सोमवार, 25 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

तां स्तन्यकाम आसाद्य मथ्नन्तीं जननीं हरिः ।
गृहीत्वा दधिमन्थानं न्यषेधत्प्रीतिमावहन् ॥ ४ ॥
तमङ्‌कमारूढमपाययत् स्तनं
स्नेहस्नुतं सस्मितमीक्षती मुखम् ।
अतृप्तमुत्सृज्य जवेन सा ययौ
उत्सिच्यमाने पयसि त्वधिश्रिते ॥ ५ ॥
सञ्जातकोपः स्फुरितारुणाधरं
सन्दश्य दद्‌भिर्दधिमन्थभाजनम् ।
भित्त्वा मृषाश्रुर्दृषदश्मना रहो
जघास हैयङ्‌गवमन्तरं गतः ॥ ६ ॥

उसी समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्तन पीनेके लिये दही मथती हुई अपनी माताके पास आये । उन्होंने अपनी माताके हृदयमें प्रेम और आनन्दको और भी बढ़ाते हुए दहीकी मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथनेसे रोक दिया[4] ॥ ४ ॥ श्रीकृष्ण माता यशोदाकी गोदमें चढ़ गये । वात्सल्य-स्नेहकी अधिकतासे उनके स्तनोंसे दूध तो स्वयं झर ही रहा था । वे उन्हें पिलाने लगीं । और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त उनका मुख देखने लगीं । इतनेमें ही दूसरी ओर अँगीठीपर रखे हुए दूधमें उफान आया । उसे देखकर यशोदाजी उन्हें अतृप्त ही छोडक़र जल्दीसे दूध उतारनेके लिये चली गयीं[5] ॥ ५ ॥ इससे श्रीकृष्णको कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होठ फडक़ने लगे। उन्हें दाँतोंसे दबाकर श्रीकृष्णने पास ही पड़े हुए लोढ़ेसे दहीका मटका फोड़-फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखोंमें भर लिये और दूसरे घरमें जाकर अकेलेमें बासी माखन खाने लगे[6] ॥ ६ ॥
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[4] हृदयमें लीलाकी सुखस्मृति, हाथोंसे दधिमन्थन और मुखसे लीलागानइस प्रकार मन, तन, वचन तीनोंका श्रीकृष्णके साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण जगकर मा-मापुकारने लगे । अबतक भगवान्‌ श्रीकृष्ण सोये हुए-से थे । माकी स्नेह-साधनाने उन्हें जगा दिया । वे निर्गुणसे सगुण हुए, अचलसे चल हुए, निष्कामसे सकाम हुए; स्नेहके भूखे-प्यासे माके पास आये । क्या ही सुन्दर नाम है—‘स्तन्यकाम’ ! मन्थन करते समय आये, बैठी-ठालीके पास नहीं ।

सर्वत्र भगवान्‌ साधनकी प्रेरणा देते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; परंतु मथानी पकडक़र मैयाको रोक लिया । मा ! अब तेरी साधना पूर्ण हो गयी । पिष्ट-पेषण करनेसे क्या लाभ ? अब मैं तेरी साधनाका इससे अधिक भार नहीं सह सकता ।मा प्रेमसे दब गयीनिहाल हो गयीमेरा लाला मुझे इतना चाहता है ।

[5] मैया मना करती रही—‘नेक-सा माखन तो निकाल लेने दे ।’ ‘ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं तो दूध पीऊँगा’—दोनों हाथोंसे मैयाकी कमर पकडक़र एक पाँव घुटनेपर रखा और गोदमें चढ़ गये । स्तनका दूध बरस पड़ा । मैया दूध पिलाने लगी, लाला मुसकराने लगे, आँखें मुसकानपर जम गयीं । ईक्षतीपदका यह अभिप्राय है कि जब लाला मुँह उठाकर देखेगा और मेरी आँखें उसपर लगी मिलेंगी, तब उसे बड़ा सुख होगा ।

