शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

शिव और आसुरि का गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्णका दर्शन और स्तवन करना तथा उनके वरदान से वृन्दावन में नित्य-निवास पाना

 

नत्वा श्रीकृष्णपादाब्जमूचतुर्हर्षविह्वलौ ।


द्वावूचतुः -
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् देवदेव जगत्पते ॥ २१ ॥
पुण्डरीकाक्ष गोविंद गरुडध्वज ते नमः ।
जनार्दन जगन्नाथ पद्मनाभ त्रिविक्रम ।
दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २२ ॥
अद्यैव देव परिपूर्णतमस्तु साक्षा-
     द्‌भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय ।
प्राप्तोऽसि नंदभवने परतः परस्त्वं
     कृत्वा हि सर्वनिजलोकमशेषशून्यम् ॥ २३ ॥
अंशांशकांशकलयाभिरुताभिराम-
     मावेशपूर्णनिचयाभिरतीव युक्तः ।
विश्वं बिभर्षि रसरासमलंकरोषि
     वृंदावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥ २४ ॥
गोलोकनाथ गिरिराजपते परेश
     वृंदावनेश कृतनित्यविहारलील ।
राधापते व्रजवधूजनगीतकीर्ते
     गोविंद गोकुलपते किल ते जयोऽस्तु ॥ २५ ॥
श्रीमन्निकुंजलतिका कुसुमाकरस्त्वं
     श्रीराधिकाहृदयकंठ विभूषणस्त्वम् ।
श्रीरासमंडलपतिर्व्रजमंडलेशो
     ब्रह्मांडमंडलमहीपरिपालकोऽसि ॥ २६ ॥


श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नो भगवान् राधया सहोतो हरिः ।
मन्दस्मितो मुनिं प्राह मेघगंभीरया गिरा ॥ २७ ॥
षष्टिवर्षसहस्राणि युवयोस्तपतोस्तपः ।
मद्दर्शनं तेन जातं सर्वतो नैरपेक्षयोः ॥ २८ ॥
निष्किंचनो यः शान्तश्चाजातशत्रुः स मत्सखा ।
तस्माद्‌युवाभ्यां मनसा व्रियतामीप्सितो वरः ॥ २९ ॥


शिवासुरी ऊचतुः -
नमोऽस्तु भूमन्युवयोः पदाब्जे
     सदैव वृंदावनमध्यवास ।
न रोचते नोऽन्यमतस्त्वदंघ्रे-
     र्नमो युवाभ्यां हरिराधिकाभ्याम् ॥ ३० ॥


श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् वृंदारण्ये मनोहरे ।
कालिंदीनिकटे राजन् रासमंडलमंडिते ॥ ३१ ॥
निकुञ्जपार्श्वे पुलिने वंशीवटसमीपतः ।
शिवोऽपि चासुरिमुनिर्नित्यं वासं चकार ह ॥ ३२ ॥
अथ कृष्णो रासलीलां चक्रे पद्माकरे वने ।
पतत्सुगंधिरजसि गोपीभिर्भ्रमराकुले ॥ ३३ ॥
एवं षाण्मासिकी रात्रिः
     कृता कृष्णेन मैथिल ।
गोपीनां रासलीलायां
     व्यतीता क्षणवत्सुखैः ॥ ३४ ॥
अरुणोदयवेलायां स्वगृहान् व्रजयोषितः ।
यूथीभूत्त्वा ययू राजन् सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ ३५ ॥
श्रीनंदमंदिरं साक्षात्प्रययौ नंदनंदनः ।
वृषभानुपुरं प्रागाद्‌वृषभानुसुता त्वरम् ॥ ३६ ॥
एवं श्रीकृष्णचंद्रस्य रासाख्यानं मनोहरम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं कामदं मंगलायनम् ॥ ३७ ॥
त्रिवर्ग्यदं जनानां तु
     मुमुक्षुणां सुमुक्तिदम् ।
मया तवाग्रे कथितं
     किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३८ ॥

 

दोनों (आसुरि और शिव) बोले-- कृष्ण ! महायोगी कृष्ण ! देवाधि- देव जगदीश्वर ! पुण्डरीकाक्ष ! गोविन्द ! गरुडध्वज ! आपको नमस्कार है । जनार्दन ! जगन्नाथ ! पद्मनाभ ! त्रिविक्रम ! दामोदर ! हृषीकेश ! वासुदेव ! आपको नमस्कार है ॥२१-२२

देव ! आप परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् हैं। इन दिनों भूतलका भारी भार हरने और सत्पुरुषोंका कल्याण करनेके लिये अपने समस्त लोकोंको पूर्णतया शून्य करके यहाँ नन्दभवन में प्रकट हुए हैं। वास्तव में तो आप परात्पर परमात्मा ही हैं। अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण - समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो, आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्वकी रक्षा करते हैं तथा वृन्दावनमें सरस रासमण्डलको भी अलंकृत करते हैं ॥२३-२४

गोलोकनाथ ! गिरिराजपते ! परमेश्वर ! वृन्दावनाधीश्वर ! नित्यविहार- लीलाका विस्तार करनेवाले राधावल्लभ ! व्रजसुन्दरियोंके मुखसे अपना यशोगान सुननेवाले गोविन्द ! गोकुलपते ! सर्वथा आपकी जय हो शोभाशालिनी निकुञ्जलताओंके विकासके लिये आप ऋतुराज वसन्त हैं। श्रीराधिकाके वक्ष और कण्ठको विभूषित करने- वाले रत्नहार हैं। श्रीरासमण्डलके पालक, व्रज- मण्डलके अधीश्वर तथा ब्रह्माण्ड-मण्डलकी भूमिके संरक्षक हैं  ॥ २-२६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब श्रीराधा- सहित भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मन्द मन्द मुसकराते हुए मेघगर्जनकी-सी गम्भीर वाणीमें मुनिसे बोले ॥ २७ ॥

श्रीभगवान् ने कहा- तुम दोनोंने साठ हजार वर्षोंतक निरपेक्षभावसे तप किया है, इसीसे तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। जो अकिंचन, शान्त तथा सर्वत्र शत्रुभावनासे रहित है, वही मेरा सखा है। अतः तुम दोनों अपने मनके अनुसार अभीष्ट वर माँगो ।। २८-२९ ।

