शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) दूसरा अध्याय

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

दूसरा अध्याय

 

ऋषिरूपा गोपियों का उपाख्यान – वङ्गदेश के मङ्गल-गोप की कन्याओं का नन्दराज के व्रज में आगमन तथा यमुनाजी के तटपर रासमण्डल में प्रवेश

 

श्रीनारद उवाच

गोपीनामृषिरूपाणामाख्यानं शृणु मैथिल ।
 सर्वपापहरं पुण्यं कृष्णभक्तिविवर्धनम् ॥१॥
 वङ्गेषु मङ्गलो नाम गोप आसीन्महामनाः ।
 लक्ष्मीवाञ्छ्रुतसम्पन्नो नवलक्षगवां पतिः ॥२॥
 भार्याः पञ्चसहस्राणि बभूवुस्तस्य मैथिल ।
 कदाचिद्दैवयोगेन धनं सर्वं क्षयं गतम् ॥३॥
 चौरैर्नीतास्तस्य गावः काश्चिद्राज्ञा हृता बलात् ।
 एवं दैन्ये च सम्प्राप्ते दुःखितो मङ्गलोऽभवत् ॥४॥
 तदा श्रीरामस्य वराद्दण्डकारण्यवासिनः ।
 ऋषयः स्त्रीत्वमापन्ना बभूवुस्तस्य कन्यकाः ॥५॥
 दृष्ट्वा कन्यासमूहं स दुःखी गोपोऽथ मङ्गलः ।
 उवाच दैन्यदुःखाढ्य आधिव्याधिसमाकुलः ॥६॥


 मङ्गल उवाच -
किं करोमि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहति ।
 श्रीर्न भूतिर्नाभिजनो न बलं मेऽस्ति साम्प्रतम् ॥७॥
 धनं विना कथं चासां विवाहो हा भविष्यति ।
 भोजने यत्र सन्देहो धनाश तत्र कीदृशी ॥८॥
 सति दैन्ये कन्यकाः स्युः काकतालीयवद्गृहे ।
 तस्मात्कस्यापि राज्ञस्तु धनिनो बलिनस्त्वहम् ॥९॥
 दास्याम्येताः कन्यकाश्च कन्यानां सौख्यहेतवे ।
 कदर्थीकृत्य ता कन्याः एवं बुद्ध्या स्थितोऽभवत् ॥
 तदैव माथुराद्देशाद्गोपश्चैकः समागतः ॥१०॥


 नारद उवाच -
तीर्थयायी जयो नाम वृद्धोबुद्धिमतां वरः ।
 तन्मुखान्नन्दराजस्य श्रुतं वैभवमद्भुतम् ॥११॥
 नन्दराजस्य बलये मङ्गलो दैन्यपीडितः ।
 विचिन्त्य प्रेषयामास कन्यकाश्चारुलोचनाः ॥ १२ ॥
 ता नन्दराजस्य गृहे कन्यका रत्नभूषिताः ।
 गवां गोमयहारिण्यो बभूवुर्गोव्रजेषु च ॥ १३ ॥
 श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा कन्या जातिस्मराश्च ताः ।
 कालिन्दीसेवनं चक्रुर्नित्यं श्रीकृष्णहेतवे ॥ १४ ॥
 अथैकदा श्यामलाङ्गी कालिन्दी दीर्घलोचना ।

ताभ्यः स्वदर्शनं दत्वा वरं दातुं समुद्यता ॥ १५ ॥
 ता वव्रिरे व्रजेशस्य पुत्रो भूयात्पतिश्च नः ।
 तथास्तु चोक्त्वा कालिन्दी तत्रैवान्तरधीयत ॥ १६ ॥
 ताः प्राप्ता वृन्दकारण्ये कार्तिक्यां रासमण्डले ।
 ताभिः सार्धं हरी रेमे सुरीभिः सुरराडिव ॥ १७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— मैथिल ! अब तुम ऋषिरूपा गोपियोंकी कथा सुनो। वह सब पापोंको हर लेनेवाली, परम पावन तथा श्रीकृष्णके प्रति भक्ति- भावकी वृद्धि करनेवाली है । वङ्गदेशमें मङ्गल नामसे प्रसिद्ध एक महामनस्वी गोप था, जो लक्ष्मीवान्, शास्त्रज्ञानसे सम्पन्न तथा नौ लाख गौओंका स्वामी था। मिथिलेश्वर ! उसके पाँच हजार पत्नियाँ थीं। किसी समय दैवयोगसे उसका सारा धन नष्ट हो गया ॥ १-३ ॥

चोरों ने उसकी गौओंका अपहरण कर लिया। कुछ गौओंको उस देशके राजाने बलपूर्वक अपने अधिकारमें कर लिया। इस प्रकार दीनता प्राप्त होनेपर मङ्गल-गोप बहुत दुःखी हो गया । उन्हीं दिनों श्रीरामचन्द्रजी के वरदानसे स्त्रीभावको प्राप्त हुए दण्डकारण्यके निवासी ऋषि उसकी कन्याएँ हो गये। उस कन्या - समूहको देखकर दुःखी गोप मङ्गल और भी दुःखमें डूब गया और आधि-व्याधिस व्याकुल रहने लगा। उसने मन-ही-मन इस प्रकार कहा-- ॥ १ -६ ॥

