॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)
महर्षि च्यवन और सुकन्या का
चरित्र, राजा शर्याति का वंश
सुकन्या च्यवनं प्राप्य पतिं परमकोपनम् ।
प्रीणयामास चित्तज्ञा अप्रमत्तानुवृत्तिभिः ॥ १० ॥
कस्यचित् त्वथ कालस्य नासत्यावाश्रमागतौ ।
तौ पूजयित्वा प्रोवाच वयो मे दत्तमीश्वरौ ॥ ११ ॥
ग्रहं ग्रहीष्ये सोमस्य यज्ञे वामप्यसोमपोः ।
क्रियतां मे वयो रूपं प्रमदानां यदीप्सितम् ॥ १२ ॥
बाढं इति ऊचतुर्विप्रं अभिनन्द्य भिषक्तमौ ।
निमज्जतां भवान् अस्मिन् ह्रदे सिद्धविनिर्मिते ॥ १३ ॥
इत्युक्त्वा जरया ग्रस्त देहो धमनिसन्ततः ।
ह्रदं प्रवेशितोऽश्विभ्यां वलीपलित विप्रियः ॥ १४ ॥
पुरुषास्त्रय उत्तस्थुः अपीव्या वनिताप्रियाः ।
पद्मस्रजः कुण्डलिनः तुल्यरूपाः सुवाससः ॥ १५ ॥
तान् निरीक्ष्य वरारोहा सरूपान् सूर्यवर्चसः ।
अजानती पतिं साध्वी अश्विनौ शरणं ययौ ॥ १६ ॥
दर्शयित्वा पतिं तस्यै पातिव्रत्येन तोषितौ ।
ऋषिमामन्त्र्य ययतुः विमानेन त्रिविष्टपम् ॥ १७ ॥
इधर सुकन्या परम क्रोधी च्यवन मुनि को अपने पतिके रूपमें प्राप्त करके बड़ी सावधानी से उनकी सेवा करती हुई उन्हें प्रसन्न करने लगी। वह उनकी मनोवृत्तिको जानकर उसके अनुसार ही बर्ताव करती थी ॥ १० ॥ कुछ समय बीत जानेपर उनके आश्रमपर दोनों अश्विनीकुमार आये। च्यवन मुनिने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि—‘आप दोनों समर्थ हैं, इसलिये मुझे युवा अवस्था प्रदान कीजिये। मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती स्त्रियाँ चाहती हैं। मैं जानता हूँ कि आपलोग सोमपान के अधिकारी नहीं हैं, फिर भी मैं आपको यज्ञ में सोमरस का भाग दूँगा ’ ॥ ११-१२ ॥ वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारों ने महर्षि च्यवनका अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक है।’ और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह सिद्धोंके द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान कीजिये’ ॥ १३ ॥ च्यवन मुनिके शरीरको बुढ़ापेने घेर रखा था। सब ओर नसें दीख रही थीं, झुरिर्याँ पड़ जाने एवं बाल पक जानेके कारण वे देखनेमें बहुत भद्दे लगते थे। अश्विनीकुमारोंने उन्हें अपने साथ लेकर कुण्डमें प्रवेश किया ॥ १४ ॥ उसी समय कुण्डसे तीन पुरुष बाहर निकले। वे तीनों ही कमलोंकी माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पहने एक-से मालूम होते थे। वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाले थे ॥ १५ ॥ परम साध्वी सुन्दरी सुकन्याने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृतिके तथा सूर्यके समान तेजस्वी हैं, तब अपने पतिको न पहचानकर उसने अश्विनी- कुमारोंकी शरण ली ॥ १६ ॥ उसके पातिव्रत्यसे अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पतिको बतला दिया और फिर च्यवन मुनिसे आज्ञा लेकर विमानके द्वारा वे स्वर्गको चले गये ॥ १७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से