ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
इस ब्लॉग का ध्येय, सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति का प्रसार करना तथा सन्तों के दुर्लभ प्रवचनों को जन-जन तक पहुंचाने का है | हम केवल धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर प्रामाणिक जानकारियों को ही प्रकाशित करते हैं। आत्मकल्याण तथा दुर्लभ-सत्संग हेतु हमसे जुड़ें और अपने सभी परिवारजनों और मित्रों को इसके लाभ की बात बताकर सबको जोड़ने का प्रयास करें | भगवान् में लगना और दूसरों को लगाना ‘परम-सेवा’ है | अतः इसका लाभ उठाना चाहिए |
लेबल
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- प्रश्नोत्तरी ‘मणिरत्नमाला’
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- श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 7 से 12
- श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कंध 1 से 6
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् (स्कन्दपुराणान्तर्गत)
- स्तोत्र
सोमवार, 13 फ़रवरी 2023
जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 02)
ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 01)
ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
रविवार, 12 फ़रवरी 2023
परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 13)
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥
...(२। ११)
'हे अर्जुन ! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्यों के लिये शोक करता
है और पण्डितों के-से वचनों को कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।'
इससे यह सिद्ध होता है कि शोक न करना हमारे हाथ में है। यदि ऐसी बात न होती और
इसका सम्बन्ध प्रारब्ध से होता तो ज्ञानोत्तर काल में ज्ञानी को भी शोक होता और
भगवान् भी शोक छोड़ने के लिये अर्जुन को कभी न कहते। शरीरों का उत्पत्ति-विनाश और
क्षयवृद्धि तथा सांसारिक पदार्थों का संयोग-वियोग ही प्रारब्ध से सम्बन्ध रखता है;
उनके विषय में जो चिन्ता, भय और शोक होता है वह अज्ञान के कारण ही होता है। सांसारिक
विपत्ति के आने पर भी जो शोक नहीं करते-रोते नहीं, उनकी उससे कोई हानि नहीं होती। अतः परमात्मा की शरण ग्रहण
करके प्रमाद,आलस्य,पाप,भोग,शोकमोह,विषाद,चिन्ता एवं भय का त्याग कर हमें परमात्मा के स्वरूप में अचलभाव से स्थित हो
जाना चाहिये।
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
से
# लोक परलोक
# परलोक
शनिवार, 11 फ़रवरी 2023
परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 12)
१ शरीर से होनेवाले दोष तीन हैं—बिना दिया हुआ धन लेना, शास्त्रविरुद्ध हिंसा और परस्त्रीगमन ।
२ वाचिक पाप चार हैं-- कठोर वचन कहना, झूठ बोलना, चुगली करना और बे-सिर-पैर की ऊल-जलूल बातें करना।
३ मानसिक पाप तीन हैं--दूसरे का माल मारने का दाँव सोचना,
मन से दूसरे का अनिष्टचिन्तन करना और मैं शरीर हूँ-इस
प्रकार का झूठा अभिमान करना।
(मनु० १२। ७-६-५)
इन त्रिविध पापों का नाश करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में तीन
प्रकार के तप बतलाये हैं-शारीरिक तप, वाचिक तप और मानस तप। उक्त तीन प्रकार के तप का स्वरूप भगवान् ने इस प्रकार
बतलाया है-
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥
...(गीता १७। १४)
‘देवता, ब्राह्मण,
गुरु (माता-पिता एवं आचार्य आदि) और ज्ञानीजनों का पूजन,
पवित्रता, सरलता,
ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥
...(गीता १७। १५)
जो उद्वेग को न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन एवं
परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है-वही वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।'
मन:प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥
...(गीता १७। १६)
'मन की प्रसन्नता, शान्तभाव,
भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण की पवित्रता इस प्रकार यह
