शनिवार, 30 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

हस्तावस्य विनिर्भिन्नौ इन्द्रः स्वर्पतिराविशत् ।
वार्तयांशेन पुरुषो यया वृत्तिं प्रपद्यते ॥ २१ ॥
पादौ अवस्य विनिर्भिन्नौ लोकेशो विष्णुराविशत् ।
गत्या स्वांशेन पुरुषो यया प्राप्यं प्रपद्यते ॥ २२ ॥
बुद्धिं चास्य विनिर्भिन्नां वागीशो धिष्ण्यमाविशत् ।
बोधेनांशेन बोद्धव्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ २३ ॥
हृदयं चास्य निर्भिन्नं चन्द्रमा धिष्ण्यमाविशत् ।
मनसांशेन येनासौ विक्रियां प्रतिपद्यते ॥ २४ ॥
आत्मानं चास्य निर्भिन्नं अभिमानोऽविशत्पदम् ।
कर्मणांशेन येनासौ कर्तव्यं प्रतिपद्यते ॥ २५ ॥
सत्त्वं चास्य विनिर्भिन्नं महान् धिष्ण्यमुपाविशत् ।
चित्तेनांशेन येनासौ विज्ञानं प्रतिपद्यते ॥ २६ ॥

इसके पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्यागरूपा शक्तिके सहित देवराज इन्द्रने प्रवेश किया, इस शक्तिसे जीव अपनी जीविका प्राप्त करता है ॥ २१ ॥ जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णुने प्रवेश किया—इस गति-शक्तिद्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचता है ॥ २२ ॥ फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थानमें अपने अंश बुद्धिशक्तिके साथ वाक्पति ब्रह्माने प्रवेश किया, इस बुद्धिशक्तिसे जीव ज्ञातव्य विषयोंको जान सकता है ॥ २३ ॥ फिर इसमें हृदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मनके सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मन:शक्तिके द्वारा जीव सङ्कल्प-विकल्पादिरूप विकारोंको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥  तत्पश्चात् विराट् पुरुषमें अहंकार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रयमें क्रियाशक्तिसहित अभिमान (रुद्र) ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्यको स्वीकार करता है ॥ २५ ॥ अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें चित्तशक्तिके सहित महत्तत्त्व (ब्रह्मा) स्थित हुआ; इस चित्तशक्तिसे जीव विज्ञान (चेतना) को उपलब्ध करता है ॥ २६ ॥ 

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शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

निर्भिन्नान्यस्य चर्माणि लोकपालोऽनिलोऽविशत् ।
प्राणेनांशेन संस्पर्शं येनासौ प्रतिपद्यते ॥ १६ ॥
कर्णौ अस्य विनिर्भिन्नौ धिष्ण्यं स्वं विविशुर्दिशः ।
श्रोत्रेणांशेन शब्दस्य सिद्धिं येन प्रपद्यते ॥ १७ ॥
त्वचमस्य विनिर्भिन्नां विविशुर्धिष्ण्यमोषधीः ।
अंशेन रोमभिः कण्डूं यैरसौ प्रतिपद्यते ॥ १८ ॥
मेढ्रं तस्य विनिर्भिन्नं स्वधिष्ण्यं क उपाविशत् ।
रेतसांशेन येनासौ आनन्दं प्रतिपद्यते ॥ १९ ॥
गुदं पुंसो विनिर्भिन्नं मित्रो लोकेश आविशत् ।
पायुनांशेन येनासौ विसर्गं प्रतिपद्यते ॥ २० ॥

फिर उस विराट् विग्रहमें त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रिय के सहित वायु स्थित हुआ, जिस त्वगिन्द्रिय से जीव स्पर्श का अनुभव करता है ॥ १६ ॥ जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उनमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है ॥ १७ ॥ फिर विराट् शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित ओषधियाँ स्थित हुर्ईं, जिन रोमोंसे जीव खुजली आदिको अनुभव करता है ॥ १८ ॥ अब उसके लिङ्ग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव करता है ॥ १९ ॥ फिर विराट् पुरुष के गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मलत्याग करता है ॥ २० ॥ 

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गुरुवार, 28 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं अधोक्षजः ।
विराजं अतपत्स्वेन तेजसैषां विवृत्तये ॥ १० ॥
अथ तस्याभितप्तस्य कति चायतनानि ह ।
निरभिद्यन्त देवानां तानि मे गदतः श्रृणु ॥ ११ ॥
तस्याग्निरास्यं निर्भिन्नं लोकपालोऽविशत्पदम् ।
वाचा स्वांशेन वक्तव्यं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १२ ॥
निर्भिन्नं तालु वरुणो लोकपालोऽविशद्धरेः ।
जिह्वयांशेन च रसं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १३ ॥
निर्भिन्ने अश्विनौ नासे विष्णोः आविशतां पदम् ।
घ्राणेनांशेन गन्धस्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १४ ॥
निर्भिन्ने अक्षिणी त्वष्टा लोकपालोऽविशद्विभोः ।
चक्षुषांशेन रूपाणां प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १५ ॥

फिर विश्व की रचना करनेवाले महत्तत्त्वादि के अधिपति श्रीभगवान्‌ ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिये अपने चेतनरूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया ॥ १० ॥ उसके जाग्रत् होते ही देवताओंके लिये कितने स्थान प्रकट हुए—यह मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥ ११ ॥ विराट् पुरुष के पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है ॥ १२ ॥ फिर विराट् पुरुषके तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रियके सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता है ॥ १३ ॥ इसके पश्चात् उस विराट् पुरुष के नथुने प्रकट हुए; उनमें दोनों अश्विनी- कुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रियके सहित प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है ॥ १४ ॥ इसी प्रकार जब उस विराट् देह  में आँखें प्रकट हुर्ईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहित—लोकपति सूर्यने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रियसे पुरुषको विविध रूपोंका ज्ञान होता है ॥ १५ ॥ 

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बुधवार, 27 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सरान् ।
आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ६ ॥
स वै विश्वसृजां गर्भो देवकर्मात्मशक्तिमान् ।
विबभाजात्मनात्मानं एकधा दशधा त्रिधा ॥ ७ ॥
एष ह्यशेषसत्त्वानां आत्मांशः परमात्मनः ।
आद्योऽवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते ॥ ८ ॥
साध्यात्मः साधिदैवश्च साधिभूत इति त्रिधा ।
विराट्प्राणो दशविध एकधा हृदयेन च ॥ ९ ॥