सामने पद्मगन्धा गायका दूध गरम हो रहा था । उसने सोचा—‘स्नेहमयी मा यशोदाका दूध कभी कम न होगा, श्यामसुन्दरकी प्यास कभी बुझेगी नहीं ! उनमें परस्पर होड़ लगी है । मैं बेचारा युग-युगका, जन्म-जन्मका श्यामसुन्दरके होठोंका स्पर्श करनेके लिये व्याकुल तप-तपकर मर रहा हूँ । अब इस जीवनसे क्या लाभ जो श्रीकृष्णके काम न आवे । इससे अच्छा है उनकी आँखोंके सामने आगमें कूद पडऩा ।माके नेत्र पहुँच गये । दयाद्र्र माको श्रीकृष्णका भी ध्यान न रहा; उन्हें एक ओर डालकर दौड़ पड़ी । भक्त भगवान्‌को एक ओर रखकर भी दुखियोंकी रक्षा करते हैं । भगवान्‌ अतृप्त ही रह गये । क्या भक्तोंके हृदय-रससे, स्नेहसे उन्हें कभी तृप्ति हो सकती है ? उसी दिनसे उनका एक नाम हुआ—‘अतृप्त

[6] श्रीकृष्णके होठ फडक़े । क्रोध होठोंका स्पर्श पाकर कृतार्थ हो गया । लाल-लाल होठ श्वेत-श्वेत दूधकी दँतुलियोंसे दबा दिये गये, मानो सत्त्वगुण रजोगुणपर शासन कर रहा हो, ब्राह्मण क्षत्रियको शिक्षा दे रहा हो । वह क्रोध उतरा दधिमन्थनके मटकेपर । उसमें एक असुर आ बैठा था । दम्भने कहाकाम, क्रोध और अतृप्तिके बाद मेरी बारी है । वह आँसू बनकर आँखोंमें छलक आया । श्रीकृष्ण अपने भक्तजनोंके प्रति अपनी ममताकी धारा उड़ेलनेके लिये क्या-क्या भाव नहीं अपनाते ? ये काम, क्रोध, लोभ और दम्भ भी आज ब्रह्म-संस्पर्श प्राप्त करके धन्य हो गये ! श्रीकृष्ण घरमें घुसकर बासी मक्खन गटकने लगे, मानो माको दिखा रहे हों कि मैं कितना भूखा हूँ ।

प्रेमी भक्तोंके पुरुषार्थभगवान्‌ नहीं हैं, भगवान्‌ की सेवा है । ये भगवान्‌ की सेवा के लिये भगवान्‌ का भी त्याग कर सकते हैं । मैया के अपने हाथों दुहा हुआ यह पद्मगन्धा गायों का दूध श्रीकृष्ण के लिये ही गरम हो रहा था । थोड़ी देरके बाद ही उनको पिलाना था । दूध उफन जायगा तो मेरे लाला भूखे रहेंगेरोयेंगे, इसीलिये माता ने उन्हें नीचे उतारकर दूध को सँभाला ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