मनसम्बन्धी तप कहा जाता है।
प्रत्येक कल्याणकामी पुरुष को चाहिये कि वह उपर्युक्त तीनों प्रकार के तप का
सात्त्विक भाव से अभ्यास करे।
{श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत् त्रिविधं नरैः।
अफलाकाक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥}
...(गीता १७। १७)
शेष आगामी पोस्ट में
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
से
परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 11)
भगवान् ने भी गीता में कहा है-
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
...(१६। २४)
'इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में
शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करनेयोग्य है।
यदि नाना प्रकार के शास्त्रों को देखने से तथा उनमें कहीं-कहीं आये हुए
परस्परविरोधी वाक्यों को पढ़ने से बुद्धि भ्रमित हो जाय और शास्त्र के यथार्थ
तात्पर्य का निर्णय न कर सके तो पूर्वकाल में हमारी दृष्टि में शास्त्र के मर्म को
जाननेवाले जो भी महापुरुष हो गये हों उनके बतलाये हुए मार्ग का अनुसरण करना
चाहिये। शास्त्रों की भी यही आज्ञा
है। महाभारतकार कहते हैं-
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना
नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां ।
महाजनो येन गतः स पन्थाः॥
…(वन० ३१३। ११७)
‘धर्म के विषय में तर्क की कोई प्रतिष्ठा (स्थिरता) नहीं,
श्रुतियाँ भिन्न-भिन्न तात्पर्यवाली हैं तथा ऋषिमुनि भी कोई
एक नहीं हुआ है जिससे उसी के मत को प्रमाणस्वरूप माना जाय, धर्म का तत्त्व गुहा में छिपा हुआ है,
अर्थात् धर्म की गति अत्यन्त गहन है,
इसलिये (मेरी समझ में) जिस मार्ग से कोई महापुरुष गया हो,
वही मार्ग है, अर्थात् ऐसे महापुरुष का अनुकरण करना ही धर्म है।' उन्हीं के आचरण को अपना आदर्श बना लेना चाहिये और उसी के अनुसार चलने की
चेष्टा करनी चाहिये।
यदि किसी को ऐसे महापुरुषों के मार्ग में भी संशय हो तो फिर उसे यही उचित है
कि वह वर्तमानकाल के किसी जीवित सदाचारी महात्मा पुरुष को-जिसमें भी उसकी श्रद्धा
हो और जिसे वह श्रेष्ठ महापुरुष समझता हो अपना आदर्श बना ले और उनके बतलाये हुए
मार्ग को ग्रहण करे, उनके आदेश के
अनुसार चले । और यदि किसी पर भी विश्वास न हो तो अपने अन्तरात्मा,
अपनी बुद्धि को ही पथप्रदर्शक बना ले-एकान्तमें बैठकर
विवेकवैराग्ययुक्त बुद्धिसे शान्ति एवं धीरज के साथ स्वार्थत्यागपूर्वक
निष्पक्षभाव से विचार करे कि मेरा ध्येय क्या है, मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये। इस प्रकार
अपने हिताहित का विचार करके संसार में कौन-सी वस्तु मेरे लिये ग्राह्य है और
कौन-सी अग्राह्य है, इसका निर्णय कर
ले और फिर दृढतापूर्वक उस निश्चयपर स्थित हो जाय। जो मार्ग उसे ठीक मालूम हो,
उसपर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ हो जाय और जो आचरण उसे निषिद्ध जंचे
उन्हें छोड़ने की प्राणपण से चेष्टा करे, भूलकर भी उस ओर न जाय। इस प्रकार निष्पक्षभाव से विचार करनेपर,
अन्तरात्मा से पूछनेपर भी उसे भीतर से यही उत्तर मिलेगा कि
अहिंसा,
सत्य, ब्रह्मचर्य और परोपकार आदि ही श्रेष्ठ ; हिंसा,असत्य,
व्यभिचार और दूसरे का अनिष्ट आदि करने के लिये उसका
अन्तरात्मा उसे कभी न कहेगा। नास्तिक से-नास्तिक को भी भीतर से यही आवाज सुनायी
देगी। इस प्रकार अपना लक्ष्य स्थिर कर लेने के बाद फिर कभी उसके विपरीत आचरण न
करे। अच्छी प्रकार निर्धारित किये हुए अपने ध्येय के अनुसार चलना ही आत्मा का
उत्थान करना है और उस निश्चयके अनुसार न चलकर उसके विपरीत मार्गपर चलना ही उसका
पतन है। जो आचरण अपनी दृष्टि में तथा दूसरों की दृष्टि में भी हेय है,
उसे जान-बूझकर करना मानो अपने-आप ही फाँसी लगाकर मरना,
अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना, अपने ही हाथों अपना अहित करना है। इसीलिये भगवान् कहते हैं 'नात्मानमवसादयेत्'
(गीता ६।५), जान-बूझकर अपनेआप अपना पतन न करे। | हमारे शास्त्रों में मन, वाणी और शरीर से होनेवाले कुछ दोष गिनाये हैं और साथ ही मन,