मङ्गल बोला- क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कौन मेरा दुःख दूर करेगा ? इस समय मेरे पास न तो लक्ष्मी है, न ऐश्वर्य है, न कुटुम्बीजन हैं और न कोई बल ही है । हाय ! धनके बिना इन कन्याओंका विवाह कैसे होगा ? जहाँ भोजनमें भी संदेह हो, वहाँ धनकी कैसी आशा ? दीनता तो थी ही। काकतालीय न्यायसे कन्याएँ भी इस घरमें आ गयीं। इसलिये किसी धनवान् और बलवान् राजाको ये कन्याएँ अर्पित करूँगा, तभी इन कन्याओंको सुख मिलेगा ।। ७ – ९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उन कन्याओंकी कोई परवा न करके उसने अपनी ही बुद्धिसे ऐसा निश्चय कर लिया और उसीपर डटा रहा। उन्हीं दिनों मथुरामण्डलसे एक गोप उसके यहाँ आया । वह तीर्थयात्री था। उसका नाम था जय । वह बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और वृद्ध था। उसके मुखसे मङ्गल ने नन्दराजके अद्भुत वैभवका वर्णन सुना ।। १०११

दीनता से पीड़ित मङ्गल ने बहुत सोच-विचारकर अपनी चारु- लोचना कन्याओंको नन्दराजके व्रजमण्डलमें भेज दिया। नन्दराजके घर में जाकर वे रत्नमय भूषणोंसे विभूषित कन्याएँ उनके गोष्ठमें गौओंका गोबर उठानेका काम करने लगीं। वहाँ सुन्दर श्रीकृष्णको देखकर उन कन्याओंको अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण हो आया और वे श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये नित्य यमुनाजीकी सेवा-पूजा करने लगीं ।। १२१४

तदनन्तर एक दिन श्यामल अङ्गोंवाली विशाललोचना यमुनाजी उन सबको दर्शन दे, वर-प्रदान करने के लिये उद्यत हुईं। उन गोपकन्याओं ने यह वर माँगा कि 'व्रजेश्वर नन्दराज के पुत्र श्रीकृष्ण हमारे पति हों।' तब 'तथास्तु' कहकर यमुना वहीं अन्तर्धान हो गयीं। वे सब कन्याएँ वृन्दावन में कार्तिक पूर्णिमाकी रात को रासमण्डल में पहुँचीं। वहाँ श्रीहरि ने उनके साथ उसी तरह विहार किया, जैसे देवाङ्गनाओं के साथ देवराज इन्द्र किया करते हैं ॥ १- १७ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'ऋषिरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भागवत के दस लक्षण

गतिं जिगीषतः पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम् ।
पद्भ्यां  यज्ञः स्वयं हव्यं कर्मभिः क्रियते नृभिः ॥ २५ ॥
निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानन्द अमृतार्थिनः ।
उपस्थ आसीत् कामानां प्रियं तद् उभयाश्रयम् ॥ २६ ॥
उत्सिसृक्षोः धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम् ।
ततः पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रयः ॥ २७ ॥
आसिसृप्सोः पुरः पुर्या नाभिद्वारं अपानतः ।
तत्र अपानः ततो मृत्युः पृथक्त्वं उभयाश्रयम् ॥ २८ ॥

जब उन्हें (विराट् पुरुष  को) अभीष्ट स्थान पर जाने की इच्छा हुई, तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणोंके साथ ही चरण-इन्द्रियके अधिष्ठातारूपमें वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान्‌ विष्णु स्थित हो गये और उन्हींमें चलनारूप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रियसे चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते हैं ॥ २५ ॥ सन्तान, रति और स्वर्ग-भोगकी कामना होनेपर विराट् पुरुषके शरीरमें लिङ्गकी उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनोंके आश्रय रहनेवाले कामसुखका आविर्भाव हुआ ॥ २६ ॥ जब उन्हें मलत्यागकी इच्छा हुई, तब गुदाद्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उसमें पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए। इन्हीं दोनोंके द्वारा मलत्यागकी क्रिया सम्पन्न होती है ॥ २७ ॥  अपानमार्ग-द्वारा एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जानेकी इच्छा होनेपर नाभिद्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनोंके आश्रयसे ही प्राण और अपानका बिछोह यानी मृत्यु होती है ॥ २८ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 26 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पहला अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण

 

 सुखेनातः प्रगन्तव्यं भवतीभिर्यदा स्वतः ।
 यमुनामेत्य चैतद्वै वक्तव्यं मार्गहेतवे ॥ ३६ ॥
 यदि दूर्वारसं पीत्वा दुर्वासाः केवलं क्षितौ ।
 व्रती निरन्नो निर्वारि वर्तते पृथिवीतले ॥ ३७ ॥
 तर्हि नो देहि मार्गं वै कालिंदि सरितां वरे ।
 इत्युक्ते वचने कृष्णा मार्गं वो दास्यति स्वतः ॥ ३८ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचो गोप्यो नत्वा तं मुनिपुंगवम् ।
 यमुनामेत्य मुन्युक्तं चोक्त्वा तीर्त्वा नदीं नृप ॥ ३९ ॥
 श्रीकृष्णपार्श्वमाजग्मुर्विस्मिता मंगलायनाः ॥ ४० ॥
 अथ रासे गोपवध्वः सन्देहं मनसोत्थितम् ।
 पप्रच्छुः श्रीहरिं वीक्ष्य रहः पूर्णमनोरथाः ॥ ४१ ॥


 गोप्य ऊचुः -
दुर्वाससो दर्शनं भोः कृतमस्माभिरग्रतः ।
 युवयोर्वाक्यतश्चात्र सन्देहोऽयं प्रजायते ॥ ४२ ॥
 यथा गुरुस्तथा शिष्यो मृषावादी न संशयः ।
 जारस्त्वमसि गोपीनां रसिको बाल्यतः प्रभो ॥ ४३ ॥
 कथं बालयतिस्त्वं वै वद तद्‌वृजिनार्दन ।
 कथं दूर्वारसं पीत्वा दुर्वासा बहुभुङ्‌मुनिः ।
 नो जात एष सन्देहः पश्यन्तीनां व्रजेश्वर ॥ ४४ ॥


