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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
कटिदेशात्स्वर्णभूमिर्दिव्यरत्नखचित्प्रभा
।
उदरे रोमराजिश्च माधव्यो विस्तृता लताः ॥१५॥
नानापक्षिगणैर्व्याप्ता ध्वनद्भ्रमरभूषिताः ।
सुपुष्पफलभारैश्च नताः सत्कुलजा इव ॥१६॥
श्रीनाभिपंकजात्तस्य पंकजानि सहस्रशः ।
सरःसु हरिलोकस्य तानि रेजुरितस्ततः ॥१७॥
त्रिबलिप्रांततो वायुर्मन्दगाम्यतिशीतलः ।
जत्रुदेशाच्छुभा जाता मथुरा द्वारकापुरी ॥१८॥
भुजाभ्यां श्रीहरेर्जाताः श्रीदामाद्यष्ट पार्षदाः ।
नन्दाश्च मणिबंधाभ्यामुपनन्दाः कराग्रतः ॥१९॥
श्रीकृष्णबाहुमूलाभ्यां सर्वे वै वृषभानवः ।
कृष्णरोमसमुद्भूताः सर्वे गोपगणा नृप ॥२०॥
श्रीकृष्णमनसो गावो वृषा धर्मधुरन्धराः ।
बुद्धेर्यवसगुल्मानि बभूवुमैंथिलेश्वर ॥२१॥
तद्वामांसात्समुद्भूतं गौरं तेजः स्फुरत्प्रभम् ।
लीला श्रीर्भूश्च विरजा तस्माज्जाता हरेः प्रियाः ॥२२॥
लीलावती प्रिया तस्य तां राधां तु विदुः परे ।
श्रीराधाया भुजाभ्यां तु विशाखा ललिता सखी ॥२३॥
सहचर्यस्तथा गोप्यो राधारोमोद्भवा नृप ।
एवं गोलोकरचनां चकार मधुसूदनः ॥२४॥
विधाय सर्व निजलोकमित्थं
श्रीराधया तत्र रराज राजन् ।
असंख्यलोकाण्डपतिः परात्मा
परः परेशः परिपूर्णदेवः ॥२५॥
तत्रैकदा सुन्दररासमण्डले
स्फुरत्क्वणन्नूपुरशब्दसंकुले ।
सुच्छत्रमुक्ताफलदामजावृत-
स्रवद्बृहद्बिन्दुविराजितांगणे ॥२६॥
श्रीमालतीनां सुवितानजालतः
स्वतः स्रवत्सन्मकरन्दगन्धिते ।
मृदङ्गतालध्वनिवेणुनादिते
सुकण्ठगीतादिमनोहरे परे ॥२७॥
श्रीसुन्दरीरासरसे मनोरमे
मध्यस्थितं कोटिमनोजमोहनम् ।
जगाद राधापतिमूर्जया गिरा
कृत्वा कटाक्षं रसदानकौशलम् ॥२८॥
राधोवाच -
यदि रासे प्रसन्नोऽसि मम प्रेम्णा जगत्पते ।
तदाहं प्रार्थनां त्वां तु करोमि मनसि स्थिताम् ॥२९॥
श्रीभगवानुवाच -
इच्छां वरय वामोरु या ते मनसि वर्त्तते ।
न देयं यदि यद्वस्तु प्रेम्णा दास्यामि तत्प्रिये ॥३०॥
राधोवाच -
वृन्दावने दिव्यनिकुंजपार्श्वे
कृष्णातटे रासरसाय योग्यम् ।
रहःस्थलं त्वं कुरुतान्मनोज्ञं
मनोरथोऽयं मम देवदेव ॥३१॥
उनके कटिप्रदेशसे दिव्य रत्नोंद्वारा जटित प्रभामयी
स्वर्णभूमि का प्राकट्य हुआ और उनके उदरमें जो रोमावलियाँ हैं,
वे ही विस्तृत माधवी लताएँ बन गयीं। उन लताओंमें नाना प्रकारके पक्षियोंके झुंड सब
ओर फैलकर कलरव कर रहे थे। गुंजार करते हुए भ्रमर उन लता - कुञ्जोंकी शोभा बढ़ा रहे
थे ।। १५ ।।
वे लताएँ सुन्दर फूलों और फलोंके भारसे इस प्रकार झुकी
हुई थीं, जैसे उत्तम कुलकी कन्याएँ लज्जा और विनयके भारसे नतमस्तक रहा करती हैं भगवान्के
नाभिकमलसे सहस्रों कमल प्रकट हुए, जो हरिलोकके सरोवरोंमें इधर-उधर सुशोभित हो रहे थे।