वाणी और शरीर के पाँच-पाँच तप भी बतलाये हैं। आत्मा का
उद्धार चाहने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह उपर्युक्त मन, वाणी और शरीर के दोषों का त्याग करे और शारीरिक,
वाचिक एवं मानसिक तीनों प्रकार के तप का आचरण करे।
शेष आगामी पोस्ट में
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
से
# लोक परलोक
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शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023
परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 10)
श्रीमद्भागवत में भगवान् उद्धव से कहते हैं-
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितम्
पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥
...(११।२०। १७)
'यह मनुष्यशरीर समस्त शुभ फलों की प्राप्ति का आदिकारण तथा अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी ईश्वर की कृपा से हमारे लिये सुलभ हो गया है; वह इस संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिये सुदृढ़ नौका है, जिसे गुरुरूप नाविक चलाता है और मैं (श्रीकृष्ण) वायुरूप होकर उसे आगे बढ़ानेमें सहायता देता हूँ। ऐसी सुन्दर नौका को पाकर भी जो मनुष्य इस भवसागर को नहीं तरता, वह निश्चय ही आत्माका हनन करनेवाला अर्थात् पतन करनेवाला है।
गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं-
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाई।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
...(रामचरित०उत्तर० ४४)
यहाँ यह प्रश्न होता है कि इसके लिये हमें क्या करना चाहिये। इसका उत्तर हमें स्वयं भगवान् के शब्दों में इस प्रकार मिलता है। वे कहते हैं-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
..(गीता ६।५)
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने द्वारा अपना संसारसमुद्र से उद्धार करे और अपने को
अधोगति में न डाले।
उद्धार का अर्थ है उत्तम गुणों एवं उत्तम भावों का संग्रह एवं उत्तम आचरणों का
अनुष्ठान और पतन का अर्थ है दुर्गुण एवं दुराचारों का ग्रहण;
क्योंकि इन्हीं से क्रमशः मनुष्य की उत्तम एवं अधम गति होती
है। इन्हीं को भगवान् ने क्रमशः दैवी सम्पत्ति एवं आसुरी सम्पत्ति के नाम से गीता के
सोलहवें अध्याय में वर्णन किया है और यह भी बतलाया है कि दैवी सम्पत्ति मोक्ष की
ओर ले जानेवाली है 'दैवी सम्पद्विमोक्षाय',
और आसुरी सम्पत्ति बाँधनेवाली अर्थात् बार-बार संसारचक्र में
गिरानेवाली है- ‘निबन्धायासुरी
मता’ यही नहीं, आसुरी सम्पदावालों के आचरणों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि उन अशुभ
आचरणवाले द्वेषी, क्रूर (निर्दय)
एवं मनुष्यों में अधम पुरुषों को मैं संसार में बार-बार पशु-पक्षी आदि तिर्यक्
योनियों में गिराता हूँ और जन्म-जन्म में उन योनियों को प्राप्त हुए वे मूढ़ पुरुष
मुझे न पाकर उससे भी अधम
गति (घोर नरकों)-को प्राप्त होते हैं।'*
{* तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥}
...(१६। १९-२०)
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तम गुण, भाव और आचरण ही ग्रहण करनेयोग्य हैं और दुर्गुण, दुर्भाव तथा दुराचार त्यागनेयोग्य हैं। गीताके १३ वें अध्याय के ७ वें से ११ वें श्लोक तक भगवान् ने इन्हीं को ज्ञान और अज्ञान के नाम से वर्णन किया है। ज्ञान के नाम से वहाँ जिन गुणों का वर्णन किया गया है, वे आत्मा का उद्धार करनेवाले-ऊपर उठानेवाले हैं और इससे विपरीत जो अज्ञान है--'अज्ञानं यदतोऽन्यथा', वह गिरानेवाला-पतन करनेवाला है। | सद्गुण और सदाचार कौन हैं तथा दुर्गुण एवं दुराचार कौन-से हैं, ग्रहण करनेयोग्य आचरण कौन हैं तथा त्याग ने योग्य कौन-से हैं इसका निर्णय हम शास्त्रों द्वारा ही कर सकते हैं। शास्त्र ही इस विषय में प्रमाण हैं।
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......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
