रविवार, 28 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

परीक्षित् का जन्म

स राजपुत्रो ववृधे आशु शुक्ल इवोडुपः ।
आपूर्यमाणः पितृभिः काष्ठाभिरिव सोऽन्वहम् ॥ ३१ ॥
यक्ष्यमाणोऽश्वमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया ।
राजा लब्धधनो दध्यौ अन्यत्र करदण्डयोः ॥ ३२ ॥
तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोऽच्युतचोदिताः ।
धनं प्रहीणमाजह्रुः उदीच्यां दिशि भूरिशः ॥ ३३ ॥
तेन सम्भृतसम्भारो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।
वाजिमेधैः त्रिभिर्भीतो यज्ञैः समयजत् हरिम् ॥ ३४ ॥
आहूतो भगवान् राज्ञा याजयित्वा द्विजैर्नृपम् ।
उवास कतिचित् मासान् सुहृदां प्रियकाम्यया ॥ ३५ ॥
ततो राज्ञाभ्यनुज्ञातः कृष्णया सहबन्धुभिः ।
ययौ द्वारवतीं ब्रह्मन् सार्जुनो यदुभिर्वृतः ॥ ३६ ॥

जैसे शुक्लपक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार(परीक्षित्) भी अपने गुरुजनोंके लालन-पालनसे क्रमश: अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया ॥ ३१ ॥ इसी समय स्वजनोंके वध का प्रायश्चित्त करनेके लिये राजा युधिष्ठिरने अश्वमेध-यज्ञके द्वारा भगवान्‌की आराधना करनेका विचार किया, परन्तु प्रजासे वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने) की रकमके अतिरिक्त और धन न होनेके कारण वे बड़ी चिन्तामें पड़ गये ॥ ३२ ॥ उनका अभिप्राय समझकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेरणासे उनके भाई उत्तर दिशामें राजा मरुत्त और ब्राह्मणोंद्वारा छोड़ा हुआ [*] बहुत-सा धन ले आये ॥ ३३ ॥ उससे यज्ञकी सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिरने तीन अश्वमेध-यज्ञोंके द्वारा भगवान्‌की पूजा की ॥ ३४ ॥ युधिष्ठिरके निमन्त्रणसे पधारे हुए भगवान्‌ ब्राह्मणोंद्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवोंकी प्रसन्नताके लिये कई महीनोंतक वहीं रहे ॥ ३५ ॥ शौनकजी ! इसके बाद भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदीसे अनुमति लेकर अर्जुनके साथ यदुवंशियोंसे घिरे हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णने द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ३६ ॥
...........................................
 [*] पूर्वकालमें महाराज मरुत्त ने ऐसा यज्ञ किया था, जिसमें सभी पात्र सुवर्णके थे। यज्ञ समाप्त हो जानेपर उन्होंने वे पात्र उत्तर दिशामें फिंकवा दिये थे। उन्होंने ब्राह्मणोंको भी इतना धन दिया कि वे उसे ले जा न सके; वे भी उसे उत्तर दिशामें ही छोडक़र चले आये। परित्यक्त धनपर राजाका अधिकार होता है, इसलिये उस धनको मँगवाकर भगवान्‌ ने युधिष्ठिरका यज्ञ कराया।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने परीक्षिज्जन्माद्युत्कर्षो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शनिवार, 27 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तेरहवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

पूतनाका उद्धार

 

शौर्यनामयपृच्छार्थं करं दातुं नृपस्य च ।
पुत्रोत्सवं कथयितुं नंदे श्रीमथुरां गते ॥१॥
कंसेन प्रेषिता दुष्टा पूतना घातकारिणी ।
पुरेषु ग्रामघोषेषु चरंती घर्घरस्वना ॥२॥
अथ गोकुलमासाद्य गोपगोपीगणाकुलम् ।
रूपं दधार सा दिव्यं वपुः षोडशवार्षिकम् ॥३॥
न केऽपि रुरुधुर्गोपाः सुंदरीं तां च गोपिकाः ।
शचीं वाणीं रमां रंभां रतिं च क्षिपतीमिव ॥४॥
रोहिण्यां च यशोदायां धर्षितायां स्फुरत्कुचा ।
अंकमादाय तं बालं लालयंती पुनः पुनः ॥५॥
ददौ शिशोर्महाघोरा कालकूटावृतं स्तनम् ।
प्राणैः सार्द्धं पपौ दुग्धं कटुं रोषावृतो हरिः ॥६॥
मुंच मुंच वदंतीत्थं धावन्ती पीडितस्तना ।
नीत्वा बहिर्गता तं वै गतमाया बभूव ह ॥७॥
पतन्नेत्रा श्वेतगात्रा रुदन्ती पतिता भुवि ।
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्तलोकैर्बिलैः सह ॥८॥
चचाल वसुधा द्वीपैः तदद्‌भुतमिवाभवत् ।
षट्क्रोशं सा दृढान् दीर्घान् वृक्षान् पृष्ठतले गतान् ॥९॥
चूर्णीचकार वपुषा वज्रांगेण नृपेश्वर ।
वदन्तस्ते गोपगणा वीक्ष्य घोरं वपुर्महत् ॥१०॥
अस्या अङ्गुलिगो बालो न जीवति कदाचन ।
तस्या उरसि सानन्दं क्रीडन्तं सुस्मितं शिशुम् ॥११॥
दुग्धं पीत्वा जृंभमाणं तं दृष्ट्वा जगृहुः स्त्रियः ।
यशोदया च रोहिण्या निधायोरसि विस्मिताः ॥१२॥
सर्वतो बालकं नीत्वा रक्षां चक्रुर्विधानतः ।
कालिंदीपुण्यमृत्तोयैर्गोपुच्छभ्रमणादिभिः ॥१३॥
गोमूत्रगोरजोभिश्च स्नापयित्वा त्विदं जगुः ॥१४॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! नन्दजी राजा कंसका कर चुकाने, वसुदेवजीकी कुशल पूछने और उन्हें अपने यहाँके पुत्रोत्सवका समाचार देनेके लिये मथुरा चले गये। उसी समय कंसकी भेजी हुई बाल- घातिनी 'घर्घर' ध्वनि वाली