भगवान् के त्रिवली - प्रान्तसे मन्दगामी और अत्यन्त शीतल समीर
प्रकट हुआ और उनके गलेकी हँसुलीसे 'मथुरा' तथा 'द्वारका' इन दो पुरियोंका प्रादुर्भाव
हुआ ।। १६–१८ ॥
श्रीहरिकी दोनों भुजाओंसे 'श्रीदामा' आदि आठ पार्षद
उत्पन्न हुए। कलाइयों से 'नन्द' और कराग्रभाग से
'उपनन्द' प्रकट हुए। श्रीकृष्णकी भुजाओं के मूल- भागों से समस्त वृषभानुओं का प्रादुर्भाव हुआ। नरेश्वर
! समस्त गोपगण श्रीकृष्ण के रोमसे उत्पन्न हुए हैं। श्रीकृष्णके
मनसे गौओं तथा धर्मधुरंधर वृषभो का प्राकट्य हुआ । मैथिलेश्वर
! उनकी बुद्धिसे घास और झाड़ियाँ प्रकट हुईं ।। १९-२१ ।।
भगवान् के बायें कंधे से एक परम कान्तिमान् गौर तेज प्रकट हुआ, जिससे लीला, श्री, भूदेवी,
विरजा तथा अन्यान्य हरिप्रियाएँ आविर्भूत हुईं। भगवान्को प्रियतमा जो 'श्रीराधा' हैं,
उन्हींको दूसरे लोग 'लीलावती' या 'लीला' के नामसे जानते हैं। श्रीराधाकी दोनों भुजाओंसे
'विशाखा' और 'ललिता' – इन दो सखियोंका आविर्भाव हुआ । नरेश्वर ! दूसरी दूसरी जो सहचरी
गोपियाँ हैं, वे सब राधा के रोम से प्रकट
हुई हैं। इस प्रकार मधुसूदन ने गोलोक की
रचना की ।। २२ - २४ ।।
राजन् ! इस तरह अपने सम्पूर्ण लोककी रचना करके असंख्य
ब्रह्माण्डोंके अधिपति, परात्पर, परमात्मा, परमेश्वर, परिपूर्ण देव श्रीहरि वहाँ श्रीराधाके
साथ सुशोभित हुए ।। २५ ।।
उस गोलोक में एक दिन सुन्दर रासमण्डल में, जहाँ बजते हुए नूपुरों का मधुर शब्द गूँज
रहा था, जहाँ का आँगन सुन्दर छत्रमें लगी हुई मुक्ताफल की लड़ियों से अमृत की
वर्षा होती रहने के कारण रसकी बड़ी-बड़ी बूँदोंसे सुशोभित था; मालती
के चंदोवों से स्वतः झरते हुए मकरन्द और गन्धसे सरस एवं
सुवासित था; जहाँ मृदङ्ग, तालध्वनि और वंशीनाद सब ओर व्याप्त था, जो मधुरकण्ठ से गाये गये गीत आदिके कारण परम मनोहर प्रतीत होता था तथा सुन्दरियोंके
रासरससे परिपूर्ण एवं परम मनोरम था; उसके मध्यभागमें स्थित कोटिमनोजमोहन हृदय- वल्लभसे
श्रीराधाने रसदान-कुशल कटाक्षपात करके गम्भीर वाणीमें कहा ।। २६–२८
।।
श्रीराधा बोलीं- जगदीश्वर ! यदि आप रासमें मेरे प्रेमसे
प्रसन्न हैं तो मैं आपके सामने अपने मनकी प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हूँ ॥ २९ ॥
श्रीभगवान् बोले – प्रिये ! वामोरु !! तुम्हारे मनमें
जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। तुम्हारे प्रेमके कारण मैं तुम्हें अदेय वस्तु भी दे दूँगा
॥ ३० ॥
श्रीराधाने कहा- वृन्दावनमें यमुनाके तटपर दिव्य निकुञ्जके
पार्श्वभागमें आप रासरसके योग्य कोई एकान्त एवं मनोरम स्थान प्रकट कीजिये । देवदेव
! यही मेरा मनोरथ है ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से