जलके भीतर जो अण्डरूप आश्रयस्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा ॥ ६ ॥ वह विश्वरचना करने वाले तत्त्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्म- शक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमश: एक (हृदयरूप), दस (प्राणरूप) और तीन (आध्यात्मिक,आधिदैविक,आधिभौतिक)विभाग किये ॥ ७ ॥ यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव होनेके कारण समस्त जीवोंका आत्मा, जीवरूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान्‌ का आदि-अवतार है । यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है ॥ ८ ॥ यह अध्यात्म,अधिभूत और अधिदैवरूप से तीन प्रकार का, प्राणरूप से दस प्रकार का [*] और हृदयरूप से एक प्रकारका है ॥ ९ ॥

............................................................
[*] दस इन्द्रियोंसहित मन अध्यात्म है, इन्द्रियादिके विषय अधिभूत हैं, इन्द्रियाधिष्ठाता देव अधिदैव हैं तथा प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय—ये दस प्राण हैं।

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मंगलवार, 26 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

ऋषिरुवाच -

इति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ।
प्रसुप्तलोकतन्त्राणां निशाम्य गतिमीश्वरः ॥ १ ॥
कालसञ्ज्ञां तदा देवीं बिभ्रत् शक्तिमुरुक्रमः ।
त्रयोविंशति तत्त्वानां गणं युगपदाविशत् ॥ २ ॥
सोऽनुप्रविष्टो भगवान् चेष्टारूपेण तं गणम् ।
भिन्नं संयोजयामास सुप्तं कर्म प्रबोधयन् ॥ ३ ॥
प्रबुद्धकर्म दैवेन त्रयोविंशतिको गणः ।
प्रेरितोऽजनयत्स्वाभिः मात्राभिः अधिपूरुषम् ॥ ४ ॥
परेण विशता स्वस्मिन् मात्रया विश्वसृग्गणः ।
चुक्षोभान्योन्यमासाद्य यस्मिन् लोकाश्चराचराः ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेय ऋषि ने कहा—सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महत्तत्त्व आदि शक्तियाँ विश्व-रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे कालशक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्त्व, अहंकार, पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा और मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ —इन तेईस तत्त्वोंके समुदायमें प्रविष्ट हो गये ॥ १-२ ॥ उनमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए उस तत्त्वसमूह को अपनी क्रियाशक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया ॥ ३ ॥ इस प्रकार जब भगवान्‌ ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्त्वों के समूह ने भगवान्‌ की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुष—विराट्को उत्पन्न किया ॥ ४ ॥ अर्थात् जब भगवान्‌ ने अंशरूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्वरचना करनेवाला महत्तत्त्वादि का समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणामको प्राप्त हुआ। यह तत्त्वोंका परिणाम ही विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है ॥ ५ ॥ 

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सोमवार, 25 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

तत्ते वयं लोकसिसृक्षयाद्य
     त्वयानुसृष्टास्त्रिभिरात्मभिः स्म ।
सर्वे वियुक्ताः स्वविहारतन्त्रं
     न शक्नुमस्तत् प्रतिहर्तवे ते ॥ ४७ ॥
यावद्बवलिं तेऽज हराम काले
     यथा वयं चान्नमदाम यत्र ।
यथोभयेषां त इमे हि लोका
     बलिं हरन्तोऽन्नमदन्त्यनूहाः ॥ ४८ ॥
त्वं नः सुराणामसि सान्वयानां
     कूटस्थ आद्यः पुरुषः पुराणः ।
त्वं देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौ
     रेतस्त्वजायां कविमादधेऽजः ॥ ४९ ॥
ततो वयं मत्प्रमुखा यदर्थे
     बभूविमात्मन् करवाम किं ते ।
त्वं नः स्वचक्षुः परिदेहि शक्त्या
     देव क्रियार्थे यदनुग्रहाणाम् ॥ ५० ॥

(देवता कहते हैं) आदिदेव ! आपने सृष्टि-रचना की इच्छा से हमें त्रिगुणमय रचा है। इसलिये विभिन्न स्वभाववाले होनेके कारण हम आपसमें मिल नहीं पाते और इसीसे आपकी क्रीडाके साधनरूप ब्रह्माण्डकी रचना करके उसे आपको समर्पित करनेमें असमर्थ हो रहे हैं ॥ ४७ ॥ अत: जन्मरहित भगवन् ! जिससे हम ब्रह्माण्ड रचकर आप को सब प्रकार के भोग समय पर समर्पित कर सकें और जहाँ स्थित होकर हम भी अपनी योग्यताके अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकार की विघ्नबाधाओं से दूर रहकर हम और आप दोनों को भोग समर्पित करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजिये ॥ ४८ ॥ आप निर्विकार पुराणपुरुष ही अन्य कार्यवर्ग के सहित हम देवताओंके आदि कारण हैं। देव ! पहले आप अजन्मा ही ने सत्त्वादि गुण और जन्मादि कर्मों की कारणरूपा मायाशक्ति में चिदाभासरूप वीर्य स्थापित किया था ॥ ४९ ॥ परमात्मदेव ! महत्तत्त्वादिरूप हम देवगण जिस कार्यके लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्ध में हम क्या करें ? देव ! हम पर आप ही अनुग्रह करने वाले हैं । इसलिये ब्रह्माण्डरचना के लिये आप हमें क्रियाशक्ति के सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिये ॥ ५० ॥ 

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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रविवार, 24 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

पानेन ते देव कथासुधायाः
     प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।
वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं
     यथाञ्जसान् वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम् ॥ ४५ ॥
तथापरे चात्मसमाधियोग
     बलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम् ।
त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति
     तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥ ४६ ॥

देव ! आपके कथामृतका पान करनेसे उमड़ी हुई भक्तिके कारण जिनका अन्त:करण निर्मल हो गया है, वे लोग—वैराग्य ही जिसका सार है—ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधामको चले जाते हैं ॥ ४५ ॥ दूसरे धीर पुरुष चित्तनिरोधरूप समाधिके बलसे आपकी बलवती मायाको जीतकर आपमें ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है; किन्तु आपकी सेवाके मार्गमें कुछ भी कष्ट नहीं है ॥ ४६ ॥

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शनिवार, 23 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