शिव और आसुरि बोले— भूमन् ! आपको नमस्कार हैं। आप दोनों प्रिया-प्रियतमके चरण- कमलोंकी संनिधिमें सदा ही वृन्दावनके भीतर हमारा निवास हो। आपके चरणसे भिन्न और कोई वर हमें नहीं रुचता है; अतः आप दोनों— श्रीहरि एवं श्रीराधिका को हमारा सादर नमस्कार है ॥ ३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब भगवान् ने 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तभी से शिव और आसुरिमुनि मनोहर वृन्दावन में वंशीवट के समीप रासमण्डल से मण्डित कालिन्दी के निकटवर्ती पुलिनपर निकुञ्ज के पास ही नित्य निवास करने लगे ।। ३१-३२ ॥

तदनन्तर श्रीकृष्णने जहाँ कमलपुष्पोंके सौरभयुक्त पराग उड़ रहे थे और भ्रमर मँडरा रहे थे, उस पद्माकर वनमें गोपाङ्गनाओंके साथ रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। मिथिलेश्वर ! उस समय श्रीकृष्णने छः महीनेकी रात बनायी। परंतु उस रासलीलामें सम्मिलित हुई गोपियों- के लिये वह सुख और आमोदसे पूर्ण रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। राजन् ! उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये। अरुणोदयकी वेलामें वे सभी व्रजसुन्दरियाँ झुंड की झुंड एक साथ होकर अपने घरको लौटीं । श्रीनन्दनन्दन साक्षात् नन्दमन्दिर में चले गये और श्रीवृषभानुनन्दिनी तुरंत ही वृषभानुपुरमें जा पहुँचीं ॥ ३३-३६॥

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका यह मनोहर रासोपाख्यान सुनाया गया, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यप्रद, मनोरथपूरक तथा मङ्गलका धाम हैं । साधारण लोगोंको यह धर्म, अर्थ और काम प्रदान करता है तथा मुमुक्षुओंको मोक्ष देनेवाला है। राजन् ! यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने कहा। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ।। ३७-३८ ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'रासक्रीडाका वर्णन' नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 
 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

विद्धः सपत्‍न्युदितपत्रिभिरन्ति राज्ञो ।
    बालोऽपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि ।
तस्मा अदाद् ध्रुवगतिं गृणते प्रसन्नो ।
    दिव्याः स्तुवन्ति मुनयो यदुपर्यधस्तात् ॥ ८ ॥
यद्वेनमुत्पथगतं द्विजवाक्यवज्र ।
    निष्प्लुष्टपौरुषभगं निरये पतन्तम् ।
त्रात्वाऽर्थितो जगति पुत्रपदं च लेभे ।
    दुग्धा वसूनि वसुधा सकलानि येन ॥ ९ ॥
नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुः ।
    यो वै चचार समदृग् जडयोगचर्याम् ।
यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति ।
    स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः ॥ १० ॥

अपने पिता राजा उत्तानपादके पास बैठे हुए पाँच वर्षके बालक ध्रुवको उनकी सौतेली माता सुरुचिने अपने वचन-बाणोंसे बेध दिया था। इतनी छोटी अवस्था होनेपर भी वे उस ग्लानिसे तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। उनकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ प्रकट हुए और उन्होंने ध्रुवको ध्रुवपदका वरदान दिया। आज भी ध्रुवके ऊपर-नीचे प्रदक्षिणा करते हुए दिव्य महर्षिगण उनकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ८ ॥
कुमार्गगामी वेनका ऐश्वर्य और पौरुष ब्राह्मणोंके हुंकाररूपी वज्रसे जलकर भस्म हो गया। वह नरकमें गिरने लगा। ऋषियोंकी प्रार्थनापर भगवान्‌ने उसके शरीरमन्थनसे पृथुके रूपमें अवतार धारण कर उसे नरकोंसे उबारा और इस प्रकार ‘पुत्र’ [*] शब्दको चरितार्थ किया। उसी अवतारमें पृथ्वीको गाय बनाकर उन्होंने उससे जगत्के लिये समस्त ओषधियोंका दोहन किया ॥ ९ ॥
राजा नाभिकी पत्नी सुदेवीके गर्भसे भगवान्‌ने ऋषभदेवके रूपमें जन्म लिया। इस अवतारमें समस्त आसक्तियोंसे रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मनको अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूपमें स्थित होकर समदर्शीके रूपमें उन्होंने जड़ोंकी भाँति योगचर्याका आचरण किया। इस स्थितिको महर्षिलोग परमहंसपद अथवा अवधूतचर्या कहते हैं ॥ १० ॥
...................................................................
[*] ‘पुत्र’ शब्दका अर्थ ही है ‘पुत्’ नामक नरकसे रक्षा करनेवाला।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 22 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

शिव और आसुरि का गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्णका दर्शन और स्तवन करना तथा उनके वरदान से वृन्दावन में नित्य-निवास पाना

 

श्रीनारद उवाच -
एवं विचिन्त्य मनसा शिवो वाऽऽसुरिणा सह ।
तौ कृष्णदर्शनार्थाय जग्मतुर्व्रजमण्डलम् ॥ १ ॥
दिव्यद्रुमलताकुञ्जतोलिकापुंजशोभिताम् ।
पश्यन्तौ तौ दिव्यभूमिं कालिन्दीनिकटे गतौ ॥ २ ॥
गोलोकवासिन्यो नार्यो वेत्रहस्ता महाबलाः ।
चक्रुर्बलात्तन्निषेधं मार्गस्था द्वारपालिकाः ॥ ३ ॥
तावूचतुश्चागतौ स्वः कृष्णदर्शनलालसौ ।
तावाहुर्नृपशार्दूल मार्गस्था द्वारपालिकाः ॥ ४ ॥


