मंगलवार, 16 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीनागा ऊचुः
येन पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हृतानि नः
तद्वक्षःपाटनेनासां दत्तानन्द नमोऽस्तु ते ||४७||

श्रीमनव ऊचुः
मनवो वयं तव निदेशकारिणो
दितिजेन देव परिभूतसेतवः
भवता खलः स उपसंहृतः प्रभो
करवाम ते किमनुशाधि किङ्करान् ||४८||

श्रीप्रजापतय ऊचुः
प्रजेशा वयं ते परेशाभिसृष्टा
न येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः
स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते
जगन्मङ्गलं सत्त्वमूर्तेऽवतारः ||४९||

नागोंने कहाइस पापीने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियोंको भी छीन लिया था। आज उसकी छाती फाडक़र आपने हमारी पत्नियोंको बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ४७ ॥
मनुओंने कहादेवाधिदेव ! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्यने हमलोगोंकी धर्ममर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्टको मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो ! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें ? ॥ ४८ ॥
प्रजापतियोंने कहापरमेश्वर ! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परंतु इसके रोक देनेसे हम प्रजाकी सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीनपर सर्वदाके लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करनेवाले प्रभो ! आपका यह अवतार संसारके कल्याणके लिये है ॥ ४९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीसिद्धा ऊचुः

यो नो गतिं योगसिद्धामसाधु-
रहारषीद्योगतपोबलेन
नाना दर्पं तं नखैर्विददार
तस्मै तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ||४५||

श्रीविद्याधरा ऊचुः

विद्यां पृथग्धारणयानुराद्धां
न्यषेधदज्ञो बलवीर्यदृप्तः
स येन सङ्ख्ये पशुवद्धतस्तं
मायानृसिंहं प्रणताः स्म नित्यम् ||४६||

सिद्धोंने कहानृसिंहदेव ! इस दुष्टने अपने योग और तपस्याके बलसे हमारी योगसिद्ध गति छीन ली थी। अपने नखोंसे आपने उस घमंडीको फाड़ डाला है। हम आपके चरणोंमें विनीत भावसे नमस्कार करते हैं ॥ ४५ ॥
विद्याधरोंने कहायह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरताके घमंडमें चूर था। यहाँतक कि हमलोगोंने विविध धारणाओंसे जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्धमें यज्ञपशुकी तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीलासे नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ॥ ४६ ॥

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सोमवार, 15 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीऋषय ऊचुः
त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो
येनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्क्थ
तद्विप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपाल
रक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्थाः ||४३||

श्रीपितर ऊचुः
श्राद्धानि नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजैर्
दत्तानि तीर्थसमयेऽप्यपिबत्तिलाम्बु
तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद्य आर्च्छत्
तस्मै नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ||४४||

ऋषियोंने कहापुरुषोत्तम ! आपने तपस्याके द्वारा ही अपनेमें लीन हुए जगत् की फिर से रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेज:स्वरूप श्रेष्ठ तपस्याका उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्यने उसी तपस्याका उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल ! उस तपस्याकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करके आपने हमारे लिये फिरसे उसी उपदेशका अनुमोदन किया है ॥ ४३ ॥
पितरोंने कहाप्रभो ! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थमें या संक्रान्ति आदिके अवसरपर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलाञ्जलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखोंसे उसका पेट फाडक़र वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मोंके एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ४४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीब्रह्मोवाच
नतोऽस्म्यनन्ताय दुरन्तशक्तये
विचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे
विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान्गुणैः
स्वलीलया सन्दधतेऽव्ययात्मने ||४०||

श्रीरुद्र उवाच
कोपकालो युगान्तस्ते हतोऽयमसुरोऽल्पकः
तत्सुतं पाह्युपसृतं भक्तं ते भक्तवत्सल || ४१||

श्रीइन्द्र उवाच
प्रत्यानीताः परम भवता त्रायता नः स्वभागा
दैत्याक्रान्तं हृदयकमलं तद्गृहं प्रत्यबोधि
कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते
मुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरैः किम् ||४२||

ब्रह्माजीने कहाप्रभो ! आप अनन्त हैं। आपकी शक्तिका कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणोंके द्वारा आप लीलासे ही सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंगसे करते हैंफिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४० ॥
श्रीरुद्रने कहाआपके क्रोध करनेका समय तो कल्पके अन्तमें होता है। यदि इस तुच्छ दैत्यको मारनेके लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरणमें आया है। भक्तवत्सल प्रभो ! आप अपने इस भक्तकी रक्षा कीजिये ॥ ४१ ॥
इन्द्रने कहापुरुषोत्तम ! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तवमें आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्योंके आतङ्कसे सङ्कुचित हमारे हृदयकमलको आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादिका राज्य हमलोगोंको पुन: प्राप्त हुआ है, यह सब कालका ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है ही क्या। स्वामिन् ! जिन्हें आपकी सेवाकी चाह है, वे मुक्तिका भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगोंकी तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है ॥ ४२ ॥

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रविवार, 14 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

