बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

पयोभक्षो व्रतमिदं चरेत् विष्णु अर्चनादृतः ।
पूर्ववत् जुहुयादग्निं ब्राह्मणांश्चापि भोजयेत् ॥ ४६ ॥
एवं तु अहः अहः कुर्याद् द्वादशाहं पयोव्रतम् ।
हरेः आराधनं होमं अर्हणं द्विजतर्पणम् ॥ ४७ ॥
प्रतिपत्-दिनं आरभ्य यावत् शुक्लत्रयोदशीम् ।
ब्रह्मचर्यमधःस्वप्नं स्नानं त्रिषवणं चरेत् ॥ ४८ ॥
वर्जयेत् असद् आलापं भोगान् उच्चावचान् तथा ।
अहिंस्रः सर्वभूतानां वासुदेवपरायणः ॥ ४९ ॥
त्रयोदश्यां अथो विष्णोः स्नपनं पञ्चकैर्विभोः ।
कारयेत् शास्त्रदृष्टेन विधिना विधिकोविदैः ॥ ५० ॥
पूजां च महतीं कुर्यात् वित्त शाठ्य विवर्जितः ।
चरुं निरूप्य पयसि शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ ५१ ॥
श्रृतेन तेन पुरुषं यजेत सुसमाहितः ।
नैवेद्यं चातिगुणवद् दद्यात् पुरुषतुष्टिदम् ॥ ५२ ॥
आचार्यं ज्ञानसम्पन्नं वस्त्राभरणधेनुभिः ।
तोषयेत् ऋत्विजश्चैव तद् विद्धि आराधनं हरेः ॥ ५३ ॥
भोजयेत् तान्गुणवता सदन्नेन शुचिस्मिते ।
अन्यांश्च ब्राह्मणान् शक्त्या ये च तत्र समागताः ॥ ५४ ॥
दक्षिणां गुरवे दद्याद् ऋत्विग्भ्यश्च यथार्हतः ।
अन्नाद्येन अश्वपाकांश्च प्रीणयेत् समुपागतान् ॥ ५५ ॥
भुक्तवत्सु च सर्वेषु दीनान्ध कृपणादिषु ।
विष्णोस्तत् प्रीणनं विद्वान् भुञ्जीत सह बन्धुभिः ॥ ५६ ॥
नृत्यवादित्रगीतैश्च स्तुतिभिः स्वस्तिवाचकैः ।
कारयेत् तत्कथाभिश्च पूजां भगवतोऽन्वहम् ॥ ५७ ॥

भगवान्‌ की पूजा में आदर-बुद्धि रखते हुए केवल पयोव्रती रहकर यह व्रत करना चाहिये। पूर्ववत् प्रतिदिन हवन और ब्राह्मण-भोजन भी कराना चाहिये ॥ ४६ ॥ इस प्रकार पयोव्रती रहकर बारह दिनतक प्रतिदिन भगवान्‌की आराधना, होम और पूजा करे तथा ब्राह्मण-भोजन कराता रहे ॥ ४७ ॥
फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीपर्यन्त ब्रह्मचर्यसे रहे, पृथ्वीपर शयन करे और तीनों समय स्नान करे ॥ ४८ ॥ झूठ न बोले। पापियोंसे बात न करे। पापकी बात न करे। छोटे-बड़े सब प्रकारके भोगोंका त्याग कर दे। किसी भी प्राणीको किसी प्रकारसे कष्ट न पहुँचावे। भगवान्‌की आराधनामें लगा ही रहे ॥ ४९ ॥ त्रयोदशीके दिन विधि जाननेवाले ब्राह्मणोंके द्वारा शास्त्रोक्त विधिसे भगवान्‌ विष्णुको पञ्चामृतस्नान करावे ॥ ५० ॥ उस दिन धनका संकोच छोडक़र भगवान्‌की बहुत बड़ी पूजा करनी चाहिये और दूधमें चरु (खीर) पकाकर विष्णुभगवान्‌को अर्पित करना चाहिये ॥ ५१ ॥ अत्यन्त एकाग्र चित्तसे उसी पकाये हुए चरुके द्वारा भगवान्‌का यजन करना चाहिये और उनको प्रसन्न करनेवाला गुणयुक्त तथा स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण करना चाहिये ॥ ५२ ॥ इसके बाद ज्ञानसम्पन्न आचार्य और ऋत्विजोंको वस्त्र, आभूषण और गौ आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। प्रिये! इसे भी भगवान्‌की ही आराधना समझो ॥ ५३ ॥ प्रिये! आचार्य और ऋत्विजोंको शुद्ध, सात्त्विक और गुणयुक्त भोजन कराना ही चाहिये; दूसरे ब्राह्मण और आये हुए अतिथियोंको भी अपनी शक्तिके अनुसार भोजन कराना चाहिए ॥ ५४ ॥ गुरु और ऋत्विजोंको यथायोग्य दक्षिणा देनी चाहिये। जो चाण्डाल आदि अपने-आप वहाँ आ गये हों, उन सभीको तथा दीन, अंधे और असमर्थ पुरुषोंको भी अन्न आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। जब सब लोग खा चुकें, तब उन सबके सत्कारको भगवान्‌की प्रसन्नताका साधन समझते हुए अपने भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं भोजन करे ॥ ५५-५६ ॥ प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीतक प्रतिदिन नाच-गान, बाजे-गाजे, स्तुति, स्वस्तिवाचन और भगवत्कथाओं से भगवान्‌ की पूजा करे-करावे ॥ ५७ ॥

