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गुरुवार, 6 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 02)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
वैकुंठान्नापरो लोको न भूतो न भविष्यति ।
एकं वृंदावनं नाम वैकुंठाच्च परात्परम् ॥ १५ ॥
यत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ।
कालिन्दीनिकटे यत्र पुलिनं मंगलायनम् ॥ १६ ॥
बृहत्सानुर्गिरिर्यत्र यत्र नन्दीश्वरो गिरिः ।
क्रोशानां च चतुर्विंशद्विस्तृतैः काननैर्वृतम् ॥ १७ ॥
पशव्यं गोपगोपीनां गवां सेव्यं मनोहरम् ।
लताकुंजावृतं तद्वै वनं वृंदावनं स्मृतम् ॥ १८ ॥
नंद उवाच -
कदा व्रजोऽयं सन्नंद तीर्थराजेन पूजितः ।
एतद्वेदितुमिच्छामि परं कौतुहलं हि मे ॥ १९ ॥
सन्नंद उवाच -
शंखासुरो महादैत्यः पुरा नैमित्तिके लये ।
स्वपतो ब्रह्मणः सोऽपि वेदध्रुग्दैत्यपुंगवः ॥ २० ॥
जित्वा देवान् ब्रह्मलोकाद्धृत्वा वेदान् गतोऽर्णवे ।
गतेषु तेषु वेदेषु देवानां च गतं बलम् ॥ २१ ॥
तदा साक्षाद्धरिः पूर्णो धृत्वा मात्स्यं वपुः पुरम् ।
नैमित्तिकलयांभोधौ युयुधे तेन यज्ञराट् ॥ २२ ॥
वैकुण्ठ
से बढ़कर दूसरा कोई लोक न तो हुआ है और न आगे होगा। केवल एक 'वृन्दावन' ही ऐसा है, जो
वैकुण्ठ की अपेक्षा भी परात्पर (परम उत्कृष्ट) है । जहाँ 'गोवर्धन'
नाम से प्रसिद्ध गिरिराज विराजमान है, जहाँ
कालिन्दी के तटपर मङ्गलधाम पुलिन है, जहाँ बृहत्सानु
(बरसाना) पर्वत है तथा जहाँ नन्दीश्वर गिरि शोभा पाता है, जो
चौबीस कोस के विस्तार में स्थित तथा विशाल काननोंसे आवृत है; जो पशुओंके लिये हितकर, गोप-गोपी और गौओंके लिये
सेवन करनेयोग्य तथा लताकुज्जोंसे आवृत है, उस मनोहर बनको 'वृन्दावन' के नामसे स्मरण किया जाता है ।। १५ - १८ ॥
नन्दजीने
पूछा – सन्नन्दजी ! तीर्थराज प्रयागने कब इस व्रज की पूजा की है,
मैं यह जानना चाहता हूँ । इसे सुनने के लिये मेरे मनमें बड़ा
कौतूहल- बड़ी उत्कण्ठा है ॥ १९ ॥
सन्नन्द
बोले- नन्दराज ! पूर्वकालमें नैमित्तिक प्रलय के अवसर पर एक महान् दैत्य प्रकट हुआ,
जो शङ्खासुर के नामसे प्रसिद्ध था। वह वेदद्रोही दैत्यराज समस्त
देवताओं को जीतकर ब्रह्मलोक में गया और वहाँ सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की
पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा। वेदों के जाते ही देवताओं का सारा बल चला गया। तब
पूर्ण भगवान् यज्ञेश्वर श्रीहरिने मत्स्यरूप धारण करके नैमित्तिक प्रलयके सागरमें
उस शङ्खासुरके साथ युद्ध किया ॥ २०-२२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
बुधवार, 5 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
पहला अध्याय (पोस्ट 01)
कृष्णातीरे
कोकिलाकेलिकीरे
गुंजापुंजे देवपुष्पादिकुंजे ।
कंबुग्रीवौ क्षिप्तबाहू चलन्तौ
राधाकृष्णौ मंगलं मे भवेताम् ॥ १ ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ २ ॥
श्रीनारद उवाच -
एकदोपद्रवं वीक्ष्य नंदो नन्दान्सहायकान् ।
वृषभानूपनंदांश्च वृषभानुवरांस्तथा ॥ ३ ॥
समाहूय परान्वृद्धान् सभायां तानुवाच ह ।
नंद उवाच -
किं कर्तव्यं तु वदतोत्पाताः सन्ति महावने ॥ ४ ॥