द्वारपालिका ऊचुः -
सर्वतो वृंदकारिण्यं कोटिशः कोटिशो वयम् ।
रासरक्षां सदा कुर्मो न्यस्ता कृष्णेन भो द्विजौ ॥ ५ ॥
एकोऽस्ति पुरुषः कृष्णो निर्जने रासमण्डले ।
अन्यो न याति रहसि गोपीयूथं विना क्वचित् ॥ ६ ॥
चेद्दिदृक्षू युवां तस्य स्नानं मानसरोवरे ।
कुरुतं तत्र गोपीत्वं प्राप्याशु व्रजतं मुनी ॥ ७ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तौ तौ मुनिशिवौ स्नात्वा मानसरोवरे ।
गोपीत्वं प्राप्य सहसा जग्मतू रासमण्डले ॥ ८ ॥
सौवर्णप्रखचित्पद्मरागभूमि मनोहरे ।
माधवीलतिकावृन्दकदंबाच्छादिते शुभे ॥ ९ ॥
वसंतचंद्रकौमुद्या प्रदीप्ते सर्वकौशले ।
यमुनारत्‍नसोपानतोलिकाभिर्विराजिते ॥ १० ॥
मयूरहंसदात्यूहकोकिलैः कूजिते परे ।
यमुनानिलनीलैजत्तरुपल्लवशोभिते ॥ ११ ॥
सभामण्डपवीथीभिः प्रांगणस्तम्भपंक्तिभिः ।
पतत्पताकैर्दिव्याभैः सौवर्णैः कलशैर्वृते ॥ १२ ॥
श्वेतारुणैः पुष्पसंघैः पुष्पमंदिरवर्त्मभिः ।
अलिकोलाहलैर्व्याप्ते वादित्रमधुरध्वनौ ॥ १३ ॥
सहस्रदलपद्मानां वायुना मंदगामिना ।
शीतलेन सुपुण्येन सर्वतः सुरभीकृते ॥ १४ ॥
तस्मिन्निकुंजे श्रीकृष्णं कोटिचंद्रप्रकाशया ।
पद्मिन्या हंसगामिन्या राधया समलंकृतम् ॥ १५ ॥
स्त्रीरत्‍नैरावृतं शश्वद्‌रासमण्डलमध्यगम् ।
कोटिमन्मथलावण्यं श्यामसुंदरविग्रहम् ॥ १६ ॥
वंशीधरं पीतपटं वेत्रपाणिं मनोहरम् ।
श्रीवत्सांकं कौस्तुभिनं वनमालाविराजितम् ॥ १७ ॥
क्वणन्नूपुरमंजीर कांचिकेयूरभूषितम् ।
हारकंकण बालार्क कुंडलद्वयमंडितम् ॥ १८ ॥
कोटिचंद्रप्रतीकाशमौलिनं नंदनंदनम् ।
दानदक्षैः कटाक्षैश्च हरन्तं योषितां मनः ॥ १९ ॥
दूरादपश्यतां राजन् आसुरीशौ कृतांजली ।
गोपीजनानां सर्वेषां पश्यतां नृपसत्तम ॥ २० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! भगवान् शिव आसुरि के साथ सम्पूर्ण हृदयसे ऐसा निश्चय करके वहाँसे चले। वे दोनों श्रीकृष्णदर्शनके लिये व्रज- मण्डल में गये । वहाँकी भूमि दिव्य वृक्षों, लताओं, कुञ्जों और गुमटियोंसे सुशोभित थी । उस दिव्य भूमिका दर्शन करते हुए दोनों ही यमुनातटपर गये ॥-

उस समय अत्यन्त बलशालिनी गोलोकवासिनी गोप- सुन्दरियाँ हाथमें बेंतकी छड़ी लिये वहाँ पहरा दे रही थीं। उन द्वारपालिकाओंने मार्गमें स्थित होकर उन्हें बलपूर्वक रासमण्डलमें जानेसे रोका। वे दोनों बोले— 'हम श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे यहाँ आये हैं।' नृपश्रेष्ठ ! तब राह रोककर खड़ी द्वारपालिकाओं ने उन दोनोंसे कहा ॥ -४ ॥

द्वारपालिकाएँ बोलीं- विप्रवरो ! हम कोटि- कोटि गोपाङ्गनाएँ वृन्दावनको चारों ओरसे घेरकर निरन्तर रासमण्डलकी रक्षा कर रही हैं। इस कार्यमें श्यामसुन्दर श्रीकृष्णने ही हमें नियुक्त किया है। इस एकान्त रासमण्डलमें एकमात्र श्रीकृष्ण ही पुरुष हैं । उस पुरुषरहित एकान्त स्थानमें गोपीयूथके सिवा दूसरा कोई कभी नहीं जा सकता। मुनियो ! यदि तुम दोनों उनके दर्शनके अभिलाषी हो तो इस मानसरोवरमें स्नान करो । वहाँ तुम्हें शीघ्र ही गोपीस्वरूपकी प्राप्ति हो जायगी, तब तुम रासमण्डलके भीतर जा सकते हो ॥ ५ – ७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— द्वारपालिकाओंके यों कहनेपर वे मुनि और शिव मानसरोवरमें स्नान करके, गोपी भावको प्राप्त हो, सहसा रासमण्डल में गये ॥ ८ ॥

सुवर्णजटित पद्मरागमयी भूमि उस रासमण्डलकी मनोहरता बढ़ा रही थी। वह सुन्दर प्रदेश माधवीलता- समूहोंसे व्याप्त और कदम्बवृक्षोंसे आच्छादित था । वसन्त ऋतु तथा चन्द्रमाकी चाँदनीने उसको प्रदीप्त कर रखा था। सब प्रकारकी कौशलपूर्ण सजावट वहाँ दृष्टिगोचर होती थी। यमुनाजीकी रत्नमयी सीढ़ियों तथा तोलिकाओंसे रासमण्डलकी अपूर्व शोभा हो रही थी ॥-१०

मोर, हंस, चातक और कोकिल वहाँ अपनी मीठी बोली सुना रहे थे। वह उत्कृष्ट प्रदेश यमुनाजीके जलस्पर्शसे शीतल-मन्द वायुके बहनेसे हिलते हुए, तरुपल्लवोंद्वारा बड़ी शोभा पा रहा था । सभामण्डपों और वीथियोंसे, प्राङ्गणों और खंभोंकी पंक्तियोंसे, फहराती हुई दिव्य पताकाओंसे और सुवर्णमय कलशोंसे सुशोभित तथा श्वेतारुण पुष्पसमूहोंसे सज्जित तथा पुष्पमन्दिर और मार्गोंसे एवं भ्रमरोंकी गुंजारों और वाद्योंकी मधुर ध्वनियोंसे व्याप्त रासमण्डलकी शोभा देखते ही बनती थी ॥११-१३

सहस्रदलकमलों की सुगन्धसे पूरित शीतल, मन्द एवं परम पुण्यमय समीर सब ओरसे उस स्थानको सुवासित कर रहा था। रास- मण्डलके निकुञ्जमें कोटि-कोटि चन्द्रमाओंके समान प्रकाशित होनेवाली पद्मिनी नायिका हंसगामिनी श्रीराधासे सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे। रास मण्डल के भीतर निरन्तर स्त्रीरत्नों से घिरे हुए श्यामसुन्दरविग्रह श्रीकृष्णका लावण्य करोड़ों कामदेवोंको लज्जित करनेवाला था। हाथमें वंशी और बेंत लिये तथा श्रीअङ्गपर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न, कौस्तुभमणि तथा वनमाला शोभा दे रही थी । झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबंद से वे विभूषित थे। हार, कङ्कण तथा बालरवि के समान कान्तिमान् दो कुण्डलों से वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओं की कान्ति उनके आगे फीकी जान पड़ती थी। मस्तकपर मोरमुकुट धारण किये वे नन्द-नन्दन मनोरथ दान-दक्ष कटाक्षों द्वारा युवतियों का मन हर लेते थे ॥१४-१९