 श्रीभगवानुवाच -
निर्ममो निरहंकारः समानः सर्वगः परः ।
 सदा वैषम्यरहितो निर्गुणोऽहं न संशयः ॥ ४५ ॥
 तथापि भक्तान् भजतो भजेऽहं वै यथा तथा ।
 तथैव साधुर्ज्ञानी वै वैषम्यरहितः सदा ॥ ४६ ॥
 न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् ।
 जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥ ४७ ॥
 यस्य सर्वे समारंभाः कामसंकल्पविर्जिताः ।
 ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ ४८ ॥
 निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
 शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४९ ॥
 न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
 तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ५० ॥
 ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः ।
 लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा ॥ ५१ ॥
 तस्मान्मुनिस्तु दुर्वासा बहुभुक् त्वद्धिते रतः ।
 न तस्य भोजनेच्छा स्याद्दूर्वारसमिताशनः ॥ ५२ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचो गोप्यः सर्वास्ताश्छिन्नसंशयाः ।
 श्रुतिरूपा ज्ञानमय्यो बभूवुर्मैथिलेश्वर ॥ ५३ ॥

मुनि बोले- गोपियो ! तुम सब यहाँसे सुखपूर्वक चली जाओ। जब यमुनाजीके किनारे पहुँचो, तब मार्गके लिये इस प्रकार कहना - 'यदि दुर्वासामुनि इस भूतलपर केवल दुर्वाका रस पीकर रहते हों, कभी अन्न और जल न लेकर व्रतका पालन करते हों तो सरिताओंकी शिरोमणि यमुनाजी ! हमें मार्ग दे दो।' ऐसी बात कहनेपर यमुनाजी तुम्हें स्वतः मार्ग दे देंगी ॥ ३६- ३८ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! यह सुनकर गोपियाँ उन मुनिपुंगवको प्रणाण करके यमुनाके तटपर आयीं और मुनि की बतायी हुई बात कहकर नदी पार हो श्रीकृष्ण के पास आ पहुँचीं। वे मङ्गलधामा गोपियाँ इस यात्रा के विचित्र अनुभव से विस्मित थीं। तदनन्तर रास में गोपाङ्गनाओं ने श्रीकृष्णकी ओर देखकर अपने मनमें उठे हुए संदेहको उनसे पूछा । एकान्तमें श्रीहरि ने उन सबका मनोरथ पूर्ण कर दिया था ।। ३९ –४१ ॥

गोपियाँ बोलीं- प्रभो ! हमने दुर्वासा मुनि का दर्शन उनके सामने जाकर किया है; किंतु आप दोनों के वचनों को सुनकर उनकी सत्यता के सम्बन्ध में हमारे मन में संदेह उत्पन्न हो गया है ।।४२

जैसे गुरुजी असत्यवादी हैं, उसी तरह चेलाजी भी मिथ्यावादी हैं— इसमें संशय नहीं है । अघनाशन! आप तो गोपियों के उपपति और बचपन से ही रसिक हैं, फिर आप बाल ब्रह्मचारी कैसे हुए— यह हमें स्पष्ट बताइये और हमारे सामने बहुत-सा अन्न (भार-के-भार छप्पन भोग) खा जानेवाले ये दुर्वासामुनि केवल दुर्वाका रस पीकर रहनेवाले कैसे हैं ? व्रजेश्वर ! हमारे मनमें यह भारी संदेह उठा है ॥ ४ – ४४ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा— गोपियो ! मैं ममता और अहंकारसे रहित, सबके प्रति समान भाव रखने वाला, सर्वव्यापी, सबसे उत्कृष्ट, सदा विषमताशून्य तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हूँ — इसमें संशय नहीं है। तथापि जो भक्त मेरा जिस प्रकार भजन करते हैं, उनका उसी प्रकार मैं भी भजन करता हूँ। इसी प्रकार ज्ञानी साधु-महात्मा भी सदा विषम भावनासे रहित होते हैं ।। ४५ –४

योगयुक्त विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें आसक्त हुए अज्ञानीजनों में बुद्धि-भेद न उत्पन्न करें। उनसे सदा समस्त कर्मों का सेवन ही कराये। जिस पुरुषके सभी समारम्भ (आयोजन) कामना और संकल्पसे शून्य होते हैं, उनके सारे कर्म ज्ञानरूपी अग्नि में दग्ध हो जाते हैं (अर्थात् उनके लिये वे कर्म बन्धनकारक नहीं होते) । ऐसे पुरुषको ज्ञानीजन पण्डित (तत्त्वज्ञ) कहते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जिसने चित्त और बुद्धि को अपने वश में कर रखा है तथा जो समस्त संग्रह - परिग्रह छोड़ चुका है, वह केवल शरीर - निर्वाह सम्बन्धी कर्म करता हुआ किल्विष (कर्मजनित शुभाशुभ फल) को नहीं प्राप्त होता ।। ४७ –४

इस संसार में ज्ञानके समान पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। योगसिद्ध पुरुष समयानुसार स्वयं ही अपने-आपमें उस ज्ञानको प्राप्त कर लेता है। जो समस्त कर्मोंको ब्रह्मार्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह पापसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्र जलसे । इसलिये दुर्वासामुनि तुम सबके हित साधनमें तत्पर होकर बहुत खानेवाले हो गये । स्वतः उन्हें कभी भोजनकी इच्छा नहीं होती। वे केवल परिमित दुर्वारसका ही आहार करते हैं ।। ५०-५२ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं— मैथिलेश्वर ! श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर समस्त गोपियोंका संशय नष्ट हो गया। वे श्रुतिरूपा गोपाङ्गनाएँ ज्ञानमयी हो गयीं ॥ ५३ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रुतिरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भागवत के दस लक्षण