दुष्टा राक्षसी पूतना नगरों, गाँवों और गोष्ठों में विचरती हुई गोप और गोपियों से भरे हुए गोकुल में आ पहुँची ।। १-२ ॥    

गोकुल के निकट आनेपर उसने मायासे दिव्य रूप धारण कर लिया। वह सोलह वर्षकी अवस्थावाली तरुणी बन गयी। उसका सौन्दर्य इतना दिव्य था कि वह अपनी अङ्गकान्ति से शची, सरस्वती, लक्ष्मी, रम्भा तथा रतिको भी तिरस्कृत कर रही थी, इसलिए उसे वहां के गोपों और गोपियों ने रोका भी नहीं  ।। ३-४ ॥    

चलते समय उसके उन्नत कुच दिव्य आभासे झलकते और हिलते थे। उसे देखकर रोहिणी तथा यशोदा भी हतप्रतिभ हो गयीं। उसने आते ही बालगोपाल को गोद में ले लिया और बारंबार लाड़ लड़ाती हुई उस महाघोर दानवीने शिशुके मुखमें हलाहल विषसे लिप्त अपना स्तन दे दिया। यह देख तीक्ष्ण रोषसे आवृत हो श्रीहरिने उसका सारा दूध उसके प्राणोंसहित पी लिया ।। ५-६ ॥    

उसके स्तनोंमें जब असह्य पीड़ा हुई, तब 'छोड़ो-छोड़ो' कहते हुए वह उठकर भागी । बच्चेको लिये लिये घरसे बाहर निकल गयी। बाहर जानेपर उसकी माया नष्ट हो गयी और वह अपने असली रूपमें दिखायी देने लगी। उसके नेत्र बाहर निकल आये। सारा शरीर सफेद पड़ गया और वह रोती- चिल्लाती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी। उसकी चिल्लाहटसे सातों लोक और सातों पाताल सहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा ।। ७-८ ॥   

 

 

द्वीपोंसहित सारी पृथ्वी डोलने लगी। वह एक अद्भुत-सी घटना हुई। नृपेश्वर ! पूतनाका विशाल शरीर छः कोस लंबा और वज्रके समान सुदृढ़ था। उसके गिरनेसे उसकी पीठके नीचे आये हुए बड़े-बड़े वृक्ष पिसकर चकनाचूर हो गये। उस समय गोपगण उस दानवीके भयंकर और विशाल शरीरको देखकर परस्पर कहने लगे- 'इसकी गोदमें गया हुआ बालक कदाचित् जीवित नहीं होगा ।' परंतु वह अद्भुत बालक उसकी छातीपर बैठा हुआ आनन्दसे खेलता और मुसकराता था ।। ९-११ ॥     

वह पूतना का दूध पीकर जम्हाई ले रहा था । उसे उस अवस्थामें देखकर यशोदा तथा रोहिणीके साथ जाकर स्त्रियोंने उठा लिया और छातीसे लगाकर वे सब की सब बड़े विस्मयमें पड़ गयीं। बच्चेको ले जाकर गोपियोंने सब ओरसे विधिपूर्वक उसकी रक्षा की । यमुनाजीकी पवित्र मिट्टी लगाकर उसके ऊपर यमुना-जलका छींटा दिया, फिर उसके ऊपर गायकी पूँछ घुमायी । गोमूत्र और गोरजमिश्रित जलसे उसको नहलाया और निम्नाङ्कित रूपसे कवचका पाठ किया - ॥ १२-१४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

परीक्षित् का जन्म

आहर्तैषोऽश्वमेधानां वृद्धानां पर्युपासकः ॥ २५ ॥
राजर्षीणां जनयिता शास्ता चोत्पथगामिनाम् ।
निग्रहीता कलेरेष भुवो धर्मस्य कारणात् ॥ २६ ॥
तक्षकादात्मनो मृत्युं द्विजपुत्रोपसर्जितात् ।
प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसङ्‌गः पदं हरेः ॥ २७ ॥
जिज्ञासितात्म याथार्थ्यो मुनेर्व्याससुतादसौ ।
हित्वेदं नृप गङ्‌गायां यास्यत्यद्धा अकुतोभयम् ॥ २८ ॥
इति राज्ञ उपादिश्य विप्रा जातककोविदाः ।
लब्धापचितयः सर्वे प्रतिजग्मुः स्वकान् गृहान् ॥ २९ ॥
स एष लोके विख्यातः परीक्षिदिति यत्प्रभुः ।
पूर्वं दृष्टमनुध्यायन् परीक्षेत नरेष्विह ॥ ३० ॥

