बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

वृषध्वजो निशम्येदं योषिद् रूपेण दानवान् ।
मोहयित्वा सुरगणान् हरिः सोममपाययत् ॥ १ ॥
वृषमारुह्य गिरिशः सर्वभूतगणैर्वृतः ।
सह देव्या ययौ द्रष्टुं यत्रास्ते मधुसूदनः ॥ २ ॥
सभाजितो भगवता सादरं सोमया भवः ।
सूपविष्ट उवाचेदं प्रतिपूज्य स्मयन्हरिम् ॥ ३ ॥

श्रीमहादेव उवाच -
देवदेव जगद्व्यापिन् जगदीश जगन्मय ।
सर्वेषामपि भावानां त्वमात्मा हेतुरीश्वरः ॥ ४ ॥
आद्यन्तौ अस्य यन्मध्यं इदं अन्यदहं बहिः ।
यतोऽव्ययस्य नैतानि तत्सत्यं ब्रह्म चिद्‍भवान् ॥ ५ ॥
तवैव चरणाम्भोजं श्रेयस्कामा निराशिषः ।
विसृज्योभयतः संगं मुनयः समुपासते ॥ ६ ॥
त्वं ब्रह्म पूर्णममृतं विगुणं विशोकं
     आनन्दमात्रमविकारमनन्यदन्यत् ।
विश्वस्य हेतुरुदयस्थितिसंयमानां
     आत्मेश्वरश्च तदपेक्षतयानपेक्षः ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ शङ्कर ने यह सुना कि श्रीहरि ने स्त्री का रूप धारण करके असुरों को मोहित कर लिया और देवताओं को अमृत पिला दिया, तब वे सती देवी के साथ बैल पर सवार हो समस्त भूतगणों को लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान्‌ मधुसूदन निवास करते हैं ॥ १-२ ॥ भगवान्‌ श्रीहरि ने बड़े प्रेम से गौरी-शङ्कर भगवान्‌ का स्वागत-सत्कार किया। वे भी सुख से बैठकर भगवान्‌ का सम्मान करके मुसकराते हुए बोले ॥ ३ ॥
श्रीमहादेवजीने कहासमस्त देवोंके आराध्यदेव ! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत्स्वरूप हैं। समस्त चराचर पदार्थोंके मूल कारण, ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं ॥ ४ ॥ इस जगत्के आदि, अन्त और मध्य आपसे ही होते हैं; परंतु आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं। आपके अविनाशी स्वरूपमें द्रष्टा, दृश्य, भोक्ता और भोग्य का भेदभाव नहीं है। वास्तवमें आप सत्य, चिन्मात्र ब्रह्म ही हैं ॥ ५ ॥ कल्याणकामी महात्मालोग इस लोक और परलोक दोनोंकी आसक्ति एवं समस्त कामनाओंका परित्याग करके आपके चरणकमलोंकी ही आराधना करते हैं ॥ ६ ॥
आप अमृतस्वरूप, समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित, शोककी छायासे भी दूर, स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म हैं। आप केवल आनन्दस्वरूप हैं। आप निर्विकार हैं। आपसे भिन्न कुछ नहीं है, परंतु आप सबसे भिन्न हैं। आप विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। आप समस्त जीवोंके शुभाशुभ कर्मका फल देनेवाले स्वामी हैं। परंतु यह बात भी जीवोंकी अपेक्षासे ही कही जाती है; वास्तवमें आप सबकी अपेक्षासे रहित, अनपेक्ष हैं ॥ ७ ॥

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मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

श्रीनारद उवाच
भवद्भिरमृतं प्राप्तं नारायणभुजाश्रयैः
श्रिया समेधिताः सर्व उपारमत विग्रहात् ॥ ४४ ॥

श्रीशुक उवाच
संयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वचः
उपगीयमानानुचरैर्ययुः सर्वे त्रिविष्टपम् ॥ ४५ ॥
येऽवशिष्टा रणे तस्मिन्नारदानुमतेन ते
बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन् ॥ ४६ ॥
तत्राविनष्टावयवान्विद्यमानशिरोधरान्
उशना जीवयामास संजीवन्या स्वविद्यया ॥ ४७ ॥
बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः
पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः ॥ ४८ ॥