श्रीकृष्ण का ऊखल से बाँधा जाना

श्रीशुक उवाच ।
एकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी ।
कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममन्थ स्वयं दधि ॥ १ ॥
यानि यानीह गीतानि तद्‍बालचरितानि च ।
दधिनिर्मन्थने काले स्मरन्ती तान्यगायत ॥ २ ॥
क्षौमं वासः पृथुकटितटे
बिभ्रती सूत्रनद्धं ।
पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं
जातकम्पं च सुभ्रूः ।
रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्
कङ्‌कणौ कुण्डले च
स्विन्नं वक्त्रं कबरविगलन्
मालती निर्ममन्थ ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदाजीने घरकी दासियोंको तो दूसरे कामोंमें लगा दिया और स्वयं (अपने लालाको मक्खन खिलानेके लिये) दही मथने लगीं [1] ॥ १ ॥ मैंने तुमसे अबतक भगवान्‌ की जिन-जिन बाल-लीलाओंका वर्णन किया है, दधिमन्थन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गाती भी जाती थीं[2] ॥ २ ॥ वे अपने स्थूल कटिभागमें सूतसे बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं । उनके स्तनोंमेंसे पुत्र-स्नेहकी अधिकतासे दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे । नेती खींचते रहनेसे बाँहें कुछ थक गयी थीं । हाथोंके कंगन और कानोंके कर्णफूल हिल रहे थे । मुँहपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं । चोटीमें गुँथे हुए मालतीके सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे । सुन्दर भौंहोंवाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रही थीं[3] ॥ ३ ॥
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[1] इस प्रसङ्गमें एक समयका तात्पर्य है कार्तिक मास । पुराणों में इसे दामोदरमासकहते हैं । इन्द्र-याग के अवसरपर दासियों का दूसरे कामों में लग जाना स्वाभाविक है । नियुक्तासु’—इस पद से ध्वनित होता है कि यशोदा माताने जान-बूझकर दासियों को दूसरे काम में लगा दिया । यशोदा’—नाम उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि अपने विशुद्ध वात्सल्यप्रेमके व्यवहारसे षडैश्वर्यशाली भगवान्‌ को भी प्रेमाधीनता, भक्तवश्यता के कारण अपने भक्तोंके हाथों बँध जानेका यशयही देती हैं । गोपराज नन्द के वात्सल्य-प्रेमके आकर्षण से सच्चिदानन्द-परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान्‌ नन्दनन्दनरूपसे जगत्में अवतीर्ण होकर जगत्के लोगोंको आनन्द प्रदान करते हैं । जगत् को इस अप्राकृत परमानन्दका रसास्वादन करानेमें नन्दबाबा ही कारण हैं । उन नन्दकी गृहिणी होनेसे इन्हें नन्दगेहिनीकहा गया है । साथ ही नन्द-गेहिनीऔर स्वयं’—ये दो पद इस बातके सूचक हैं कि दधि-मन्थनकर्म उनके योग्य नहीं है । फिर भी पुत्र-स्नेहकी अधिकतासे यह सोचकर कि मेरे लालाको मेरे हाथका माखन ही भाता है, वे स्वयं ही दधि मथ रही हैं ।

[2] इस श्लोकमें भक्तके स्वरूपका निरूपण है । शरीरसे दधि-मन्थनरूप सेवाकर्म हो रहा है, हृदयमें स्मरणकी धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणीमें बाल-चरित्रका संगीत । भक्तके तन, मन, वचनसब अपने प्यारेकी सेवामें संलग्र हैं । स्नेह अमूर्त पदार्थ है; वह सेवाके रूपमें ही व्यक्त होता है । स्नेहके ही विलासविशेष हैंनृत्य और संगीत । यशोदा मैयाके जीवनमें इस समय राग और भोग दोनों ही प्रकट हैं ।

[3] कमरमें रेशमी लहँगा डोरीसे कसकर बँधा हुआ है अर्थात् जीवनमें आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है । सेवाकर्ममें पूरी तत्परता है । रेशमी लहँगा इसीलिये पहने हैं कि किसी प्रकारकी अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैयाको कुछ हो जायगा ।
माताके हृदयका रस स्नेहदूध स्तनके मुँह आ लगा है, चुचुआ रहा है, बाहर झाँक रहा है । श्यामसुन्दर आवें, उनकी दृष्टि पहले मुझपर पड़े और वे पहले माखन न खाकर मुझे ही पीवेंयही उसकी लालसा है ।
स्तनके काँपनेका अर्थ यह है कि उसे डर भी है कि कहीं मुझे नहीं पिया तो !

कङ्कण और कुण्डल नाच-नाचकर मैयाको बधाई दे रहे हैं । यशोदा मैयाके हाथोंके कङ्कण इसलिये झंकार ध्वनि कर रहे हैं कि वे आज उन हाथोंमें रहकर धन्य हो रहे हैं कि जो हाथ भगवान्‌की सेवामें लगे हैं । और कुण्डल यशोदा मैया के मुखसे लीला-गान सुनकर परमानन्दसे हिलते हुए कानोंकी सफलताकी सूचना दे रहे हैं । हाथ वही धन्य हैं, जो भगवान्‌ की सेवा करें और कान वे धन्य हैं, जिनमें भगवान्‌के लीला गुण-गानकी सुधाधारा प्रवेश करती रहे । मुँहपर स्वेद और मालतीके पुष्पोंके नीचे गिरनेका ध्यान माताको नहीं है । वह सृंगार और शरीर भूल चुकी हैं । अथवा मालती के पुष्प स्वयं ही चोटियों से छूटकर चरणोंमें गिर रहे हैं कि ऐसी वात्सल्यमयी मा के चरणों में ही रहना सौभाग्य है, हम सिरपर रहने के अधिकारी नहीं ।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