श्रीनारद उवाच -
तेषां श्रुत्वाथ सन्नन्दो गोपो वृद्धोतिमंत्रवित् ।
अंके नीत्वा रामकृष्णौ नंदराजमुवाच ह ॥ ५ ॥
सन्नन्द उवाच -
उत्थातव्यमितोऽस्माभिः सर्वैः परिकरैः सह ।
गंतव्यं चान्यदेशेषु यत्रोत्पाता न संति हि ॥ ६ ॥
बालस्ते प्राणवत्कृष्णो जीवनं व्रजवासिनाम् ।
व्रजे धनं कुले दीपो मोहनो बाललीलया ॥ ७ ॥
हा बक्या शकटेनापि तृणावर्तेन बालकः ।
मुक्तोऽयं द्रुमपातेन ह्युत्पातं किमतः परम् ॥ ८ ॥
तस्माद्वृंदावनं सर्वैः गंतव्यं बालकैः सह ।
उत्पातेषु व्यतीतेषु पुनराग्मनं कुरु ॥ ९ ॥
नन्द उवाच -
कतिक्रोशैर्विस्तृतम् तद्वनं वृंदावनं व्रहात् ।
तल्लक्षणं तत्सुखं च वद बुद्धिमतां वर ॥ १० ॥
सन्नन्द उवाच -
प्रागुदीच्यां बर्हिषदो दक्षिणस्यां यदोः पुरात् ।
पश्चिमायां शोणितपुरान् माथुरं मंडलं विदुः ॥ ११ ॥
विंशद्योजनविस्तीर्णं सार्धं यद्योजनेन वै
माथुरं मंडलं दिव्यं व्रजमाहुर्मनीषिणः ॥ १२ ॥
मथुरायां शौरिगृहे गर्गाचार्यमुखाच्छ्रुतम् ।
माथुरं मंडलं दिव्यं तीर्थराजेन पूजितम् ॥ १३ ॥
वनेभ्यस्तत्र सर्वेभ्यो वनं वृंदावनं वरम् ।
परिपूर्णतमस्यापि लीलाक्रीडं मनोहरम् ॥ १४ ॥
श्रीयमुनाजी
के तटपर,
जहाँ कोकिलाएँ तथा क्रीडाशुक विचरते हैं, गुञ्जापुञ्जसे
विलसित देवपुष्प (पारिजात) आदिके कुञ्जमें, शङ्ख-सदृश सुन्दर
ग्रीवासे सुशोभित तथा एक-दूसरेके गलेमें बाँह डालकर चलनेवाले प्रिया-प्रियतम
श्रीराधा-कृष्ण मेरे लिये मङ्गलमय हों ॥ १ ॥
मैं
अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधा हो रहा था; जिन्होंने
ज्ञानरूपी अञ्जनकी शलाकासे मेरी आँखें खोल दी हैं, उन
श्रीगुरुदेवको नमस्कार है ॥ २ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! एक समयकी बात है— व्रजमें विविध उपद्रव होते देख नन्दराजने अपने
सहायक नन्दों, उपनन्दों, वृषभानुओं,
वृषभानु- वरों तथा अन्य बड़े-बूढ़े गोपोंको बुलाकर सभामें उनसे कहा
॥३॥
नन्द
बोले- गोपगण ! महावनमें तो बहुत-से उत्पात हो रहे हैं। बताइये,
हमलोगोंको इस समय क्या करना चाहिये ॥ ४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- यह सुनकर उन सबमें विशेष मन्त्रकुशल वृद्ध गोप सन्नन्दने बलराम और
श्रीकृष्णको गोदमें लेकर नन्दराजसे कहा ॥ ५ ॥
सन्नन्द
बोले—मेरे विचार से तो हमें अपने समस्त परिकरों के साथ यहाँसे उठ चलना चाहिये और
किसी दूसरे ऐसे स्थान में जाकर डेरा डालना चाहिये, जहाँ उत्पात की सम्भावना न हो। तुम्हारा बालक श्रीकृष्ण हम सबको प्राणोंके
समान प्रिय है, व्रजवासियों का जीवन है, व्रजका धन और गोपकुल का दीपक है और अपनी बाललीला से सबके मन को मोह
लेनेवाला है। हाय ! कितने खेदकी बात है कि इस बालकपर पूतना, शकट
और तृणावर्तका आक्रमण हुआ, फिर इसके ऊपर वृक्ष गिर पड़े;
इन सब संकटोंसे यह किसी प्रकार बचा है, इससे
बढ़कर उत्पात और क्या हो सकता है। इसलिये हमलोग अपने बालकोंके साथ वृन्दावनमें
चलें और जब उत्पात शान्त हो जायँ, तब फिर यहाँ आयें ॥ ६- ९॥
नन्दने
पूछा- बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सन्नन्दजी ! इस व्रजसे वृन्दावन कितनी दूर है ?
