नत विशाल ललाट वाला जटिल मस्तक हमारी सम्पत्ति का साधक हो ||६||
जिन्होंने अपने विकराल भालपट्ट पर धक्-धक् जलती हुई अग्नि में प्रचंड कामदेव को हवं कर दिया था, गिरिराजकिशोरी के स्तनों पर पत्रभंग रचना करने के एकमात्र कारीगर उन भगवान् त्रिलोचन में मेरी धारणा लगी रहे ||७||
जिनके कंठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावस्या की आधी रात के समय फैलाते हुए दुरूह अन्धकार के समान श्यामता अंकित है; जो गजचर्म लपेटे हुए हैं. वे संसारभार को धारण करने वाले चन्द्रमा [-के संपर्क]- से मनोहर कांटी वाले भगवान् गंगाधर मेरी सम्पत्ति का विस्तार करें ||८||
जिनका कंठदेश खिले हुए नील कमलसमूह की श्याम प्रभा का अनुकरण करने वाली हरिणी की-सी छविवाले चिन्ह से सुशोभित है तथा जो कामदेव, त्रिपुर, भव(संसार), दक्षयज्ञ, हाथी, अंधकासुर और यमराज का भी उच्छेदन (संहार) करने वाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ ||९||
जो अभिमानरूप पार्वती की कलारूप कदम्बमंजरी के मकरन्दस्रोत की बढती हुई माधुरी के पान करने वाले मधुप हैं तथा कामदेव, त्रिपुर, भव, दक्षयज्ञ, हाथी, अंधकासुर और यमराज का भी अंत करने वाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ ||१०||
जिनके मस्तक पर बड़े वेग के साथ घूमते हुए भुजंग के फुफकारने से ललाट के भयंकर अग्नि क्रमश: धधकती हुई फ़ैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गंभीर मंगल घोष के क्रमानुसार जिनका प्रचंड तांडव हो रहा है, उन भगवान् शंकर की जय हो ||११||
पत्थर और सुन्दर बिछोनों में, साँप और मुक्ता की माला में,बहुमूल्य रत्न तथा मिट्टी के ढेले में, मित्र या शत्रुपक्ष में, तृण अथवा कमललोचना तरुणी में, प्रजा और पृथ्वी के महाराज में समानभाव रखता हुआ मैं कब सदाशिव को भजूंगा ? ||१२||
सुन्दर ललाटवाले भगवान् चन्द्रशेखर में दत्तचित्त हो अपने कुविचारों को त्यागकर गंगाजी के तटवर्ती निकुंज के भीतर रहता हुआ सर पर हाथ जोड़ डबडबाई हुई विह्वल आँखों से ‘शिव’ मंत्र का उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊँगा ?||१३||
जो मनुष्य इसप्रकार से उक्त इस उत्तमोत्तम स्तोत्र का नित्य पाठ, स्मरण और वर्णन करता रहता है, वह सदा शुद्ध रहता है और शीघ्र ही सुरगुरु शंकरजी की अच्छी भक्ति प्राप्त कर लेता है, वह विरुद्ध गति को नहीं प्राप्त होता; क्योंकि श्रीशिवजी का अच्छी प्रकार का चिंतन प्राणीवर्ग के मोह का नाश करने वाला है ||१४||
सायंकाल में पूजा समाप्त होने पर रावण के गाये हुए इस शम्भु-पूजन-संबंधी स्तोत्र का जो पाठ करता है, भगवान् शंकर उस मनुष्य को रथ, हाथी, घोड़ों से युक्त सदा स्थिर रहने वाली अनुकूल सम्पत्ति देते हैं ||१५||
-------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “शिवस्तोत्ररत्नाकर” (कोड 1417) से

 