रविवार, 24 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट११)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

श्रीराजोवाच ।
नन्दः किमकरोद् ब्रह्मन् श्रेय एवं महोदयम् ।
यशोदा च महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः ॥ ४६ ॥
पितरौ नान्वविन्देतां कृष्णोदारार्भकेहितम् ।
गायन्त्यद्यापि कवयो यल्लोकशमलापहम् ॥ ४७ ॥

श्रीशुक उवाच ।
द्रोणो वसूनां प्रवरो धरया भार्यया सह ।
करिष्यमाण आदेशान् ब्रह्मणस्तमुवाच ह ॥ ४८ ॥
जातयोर्नौ महादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ ।
भक्तिः स्यात्परमा लोके ययाञ्जो दुर्गतिं तरेत् ॥ ४९ ॥
अस्त्वित्युक्तः स भगवान् व्रजे द्रोणो महायशाः ।
जज्ञे नन्द इति ख्यातो यशोदा सा धराभवत् ॥ ५० ॥
ततो भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने ।
दम्पत्योर्नितरामासीत् गोपगोपीषु भारत ॥ ५१ ॥
कृष्णो ब्रह्मण आदेशं सत्यं कर्तुं व्रजे विभुः ।
सहरामो वसंश्चक्रे तेषां प्रीतिं स्वलीलया ॥ ५२ ॥

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! नन्दबाबा ने ऐसा कौन-सा बहुत बड़ा मङ्गलमय साधन किया था ? और परमभाग्यवती यशोदाजीने भी ऐसी कौन-सी तपस्या की थी जिसके कारण स्वयं भगवान्‌ ने अपने श्रीमुख से उनका स्तनपान किया ॥ ४६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी वे बाललीलाएँ, जो वे अपने ऐश्वर्य और महत्ता आदिको छिपाकर ग्वालबालोंमें करते हैं, इतनी पवित्र हैं कि उनका श्रवण-कीर्तन करनेवाले लोगोंके भी सारे पाप-ताप शान्त हो जाते हैं । त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुष आज भी उनका गान करते रहते हैं । वे ही लीलाएँ उनके जन्मदाता माता-पिता देवकी- वसुदेवजीको तो देखनेतकको न मिलीं और नन्द-यशोदा उनका अपार सुख लूट रहे हैं । इसका क्या कारण है ? ॥ ४७ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! नन्दबाबा पूर्वजन्ममें एक श्रेष्ठ वसु थे । उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नीका नाम था धरा । उन्होंने ब्रह्माजीके आदेशोंका पालन करनेकी इच्छासे उनसे कहा॥ ४८ ॥ भगवन् ! जब हम पृथ्वीपर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णमें हमारी अनन्य प्रेममयी भक्ति होजिस भक्तिके द्वारा संसारमें लोग अनायास ही दुर्गतियोंको पार कर जाते हैं॥ ४९ ॥ ब्रह्माजीने कहा—‘ऐसा ही होगा ।वे ही परमयशस्वी भगवन्मय द्रोण व्रजमें पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द । और वे ही धरा इस जन्ममें यशोदाके नामसे उनकी पत्नी हुर्ईं ॥ ५० ॥ परीक्षित्‌ ! अब इस जन्ममें जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले भगवान्‌ उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियोंकी अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदाजीका उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ ॥ ५१ ॥ ब्रह्माजीकी बात सत्य करनेके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ व्रजमें रहकर समस्त व्रजवासियोंको अपनी बाल-लीलासे आनन्दित करने लगे ॥ ५२ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