विश्वस्य जन्मस्थितिसंयमार्थे
     कृतावतारस्य पदाम्बुजं ते ।
व्रजेम सर्वे शरणं यदीश
     स्मृतं प्रयच्छत्यभयं स्वपुंसाम् ॥ ४२ ॥
यत्सानुबन्धेऽसति देहगेहे
     ममाहं इति ऊढ दुराग्रहाणाम् ।
पुंसां सुदूरं वसतोऽपि पुर्यां
     भजेम तत्ते भगवन् पदाब्जम् ॥ ४३ ॥
तान् वै ह्यसद्‌वृत्तिभिरक्षिभिर्ये
     पराहृतान्तर्मनसः परेश ।
अथो न पश्यन्ति उरुगाय नूनं
     ये ते पदन्यासविलासलक्ष्याः ॥ ४४ ॥

ईश ! आप संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके लिये ही अवतार लेते हैं; अत: हम सब आपके उन चरणकमलोंकी शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करनेवाले भक्तजनों को अभय कर देते हैं ॥ ४२ ॥ जिन पुरुषोंका देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य तुच्छ पदार्थोंमें अहंता, ममताका दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीरमें (आपके अन्तर्यामीरूपसे) रहनेपर भी जो अत्यन्त दूर हैं—उन्हीं आपके चरणारविन्दोंको हम भजते हैं ॥ ४३ ॥ परम यशस्वी परमेश्वर ! इन्द्रियोंके विषयाभिमुख रहनेके कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामरलोग आपके विलासपूर्ण पादविन्यासकी शोभाके विशेषज्ञ भक्तजनोंका दर्शन नहीं कर पाते; इसीसे वे आपके चरणोंसे दूर रहते हैं ॥ ४४ ॥ 

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शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

देवा ऊचुः –

नमाम ते देव पदारविन्दं
     प्रपन्नतापोपशमातपत्रम् ।
यन्मूलकेता यतयोऽञ्जसोरु
     संसारदुःखं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥ ३८ ॥
धातर्यदस्मिन् भव ईश जीवाः
     तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।
आत्मन्लभन्ते भगवंस्तवाङ्‌घ्रि
     च्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥ ३९ ॥
मार्गन्ति यत्ते मुखपद्मनीडै-
     श्छन्दःसुपर्णैः ऋषयो विविक्ते ।
यस्याघमर्षोदसरिद्वरायाः
     पदं पदं तीर्थपदः प्रपन्नाः ॥ ४० ॥
यत् श्रद्धया श्रुतवत्या च भक्त्या
     सम्मृज्यमाने हृदयेऽवधाय ।
ज्ञानेन वैराग्यबलेन धीरा
     व्रजेम तत्तेऽङ्‌घ्रिसरोजपीठम् ॥ ४१ ॥

देवताओंने कहा—देव ! हम आपके चरणकमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरणमें आये हुए जीवोंका ताप दूर करनेके लिये छत्रके समान हैं तथा इनका आश्रय लेनेसे यतिजन अनन्त संसार- दु:खको सुगमतासे ही दूर फेंक देते हैं ॥ ३८ ॥ जगत् कर्ता जगदीश्वर ! इस संसारमें तापत्रयसे व्याकुल रहनेके कारण जीवोंको जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये भगवन् ! हम आपके चरणोंकी ज्ञान- मयी छायाका आश्रय लेते हैं ॥ ३९ ॥ मुनिजन एकान्त स्थानमें रहकर आपके मुखकमलका आश्रय लेनेवाले वेदमन्त्ररूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियोंमें श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजीके उद्गमस्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्मोंका हम आश्रय लेते हैं ॥ ४० ॥ हम आपके चरणकमलोंकी उस चौकीका आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवणकीर्तनादिरूप भक्तिसे परिमार्जित अन्त:करणमें धारण करके वैराग्यपुष्ट ज्ञानके द्वारा परम धीर हो जाते हैं ॥ ४१ ॥ 

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गुरुवार, 21 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०८)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

कालमायांशयोगेन भगवद् वीक्षितं नभः ।
नभसोऽनुसृतं स्पर्शं विकुर्वन् निर्ममेऽनिलम् ॥ ३२ ॥
अनिलोऽपि विकुर्वाणो नभसोरुबलान्वितः ।
ससर्ज रूपतन्मात्रं ज्योतिर्लोकस्य लोचनम् ॥ ३३ ॥
अनिलेन अन्वितं ज्योतिः विकुर्वत् परवीक्षितम् ।
आधत्ताम्भो रसमयं कालमायांशयोगतः ॥ ३४ ॥
ज्योतिषाम्भोऽनुसंसृष्टं विकुर्वद् ब्रह्मवीक्षितम् ।
महीं गन्धगुणां आधात् कालमायांशयोगतः ॥ ३५ ॥
भूतानां नभआदीनां यद् यद् यद् भव्यावरावरम् ।
तेषां परानुसंसर्गाद् यथा सङ्ख्यं गुणान् विदुः ॥ ३६ ॥
एते देवाः कला विष्णोः कालमायांशलिङ्‌गिनः ।
नानात्वात् स्वक्रियानीशाः प्रोचुः प्राञ्जलयो विभुम् ॥ ३७ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहते हैं) भगवान्‌ की दृष्टि जब आकाशपर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभासके योगसे स्पर्शतन्मात्र हुआ और उसके विकृत होनेपर उससे वायुकी उत्पत्ति हुई ॥ ३२ ॥ अत्यन्त बलवान् वायुने आकाशके सहित विकृत होकर रूपतन्मात्रकी रचना की और उससे संसारका प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ ॥ ३३ ॥ फिर परमात्माकी दृष्टि पडऩेपर वायुयुक्त तेजने काल, माया और चिदंशके योगसे विकृत होकर रसतन्मात्र के कार्य जलको उत्पन्न किया ॥ ३४ ॥ तदनन्तर तेजसे युक्त जलने ब्रह्मका दृष्टिपात होनेपर काल, माया और चिदंशके योगसे गन्धगुणमयी पृथ्वीको उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥ विदुरजी ! इन आकाशादि भूतोंमेंसे जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमश: अपने पूर्व-पूर्व भूतोंके गुण भी अनुगत समझने चाहिये ॥ ३६ ॥ ये महत्तत्त्वादिके अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांशविशिष्ट देवगण श्रीभगवान्‌के ही अंश हैं। किन्तु पृथक्-पृथक् रहनेके कारण जब वे विश्वरचनारूप अपने कार्यमें सफल नहीं हुए, तब हाथ जोडक़र भगवान्‌ से कहने लगे ॥ ३७ ॥

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बुधवार, 20 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०७)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