नारदजीने कहादेवताओ ! भगवान्‌की भुजाओंकी छत्रछायामें रहकर आपलोगोंने अमृत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मीजीने भी अपनी कृपा-कोरसे आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आपलोग अब लड़ाई बंद कर दें ॥ ४४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंदेवताओंने देवर्षि नारदकी बात मानकर अपने क्रोधके वेगको शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्गको चले गये। उस समय देवताओंके अनुचर उनके यशका गान कर रहे थे ॥ ४५ ॥ युद्धमें बचे हुए दैत्योंने देवर्षि नारदकी सम्मतिसे वज्रकी चोटसे मरे हुए बलिको लेकर अस्ताचलकी यात्रा की ॥ ४६ ॥ वहाँ शुक्राचार्यने अपनी सञ्जीवनी विद्यासे उन असुरोंको जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अङ्ग कटे नहीं थे, बच रहे थे ॥ ४७ ॥ शुक्राचार्यके स्पर्श करते ही बलिकी इन्द्रियोंमें चेतना और मनमें स्मरण शक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसारमें जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होनेपर भी उन्हें किसी प्रकारका खेद नहीं हुआ ॥ ४८ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
देवासुरसंग्रामे एकादशोऽध्यायः

॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

तस्मादिन्द्रो ऽबिभेच्छत्रोर्वज्रः प्रतिहतो यतः
किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम् ॥ ३३ ॥
येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेदः प्रजात्यये
कृतो निविशतां भारैः पतत्त्रैः पततां भुवि ॥ ३४ ॥
तपःसारमयं त्वाष्ट्रं वृत्रो येन विपाटितः
अन्ये चापि बलोपेताः सर्वास्त्रैरक्षतत्वचः ॥ ३५ ॥
सोऽयं प्रतिहतो वज्रो मया मुक्तोऽसुरेऽल्पके
नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजोऽप्यकारणम् ॥ ३६ ॥
इति शक्रं विषीदन्तमाह वागशरीरिणी
नायं शुष्कैरथो नाद्रैर्वधमर्हति दानवः ॥ ३७ ॥
मयास्मै यद्वरो दत्तो मृत्युर्नैवार्द्र शुष्कयोः
अतोऽन्यश्चिन्तनीयस्ते उपायो मघवन्रिपोः ॥ ३८ ॥
तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान्सुसमाहितः
ध्यायन्फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम् ॥ ३९ ॥
न शुष्केण न चाद्रेर्ण जहार नमुचेः शिरः
तं तुष्टुवुर्मुनिगणा माल्यैश्चावाकिरन्विभुम् ॥ ४० ॥
गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्वावसुपरावसू
देवदुन्दुभयो नेदुर्नर्तक्यो ननृतुर्मुदा ॥ ४१ ॥
अन्येऽप्येवं प्रतिद्वन्द्वान्वाय्वग्निवरुणादयः
सूदयामासुरसुरान्मृगान्केसरिणो यथा ॥ ४२ ॥
ब्रह्मणा प्रेषितो देवान्देवर्षिर्नारदो नृप
वारयामास विबुधान्दृष्ट्वा दानवसङ्क्षयम् ॥ ४३ ॥

जब वज्र नमुचिका कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि दैवयोगसे संसारभरको संशयमें डालनेवाली यह कैसी घटना हो गयी ! ॥ ३३ ॥ पहले युगमें जब ये पर्वत पाँखोंसे उड़ते थे और घूमते-फिरते भार के कारण पृथ्वीपर गिर पड़ते थे, तब प्रजाका विनाश होते देखकर इसी वज्रसे मैंने उन पहाड़ोंकी पाँखें काट डाली थीं ॥ ३४ ॥ त्वष्टाकी तपस्याका सार ही वृत्रासुरके रूपमें प्रकट हुआ था। उसे भी मैंने इसी वज्रके द्वारा काट डाला था। और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्रसे जिनके चमड़ेको भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्रसे मैंने मृत्युके घाट उतार दिये थे ॥ ३५ ॥ वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करनेपर भी इस तुच्छ असुरको न मार सका, अत: अब मैं इसे अङ्गीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेजसे बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है॥ ३६ ॥ इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई—‘‘यह दानव न तो सूखी वस्तुसे मर सकता है, न गीलीसे ॥ ३७ ॥ इसे मैं वर दे चुका हूँ कि सूखी या गीली वस्तुसे तुम्हारी मृत्यु न होगी।इसलिये इन्द्र ! इस शत्रुको मारनेके लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो !’’ ॥ ३८ ॥ उस आकाशवाणीको सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रतासे विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्रका फेन तो सूखा भी है, गीला भी; ॥ ३९ ॥ इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला। अत: इन्द्रने उस न सूखे और न गीले समुद्र-फेनसे नमुचिका सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान्‌ इन्द्रपर पुष्पोंकी वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परावसु गान करने लगे, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्दसे नाचने लगीं ॥ ४१ ॥ इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओंने भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे विपक्षियोंको वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनोंको मार डालते हैं ॥ ४२ ॥ परीक्षित्‌ ! इधर ब्रह्माजीने देखा कि दानवोंका तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने देवर्षि नारदको देवताओंके पास भेजा और नारदजीने वहाँ जाकर देवताओंको लडऩेसे रोक दिया ॥ ४३ ॥