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मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

एतैः मंत्रैः हृर्हृषीकेशं आवाहनपुरस्कृतम् ।
अर्चयेत् श्रद्धया युक्तः पाद्योपस्पर्शनादिभिः ॥ ३८ ॥
अर्चित्वा गन्धमाल्याद्यैः पयसा स्नपयेद् विभुम् ।
वस्त्रोपवीताभरण पाद्योपस्पर्शनैस्ततः ॥
गन्धधूपादिभिश्चार्चेद् द्वादशाक्षरविद्यया ॥ ३९ ॥
श्रृतं पयसि नैवेद्यं शाल्यन्नं विभवे सति ।
ससर्पिः सगुडं दत्त्वा जुहुयान् मूलविद्यया ॥ ४० ॥
निवेदितं तद्‍भक्ताय दद्याद्‍भुञ्जीत वा स्वयम् ।
दत्त्वाऽऽचमनमर्चित्वा तांबूलं च निवेदयेत् ॥ ४१ ॥
जपेत् अष्टोत्तरशतं स्तुवीत स्तुतिभिः प्रभुम् ।
कृत्वा प्रदक्षिणं भूमौ प्रणमेद् दण्डवन्मुदा ॥ ४२ ॥
कृत्वा शिरसि तच्छेषां देवं उद्वासयेत् ततः ।
द्व्यवरान् भोजयेद् विप्रान् पायसेन यथोचितम् ॥ ४३ ॥
भुञ्जीत तैरनुज्ञातः सेष्टः शेषं सभाजितैः ।
ब्रह्मचार्यथ तद् रात्र्यां श्वो भूते प्रथमेऽहनि ॥ ४४ ॥
स्नातः शुचिर्यथोक्तेन विधिना सुसमाहितः ।
पयसा स्नापयित्वार्चेद् यावद् व्रतसमापनम् ॥ ४५ ॥

(कश्यप जी अदिति से कहरहे हैं) प्रिये ! भगवान्‌ हृषीकेशका आवाहन पहले ही कर ले। फिर इन मन्त्रोंके द्वारा पाद्य, आचमन आदि के साथ श्रद्धापूर्वक मन लगाकर पूजा करे ॥ ३८ ॥ गन्ध, माला आदि से पूजा करके भगवान्‌ को दूध से स्नान करावे । उसके बाद वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पाद्य, आचमन, गन्ध, धूप आदि के द्वारा द्वादशाक्षर मन्त्र से भगवान्‌ की पूजा करे ॥ ३९ ॥ यदि सामर्थ्य    हो तो दूध में पकाये हुए तथा घी और गुड़ मिले हुए शालि के चावल का नैवेद्य लगावे और उसी का द्वादशाक्षर मन्त्रसे हवन करे ॥ ४० ॥ उस नैवेद्य को भगवान्‌ के भक्तों में बाँट दे या स्वयं पा ले। आचमन और पूजाके बाद ताम्बूल निवेदन करे ॥ ४१ ॥ एक सौ आठ बार द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करे और स्तुतियोंके द्वारा भगवान्‌का स्तवन करे। प्रदक्षिणा करके बड़े प्रेम और आनन्दसे भूमिपर लोटकर दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ ४२ ॥ निर्माल्यको सिरसे लगाकर देवताका विसर्जन करे। कम-से-कम दो ब्राह्मणोंको यथोचित रीतिसे खीरका भोजन करावे ॥ ४३ ॥ दक्षिणा आदिसे उनका सत्कार करे। इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर अपने इष्ट-मित्रोंके साथ बचे हुए अन्न को स्वयं ग्रहण करे। उस दिन ब्रह्मचर्यसे रहे और दूसरे दिन प्रात:काल ही स्नान आदि करके पवित्रतापूर्वक पूर्वोक्त विधिसे एकाग्र होकर भगवान्‌की पूजा करे। इस प्रकार जबतक व्रत समाप्त न हो, तबतक दूधसे स्नान कराकर प्रतिदिन भगवान्‌की पूजा करे ॥ ४४-४५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