वह वन कितने कोसोंमें फैला हुआ है, उसका लक्षण
क्या है और वहाँ कौन-सा सुख सुलभ है ? यह सब बताइये ॥ १० ॥
सन्नन्द
बोले- बर्हिषत् से ईशानकोण, यदुपुरसे दक्षिण और
शोणपुरसे पश्चिमकी भूमिको 'माथुर-मण्डल' कहते हैं । मथुरामण्डलके भीतर साढ़े बीस योजन विस्तृत भूभागको मनीषी
पुरुषोंने 'दिव्य माथुर-मण्डल' या 'व्रज' बताया है ॥ ११-१२ ॥ एक बार मैं मथुरापुरी में वसुदेवजी के घर ठहरा
हुआ था; वहीं श्रीगर्गाचार्यजी के मुखसे मैंने सुना था कि
तीर्थराज प्रयाग ने भी इस दिव्य मथुरा-मण्डल की पूजा की है। यों तो मथुरा-मण्डलमें
बहुत से वन हैं किंतु उन सबसे श्रेष्ठ 'वृन्दावन' नामक वन है, जो परिपूर्णतम भगवान् के भी मनको हरण
करनेवाला लीला-क्रीडा- स्थल है ॥ १३-१४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
मंगलवार, 4 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
बीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
दुर्वासाद्वारा
भगवान् की माया का एवं गोलोक में श्रीकृष्ण का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र
श्रीकृष्णास्यापि
हसतः प्रविष्टस्तन्मुखे मुनिः ।
पुनर्विनिर्गतोऽपश्यद्बालं श्रीनंदनंदनम् ॥२१॥
कालिंदीनिकटे पुण्ये सैकते रमणस्थले ।
बालकैः सहितं कृष्णं विचरंतं महावने ॥२२॥
तदा मुनिश्च दुर्वासा ज्ञात्वा कृष्णं परात्परम् ।
श्रीनंदनंदनं नत्वा नत्वा प्राह कृतांजलिः ॥२३॥
मुनिरुवाच -
बालं नवीनशतपत्रविशालनेत्रं
बिंबाधरं सजलमेघरुचिं मनोज्ञम् ।
मंदस्मितं मधुरसुंदरमंदयानं
श्रीनंदनंदनमहं मनसा नमामि ॥२४॥
मंजीरनूपुररणन्नवरत्नकांची
श्रीहारकेसरिनखप्रतियंत्रसंघम् ।
दृष्ट्याऽऽर्तिहारिमषिबिन्दुविराजमानं
वंदे कलिंदतनुजातटबालकेलिम् ॥२५॥
पूर्णेन्दुसुंदरमुखोपरि कुंचिताग्राः
केशा नवीनघननीलनिभाः स्फुरंति ।
राजंत आनतशिरःकुमुदस्य यस्य
नंदात्मजाय सबलाय नमो नमस्ते ॥२६॥
श्रीनंदनंदनस्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
तन्नेत्रगोचरो याति सानंदं नंदनंदनः ॥२७॥
श्रीनारद उवाच -
इति प्रणम्य श्रीकृष्णं दुर्वासा मुनिसत्तमः ।
तं ध्यायन्प्रजपन्प्रागाद्बदर्याश्रममुत्तमम् ॥२८॥
इत्थं देवर्षिवर्येण नारदेन महात्मना ।
कथितं कृष्नचरितं बहुलाश्वाय धीमते ॥२९॥
मया थे कथितं ब्रह्मन् यशः कलिमलापहम् ।
चतुष्पदार्थदं दिव्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥३०॥
श्री शौनक उवाच -
बहुलाश्वो मैथिलेंद्रः किं पप्रच्छ महामुनिम् ।
नारदं ज्ञानदं शांतं तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३१॥
श्रीगर्ग उवाच -
नारदं ज्ञानदं नत्वा मानदो मैथिलो नृपः ।
पुनः पप्रच्छ कृष्णस्य चरितं मंगलायनम् ॥३२॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
श्रीकृष्णो भगवान्साक्षात्परमानंदविग्रहं ।
परं चकार किं चित्रं चरित्रं वद मे प्रभो ॥३३॥
पूर्वावतारैश्चरितं कृतं वै मंगलायनम् ।
अपरं किं तु कृष्णस्य पवित्रं चरितं परम् ॥३४॥
श्रीनारद उवाच -
साधु साधु त्वया पृष्टं चरित्रं मंगलं हरेः ।
तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि वृंदारण्ये च यद्यशः ॥३५॥
इदं गोलोकखंडं च गुह्यं परममद्भुतं ।
श्रीकृष्णेन प्रकथितं गोलोके रासमंडले ॥३६॥
निकुंजे राधिकायै च राधा मह्यं ददाविदम् ।
मया तुभ्यं श्रावितं च दत्तं सर्वार्थदं परम् ॥३७॥
इदं पठित्वा विप्रस्तु सर्वशास्त्रार्थगो भवेत् ।
श्रुत्वेदं चक्रवर्ती स्यात् क्षत्रियश्चंडविक्रमः ॥३८॥
वैश्यो निधिपतिर्भूयाच्छूद्रो मुच्येत बंधनात् ।
निष्कामो योऽपि जगति जीवन्मुक्तः स जायते ॥३९॥
यो नित्यं पठते सम्यग्भक्तिभावसमन्वितः ।
स गच्छेत्कृष्णचंद्रस्य गोलोकं प्रकृतेः परम् ॥४०॥
उन्हें
देखकर भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे । हँसते समय उनके श्वाससे खिंचकर दुर्वासा मुनि
उनके मुँहके भीतर पहुँच गये। उस मुखसे पुनः बाहर निकलनेपर उन्होंने उन्हीं
बालरूपधारी श्रीनन्दनन्दनको देखा, जो कालिन्दीके