राजन् आसुरि और शिव — दोनों ने दूर से ही जब श्रीकृष्णको देखा तो हाथ जोड़ लिये । नृपश्रेष्ठ ! समस्त गोपसुन्दरियोंके देखते-देखते श्रीकृष्ण- चरणारविन्दमें मस्तक झुकाकर, आनन्दविह्वल हुए उन दोनोंने कहा ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

अत्रेः अपत्यमभिकाङ्क्षत आह तुष्टो ।
    दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः ।
यत् पादपङ्कजपराग पवित्रदेहा ।
    योगर्द्धिमापुरुभयीं यदुहैहयाद्याः ॥ ४ ॥
तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया मे ।
    आदौ सनात् स्वतपसः स चतुःसनोऽभूत् ।
प्राक्कल्प संप्लवविनष्टमिह आत्मतत्त्वं ।
    सम्यग् जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन् ॥ ५ ॥
धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां ।
    नारायणो नर इति स्वतपः प्रभावः ।
दृष्ट्वात्मनो भगवतो नियमावलोपं ।
    देव्यस्त्वनङ्गपृतना घटितुं न शेकुः ॥ ६ ॥
कामं दहन्ति कृतिनो ननु रोषदृष्ट्या ।
    रोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्यम् ।
सोऽयं यदन्तरमलं प्रविशन् बिभेति ।
    कामः कथं नु पुनरस्य मनः श्रयेत ॥ ७ ॥

महर्षि अत्रि भगवान्‌ को पुत्ररूप में प्राप्त करना चाहते थे। उनपर प्रसन्न होकर भगवान्‌ ने उनसे एक दिन कहा कि ‘मैंने अपने आपको तुम्हें दे दिया।’ इसीसे अवतार लेनेपर भगवान्‌ का नाम ‘दत्त’ (दत्तात्रेय) पड़ा। उनके चरणकमलोंके परागसे अपने शरीरको पवित्र करके राजा यदु और सहस्रार्जुन आदिने योगकी भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त कीं ॥ ४ ॥
नारद ! सृष्टिके प्रारम्भमें मैंने विविध लोकोंको रचनेकी इच्छासे तपस्या की। मेरे उस अखण्ड तपसे प्रसन्न होकर उन्होंने ‘तप’ अर्थवाले ‘सन’ नामसे युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमारके रूपमें अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने प्रलयके कारण पहले कल्पके भूले हुए आत्मज्ञानका ऋषियोंके प्रति यथावत् उपदेश किया, जिससे उन लोगोंने तत्काल परम तत्त्वका अपने हृदयमें साक्षात्कार कर लिया ॥ ५ ॥
धर्म की पत्नी दक्षकन्या मूर्ति के गर्भ से वे नर-नारायण के रूप में प्रकट हुए। उनकी तपस्या का प्रभाव उन्हीं के जैसा है। इन्द्र की भेजी हुई काम की सेना अप्सराएँ उनके सामने जाते ही अपना स्वभाव खो बैठीं। वे अपने हाव-भाव से उन आत्मस्वरूप भगवान्‌ की तपस्या में विघ्र नहीं डाल सकीं ॥ ६ ॥ नारद ! शङ्कर आदि महानुभाव अपनी रोषभरी दृष्टि से कामदेव को जला देते हैं, परंतु अपने आपको जलाने वाले असह्य क्रोध को वे नहीं जला पाते। वही क्रोध नर-नारायण के निर्मल हृदयमें प्रवेश करनेके पहले ही डरके मारे काँप जाता है। फिर भला, उनके हृदय में काम का प्रवेश तो हो ही कैसे सकता है ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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बुधवार, 21 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

रास-विहार तथा आसुरि मुनि का उपाख्यान

 

ज्ञानिनामपि नास्त्येवं कर्मिणां तु कुतश्च सः ।
एवं श्रीकृष्णचंद्रस्य हरे राधापतेः प्रभोः ॥ २८ ॥
रासे चित्रं यद्‌बभूव तच्छृणुष्व महामते ।
मुनीन्द्र आसुरिर्नाम श्रीकृष्णेष्टो महातपाः ॥ २९ ॥
नारदाद्रौ तपस्तेपे हरौ ध्यानपरायणः ।
हृत्पुंडरीके श्रीकृष्णं ज्योतिर्मंडलमास्थितम् ॥ ३० ॥
मनोज्ञं राधया सार्धं नित्यं ध्याने ददर्श ह ।
एकदा ध्यानमध्ये तु रात्रौ कृष्णो न चागतः ॥ ३१ ॥
वारं वारं कृतं ध्यानं खिन्नो जातो महामुनिः ।
ध्यानादुत्थाय स मुनिः कृष्णदर्शनलालसः ॥ ३२ ॥
नारायणाश्रमं प्रागाद्‌बदरीखण्डमंडितम् ।
न ददर्श हरिं देवं नरनारायणं मुनिः ॥ ३३ ॥
तदातिविस्मितो विप्रो लोकालोकगिरिं ययौ ।
सहस्रशिरसं देवं न ददर्श स तत्र वै ॥ ३४ ॥
पप्रच्छ पार्षदान् तत्र क्व गतो भगवानितः ।
न विद्मो भो वयं चोक्तो मुनिः खिन्नमनास्तदा ॥ ३५ ॥
श्वेतद्वीपं ययौ दिव्यं क्षीरसागरशोभितम् ।
तत्रापि शेषपर्यंके न ददर्श हरिं पुनः ॥ ३६ ॥
तदा मुनिः खिन्नमनाः प्रेम्णा पुलकिताननः ।
पप्रच्छ पार्षदांस्तत्र क्व गतो भगवानितः ॥ ३७ ॥
न विद्मो भो वयं चोक्तो मुनिश्चिन्तापरायणः ।
किं करोमि क्व गच्छामि दर्शनं तत्कथं भवेत् ॥ ३८ ॥
एवं ब्रुवन्मनोयायी वैकुंठं प्राप्तवांस्ततः ।
नापश्यत्तत्र देवेशं रमां वैकुंठवासिनीम् ॥ ३९ ॥
न दृष्टस्तत्र भक्तेषु मुनिनाऽसुरिणा नृप ।
ततो मुनीन्द्रो योगीन्द्रो गोलोकं स जगाम ह ॥ ४० ॥
वृंदावने निकुंजेऽपि न ददर्श परात्परम् ।
तदा मुनिः खिन्नमनाः श्रीकृष्णविरहातुरः ॥ ४१ ॥
पप्रच्छ पार्षदांस्तत्र क्व गतो भगवानितः ।
ऊचुस्तं पार्षदा गोपा वामनाण्डे मनोहरे ॥ ४२ ॥
पृश्निगर्भो यत्र जातः तत्रैव भगवान् स्वयम् ।
इत्युक्त आसुरिस्तस्मादस्मिन्नण्डे समागतः ॥ ४३ ॥
हरिं ह्यपश्यन्प्रचलन् कैलासं प्राप्तवान्मुनिः ।
तत्र स्थितं महादेव कृष्णध्यानपरायणम् ॥ ४४ ॥
नत्वा पप्रच्छ तद्‌रात्रौ खिन्नचेता महामुनिः ।