यदाऽऽत्मनि निरालोकं आत्मानं च दिदृक्षतः ।
निर्भिन्ने ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिः चक्षुः गुणग्रहः ॥ २१ ॥
बोध्यमानस्य ऋषिभिः आत्मनः तत् जिघृक्षतः ।
कर्णौ च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं गुणग्रहः ॥ २२ ॥
वस्तुनो मृदुकाठिन्य लघुगुर्वोष्ण शीतताम् ।
जिघृक्षतः त्वङ् निर्भिन्ना तस्यां रोम महीरुहाः ।
तत्र चान्तर्बहिर्वातः त्वचा लब्धगुणो वृतः ॥ २३ ॥
हस्तौ रुरुहतुः तस्य नाना कर्म चिकीर्षया ।
तयोस्तु बलमिन्द्रश्च आदानं उभयाश्रयम् ॥ २४ ॥

पहले उनके (विराट् पुरुष के ) शरीर में प्रकाश नहीं था; फिर जब उन्हें अपनेको तथा दूसरी वस्तुओंको देखनेकी इच्छा हुई, तब नेत्रोंके छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हींसे रूपका ग्रहण होने लगा ॥ २१ ॥ 
जब वेदरूप ऋषि विराट् पुरुष को स्तुतियों के द्वारा जगाने लगे, तब उन्हें सुननेकी इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी अधिष्ठातृ-देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसीसे शब्द सुनायी पड़ता है ॥ २२ ॥ जब उन्होंने वस्तुओं की कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीरमें चर्म प्रकट हुआ। पृथ्वी में से जैसे वृक्ष निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्ममें रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर-बाहर रहनेवाला वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करनेवाली त्वचा-इन्द्रिय भी साथ-ही-साथ शरीरमें चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्शका अनुभव होने लगा ॥ २३ ॥ जब उन्हें अनेकों प्रकार के कर्म करनेकी इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उनके अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए और दोनों के आश्रय से होने वाला ग्रहणरूप कर्म भी प्रकट हो गया ॥२४॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 25 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पहला अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण

 

श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा तत्परमं वाक्यं गोप्यः सर्वास्तु विस्मिताः ।
 कृतांजलिपुटा ऊचुः श्रीकृष्णं नम्रकंधराः ॥ १७ ॥


 गोप्य ऊचुः -
परिपूर्णतमस्यापि दुर्वासास्ते गुरुः स्मृतः ।
 अहो तद्दर्शनं कर्तुं मनो नश्चोद्यतं प्रभो ॥ १८ ॥
 अद्य देव निशीथिन्या व्यतीते प्रहरद्वये ।
 कथं तद्दर्शनं भूयादस्माकं परमेश्वर ॥ १९ ॥
 तथा मध्ये दीर्घनदी यमुना प्रतिबन्धिका ।
 कथं तत्तरणं नावं ऋते देव भविष्यति ॥ २० ॥


 श्रीभगवानुवाच -
अवश्यमेव गन्तव्यं भवतीभिर्यदा प्रियाः ।
 यमुनामेत्य चैतद्वै वक्तव्यं मार्गहेतवे ॥ २१ ॥
 यदि कृष्णो बालयतिः सर्वदोषविवर्जितः ।
 तर्हि नो देहि मार्गं वै कालिन्दि सरितां वरे ॥ २२ ॥
 इत्युक्ते वचने कृष्णा मार्गं वो दास्यति स्वतः ।
 सुखेन तेन व्रजत यूयं सर्वा व्रजांगनाः ॥ २३ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वाऽथ तद्वाक्यं पात्रैर्दीर्घैर्व्रजांगनाः ।
 षट्पंचाशत्तमान् भोगान् नीत्वा सर्वाः पृथक्‌पृथक् ॥ २४ ॥
 यमुनामेत्य हर्युक्तं जगुरानतकंधराः ।
 सद्यः कृष्णा ददौ मार्गं गोपीभ्यो मैथिलेश्वर ॥ २५ ॥
 तेन गोप्यो गताः सर्वा भाण्डीरं चातिविस्मिताः ।
 ततः प्रदक्षिणीकृत्य मुनिं दुर्वासनं च ताः ॥ २६ ॥
 नत्वा तद्दर्शनं चक्रुः पुरो धृत्वाऽशनं वहु ।
 मे पूर्वं चापि मे पूर्वमन्नं भोज्यं त्वया मुने ॥ २७ ॥
 एवं विवदमानानां गोपीनां भक्तिलक्षणम् ।
 विज्ञाय मुनिशार्दूलः प्रोवाच विमलं वचः ॥ २८ ॥


 मुनिरुवाच -
गोप्यः परमहंसोऽहं कृतकृत्यो हि निष्क्रियः ।
 तस्मान्मुखे मे दातव्यं स्वं स्वं चाप्यशनं करैः ॥ २९ ॥