एतद्विचित्रं सहजीवकाल
स्वभावकर्माशयलिङ्‌गभेदम् ।
सूनोस्तनौ वीक्ष्य विदारितास्ये
व्रजं सहात्मानमवाप शङ्‌काम् ॥ ३९ ॥
किं स्वप्न एतदुत देवमाया
किं वा मदीयो बत बुद्धिमोहः ।
अथो अमुष्यैव ममार्भकस्य
यः कश्चनौत्पत्तिक आत्मयोगः ॥ ४० ॥
अथो यथावन्न वितर्कगोचरं
चेतोमनःकर्मवचोभिरञ्जसा ।
यदाश्रयं येन यतः प्रतीयते
सुदुर्विभाव्यं प्रणतास्मि तत्पदम् ॥ ४१ ॥
अहं ममासौ पतिरेष मे सुतो
व्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा सती ।
गोप्यश्च गोपाः सहगोधनाश्च मे
यन्माययेत्थं कुमतिः स मे गतिः ॥ ४२ ॥
इत्थं विदित तत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः ।
वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः ॥ ४३ ॥
सद्यो नष्टस्मृतिर्गोपी साऽऽरोप्यारोहमात्मजम् ।
प्रवृद्धस्नेहकलिल हृदयासीद् यथा पुरा ॥ ४४ ॥
त्रय्या चोपनिषद्‌भिश्च साङ्‌ख्ययोगैश्च सात्वतैः ।
उपगीयमान माहात्म्यं हरिं सामन्यतात्मजम् ॥ ४५ ॥

परीक्षित्‌ ! जीव, काल, स्वभाव, कर्म, उनकी वासना और शरीर आदिके द्वारा विभिन्न रूपोंमें दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी यशोदाजीने श्रीकृष्णके नन्हें-से खुले हुए मुखमें देखा । वे बड़ी शङ्कामें पड़ गयीं ॥ ३९ ॥ वे सोचने लगीं कि यह कोई स्वप्न है या भगवान्‌ की माया ? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है ? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो॥ ४० ॥ जो चित्त, मन, कर्म और वाणीके द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्तासे ही इसकी प्रतीति होती है, जिनका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य हैउन प्रभुको मैं प्रणाम करती हूँ ॥ ४१ ॥ यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लडक़ा है, साथ ही मैं व्रजराजकी समस्त सम्पत्तियोंकी स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ; ये गोपियाँ, गोप और गोधन मेरे अधीन हैंजिनकी मायासे मुझे इस प्रकारकी कुमति घेरे हुए है, वे भगवान्‌ ही मेरे एकमात्र आश्रय हैंमैं उन्हींकी शरणमें हूँ॥ ४२ ॥ जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्ण का तत्त्व समझ गयीं, तब सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक प्रभु ने अपनी पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी योगमाया का उनके हृदय में संचार कर दिया ॥ ४३ ॥ यशोदाजी को तुरंत वह घटना भूल गयी । उन्होंने अपने दुलारे लाल को गोद में उठा लिया । जैसे पहले उनके हृदय में प्रेमका समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमडऩे लगा ॥ ४४ ॥ सारे वेदउपनिषद्,सांख्य, योग और भक्तजन जिनके माहात्म्य का गीत गाते-गाते अघाते नहींउन्हीं भगवान्‌ को यशोदा जी अपना पुत्र मानती थीं ॥ ४५ ॥

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शनिवार, 23 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

एकदा क्रीडमानास्ते रामाद्या गोपदारकाः ।
कृष्णो मृदं भक्षितवान् इति मात्रे न्यवेदयन् ॥ ३२ ॥
सा गृहीत्वा करे कृष्णं उपालभ्य हितैषिणी ।
यशोदा भयसंभ्रान्त प्रेक्षणाक्षमभाषत ॥ ३३ ॥
कस्मान् मृदमदान्तात्मन् भवान् भक्षितवान् रहः ।
वदन्ति तावका ह्येते कुमारास्तेऽग्रजोऽप्ययम् ॥ ३४ ॥
नाहं भक्षितवान् अंब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः ।
यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य मे मुखम् ॥ ३५ ॥
यद्येवं तर्हि व्यादेही इत्युक्तः स भगवान् हरिः ।
व्यादत्ताव्याहतैश्वर्यः क्रीडामनुजबालकः ॥ ३६ ॥
सा तत्र ददृशे विश्वं जगत् स्थास्नु च खं दिशः ।
साद्रि-द्वीपाब्धि-भूगोलं सवाय्वग्नीन्दुतारकम् ॥ ३७ ॥
ज्योतिश्चक्रं जलं तेजो नभस्वान् वियदेव च ।
वैकारिकाणीन्द्रियाणि मनो मात्रा गुणास्त्रयः ॥ ३८ ॥

एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे । उन लोगोंने मा यशोदाके पास आकर कहा—‘मा ! कन्हैयाने मिट्टी खायी है॥ ३२ ॥ हितैषिणी यशोदाने श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया। उस समय श्रीकृष्णकी आँखें डरके मारे नाच रही थीं। यशोदा मैयाने डाँटकर कहा॥ ३३ ॥ क्यों रे नटखट ! तू बहुत ढीठ हो गया है । तूने अकेलेमें छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दलके तेरे सखा क्या कह रहे हैं ! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हींकी ओर से गवाही दे रहे हैं॥ । ३४ ॥
भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘मा ! मैंने मिट्टी नहीं खायी । ये सब झूठ बक रहे हैं । यदि तुम इन्हींकी बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखोंसे देख लो ॥ ३५ ॥ यशोदाजीने कहा—‘अच्छी बात । यदि ऐसा है, तो मुँह खोल ।माताके ऐसा कहनेपर भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपना मुँह खोल दिया। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका ऐश्वर्य अनन्त है । वे केवल लीलाके लिये ही मनुष्यके बालक बने हुए हैं ॥ ३६ ॥ यशोदाजीने देखा कि उनके मुँहमें चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्यमान है । आकाश (वह शून्य जिसमें किसीकी गति नहीं) दिशाएँ, पहाड़, द्वीप, और समुद्रोंके सहित सारी पृथ्वी, बहनेवाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियों के चलने-फिरने का आकाश), वैकारिक अहंकारके कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पञ्चतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुखमें दीख पड़े ॥ ३७-३८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

इसी प्रकार और भी बहुत-सी गोपियों के पूर्वजन्म की कथाएँ प्राप्त होती हैं, विस्तारभयसे उन सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया । भगवान्‌ के लिये इतनी तपस्या करके इतनी लगन के साथ कल्पों तक साधना करके जिन त्यागी भगवत्प्रेमियों ने गोपियों का तन-मन प्राप्त किया था, उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये, उन्हें आनन्द-दान देनेके लिये यदि भगवान्‌ उनकी मनचाही लीला करते हैं तो इसमें आश्चर्य और अनाचार की कौन-सी बात है ? रासलीलाके प्रसङ्ग में स्वयं भगवान्‌ ने श्रीगोपियों से कहा है

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व: ।।
या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खला: संवृश्च्य तद् व: प्रतियातु साधुना ।।
..............(१०। ३२। २२)

गोपियो ! तुमने लोक और परलोकके सारे बन्धनोंको काटकर मुझसे निष्कपट प्रेम किया है; यदि मैं तुममेंसे प्रत्येकके लिये अलग-अलग अनन्त कालतक जीवन धारण करके तुम्हारे प्रेमका बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और ऋणी ही रहूँगा। तुम मुझे अपने साधुस्वभावसे ऋणरहित मानकर और भी ऋणी बना दो । यही उत्तम है ।सर्वलोकमहेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं जिन महाभागा गोपियोंके ऋणी रहना चाहते हैं, उनकी इच्छा, इच्छा होनेसे पूर्व ही भगवान्‌ पूर्ण कर देंयह तो स्वाभाविक ही है ।
भला विचारिये तो सही श्रीकृष्णगतप्राणा, श्रीकृष्णरसभावितमति गोपियोंके मनकी क्या स्थिति थी । गोपियोंका तन, मन, धनसभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्णका था । वे संसारमें जीती थीं श्रीकृष्णके लिये, घरमें रहती थीं श्रीकृष्णके लिये और घरके सारे काम करती थीं श्रीकृष्णके लिये । उनकी निर्मल और योगीन्द्रदुर्लभ पवित्र बुद्धिमें श्रीकृष्णके सिवा अपना कुछ था ही नहीं । श्रीकृष्णके लिये ही, श्रीकृष्णको सुख पहुँचानेके लिये ही, श्रीकृष्णकी निज सामग्रीसे ही श्रीकृष्णको पूजकरश्रीकृष्णको सुखी देखकर वे सुखी होती थीं । प्रात:काल निद्रा टूटनेके समयसे लेकर रातको सोनेतक वे जो कुछ भी करती थीं, सब श्रीकृष्णकी प्रीतिके लिये ही करती थीं । यहाँतक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्णमें ही होती थी । स्वप्न और सुषुप्ति दोनोंमें ही वे श्रीकृष्णकी मधुर और शान्त लीला देखतीं और अनुभव करती थीं । रातको दही जमाते समय श्यामसुन्दरकी माधुरी छबिका ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे, श्रीकृष्णके लिये उसे बिलोकर मैं बढिय़ा-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छीकेपर रखूँ, जितनेपर श्रीकृष्णके हाथ आसानीसे पहुँच सकें । फिर मेरे प्राणधन श्रीकृष्ण अपने सखाओंको साथ लेकर हँसते और क्रीड़ा करते हुए घरमें पदार्पण करें, माखन लूटें और अपने सखाओं और बंदरोंको लुटायें, आनन्दमें मत्त होकर मेरे आँगनमें नाचें और मैं किसी कोनेमें छिपकर इस लीलाको अपनी आँखोंसे देखकर जीवनको सफल करूँ और फिर अचानक ही पकडक़र हृदयसे लगा लूँ । सूरदासजीने गाया है