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सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

नमुचिस्तद्वधं दृष्ट्वा शोकामर्षरुषान्वितः
जिघांसुरिन्द्रं नृपते चकार परमोद्यमम् ॥ २९ ॥
अश्मसारमयं शूलं घण्टावद्धेमभूषणम्
प्रगृह्याभ्यद्र वत्क्रुद्धो हतोऽसीति वितर्जयन्
प्राहिणोद्देवराजाय निनदन्मृगराडिव ॥ ३० ॥
तदापतद्गगनतले महाजवं
विचिच्छिदे हरिरिषुभिः सहस्रधा
तमाहनन्नृप कुलिशेन कन्धरे
रुषान्वितस्त्रिदशपतिः शिरो हरन् ॥ ३१ ॥
न तस्य हि त्वचमपि वज्र ऊर्जितो
बिभेद यः सुरपतिनौजसेरितः
तदद्भुतं परमतिवीर्यवृत्रभित्
तिरस्कृतो नमुचिशिरोधरत्वचा ॥ ३२ ॥

परीक्षित्‌ ! अपने भाइयों को मरा हुआ देख नमुचि को बड़ा शोक हुआ। वह क्रोध के कारण आपे से बाहर होकर इन्द्रको मार डालने के लिये जी-जानसे प्रयास करने लगा ॥ २९ ॥ इन्द्र ! अब तुम बच नहीं सकते’—इस प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्रपर टूट पड़ा। वह त्रिशूल फौलादका बना हुआ था, सोनेके आभूषणोंसे विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे। नमुचिने क्रोधके मारे सिंहके समान गरजकर इन्द्रपर वह त्रिशूल चला दिया ॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! इन्द्रने देखा कि त्रिशूल बड़े वेगसे मेरी ओर आ रहा है। उन्होंने अपने बाणोंसे आकाशमें ही उसके हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्रने बड़े क्रोधसे उसका सिर काट लेनेके लिये उसकी गर्दनपर वज्र मारा ॥ ३१ ॥ यद्यपि इन्द्रने बड़े वेगसे वह वज्र चलाया था, परंतु उस यशस्वी वज्रसे उसके चमड़ेपर खरोंचतक नहीं आयी। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई कि जिस वज्रने महाबली वृत्रासुरका शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचिके गलेकी त्वचाने उसका तिरस्कार कर दिया ॥ ३२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

सर्वतः शरकूटेन शक्रं सरथसारथिम्
छादयामासुरसुराः प्रावृट्सूर्यमिवाम्बुदाः ॥ २४ ॥
अलक्षयन्तस्तमतीव विह्वला
विचुक्रुशुर्देवगणाः सहानुगाः
अनायकाः शत्रुबलेन निर्जिता
वणिक्पथा भिन्ननवो यथार्णवे ॥ २५ ॥
ततस्तुराषाडिषुबद्धञ्जरा-
द्विनिर्गतः साश्वरथध्वजाग्रणीः
बभौ दिशः खं पृथिवीं च रोचयन्
स्वतेजसा सूर्य इव क्षपात्यये ॥ २६ ॥
निरीक्ष्य पृतनां देवः परैरभ्यर्दितां रणे
उदयच्छद्रि पुं हन्तुं वज्रं वज्रधरो रुषा ॥ २७ ॥
स तेनैवाष्टधारेण शिरसी बलपाकयोः
ज्ञातीनां पश्यतां राजन्जहार जनयन्भयम् २८