(ब्राह्मण युधिष्ठिर से कह रहे हैं कि यह बालक) धैर्य में बलिके समान और भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लादके समान होगा। यह बहुत-से अश्वमेध- यज्ञोंका करनेवाला और वृद्धोंका सेवक होगा ॥ २५ ॥ इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादाका उल्लङ्घन करनेवालोंको यह दण्ड देगा। यह पृथ्वीमाता और धर्मकी रक्षाके लिये कलियुगका भी दमन करेगा ॥ २६ ॥ ब्राह्मण-कुमारके शापसे तक्षकके द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान्‌के चरणोंकी शरण लेगा ॥ २७ ॥ राजन् ! व्यासनन्दन शुकदेवजीसे यह आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्तमें गङ्गातटपर अपने शरीरको त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा ॥ २८ ॥
ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरको इस प्रकार बालकके जन्मलग्रका फल बतलाकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये ॥ २९ ॥ वही यह बालक संसारमें परीक्षित्‌के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भमें जिस पुरुषका दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगोंमें उसीकी परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमेंसे कौन-सा वह है ॥ ३० ॥ 

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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

वन्दिभ्यो मागधेभ्यश्च सर्वेभ्यो बहुलं धनम् ।
ववर्ष घनवद्‌गोपो नंदराजो व्रजेश्वरः ॥३८॥
निधिः सिद्धिश्च वृद्धिश्च भुक्तिर्मुक्तिर्गृहे गृहे ।
वीथ्यां वीथ्यां लुठन्तीव तदिच्छा कस्यचिन्न हि ॥३९॥
सनत्कुमारः कपिलः शुकव्यासादिभिः सह ।
हंसदत्तपुलस्त्याद्यैर्मया ब्रह्मा जगाम ह ॥४०॥
हंसारूढो हेमवर्णो मुकुटी कुण्डली स्फुरन् ।
चतुर्मुखो वेदकर्ता द्योतयन्मंडलं दिशाम् ॥४१॥
तथा तमनु भुताढ्यो वृषारूढो महेश्वरः ।
रथारूढो रविः साक्षात्‌गजारूढः पुरंदरः ॥४२॥
वायुश्च खंजनारूढो यमो महिषवाहनः ।
धनदः पुष्पकारूढो मृगारूढः क्षपेश्वरः ॥४३॥
अजारूढो वीतिहोत्रो वरुणो मकरस्थितः ।
मयूरस्थः कार्तिकेयो भारती हंसवाहिनी ॥४४॥
लक्ष्मी च गरुडारूढा दुर्गाख्या सिंहवाहिनी ।
गोरूपधारिणी पृथ्वी विमानस्था समाययौ ॥४५॥
दोलारूढा दिव्यवर्णा मुख्याः षोडशमातृकाः ।
षष्ठी च शिबिकारूढा खड्‌गिनी यष्टिधारिणी ॥४६॥
मंगलो वानरारूढो भासारूढो बुधः स्मृतः ।
गीष्पतिः कृष्णसारस्थः शुक्रो गवयवाहनः ॥४७॥
शनिश्च मकरारूढ उष्ट्रस्थः सिंहिकासुतः ।
कोटिबालार्कसंकाश आययौ नन्दमन्दिरम् ॥४८॥
कोलाहलसमायुक्तं गोपगोपीगणाकुलम् ।
नन्दमन्दिरमभ्येत्य क्षणं स्थित्वा ययुः सुराः ॥४९॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं बालरूपिणम् ।
नत्वा दृष्ट्वा तदा देवाश्चक्रुस्तस्य स्तुतिं पराम् ॥५०॥
वीक्ष्य कृष्णं तदा देवा ब्रह्माद्या ऋषिभिः सह ।
स्वधामानि ययुः सर्वे हर्षिताः प्रेमविह्वलाः ॥५१॥

समस्त बंदियों तथा मागधजनों को धनी गोप व्रजेश्वर नन्दरायने बहुत धन दिया । धनराशिकी वर्षा कर दी । व्रजकी गली-गलीमें, घर- घरमें निधि, सिद्धि, वृद्धि, भुक्ति और मुक्ति — ये लोटती-सी दिखायी देती थीं। उन्हें पानेकी इच्छा वहाँ किसीके भी मनमें नहीं होती थी ॥ ३८–३९ ॥

उस समय सनत्कुमार, कपिल, शुक और व्यास आदिको तथा हंस, दत्तात्रेय, पुलस्त्य और मुझ (नारद) को साथ ले ब्रह्माजी वहाँ गये । ब्रह्माजीका वर्ण तप्त सुवर्णके समान था। उनके मस्तकोंपर मुकुट तथा कानोंमें कुण्डल जगमगा रहे थे। वे वेदकर्ता चतुर्मुख ब्रह्मा हंसपर आरूढ़ हो सम्पूर्ण दिङ्मण्डलको देदीप्यमान करते हुए वहाँ आये थे ।। ४०-४१ ॥   

उनके पीछे भूतों से घिरे हुए वृषभारूढ़ महेश्वर पधारे। फिर रथपर चढ़े हुए साक्षात् सूर्य, ऐरावत हाथीपर सवार देवराज इन्द्र, खञ्जरीटपर चढ़े हुए वायुदेव, महिषवाहन यम, पुष्पकारूढ़ कुबेर, मृगवाहन चन्द्रमा, बकरेपर बैठे हुए अग्निदेव, मगरपर आरूढ़ वरुण, मयूरवाहन कार्तिकेय, हंसवाहिनी सरस्वती, गरुडारूढ़ लक्ष्मी, सिंहवाहिनी दुर्गा तथा गोरूपधारिणी पृथ्वी, जो विमानपर बैठी थीं, ये सब वहाँ आये ।। ४२-४५ ॥   