निकटवर्ती पुण्य वालुकामय रमणस्थलीमें बालकोंके साथ विचर रहे थे। महावनमें
श्रीकृष्णका उस रूपमें दर्शन करके दुर्वासा मुनि यह समझ गये कि ये श्रीकृष्ण
साक्षात् परात्पर ब्रह्म हैं । फिर तो उन्होंने श्रीनन्दनन्दनको बार-बार नमस्कार
करके हाथ जोड़कर कहा ।। २१ - २३ ॥
श्रीमुनि
बोले- जिसके नेत्र नूतन विकसित शतदल कमलके समान विशाल हैं,
अधर बिम्बा- फलकी अरुणिमाको तिरस्कृत करनेवाले हैं तथा श्रीअङ्ग सजल
जलधरकी श्याममनोहर कान्तिको छीने लेते हैं, जिनके मुखपर मन्द
मुसकानकी दिव्य छटा छा रही है तथा जो सुन्दर मधुर मन्दगतिसे चल रहे हैं, उन बाल्यावस्थासे विलसित मनोज्ञ श्रीनन्दनन्दनको मैं मनसे प्रणाम करता हूँ
॥ २४॥
जिनके
चरणोंमें मञ्जीर और नूपुर झंकृत हो रहे हैं और कटिमें खनखनाती हुई नूतन
रत्ननिर्मित काञ्ची (करधनी) शोभा दे रही है; जो
बघनखासे युक्त यन्त्रसमुदाय तथा सुन्दर कण्ठहारसे सुशोभित हैं, जिनके भालदेशमें दृष्टि-जनित पीड़ा हर लेनेवाली कज्जलकी बेंदी शोभा दे रही
है तथा जो कलिन्दनन्दिनीके तटपर बालोचित क्रीड़ामें संलग्न हैं, उन श्रीहरिकी मैं वन्दना करता हूँ। ॥ २५॥
जिनके
पूर्णचन्द्रोपम सुन्दर मुखपर नूतन नीलघनकी श्याम विभाको तिरस्कृत करनेवाले
घुँघराले काले केश चमक रहे हैं, तथा जिनका
मस्तकरूपी मुकुद कुछ झुका हुआ है। उन आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण तथा आपके अग्रज
श्रीबलरामको मेरा बारंबार नमस्कार है । जो प्रातः काल उठकर इस 'श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र' का पाठ करता है, उसके नेत्रोंके समक्ष श्रीनन्दनन्दन
सानन्द
प्रकट होते हैं ।। २६ - २७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - इस प्रकार श्रीकृष्णको प्रणाम करके मुनिशिरोमणि दुर्वासा उन्हींका
ध्यान और जप करते हुए उत्तर में बदरिकाश्रम की ओर चले गये ।। २८ ।
श्रीगर्गजी
कहते हैं- शौनक ! इस प्रकार देवर्षिप्रवर महात्मा नारदने बुद्धिमान् राजा
बहुलाश्वको भगवान् श्रीकृष्णका चरित्र सुनाया था । ब्रह्मन् ! वह सब मैंने तुमसे
कह सुनाया । भगवान्का सुयश कलिकलुषका विनाश करनेवाला,
धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष-चारों पदार्थोंको देनेवाला तथा दिव्य (लोकातीत) है। अब तुम और क्या सुनना
चाहते हो ? ।। २९-३० ।।
शौनक
बोले– तपोधन ! इसके बाद मिथिलानरेश बहुलाश्वने शान्तस्वरूप,
ज्ञानदाता महामुनि नारदसे क्या पूछा, वही
प्रसङ्ग मुझसे कहिये ॥ ३१ ॥ श्रीगर्गजीने कहा— शौनक !
ज्ञानदाता
नारदजीको नमस्कार करके मानदाता मैथिलनरेशने पुनः उनसे श्रीकृष्णचरित्रके विषयमें,
जो मङ्गलका धाम है, प्रश्न किया ॥ ३२ ॥
श्रीबहुलाश्वने
पूछा – प्रभो ! परमानन्दविग्रह इसका पाठ करता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है। जो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने इसके बाद और
कौन- सम्यक् भक्तिभावसे युक्त हो नित्य इसका पाठ करता कौन-सी विचित्र लीलाएँ कीं,
यह मुझे बताइये। पूर्वके अवतारोंद्वारा भी मङ्गलमय चरित्र सम्पादित हुए
हैं। इस श्रीकृष्णावतारके द्वारा इसके बाद और कौन-कौन-से पवित्र चरित्र किये गये,
यह सब बताइये ।। ३३-३४ ।।
श्रीनारदजीने
कहा- राजन् ! तुम्हें अनेक साधुवाद हैं; क्योंकि
तुमने श्रीहरिके मङ्गलमय चरित्रके विषयमें प्रश्न किया है। वृन्दावनमें जो उनकी
यशोवर्धक लीलाएँ हुई हैं, उनका मैं वर्णन करूँगा ।। ३५ ।।
यह
गोलोकखण्ड अत्यन्त गोपनीय और परम अद्भुत है। गोलोकके रासमण्डलमें साक्षात्
श्रीकृष्णने इसका वर्णन किया था। इसे श्रीकृष्णने निकुञ्जमें राधिकाको सुनाया और
श्रीराधाने मुझे इसका ज्ञान प्रदान किया है। फिर मैंने तुमको वह सब सुना दिया। यह
गोलोकखण्डका वृत्तान्त सम्पूर्ण पदार्थोंको देनेवाला उत्कृष्ट साधन है। यदि
ब्राह्मण इसका पाठ करता है। तो वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका ज्ञाता होता है,
क्षत्रिय इसे सुने तो वह प्रचण्ड पराक्रमी चक्रवर्ती सम्राट् होता