जैसे वर्षाकाल के बादल सूर्य को ढक लेते हैं, वैसे ही असुरों ने बाणों की वर्षासे इन्द्र और उनके रथ तथा सारथिको भी चारों ओरसे ढक दिया ॥ २४ ॥ इन्द्रको न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्लाने लगे। एक तो शत्रुओंने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था। उस समय देवताओंकी ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्रमें नाव टूट जानेपर व्यापारियोंकी होती है ॥ २५ ॥ परंतु थोड़ी ही देरमें शत्रुओंके बनाये हुए बाणोंके ङ्क्षपजड़ेसे घोड़े, रथ, ध्वजा और सारथिके साथ इन्द्र निकल आये। जैसे प्रात:काल सूर्य अपनी किरणों से दिशा, आकाश और पृथ्वी को चमका देते हैं, वैसे ही इन्द्रके तेजसे सब-के-सब जगमगा उठे ॥ २६ ॥ वज्रधारी इन्द्र ने देखा कि शत्रुओं ने रणभूमि में हमारी सेना को रौंद डाला है, तब उन्होंने बड़े क्रोध से शत्रुको मार डालनेके लिये वज्र से आक्रमण किया ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌! उस आठ धारवाले पैने वज्रसे उन दैत्यों के भाई-बन्धुओं को भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाक के सिर काट लिये ॥ २८ ॥

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रविवार, 6 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

जम्भं श्रुत्वा हतं तस्य ज्ञातयो नारदादृषेः
नमुचिश्च बलः पाकस्तत्रापेतुस्त्वरान्विताः ॥ १९ ॥
वचोभिः परुषैरिन्द्र मर्दयन्तोऽस्य मर्मसु
शरैरवाकिरन्मेघा धाराभिरिव पर्वतम् ॥ २० ॥
हरीन्दशशतान्याजौ हर्यश्वस्य बलः शरैः
तावद्भिरर्दयामास युगपल्लघुहस्तवान् ॥ २१ ॥
शताभ्यां मातलिं पाको रथं सावयवं पृथक्
सकृत्सन्धानमोक्षेण तदद्भुतमभूद्रणे ॥ २२ ॥
नमुचिः पञ्चदशभिः स्वर्णपुङ्खैर्महेषुभिः
आहत्य व्यनदत्सङ्ख्ये सतोय इव तोयदः ॥ २३ ॥

देवर्षि नारदसे जम्भासुर की मृत्युका समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमिमें आ पहुँचे ॥ १९ ॥ अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणीसे उन्होंने इन्द्रको बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़पर मूसलधार पानी बरसाते हैं , वैसे ही उनके ऊपर बाणोंकी झड़ी लगा दी ॥ २० ॥ बलने बड़े हस्तलाघवसे एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्रके एक हजार घोड़ोंको घायल कर दिया ॥ २१ ॥ पाकने सौ बाणोंसे मातलिको और सौ बाणोंसे रथके एक-एक अङ्गको छेद डाला। युद्धभूमिमें यह बड़ी अद्भुत घटना हुई कि एक ही बार इतने बाण उसने चढ़ाये और चलाये ॥ २२ ॥ नमुचिने बड़े-बड़े पंद्रह बाणोंसे, जिनमें सोनेके पंख लगे हुए थे, इन्द्र को मारा और युद्धभूमि में वह जलसे भरे बादल के समान गरजने लगा ॥२३॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

सखायं पतितं दृष्ट्वा जम्भो बलिसखः सुहृत्
अभ्ययात्सौहृदं सख्युर्हतस्यापि समाचरन् ॥ १३ ॥
स सिंहवाह आसाद्य गदामुद्यम्य रंहसा
जत्रावताडयच्छक्रं गजं च सुमहाबलः ॥ १४ ॥
गदाप्रहारव्यथितो भृशं विह्वलितो गजः
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ ॥ १५ ॥
ततो रथो मातलिना हरिभिर्दशशतैर्वृतः
आनीतो द्विपमुत्सृज्य रथमारुरुहे विभुः ॥ १६ ॥
तस्य तत्पूजयन्कर्म यन्तुर्दानवसत्तमः
शूलेन ज्वलता तं तु स्मयमानोऽहनन्मृधे ॥ १७ ॥
सेहे रुजं सुदुर्मर्षां सत्त्वमालम्ब्य मातलिः
इन्द्रो जम्भस्य सङ्क्रुद्धो वज्रेणापाहरच्छिरः ॥ १८ ॥