रावण कृत शिव तांडव स्तोत्र



|| ॐ नम: शिवाय ||


जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥1॥
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्द्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥2॥
धरा धरेंद्रनंदिनीविलासबंधुवंधुर-
स्फुरदृगंतसंतति प्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटा भुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपंचसायकं नमन्निलिंपनायकम्‌ ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि संपदे शिरोजटालमस्तु नः ॥6॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजयाहुतीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबंधबद्धकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥8॥
प्रफुल्लनीलपञ्कजप्रपंचकालिमप्रभा-
वलम्बिकंठकंदलीरुचिप्रबद्धकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमञ्जरी-
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम्‌ ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥12॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्‌ ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तमं स्तवं
पठन् स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम ॥14॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥15॥
-------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “शिवस्तोत्ररत्नाकर” (कोड 1417) से


भगवत्‌-प्राप्ति क्यों नहीं होती ? (पोस्ट ०२)

||ॐ श्री परमात्मने नम:||


एक महापुरुष कहा करते, ‘मान लो, एक घर में चोर घुसा है, उसे यह पता लग गया है कि बगल के ही घर में सोने का ढेर है। बीच में एक पतली सी कमजोर दीवार है। इस अवस्था में चोर के मन की क्या स्थिति होगी? उसको न नींद आवेगी, न भूख लगेगी, वह सब कुछ भूल जायगा, उसे केवल एक ही बात का स्मरण रहेगा, कैसे दीवाल में सेंध लगाकर सोना निकाला जाय।’ क्या तुम कह सकते हो कि यदि मनुष्य को इस बात का यथार्थ विश्वास होता कि सम्पूर्ण आनन्द और महिमा की खान स्वयं भगवान्‌ यहां हैं, तब क्या उसका मन उसे छोड़कर तुच्छ सांसारिक कामों में लग सकता? जब मनुष्य को यह यथार्थ विश्‍वास हो जाता है कि ‘भगवान्‌’ हैं तभी उन्हें प्राप्त करने के लिये उसके मनमें प्रबल आकांक्षा उत्पन्न होकर उसको पागल बना देती है!
……….००३. १०. ज्येष्ठ कृष्ण ११ सं० १९८६. कल्याण (पृ० १०१४)


भगवत्‌-प्राप्ति क्यों नहीं होती ? (पोस्ट ०१)( स्वामी विवेकानन्द )

||ॐ श्री परमात्मने नम:।।

एक शिष्य ने गुरु के पास जाकर कहा ‘प्रभो! मुझे भगवत्‌-प्राप्ति की इच्छा है।’ गुरु एक बार उसके चेहरे की ओर ताक कर तनिक मुस्कुरा दिये, कुछ बोले नहीं। शिष्य रोज रोज जाकर कहने लगा, ‘महाराज! मुझे भगवत्‌-प्राप्ति का उपाय बतलाना ही पड़ेगा।’ कैसे क्या होता है, इस बातको गुरु जी समझते थे। एक दिन गर्मी के दिनों में गुरुजी अपने शिष्य को साथ लेकर नदी नहाने गये। ज्योंही शिष्य ने नदी में डुबकी लगायी त्योंही गुरुजी ने दौड़कर उसकी गरदन दबा दी। शिष्य बाहर निकलने के लिये खूब ही तलमलाया। थोड़ी देर बाद गुरुजी ने उसे छोड़ दिया, बाहर निकलने पर उससे पूछा कि, ‘बताओ! जब तुम जलके भीतर थे, तब तुम्हारे प्राण सब से अधिक किस बात के लिये छटपटा रहे थे? उसने कहा ‘हवा के अभाव से प्राण निकले जा रहे थे।’ तब गुरुजी ने कहा, भाई! जैसे उस समय तुम हवा बिना छटपटाते थे, क्या भगवान्‌ के बिना ऐसी छटपटाहट तुम्हारे हृदयमें कभी हुई? जब वैसी छटपटाहट होगी, तभी तुम्हें भगवान्‌ मिल जायंगे। जब तक तीव्र पिपासा और तीव्र चाहना नहीं जाग उठती, तब तक चाहे जितना तर्क, विचार, अध्ययन या बाहरी अनुष्ठान किया जाय, उससे कुछ भी लाभ नहीं होता!