कालवृत्त्या तु मायायां गुणमय्यामधोक्षजः ।
पुरुषेणात्मभूतेन वीर्यमाधत्त वीर्यवान् ॥ २६ ॥
ततोऽभवन् महत्तत्त्वं अव्यक्तात् कालचोदितात् ।
विज्ञानात्माऽऽत्मदेहस्थं विश्वं व्यञ्जन् तमोनुदः ॥ २७ ॥
सोऽप्यंशगुणकालात्मा भगवद् दृष्टिगोचरः ।
आत्मानं व्यकरोद् आत्मा विश्वस्यास्य सिसृक्षया ॥ २८ ॥
महत्तत्त्वाद् विकुर्वाणाद् अहंतत्त्वं व्यजायत ।
कार्यकारणकर्त्रात्मा भूतेन्द्रियमनोमयः ॥ २९ ॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ।
अहंतत्त्वाद् विकुर्वाणात् मनो वैकारिकात् अभूत् ।
वैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यञ्जनं यतः ॥ ३० ॥
तैजसानि इन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ।
तामसो भूतसूक्ष्मादिः यतः खं लिङ्गमात्मनः ॥ ३१ ॥

कालशक्ति से जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभ को प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंश पुरुषरूप से उसमें चिदाभासरूप बीज स्थापित किया ॥ २६ ॥ तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महत्तत्त्व प्रकट हुआ। वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञानस्वरूप और अपने में सूक्ष्मरूप से स्थित प्रपञ्च की अभिव्यक्ति करनेवाला था ॥ २७ ॥ फिर चिदाभास, गुण और कालके अधीन उस महत्तत्त्वने भगवान्‌की दृष्टि पडऩेपर इस विश्वकी रचनाके लिये अपना रूपान्तर किया ॥ २८ ॥ महत्तत्त्वके विकृत होनेपर अहंकारकी उत्पत्ति हुई—जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कत्र्ता (अधिदैव) रूप होनेके कारण भूत, इन्द्रिय और मनका कारण है ॥ २९ ॥ वह अहंकार वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और तामस भेदसे तीन प्रकारका है; अत: अहंतत्त्वमें विकार होनेपर वैकारिक अहंकारसे मन, और जिनसे विषयोंका ज्ञान होता है वे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवता हुए ॥ ३० ॥ तैजस अहंकारसे ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हुर्ईं तथा तामस अहंकारसे सूक्ष्म भूतोंका कारण शब्दतन्मात्र हुआ, और उससे दृष्टान्तरूपसे आत्माका बोध करानेवाला आकाश उत्पन्न हुआ ॥ ३१ ॥ 

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मंगलवार, 19 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०६)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

भवान् भगवतो नित्यं सम्मतः सानुगस्य ह ।
यस्य ज्ञानोपदेशाय माऽऽदिशद्भसगवान् व्रजन् ॥ २१ ॥
अथ ते भगवल्लीला योगमायोरुबृंहिताः ।
विश्वस्थिति उद्‌भवान्तार्था वर्णयामि अनुपूर्वशः ॥ २२ ॥
भगवान् एक आसेदं अग्र आत्माऽऽत्मनां विभुः ।
आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षणः ॥ २३ ॥
स वा एष तदा द्रष्टा नापश्यद् दृश्यमेकराट् ।
मेनेऽसन्तमिवात्मानं सुप्तशक्तिः असुप्तदृक् ॥ २४ ॥
सा वा एतस्य संद्रष्टुः शक्तिः सद् असदात्मिका ।
माया नाम महाभाग ययेदं निर्ममे विभुः ॥ २५ ॥

(श्रीमैत्रेयजी विदुरजी से कह रहे हैं)  आप सर्वदा ही श्रीभगवान्‌ और उनके भक्तोंको अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान्‌ निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करनेकी आज्ञा दे गये हैं ॥ २१ ॥ इसलिये अब मैं जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये योगमायाके द्वारा विस्तारित हुई भगवान्‌ की विभिन्न लीलाओं का क्रमश: वर्णन करता हूँ ॥ २२ ॥ सृष्टिरचना के पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे—न द्रष्टा था न दृश्य ! सृष्टिकाल में अनेक वृत्तियों के भेद से जो अनेकता दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी ॥ २३ ॥ वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के  समान समझने लगे। वस्तुत: वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्तियाँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था ॥ २४ ॥ यह द्रष्टा और दृश्यका अनुसन्धान करनेवाली शक्ति ही—कार्यकारण- रूपा माया है। महाभाग विदुरजी ! इस भावाभावरूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही भगवान्‌ ने इस विश्वका निर्माण किया है ॥ २५ ॥ 

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सोमवार, 18 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०५)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

श्रीशुक उवाच -
स एवं भगवान् पृष्टः क्षत्त्रा कौषारविर्मुनिः ।
पुंसां निःश्रेयसार्थेन तमाह बहु मानयन् ॥ १७ ॥

मैत्रेय उवाच -
साधु पृष्टं त्वया साधो लोकान् साधु अनुगृह्णता ।
कीर्तिं वितन्वता लोके आत्मनोऽधोक्षजात्मनः ॥ १८ ॥
नैतच्चित्रं त्वयि क्षत्तः बादरायणवीर्यजे ।
गृहीतोऽनन्यभावेन यत्त्वया हरिरीश्वरः ॥ १९ ॥
माण्डव्यशापाद् भगवान् प्रजासंयमनो यमः ।
भ्रातुः क्षेत्रे भुजिष्यायां जातः सत्यवतीसुतात् ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब विदुरजीने जीवोंके कल्याणके लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌ मैत्रेयजी ने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा ॥ १७ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले—साधुस्वभाव विदुर जी ! आपने सब जीवों पर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान्‌ में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसार में भी आपका बहुत सुयश फैलेगा ॥ १८ ॥ आप श्रीव्यासजी के औरस पुत्र हैं; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि आप अनन्यभाव से सर्वेश्वर श्रीहरि के ही आश्रित हो गये हैं ॥ १९ ॥ आप प्रजाको दण्ड देनेवाले भगवान्‌ यम ही हैं। माण्डव्य ऋषिका शाप होनेके कारण ही आपने श्रीव्यासजीके वीर्यसे उनके भाई विचित्रवीर्यकी भोगपत्नी दासीके गर्भसे जन्म लिया है ॥ २० ॥ 

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रविवार, 17 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०४)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