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परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 09)
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः॥
...(८। १५)
‘परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझ को प्राप्त होकर दुःखोंके घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। | इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा की प्राप्ति ही दुःखों से सदा के लिये छूटने का एकमात्र उपाय है और यह मनुष्यजन्म में ही सम्भव है। अतः जो इस जन्म को पाकर परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही संसार में धन्य हैं और वे ही बुद्धिमान् एवं चतुर हैं। मनुष्य-जन्म को पाकर जो इसे विषय-भोग में ही गंवा देते हैं, वे अत्यन्त जड़मति हैं और शास्त्रों ने उनको कृतघ्न एवं आत्महत्यारा बतलाया है।
शेष आगामी पोस्ट में
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
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गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023
परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 08)
(२) मनुष्य अपना अभाव कभी नहीं देखता, वह यह कभी नहीं सोचता कि एक दिन मैं नहीं रहूँगा अथवा मैं पहले नहीं था। अपने अभाव के बारे में आत्मा की ओर से उसे कभी गवाही नहीं मिलती। वह यही सोचता है कि मैं सदा से हूँ और सदा रहूंगा। इससे भी आत्मा की नित्यता सिद्ध होती है।
(३) बालक जन्मते ही रोने लगता है और जन्मने के बाद कभी हँसता
है,
कभी रोता है, कभी सोता है; जब माता उसके
मुख में स्तन देती है तो वह उसमें से दूध खींचने लगता है और धमकाने आदि पर भय से
काँपता हुआ भी देखा जाता है। बालक के ये सब आचरण पूर्वजन्म का लक्ष्य कराते हैं;
क्योंकि इस जन्म में तो उसने ये सब बातें सीखीं नहीं।
पूर्वजन्म के अभ्यास से ही ये सब बातें उसके अंदर स्वाभाविक ही होने लगती हैं।
पूर्वजन्म में अनुभव किये हुए सुख-दुःख का स्मरण करके ही वह हँसता और रोता है,
पूर्व में अनुभव किये हुए मृत्यु-भय के कारण ही वह काँपने
लगता है तथा पूर्वजन्म में किये हुए स्तनपान के अभ्यास से ही वह माता के स्तन का
दूध खींचने लगता है।
(४) जीवों में जो सुख-दुःख का भेद, प्रकृति अर्थात् स्वभाव और गुण-कर्मका भेद-काम-क्रोध,
राग-द्वेष आदि की न्यूनाधिकता–तथा क्रिया का भेद एवं बुद्धि का भेद दृष्टिगोचर होता है,
उससे भी पूर्वजन्म की सिद्धि होती है। एक ही माता-पिता से
उत्पन्न हुई सन्तान यहाँ तक कि एक ही साथ पैदा हुए बच्चे भी इन सब बातों में
एक-दूसरे से विलक्षण पाये जाते हैं। पूर्वजन्म के संस्कारों के अतिरिक्त इस
विचित्रता में कोई हेतु नहीं हो सकता। जिस प्रकार ग्रामोफोन की चूड़ी पर उतरे हुए
किसी गाने को सुनकर हम यह अनुमान करते हैं कि इसी प्रकार किसी मनुष्य ने इस गाने को
कहीं अन्यत्र गाया होगा, तभी उसकी प्रतिध्वनि को आज हम इस रूप में सुन पाते हैं,
उसी प्रकार आज हम किसी को सुखी अथवा दुःखी देखते हैं अथवा
अच्छे-बुरे स्वभाव और बुद्धिवाला पाते हैं तो उससे यही अनुमान होता है कि उसने
पूर्वजन्म में वैसे ही कर्म किये होंगे, जिनके संस्कार उसके अन्त:करण में संगृहीत हैं, जिन्हें वह अपने साथ लेता आया है। यदि किसी को वर्तमान जीवन
में हम सुखी पाते हैं तो इसका मतलब यही है कि उसने पूर्वजन्म में अच्छे कर्म किये
होंगे और दुःखी पाते हैं तो इसका मतलब यह होता है। कि उसने पूर्वजन्म में अशुभकर्म
किये होंगे। यही बात स्वभाव, गुण और बुद्धि आदि के सम्बन्ध में समझनी चाहिये।
शेष आगामी पोस्ट में
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
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परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 07)
अब हम युक्तियों से भी परलोक एवं पुनर्जन्म को सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं
|
(१) शरीर की तरह आत्मा का परिवर्तन
नहीं होता | शरीर में तो हम सभी के अवस्थानुसार परिवर्तन होता देखा जाता है | आज