निर्वर्तितात्मनियमो देवं अर्चेत् समाहितः ।
अर्चायां स्थण्डिले सूर्ये जले वह्नौ गुरौ अपि ॥ २८ ॥
नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महीयसे ।
सर्वभूतनिवासाय वासुदेवाय साक्षिणे ॥ २९ ॥
नमोऽव्यक्ताय सूक्ष्माय प्रधानपुरुषाय च ।
चतुर्विंशद्‍गुणज्ञाय गुणसंख्यानहेतवे ॥ ३० ॥
नमो द्विशीर्ष्णे त्रिपदे चतुःश्रृंगाय तन्तवे ।
सप्तहस्ताय यज्ञाय त्रयीविद्यात्मने नमः ॥ ३१ ॥
नमः शिवाय रुद्राय नमः शक्तिधराय च ।
सर्वविद्याधिपतये भूतानां पतये नमः ॥ ३२ ॥
नमो हिरण्यगर्भाय प्राणाय जगदात्मने ।
योगैश्वर्यशरीराय नमस्ते योगहेतवे ॥ ३३ ॥
नमस्ते आदिदेवाय साक्षिभूताय ते नमः ।
नारायणाय ऋषये नराय हरये नमः ॥ ३४ ॥
नमो मरकतश्याम वपुषेऽधिगतश्रिये ।
केशवाय नमस्तुभ्यं नमस्ते पीतवाससे ॥ ३५ ॥
त्वं सर्ववरदः पुंसां वरेण्य वरदर्षभ ।
अतस्ते श्रेयसे धीराः पादरेणुं उपासते ॥ ३६ ॥
अन्ववर्तन्त यं देवाः श्रीश्च तत्पादपद्मयोः ।
स्पृहयन्त इवामोदं भगवान् मे प्रसीदताम् ॥ ३७ ॥

इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमोंको पूरा करके एकाग्रचित्तसे मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्नि और गुरुदेवके रूपमें भगवान्‌की पूजा करे ॥ २८ ॥ (और इस प्रकार स्तुति करे—) ‘प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान् हैं। अन्तर्यामी और आराधनीय हैं। समस्त प्राणी आपमें और आप समस्त प्राणियोंमें निवास करते हैं। इसीसे आपको वासुदेवकहते हैं। आप समस्त चराचर जगत् और उसके कारणके भी साक्षी हैं। भगवन् ! मेरा आपको नमस्कार है ॥ २९ ॥ आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुषके रूपमें भी आप ही स्थित हैं। आप चौबीस गुणोंके जाननेवाले और गुणोंकी संख्या करनेवाले सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक हैं। आपको मेरा नमस्कार है ॥ ३० ॥ आप वह यज्ञ हैं, जिसके प्रायणीय और उदयनीयये दो कर्म सिर हैं। प्रात:, मध्याह्न और सायंये तीन सवन ही तीन पाद हैं। चारों वेद चार सींग हैं। गायत्री आदि सात छन्द ही सात हाथ हैं। यह धर्ममय वृषभरूप यज्ञ वेदोंके द्वारा प्रतिपादित है और इसकी आत्मा हैं स्वयं आप ! आपको मेरे नमस्कार हैं ॥ ३१ ॥ आप ही लोककल्याणकारी शिव और आप ही प्रलयकारी रुद्र हैं। समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार है। आप समस्त विद्याओंके अधिपति एवं भूतोंके स्वामी हैं। आपको मेरा नमस्कार ॥ ३२ ॥ आप ही सबके प्राण और आप ही इस जगत्के स्वरूप भी हैं। आप योगके कारण तो हैं ही स्वयं योग और उससे मिलनेवाला ऐश्वर्य भी आप ही हैं। हे हिरण्यगर्भ ! आपके लिये मेरे नमस्कार ॥ ३३ ॥ आप ही आदिदेव हैं। सबके साक्षी हैं। आप ही नरनारायण ऋषिके रूपमें प्रकट स्वयं भगवान्‌ हैं। आपको मेरे नमस्कार ॥ ३४ ॥ आपका शरीर मरकतमणिके समान साँवला है। समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यकी देवी लक्ष्मी आपकी सेविका हैं। पीताम्बरधारी केशव ! आपको मेरे बार-बार नमस्कार ॥ ३५ ॥ आप सब प्रकारके वर देनेवाले हैं। वर देनेवालों में श्रेष्ठ हैं। तथा जीवोंके एकमात्र वरणीय हैं। यही कारण है कि धीर विवेकी पुरुष अपने कल्याण के लिये आपके चरणोंकी रजकी उपासना करते हैं ॥ ३६ ॥ जिनके चरणकमलों की सुगन्ध प्राप्त करने की लालसा से समस्त देवता और स्वयं लक्ष्मीजी भी सेवा में लगी रहती हैं, वे भगवान्‌ मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३७ ॥

