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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
दूसरा अध्याय
ऋषिरूपा गोपियों का उपाख्यान – वङ्गदेश
के मङ्गल-गोप की कन्याओं का नन्दराज के व्रज में आगमन तथा यमुनाजी के तटपर रासमण्डल
में प्रवेश
श्रीनारद उवाच
गोपीनामृषिरूपाणामाख्यानं शृणु मैथिल
।
सर्वपापहरं पुण्यं कृष्णभक्तिविवर्धनम् ॥१॥
वङ्गेषु मङ्गलो नाम गोप आसीन्महामनाः ।
लक्ष्मीवाञ्छ्रुतसम्पन्नो नवलक्षगवां पतिः ॥२॥
भार्याः पञ्चसहस्राणि बभूवुस्तस्य मैथिल ।
कदाचिद्दैवयोगेन धनं सर्वं क्षयं गतम् ॥३॥
चौरैर्नीतास्तस्य गावः काश्चिद्राज्ञा हृता बलात् ।
एवं दैन्ये च सम्प्राप्ते दुःखितो मङ्गलोऽभवत् ॥४॥
तदा श्रीरामस्य वराद्दण्डकारण्यवासिनः ।
ऋषयः स्त्रीत्वमापन्ना बभूवुस्तस्य कन्यकाः ॥५॥
दृष्ट्वा कन्यासमूहं स दुःखी गोपोऽथ मङ्गलः ।
उवाच दैन्यदुःखाढ्य आधिव्याधिसमाकुलः ॥६॥
मङ्गल उवाच -
किं करोमि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहति ।
श्रीर्न भूतिर्नाभिजनो न बलं मेऽस्ति साम्प्रतम् ॥७॥
धनं विना कथं चासां विवाहो हा भविष्यति ।
भोजने यत्र सन्देहो धनाश तत्र कीदृशी ॥८॥
सति दैन्ये कन्यकाः स्युः काकतालीयवद्गृहे ।
तस्मात्कस्यापि राज्ञस्तु धनिनो बलिनस्त्वहम् ॥९॥
दास्याम्येताः कन्यकाश्च कन्यानां सौख्यहेतवे ।
कदर्थीकृत्य ता कन्याः एवं बुद्ध्या स्थितोऽभवत् ॥
तदैव माथुराद्देशाद्गोपश्चैकः समागतः ॥१०॥
नारद उवाच -
तीर्थयायी जयो नाम वृद्धोबुद्धिमतां वरः ।
तन्मुखान्नन्दराजस्य श्रुतं वैभवमद्भुतम् ॥११॥
नन्दराजस्य बलये मङ्गलो दैन्यपीडितः ।
विचिन्त्य प्रेषयामास कन्यकाश्चारुलोचनाः ॥ १२ ॥
ता नन्दराजस्य गृहे कन्यका रत्नभूषिताः ।
गवां गोमयहारिण्यो बभूवुर्गोव्रजेषु च ॥ १३ ॥
श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा कन्या जातिस्मराश्च ताः ।
कालिन्दीसेवनं चक्रुर्नित्यं श्रीकृष्णहेतवे ॥ १४ ॥
अथैकदा श्यामलाङ्गी कालिन्दी दीर्घलोचना ।
ताभ्यः स्वदर्शनं दत्वा वरं दातुं
समुद्यता ॥ १५ ॥
ता वव्रिरे व्रजेशस्य पुत्रो भूयात्पतिश्च नः ।
तथास्तु चोक्त्वा कालिन्दी तत्रैवान्तरधीयत ॥ १६ ॥
ताः प्राप्ता वृन्दकारण्ये कार्तिक्यां रासमण्डले ।
ताभिः सार्धं हरी रेमे सुरीभिः सुरराडिव ॥ १७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— मैथिल ! अब तुम ऋषिरूपा गोपियोंकी
कथा सुनो। वह सब पापोंको हर लेनेवाली, परम पावन तथा श्रीकृष्णके प्रति भक्ति- भावकी
वृद्धि करनेवाली है । वङ्गदेशमें मङ्गल नामसे प्रसिद्ध एक महामनस्वी गोप था, जो लक्ष्मीवान्,
शास्त्रज्ञानसे सम्पन्न तथा नौ लाख गौओंका स्वामी था। मिथिलेश्वर ! उसके पाँच हजार