सा श्रद्दधानस्य विवर्धमाना
     विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।
हरेः पदानुस्मृतिनिर्वृतस्य
     समस्तदुःखाप्ययमाशु धत्ते ॥ १३ ॥
तान् शोच्यशोच्यान् अविदोऽनुशोचे
     हरेः कथायां विमुखानघेन ।
क्षिणोति देवोऽनिमिषस्तु येषां
     आयुर्वृथावादगतिस्मृतीनाम् ॥ १४ ॥
तदस्य कौषारव शर्मदातुः
     हरेः कथामेव कथासु सारम् ।
उद्धृत्य पुष्पेभ्य इवार्तबन्धो
     शिवाय नः कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ १५ ॥
स विश्वजन्मस्थितिसंयमार्थे
     कृतावतारः प्रगृहीतशक्तिः ।
चकार कर्माण्यतिपूरुषाणि
     यानीश्वरः कीर्तय तानि मह्यम् ॥ १६ ॥

यह भगवत्कथाकी रुचि श्रद्धालु पुरुषके हृदयमें जब बढऩे लगती है, तब अन्य विषयोंसे उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणोंके निरन्तर चिन्तनसे आनन्दमग्र हो जाता है और उस पुरुषके सभी दु:खोंका तत्काल अन्त हो जाता है ॥ १३ ॥ मुझे तो उन शोचनीयोंके भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषोंके लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापोंके कारण श्रीहरिकी कथाओंसे विमुख रहते हैं। हाय ! कालभगवान्‌ उनके अमूल्य जीवनको काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मनसे व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तनमें लगे रहते हैं ॥ १४ ॥ मैत्रेयजी ! आप दीनोंपर कृपा करनेवाले हैं; अत: भौंरा जैसे फूलोंमेंसे रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओंमेंसे इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्रकीर्ति श्रीहरिकी कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याणके लिये सुनाइये ॥ १५ ॥ उन सर्वेश्वरने संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेके लिये अपनी मायाशक्तिको स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारोंके द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये ॥ १६ ॥

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शनिवार, 16 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०३)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

येन प्रजानामुत आत्मकर्म
     रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।
नारायणो विश्वसृगात्मयोनिः
     एतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥ ९ ॥
परावरेषां भगवन् व्रतानि
     श्रुतानि मे व्यासमुखादभीक्ष्णम् ।
अतृप्नुम क्षुल्लसुखावहानां
     तेषामृते कृष्णकथामृतौघात् ॥ १० ॥
कस्तृप्नुयात्तीर्थपदोऽभिधानात्
     सत्रेषु वः सूरिभिरीड्यमानात् ।
यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातो
     भवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥ ११ ॥
मुनिर्विवक्षुर्भगवद्गुणानां
     सखापि ते भारतमाह कृष्णः ।
यस्मिन् नृणां ग्राम्यसुखानुवादैः
     मतिर्गृहीता नु हरेः कथायाम् ॥ १२ ॥

(विदुरजी मैत्री जी से कह रहे हैं) द्विजवर ! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजाके स्वभाव, कर्म, रूप और नामोंके भेदकी किस प्रकार रचना की है ? भगवन् ! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्णकथामृत के प्रवाह को छोडक़र अन्य स्वल्पसुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है ॥ ९-१० ॥ उन तीर्थपाद श्रीहरिके गुणानुवादसे तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओंके समाजमें कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्योंके कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसारचक्र में डालनेवाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान्‌ के गुणों का वर्णन करने की इच्छासे ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषयसुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान्‌ की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है ॥ १२ ॥ 

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शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०२)

विदुरजी का प्रश्न  और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रम वर्णन

करोति कर्माणि कृतावतारो
     यान्यात्मतंत्रो भगवान् त्र्यधीशः ।
यथा ससर्जाग्र इदं निरीहः
     संस्थाप्य वृत्तिं जगतो विधत्ते ॥ ५ ॥
यथा पुनः स्वे ख इदं निवेश्य
     शेते गुहायां स निवृत्तवृत्तिः ।
योगेश्वराधीश्वर एक एतद्
     अनुप्रविष्टो बहुधा यथाऽऽसीत् ॥ ६ ॥
क्रीडन् विधत्ते द्विजगोसुराणां
     क्षेमाय कर्माण्यवतारभेदैः ।
मनो न तृप्यत्यपि शृण्वतां नः
     सुश्लोकमौलेश्चरितामृतानि ॥ ७ ॥
यैस्तत्त्वभेदैः अधिलोकनाथो
     लोकानलोकान् सह लोकपालान् ।
अचीकॢपद्यत्र हि सर्वसत्त्व
     निकायभेदोऽधिकृतः प्रतीतः ॥ ८ ॥

त्रिलोकीके नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्प के आरम्भ में इस सृष्टिकी रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत् के  जीवों की जीविका का विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाश में लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमाया का आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होने पर भी इस ब्रह्माण्डमें अन्तर्यामीरूप से अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपों में प्रकट होते हैं—वह सब रहस्य आप हमें समझाइये ॥ ५-६ ॥ ब्राह्मण, गौ और देवताओं के कल्याणके लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीला से ही नाना प्रकारके दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये। यशस्वियोंके मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता ॥ ७ ॥ हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियोंके स्वामी श्रीहरिने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक-पर्वतसे बाहरके भागोंको, जिनमें ये सब प्रकारके प्राणियोंके अधिकारानुसार भिन्न- भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्त्वोंसे रचा है ॥ ८ ॥ 

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गुरुवार, 14 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

श्रीशुक उवाच –

द्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणां
     मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ।
क्षत्तोपसृत्याच्युतभावसिद्धः
     पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ॥ १ ॥

विदुर उवाच –

सुखाय कर्माणि करोति लोको
     न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।
विन्देत भूयस्तत एव दुःखं
     यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ॥ २ ॥
जनस्य कृष्णाद् विमुखस्य दैवाद्
     अधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।
अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं
     भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥ ३ ॥
तत्साधुवर्यादिश वर्त्म शं नः
     संराधितो भगवान् येन पुंसाम् ।
हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूते
     ज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वारक्षेत्र में) विराजमान थे। भगवद्भक्ति से शुद्ध हुए हृदयवाले विदुर जी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर उन्होंने पूछा ॥ १ ॥
विदुरजीने कहा—भगवन् ! संसारमें सब लोग सुखके लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दु:ख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दु:खकी वृद्धि ही होती है। अत: इस विषयमें क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये ॥ २ ॥
जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुखी हैं, उनपर कृपा करनेके लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसारमें विचरा करते हैं ॥३॥ साधुशिरोमणे ! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधनका उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करनेसे भगवान्‌ अपने भक्तोंके भक्तिपूत हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरूपका अपरोक्ष अनुभव करानेवाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं ॥ ४ ॥ 