दिव्यकान्तिवाली मुख्य-मुख्य सोलह मातृकाएँ पालकीपर बैठकर आयी थीं । खड्ग, चक्र तथा यष्टि धारण करनेवाली षष्ठीदेवी शिबिकापर सवार हो वहाँ पहुँची थीं । मङ्गल देवता वानरपर और बुध देवता भास नामक पक्षीपर चढ़कर वहाँ पधारे थे। काले मृगपर बैठे बृहस्पति, गवयपर चढ़े शुक्राचार्य, मगर पर आरूढ़ शनि देव और ऊँट पर आरूढ़ सिंहिकाकुमार राहु — ये सभी ग्रह, जो करोड़ों बाल सूर्यो के समान तेजस्वी थे, नन्दमन्दिर में पधारे ।। ४६-४९ ॥   

वह नन्दभवन झुंड के झुंड गोपों और गोपियोंसे भरा हुआ था। देवतालोग वहाँ पहुँचकर क्षणभर रुके और फिर चले गये । बालरूपधारी परिपूर्णतम परमात्मा साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णको देखकर, उन्हें मस्तक नवाकर, देवताओंने उस समय उनका उत्तम स्तवन किया। ब्रह्मा आदि सब देवता ऋषियोंसहित वहाँ श्रीकृष्णका दर्शन करके प्रेमविह्वल और हर्षविभोर होकर अपने-अपने धाम को चले गये । ४० - ५१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीकृष्णदर्शनार्थ ब्रह्मादि देवताओंका आगमन' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

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परीक्षित् का जन्म

युधिष्ठिर उवाच ।

अप्येष वंश्यान् राजर्षीन् पुण्यश्लोकान् महात्मनः ।
अनुवर्तिता स्विद्यशसा साधुवादेन सत्तमाः ॥ १८ ॥

ब्राह्मणा ऊचुः ।

पार्थ प्रजाविता साक्षात् इक्ष्वाकुरिव मानवः ।
ब्रह्मण्यः सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यथा ॥ १९ ॥
एष दाता शरण्यश्च यथा ह्यौशीनरः शिबिः ।
यशो वितनिता स्वानां दौष्यन्तिरिव यज्वनाम् ॥ २० ॥
धन्विनामग्रणीरेष तुल्यश्चार्जुनयोर्द्वयोः ।
हुताश इव दुर्धर्षः समुद्र इव दुस्तरः ॥ २१ ॥
मृगेन्द्र इव विक्रान्तो निषेव्यो हिमवानिव ।
तितिक्षुर्वसुधेवासौ सहिष्णुः पितराविव ॥ २२ ॥
पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः ।
आश्रयः सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रयः ॥ २३ ॥
सर्वसद्‍गुणमाहात्म्ये एष कृष्णमनुव्रतः ।
रन्तिदेव इवोदारो ययातिरिव धार्मिकः ॥ २४ ॥

युधिष्ठिरने कहा—महात्माओ ! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यशसे हमारे वंशके पवित्रकीर्ति महात्मा राजर्षियोंका अनुसरण करेगा ? ॥ १८ ॥
ब्राह्मणोंने कहा—धर्मराज ! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजाका पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान्‌ श्रीरामके समान ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ होगा ॥ १९ ॥ यह उशीनर- नरेश शिबिके समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकोंमें दुष्यन्तके पुत्र भरतके समान अपने वंशका यश फैलायेगा ॥ २० ॥ धनुर्धरोंमें यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थके समान अग्रगण्य होगा। यह अग्निके समान दुर्धर्ष और समुद्रके समान दुस्तर होगा ॥ २१ ॥ यह सिंहके समान पराक्रमी, हिमाचलकी तरह आश्रय लेनेयोग्य, पृथ्वीके सदृश तितिक्षु और माता- पिताके समान सहनशील होगा ॥ २२ ॥ इसमें पितामह ब्रह्माके समान समता रहेगी, भगवान्‌ शङ्करकी तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय देनेमें यह लक्ष्मीपति भगवान्‌ विष्णुके समान होगा ॥ २३ ॥ यह समस्त सद्गुणोंकी महिमा धारण करनेमें श्रीकृष्णका अनुयायी होगा, रन्तिदेवके समान उदार होगा और ययातिके समान धार्मिक  होगा ॥ २४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

श्रीनन्दराजसुतसंभवमद्‌भुतं च
श्रुत्वा विसृज्य गृहकर्म तदैव गोप्यः ।
तूर्णं ययुः सबलयो व्रजराजगेहा-
नुद्यत्प्रमोदपरिपूरितहृन्महोऽङ्‌गाः ॥२३॥
आनन्दमंदिरपुरात्स्वगृहोन् व्रजन्त्यः
सर्वा इतस्तत उत त्वरमाव्रजन्त्यः ।
यानश्लथद्‌वसनभूषणकेशबन्धा
रेजुर्नरेन्द्र पथि भूपरिमुक्तमुक्ताः ॥२४॥
झंकारनूपुरनवांगदहेमचीर-
मञ्जीरहारमणिकुंडलमेखलाभिः ।
श्रीकंठसूत्रभुजकंकणबिंदुकाभिः
पूर्णेन्दुमंडलनवद्युतिभिर्विरेजुः ॥२५॥
श्रीराजिकालवणरात्रिविशेषचूर्णै-
र्गोधूमसर्षपयवैः करलालनैश्च ।
उत्तार्य बालकमुखोपरि चाशिषस्ताः
सर्वा ददुर्नृप जगुर्जगदुर्यशोदाम् ॥२६॥