पत्नियाँ थीं। किसी समय दैवयोगसे उसका सारा धन नष्ट हो गया ॥ १-३
॥
चोरों ने उसकी गौओंका अपहरण कर लिया। कुछ गौओंको उस
देशके राजाने बलपूर्वक अपने अधिकारमें कर लिया। इस प्रकार दीनता प्राप्त होनेपर मङ्गल-गोप
बहुत दुःखी हो गया । उन्हीं दिनों श्रीरामचन्द्रजी के वरदानसे
स्त्रीभावको प्राप्त हुए दण्डकारण्यके निवासी ऋषि उसकी कन्याएँ हो गये। उस कन्या -
समूहको देखकर दुःखी गोप मङ्गल और भी दुःखमें डूब गया और आधि-व्याधिस व्याकुल रहने लगा।
उसने मन-ही-मन इस प्रकार कहा-- ॥ १ -६ ॥
मङ्गल बोला- क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कौन मेरा दुःख
दूर करेगा ? इस समय मेरे पास न तो लक्ष्मी है, न ऐश्वर्य है, न कुटुम्बीजन हैं और न
कोई बल ही है । हाय ! धनके बिना इन कन्याओंका विवाह कैसे होगा ? जहाँ भोजनमें भी संदेह
हो, वहाँ धनकी कैसी आशा ? दीनता तो थी ही। काकतालीय न्यायसे कन्याएँ भी इस घरमें आ
गयीं। इसलिये किसी धनवान् और बलवान् राजाको ये कन्याएँ अर्पित करूँगा, तभी इन कन्याओंको
सुख मिलेगा ।। ७ – ९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उन कन्याओंकी
कोई परवा न करके उसने अपनी ही बुद्धिसे ऐसा निश्चय कर लिया और उसीपर डटा रहा। उन्हीं
दिनों मथुरामण्डलसे एक गोप उसके यहाँ आया । वह तीर्थयात्री था। उसका नाम था जय । वह
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और वृद्ध था। उसके मुखसे मङ्गल ने नन्दराजके
अद्भुत वैभवका वर्णन सुना ।। १० – ११ ॥
दीनता से पीड़ित मङ्गल ने बहुत सोच-विचारकर अपनी चारु- लोचना कन्याओंको नन्दराजके व्रजमण्डलमें
भेज दिया। नन्दराजके घर में जाकर वे रत्नमय
भूषणोंसे विभूषित कन्याएँ उनके गोष्ठमें गौओंका गोबर उठानेका काम करने लगीं। वहाँ सुन्दर
श्रीकृष्णको देखकर उन कन्याओंको अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण हो आया और वे श्रीकृष्णकी
प्राप्तिके लिये नित्य यमुनाजीकी सेवा-पूजा करने लगीं ।। १२ – १४ ॥
तदनन्तर एक दिन श्यामल अङ्गोंवाली विशाललोचना यमुनाजी
उन सबको दर्शन दे, वर-प्रदान करने के लिये उद्यत हुईं। उन गोपकन्याओं ने यह वर माँगा कि 'व्रजेश्वर नन्दराज के पुत्र श्रीकृष्ण हमारे पति हों।' तब 'तथास्तु' कहकर यमुना वहीं अन्तर्धान
हो गयीं। वे सब कन्याएँ वृन्दावन में कार्तिक पूर्णिमाकी रात को रासमण्डल में पहुँचीं। वहाँ श्रीहरि ने उनके साथ उसी तरह विहार किया, जैसे देवाङ्गनाओं के
साथ देवराज इन्द्र किया करते हैं ॥ १५- १७ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'ऋषिरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक दूसरा अध्याय
पूरा हुआ ॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से