आसुरिरुवाच -
भगवन् सर्व ब्रह्माण्डं मया दृष्टमितस्ततः ॥ ४५ ॥
आवैकुण्ठाश्च गोलोकाद्‌भ्रमता तद्दिद्रुक्षुणा ।
कुत्रापि देवदेवस्य दर्शनं न बभूव मे ॥ ४६ ॥


श्रीमहादेव उवाच -
धन्यस्त्वमासुरे ब्रह्मन् कृष्णभक्तोऽस्यहैतुकः ।
दिदृक्षुणा त्वयाऽऽयासं कृत्वं वेद्मि महामुने ॥ ४७ ॥
हंसं मुनिं दुःखगतं महोदधौ
     यः सर्वतो मोचयितुं गतस्त्वरम् ।
सोऽद्यैव वृंदाविपिने सखीजनैः
     करोति रासं रसिकेश्वरः स्वयम् ॥ ४८ ॥
षाण्मासिकी चाद्य कृता निशीथिनी
     स्वमायया देववरेण भो मुने ।
अहं गमिष्यामि तदेव द्रष्टुं
     त्वमेव गच्छाशु मनोरथं यथा ॥ ४९ ॥

 

महामते ! इस प्रकार राधावल्लभ प्रभु श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्रके रासमें जो एक विचित्र घटना हुई, उसे सुनो। श्रीकृष्णके प्रिय भक्त एवं महातपस्वी एक मुनि थे, जिनका नाम 'आसुरि' था । वे नारद गिरिपर श्रीहरिके ध्यानमें तत्पर हो तपस्या करते थे। हृदय- कमलमें ज्योतिर्मण्डलके भीतर राधासहित मनोहर- मूर्ति श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका वे चिन्तन किया करते थे । एक समय रातमें जब मुनि ध्यान करने लगे, तब श्रीकृष्ण उनके ध्यानमें नहीं आये ॥ २८-३१

उन्होंने बारंबार ध्यान लगाया, किंतु सफलता नहीं मिली। इससे वे महामुनि खिन्न हो गये। फिर वे मुनि ध्यानसे उठकर श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे बदरीखण्डमण्डित नारायणाश्रमको गये; किंतु वहाँ उन मुनीश्वरको नर- नारायणके दर्शन नहीं हुए। तब अत्यन्त विस्मित हो, वे ब्राह्मण देवता लोकालोक पर्वतपर गये; किंतु वहाँ सहस्र सिरवाले अनन्तदेवका भी उन्हें दर्शन नहीं हुआ ॥ ३२-३६

तब उन्होंने वहाँके पार्षदोंसे पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हम नहीं जानते।' उनके इस प्रकार उत्तर देनेपर उस समय मुनिके मनमें बड़ा खेद हुआ। फिर वे क्षीरसागरसे सुशोभित श्वेतद्वीपमें गये; किंतु वहाँ भी शेषशय्यापर श्रीहरिका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनिका चित्त और भी खिन्न हो गया। उनका मुख प्रेमसे पुलकित दिखायी देता था । उन्होंने पार्षदोंसे पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ चले गये ?' पुनः वही उत्तर मिला— 'हमलोग नहीं जानते।' उनके यों कहनेपर मुनि भारी चिन्तामें पड़ गये और सोचने लगे- 'क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कैसे श्रीहरिका दर्शन हो ?' ।। ३६- ३८ ॥

यों कहते हुए मनके समान गतिशील आसुरिमुनि वैकुण्ठधाम में गये; किंतु वहाँ भी लक्ष्मीके साथ निवास करनेवाले भगवान् नारायणका दर्शन उन्हें नहीं हुआ । नरेश्वर ! वहाँके भक्तोंमें भी आसुरि मुनिने भगवान्‌ को नहीं देखा । तब वे योगीन्द्र मुनीश्वर गोलोकमें गये; परंतु वहाँके वृन्दावनीय निकुञ्ज में भी परात्पर श्रीकृष्णका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनि का चित्त खिन्न हो गया और वे श्रीकृष्ण-विरह से अत्यन्त व्याकुल हो गये ॥ ३९-४१

वहाँ उन्होंने पार्षदोंसे पूछा- भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' तब वहाँ रहनेवाले पार्षद गोपोंने उनसे कहा- 'वामनावतारके ब्रह्माण्डमें, जहाँ कभी पृश्निगर्भ अवतार हुआ था, वहाँ साक्षात् भगवान् पधारे हैं। ' उनके यों कहनेपर महामुनि आसुरि वहाँ से उस ब्रह्माण्ड में आये ॥ ४-४३

[वहां भी] श्रीहरिका दर्शन न होने से तीव्र गति से चलते हुए मुनि कैलास पर्वतपर गये । वहाँ महादेव जी श्रीकृष्णके ध्यान में तत्पर होकर बैठे थे । उन्हें नमस्कार करके रात्रि में खिन्न-चित्त हुए महामुनि ने पूछा ।। ४४ ॥

आसुरि बोले- भगवन् ! मैंने सारा ब्रह्माण्ड इधर-उधर छान डाला, भगवद्दर्शनकी इच्छासे वैकुण्ठसे लेकर गोलोकतकका चक्कर लगा आया, किंतु कहीं भी देवाधिदेवका दर्शन मुझे नहीं हुआ। सर्वज्ञशिरोमणे ! बताइये, इस समय भगवान् कहाँ हैं ? ॥ ४५-४६॥