मैया री, मोहि माखन भावै। जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रुचि आवै ।।
ब्रज-जुवती इक पाछैं ठाढ़ी, सुनत स्यामकी बात। मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ।।
बैठैं जाइ मथनियाँकें ढिग, मैं तब रहौं छपानी। सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि-मन की जानी ।।

एक दिन श्यामसुन्दर कह रहे थे, ‘मैया ! मुझे माखन भाता है; तू मेवा-पकवानके लिये कहती है, परंतु मुझे तो वे रुचते ही नहीं ।वहीं पीछे एक गोपी खड़ी श्यामसुन्दरकी बात सुन रही थी । उसने मन-ही-मन कामना की—‘मैं कब इन्हें अपने घर माखन खाते देखूँगी; ये मथानीके पास जाकर बैठेंगे, तब मैं छिप रहूँगी ?’ प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, गोपीके मनकी जान गये और उसके घर पहुँचे तथा उसके घरका माखन खाकर उसे सुख दिया—‘गये स्याम तिहिं ग्वालिनि कैं घर ।
उसे इतना आनन्द हुआ कि वह फूली न समायी । सूरदासजी गाते हैं

फूली फिरति ग्वालि मनमें री। पूछति सखी परस्पर बातैं पायो पर्यौ कछू कहुँ तैं री ? ।।
पुलकित रोम-रोम, गदगद मुख बानी कहत न आवै। ऐसो कहा आहि सो सखि री, हम कौं क्यों न सुनावै ।।
तन न्यारा, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप। सूरदास कहै ग्वालि सखिनि सौं, देख्यौ रूप अनूप ।।

वह खुशीसे छककर फूली-फूली फिरने लगी । आनन्द उसके हृदयमें समा नहीं रहा था । सहेलियोंने पूछा—‘अरी, तुझे कहीं कुछ पड़ा धन मिल गया क्या ?’ वह तो यह सुनकर और भी प्रेमविह्वल हो गयी । उसका रोम-रोम खिल उठा, वह गद्गद हो गयी, मुँहसे बोली नहीं निकली । सखियोंने कहा—‘सखि ! ऐसी क्या बात है, हमें सुनाती क्यों नहीं ? हमारे तो शरीर ही दो हैं, हमारा जी तो एक ही हैहम-तुम दोनों एक ही रूप हैं । भला, हमसे छिपानेकी कौन-सी बात है ?’ तब उसके मुँहसे इतना ही निकला—‘मैंने आज अनूप रूप देखा है ।बस, फिर वाणी रुक गयी और प्रेमके आँसू बहने लगे ! सभी गोपियोंकी यही दशा थी ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 22 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

भगवान्‌ के श्रीरामावतार में उन्हें देखकर मुग्ध होनेवालेअपने-आपको उनके स्वरूप-सौन्दर्यपर न्योछावर कर देनेवाले सिद्ध ऋषिगण, जिनकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ ने उन्हें गोपी होकर प्राप्त करने का वर दिया था, व्रजमें गोपीरूपसे अवतीर्ण हुए थे । इसके अतिरिक्त मिथिलाकी गोपी, कोसलकी गोपी, अयोध्याकी गोपीपुलिन्दगोपी, रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप आदिकी गोपियाँ और जालन्धरी गोपी आदि गोपियोंके अनेकों यूथ थे, जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान्‌से वरदान पाकर गोपीरूपमें अवतीर्ण होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था । पद्मपुराण के पातालखण्ड में बहुत-से ऐसे ऋषियोंका वर्णन है, जिन्होंने बड़ी कठिन तपस्या आदि करके अनेकों कल्पों के बाद गोपीस्वरूप को प्राप्त किया था । उनमेंसे कुछ के नाम निम्नलिखित हैं

