नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
द्वन्द्वारामेषु
भूतेषु गच्छन्त्येकैकशो नराः ।
इदमन्यत्
पदं पश्य मात्र मोहं करिष्यसि ॥ ४३ ॥
सभी प्राणी
सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें रम रहे हैं। मनुष्य उनमेंसे एक-एकका अनुभव करते हैं
अर्थात् किसीको सुखका अनुभव होता है, किसीको दुःखका । यह
जो ब्रह्म नामक वस्तु है, इसे सबसे भिन्न एवं विलक्षण समझो।
इसके विषयमें तुम्हें मोहग्रस्त नहीं होना चाहिये ॥ ४३ ॥
त्यज
धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज ।
उभे
सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज ॥ ४४ ॥
धर्म और
अधर्मको छोड़ो। सत्य और असत्य दोनोंका त्याग करो । सत्य और असत्य दोनोंका त्याग
करके जिससे त्याग करते हो,
उस अहंकारको भी त्याग दो ॥ ४४ ॥
एतत्
ते परमं गुह्यमाख्यातमृषिसत्तम ।
येन
देवाः परित्यज्य मर्त्यलोकं दिवं गताः ॥ ४५ ॥
मुनिश्रेष्ठ
! यह मैंने तुमसे परम गूढ़ बात बतलायी है, जिससे
देवतालोग
मर्त्यलोक छोड़कर स्वर्गलोकको चले गये ॥ ४५ ॥
नारदस्य
वचः श्रुत्वा शुकः परमबुद्धिमान् ।
सञ्चिन्त्य
मनसा धीरो निश्चयं नाध्यगच्छत ॥ ४६ ॥
नारदजीकी बात
सुनकर परम बुद्धिमान् और धीरचित्त शुकदेवजीने मन-ही-मन बहुत विचार किया; किंतु सहसा वे किसी निश्चयपर न पहुँच सके ॥ ४६ ॥
पुत्रदारैर्महान्
क्लेशो विद्याम्नाये महाञ्च्छ्रमः ।
किं
नु स्याच्छाश्वतं स्थानमल्पक्लेशं महोदयम् ॥ ४७ ॥
वे सोचने लगे, स्त्री- पुत्रोंके झमेलेमें पड़नेसे महान् क्लेश होगा । विद्याभ्यासमें भी
बहुत अधिक परिश्रम है। कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे सनातन पद
प्राप्त हो जाय। उस साधनमें क्लेश तो थोड़ा हो, किन्तु
अभ्युदय महान् हो ॥ ४७ ॥
ततो
मुहूर्तं सञ्चिन्त्य निश्चितां गतिमात्मनः ।
परावरज्ञो
धर्मस्य परां नैःश्रेयसीं गतिम् ॥ ४८ ॥
तदनन्तर
उन्होंने दो घड़ीतक अपनी निश्चित गतिके विषय में विचार किया; फिर भूत और भविष्य के ज्ञाता शुकदेवजीको अपने धर्मकी कल्याणमयी परम गतिका
निश्चय हो गया ॥ ४८ ॥
कथं
त्वहमसंश्लिष्टो गच्छेयं गतिमुत्तमाम् ।
नावर्तेयं
यथा भूयो योनिसङ्करसागरे ॥ ४९ ॥
फिर वे सोचने
लगे,
मैं सब प्रकारकी उपाधियोंसे मुक्त होकर किस प्रकार उस उत्तम गति को
प्राप्त करूँ, जहाँसे फिर इस संसार - सागरमें आना न पड़े ॥
४९ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से