श्रीमहादेवजी बोले- आसुरे ! तुम धन्य हो । ब्रह्मन् ! तुम श्रीकृष्णके निष्काम भक्त हो । महामुने ! मैं जानता हूँ, तुमने श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे महान् क्लेश उठाया है। क्षीरसागरमें रहनेवाले हंसमुनि बड़े कष्टमें पड़ गये थे । उन्हें उस क्लेशसे मुक्त करनेके लिये जो बड़ी उतावलीके साथ वहाँ गये थे, वे ही भगवान् रसिकशेखर साक्षात् श्रीकृष्ण अभी-अभी वृन्दावनमें आकर सखियोंके साथ रास-क्रीडा कर रहे हैं। मुने ! आज उन देवेश्वर ने अपनी माया से छः महीने-बराबर बड़ी रात बनायी है । मैं उसी रासोत्सव का दर्शन करने के लिये वहाँ जाऊँगा । तुम भी शीघ्र ही चलो, जिससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाय ॥४७-४९

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवाद में रासक्रीड़ा-प्रसङ्ग में 'आसुरि मुनि का उपाख्यान' नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

ब्रह्मोवाच ।
यत्रोद्यतः क्षितितलोद्धरणाय बिभ्रत् ।
    क्रौडीं तनुं सकलयज्ञमयीमनन्तः ।
अन्तर्महार्णव उपागतमादिदैत्यं ।
    तं दंष्ट्रयाऽद्रिमिव वज्रधरो ददार ॥ १ ॥
जातो रुचेरजनयत् सुयमान् सुयज्ञ ।
    आकूतिसूनुः अमरान् अथ दक्षिणायाम् ।
लोकत्रयस्य महतीं अहरद् यदार्तिं ।
    स्वायम्भुवेन मनुना हरिरित्यनूक्तः ॥ २ ॥
जज्ञे च कर्दमगृहे द्विज देवहूत्यां ।
    स्त्रीभिः समं नवभिरात्मगतिं स्वमात्रे ।
ऊचे ययाऽत्मशमलं गुणसङ्गपङ्कम् ।
    अस्मिन् विधूय कपिलस्य गतिं प्रपेदे ॥ ३ ॥

ब्रह्माजी कहते हैं—अनन्त भगवान्‌ ने प्रलय के जल में डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये समस्त यज्ञमय वराह-शरीर ग्रहण किया था। आदिदैत्य हिरण्याक्ष जलके अंदर ही लडऩेके लिये उनके सामने आया। जैसे इन्द्रने अपने वज्रसे पर्वतोंके पंख काट डाले थे, वैसे ही वराह भगवान्‌ने अपनी दाढ़ोंसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ॥ १ ॥ फिर उन्हीं प्रभु ने रुचि नामक प्रजापति की पत्नी आकूति के गर्भ से सुयज्ञके रूप में अवतार ग्रहण किया। उस अवतारमें उन्होंने दक्षिणा नामकी पत्नीसे सुयम नामके देवताओंको उत्पन्न किया और तीनों लोकोंके बड़े-बड़े सङ्कट हर लिये। इसीसे स्वायम्भुव मनुने उन्हें ‘हरि’के नामसे पुकारा ॥ २ ॥
नारद ! कर्दम प्रजापति के घर देवहूतिके गर्भसे नौ बहिनोंके साथ भगवान्‌ ने कपिल के रूपमें अवतार ग्रहण किया। उन्होंने अपनी माता को उस आत्मज्ञान का उपदेश किया, जिससे वे इसी जन्म में अपने हृदयके सम्पूर्ण मल—तीनों गुणोंकी आसक्ति का सारा कीचड़ धोकर कपिल भगवान्‌ के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो गयीं ॥ ३ ॥

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मंगलवार, 20 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

रास-विहार तथा आसुरि मुनि का उपाख्यान

 

मनोज्ञो यदुराजा च गोपीनां भगवान् हरिः ।
काश्मीरमुद्रितो रेमे वने वृंदावनेश्वरः ॥ १४ ॥
काश्चिद्‌वीणां वादयन्त्यः समं वंशीधरेण वै ।
काश्चित् मृदंगं वादयन्त्यो गायन्त्यो भगवद्‌गुणम् ॥ १५ ॥
काश्चिद्वै मधुरं तालं ताडयन्त्यो हरेः पुरः ।
मुरयष्टिं संगृहीत्वा हरिणा माधवीतले ॥ १६ ॥
गायन्त्यः सुस्थिरा भूमौ विस्मृत्य जगतः सुखम् ।
काश्चिल्लतासु श्रीकृष्णं भुजे बाहुं निधाय च ॥ १७ ॥
वृन्दावनस्य पश्यन्त्यो शोभां राजन्नितस्ततः ।
लताजालैः संवलितं गोपीनां हारसंचयम् ॥ १८ ॥
पृथक्चकार गोविंदः स्पृष्ट्वा तासामुरःस्थलम् ।
गोपीनां नासिकामुक्तावलिं तत्कुंतलं स्वयम् ॥ १९ ॥
शनैः शनैः शोभनं तच्चक्रे श्रीनंदनंदनः ।
तांबूलं चर्वितं ह्यर्धं नीत्वा सद्योऽथ गोपिकाः ॥ २० ॥
चर्वयन्त्यः सुगंधाढ्य महो तासां तपो महत् ।
काश्चिच्छामकपोलेषु द्व्यंगुलेन शनैः शनैः ॥ २१ ॥
हसन्त्यस्ताडयन्त्यस्ताः कदंबेषु बलात्पृथक् ।
पुंवेषनायकाः काश्चिन्मौलिकुंडलमंडिताः ॥ २२ ॥
नृत्यन्तः कृष्णपुरतः श्रीकृष्ण इव मैथिल ।
राधावेषधरा गोप्यः शतचंद्राननप्रभाः ॥ २३ ॥
तोषयन्त्यश्च राधां तां तथा राधापतिं जगुः ।
काश्चित्ताः सात्त्विकैर्भावैः संयुक्ता प्रेमविह्वलाः ॥ २४ ॥
योगीव चास्थिता भूमौ परमानंदसंप्लुताः ।
काश्चिल्लतासु वृक्षेषु भूम्यां वै विदिशासु च ॥ २५ ॥
पश्यन्त्यः श्रीपतिं देवं स्वस्मिन् वा मौनमास्थिताः ।
एवं रासे गोपवध्वः सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ २६ ॥
बभूवुरेत्य गोविंदं सर्वेशं भक्तवत्सलम् ।
यत्प्रसादस्तु गोपीनां प्राप्तो राजन् महामते ॥ २७ ॥

 