है, वैश्य सुने तो वह निधिपति हो जाय और शूद्र सुने तो वह
संसारके बन्धनसे छुटकारा पा जाय ।। ३६-३८ ।।
जो
इस जगत् में फलकी कामनासे रहित होकर इसका पाठ करता है,
वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गोलोकधाममें, जो प्रकृतिसे
परे है, पहुँच जाता है । ।। ३५–४० ।।
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'दुर्वासाके द्वारा भगवान् की माया का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्रका
वर्णन' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
सोमवार, 3 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
बीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
दुर्वासाद्वारा
भगवान् की माया का एवं गोलोक में श्रीकृष्ण का दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र
श्रीनारद
उवाच -
एकदा कृष्णचंद्रस्य दर्शनार्थं परस्य च ।
दुर्वासा मुनिशार्दूलो व्रजमंडलमाययौ ॥१॥
कालिंदीनिकटे पुण्ये सैकते रमणस्थले ।
महावनसमीपे च कृष्णमाराद्ददर्श ह ॥२॥
श्रीमन्मदनगोपालं लुठंतं बालकैः सह ।
परस्परं प्रयुद्ध्यंतं बालकेलिं मनोहरम् ॥३॥
धूलिधूसरसर्वांगं वक्रकेशं दिगंबरम् ।
धावंतं बालकैः सार्द्धं हरिं वीक्ष्य स विस्मितः ॥४॥
श्रीमुनिरुवाच -
स ईश्वरोऽयं भगवान्कथं बालैर्लुठन् भुवि ।
अयं तु नंदपुत्रोऽस्ति न श्रीकृष्णः परात्परः ॥५॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं मोहं गते तत्र दुर्वाससि महामुनौ ।
क्रीडन्कृष्णस्तत्समीपे तदंके ह्यागतः स्वयम् ॥६॥
पुनर्विनिर्गतो ह्यंकाद्बालसिंहावलोकनः ।
हसन्कलं ब्रुवन्कृष्णः संमुखः पुनरागतः ॥७॥
हसतस्तस्य च मुखे प्रविष्टः श्वसनैर्मुनिः ।
ददर्शान्यं महालोकं सारण्यं जनवर्जितम् ॥८॥
अरण्येषु भ्रमंस्तत्र कुतः प्राप्त इति ब्रुवन् ।
तदैवाजगरेणापि निगीर्णोऽभून्महामुनिः ॥९॥
ब्रह्मांडं तत्र ददृशे सलोकं सबिलं परम् ।
भ्रमन्द्वीपेषु स मुनिः स्थितोऽभूत्पर्वते सिते ॥१०॥
तपस्तताप वर्षाणां शतकोटीः प्रभुं भजन् ।
नैमित्तिकाख्ये प्रलये प्राप्ते विश्वभयंकरे ॥११॥
आगच्छंतः समुद्रास्ते प्लावयंतो धरातलम् ।
वहंस्तेषु च दुर्वासा न प्रापांतं जलस्य च ॥१२॥
व्यतीते युगसाहस्त्रे मग्नोऽभूद्विगतस्मृतिः ।
पुनर्जलेषु विचरन्नंडमन्यं ददर्श ह ॥१३॥
तच्छिद्रे च प्रविष्टोऽसौ दिव्यां सृष्टिं गतस्ततः ।
तडंडमूर्ध्नि लोकेषु विधेरायुःसमं चरन् ॥१४॥
एव्ं छिद्रं तत्र वीक्ष्य प्राविशत्स हरिं स्मरन् ।
बहिर्विनिर्गतो ह्यंडाद्ददर्शाशु महाजलम् ॥१५॥
तस्मिन् जले तु लक्ष्यंते कोटिशो ह्यंडराशयः ।
ततो मुनिर्जलं पश्यन् ददर्श विरजां नदीम् ॥१६॥
तत्पारं प्रगतः साक्षाद्गोलोकं प्राविशन्मुनिः ।
वृंदावनं गोवर्द्धनं यमुनापुलिनं शुभम् ॥१७॥
दृष्ट्वा प्रसन्नः स मुनिर्निकुंजं प्राविशत्तदा ।
गोपगोपीगणवृतं गवां कोटिभिरन्वितम् ॥१८॥
असंख्यकोटिमार्तंड ज्योतिषां मंडले ततः ।
दिव्ये लक्षदले पद्मे स्थितं राधापतिं हरिम् ॥१९॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं पुरुषोत्तमम् ।
असंख्यब्रह्मांडपतिं गोलोकं स्वं ददर्श ह ॥२०॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! एक दिन मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन
करनेके लिये व्रजमण्डलमें आये। उन्होंने कालिन्दीके निकट पवित्र वालुकामय पुलिनके
रमणीय स्थलमें महावनके समीप श्रीकृष्णको निकटसे देखा । वे शोभाशाली मदनगोपाल
बालकोंके साथ वहाँ लोटते, परस्पर मल्ल-युद्ध
करते तथा भाँति-भाँति की बालोचित लीलाएँ करते थे। इन सब कारणोंसे वे बड़े मनोहर
जान पड़ते थे । उनके सारे अङ्ग धूलसे धूसरित थे। मस्तकपर काले घुँघराले केश शोभा
पाते थे।
दिगम्बर-वेषमें
बालकोंके साथ दौड़ते हुए श्रीहरिको देखकर दुर्वासाके मनमें बड़ा विस्मय हुआ । १ –
४ ॥
श्रीमुनि
( मन-ही-मन ) कहने लगे - क्या यह वही षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न ईश्वर है ?