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बुधवार, 13 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट१०)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

विदुरोऽप्युद्धवात् श्रुत्वा कृष्णस्य परमात्मनः ।
क्रीडयोपात्तदेहस्य कर्माणि श्लाघितानि च ॥ ३३ ॥
देहन्यासं च तस्यैवं धीराणां धैर्यवर्धनम् ।
अन्येषां दुष्करतरं पशूनां विक्लवात्मनाम् ॥ ३४ ॥
आत्मानं च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनसेक्षितम् ।
ध्यायन् गते भागवते रुरोद प्रेमविह्वलः ॥ ३५ ॥
कालिन्द्याः कतिभिः सिद्ध अहोभिर्भरतर्षभ ।
प्रापद्यत स्वःसरितं यत्र मित्रासुतो मुनिः ॥ ३६ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं) कुरुश्रेष्ठ परीक्षित्‌ ! परमात्मा श्रीकृष्ण ने लीला से ही अपना श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीला से ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया। उनका वह अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषों का उत्साह बढ़ाने वाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुष्कर था। परम भागवत उद्धवजी के मुखसे उनके प्रशंसनीय कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होनेका समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान्‌ ने परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुरजी उद्धवजीके चले जानेपर प्रेमसे विह्वल होकर रोने लगे ॥ ३३—३५ ॥ इसके पश्चात् सिद्धशिरोमणि विदुरजी यमुनातटसे चलकर कुछ दिनोंमें गङ्गाजीके किनारे जा पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेयजी रहते थे ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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मंगलवार, 12 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०९)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

श्रीशुक उवाच -

ब्रह्मशापापदेशेन कालेनामोघवाञ्छितः ।
संहृत्य स्वकुलं स्फीतं त्यक्ष्यन् देहमचिन्तयत् ॥ २९ ॥
अस्मात् लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम् ।
अर्हत्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः ॥ ३० ॥
नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनो यद्गुमणैर्नार्दितः प्रभुः ।
अतो मद्वयुनं लोकं ग्राहयन् इह तिष्ठतु ॥ ३१ ॥
एवं त्रिलोकगुरुणा सन्दिष्टः शब्दयोनिना ।
बदर्याश्रममासाद्य हरिमीजे समाधिना ॥ ३२ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरिने ब्राह्मणोंके शापरूप कालके बहाने अपने कुलका संहार कर अपने श्रीविग्रहको त्यागते समय विचार किया ॥ २९ ॥ ‘अब इस लोकसे मेरे चले जानेपर संयमीशिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करनेके सच्चे अधिकारी हैं ॥ ३० ॥ उद्धव मुझ से अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अत: लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा देते हुए वे यहीं रहें’ ॥ ३१ ॥ वेदों के मूल कारण जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देनेपर उद्धवजी बदरिकाश्रम में जाकर समाधि- योग द्वारा श्रीहरि की आराधना करने लगे ॥ ३२ ॥ 

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सोमवार, 11 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०८)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

श्रीशुक उवाच –

इति सह विदुरेण विश्वमूर्तेः
     गुणकथया सुधया प्लावितोरुतापः ।
क्षणमिव पुलिने यमस्वसुस्तां
     समुषित औपगविर्निशां ततोऽगात् ॥ २७ ॥
राजोवाच -
निधनमुपगतेषु वृष्णिभोजेषु
     अधिरथयूथपयूथपेषु मुख्यः ।
स तु कथमवशिष्ट उद्धवो
     यद्धरिरपि तत्यज आकृतिं त्र्यधीशः ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार विदुरजी के साथ विश्वमूर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुणोंकी चर्चा होनेसे उस कथामृतके द्वारा उद्धवजीका वियोगजनित महान् ताप शान्त हो गया। यमुनाजी के तीर पर उनकी वह रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। फिर प्रात:काल होते ही वे वहाँ से चल दिये ॥ २७ ॥
राजा परीक्षित्‌ने पूछा—भगवन् ! वृष्णिकुल और भोजवंशके सभी रथी और यूथपतियों के भी यूथपति नष्ट हो गये थे। यहाँ तक कि त्रिलोकी नाथ श्रीहरि को भी अपना वह रूप छोडऩा पड़ा था। फिर उन सबके मुखिया उद्धवजी ही कैसे बच रहे ? ॥ २८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 10 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

श्रीशुक उवाच -
इति उद्धवाद् उपाकर्ण्य सुहृदां दुःसहं वधम् ।
ज्ञानेनाशमयत् क्षत्ता शोकं उत्पतितं बुधः ॥ २३ ॥
स तं महाभागवतं व्रजन्तं कौरवर्षभः ।
विश्रम्भाद् अभ्यधत्तेदं मुख्यं कृष्णपरिग्रहे ॥ २४ ॥

विदुर उवाच -
ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं
     यदाह योगेश्वर ईश्वरस्ते ।
वक्तुं भवान्नोऽर्हति यद्धि विष्णोः
     भृत्याः स्वभृत्यार्थकृतश्चरन्ति ॥ २५ ॥

उद्धव उवाच ।
ननु ते तत्त्वसंराध्य ऋषिः कौषारवोऽन्ति मे ।
साक्षाद् भगवतादिष्टो मर्त्यलोकं जिहासता ॥ २६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार उद्धवजी के मुखसे अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार सुनकर परम ज्ञानी विदुरजी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने ज्ञानद्वारा शान्त कर दिया ॥ २३ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण के परिकरों में प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा ॥ २४ ॥
विदुरजीने कहा—उद्धवजी ! योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप के गूढ़ रहस्य को प्रकट करनेवाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान्‌ के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य सिद्ध करनेके लिये ही विचरा करते हैं ॥ २५ ॥
उद्धवजीने कहा—उस तत्त्वज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोकको छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान्‌ ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा दी थी ॥ २६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 9 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

स एवं आराधितपादतीर्थाद्
     अधीततत्त्वात्मविबोधमार्गः ।
प्रणम्य पादौ परिवृत्य देवं
     इहागतोऽहं विरहातुरात्मा ॥ २० ॥
सोऽहं तद्दर्शनाह्लाद वियोगार्तियुतः प्रभो ।
गमिष्ये दयितं तस्य बदर्याश्रममण्डलम् ॥ २१ ॥
यत्र नारायणो देवो नरश्च भगवान् ऋषिः ।
मृदु तीव्रं तपो दीर्घं तेपाते लोकभावनौ ॥ २२ ॥