इस प्रकार परम मनोहर वृन्दावनाधीश्वर यदुराज भगवान् श्रीहरि केसरका तिलक धारण किये, गोपियों- के साथ वृन्दावनमें विहार करने लगे। कुछ गोपाङ्गनाएँ वंशीधरको बाँसुरीके साथ वीणा बजाती थीं और कितनी ही मृदङ्ग बजाती हुई भगवान्‌ के गुण गाती थीं ॥ १४-१५

कुछ श्रीहरिके सामने खड़ी हो मधुर स्वरसे खड़ताल बजातीं और बहुत-सी सुन्दरियाँ माधवी

लताके नीचे चंग बजाती हुई श्रीकृष्णके साथ सुस्थिर- भावसे गीत गाती थीं । वे भूतलपर सांसारिक सुखको सर्वथा भुलाकर वहाँ रम रही थीं। कुछ गोपियाँ लतामण्डपोंमें श्रीकृष्णके हाथ को अपने हाथ में लेकर इधर-उधर घूमती हुई वृन्दावन की शोभा निहारती थीं ॥१६-१७

किन्हीं गोपियोंके हार लता - जालसे उलझ जाते, तब गोविन्द उनके वक्षःस्थलका स्पर्श करते हुए उन हारोंको लता - जालोंसे पृथक् कर देते थे। गोप सुन्दरियोंकी नासिकामें जो नकबेसरें थीं, उनमें मोतीकी लड़ियाँ पिरोयी गयी थीं । उनको तथा उनकी अलकावलियों को श्यामसुन्दर स्वयं सँभालते और धीरे-धीरे सुलझाकर सुशोभन बनाते रहते थे। माधव के चबाये हुए सुगन्धयुक्त ताम्बूलमेंसे आधा लेकर तत्काल गोपसुन्दरियाँ भी चबाने लगती थीं अहो ! उनका कैसा महान् तप था! कितनी ही गोपियाँ हँसती हुई श्यामसुन्दरके कपोलोंपर अपनी दो अँगुलियोंसे धीरे-धीरे छूतों और कोई हँसती हुई बलपूर्वक हलका-सा आघात कर बैठती थीं । कदम्ब वृक्षोंके नीचे पृथक्-पृथक् सभी गोपाङ्गनाओंके साथ उनका क्रीडा-विनोद चल रहा था । १ - २१ ॥

मिथिलेश्वर ! कुछ गोपाङ्गनाएँ पुरुष-वेष धारण- कर, मुकुट और कुण्डलों से मण्डित हो, स्वयं नायक बन जातीं और श्रीकृष्णके सामने उन्हींकी तरह नृत्य करने लगती थीं। जिनकी मुख- कान्ति शत-शत चन्द्रमाओं- को तिरस्कृत करती थी, ऐसी गोपसुन्दरियाँ श्रीराधाका वेष धारण करके श्रीराधा तथा उनके प्राणवल्लभ को आनन्दित करती हुई उनके यश गाती थीं ।। २२ - २

कुछ व्रजाङ्गनाएँ स्तम्भ, स्वेद आदि सात्त्विक भावोंसे युक्त, प्रेम - विह्वल एवं परमानन्दमें निमग्न हो, योगिजनोंकी भाँति समाधिस्थ होकर भूमिपर बैठ जाती थीं। कोई लताओंमें, वृक्षोंमें, भूतलमें, विभिन्न दिशाओंमें तथा अपने-आपमें भी भगवान् श्रीपतिका दर्शन करती हुई मौनभाव धारण कर लेती थीं। इस प्रकार रासमण्डलमें सर्वेश्वर, भक्तवत्सल गोविन्दकी शरण ले, वे सब गोप- सुन्दरियाँ पूर्णमनोरथ हो गयीं। महामते राजन् ! वहाँ गोपियोंको भगवान्‌ का जो कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ, वह ज्ञानियोंको भी नहीं मिलता, फिर कर्मियोंको तो मिल ही कैसे सकता है ? ॥ २-२७ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट१०)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य
    कालः स्वभावः सद्-असन्मनश्च ।
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि
    विराट् स्वराट् स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ॥ ४१ ॥
अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा
    दक्षादयो ये भवदादयश्च ।
स्वर्लोकपालाः खगलोकपाला
    नृलोकपालाः तललोकपालाः ॥ ४२ ॥
गन्धर्वविद्याधरचारणेशा
    ये यक्षरक्षोरग नागनाथाः ।
ये वा ऋषीणां ऋषभाः पितॄणां
    दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेंद्राः ॥ ४३ ॥
अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूत
    कूष्माण्ड यादः मृगपक्षि-अधीशाः ।
यत्किञ्च लोके भगवन् महस्वत्
    ओजः सहस्वद् बलवत् क्षमावत् ।
श्रीह्रीविभूत्यात्मवद् अद्‌भुतार्णं
    तत्त्वं परं रूपवद् अस्वरूपम् ॥ ४४ ॥
प्राधान्यतो या नृष आमनन्ति
    लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ।
आपीयतां कर्णकषायशोषान्
    अनुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान् ॥ ४५ ॥

(ब्रह्माजी कह रहे  हैं)  परमात्मा का पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पञ्चभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्रह्माण्ड-शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जङ्गम जीव—सब-के-सब उन अनन्त भगवान्‌ के ही रूप हैं ॥ ४१ ॥ मैं, शङ्कर, विष्णु, दक्ष आदि ये प्रजापति, तुम और तुम्हारे-जैसे अन्य भक्तजन, स्वर्गलोक के रक्षक, पक्षियों के राजा, मनुष्यलोक के राजा, नीचे के लोकों के राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणों के अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागोंके स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेत-पिशाच, भूत-कूष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियोंके स्वामी; एवं संसारमें और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमासे युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा विभूतिसे युक्त हैं; एवं जितनी भी वस्तुएँ अद्भुत वर्णवाली, रूपवान् या अरूप हैं—वे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत्स्वरूप ही हैं ॥ ४२—४४ ॥ नारद ! इनके सिवा परम पुरुष परमात्मा के परम पवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रोंमें वर्णित हैं। उनका मैं क्रमश: वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुननेमें बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रिय के दोषों को दूर करनेवाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो ॥ ४५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

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सोमवार, 19 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

रास-विहार तथा आसुरि मुनि का उपाख्यान

 