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सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

कश्यप उवाच -
एतन्मे भगवान् पृष्टः प्रजाकामस्य पद्मजः ।
यदाह ते प्रवक्ष्यामि व्रतं केशवतोषणम् ॥ २४ ॥
फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतम् ।
अर्चयेत् अरविन्दाक्षं भक्त्या परमयान्वितः ॥ २५ ॥
सिनीवाल्यां मृदालिप्य स्नायात् क्रोडविदीर्णया ।
यदि लभ्येत वै स्रोतसि एतं मंत्रं उदीरयेत् ॥ २६ ॥
त्वं देव्यादिवराहेण रसायाः स्थानमिच्छता ।
उद्‌धृतासि नमस्तुभ्यं पाप्मानं मे प्रणाशय ॥ २७ ॥

कश्यपजीने कहादेवि ! जब मुझे सन्तान की कामना हुई थी, तब मैंने भगवान्‌ ब्रह्माजीसे यही बात पूछी थी। उन्होंने मुझे भगवान्‌ को प्रसन्न करनेवाले जिस व्रतका उपदेश किया था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥ २४ ॥ फाल्गुनके शुक्लपक्षमें बारह दिनतक केवल दूध पीकर रहे और परम भक्तिसे भगवान्‌ कमलनयनकी पूजा करे ॥ २५ ॥ अमावस्याके दिन यदि मिल सके तो सूअरकी खोदी हुई मिट्टीसे अपना शरीर मलकर नदीमें स्नान करे। उस समय यह मन्त्र[*] पढऩा चाहिये ॥ २६ ॥ हे देवि ! प्राणियोंको स्थान देने की इच्छा से वराहभगवान्‌ ने रसातल से तुम्हारा उद्धार किया था। तुम्हें मेरा नमस्कार है। तुम मेरे पापोंको नष्ट कर दो ॥ २७ ॥
...............................................
[*] त्वं देव्यादिवराहेण रसाया: स्थानमिच्छता। उद्धृतासि नमस्तुभ्यं पाप्मानं मे प्रणाशय ।।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

श्रीशुक उवाच -
एवं अभ्यर्थितोऽदित्या कस्तामाह स्मयन्निव ।
अहो मायाबलं विष्णोः स्नेहबद्धं इदं जगत् ॥ १८ ॥
क्व देहो भौतिकोऽनात्मा क्व चात्मा प्रकृतेः परः ।
कस्य के पतिपुत्राद्या मोह एव हि कारणम् ॥ १९ ॥
उपतिष्ठस्व पुरुषं भगवन्तं जनार्दनम् ।
सर्वभूतगुहावासं वासुदेवं जगद्‍गुरुम् ॥ २० ॥
स विधास्यति ते कामान् हरिर्दीनानुकंपनः ।
अमोघा भगवद्‍भक्तिः न इतरेति मतिर्मम ॥ २१ ॥