 श्रीनारद उवाच -
एवं विदारिते तेन मुखे गोप्योऽतिहर्षिताः ।
 षट्पंचाशत्तमान् भोगान् स्वान्स्वान् सर्वाः समाक्षिपन् ॥ ३० ॥
 क्षिपन्तीनां च गोपीनां पश्यंतीनां मुनीश्वरः ।
 जघास कोटिशो मारान् भोगान् सर्वान् क्षुधातुरः ॥ ३१ ॥
 विस्मितानां च गोपीनां पश्यंतीनां परस्परम् ।
 इत्थं शून्यानि पात्राणि बभूवुर्नृपसत्तम ॥ ३२ ॥
 अथ गोप्यो मुनिं शांतं नत्वा तं भक्तवत्सलम् ।
 विस्मिताः प्रणताः प्राहुः सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ ३३ ॥


 गोप्य ऊचुः -
मुने आगमनात्पूर्वं कृष्णोक्तवचसा नदीम् ।
 तीर्त्वाऽऽगतास्त्वत्समीपं दर्शनार्थं शुभेच्छया ॥ ३४ ॥
 इतः कथं गमिष्यामः सन्देहोऽयं महानभूत् ।
 तद्विधेहि नमस्तुभ्यं येन पंथा लघुर्भवेत् ॥ ३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्ण का यह उत्तम वचन सुनकर समस्त गोपाङ्गनाओं को बड़ा विस्मय हुआ । वे हाथ जोड़कर सिर झुकाकर श्रीकृष्ण- से बोलीं ॥ १७ ॥

गोपियों ने कहा - प्रभो ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। आप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वरके भी गुरु दुर्वासामुनि हैं, यह जानकर हमारा मन उनके दर्शनके लिये उत्सुक हो उठा है। देव! परमेश्वर !! आज रातके दो पहर बीत जानेपर उनका दर्शन हमें कैसे प्राप्त हो सकता है। बीचमें विशाल नदी यमुना प्रति बन्धक बनकर खड़ी है; अतः देव! बिना किसी नावके यमुनाजीको पार करना कैसे सम्भव होगा ? ।। १८ - २० ॥

श्रीभगवान् बोले- प्रियाओ ! यदि तुमलोगों- को अवश्य ही वहाँ जाना है तो यमुनाजीके पास पहुँचकर मार्ग प्राप्त करनेके लिये इस प्रकार कहना- 'यदि श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी और सब प्रकारके दोषोंसे रहित हैं तो सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुनाजी ! हमारे लिये मार्ग दे दो ।' यह बात कहनेपर यमुना तुम्हें स्वतः मार्ग दे देंगी। उस मार्ग से तुम सभी व्रजाङ्गनाएँ सुखपूर्वक चली जाना ॥ २१-२३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उनका यह वचन सुनकर सभी गोपियाँ अलग-अलग विशाल पात्रोंमें छप्पन भोग लेकर यमुनाजीके तटपर गयीं और सिर झुकाकर उन्होंने श्रीकृष्णकी कही हुई बात दुहरा दी। मैथिलेश्वर ! फिर तो तत्काल यमुनाजीने उन गोपियोंके लिये मार्ग दे दिया । उस मार्गसे सभी गोपियाँ अत्यन्त विस्मित हो, भाण्डीर-वटके पास पहुँचीं। वहाँ उन्होंने दुर्वासामुनिकी परिक्रमा की और उनके आगे बहुत-सी भोजन सामग्री रखकर उनका दर्शन किया। फिर सब- की-सब कहने लगीं- 'मुने! पहले मेरा अन्न ग्रहण कीजिये, पहले मेरा अन्न भोजन कीजिये।' इस तरह परस्पर विवाद करती हुई गोपियोंका भक्तिसूचक भाव जानकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने यह विमल वचन कहा ।। २४-२८ ॥

मुनि बोले- गोपियो ! मैं कृतकृत्य परमहंस हूँ, निष्क्रिय हूँ । इसलिये तुमलोग अपना-अपना भोजन अपने ही हाथोंसे मेरे मुँहमें डाल दो ।। २९ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर जब उन्होंने अपना मुँह फैलाया, तब सभी गोपियों ने अत्यन्त हर्ष के साथ अपने-अपने छप्पन भोगों को उनके मुँह में एक साथ ही डालना आरम्भ किया । अन्न डालती हुई उन गोपियों के देखते-देखते मुनीश्वर दुर्वासा क्षुधासे पीड़ित की भाँति उन समस्त भोगों को, जो करोड़ों भारसे कम न थे, चट कर गये। गोपियाँ आश्चर्यचकित हो एक-दूसरी की ओर देखने लगीं। नृपश्रेष्ठ ! इस तरह उनके सारे बर्तन खाली हो गये । तत्पश्चात् उन परम शान्त और भक्तवत्सल मुनिको विस्मित हुई सभी गोपियोंने पूर्णमनोरथ होकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा ॥ ३० - ३३ ॥

गोपियोंने कहा – मुने! यहाँ आनेसे पूर्व श्रीकृष्णकी कही हुई बात दुहराकर मार्ग मिल जानेसे यमुनाजीको पार करके हमलोग आपके समीप दर्शन- की शुभ इच्छा लेकर यहाँ आ गयी थीं। अब इधरसे हम कैसे जायँगी, यह महान् संदेह हमारे मनमें हो गया है ! अतः आप ही ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मार्ग हलका हो जाय ।। ३४-३५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भागवत के दस लक्षण