श्रीनारद उवाच -
अथ गोपीगणैः सार्धं पश्यन् श्रीयमुनातटम् ।
विहर्तुमामयौ कृष्णो वृंदारण्यं मनोहरम् ॥ १ ॥
वृंदावने चौषधयो लीना जाता हरेर्वरात् ।
ताः सर्वाश्चांगना भूतवा यूथीभूत्वा समाययुः ॥ २ ॥
लतागोपीसमूहेन चित्रवर्णेन मैथिल ।
रेमे वृंदावने राजन् हरिर्वृंदावनेश्वरः ॥ ३ ॥
कालिन्दनन्दिनीतीरे कदंबाच्छादिते शुभे ।
त्रिविधेन समीरेण सर्वतः सुरभीकृते ॥ ४ ॥
विलसत्पुलिने रम्ये वंशीवटविराजिते ।
स्थितोऽभूद्‌राधया सार्धं रासश्रमसमन्वितः ॥ ५ ॥
वीणातालमृदंगादि मुरुयष्टियुतानि च ।
वादितत्राण्यंबरे नेदुः सुरैर्गोपीगणौः सह ॥ ६ ॥
देवेषु पुष्पं वर्षत्सु जयध्वनियुतेषु च ।
तोषयन्त्यो हरिं गोप्यो जगुस्तद्यश उत्तमम् ॥ ७ ॥
काश्चिद्वै मेघमल्लारं दीपकं च तथापराः ।
मालकोशं भैरवं च श्रीरागं च तथैव च ॥ ८ ॥
हिंदोलं च जगुः काश्चित् राजन् सप्तस्वरैः सह ।
काश्चित्तासां प्रमुग्धाश्च काश्चिन्मुग्धाः स्त्रियो नृप ॥ ९ ॥
काश्चित् प्रौढा प्रेमपराः श्रीकृष्णे लग्नमानसाः ।
जारधर्मेण गोविंदं काश्चिद्‌गोप्यो भजन्ति हि ॥ १० ॥
काश्चिच्छ्रीकृष्णसहिताः कन्दुकक्रीडने रताः ।
काश्चित् पुष्पैश्च हरिणा क्रीडां चक्रुः परस्परम् ॥ ११ ॥
काश्चिल्लतासु धावन्त्यः क्वणन् नूपुरमेखलाः ।
काश्चित् पिबंति सततं बलात्कृष्णाधरामृतम् ॥ १२ ॥
काचिद्‌भुजाभ्यां श्रीकृष्णं योगिनामपि दुर्लभम् ।
संगृहीत्वा प्रहस्याराच्चक्रुरालिंगनं महत् ॥ १३ ॥

नारदजी कहते हैं—तदनन्तर गोपीगणोंके साथ यमुनातटका दृश्य देखते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ते रास-विहारके लिये मनोहर वृन्दावनमें आये । श्रीहरिके वरदानसे वृन्दावनकी ओषधियाँ विलीन हो गयीं और वे सब की सब व्रजाङ्गना होकर, एक यूथके रूपमें संघटित हो, रासगोष्ठी में सम्मिलित हो गयीं। मिथिलेश्वर ! लतारूपिणी गोपियोंका समूह विचित्र

कान्ति से सुशोभित था । उन सबके साथ वृन्दावनेश्वर श्रीहरि वृन्दावनमें विहार करने लगे। कदम्ब वृक्षोंसे आच्छादित कालिन्दी के सुरम्य तटपर सब ओर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर उस स्थानको सुगन्धपूर्ण कर रही थी । वंशीवट उस सुन्दर पुलिन की रमणीयता को बढ़ा रहा था। रासके श्रमसे थके हुए श्रीकृष्ण वहीं श्रीराधाके साथ आकर बैठे ॥ १-

उस समय गोपाङ्गनाओंके साथ-साथ आकाशस्थित देवता भी वीणा, ताल, मृदङ्ग, मुरचंग आदि भाँति-भाँतिके वाद्य बजा रहे थे तथा जय-जयकार करते हुए दिव्य फूल बरसा रहे थे । गोप-सुन्दरियाँ श्रीहरिको आनन्द प्रदान करती हुई उनके उत्तम यश गाने लगीं ॥ ६-७

कुछ गोपियाँ मेघमल्लार नामक राग गातीं तो अन्य गोपियाँ दीपक राग सुनाती थीं । राजन् ! कुछ गोपियोंने क्रमशः मालकोश, भैरव, श्रीराग तथा हिन्दोल राग का सात स्वरोंके साथ गान किया। नरेश्वर ! उनमें से कुछ गोपियाँ तो अत्यन्त भोली-भाली थीं और कुछ मुग्धाएँ थीं । कितनी ही प्रेमपरायणा गोपसुन्दरियाँ प्रौढा नायिकाकी श्रेणीमें आती थीं । उन सबके मन श्रीकृष्ण  में लगे थे। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ जारभाव से गोविन्द- की सेवा करती थीं ॥ -१

कोई श्रीकृष्णके साथ गेंद खेलने लगीं, कुछ श्रीहरिके साथ रहकर परस्पर फूलोंसे क्रीड़ा करने लगीं। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ पैरोंमें नूपुर धारण करके परस्पर नृत्य-क्रीड़ा करती हुई नूपुरोंकी झंकारके साथ-साथ श्रीकृष्णके अधरामृत का पान कर लेती थीं। कितनी ही गोपियाँ योगियों के लिये भी दुर्लभ श्रीकृष्णको दोनों भुजाओं से पकड़कर हँसती हुई अत्यन्त निकट आ जातीं और उनका गाढ़ आलिङ्गन करती थीं ॥ १-१३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०९)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

यस्यावतारकर्माणि गायंति ह्यस्मदादयः ।
न यं विदंति तत्त्वेन तस्मै भगवते नमः ॥ ३७ ॥
स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः ।
आत्मा आत्मनि आत्मनाऽऽत्मानं, स संयच्छति पाति च ॥ ३८ ॥
विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक् सम्यग् अवस्थितम् ।
सत्यं पूर्णं अनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम् ॥ ३९ ॥
ऋषे विदंति मुनयः प्रशान्तात्मेन्द्रियाशयाः ।
यदा तद् एव असत् तर्कैः तिरोधीयेत विप्लुतम् ॥ ४० ॥

हम लोग केवल जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं, उनके तत्त्व को नहीं जानते—उन भगवान्‌ के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३७ ॥ वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्पमें वे स्वयं अपने आपमें अपने आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं ॥ ३८ ॥ वे मायाके लेशसे रहित, केवल ज्ञानस्वरूप हैं और अन्तरात्माके रूपमें एकरस स्थित हैं। वे तीनों कालमें सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि है न अन्त। वे तीनों गुणोंसे रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं ॥ ३९ ॥ नारद ! महात्मालोग जिस समय अपने अन्त:करण, इन्द्रिय और शरीरको शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षात्कार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषोंके द्वारा कुतर्कोंका जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते ॥ ४० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...