गोप्य ऊचुः -
साधु साधु यशोदे ते दिष्ट्या दिष्ट्या व्रजेश्वरि ।
धन्या धन्या परा कुक्षिर्ययाऽयं जनितः सुतः ॥२७॥
इच्छा युक्तं कृतं ते वै देवेन बहुकालतः ।
रक्ष बालं पद्मनेत्रं सुस्मितं श्यामसुन्दरम् ॥२८॥


श्रीयशोदा उवाच -
भवदीयदयाशीर्भिर्जातः सौख्यं परं च मे ।
भवतीनामपि परं दिष्ट्या भूयादतः परम् ॥२९॥
हे रोहिणि महाबुद्धे पूजनं तु व्रजौकसाम् ।
आगतानां सत्कुलानां यथेष्टं हीप्सितं कुरु ॥३०॥


श्रीनारद उवाच -
रोहिणी राजकन्याऽपि तत्करौ दानशीलिनौ ।
तत्रापि नोदिता दाने ददावतिमहामनाः ॥३१॥
गौरवर्णा दिव्यवासा रत्‍नाभरणभूषिता ।
व्यचरद्रोहिणी साक्षात्पूजयंती व्रजौकसः ॥३२॥
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे व्रजमागते ।
नदत्सु नरतूर्येषु जयध्वनिरभून्महान् ॥३३॥
दधिक्षीरघृतैर्गोपा गोप्यो हैयंगवैर्नवैः ।
सिषिचुर्हर्षितास्तत्र जगुरुच्चैः परस्परम् ॥३४॥
बहिरन्तपुरेः जाते सर्वतो दधिकर्दमे ।
वृद्धाश्च स्थूलदेहाश्च पेतुर्हास्यं कृतं परैः ॥३५॥
सूताः पौराणिकाः प्रोक्ता मागधा वंशशंसकाः ।
वन्दिनस्त्वमलप्रज्ञाः प्रस्तावसदृशोक्तयः ॥३६॥
तेभ्यो नंदो महाराजः सहस्रं गाः पृथक् पृथक् ।
वासोऽलंकाररत्‍नानि हयेभानखिलान्ददौ ॥३७॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीनन्दरायजीके यहाँ पुत्र होनेका अद्भुत समाचार सुनकर गोपियोंके हर्षकी सीमा न रही। उनके हृदय, उनके तन-मन परमानन्द से परिपूर्ण हो गये। वे घर के सारे काम-काज तत्काल छोड़कर भेंट-सामग्री लिये तुरंत व्रजराज के भवन में जा पहुँचीं । नरेन्द्र ! अपने घरसे नन्दमन्दिर तक इधर-उधर बड़ी उतावली के साथ आती जातीं सब गोपियाँ रास्ते की भूमिपर मोती लुटाती चलती थीं। शीघ्रतापूर्वक आने-जानेसे उनके वस्त्र, आभूषण तथा केशोंके बन्धन भी ढीले पड़ गये थे; उस दशामें उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। झनकारते हुए नूपुर, नये बाजूबंद, सुनहरे लहँगे, मञ्जीर, हार, मणिमय कुण्डल, करधनी, कण्ठसूत्र, हाथोंके कंगन तथा भालदेशमें लगी हुई बेंदियोंकी नयी-नयी छटाओंसे उनकी छवि देखते ही बनती थी। नरेश्वर ! वे सब की सब राई - नोन, हल्दीके विशेष चूर्ण, गेहूंके आटे, पीली सरसों तथा जौ आदि हाथोंमें लेकर बड़े लाड़से लालाके मुखपर उतारती हुई उसे आशीर्वाद देती थीं। यह सब करके उन्होंने यशोदाजी से कहा – ॥ २३–२६॥

गोपियाँ बोलीं- यशोदाजी ! बहुत उत्तम, बहुत अच्छा हुआ । अहोभाग्य ! आज परम सौभाग्यका दिन है। आप धन्य हैं और आपकी कोख धन्य है, जिसने ऐसे बालकको जन्म दिया। दीर्घकालके बाद दैवने आज आपकी इच्छा पूरी की है। कैसे कमल- जैसे नेत्र हैं इस श्यामसुन्दर बालकके ! कितनी मनोहर मुसकान है इसके होठोंपर बड़ी सँभालके साथ इसका लालन-पालन कीजिये ।। २७-२८ ॥

श्रीयशोदा ने कहा - बहिन ! आप सबकी दया और आशीर्वादसे ही मेरे घरमें यह सुख आया है, यह आनन्दोत्सव प्राप्त हुआ है। मेरे ऊपर आपकी सदा ही बड़ी दया रही है। इसके बाद आप सबको भी दैव- कृपासे ऐसा ही परम सुख प्राप्त हो – यह मेरी मङ्गल- कामना है । बहिन रोहिणी ! तुम बड़ी बुद्धिमती हो । सब कार्य बड़े अच्छे ढंगसे करती हो। अपने घर आयी हुई ये व्रजवासिनी गोपियाँ बड़े उत्तम कुलकी हैं। तुम इनका पूजन — स्वागतसत्कार करो। अपनी इच्छाके अनुसार इन सबकी मनोवाञ्छा पूर्ण करो ।। २९-३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! रोहिणी जी भी राजा की बेटी थीं। उनके हाथ तो स्वभाव से ही दानशील थे, उसपर भी यशोदाजी ने दान करनेकी प्ररेणा दे दी। फिर क्या था ? उन्होंने अत्यन्त उदारचित्त होकर दान देना आरम्भ किया। उनकी अङ्गकान्ति गौर वर्णकी थी शरीर पर दिव्य वस्त्र शोभा पाते थे और वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थीं । रोहिणी जी साक्षात् लक्ष्मी की भाँति व्रजाङ्गनाओं का सत्कार करती हुई सब ओर विचरने लगीं ।। ३१-३२ ॥   

साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णके व्रजमें पधारनेपर सब ओर मानव - वाद्य बजने लगे ।

बड़े जोर-जोरसे जै-जैकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय गोप दही, दूध और घीसे तथा गोपाङ्गनाएँ ताजे माखनके लौंदों से एक-दूसरेको हर्षोल्लाससे भिगोने और उच्चस्वरसे गीत गाने लगीं। नन्दभवनके बाहर और भीतर सब ओर दहीकी कीच मच गयी । उसमें बूढ़े और मोटे शरीरवाले लोग फिसलकर गिर पड़ते थे और दूसरे लोग खूब ताली पीट-पीटकर हँसते थे ।। ३३-३५ ॥   

महाराज ! वहाँ जो पौराणिक सूत, वंशोंके प्रशंसक मागध और निर्मल बुद्धिवाले तथा अवसरके अनुरूप बातें कहनेवाले बंदीजन पधारे थे, उन सबको नन्द- रायजीने प्रत्येकके लिये अलग-अलग एक-एक हजार गौएँ प्रदान कीं । वस्त्र, आभूषण, रत्न, घोड़े और हाथी आदि सब कुछ दिये ।। ३६-३७ ॥   

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

परीक्षित् का जन्म

ततः सर्वगुणोदर्के सानुकूल ग्रहोदये ।
जज्ञे वंशधरः पाण्डोः भूयः पाण्डुरिवौजसा ॥ १२ ॥
तस्य प्रीतमना राजा विप्रैर्धौम्य कृपादिभिः ।
जातकं कारयामास वाचयित्वा च मङ्‌गलम् ॥ १३ ॥
हिरण्यं गां महीं ग्रामान् हस्त्यश्वान् नृपतिर्वरान् ।
प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्यः प्रजातीर्थे स तीर्थवित् ॥ १४ ॥
तमूचुर्ब्राह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयान्वितम् ।
एष ह्यस्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ ॥ १५ ॥
दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुषि ।
रातो वोऽनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १६ ॥
तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके बृहच्छ्रवाः ।
भविष्यति न सन्देहो महाभागवतो महान् ॥ १७ ॥

तदनन्तर अनुकूल ग्रहोंके उदयसे युक्त समस्त सद्गुणोंको विकसित करनेवाले शुभ समयमें पाण्डुके वंशधर परीक्षित्‌का जन्म हुआ। जन्मके समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डुने ही फिरसे जन्म लिया हो ॥ १२ ॥ पौत्रके जन्मकी बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणोंसे मङ्गलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये ॥ १३ ॥ महाराज युधिष्ठिर दानके योग्य समयको जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ [*] नामक कालमें अर्थात् नाल काटनेके पहले ही ब्राह्मणोंको सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जातिके हाथी- घोड़े और उत्तम अन्नका दान दिया ॥ १४ ॥ ब्राह्मणोंने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिरसे कहा—‘पुरुवंश-शिरोमणे ! कालकी दुर्निवार गतिसे यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुमलोगोंपर कृपा करनेके लिये भगवान्‌ विष्णुने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी ॥ १५-१६ ॥ इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा। निस्सन्देह यह बालक संसारमें बड़ा यशस्वी, भगवान्‌का परम भक्त और महापुरुष होगा’ ॥ १७ ॥
.....................................................
[*] नालच्छेदनसे पहले सूतक नहीं होता, जैसे कहा है—‘यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। छिन्ने नाले तत: पश्चात् सूतकं तु विधीयते ॥’ इसी समयको ‘प्रजातीर्थ’ काल कहते हैं। इस समय जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है। स्मृति कहती है—‘पुत्रे जाते व्यतीपाते दत्तं भवति चाक्षयम्।’ अर्थात् ‘पुत्रोत्पत्ति और व्यतीपातके समय दिया हुआ दान अक्षय होता है।’

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बुधवार, 24 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

श्रुत्वा पुत्रोत्सवं तस्य वृषभानुवरस्तथा ।
कलावत्या गजारूढो नन्दमंदिरमाययौ ॥११॥
नन्दा नवोपनन्दाश्च तथा षड्वृषभानवः ।
नानोपायनसंयुक्ताः सर्वे तेऽपि समाययुः ॥१२॥
उष्णीषोपरि मालाढ्याः पीतकंचुकशोभिताः ।
बर्हगुंजाबद्धकेशा वनमालाविभूषणाः ॥१३॥
वंशीधरा वेत्रहस्ताः सुपत्रतिलकार्चिताः ।
बद्धवर्णाः परिकरा गोपास्तेऽपि समाययुः ॥१४॥
नृत्यन्तः परिगायंतो धुन्वंतो वसनानि च ।
नानोपायनसंयुक्ताः श्मश्रुलाः शिशवः परे ॥१५॥
हैयंगवीनदुग्धानां दध्याज्यानां बलीन्बहून् ।
नीत्वा वृद्धा यष्टिहस्ता नन्दमंदिरमाययुः ॥१६॥
पुत्रोत्सवं व्रजेशस्य कथयन्तः परस्परम् ।
प्रेमविह्वलभावैः स्वैरानन्दाश्रुसमाकुलाः ॥१७॥
जाते पुत्रोत्सवे नन्दः स्वानंदाश्रुकुलेक्षणः ।
पूजयामास तान् सर्वांस्तिलकाद्यैर्विधानतः ॥१८॥