निशम्य लोकत्रयमस्तकज्वरं
तमादिदैत्यं हरिणा हतं मृधे
प्रहर्षवेगोत्कलितानना मुहुः
प्रसूनवर्षैर्ववृषुः सुरस्त्रियः ||३५||
तदा विमानावलिभिर्नभस्तलं
दिदृक्षतां सङ्कुलमास नाकिनाम्
सुरानका दुन्दुभयोऽथ जघ्निरे
गन्धर्वमुख्या ननृतुर्जगुः स्त्रियः ||३६||
तत्रोपव्रज्य विबुधा ब्रह्मेन्द्र गिरिशादयः
ऋषयः पितरः सिद्धा विद्याधरमहोरगाः ||३७||
मनवः प्रजानां पतयो गन्धर्वाप्सरचारणाः
यक्षाः किम्पुरुषास्तात वेतालाः सहकिन्नराः ||३८||
ते विष्णुपार्षदाः सर्वे सुनन्दकुमुदादयः
मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिपुटा आसीनं तीव्रतेजसम्
ईडिरे नरशार्दूलं नातिदूरचराः पृथक् ||३९||

युधिष्ठिर ! जब स्वर्गकी देवियोंको यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकोंके सिरकी पीड़ाका मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्धमें भगवान्‌के हाथों मार डाला गया, तब आनन्दके उल्लाससे उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान्‌पर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ॥ ३५ ॥ आकाशमें विमानोंसे आये हुए भगवान्‌के दर्शनार्थी देवताओंकी भीड़ लग गयी। देवताओंके ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ३६ ॥ तात ! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शङ्कर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान्‌ के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगों ने सिरपर अञ्जलि बाँधकर सिंहासन पर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंहभगवान्‌ की थोड़ी दूरसे अलग-अलग स्तुति की ॥ ३७३९ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

संरम्भदुष्प्रेक्ष्यकराललोचनो
व्यात्ताननान्तं विलिहन्स्वजिह्वया
असृग्लवाक्तारुणकेशराननो
यथान्त्रमाली द्विपहत्यया हरिः ||३०||
नखाङ्कुरोत्पाटितहृत्सरोरुहं
विसृज्य तस्यानुचरानुदायुधान्
अहन्समस्तान्नखशस्त्रपाणिभिर्दो-
र्दण्डयूथोऽनुपथान्सहस्रशः ||३१||
सटावधूता जलदाः परापतन् 
ग्रहाश्च तद्दृष्टिविमुष्टरोचिषः
अम्भोधयः श्वासहता विचुक्षुभु-
र्निर्ह्रादभीता दिगिभा विचुक्रुशुः ||३२||
द्यौस्तत्सटोत्क्षिप्तविमानसङ्कुला
प्रोत्सर्पत क्ष्मा च पदाभिपीडिता
शैलाः समुत्पेतुरमुष्य रंहसा
तत्तेजसा खं ककुभो न रेजिरे ||३३||
ततः सभायामुपविष्टमुत्तमे
नृपासने सम्भृततेजसं विभुम्
अलक्षितद्वैरथमत्यमर्षणं
प्रचण्डवक्त्रं न बभाज कश्चन ||३४||

उस समय उनकी क्रोधसे भरी विकराल आँखोंकी ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभसे फैले हुए मुँहके दोनों कोने चाट रहे थे। खूनके छींटोंसे उनका मुँह और गरदनके बाल लाल हो रहे थे। हाथीको मारकर गलेमें आँतोंकी माला पहने हुए मृगराजके समान उनकी शोभा हो रही थी ॥ ३० ॥ उन्होंने अपने तीखे नखोंसे हिरण्यकशिपुका कलेजा फाडक़र उसे जमीनपर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथोंमें शस्त्र लेकर भगवान्‌पर प्रहार करनेके लिये आये। पर भगवान्‌ने अपनी भुजारूपी सेनासे, लातोंसे और नखरूपी शस्त्रोंसे चारों ओर खदेड़-खदेडक़र उन्हें मार डाला ॥ ३१ ॥
युधिष्ठिर ! उस समय भगवान्‌ नृसिंहके गरदनके बालोंकी फटकारसे बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रोंकी ज्वालासे सूर्य आदि ग्रहोंका तेज फीका पड़ गया। उनके श्वासके धक्के से समुद्र क्षुब्ध हो गये। उनके सिंहनादसे भयभीत होकर दिग्गज चिग्घाडऩे लगे ॥ ३२ ॥ उनके गरदन के बालोंसे टकराकर देवताओंके विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरोंकी धमकसे भूकम्प आ गया, वेगसे पर्वत उडऩे लगे और उनके तेजकी चकाचौंधसे आकाश तथा दिशाओंका दीखना बंद हो गया ॥ ३३ ॥ इस समय नृसिंहभगवान्‌का सामना करनेवाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपुकी राज- सभामें ऊँचे सिंहासनपर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोधभरे भयङ्कर चेहरेको देखकर किसीका भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे ॥ ३४ ॥

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शनिवार, 13 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