अन्तः शरीर आकाशात् पुरुषस्य विचेष्टतः ।
ओजः सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महान् असुः ॥ १५ ॥
अनुप्राणन्ति यं प्राणाः प्राणन्तं सर्वजन्तुषु ।
अपानंतं अपानन्ति नरदेवं इवानुगाः ॥ १६ ॥
प्राणेन आक्षिपता क्षुत् तृड् अन्तरा जायते विभोः ।
पिपासतो जक्षतश्च प्राङ् मुखं निरभिद्यत ॥ १७ ॥
मुखतः तालु निर्भिन्नं जिह्वा तत्र उपजायते ।
ततो नानारसो जज्ञे जिह्वया योऽधिगम्यते ॥ १८ ॥
विवक्षोर्मुखतो भूम्नो वह्निर्वाग् व्याहृतं तयोः ।
जले वै तस्य सुचिरं निरोधः समजायत ॥ १९ ॥
नासिके निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति ।
तत्र वायुः गन्धवहो घ्राणो नसि जिघृक्षतः ॥ २० ॥

विराट् पुरुष के हिलने-डोलनेपर उनके शरीरमें रहनेवाले आकाशसे इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ॥ १५ ॥ जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही सब के शरीरोंमें प्राणके प्रबल रहने पर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती हैं ॥ १६ ॥ जब प्राण जोरसे आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुषको भूख-प्यासका अनुभव हुआ। खाने-पीनेकी इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीरमें मुख प्रकट हुआ ॥ १७ ॥ मुखसे तालु और तालुसे रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकारके रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है ॥ १८ ॥ जब उनकी इच्छा बोलनेकी हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके अधिष्ठातृ-देवता अग्नि और उनका विषय बोलना—ये तीनों प्रकट हुए। इसके बाद बहुत दिनोंतक उस जलमें ही वे रुके रहे ॥ १९ ॥ श्वासके वेग से नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघने की इच्छा हुई, तब उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्ध को फैलानेवाले वायुदेव प्रकट हुए ॥२०॥ 

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मंगलवार, 24 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पहला अध्याय (पोस्ट 01)

 

श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण

 

अतसीकुसुमोपमेयकांति-
     र्यमुनाकूलकदंबमध्यवर्ती ।
 नवगोपवधूविलासशाली
     वनमाली विरनोतु मंगलानि ॥ १ ॥
 परिकरीकृतपीतपटं हरिं
     शिखिकिरीटनतीकृतकंधरम् ।
 लकुटवेणुकरं चलकुण्डलं
     पटुतरं नटवेषधरं भजे ॥ २ ॥


 बहुलाश्व उवाच -
श्रुतिरूपादयो गोप्यो भूतपूर्वा वरान्मुने ।
 कथं श्रीकृष्णचन्द्रेण जाताः पूर्णमनोरथाः ॥ ३ ॥
 गोपालकृष्णचरितं पवित्रं परमाद्‌भुतम् ।
 एतद्‌वद महाबुद्धे त्वं परावरवित्तमः ॥ ४ ॥


 श्रीनारद उवाच -
श्रुतिरूपाश्च या गोप्यो गोपानां सुकुले व्रजे ।
 लेभिरे जन्म वैदेह शेषशायीवराच्छ्रुतात् ॥ ५ ॥
 कमनीयं नन्दसूनुं वीक्ष्य वृन्दावने च ताः ।
 वृन्दावनेश्वरीं वृन्दां भेजिरे तद्‌वरेच्छया ॥ ६ ॥
 वृन्दादत्ताद्‌वरादाशु प्रसन्नो भगवान् हरिः ।
 नित्यं तासां गृहे याति रासार्थं भक्तवत्सलः ॥ ७ ॥
 एकदा तु निशीथिन्या व्यतीते प्रहरद्वये ।
 रासार्थं भगवान् कृष्णः प्राप्तवान् तद्‌गृहान्नृप ॥ ८ ॥
 तदा उत्कंठिता गोप्यः कृत्वा तत्पूजनं परम् ।
 पप्रच्छुः परया भक्त्या गिरा मधुरया प्रभुम् ॥ ९ ॥


 गोप्य ऊचुः -
कथं न चागतः शीघ्रं नो गृहान् वृजिनार्दन ।
 उत्कंठितानां गोपीनां त्वयि चन्द्रे चकोरवत् ॥ १० ॥


 श्रीभगवानुवाच -
यो यस्य चित्ते वसति न स दूरे कदाचन ।
 खे सूर्यं कमलं भूमौ दृष्ट्वेदं स्फुटति प्रियाः ॥ ११ ॥
 भाण्डीरे मे गुरुः साक्षात् दुर्वासा भगवान् मुनिः ।
 आगतोऽद्य प्रियास्तस्य सेवार्थं गतवानहम् ॥ १२ ॥
 गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
 गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १३ ॥
 अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
 चक्षुरुमीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १४ ॥
 स्वगुरुं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित् ।
 न मर्त्यबुद्ध्या सेवेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ १५ ॥
 तस्मात्तत्पूजनं कृत्वा नत्वा तत्पादपंकजम् ।
 आगतोऽहं विलंबेन भवतीनां गृहान् प्रियाः ॥ १६ ॥

'जिनकी अङ्गकान्तिको अलसीके फूलकी उपमा दी जाती है, जो यमुनाकूलवर्ती कदम्बवृक्षके मूलभागमें विद्यमान हैं तथा नूतन गोपाङ्गनाओंके साथ लीला - विलास करते हुए अत्यन्त शोभा पा रहे हैं, वे वनमाली श्रीकृष्ण मङ्गलका विस्तार करें ॥ १ ॥ 'जिन्होंने पीताम्बरकी फेंट बाँध रखी है, जिनके मस्तकपर मोरपंखका मुकुट सुशोभित है और गर्दन एक ओर झुकी हुई है, जो लकुटी और वंशी हाथ में लिये हुए हैं और जिनके कानोंमें चञ्चल कुण्डल झिलमला रहे हैं, उन परम पटु, नटवेषधारी श्रीकृष्ण का मैं भजन (ध्यान) करता हूँ' ॥ २ ॥