बलिका एक बड़ा हितैषी और घनिष्ठ मित्र जम्भासुर था। अपने मित्रके गिर जानेपर भी उनको मारनेका बदला लेनेके लिये वह इन्द्रके सामने आ खड़ा हुआ ॥ १३ ॥ सिंहपर चढक़र वह इन्द्रके पास पहुँच गया और बड़े वेगसे अपनी गदा उठाकर उनके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। साथ ही उस महाबलीने ऐरावतपर भी एक गदा जमायी ॥ १४ ॥ गदाकी चोटसे ऐरावतको बड़ी पीड़ा हुई, उसने व्याकुलतासे घुटने टेक दिये और फिर मूर्च्छित हो गया ॥ १५ ॥ उसी समय इन्द्रका सारथि मातलि हजार घोड़ोंसे जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र ऐरावत को छोडक़र तुरंत रथपर सवार हो गये ॥ १६ ॥ दानवश्रेष्ठ जम्भ ने रणभूमि में मातलि के इस कामकी बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशूल उसके ऊपर चलाया ॥ १७ ॥ मातलिने धैर्यके साथ इस असह्य पीड़ा को सह लिया। तब इन्द्र ने क्रोधित होकर अपने वज्रसे जम्भका सिर काट डाला ॥ १८ ॥

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शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

श्रीबलिरुवाच
सङ्ग्रामे वर्तमानानां कालचोदितकर्मणाम्
कीर्तिर्जयोऽजयो मृत्युः सर्वेषां स्युरनुक्रमात् ॥ ७ ॥
तदिदं कालरशनं जगत्पश्यन्ति सूरयः
न हृष्यन्ति न शोचन्ति तत्र यूयमपण्डिताः ॥ ८ ॥
न वयं मन्यमानानामात्मानं तत्र साधनम्
गिरो वः साधुशोच्यानां गृह्णीमो मर्मताडनाः ॥ ९ ॥

श्रीशुक उवाच
इत्याक्षिप्य विभुं वीरो नाराचैर्वीरमर्दनः
आकर्णपूर्णैरहनदाक्षेपैराह तं पुनः ॥ १० ॥
एवं निराकृतो देवो वैरिणा तथ्यवादिना
नामृष्यत्तदधिक्षेपं तोत्राहत इव द्विपः ॥ ११ ॥
प्राहरत्कुलिशं तस्मा अमोघं परमर्दनः
सयानो न्यपतद्भूमौ छिन्नपक्ष इवाचलः ॥ १२ ॥

बलिने कहाइन्द्र ! जो लोग कालशक्तिकी प्रेरणासे अपने कर्मके अनुसार युद्ध करते हैंउन्हें जीत या हार, यश या अपयश अथवा मृत्यु मिलती ही है ॥ ७ ॥ इसीसे ज्ञानीजन इस जगत्को कालके अधीन समझकर न तो विजय होनेपर हर्षसे फूल उठते हैं और न तो अपकीर्ति, हार अथवा मृत्युसे शोकके ही वशीभूत होते हैं। तुमलोग इस तत्त्वसे अनभिज्ञ हो ॥ ८ ॥ तुमलोग अपनेको जय-पराजय आदिका कारणकर्ता मानते हो, इसलिये महात्माओंकी दृष्टिसे तुम शोचनीय हो। हम तुम्हारे मर्मस्पर्शी वचनको स्वीकार ही नहीं करते, फिर हमें दु:ख क्यों होने लगा ? ॥ ९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंवीर बलिने इन्द्रको इस प्रकार फटकारा। बलिकी फटकारसे इन्द्र कुछ झेंप गये। तबतक वीरोंका मान मर्दन करनेवाले बलिने अपने धनुषको कानतक खींच-खींचकर बहुत-से बाण मारे ॥ १० ॥ सत्यवादी देवशत्रु बलिने इस प्रकार इन्द्रका अत्यन्त तिरस्कार किया। अब तो इन्द्र अङ्कुशसे मारे हुए हाथीकी तरह और भी चिढ़ गये। बलिका आक्षेप वे सहन न कर सके ॥ ११ ॥ शत्रुघाती इन्द्रने बलिपर अपने अमोघ वज्रका प्रहार किया। उसकी चोटसे बलि पंख कटे हुए पर्वतके समान अपने विमानके साथ पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १२ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...