असाध्वमन्यन्त हृतौकसोऽमरा
घनच्छदा भारत सर्वधिष्ण्यपाः
तं मन्यमानो निजवीर्यशङ्कितं
यद्धस्तमुक्तो नृहरिं महासुरः
पुनस्तमासज्जत खड्गचर्मणी
प्रगृह्य वेगेन गतश्रमो मृधे ||२७||
तं श्येनवेगं शतचन्द्र वर्त्मभि-
श्चरन्तमच्छिद्र मुपर्यधो हरिः
कृत्वाट्टहासं खरमुत्स्वनोल्बणं
निमीलिताक्षं जगृहे महाजवः ||२८||
विष्वक्स्फुरन्तं ग्रहणातुरं हरि-
र्व्यालो यथाखुं कुलिशाक्षतत्वचम्
द्वार्यूरुमापत्य ददार लीलया
नखैर्यथाहिं गरुडो महाविषम् ||२९||

युधिष्ठिर ! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलोंमें छिपकर इस युद्धको देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपुने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान्‌के हाथसे छूट गया, तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपुने भी यही समझा कि नृसिंहने मेरे बलवीर्यसे डरकर ही मुझे अपने हाथसे छोड़ दिया है। इस विचारसे उसकी थकान जाती रही और वह युद्धके लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा ॥ २७ ॥ उस समय वह बाजकी तरह बड़े वेगसे ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवारके पैंतरे बदलने लगा कि जिससे उसपर आक्रमण करनेका अवसर ही न मिले। तब भगवान्‌ने बड़े ऊँचे स्वरसे प्रचण्ड और भयङ्कर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपुकी आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेगसे झपटकर भगवान्‌ ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहे को पकड़ लेता है। जिस हिरण्यकशिपु के चमड़े पर वज्र की चोट से भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजेसे निकलनेके लिये जोरसे छटपटा रहा था। भगवान्‌ ने सभा के दरवाजे पर ले जाकर उसे अपनी जाँघों पर गिरा लिया और खेल-खेल में अपने नखों से उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँपको चीर डालते हैं ॥ २८-२९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

न तद्विचित्रं खलु सत्त्वधामनि
स्वतेजसा यो नु पुरापिबत्तमः
ततोऽभिपद्याभ्यहनन्महासुरो
रुषा नृसिंहं गदयोरुवेगया ||२५||
तं विक्रमन्तं सगदं गदाधरो
महोरगं तार्क्ष्यसुतो यथाग्रहीत्
स तस्य हस्तोत्कलितस्तदासुरो
विक्रीडतो यद्वदहिर्गरुत्मतः ||२६||

समस्त शक्ति और तेजके आश्रय भगवान्‌ के सम्बन्ध में ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि सृष्टिके प्रारम्भमें उन्होंने अपने तेजसे प्रलयके निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकारको भी पी लिया था। तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोधसे लपका और अपनी गदा को बड़े जोर से घुमाकर उसने नृसिंहभगवान्‌ पर प्रहार किया ॥ २५ ॥ प्रहार करते समय हीजैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्‌ ने गदासहित उस दैत्यको पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथसे वैसे ही निकल गया, जैसे क्रीडा करते हुए गरुडके चंगुलसे साँप छूट जाय ॥ २६ ॥

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शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

करालदंष्ट्रं करवालचञ्चल-
क्षुरान्तजिह्वं भ्रुकुटीमुखोल्बणम्
स्तब्धोर्ध्वकर्णं गिरिकन्दराद्भुत-
व्यात्तास्यनासं हनुभेदभीषणम् ||२१||
दिविस्पृशत्कायमदीर्घपीवर
ग्रीवोरुवक्षःस्थलमल्पमध्यमम्
चन्द्रांशुगौरैश्छुरितं तनूरुहै-
र्विष्वग्भुजानीकशतं नखायुधम् ||२२||
दुरासदं सर्वनिजेतरायुध-
प्रवेकविद्रावितदैत्यदानवम्
प्रायेण मेऽयं हरिणोरुमायिना
वधः स्मृतोऽनेन समुद्यतेन किम् ||२३||
एवं ब्रुवंस्त्वभ्यपतद्गदायुधो
नदन्नृसिंहं प्रति दैत्यकुञ्जरः
अलक्षितोऽग्नौ पतितः पतङ्गमो
यथा नृसिंहौजसि सोऽसुरस्तदा ||२४||

(भगवान् की) दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपर की ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड क़ी गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ोंसे उसकी भयङ्करता बहुत बढ़ गयी थी ॥ २१ ॥ विशाल शरीर स्वर्गका स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमाकी किरणोंके समान सफेद रोएँ सारे शरीरपर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुधका काम देते थे ॥ २२ ॥ उनके पास फटकने
तक का साहस किसी को न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रोंके द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवोंको भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगाहो-न-हो महामायावी विष्णुने ही मुझे मार डालनेके लिये यह ढंग रचा है; परंतु इसकी इन चालोंसे हो ही क्या सकता है ॥ २३ ॥ इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथमें गदा लेकर नृसिंह- भगवान्‌पर टूट पड़ा। परंतु जैसे पतंगा  आग में गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान्‌के तेजके भीतर जाकर लापता हो गया ॥ २४ ॥


शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...