गोपा ऊचुः -
हे व्रजेश्वर हे नन्द जातः पुत्रोत्सवस्तथा ।
अनपत्यस्येच्छतोऽलमतः किं मंगलं परम् ॥१९॥
दैवेन दर्शितं चेदं दिनं वो बहुभिर्दिनैः ।
कृतकृत्याश्च भूताः स्मो दृष्ट्वा श्रीनन्दनन्दनम् ॥२०॥
हे मोहनेति दुरात्तमंकं नीत्व गदिष्यसि ।
यदा लालनभावेब भविता नस्तदा सुखम् ॥२१॥


श्रीनन्द उवाच -
भवतामाशिषः पुण्याज्जातं सौख्यमिदं शुभम् ।
आज्ञावर्ती ह्यहं गोपा गोपानां व्रजवासिनाम् ॥२२॥

नन्दरायजीके यहाँ पुत्रोत्सवका समाचार सुनकर वृषभानुवर रानी कलावती (कीर्तिदा) के साथ हाथीपर चढ़कर नन्दमन्दिरमें आये । व्रजमें जो नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा छः वृषभानु थे, वे सब भी नाना प्रकारकी भेंट-सामग्री के साथ वहाँ आये। वे सिरपर पगड़ी तथा उसके ऊपर माला धारण किये, पीले रंगके जामे पहने, केशोंमें मोरपंख और गुञ्जा बाँधे तथा वनमालासे विभूषित थे। हाथोंमें वंशी और बेंतकी छड़ी लिये, सुन्दर पत्ररचनाके साथ तिलक लगाये, कमर में मोरपंख बाँधे गोपालगण भी वहाँ आ गये। वे नाचते-गाते और वस्त्र हिलाते थे । मूँछवाले तरुण और बिना मूँछके बालक भी भाँति-भाँतिकी भेंट लेकर वहाँ आये ।। ११-१५ ॥   

बूढ़े लोग हाथ में डंडा लिये अपने साथ माखन, दूध, दही और घीकी भेंट लेकर नन्दभवनमें उपस्थित हुए। वे आपसमें व्रजराज के यहाँ पुत्रोत्सव का संवाद सुनाते हुए प्रेम से विह्वल हो नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाते थे । पुत्रोत्सव होनेपर श्रीनन्दरायजी का आनन्द चरम सीमाको पहुँच गया था, उनके नेत्र हर्षके आँसुओंसे भरे हुए थे । उन्होंने अपने द्वारपर आये हुए समस्त गोपोंका तिलक आदिके द्वारा विधिवत् सत्कार किया ।। १६ – १८ ॥

गोप बोले- हे व्रजेश्वर ! हे नन्दराज ! आपके यहाँ जो पुत्रोत्सव हुआ है, यह संतानहीनता के कलङ्क- को मिटानेवाला है। इससे बढ़कर परम मङ्गल की बात और क्या हो सकती है ? दैवने बहुत दिनों के बाद आज आपको यह दिन दिखाया है, हमलोग श्रीनन्द- नन्दनका दर्शन करके कृतार्थ हो जायँगे। जब आप दूरसे आकर पुत्रको गोदमें लेकर मोदपूर्वक लाड़ लड़ाते हुए 'हे मोहन !' कहकर पुकारेंगे, उस समय हमें बड़ा सुख मिलेगा ॥ १९–२१ ॥

श्रीनन्द ने कहा— बन्धुओ ! आपलोगोंके आशीर्वाद और पुण्यसे आज यह आनन्ददायक शुभ दिवस प्राप्त हुआ है, मैं तो व्रजवासी गोप-गोपियोंका आज्ञापालक सेवक हूँ ॥ २२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

परीक्षित् का जन्म

मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श पुरुषं कञ्चिद् दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥ ७ ॥
अङ्‌गुष्ठमात्रममलं स्फुरत् पुरट मौलिनम् ।
अपीव्यदर्शनं श्यामं तडिद् वाससमच्युतम् ॥ ८ ॥
श्रीमद् दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्चन कुण्डलम् ।
क्षतजाक्षं गदापाणिं आत्मनः सर्वतो दिशम् ।
परिभ्रमन्तं उल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहुः ॥ ९ ॥
अस्त्रतेजः स्वगदया नीहारमिव गोपतिः ।
विधमन्तं सन्निकर्षे पर्यैक्षत क इत्यसौ ॥ १० ॥
विधूय तदमेयात्मा भगवान् धर्मगुब् विभुः ।
मिषतो दशमासस्य तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ ११ ॥

