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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट
02)
गोपों का श्रीकृष्ण के विषय में संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज
एवं वृषभानुवर के द्वारा समाधान
शुक्लो रक्तस्तथा पीतो
वर्णोऽस्यानुयुगं धृतः ।
द्वापरांते कलेरादौ बालोऽयं कृष्णतां गतः ॥१३॥
तस्मात्कृष्ण इति ख्यातो नाम्नायं नन्दनन्दनः ।
वसवश्चेन्द्रियाणीति तद्देवश्चित्त एव हि ॥१४॥
तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः ॥१५॥
वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमन्दिरे ।
तस्याः पतिरयं साक्षात्तेन राधापतिः स्मृतः ॥१६॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते ॥१७॥
सोऽयं तव शिशुर्जातो भारावतरणाय च ।
कंसादीनां वधार्थाय भक्तानां पालनाय च ॥१८॥
अनन्तान्यस्य नामानि वेदगुह्यानि भारत ।
लीलाभिश्च भविष्यन्ति तत्कर्मसु न विस्मयः ॥१९॥
इति श्रुत्वाऽऽत्मजे गोपाः सन्देहं न करोम्यहम् ।
वेदवाक्यं ब्रह्मवचः प्रमाणं हि महीतले ॥२०॥
गोपा ऊचुः -
यद्यागतस्तव गृहे गर्गाचार्यो महामुनिः ।
तत्क्षणे नामकरणे नाहूता ज्ञातयस्त्वया ॥२१॥
स्वगृहे नामकरणं भवता च कृतं शिशोः ।
तव चैतादृशी रीतिर्गुप्तं सर्वं गृहेऽपि यत् ॥२२॥
श्रीनारद उवाच -
एवं वदंतस्ते गोपा निर्गता नन्दमन्दिरात् ।
वृषभानुवरं जग्मुः क्रोधपूरितविग्रहाः ॥२३॥
वृषभानुवरं साक्षान्नन्दराजसहायकम् ।
प्राहुर्गोपगणाः सर्वे ज्ञातेर्मदसमन्विताः ॥२४॥
गोपा ऊचुः -
वृषभानुवर त्वं वै ज्ञातिमुख्यो महामनाः ।
नन्दराजं त्यज ज्ञातेर्हे गोपेश्वर भूपते ॥२५॥
युग के अनुसार इसका वर्ण सत्ययुग में 'शुक्ल', त्रेतामें 'रक्त' तथा द्वापरमें 'पीत' होता आया है। इस
समय द्वापर के अन्त और कलियुग के आदि में यह बालक 'कृष्ण' रूप को प्राप्त हुआ है,
इस कारण से यह नन्दनन्दन 'कृष्ण' नामसे विख्यात है । पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन,
बुद्धि, चित्त — ये तीन प्रकारके अन्तःकरण 'आठ वसु' कहे गये हैं। इनके अधिष्ठाता देवता
भी इसी नामसे प्रसिद्ध हैं। इन वसुओंमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित होकर ये श्रीकृष्णदेव
ही चेष्टा करते हैं, इसलिये इन्हें 'वासुदेव' कहा गया है ।। १३-१५
॥
"वृषभानुनन्दिनी राधा" जो कीर्ति के भवन में प्रकट हुई है, उसके साक्षात् पति
ये ही हैं; इसलिये इन्हें 'राधापति' भी कहा गया है ॥ १६ ॥
ये साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण असंख्य ब्रह्माण्डोंके
अधिपति हैं और सर्वत्र व्यापक होते हुए भी स्वरूपसे गोलोक - धाममें विराजते हैं। नन्द
! वे ही ये भगवान् भूतल का भार उतारने, कंसादि दैत्योंको मारने
तथा भक्तों का पालन करने के लिये तुम्हारे
पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं ॥ १७-१८ ॥
भरतवंशी नन्द ! इस बालक के अनन्त
नाम हैं, जो वेदों के लिये भी गोपनीय हैं तथा इसकी लीलाओंके अनुसार
और भी बहुत-से नाम विख्यात होंगे। अतः इसके कितने ही महान् विलक्षण कर्म क्यों न हों,
उनके सम्बन्धमें कोई विस्मय नहीं करना चाहिये। गोपगण ! अपने पुत्रके विषयमें गर्गजीकी
कही हुई इस बातको सुनकर मैं कभी संदेह नहीं करता; क्योंकि पृथ्वीपर वेद वाक्य और ब्राह्मण-वचन
ही प्रमाण हैं" ।। १९-२० ॥
गोप बोले- यदि महामुनि गर्गाचार्य तुम्हारे घर आये
थे, तब उसी समय नामकरण संस्कारमें तुमने भाई-बन्धुओंको क्यों नहीं बुलाया ? चुपचाप
अपने घरमें ही बालकका नामकरण संस्कार कर लिया। यह तुम्हारी अच्छी रीति है कि सारा कार्य
घरमें ही गुप-चुप कर लिया जाय ॥ २१-२२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! यों कहकर क्रोधसे भरे
हुए गोप नन्दमन्दिर से निकलकर वृषभानुवरके
पास गये। वृषभानुवर नन्दराजके साक्षात सहायक थे, तथापि इसकी परवाह न करके जातीय संघटनके
बलसे उन्मत्त हुए गोप उनके पास जाकर बोले ।। २३-२४ ॥
गोपोंने कहा- हे वृषभानुवर ! तुम हमारे जातिवर्गमें
प्रधान और महामनस्वी हो । अतः गोपेश्व भूपाल! तुम नन्दराजको जातिसे अलग कर दो ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से