फिर यह बालकोंके साथ धरतीपर क्यों लोट रहा है ? मेरी समझमें यह केवल नन्दका पुत्र है, परात्पर
श्रीकृष्ण नहीं है ॥ ५ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! जब महामुनि दुर्वासा इस प्रकार मोहमें पड़ गये,
तब खेलते हुए श्रीकृष्ण स्वयं उनके पास उनकी गोदमें आ गये । फिर
उनकी गोद से हट गये। श्रीकृष्णकी दृष्टि बाल-सिंहके समान थी। वे हँसते और मधुर वचन
बोलते हुए पुनः मुनिके सम्मुख आ गये ॥ ६-७ ॥
हँसते
हुए श्रीकृष्णके श्वाससे खिंचकर मुनि उनके मुँहमें समा गये। वहाँ जाकर उन्होंने एक
विशाल लोक देखा, जिसमें अरण्य और निर्जन प्रदेश भी
दृष्टिगोचर हो रहे थे। उन अरण्यों (जंगलों) में भ्रमण करते हुए मुनि बोल उठे - 'मैं कहाँसे यहाँ आ गया ? इतनेमें ही उन महामुनिको एक
अजगर निगल गया। उसके पेटमें पहुँचनेपर मुनिने वहाँ सातों लोकों और पातालोंसहित
समूचे ब्रह्माण्डका दर्शन किया। उसके द्वीपोंमें भ्रमण करते हुए दुर्वासा मुनि एक
श्वेत पर्वतपर ठहर गये ॥ ८ - १०॥
उस
पर्वतपर शतकोटि वर्षोंतक भगवान्का भजन करते हुए वे तप करते रहे। इतनेमें ही
सम्पूर्ण विश्वके लिये भयंकर नैमित्तिक प्रलयका समय आ पहुँचा। समुद्र सब ओरसे
धरातलको डुबाते हुए मुनिके पास आ गये । दुर्वासा मुनि उन समुद्रोंमें बहने लगे।
उन्हें जलका कहीं अन्त नहीं मिलता था ॥ ११ - १२॥
इसी
अवस्थामें एक सहस्र युग व्यतीत हो गये । तदनन्तर मुनि एकार्णवके जलमें डूब गये।
उनकी स्मृति-शक्ति नष्ट हो गयी। फिर वे पानीके भीतर विचरने लगे। वहाँ उन्हें एक
दूसरे ही ब्रह्माण्डका दर्शन हुआ। उस ब्रह्माण्डके छिद्रमें प्रवेश करनेपर वे
दिव्य सृष्टिमें जा पहुँचे । वहाँसे उस ब्रह्माण्डके शिरोभागमें विद्यमान लोकोंमें
ब्रह्माकी आयु पर्यन्त विचरते रहे। इसी प्रकार वहाँ एक छिद्र देखकर श्रीहरिका
स्मरण करते हुए वे उसके भीतर घुस गये। घुसते ही उस ब्रह्माण्डके बाहर आ निकले। फिर
तत्काल उन्हें महती जलराशि दिखायी दी ॥ १३ - १५॥
उस
जलराशिमें उन्हें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी राशियाँ बहती दिखायी दीं। तब मुनिने
जलको ध्यानसे देखा तो उन्हें वहाँ विरजा नदीका दर्शन हुआ। उस नदीके पार पहुँचकर
मुनिने साक्षात् गोलोकमें प्रवेश किया । वहाँ उन्हें क्रमशः वृन्दावन,
गोवर्धन और सुन्दर यमुनापुलिनका दर्शन करके बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर
वे मुनि जब निकुञ्जके भीतर घुसे, तब उन्होंने अनन्त कोटि
मार्तण्डोंके समान ज्योति मण्डल के अंदर दिव्य लक्षदल कमलपर विराजमान साक्षात्
परिपूर्णतम पुरुषोत्तम राधावल्लभ भगवान् श्रीकृष्णको देखा, जो
असंख्य गोप-गोपियोंसे घिरे तथा कोटि-कोटि गौओंसे सम्पन्न थे । असंख्य
ब्रह्माण्डोंके अधिपति उन भगवान् श्रीहरिके साथ ही उनके गोलोकका भी मुनिको दर्शन
हुआ ।। १६–२० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
रविवार, 2 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
उन्नीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
दामोदर
कृष्णका उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार
बाला
ऊचुः
अनेन पातितौ वृक्षौ ताभ्यां द्वौ पुरुषौ स्थितौ ।
एनं नत्वा गतावद्य तावुदीच्यां स्फुरत्प्रभौ ॥२३॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तेषां न ते श्रद्दधिरे ततः ।