अदितिरुवाच -
केनाहं विधिना ब्रह्मन् उपस्थास्ये जगत्पतिम् ।
यथा मे सत्यसंकल्पो विदध्यात् स मनोरथम् ॥ २२ ॥
आदिश त्वं द्विजश्रेष्ठ विधिं तदुपधावनम् ।
आशु तुष्यति मे देवः सीदन्त्याः सह पुत्रकैः ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंइस प्रकार अदितिने जब कश्यपजीसे प्रार्थना की, तब वे कुछ विस्मित-से होकर बोले—‘बड़े आश्चर्यकी बात है। भगवान्‌की माया भी कैसी प्रबल है ! यह सारा जगत् स्नेहकी रज्जुसे बँधा हुआ है ॥ १८ ॥ कहाँ यह पञ्चभूतोंसे बना हुआ अनात्मा शरीर और कहाँ प्रकृतिसे परे आत्मा ? न किसीका कोई पति है, न पुत्र है और न तो सम्बन्धी ही है। मोह ही मनुष्यको नचा रहा है ॥ १९ ॥ प्रिये ! तुम सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें विराजमान, अपने भक्तोंके दु:ख मिटानेवाले जगद्गुरु भगवान्‌ वासुदेवकी आराधना करो ॥ २० ॥ वे बड़े दीनदयालु हैं। अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि भगवान्‌की भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती। इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है ॥ २१ ॥
अदितिने पूछाभगवन् ! मैं जगदीश्वर भगवान्‌की आराधना किस प्रकार करूँ, जिससे वे सत्यसङ्कल्प प्रभु मेरा मनोरथ पूर्ण करें ॥ २२ ॥ पतिदेव ! मैं अपने पुत्रोंके साथ बहुत ही दु:ख भोग रही हूँ। जिससे वे शीघ्र ही मुझपर प्रसन्न हो जायँ, उनकी आराधनाकी वही विधि मुझे बतलाइये ॥ २३ ॥

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रविवार, 20 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

अदितिरुवाच -
भद्रं द्विजगवां ब्रह्मन् धर्मस्यास्य जनस्य च ।
त्रिवर्गस्य परं क्षेत्रं गृहमेधिन् गृहा इमे ॥ ११ ॥
अग्नयोऽतिथयो भृत्या भिक्षवो ये च लिप्सवः ।
सर्वं भगवतो ब्रह्मन् अनुध्यानान्न रिष्यति ॥ १२ ॥
को नु मे भगवन् कामो न सम्पद्येत मानसः ।
यस्या भवान् प्रजाध्यक्ष एवं धर्मान् प्रभाषते ॥ १३ ॥
तवैव मारीच मनःशरीरजाः
     प्रजा इमाः सत्त्वरजस्तमोजुषः ।
समो भवान् तास्वसुरादिषु प्रभो
     तथापि भक्तं भजते महेश्वरः ॥ १४ ॥
तस्मादीश भजन्त्या मे श्रेयश्चिन्तय सुव्रत ।
हृतश्रियो हृतस्थानान् सपत्‍नैः पाहि नः प्रभो ॥ १५ ॥
परैर्विवासिता साहं मग्ना व्यसनसागरे ।
ऐश्वर्यं श्रीर्यशः स्थानं हृतानि प्रबलैर्मम ॥ १६ ॥
यथा तानि पुनः साधो प्रपद्येरन् ममात्मजाः ।
तथा विधेहि कल्याणं धिया कल्याणकृत्तम ॥ १७ ॥

अदितिने कहाभगवन्! ब्राह्मण, गौ, धर्म और आपकी यह दासीसब सकुशल हैं। मेरे स्वामी! यह गृहस्थ-आश्रम ही अर्थ, धर्म और कामकी साधनामें परम सहायक है ॥ ११ ॥ प्रभो! आपके निरन्तर स्मरण और कल्याण-कामनासे अग्रि, अतिथि, सेवक, भिक्षुक और दूसरे याचकोंका भी मैंने तिरस्कार नहीं किया है ॥ १२ ॥ भगवन् ! जब आप-जैसे प्रजापति मुझे इस प्रकार धर्म-पालन का उपदेश करते है; तब भला मेरे मन की ऐसी कौन-सी कामना है जो पूरी न हो जाय ? ॥ १३ ॥ आर्यपुत्र ! समस्त प्रजावह चाहे सत्त्वगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी होआपकी ही सन्तान है। कुछ आपके संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं और कुछ शरीरसे ! भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि आप सब सन्तानोंके प्रतिचाहे असुर हों या देवताएक-सा भाव रखते हैं, सम हैं। तथापि स्वयं परमेश्वर भी अपने भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण किया करते हैं ॥ १४ ॥ मेरे स्वामी ! मैं आपकी दासी हूँ। आप मेरी भलाईके सम्बन्धमें विचार कीजिये। मर्यादापालक प्रभो ! शत्रुओंने हमारी सम्पत्ति और रहनेका स्थानतक छीन लिया है। आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ १५ ॥ बलवान् दैत्योंने मेरे ऐश्वर्य, धन, यश और पद छीन लिये हैं तथा हमें घरसे बाहर निकाल दिया है। इस प्रकार मैं दु:खके समुद्रमें डूब रही हूँ ॥ १६ ॥ आपसे बढक़र हमारी भलाई करनेवाला और कोई नहीं है। इसलिये मेरे हितैषी स्वामी ! आप सोच-विचारकर अपने संकल्पसे ही मेरे कल्याण का कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे कि मेरे पुत्रोंको वे वस्तुएँ फिरसे प्राप्त हो जायँ ॥ १७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