(सूतजी कहते हैं) शौनकजी ! उत्तरा के गर्भमें स्थित वह वीर शिशु परीक्षित्‌ जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्रके तेजसे जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखोंके सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है ॥ ७ ॥ वह देखनेमें तो अँगूठेभर का है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजलीके समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिरपर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुषके बड़ी ही सुन्दर लंबी-लंबी चार भुजाएँ हैं। कानोंमें तपाये हुए स्वर्णके सुन्दर कुण्डल हैं, आँखोंमें लालिमा है, हाथमें लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशुके चारों ओर घूम रहा है ॥ ८-९ ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदाके द्वारा ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करता जा रहा था। उस पुरुषको अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है ॥ १० ॥ इस प्रकार उस दस मासके गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्मरक्षक अप्रमेय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥

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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

श्रीनारद उवाच -
अथ पुत्रोत्सवं जातं श्रुत्वा नन्द उषःक्षणे ।
ब्राह्मणांश्च समाहूय कारयामास मंगलम् ॥१॥
सविधिं जातकं कृत्वा नन्दराजो महामनाः ।
विप्रेभ्यो दक्षिणाभिश्च मुदा लक्षं गवां ददौ ॥२॥
क्रोशमात्रं रत्‍नसानून्सुवर्णखिखरान् गिरीन् ।
सरसान्सप्तधान्यानां ददौ विप्रेभ्य आनतः ॥३॥
मृदंगवीणाशंखाद्या नेदुर्दुंदुभयो मुहुः ।
गायकाश्च जगुर्द्वारे ननृतुर्वारयोषितः ॥४॥
पताकैर्हेमकलशैर्वितानैस्तोरणैः शुभैः ।
अनेकवर्णैश्चित्रैश्च बभौ श्रीनन्दमन्दिरम् ॥५॥
रथ्या वीथ्यश्च देहल्यो भित्तिप्रांगणवेदिकाः ।
तोलिकामंडपसभा रेजुर्गन्धिजलांबरैः ॥६॥
गावः सुवर्णशृङ्ग्यश्च हेममालालसद्‌गलाः ।
घंटामंजीरझंकारा रक्तकंबलमंडिताः ॥७॥
पीतपुच्छाः सवत्साश्च तरुणीकरचिह्निताः ।
हरिद्राकुंकुमैर्युक्ताः चित्रधातुविचित्रिताः ॥८॥
बर्हिपुच्छैर्गन्धजलैर्वृषा धर्मदुरंधराः ।
इतस्ततो विरेजुः श्रीनन्दद्वारि मनोहराः ॥९॥
गोवत्सा हेममालाढ्या मुक्ताहारविराजिताः ।
इतस्ततो विलंघन्तो मंजीरचरणां सिताः ॥१०॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर गोष्ठमें विद्यमान नन्दजीने अपने घरमें पुत्रोत्सव होनेका समाचार सुनकर प्रातःकाल ब्राह्मणोंको बुलवाया और स्वस्तिवाचनपूर्वक मङ्गल कार्य कराया। विधिपूर्वक जातकर्म - संस्कार सम्पन्न करके महामनस्वी नन्दराजने ब्राह्मणोंको आनन्दपूर्वक दक्षिणा देनेके साथ ही एक लाख गौएँ दान कीं। एक कोस लंबी भूमि में सप्त- धान्यों के पर्वत खड़े किये गये। उनके शिखर रत्नों और सुवर्णों से सज्जित किये गये। उनके साथ सरस एवं स्निग्ध पदार्थ भी थे। वे सब पर्वत नन्दजी ने विनीतभाव से ब्राह्मणों को दिये ।। १-३ ॥  

मृदङ्ग, वीणा, शङ्ख और दुन्दुभि आदि बाजे बारंबार बजाये जाने लगे । नन्दद्वारपर गायक मङ्गल गीत गाने लगे। वाराङ्गनाएँ नृत्य करने लगीं। पताकाओं, सोनेके कलशों, चंदोवों,

सुन्दर बंदनवारों तथा अनेक रंगके चित्रोंसे नन्द-मन्दिर उद्भासित होने लगा । सड़कें, गलियाँ, द्वार देहलियाँ, दीवारें, आँगन और वेदियाँ (चबूतरे) – इनपर सुगन्धित जलका छिड़काव करके सब ओरसे वस्त्रों और झंडियोंद्वारा सजावट कर दी गयी थी, जिससे ये सब चित्रमण्डप या चित्रशालाके समान शोभा पा रहे थे। गौओंके सींगोंमें सोना मढ़ दिया गया था। उनके गलेमें सुवर्णकी माला पहना दी गयी थी। उनके गलेमें घंटी और पैरोंमें मञ्जीरकी झंकार होती थी। उनकी पीठपर कुछ-कुछ लाल रंगकी झूलें ओढ़ायी गयी थीं । इस प्रकार समस्त गौओंका शृङ्गार किया गया था। उनकी पूँछें पीले रंगमें रँग दी गयी थीं। उनके साथ बछड़े भी थे, उनके अङ्गोंपर तरुणी स्त्रियोंके हाथोंकी छाप लगी थी। हल्दी, कुङ्कुम तथा विचित्र धातुओंसे वे चित्रित की गयी थीं। ।। ४-८ ॥ 

मोरपंख और पुष्पोंसे अलंकृत तथा सुगन्धित जलसे अभिषिक्त धर्मधुरंधर मनोहर वृषभ श्रीनंन्दरायजीके द्वारपर इधर-उधर सुशोभित थे। गौओंके सफेद बछड़े सोनेकी मालाओं और मोतियोंके हारोंसे विभूषित हो, इधर-उधर उछलते-कूदते फिर रहे थे। उनके पैरोंमें भी मञ्जीर बँधे थे ॥ १ बँधे थे ॥ ९ - १० ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...