मुमोच नंदः स्वं बालं दाम्ना बद्धमुलूखले ॥२४॥
संलालयन्स्वांकदेशे समाघ्राय शिशुं नृप ।
निर्भर्त्स्य भामिनीं नंदो विप्रेभ्यो गोशतं ददौ ॥२५॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
काविमौ पुरुषौ दिव्यौ वद देवर्षिसत्तम ।
केन दोषेण वृक्षत्वं प्रापितौ यमलार्जुनौ ॥२६॥
श्रीनारद उवाच -
नलकूबरमणिग्रीवौ राजराजसुतौ परौ ।
जग्मतुर्नंदनवनं मंदाकिन्यास्तटे स्थितौ ॥२७॥
अप्सरोभिर्गीयमानौ चेरतुर्गतवाससौ ।
वारुणीमदिरामत्तौ युवानौ द्रव्यदर्पितौ ॥२८॥
कदाचिद्देवलो नाम मुनींद्रो वेदपारगः ।
नग्नौ दृष्ट्वा च तावाह दुष्टशीलौ गतस्मृती ॥२९॥
देवल उवाच -
युवां वृक्षसमौ दृष्टौ निर्लज्जौ द्रव्यदर्पितौ ।
तस्माद्वृक्षौ तु भूयास्तां वर्षाणां शतकं भुवि ॥३०॥
द्वापरांते भारते च माथुरे व्रजमंडले ।
कलिंदनंदिनीतीरे महावनसमीपतः ॥३१॥
परिपूर्णतमं साक्षात्कृष्णं दामोदरं हरिम् ।
गोलोकनाथं तं दृष्ट्वा पूर्वरूपौ भविष्यथः ॥३२॥
इत्थं देवलशापेन वृक्षत्वं प्रापितौ नृप ।
नलकूबरमणिग्रीवौ श्रीकृष्णेन विमोचितौ ॥३३॥
बालकोंने कहा – इस कन्हैयाने ही दोनों वृक्षोंको
गिराया है। उन वृक्षोंसे दो पुरुष निकलकर यहाँ खड़े थे,
जो इसे नमस्कार करके अभी-अभी उत्तर दिशाकी ओर गये हैं। उनके
अङ्गोंसे दीप्तिमती प्रभा निकल रही थी ॥ २३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! ग्वाल-बालोंकी यह बात सुनकर उन बड़े-बूढ़े गोपोंने उसपर विश्वास
नहीं किया। नन्दजीने ओखलीमें रस्सीसे बँधे हुए अपने बालकको खोल दिया और लाड़-प्यार
करते हुए गोद में उठाकर उस शिशुको सूँघने लगे। नरेश्वर ! नन्दजीने अपनी पत्नीको
बहुत उलाहना दिया और ब्राह्मणोंको सौ गायें दानके रूपमें दीं ।। २४-२५॥
बहुलाश्वने
कहा- देवर्षिप्रवर ! वे दोनों दिव्य पुरुष कौन थे, यह बताइये । किस दोषके कारण उन्हें यमलार्जुनवृक्ष होना पड़ा था ।। २६ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! वे दोनों कुबेरके श्रेष्ठ पुत्र थे,
जिनका नाम था - 'नलकूबर' और 'मणिग्रीव'। एक दिन वे
नन्दनवनमें गये और वहाँ मन्दाकिनीके तटपर ठहरे। वहाँ अप्सराएँ उनके गुण गाती रहीं
और वे दोनों वारुणी मदिरासे मतवाले होकर वहाँ नंग-धड़ंग विचरते रहे। एक तो उनकी
युवावस्था थी और दूसरे वे द्रव्य के दर्प (धन के मद) से दर्पित (उन्मत्त ) थे। उसी
अवसर पर किसी काल में 'देवल' नामधारी
मुनीन्द्र, जो वेदोंके पारंगत विद्वान् थे, उधर आ निकले । उन दोनों कुबेर-पुत्रोंको नम देखकर ऋषिने उनसे कहा— 'तुम दोनोंके स्वभावमें दुष्टता भरी है । तुम दोनों अपनी सुध-बुध खो बैठे
हो । २७ - २९॥
इतना
कहकर देवलजी फिर बोले- तुम दोनों वृक्षके समान जड, धृष्ट तथा निर्लज्ज हो । तुम्हें अपने द्रव्यका बड़ा घमंड है; अतः तुम दोनों इस भूतलपर सौ (दिव्य) वर्षोंतकके लिये वृक्ष हो जाओ। जब
द्वापरके अन्तमें भारतवर्षके भीतर मथुरा जनपदके व्रज-मण्डलमें कलिन्दनन्दिनी
यमुनाके तटपर महावनके समीप तुम दोनों साक्षात् परिपूर्णतम दामोदर हरि गोलोकनाथ
श्रीकृष्णका दर्शन करोगे, तब तुम्हें अपने पूर्वस्वरूपकी
प्राप्ति हो जायगी ॥ ३०-३२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— नरेश्वर ! इस प्रकार देवलके शापसे वृक्षभावको प्राप्त हुए नलकूबर और
मणिग्रीवका श्रीकृष्णने उद्धार किया ॥ ३३ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें
यमलार्जुन-मोचन'
नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १९ ।।
शेष
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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
शनिवार, 1 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
उन्नीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
दामोदर
कृष्णका उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार
श्रीनारद
उवाच -
इत्युक्तायां यशोदायां व्यग्रायां गृहकर्मसु ।
कर्षन्नुलूखलं कृष्णो बालैः श्रीयमुनां ययौ ॥१४॥
तत्तटे च महावृक्षौ पुराणौ यमलार्जुनौ ।
तयोर्मध्ये गतः कृष्णो हसन् दामोदरः प्रभुः ॥१५॥
चकर्ष सहसा कृष्णस्तिर्यग्गतमुलूखलम् ।
कर्षणेन समूलौ द्वौ पेततुर्भूमिमंडले ॥१६॥
पातनेनापि शब्दोऽभूत्प्रचंडो वज्रपातवत् ।
विनिर्गतौ च वृक्षाभ्यां देवौ द्वावेधसोऽग्निवत् ॥१७॥
दामोदरं परिक्रम्य पादौ स्पृष्टौ स्वमौलिना ।
कृतांजली हरिं नत्वा तौ तु तत्संमुखे स्थितौ ॥१८॥
देवावूचतुः -
आवां मुक्तौ ब्रह्मदण्डात्सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात् ।
माभूत्ते निजभक्तानां हेलनं ह्यावयोर्हरे ॥१९॥
करुणानिधये तुभ्यं जगन्मंगलशीलिने ।
दामोदराय कृष्णाय गोविंदाय नमो नमः ॥२०॥
श्रीनारद उवाच -
इति नत्वा हरिं तौ द्वावुदीचीं च दिशं गतौ ।
तदैव ह्यागताः सर्वे नंदाद्या भयकातराः ॥२१॥
कथं वृक्षौ प्रपतितौ विना वातं व्रजार्भकाः ।
वदताशु तदा बाला ऊचुः सर्वे व्रजौकसः ॥२२॥
श्रीनारदजी
कहते हैं-नरेश्वर ! उन गोपियोंके यों कहनेपर यशोदाजी कुछ नहीं बोलीं । वे घरके
काम- धंधोंमें लग गयीं। इसी बीच मौका पाकर श्रीकृष्ण ग्वाल-बालोंके साथ वह ओखली
खींचते हुए श्रीयमुनाजीके किनारे चले गये। यमुनाजीके तटपर दो पुराने विशाल वृक्ष
थे,
जो एक-दूसरेसे जुड़े हुए खड़े थे। वे दोनों ही अर्जुन-वृक्ष थे।
दामोदर भगवान् कृष्ण हँसते हुए उन दोनों वृक्षोंके बीचमेंसे निकल गये । ओखली वहाँ
टेढ़ी हो गयी थी, तथापि श्रीकृष्णने सहसा उसे खींचा।
खींचनेसे दबाव पाकर वे दोनों वृक्ष जड़सहित उखड़कर पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १४ - १६॥
वृक्षोंके
गिरनेसे जो धमाकेकी आवाज हुई, वह वज्रपातके
समान भयंकर थी। उन वृक्षोंसे दो देवता निकले - ठीक उसी तरह जैसे काष्ठसे अग्नि
प्रकट हुई हो। उन दोनों देवताओंने दामोदरकी परिक्रमा करके अपने मुकुटसे उनके पैर
छुए और दोनों हाथ जोड़े। वे उन श्रीहरिके समक्ष नतमस्तक खड़े हो इस प्रकार बोले ।
१७ - १८ ॥
दोनों
देवता कहने लगे-अच्युत ! आपके दर्शन से हम दोनों को इसी क्षण ब्रह्मदण्ड से मुक्ति
मिली है। हरे ! अब हम दोनों से आपके निज भक्तों- की अवहेलना न हो। आप करुणा की
निधि हैं । जगत् का मङ्गल करना आपका स्वभाव है । आप 'दामोदर', 'कृष्ण' और 'गोविन्द' को हमारा बारंबार नमस्कार है ॥। १९-२० ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार श्रीहरिको नमस्कार करके वे दोनों देवकुमार उत्तर
दिशाकी ओर चल दिये। उसी समय भयसे कातर हुए नन्द आदि समस्त गोप वहाँ आ पहुँचे। वे
पूछने लगे — 'व्रजबालको ! बिना आँधी-पानीके ये
दोनों वृक्ष कैसे गिर पड़े ? शीघ्र बताओ ।' तब उन समस्त व्रजवासी बालकोंने कहा ।। २१-२२ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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