(उद्धवजी कहते हैं) इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्णसे आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका साधन सुनकर तथा उन प्रभुके चरणोंकी वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ। इस समय उनके विरहसे मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है ॥ २० ॥ विदुरजी ! पहले तो उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे हृदयको उनकी विरहव्यथा अत्यन्त पीडि़त कर रही है। अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र बदरिकाश्रमको जा रहा हूँ, जहाँ भगवान्‌ श्रीनारायणदेव और नर—ये दोनों ऋषि लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये दीर्घकालीन सौम्य दूसरोंको सुख पहुँचानेवाली एवं कठिन तपस्या कर रहें हैं ॥ २१-२२ ॥

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शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

मन्त्रेषु मां वा उपहूय यत्त्वं
     अकुण्ठिताखण्डसदात्मबोधः ।
पृच्छेः प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्तः
     तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥ १७ ॥
ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं
     प्रोवाच कस्मै भगवान् समग्रम् ।
अपि क्षमं नो ग्रहणाय भर्तः
     वदाञ्जसा यद् वृजिनं तरेम ॥ १८ ॥
इत्यावेदितहार्दाय मह्यं स भगवान् परः ।
आदिदेश अरविन्दाक्ष आत्मनः परमां स्थितिम् ॥ १९ ॥

(उद्धवजी भगवान् से कह रहे हैं) देव ! आपका स्वरूपज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर भी आप सलाह लेनेके लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्यों की तरह बड़ी सावधानीसे मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो ! आपकी वह लीला मेरे मनको मोहित-सा कर देती है ॥ १७ ॥ स्वामिन् ! अपने स्वरूपका गूढ़ रहस्य प्रकट करनेवाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्माजीको बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी इस संसार-दु:खको सुगमतासे पार कर जाऊँ’ ॥ १८ ॥ जब मैंने इस प्रकार अपने हृदयका भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णने मुझे अपने स्वरूपकी परम स्थितिका उपदेश दिया ॥ १९ ॥ 

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गुरुवार, 7 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

इत्यादृतोक्तः परमस्य पुंसः
     प्रतिक्षणानुग्रहभाजनोऽहम् ।
स्नेहोत्थरोमा स्खलिताक्षरस्तं
     मुञ्चञ्छुचः प्राञ्जलिराबभाषे ॥ १४ ॥
को न्वीश ते पादसरोजभाजां
     सुदुर्लभोऽर्थेषु चतुर्ष्वपीह ।
तथापि नाहं प्रवृणोमि भूमन्
     भवत्पदाम्भोज निषेवणोत्सुकः ॥ १५ ॥
कर्माण्यनीहस्य भवोऽभवस्य
     ते दुर्गाश्रयोऽथारिभयात्पलायनम् ।
कालात्मनो यत्प्रमदायुताश्रयः
     स्वात्मन् रतेः खिद्यति धीर्विदामिह ॥ १६ ॥

(उद्धवजी कहते हैं) विदुरजी ! मुझपर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुषकी कृपा बरसा करती थी। इस समय उनके इस प्रकार आदरपूर्वक कहनेसे स्नेहवश मुझे रोमाञ्च हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। उस समय मैंने हाथ जोडक़र उनसे कहा— ॥ १४ ॥ ‘स्वामिन् ! आपके चरण-कमलोंकी सेवा करनेवाले पुरुषोंको इस संसारमें अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—इन चारोंमेंसे कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है; तथापि मुझे उनमेंसे किसीकी इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपके चरणकमलोंकी सेवाके लिये ही लालायित रहता हूँ ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप नि:स्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, कालरूप होकर भी शत्रुके डरसे भागते हैं और द्वारकाके किलेमें जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियोंके साथ रमण करते हैं—इन विचित्र चरित्रोंको देखकर विद्वानोंकी बुद्धि भी चक्करमें पड़ जाती है ॥ १६ ॥ 

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बुधवार, 6 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धवजी से विदा होकर विदुरजी का मैत्रेय ऋषि के पास जाना

श्रीभगवानुवाच –
वेदाहमन्तर्मनसीप्सितं ते
     ददामि यत्तद् दुरवापमन्यैः ।
सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनां
     मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्टः ॥ ११ ॥
स एष साधो चरमो भवानां
     आसादितस्ते मदनुग्रहो यत् ।
यन्मां नृलोकान् रह उत्सृजन्तं
     दिष्ट्या ददृश्वान् विशदानुवृत्त्या ॥ १२ ॥
पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये
     पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे ।
ज्ञानं परं मन्महिमावभासं
     यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥ १३ ॥

श्रीभगवान्‌ कहने लगे—मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ; इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। उद्धव ! तुम पूर्व-जन्ममें वसु थे। विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियों और वसुओंके यज्ञमें मुझे पानेकी इच्छासे ही तुमने मेरी आराधना की थी ॥ ११ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! संसारमें तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मृत्युलोकको छोडक़र अपने धाममें जाना चाहता हूँ। इस समय यहाँ एकान्तमें तुमने अपनी अनन्य भक्तिके कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्यकी बात है ॥ १२ ॥ पूर्वकालमें पाद्मकल्पके आरम्भमें मैंने अपने नाभि-कमलपर बैठे हुए ब्रह्माको अपनी महिमाके प्रकट करनेवाले जिस श्रेष्ठ ज्ञानका उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग ‘भागवत’ कहते हैं, वही मैं तुम्हें देता हूँ ॥ १३ ॥

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मंगलवार, 5 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

अथापि तदभिप्रेतं जानन् अहं अरिन्दम् ।
पृष्ठतोऽन्वगमं भर्तुः पादविश्लेषणाक्षमः ॥ ५ ॥
अद्राक्षमेकमासीनं विचिन्वन् दयितं पतिम् ।
श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥ ६ ॥
श्यामावदातं विरजं प्रशान्तारुणलोचनम् ।
दोर्भिश्चतुर्भिः विदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥ ७ ॥
वाम ऊरौ अवधिश्रित्य दक्षिणाङ्‌घ्रिसरोरुहम् ।
अपाश्रितार्भकाश्वत्थं अकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥ ८ ॥
तस्मिन् महाभागवतो द्वैपायनसुहृत्सखा ।
लोकान् अनुचरन् सिद्ध आससाद यदृच्छया ॥ ९ ॥
तस्यानुरक्तस्य मुनेर्मुकुन्दः
     प्रमोदभावानतकन्धरस्य ।
आश्रृण्वतो मां अनुरागहास
     समीक्षया विश्रमयन् उवाच ॥ १० ॥