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! श्रुतिरूपा आदि गोपियोंने, जो पूर्वप्रदत्तवरके अनुसार पहले ही व्रजमें प्रकट हो चुकी थीं, किस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका साहचर्य पाकर अपना मनोरथ पूर्ण किया था ? महाबुद्धे ! गोपाल श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र परम अद्भुत है, इसे कहिये, क्योंकि आप परापरवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ हैं ।। ३-४ ।।

श्रीनारदजीने कहा- विदेहराज ! श्रुतिरूपा जो गोपियाँ थीं, वे शेषशायी भगवान् विष्णुके पूर्वकथित वरसे व्रजवासी गोपोंके उत्तम कुलमें उत्पन्न हुईं। उन सबने वृन्दावनमें परम कमनीय नन्दनन्दन का दर्शन करके उन्हें वररूप में पाने की इच्छासे वृन्दावनेश्वरी वृन्दादेवी की समाराधना की। वृन्दा के दिये हुए वर से भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरि उनके ऊपर शीघ्र प्रसन्न हो गये और प्रतिदिन उनके घरों में रासक्रीड़ा के लिये जाने लगे ॥५-

नरेश्वर ! एक दिन रात में दो पहर बीत जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण रासके लिये उनके घर गये। उस समय उत्कण्ठित गोपियोंने उन परम प्रभुका अत्यन्त भक्ति- भावसे पूजन करके मधुर वाणीमें पूछा ॥ - ९॥

गोपियाँ बोलीं- अघनाशन श्रीकृष्ण ! जैसे चकोरी चन्द्रदर्शनके लिये उत्सुक रहती है, उसी प्रकार हम गोपाङ्गनाएँ आपसे मिलनेको उत्कण्ठित रहती हैं। अतः आप हमारे घर में शीघ्र क्यों नहीं आये ? ॥ १० ॥

श्रीभगवान् ने कहा – प्रियाओ ! जो जिसके हृदयमें वास करता है, वह उससे दूर कभी नहीं रहता । देखो न, सूर्य तो आकाशमें है और कमल भूमिपर; फिर भी वह उन्हें देखते ही खिल उठता है (वह सूर्य- को अपने अत्यन्त निकटस्थ अनुभव करता है) । प्रियाओ ! आज मेरे साक्षात् गुरु भगवान् दुर्वासामुनि भाण्डीर-वनमें पधारे हैं। उन्हींकी सेवाके लिये मैं चला गया था ॥११-१२

गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु भगवान् महेश्वर हैं और गुरु साक्षात् परम ब्रह्म हैं। उन श्रीगुरु को मेरा नमस्कार है। अज्ञानरूपी रतौंधी से अंधे हुए मनुष्य की दृष्टि को जिन्होंने ज्ञानाञ्जन की शलाका से खोल दिया है, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है। अपने गुरु को मेरा स्वरूप ही समझना चाहिये और कभी उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। गुरु सम्पूर्ण देवताओंके स्वरूप होते हैं। अतः साधारण मनुष्य समझकर उनकी सेवा नहीं करनी चाहिये। हे प्रियाओं ! मैं उनका पूजन करके तथा उनके चरणकमलोंमें प्रणाम करके तुम्हारे घर देरी से पहुँचा हूँ ॥ १– १६ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भागवत के दस लक्षण

पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदाऽसौ स विनिर्गतः ।
आत्मनोऽयनमन्विच्छन् अपः अस्राक्षीच्छुचिः शुचीः ॥ १० ॥
तास्ववात्सीत् स्वसृष्टासु सहस्रं परिवत्सरान् ।
तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भंवाः ॥ ११ ॥
द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यद् उपेक्षया ॥ १२ ॥
एको नानात्वमन्विच्छन् योगतल्पात् समुत्थितः ।
वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत् त्रिधा ॥ १३ ॥
अधिदैवं अथ अध्यात्मं अधिभूतमिति प्रभुः ।
अथैकं पौरुषं वीर्यं त्रिधा भिद्यत तच्छृणु ॥ १४ ॥

जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रह्माण्ड को फोडक़र निकला, तब वह अपने रहनेका स्थान ढूँढने लगा और स्थानकी इच्छासे उस शुद्ध-सङ्कल्प पुरुषने अत्यन्त पवित्र जलकी सृष्टि की ॥ १० ॥ 
विराट् पुरुषरूप ‘नर’ से उत्पन्न होनेके कारण ही जलका नाम ‘नार’ पड़ा। और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’में वह पुरुष एक हजार वर्षोंतक रहा, इसीसे उसका नाम ‘नारायण’ हुआ ॥ ११ ॥ उन नारायणभगवान्‌की कृपासे ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदिकी सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देनेपर और किसीका अस्तित्व नहीं रहता ॥ १२ ॥ उन अद्वितीय भगवान्‌ नारायणने योगनिद्रासे जगकर अनेक होनेकी इच्छा की। तब अपनी मायासे उन्होंने अखिल ब्रह्माण्डके बीजस्वरूप अपने सुवर्णमय वीर्यको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत। परीक्षित्‌ ! विराट् पुरुषका एक ही वीर्य तीन भागोंमें कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो ॥ १३-१४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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सोमवार, 23 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गिरिराज खण्ड)

ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

सिद्ध के द्वारा अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त का वर्णन तथा गोलोक से उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोक में गमन

 

