॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं
नानुशोचितुमहर्सि॥ २५॥
यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और यह
निर्विकार कहा जाता है। अत: इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।
व्याख्या—
साधकका स्वरूप अव्यक्त है; परन्तु शरीर रूपसे वह अपनेको व्यक्त मानता है-यह साधककी मूल भूल है
। इस भूलका प्रायश्चित्त करनेके लिये तीन
बातें हैं-(१) साधक अपनी भूलको स्वीकार
करे कि अपनेको शरीर मानकर मैंने भूल की, (२) साधक अपनी भूलका पश्चात्ताप करे कि साधक होकर मैने ऐसी भूल की और
(३) साधक यह निश्चय कए कि अबागे मैं कभी ऐसी भूल नहीं करूँगा ।
शरीरी (सत्-तत्त्व)- का अनुभव तो किया
जा सकता है, पर वर्णन नहीं किया जा सकता ।
उसका जो भी वर्णन या चिन्तन किया जाता है,
वह वास्तवमें प्रकृतिका ही होता है । एक बार शरीरीका अनुभव होनेपर फिर मनुष्य सदाके
लिये शोकरहित होजाता है ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)