नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
परं
भावं हि काङ्क्षामि यत्र नावर्तते पुनः ।
सर्वसङ्गान्
परित्यज्य निश्चितो मनसा गतिम् ॥ ५० ॥
जहाँ जानेपर
जीव की पुनरावृत्ति नहीं होती, मैं उसी परमभाव को प्राप्त करना
चाहता हूँ । सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग करके
मैंने मन के
द्वारा उत्तम गति प्राप्त करने का निश्चय किया है ॥ ५० ॥
तत्र
यास्यामि यत्रात्मा शमं मेऽधिगमिष्यति ।
अक्षयश्चाव्ययश्चैव
यत्र स्थास्यामि शाश्वतः ॥ ५१ ॥
अब मैं वहीं
जाऊँगा,
जहाँ मेरे आत्माको शान्ति मिलेगी तथा जहाँ मैं अक्षय, अविनाशी और सनातनरूपसे स्थित रहूँगा॥५१॥
न तु
योगमृते शक्या प्राप्तुं सा परमा गतिः ।
अवबन्धो
हि बुद्धस्य कर्मभिर्नोपपद्यते ॥ ५२॥
परंतु योगके
बिना उस परम गतिको नहीं प्राप्त किया जा सकता । बुद्धिमान् का कर्मोंके निकृष्ट
बन्धनसे बँधा रहना उचित नहीं है ॥ ५२ ॥
तस्माद्
योगं समास्थाय त्यक्त्वा गृहकलेवरम् ।
वायुभूतः
प्रवेक्ष्यामि तेजोराशिं दिवाकरम् ॥ ५३ ॥
अतः मैं योग का
आश्रय ले इस देह – गेह का परित्याग करके वायुरूप हो तेजोराशिमय सूर्यमण्डल में
प्रवेश करूँगा ॥ ५३ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से