बुधवार, 26 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट३)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

इति तच्चिन्तया किञ्चिन्म्लानश्रियमधोमुखम्
शण्डामर्कावौशनसौ विविक्त इति होचतुः ||४८||
जितं त्वयैकेन जगत्त्रयं भ्रुवो-
र्विजृम्भणत्रस्तसमस्तधिष्ण्यपम्
न तस्य चिन्त्यं तव नाथ चक्ष्वहे
न वै शिशूनां गुणदोषयोः पदम् ||४९||
इमं तु पाशैर्वरुणस्य बद्ध्वा
निधेहि भीतो न पलायते यथा
बुद्धिश्च पुंसो वयसार्यसेवया
यावद्गुरुर्भार्गव आगमिष्यति ||५०||

इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही॥ ४८ ॥ स्वामी ! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करनेपर ही सारे लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चोंके खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोचने की कोई बात है ॥ ४९ ॥ जब तक हमारे पिता शुक्राचार्य जी नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाय। इसलिये इसे वरुणके पाशों से बाँध रखिये। प्राय: ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है॥ ५० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट२)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

चिन्तां दीर्घतमां प्राप्तस्तत्कर्तुं नाभ्यपद्यत
एष मे बह्वसाधूक्तो वधोपायाश्च निर्मिताः
तैस्तैद्रोहैरसद्धर्मैर्मुक्तः स्वेनैव तेजसा ||४५||
वर्तमानोऽविदूरे वै बालोऽप्यजडधीरयम्
न विस्मरति मेऽनार्यं शुनः शेप इव प्रभुः ||४६||
अप्रमेयानुभावोऽयमकुतश्चिद्भयोऽमरः
नूनमेतद्विरोधेन मृत्युर्मे भविता न वा ||४७||

वह (हिरण्यकशिपु ) सोचने लगा—‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा- भला कहा, मार डालने के बहुत-से उपाय किये। परंतु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारों से बिना किसी की सहायता से अपने प्रभाव से ही बचता गया ॥ ४५ ॥ यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही नि:शङ्क भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुन:शेप[*] अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा ॥ ४६ ॥ न तो यह किसी से डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो॥ ४७ ॥
......................................
[*] शुन:शेप अजीगर्त का मँझला पुत्र था। उसे पिता ने वरुण के यज्ञ में बलि देने के लिये हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व के हाथ बेच दिया था। तब उसके मामा विश्वामित्रजी ने उसकी रक्षा की और वह अपने पिता से विरुद्ध होकर उनके विपक्षी विश्वामित्रजी के ही गोत्र में हो गया। यह कथा आगे नवम स्कन्धके सातवें अध्याय में आवेगी।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 25 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

प्रयासेऽपहते तस्मिन्दैत्येन्द्रः परिशङ्कितः
चकार तद्वधोपायान्निर्बन्धेन युधिष्ठिर ||४२||
दिग्गजैर्दन्दशूकेन्द्रैरभिचारावपातनैः
मायाभिः सन्निरोधैश्च गरदानैरभोजनैः ||४३||
हिमवाय्वग्निसलिलैः पर्वताक्रमणैरपि
न शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम् ||४४||

युधिष्ठिर ! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शङ्का हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालनेके लिये बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा ॥ ४२ ॥ उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डँसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाडक़ी चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया ॥ ४३ ॥ बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्रमें बारी-बारीसे डलवाया, आँधीमें छोड़ दिया तथा पर्वतोंके नीचे दबवा दिया; परंतु इनमेंसे किसी भी उपायसे वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लादका बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मारने के लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा ॥ ४४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
नैर्ॠतास्ते समादिष्टा भर्त्रा वै शूलपाणयः
तिग्मदंष्ट्रकरालास्यास्ताम्रश्मश्रुशिरोरुहाः ||३९||
नदन्तो भैरवं नादं छिन्धि भिन्धीति वादिनः
आसीनं चाहनन्शूलैः प्रह्लादं सर्वमर्मसु ||४०||
परे ब्रह्मण्यनिर्देश्ये भगवत्यखिलात्मनि
युक्तात्मन्यफला आसन्नपुण्यस्येव सत्क्रियाः ||४१||

जब हिरण्यकशिपु ने दैत्योंको इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल- लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशोंवाले दैत्य हाथोंमें त्रिशूल ले-लेकर मारो, काटो’—इस प्रकार बड़े जोरसे चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानोंमें शूलसे घाव कर रहे थे ॥ ३९-४० ॥ उस समय प्रह्लादजी का चित्त उन परमात्मामें लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं ॥ ४१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 24 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ||३२||
इत्युक्त्वोपरतं पुत्रं हिरण्यकशिपू रुषा
अन्धीकृतात्मा स्वोत्सङ्गान्निरस्यत महीतले ||३३|
आहामर्षरुषाविष्टः कषायीभूतलोचनः
वध्यतामाश्वयं वध्यो निःसारयत नैर्ॠताः ||३४||
अयं मे भ्रातृहा सोऽयं हित्वा स्वान्सुहृदोऽधमः
पितृव्यहन्तुः पादौ यो विष्णोर्दासवदर्चति ||३५||
विष्णोर्वा साध्वसौ किं नु करिष्यत्यसमञ्जसः
सौहृदं दुस्त्यजं पित्रोरहाद्यः पञ्चहायनः ||३६||
परोऽप्यपत्यं हितकृद्यथौषधं
स्वदेहजोऽप्यामयवत्सुतोऽहितः
छिन्द्यात्तदङ्गं यदुतात्मनोऽहितं
शेषं सुखं जीवति यद्विवर्जनात्       ||३७||
सर्वैरुपायैर्हन्तव्यः सम्भोजशयनासनैः
सुहृल्लिङ्गधरः शत्रुर्मुनेर्दुष्टमिवेन्द्रियम् ||३८||