शेष आगामी पोस्ट में -----

………..००३. १०. ज्येष्ठ कृष्ण ११ सं० १९८६. कल्याण (पृ० १०१४)


बुधवार, 5 जुलाई 2023

मधुराष्टकम्

 

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् | 
हृदयं मधुरं, गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||1||
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम्  |
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरं ||2||
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पादौ मधुरौ |
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं  मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||3||
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् |
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||4||
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम् |
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||5||
गुंजा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा |
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||6||
गोपी मधुरा लीला मधुरा  युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं 
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||7||
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा  |
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||8||

(श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है | उनके अधर मधुर हैं,मुख मधुर है,नेत्र मधुर हैं,हास्य मधुर है,हृदय मधुर है और गति भी अतिमधुर है || उनके वचन मधुर हैं,चरित्र मधुर हैं,वस्त्र मधुर हैं, अंगभंगी मधुर है, चाल मधुर है और भ्रमण भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनका गान मधुर है, पान मधुर है,भोजन मधुर है,शयन मधुर है,रूप मधुर है और तिलक भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनका कार्य मधुर है,तैरना मधुर है,हरण मधुर है,रमण मधुर है,उद्गार मधुर है  और शांति भी अति मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनकी गुंजा मधुर है,माला मधुर है, यमुना मधुर है, उसकी तरंगें मधुर हैं,उसका जल मधुर है और कमल भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| गोपियाँ मधुर हैं,उनकी लीला मधुर है,उनका संयोग मधुर है,वियोग मधुर है, निरीक्षण मधुर है और शिष्टाचार भी मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| गोप मधुर हैं, गौएँ मधुर हैं,लकुटी मधुर है,रचना मधुर है.दलन मधुर है और उसका फल भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है||)

--गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “स्तोत्र रत्नावली” पुस्तक से (पुस्तक कोड  1629)


मंगलवार, 4 जुलाई 2023

पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी (पोस्ट 02)



श्रीराम, माँ कौसल्या से कहते हैं कि अब इस निर्गुण भक्ति का साधन बतलाता हूँ--- 

अपने धर्म का अत्यंत निष्काम भाव से आचरण करने से, अत्युत्तम हिंसाहीन कर्मयोग से  मेरे दर्शन, स्तुति, महापूजा, स्मरण और वंदन से, प्राणियों में मेरी भावना करने से, असत्य के त्याग और सत्संग से, महापुरुषों का अत्यन्त मान करने से, दु:खियों पर दया करने से, अपने समान पुरुषों से मैत्री करने से, वेदान्तवाक्यों का श्रवण करने से, मेरा नाम-संकीर्तन करने से, सत्संग और कोमलता से, अहंकार का त्याग करने से और मेरे भागवत-धर्मों की इच्छा करने से जिसका चित्त शुद्ध होगया है, वह पुरुष मेरे गुणों का श्रवण करने से ही अति सुगमता से मुझे प्राप्त करलेता है |  जिस प्रकार वायु के द्वारा गन्ध अपने आश्रय को छोड़कर घ्राणेन्द्रिय में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार योगाभ्यास में लगा हुआ चित्त आत्मा में लीन हो जाता है | 

समस्त प्राणियों में आत्मरूप से मैं ही स्थित हूँ, हे मात: ! उसे  न जानकर मूढ़ पुरुष केवल बाह्य भावना करता है | किन्तु क्रियासे उत्पन्न हुए  अनेक पदार्थों से भी मेरा संतोष नहीं होता | अन्य  जीवों का तिरस्कार करने वाले प्राणियों से  प्रतिमा में  पूजित होकर भी मैं वास्तव में पूजित नहीं होता | मुझ परमात्मदेव का अपने कर्मों द्वारा प्रतिमा आदि में तभी तक पूजन करना चाहिए जब तक कि समस्त प्राणियों में और अपने-आप में मुझे स्थित न जाने | जो अपने आत्मा और  परमात्मा में भेदबुद्धि करता है उस भेददर्शी को मृत्यु अवश्य भय उत्पन्न करती है,इसमें संदेह नहीं |