श्रीशुक उवाच -
एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा ।
हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यद् अनाथवत् ॥ १ ॥
एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवान् अगात् ।
निरुत्सवं निरानन्दं समाधेर्विरतश्चिरात् ॥ २ ॥
स पत्‍नीं दीनवदनां कृतासनपरिग्रहः ।
सभाजितो यथान्यायं इदमाह कुरूद्वह ॥ ३ ॥
अप्यभद्रं न विप्राणां भद्रे लोकेऽधुनाऽऽगतम् ।
न धर्मस्य न लोकस्य मृत्योश्छन्दानुवर्तिनः ॥ ४ ॥
अपि वाकुशलं किञ्चिद्‍गृहेषु गृहमेधिनि ।
धर्मस्यार्थस्य कामस्य यत्र योगो ह्ययोगिनाम् ॥ ५ ॥
अपि वा अतिथयोऽभ्येत्य कुटुंबासक्तया त्वया ।
गृहादपूजिता याताः प्रत्युत्थानेन वा क्वचित् ॥ ६ ॥
गृहेषु येष्वतिथयो नार्चिताः सलिलैरपि ।
यदि निर्यान्ति ते नूनं फेरुराजगृहोपमाः ॥ ७ ॥
अप्यग्नयस्तु वेलायां न हुता हविषा सति ।
त्वयोद्विग्नधिया भद्रे प्रोषिते मयि कर्हिचित् ॥ ८ ॥
यत्पूजया कामदुघान् याति लोकान् गृहान्वितः ।
ब्राह्मणोऽग्निश्च वै विष्णोः सर्वदेवात्मनो मुखम् ॥ ९ ॥
अपि सर्वे कुशलिनः तव पुत्रा मनस्विनि ।
लक्षयेऽस्वस्थमात्मानं भवत्या लक्षणैरहम् ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्योंने स्वर्गपर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदिति को बड़ा दु:ख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं ॥ १ ॥ एक बार बहुत दिनों के बाद जब परमप्रभावशाली कश्यप मुनिकी समाधि टूटी, तब वे अदितिके आश्रमपर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकारका उत्साह या सजावट ही ॥ २ ॥ परीक्षित्‌ ! जब वे वहाँ जाकर आसनपर बैठ गये और अदितिने विधिपूर्वक उनका सत्कार कर लिया, तब वे अपनी पत्नी अदितिसेजिसके चेहरेपर बड़ी उदासी छायी हुई थीबोले ॥ ३ ॥ कल्याणी ! इस समय संसारमें ब्राह्मणोंपर कोई विपत्ति तो नहीं आयी है ? धर्मका पालन तो ठीक-ठीक होता है ? कालके कराल गालमें पड़े हुए लोगोंका कुछ अमङ्गल तो नहीं हो रहा है ? ॥ ४ ॥ प्रिये ! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योगका फल देनेवाला है। इस गृहस्थाश्रममें रहकर धर्म, अर्थ और कामके सेवनमें किसी प्रकारका विघ्र तो नहीं हो रहा है ? ॥ ५ ॥ यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्बके भरण-पोषणमें व्यग्र रही हो, अतिथि आये हों और तुमसे बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों; तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करनेमें भी असमर्थ रही हो। इसीसे तो तुम उदास नहीं हो रही हो ? ॥ ६ ॥ जिन घरोंमें आये हुए अतिथिका जलसे भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ोंके घरके समान हैं ॥ ७ ॥ प्रिये ! सम्भव है, मेरे बाहर चले जानेपर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्र रहा हो और समयपर तुमने हविष्यसे अग्रियोंमें हवन न किया हो ॥ ८ ॥ सर्वदेवमय भगवान्‌के मुख हैंब्राह्मण और अग्रि। गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनोंकी पूजा करता है तो उसे उन लोकोंकी प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं ॥ ९ ॥ प्रिये ? तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परंतु तुम्हारे बहुत-से लक्षणों से मैं देख रहा हूँ कि इस समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है । तुम्हारे सब लडक़े तो कुशल-मङ्गल से हैं न ?’ ॥ १० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...