जो हमारा शरीर है कुछ वर्ष बाद वह बिल्कुल बदल जाएगा, उसके स्थान में दूसरा ही
शरीर बन जाएगा –जैसे नख और केश पहले के कटते जाते हैं और नए आते रहते हैं |
बाल्यावस्था में हमारे सभी अंग कोमल और छोटे होते हैं, कद छोटा होता है , स्वर
मीठा होता है, वजन भी कम होता है तथा मुख पर रोएँ नहीं होते | जवान होने पर हमारे
अंग पहले से कठोर और बड़े हो जाते हैं, आवाज भारी हो जाती है, कद लंबा हो जाता है |
वजन बढ़ जाता है तथा दाढी-मूंछ आजाती है | इसी प्रकार बुढापे में हमारे अंग शिथिल
हो जाते हैं, शरीर की सुन्दरता नष्ट हो जाती
है, चमडा ढीला पड जाता है , बाल पक
जाते हैं,
दाँत ढीले हो जाते हैं तथा गिर जाते हैं एवं शरीर तथा
इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है। यही कारण है कि बालकपन में देखे हुए किसी
व्यक्तिको उसके युवा हो जाने पर हम सहसा नहीं पहचान पाते। परन्तु शरीर बदल जानेपर
भी हमारा आत्मा नहीं बदलता। दस वर्ष पहले जो हमारा आत्मा था;
वही आत्मा इस समय भी है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यदि
होता तो आज से दस वर्ष अथवा बीस वर्ष पहले हमारे जीवन में घटी हुई घटना का हमें
स्मरण नहीं होता। दूसरे के द्वारा अनुभव किये हुए सुख-दुःख का जिस प्रकार हमें
स्मरण नहीं होता, उसी प्रकार यदि
हमारा आत्मा बदल गया होता तो हमें अपने जीवन की बातों का भी कालान्तर में स्मरण
नहीं रहता। परन्तु आज की घटना का हमें दस वर्ष बाद अथवा बीस वर्ष बाद भी स्मरण
होता है,
इससे मालूम होता है कि अनुभव करनेवाला और स्मरण करनेवाला दो
व्यक्ति नहीं,
बल्कि एक ही व्यक्ति है। जिस प्रकार वर्तमान शरीर में इतना
परिवर्तन होने पर भी आत्मा नहीं बदला, उसी प्रकार मरने के बाद दूसरा शरीर मिलने पर भी यह नहीं बदलने का। इससे आत्मा की
नित्यता सिद्ध होती है।
शेष आगामी पोस्ट में
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
से
# लोक परलोक
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बुधवार, 8 फ़रवरी 2023
परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 06)
मनुस्मृति में भी पुनर्जन्म के प्रतिपादक अनेकों वचन मिलते हैं। उनमें से कुछ
चुने हुए वचन नीचे उद्धृत किये जाते हैं। किन-किन कर्मों से जीव किन-किन योनियों को
प्राप्त होते हैं, इस विषय में
भगवान् मनु कहते हैं-
देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः।
तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः ॥
...(१२ । ४०)
अर्थात्
‘सत्त्वगुणी लोग देवयोनि को, रजोगुणी मनुष्ययोनि को और तमोगुणी तिर्यग्योनि को प्राप्त
होते हैं। जीवों की सदा यही तीन प्रकार की गति होती है।
इन्द्रियाणां प्रसंगेन धर्मस्यासेवनेन च।
पापा संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः॥
...(१२। ५२)
‘जो लोग इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं। तथा
धर्माचरण से विमुख रहते हैं, उनके विषय में भगवान् मनु कहते हैं कि वे मूर्ख और नीच मनुष्य मरने पर निन्दित
गति को पाते हैं।'
इसके आगे भगवान् मनु ब्रह्महत्या, सुरापान,
गुरुपत्नीगमन आदि कुछ महापातकों का उल्लेख करते हुए कहते
हैं कि इन पापों को करने वाले अनेक वर्ष तक नरक भोगकर फिर नीच योनियों को प्राप्त
होते हैं। उदाहरणतः ब्रह्महत्या करनेवाला कुत्ते, सूअर, गदहे,
चाण्डाल आदि योनियों को प्राप्त होता है;
ब्राह्मण होकर मदिरापान करनेवाला कृमि-कीट-पतंगादि तथा
हिंसक योनियों में जन्म लेता है; गुरुपत्नीगामी तृण, गुल्म, लता आदि स्थावर
योनियों में सैकड़ों बार जन्म ग्रहण करता है तथा अभक्ष्य का भक्षण करने वाला कृमि
होता हैं | (देखिये मनुस्मृति १२|५४-५६,५८,५९) |
इस प्रकार परलोक एवं पुनर्जन्म के प्रतिपादक
अनेकों प्रमाण शास्त्रों में भरे पड़े हैं | उनको कहाँ तक लिखा जाए |
शेष आगामी पोस्ट में
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
से
# लोक परलोक
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