इसलिए अभेददर्शी भक्त समस्त परिछिन्न प्राणियों में स्थित मुझ एकमात्र परमात्मा का ज्ञान, मान और मैत्री आदि से पूजन करे | इस प्रकार मुझ शुद्ध चेतना को ही जीवरूप से स्थित जानकर बुद्धिमान पुरुष  अहर्निश सब प्राणियों को चित्त से ही प्रमाण करे | इसलिए जीव और ईश्वर का भेद कभी न देखे |  हे मात: ! मैंने तुमसे यह भक्तियोग और ज्ञानयोग का वर्णन किया | इनमें से एक का भी अवलंबन करने से पुरुष आत्यन्तिक शुभ प्राप्त कर लेता है | अत: हे मात: ! मुझे सब प्राणियों के अन्त:करण में  स्थित जानते हुए अथवा पुत्ररूप से भक्तियोग के द्वारा नित्यप्रति स्मरण करते रहने से तुम शान्ति प्राप्त करोगी | 
भगवान् राम के ये वचन सुनकर कौसल्या जी आनंद से भर गयीं | और हृदय में निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान करती हुई संसार-बन्धन को काटकर तीनों प्रकार की गतियों को पारकर परमगति को प्राप्त हुई |    

जय सियाराम जय सियाराम  !

-----गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “अध्यात्मरामायण” पुस्तक (कोड 74) से उत्तरकाण्ड सर्ग ७-श्लोक ६८-८३


सोमवार, 3 जुलाई 2023

जीवन्मुक्तगीता (पोस्ट.. 05)


 

|| श्री परमात्मने नम: ||


जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिञ्च तुरीयावस्थितं सदा ।

सोऽहं मनो विलीयेत जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ १९ ॥

 

जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीयावस्था में रहते हुए भी जिसका मन सदा सोऽहं (मैं वही परमात्मतत्त्व हूँ) - के भाव में मग्न रहता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ १९ ॥

 

सोऽहं स्थितं ज्ञानमिदं सूत्रेषु मणिवत्परम् ।

सोऽहं ब्रह्म निराकारं जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २० ॥

 

मैं वही निराकार ब्रह्म हूँ - इस सोऽहं ज्ञानधारा में जो उसी प्रकार निरन्तर स्थित रहता है, जैसे पिरोयी गयी मणिमाला में सूत्र निरन्तर विद्यमान रहता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २० ॥

 

मन एव मनुष्याणां भेदाभेदस्य कारणम् ।

विकल्पनैव संकल्पो जीवन्मुक्तः स उच्यते॥२१॥

 

विकल्प और संकल्पात्मक मन ही मनुष्यों के  भेद और ऐक्य का हेतु  है, जो ऐसा जानता है (और मन के पार चला जाता है), वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २१ ॥

 

मन एव विदुः प्राज्ञाः सिद्धसिद्धान्त एव च ।

सदा दृढं तदा मोक्षो जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २२ ॥

 

विद्वानों ने मन को ही जान लिया है। सिद्ध-सिद्धान्त भी यही है कि (साधना) मन की दृढ़ता से ही मोक्ष प्राप्त होता है। जिसने इस सत्य

को जान लिया, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २२ ॥

 

योगाभ्यासी मनः श्रेष्ठो अन्तस्त्यागी बहिर्जडः ।

अन्तस्त्यागी बहिस्त्यागी जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ २३ ॥

 

मन से अन्तर्वृत्तियों का त्याग और बाह्यवृत्तियों की उपेक्षा करने वाला योगाभ्यासी श्रेष्ठ है, किंतु अन्तः और बाह्य - दोनों वृत्तियों का मन से त्याग करनेवाला ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ २३ ॥

 

॥ इति श्रीमद्दत्तात्रेयकृता जीवन्मुक्तगीता सम्पूर्णा ॥

 

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...