(उद्धवजी कहते हैं) विदुरजी ! इससे यद्यपि मैं उनका(भगवान का) आशय समझ गया था, तो भी स्वामीके चरणोंका वियोग न सह सकने के कारण मैं उनके पीछे-पीछे प्रभासक्षेत्रमें पहुँच गया ॥ ५ ॥ वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभु शोभाधाम श्यामसुन्दर सरस्वती के तटपर अकेले ही बैठे हैं ॥ ६ ॥ दिव्य विशुद्ध-सत्त्वमय अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्तिसे भरी रतनारी आँखें हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दूरसे ही पहचान लिया ॥ ७ ॥ वे एक पीपलके छोटे-से वृक्षका सहारा लिये बायीं जाँघपर दायाँ चरणकमल रखे बैठे थे। भोजन-पानका त्याग कर देनेपर भी वे आनन्दसे प्रफुल्लित हो रहे थे ॥ ८ ॥ इसी समय व्यासजीके प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकोंमें स्वच्छन्द विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे ॥ ९ ॥ मैत्रेय मुनि भगवान्‌ के अनुरागी भक्त हैं। आनन्द और भक्तिभावसे उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरिने प्रेम एवं मुसकानयुक्त चितवनसे मुझे आनन्दित करते हुए कहा ॥ १० ॥

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सोमवार, 4 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

उद्धव उवाच -

अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।
तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥ १ ॥
तेषां मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।
निम्लोचति रवावासीत् वेणूनामिव मर्दनम् ॥ २ ॥
भगवान् स्वात्ममायाया गतिं तां अवलोक्य सः ।
सरस्वतीं उपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥ ३ ॥
अहं चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरेण ह ।
बदरीं त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सञ्जिहीर्षुणा ॥ ४ ॥

उद्धवजीने कहा—फिर ब्राह्मणोंकी आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी। उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनोंसे एक दूसरेके हृदयको चोट पहुँचाने लगे ॥ १ ॥ मदिराके नशेसे उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपसकी रगड़से बाँसोंमें आग लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट होने लगी ॥ २ ॥ भगवान्‌ अपनी मायाकी उस विचित्र गतिको देखकर सरस्वती के जलसे आचमन करके एक वृक्षके नीचे बैठ गये ॥ ३ ॥ इससे पहले ही शरणागतों का दु:ख दूर करने वाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझसे कह दिया था कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ ॥ ४ ॥ 

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शनिवार, 2 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के अन्य लीला-चरित्रों का वर्णन

पुर्यां कदाचित् क्रीडद्‌भिः यदुभोजकुमारकैः ।
कोपिता मुनयः शेपुः भगवन् मतकोविदाः ॥ २४ ॥
ततः कतिपयैर्मासैः वृष्णिभोज अन्धकादयः ।
ययुः प्रभासं संहृष्टा रथैर्देवविमोहिताः ॥ २५ ॥
तत्र स्नात्वा पितॄन् देवान् ऋषींश्चैव तदम्भसा ।
तर्पयित्वाथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददुः ॥ २६ ॥
हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकम्बलान् ।
यानं रथानिभान् कन्या धरां वृत्तिकरीमपि ॥ २७ ॥
अन्नं चोरुरसं तेभ्यो दत्त्वा भगवदर्पणम् ।
गोविप्रार्थासवः शूराः प्रणेमुर्भुवि मूर्धभिः ॥ २८ ॥

एक बार द्वारकापुरी में खेलते हुए यदुवंशी और भोजवंशी बालकों ने खेल-खेल में कुछ मुनीश्वरों को चिढ़ा दिया। तब यादवकुल का नाश ही भगवान्‌ को अभीष्ट है—यह समझकर उन ऋषियों ने बालकों को शाप दे दिया ॥ २४ ॥ इसके कुछ ही महीने बाद भावीवश वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी यादव बड़े हर्षसे रथोंपर चढक़र प्रभासक्षेत्र को गये ॥ २५ ॥ वहाँ स्नान करके उन्होंने उस तीर्थ के जलसे पितर, देवता और ऋषियों का तर्पण किया तथा ब्राह्मणों को श्रेष्ठ गौएँ दीं ॥ २६ ॥ उन्होंने सोना, चाँदी, शय्या, वस्त्र, मृगचर्म, कम्बल, पालकी, रथ, हाथी, कन्याएँ और ऐसी भूमि जिससे जीविका चल सके तथा नाना प्रकार के सरस अन्न भी भगवदर्पण करके ब्राह्मणों को दिये। इसके पश्चात् गौ और ब्राह्मणों के लिये ही प्राण धारण करनेवाले उन वीरों ने पृथ्वीपर सिर टेककर उन्हें प्रणाम किया ॥ २७-२८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ के अन्य लीला-चरित्रों का वर्णन

स्निग्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया ।
चरित्रेणानवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना ॥ २० ॥
इमं लोकममुं चैव रमयन् सुतरां यदून् ।
रेमे क्षणदया दत्त क्षणस्त्रीक्षणसौहृदः ॥ २१ ॥
तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान् बहून् ।
गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत ॥ २२ ॥
दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान् ।
को विश्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुव्रतः ॥ २३ ॥

 मधुर मुसकान, स्नेहमयी चितवन, सुधामयी वाणी, निर्मल चरित्र तथा समस्त शोभा और सुन्दरता के निवास अपने श्रीविग्रह से (भगवान् ने) लोक-परलोक और विशेषतया यादवों को आनन्दित किया तथा रात्रिमें अपनी प्रियाओं के साथ क्षणिक अनुरागयुक्त होकर समयोचित विहार किया और इस प्रकार उन्हें भी सुख दिया ॥ २०-२१ ॥ इस तरह बहुत वर्षोंतक विहार करते-करते उन्हें गृहस्थ आश्रम-सम्बन्धी भोग-सामग्रियोंसे वैराग्य हो गया ॥ २२ ॥ ये भोग-सामग्रियाँ ईश्वर के अधीन हैं और जीव भी उन्हीं के अधीन है। जब योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण को ही उनसे वैराग्य हो गया तब भक्तियोग के द्वारा उनका अनुगमन करनेवाला भक्त तो उनपर विश्वास ही कैसे करेगा ? ॥ २३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६) हिरण्याक्ष-वध देवा ऊचुः – नमो नमस्तेऽखिलयज्ञतन्तव...