#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पचीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
शिव और आसुरि का गोपीरूप से रासमण्डल में
श्रीकृष्णका दर्शन और स्तवन करना तथा उनके वरदान से वृन्दावन में नित्य-निवास पाना
नत्वा
श्रीकृष्णपादाब्जमूचतुर्हर्षविह्वलौ ।
द्वावूचतुः -
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् देवदेव जगत्पते ॥ २१ ॥
पुण्डरीकाक्ष गोविंद गरुडध्वज ते नमः ।
जनार्दन जगन्नाथ पद्मनाभ त्रिविक्रम ।
दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २२ ॥
अद्यैव देव परिपूर्णतमस्तु साक्षा-
द्भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय ।
प्राप्तोऽसि नंदभवने परतः परस्त्वं
कृत्वा हि सर्वनिजलोकमशेषशून्यम् ॥
२३ ॥
अंशांशकांशकलयाभिरुताभिराम-
मावेशपूर्णनिचयाभिरतीव युक्तः ।
विश्वं बिभर्षि रसरासमलंकरोषि
वृंदावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम्
॥ २४ ॥
गोलोकनाथ गिरिराजपते परेश
वृंदावनेश कृतनित्यविहारलील ।
राधापते व्रजवधूजनगीतकीर्ते
गोविंद गोकुलपते किल ते जयोऽस्तु ॥
२५ ॥
श्रीमन्निकुंजलतिका कुसुमाकरस्त्वं
श्रीराधिकाहृदयकंठ विभूषणस्त्वम् ।
श्रीरासमंडलपतिर्व्रजमंडलेशो
ब्रह्मांडमंडलमहीपरिपालकोऽसि ॥ २६ ॥
श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नो भगवान् राधया सहोतो हरिः ।
मन्दस्मितो मुनिं प्राह मेघगंभीरया गिरा ॥ २७ ॥
षष्टिवर्षसहस्राणि युवयोस्तपतोस्तपः ।
मद्दर्शनं तेन जातं सर्वतो नैरपेक्षयोः ॥ २८ ॥
निष्किंचनो यः शान्तश्चाजातशत्रुः स मत्सखा ।
तस्माद्युवाभ्यां मनसा व्रियतामीप्सितो वरः ॥ २९ ॥
शिवासुरी ऊचतुः -
नमोऽस्तु भूमन्युवयोः पदाब्जे
सदैव वृंदावनमध्यवास ।
न रोचते नोऽन्यमतस्त्वदंघ्रे-
र्नमो युवाभ्यां हरिराधिकाभ्याम् ॥
३० ॥
श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् वृंदारण्ये मनोहरे ।
कालिंदीनिकटे राजन् रासमंडलमंडिते ॥ ३१ ॥
निकुञ्जपार्श्वे पुलिने वंशीवटसमीपतः ।
शिवोऽपि चासुरिमुनिर्नित्यं वासं चकार ह ॥ ३२ ॥
अथ कृष्णो रासलीलां चक्रे पद्माकरे वने ।
पतत्सुगंधिरजसि गोपीभिर्भ्रमराकुले ॥ ३३ ॥
एवं षाण्मासिकी रात्रिः
कृता कृष्णेन मैथिल ।
गोपीनां रासलीलायां
व्यतीता क्षणवत्सुखैः ॥ ३४ ॥
अरुणोदयवेलायां स्वगृहान् व्रजयोषितः ।
यूथीभूत्त्वा ययू राजन् सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ ३५ ॥
श्रीनंदमंदिरं साक्षात्प्रययौ नंदनंदनः ।
वृषभानुपुरं प्रागाद्वृषभानुसुता त्वरम् ॥ ३६ ॥
एवं श्रीकृष्णचंद्रस्य रासाख्यानं मनोहरम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं कामदं मंगलायनम् ॥ ३७ ॥
त्रिवर्ग्यदं जनानां तु
मुमुक्षुणां सुमुक्तिदम् ।
मया तवाग्रे कथितं
किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३८ ॥
दोनों
(आसुरि और शिव) बोले-- कृष्ण ! महायोगी कृष्ण ! देवाधि-
देव जगदीश्वर ! पुण्डरीकाक्ष ! गोविन्द ! गरुडध्वज ! आपको नमस्कार है । जनार्दन ! जगन्नाथ
! पद्मनाभ ! त्रिविक्रम ! दामोदर ! हृषीकेश ! वासुदेव ! आपको नमस्कार है ॥२१-२२॥
देव ! आप परिपूर्णतम
साक्षात् भगवान् हैं। इन दिनों भूतलका भारी भार हरने और सत्पुरुषोंका कल्याण करनेके
लिये अपने समस्त लोकोंको पूर्णतया शून्य करके यहाँ नन्दभवन में
प्रकट हुए हैं। वास्तव में तो आप परात्पर परमात्मा ही हैं। अंशांश,
अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण - समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो,
आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्वकी रक्षा करते हैं तथा वृन्दावनमें सरस रासमण्डलको
भी अलंकृत करते हैं ॥२३-२४॥
गोलोकनाथ ! गिरिराजपते
! परमेश्वर ! वृन्दावनाधीश्वर ! नित्यविहार- लीलाका विस्तार करनेवाले राधावल्लभ ! व्रजसुन्दरियोंके
मुखसे अपना यशोगान सुननेवाले गोविन्द ! गोकुलपते ! सर्वथा आपकी जय हो शोभाशालिनी निकुञ्जलताओंके
विकासके लिये आप ऋतुराज वसन्त हैं। श्रीराधिकाके वक्ष और कण्ठको विभूषित करने- वाले
रत्नहार हैं। श्रीरासमण्डलके पालक, व्रज- मण्डलके अधीश्वर तथा ब्रह्माण्ड-मण्डलकी भूमिके
संरक्षक हैं ॥ २५-२६
॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
राजन् ! तब श्रीराधा- सहित भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मन्द मन्द मुसकराते हुए मेघगर्जनकी-सी
गम्भीर वाणीमें मुनिसे बोले ॥ २७ ॥
श्रीभगवान् ने कहा- तुम
दोनोंने साठ हजार वर्षोंतक निरपेक्षभावसे तप किया है, इसीसे तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त
हुआ है। जो अकिंचन, शान्त तथा सर्वत्र शत्रुभावनासे रहित है, वही मेरा सखा है। अतः
तुम दोनों अपने मनके अनुसार अभीष्ट वर माँगो ।। २८-२९ ।
शिव और आसुरि बोले— भूमन्
! आपको नमस्कार हैं। आप दोनों प्रिया-प्रियतमके चरण- कमलोंकी संनिधिमें सदा ही वृन्दावनके
भीतर हमारा निवास हो। आपके चरणसे भिन्न और कोई वर हमें नहीं रुचता है; अतः आप दोनों—
श्रीहरि एवं श्रीराधिका को हमारा सादर नमस्कार है ॥ ३० ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
राजन् ! तब भगवान् ने 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार
कर ली। तभी से शिव और आसुरिमुनि मनोहर वृन्दावन में वंशीवट के समीप रासमण्डल से
मण्डित कालिन्दी के निकटवर्ती पुलिनपर निकुञ्ज
के पास ही नित्य निवास करने लगे ।। ३१-३२ ॥
तदनन्तर श्रीकृष्णने
जहाँ कमलपुष्पोंके सौरभयुक्त पराग उड़ रहे थे और भ्रमर मँडरा रहे थे, उस पद्माकर वनमें
गोपाङ्गनाओंके साथ रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। मिथिलेश्वर ! उस समय श्रीकृष्णने छः महीनेकी
रात बनायी। परंतु उस रासलीलामें सम्मिलित हुई गोपियों- के लिये वह सुख और आमोदसे पूर्ण
रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। राजन् ! उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये। अरुणोदयकी वेलामें
वे सभी व्रजसुन्दरियाँ झुंड की झुंड एक साथ होकर अपने घरको लौटीं । श्रीनन्दनन्दन साक्षात्
नन्दमन्दिर में चले गये और श्रीवृषभानुनन्दिनी तुरंत ही वृषभानुपुरमें
जा पहुँचीं ॥ ३३-३६॥
इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका
यह मनोहर रासोपाख्यान सुनाया गया, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यप्रद, मनोरथपूरक
तथा मङ्गलका धाम हैं । साधारण लोगोंको यह धर्म, अर्थ और काम प्रदान करता है तथा मुमुक्षुओंको
मोक्ष देनेवाला है। राजन् ! यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने कहा। अब और क्या सुनना
चाहते हो ? ।। ३७-३८ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'रासक्रीडाका वर्णन' नामक पच्चीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ।। २५ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से