१. एक उग्रतपा नामके ऋषि थे । वे अग्रिहोत्री और बड़े दृढ़व्रती थे । उनकी तपस्या अद्भुत थी । उन्होंने पञ्चदशाक्षरमन्त्रका जाप और रासोन्मत्त नवकिशोर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका ध्यान किया था । सौ कल्पोंके बाद वे सुनन्दनामक गोपकी कन्या सुनन्दाहुए ।

२. एक सत्यतपा नामके मुनि थे । वे सूखे पत्तोंपर रहकर दशाक्षरमन्त्रका जाप और श्रीराधाजीके दोनों हाथ पकडक़र नाचते हुए श्रीकृष्णका ध्यान करते थे । दस कल्पके बाद वे सुभद्रनामक गोपकी कन्या सुभद्राहुए ।

३. हरिधामा नामके एक ऋषि थे । वे निराहार रहकर ‘क्लीं’ कामबीज से युक्त विंशाक्षरी मन्त्रका जाप करते थे और माधवीमण्डप में कोमल-कोमल पत्तोंकी शय्यापर लेटे हुए युगल-सरकारका ध्यान करते थे । तीन कल्पके पश्चात् वे सारङ्ग-नामक गोप के घर रङ्गवेणीनामसे अवतीर्ण हुए ।

४. जाबालि नामके एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि थे, उन्होंने एक बार विशाल वनमें विचरते-विचरते एक जगह बहुत बड़ी बावली देखी । उस बावलीके पश्चिम तटपर बडक़े नीचे एक तेजस्विनी युवती स्त्री कठोर तपस्या कर रही थी । वह बड़ी सुन्दर थी । चन्द्रमाकी शुभ्र किरणोंके समान उसकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी । उसका बायाँ हाथ अपनी कमरपर था और दाहिने हाथसे वह ज्ञानमुद्रा धारण किये हुए थी । जाबालिके बड़ी नम्रताके साथ पूछनेपर उस तापसीने बतलाया

ब्रह्मविद्याहमतुला योगीन्द्रैर्या च मृग्यते।
साहं हरिपदाम्भोजकाम्यया सुचिरं तप: ।।
ब्रह्मानन्देन पूर्णाहं तेनानन्देन तृप्तधी:।
चराम्यस्मिन् वने घोरे ध्यायन्ती पुरुषोत्तमम् ।।
तथापि शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरङ्क्षत विना ।।

मैं वह ब्रह्मविद्या हूँ , जिसे बड़े-बड़े योगी सदा ढूँढ़ा करते हैं । मैं श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी प्राप्तिके लिये इस घोर वनमें उन पुरुषोत्तमका ध्यान करती हुई दीर्घकालसे तपस्या कर रही हूँ । मैं ब्रह्मानन्दसे परिपूर्ण हूँ और मेरी बुद्धि भी उसी आनन्दसे परितृप्त है । परंतु श्रीकृष्णका प्रेम मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये मैं अपनेको शून्य देखती हूँ ।ब्रह्मज्ञानी जाबालिने उसके चरणोंपर गिरकर दीक्षा ली और फिर व्रजवीथियोंमें विहरनेवाले भगवान्‌का ध्यान करते हुए वे एक पैरसे खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या करते रहे । नौ कल्पोंके बाद प्रचण्डनामक गोप के घर वे चित्रगन्धाके रूपमें प्रकट हुए ।

५. कुशध्वजनामक ब्रह्मर्षि के पुत्र शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्त्वज्ञ थे । उन्होंने शीर्षासन करके ह्रींहंस-मन्त्रका जाप करते हुए और सुन्दर कन्दर्प-तुल्य गोकुलवासी दस वर्षकी उम्रके भगवान्‌ श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए घोर तपस्या की । कल्प के बाद वे व्रजमें सुधीरनामक गोप के घर उत्पन्न हुए ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...