श्रीनारद उवाच -
एवं प्रवदतस्तस्य गोलोकाच्च महारथः ॥१९॥
सहस्रादित्यसंकाशो हयायुतसमन्वितः ॥२०॥
सहस्रचक्रध्वनिभृल्लक्षपार्षदमण्डितः ।
मंजीरकिंकिणीजालो मनोहरतरो नृप ॥२१॥
पश्यतस्तस्य विप्रस्य तमानेतुं समागतः ।
तमागतं रथं दिव्यं नेमतुर्विप्रनिर्जरौ ॥२२॥
ततः समारुह्य रथं स सिद्धो
विरंजयन्मैथिल मण्डलं दिशाम् ।
श्रीकृष्णलोकं प्रययौ परात्परं
निकुंजलीलाललितं मनोहरम् ॥२३॥
विप्रोऽपि तस्मात् पुनरागतो गिरिं
गोवर्धनं सर्वगिरिन्द्रदैवतम् ।
प्रदक्षिणीकृत्य पुनः प्रणम्य तं
ययौ गृहं मैथिल तत्प्रभावित् ॥२४॥
इदं मया ते कथितं प्रचण्डं
सुमुक्तिदं श्रीगिरिराजखण्डम् ।
श्रुत्वा जनः पाप्यपि न प्रचण्डं
स्वप्नेऽपि पश्येद्यममुग्रदण्डम् ॥२५॥
यः शृणोतिगिरिराज यशस्यं
गोपराज नवकेलिरहस्यम् ।
देवराज इव सोऽत्र समेति
नन्दराज इव शान्तिममुत्र ॥२६॥
                            

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! वह इस प्रकार कह ही रहा था कि गोलोकसे एक विशाल रथ उतरा । वह सहस्रों सूर्योंके समान तेजस्वी था और उसमें दस हजार घोड़े जुते हुए थे। नरेश्वर ! उससे हजारों पहियोंके चलनेकी ध्वनि होती थी । लाखों पार्षद उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । मञ्जीर और क्षुद्र घण्टिकाओंके समूहसे आच्छादित वह रथ अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था ।। १९ - २

ब्राह्मणके देखते-देखते उस सिद्धको लेनेके लिये जब वह रथ आया, तब ब्राह्मण और सिद्ध दोनोंने उस दिव्य रथको नमस्कार किया । मिथिलेश्वर ! तदनन्तर वढ़ सिद्ध उस रथपर आरूढ़ हो दिङ्मण्डलको प्रकाशित करता हुआ परात्पर श्रीकृष्ण-लोकमें पहुँच गया, जो निकुञ्ज लीलाके कारण ललित एवं परम मनोहर है। मैथिल ! वह ब्राह्मण भी गोवर्द्धनका प्रभाव जान गया था, इसलिये वहाँसे लौटकर समस्त गिरिराजोंके देवता गोवर्द्धन गिरिपर आया और उसकी परिक्रमा एवं उसे प्रणाम करके अपने घरको गया ।। २२ - २४ ॥

राजन् ! इस प्रकार मैंने यह विचित्र एवं उत्तम मोक्षदायक श्रीगिरिराजखण्ड तुम्हें कह सुनाया । पापी मनुष्य भी इसका श्रवण करके स्वप्न में भी कभी उग्रदण्डधारी प्रचण्ड यमराज का दर्शन नहीं करता । जो मनुष्य गिरिराज के यशसे परिपूर्ण गोपराज श्रीकृष्णकी नूतन केलिके रहस्यको सुनता है, वह देवराज इन्द्रकी भाँति इस लोकमें सुख भोगता है और नन्दराज के समान परलोक में शान्ति का अनुभव करता है ।। २५-२६ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवादमें श्रीगिरिराज-प्रभाव प्रस्ताव-वर्णनके प्रसङ्गमें 'सिद्धमोक्ष' नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

 

श्रीगिरिराजखण्ड सम्पूर्ण ॥ ३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भागवत के दस लक्षण

अवतारानुचरितं हरेश्चास्यानुवर्तिनाम् ।
पुंसां ईशकथाः प्रोक्ता नानाख्यान उपबृंहिताः ॥ ५ ॥
निरोधोऽस्यानुशयनं आत्मनः सह शक्तिभिः ।
मुक्तिः हित्वान्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ॥ ॥ ६ ॥
आभासश्च निरोधश्च यतश्चाध्यवसीयते ।
स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते ॥ ७ ॥
योऽध्यात्मिकोऽयं पुरुषः सोऽसौ एवाधिदैविकः ।
यः तत्र उभय विच्छेदः स स्मृतोह्याधिभौतिकः ॥ ८ ॥
एकं एकतराभावे यदा न उपलभामहे ।
त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रयः ॥ ९ ॥

भगवान्‌ के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तोंकी विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ ‘ईशकथा’ हैं ॥ ५ ॥ जब भगवान्‌ योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीवका अपनी उपाधियों के साथ उनमें लीन हो जाना ‘निरोध’ है। अज्ञानकल्पित कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनात्मभाव का परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मामें स्थित होना ही ‘मुक्ति’ है ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! इस चराचर जगत् की  उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्त्वसे प्रकाशित होते हैं, वह परम ब्रह्म ही ‘आश्रय’ है। शास्त्रोंमें उसी को परमात्मा कहा गया है ॥ ७ ॥ जो नेत्र आदि इन्द्रियों का अभिमानी द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता सूर्य आदि के रूप में भी है और जो नेत्र गोलक आदि से युक्त दृश्य देह है, वही उन दोनों को अलग-अलग करता है ॥ ८ ॥ इन तीनोंमें यदि एक का भी अभाव हो जाय तो दूसरे दो की उपलब्धि नहीं हो सकती। अत: जो इन तीनोंको जानता है, वह परमात्मा ही, सबका अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्त्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं ॥ ९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...