जिनकी बुद्धि भगवान्‌ के चरणकमलोंका स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थका सर्वथा नाश हो जाता है। परंतु जो लोग अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणोंकी धूलमें स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती ॥ ३२ ॥
प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमिपर पटक दिया ॥ ३३ ॥ प्रह्लाद की बात को वह सह न सका । रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगादैत्यो ! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालनेयोग्य है ॥ ३४ ॥ देखो तो सहीजिसने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्- स्वजनों को छोडक़र यह नीच दास के समान उसी विष्णु के चरणोंकी पूजा करता है ! हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारनेवाला विष्णु ही आ गया है ॥ ३५ ॥ अब यह विश्वासके योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिसने अपने माता-पिताके दुस्त्यज वात्सल्यस्नेह को भुला दियावह कृतघ्न भला, विष्णु का ही क्या हित करेगा ॥ ३६ ॥ कोई दूसरा भी यदि औषधके समान भलाई करे तो वह एक प्रकारसे पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोगके समान वह शत्रु है। अपने शरीरके ही किसी अङ्गसे सारे शरीरको हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देने से शेष शरीर सुख से जी सकता है ॥ ३७ ॥ यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोगलोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करनेवाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो॥ ३८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

श्रीगुरुपुत्र उवाच
न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं सुतो वदत्येष तवेन्द्र शत्रो
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः ||२८||

श्रीनारद उवाच
गुरुणैवं प्रतिप्रोक्तो भूय आहासुरः सुतम्
न चेद्गुरुमुखीयं ते कुतोऽभद्रा सती मतिः ||२९||

श्रीप्रह्लाद उवाच
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ||३०||
न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिरर्थमानिनः
अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना-
स्तेऽपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धाः ||३१||

गुरुपुत्रने कहाइन्द्रशत्रो ! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन् ! यह तो इस की जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है । आप क्रोध शान्त कीजिये । व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये ॥ २८ ॥
नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर ! जब गुरुजी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा—‘क्यों रे ! यदि तुझे ऐसी अहित करनेवाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँसे प्राप्त हुई ?’ ॥ २९ ॥
प्रह्लादजीने कहापिताजी ! संसारके लोग तो पिसे हुएको पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वशमें न होनेके कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप घोर नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगोंके सङ्ग से भगवान्‌ श्रीकृष्णमें नहीं लगती ॥ ३० ॥ जो इन्द्रियों से दीखनेवाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढेमें गिरनेके लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सीकेकाम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान्‌ विष्णु ही हैंउन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थोंकी प्राप्ति हो सकती है ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 23 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

हिरण्यकशिपुरुवाच
प्रह्रादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम्
कालेनैतावतायुष्मन्यदशिक्षद्गुरोर्भवान् ||२२||

श्रीप्रह्लाद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||२३||
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ||२४||
निशम्यैतत्सुतवचो हिरण्यकशिपुस्तदा
गुरुपुत्रमुवाचेदं रुषा प्रस्फुरिताधरः ||२५||
ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते विपक्षं श्रयतासता
असारं ग्राहितो बालो मामनादृत्य दुर्मते ||२६||
सन्ति ह्यसाधवो लोके दुर्मैत्राश्छद्मवेषिणः
तेषामुदेत्यघं काले रोगः पातकिनामिव ||२७||

हिरण्यकशिपुने कहाचिरञ्जीव बेटा प्रह्लाद ! इतने दिनों में तुमने गुरुजी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमेंसे कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ ॥ २२ ॥
प्रह्लादजी ने कहापिताजी ! विष्णुभगवान्‌ की भक्ति के नौ भेद हैंभगवान्‌ के गुण-लीला- नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन । यदि भगवान्‌ के प्रति समर्पण के भावसे यह नौ प्रकारकी भक्ति की जाय, तो मैं उसीको उत्तम अध्ययन समझता हूँ ॥ २३-२४ ॥ प्रह्लादकी यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फडक़ने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा॥ २५ ॥ रे नीच ब्राह्मण ! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि ! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी ? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है ॥ २६ ॥ संसारमें ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परंतु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करनेवालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से






श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

तत एनं गुरुर्ज्ञात्वा ज्ञातज्ञेयचतुष्टयम्
दैत्येन्द्रं दर्शयामास मातृमृष्टमलङ्कृतम् ||१९||
पादयोः पतितं बालं प्रतिनन्द्याशिषासुरः
परिष्वज्य चिरं दोर्भ्यां परमामाप निर्वृतिम् ||२०||
आरोप्याङ्कमवघ्राय मूर्धन्यश्रुकलाम्बुभिः
आसिञ्चन्विकसद्वक्त्रमिदमाह युधिष्ठिर ||२१||

कुछ समय के बाद जब गुरुजी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी मा के पास ले गये । माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने-कपड़ों से सजा दिया । इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये ॥ १९ ॥ प्रह्लाद अपने पिता के चरणों में लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था ॥ २० ॥ युधिष्ठिर ! हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...